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शंका ३ और उसका समाधान
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प्राक् शुभपरिणामाः सरागसंयमादयः व्याख्याताः । ते देवस्यायुष आस्रवहेतवो भवन्तीति
संक्षेपः ।
पहले शुभपरिणाम सरागसंयमादिक कह आये हैं, वे देवाचुके आस्रषके हेतु है यह इस सूत्र का संक्षेप है ।
अतः तत्त्वार्थसूत्रके उक्त वचन के आधार पर तो अशुभरो निवृतिरूप और शुभमें प्रवृतिरूप व्रतको संबर - निर्जराका कारण कहा नहीं जा सकता । अब रहे पुरुषार्थसिद्धयुपाय रत्नकरण्ड श्रावकाचार रथणसार और चारित्र प्रमाणही अन्तर्भाव होता हैं । इन सभी प्रमाणों द्वारा निश्चय सम्यक्चारित्रके साथ होनेवाले व्यवहार सम्यक् चारित्रका ही स्वरूप निर्देश किया गया है ।
प्रत्येक जैन आगमाभ्यासीको उक्त प्रमाणोंके प्रकाश में यह अच्छी तरह ज्ञात है कि निश्चयस्वरूप चारित्र, संयम तथा धर्मध्यान संवर- निर्जरा एवं मोक्षसिद्धिके कारण हैं । व्यवहार नयसे कहे गये चारित्र, संयम तथा धर्मध्यान नहीं। ये तो स्वयं आसव होनेमे बन्धके ही कारण हैं। पवहार नयसे कहे गये व्रतोंका व्यवहार चारित्र, संयम और धर्मध्यान में ही अन्तर्भाव होता है, अतः इनसे संबर - निर्जरा और मोक्षकी निश्चयसे सिद्धि होती है ऐसा कहना सर्वथा आगमविरुद्ध है ।
हमें प्रसन्नता है कि रागग्रहित प्रवृत्यंशकी अपेक्षा अदर पक्षने व्रतोंको आस्रवन्बन्धका हेतु मान लिया है। किन्तु उस मक्षका यह लिखना कि 'दत्तादानग्रहण, सत्यभाषण आदि रूप जो रागसहित प्रवृत्यंश है उसका इन व्रतों में ग्रहण नहीं किया गया है' सर्वथा आगमविरुद्ध है। मालूम पड़ता है कि अपर पक्ष ऐसा लिखकर व्यवहार में व्रतरूपसे स्वीकृत पूजा, भक्ति, दान, स्वाध्याय, दया आदि सभी सत्प्रवृत्तिरूप व्यवहार
की उपेक्षा कर देना चाहता है। ये सभी दत्तादान और सत्यभाषणके समान सत्प्रवृत्तियों व्रतही ती है । मोक्षमार्ग में निश्चय के साथ होनेवाली इन सभी सत्प्रवृत्तियोंको वाचामने व्यवहारधर्म ही तो कहा है। हम इसी उत्तर में बृद्धव्य संग्रहका उद्धरण उपस्थित कर आये है उसमें स्पष्टतया बतलाया है कि जिस प्रकार अशुभरून हिंसा, असत्य आदिसे निवृत्ति व्यवहार सम्यक्चारि उसी प्रकार अहिंसा, सत्यभाषण
आदि शुभ में प्रवृत्ति भी व्यवहार सम्यक्चारित्र है ।
अपर पक्ष ने 'जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?" यह प्रश्न किया है। साथ ही इसकी पुष्टि में अनेक आगमप्रमाण देकर यह भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि जीवदया धर्म है और उससे संघर-निर्जरा भी होती है । अब पूछना यह है कि अपर पक्ष के मतानुसार यदि जीवदया धर्म है तो सत्यभाषण और दत्तादानादि धर्म क्यों नहीं ? क्या जीवदमा रागसहित प्रत्यंश नहीं है ? हम यह अच्छी तरह समझ रहे हैं कि अपर पक्ष मशुभसे निवृत्तिको धर्म कह कर उसे संवररूप सिद्ध करनेकी चेष्टामें है, परन्तु इससे उसने जिस अन्यथा प्राणाको जन्म दिया है उससे वह परस्पर विरुद्ध कथन के दोषसे अपनी रक्षा नहीं कर सकता । एक ओर तो जीवदयाको धर्म मानना और दूसरी ओर सत्यभाषण तथा क्लादानादिको व्रत नहीं मानना यह परस्पर विरुद्ध कथन नहीं है तो और क्या है ? इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे ।
अपर पक्षका हमारे पक्ष के ऊपर यह दोषारोपण है कि हमारा पक्ष व्यवहार धर्मका लोप करने पर तुला हुआ है। किन्तु उसके वक्त आगमविरुद्ध कथनसे जिस अनर्थ परम्पराको जन्म मिलेगा उसे वह पक्ष अभी नहीं समझ रहा है। पक्षव्यामोह इसीका दूसरा नाम है। कोई अत्युक्ति नहीं होगी। हम तो अपर पक्ष के उक्त कथनसे यह
यदि इसे उल्टी गंगा बहाना कहा जाय तो समझे हैं कि हमारा पक्ष व्यवहार धर्मका