________________
१२८
जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा लोप करना चाहता है ! यह तो लस पक्ष का पनारमात्र है । वस्तुतः वह पक्ष स्वयं लोकमेरो पूजा, भक्ति, दान आदि सभी सत्प्रवृत्तियों का लोप कर देना चाहता है तभी तो वह पक्ष सत्यभाषण आदिको बतरूपसे स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं दिखाई देता।
___ अपर पक्षका कहना है कि 'दत्तादान ग्रहण करना या सत्य बोलना प्रतोंका लक्षण नहीं है, इनको व्रतोंका लक्षण स्वीकार करनेपर अव्याप्ति दोष आता है। कारण कि दत्तादानको न ग्रहण करनेकी अवस्थामें या मौनस्थ आदि अवस्थामै मुनियोंके यह लक्षण घटित न होने के कारण महावत ही न रहेंगे।'
समाधान यह है कि अभिप्रायमें दत्तादानका ग्रहण या सत्य बोलनेरूप परिणामके बने रहने के कारण दप्तादानको न ग्रहण करनेकी अवस्थामें या मौनस्थ अवस्थामें भी व्रतोंका लक्षण घटित हो जाता है, इसलिए अव्याप्ति दोष नहीं आता।
साधुओं के २८ मूलगुण बतलाये हैं। उनमें पांच समितियां भी सम्मिलित हैं। ये पांचों समितियाँ प्रवृत्तिरूप ही स्वीकार की गई है । इसी प्रकार गृहस्थोंके १२ व्रतोंमें अतिथिसंविभाग प्रत भी प्रवृत्तिरूप ही स्वीकार किया गया है। इससे स्पष्ट है कि व्यवहार धर्ममें अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्ति ही मुख्यरूपसे ली गई है, क्योंकि अशुभ निवृत्तिका अर्थ ही शुभप्रवृत्ति है। इनको इस प्रकार पृथक् नहीं किया जा सकता जैसा कि अपर पक्षने इनका पृथक् रूपसे विधान किया है। इतने विवेचन के बाद भी यदि अपर पक्ष सत्यभाषण आदिको व्यवहार अतरूपसे स्वीकार नहीं करना चाहता तो इन्हें अव्रत तो कहा जा सकता नहीं और मतोंमें इनकी गणना आप करना चाहते नहीं ऐसी अवस्थामें इनकी क्या स्थिति होगी इसका अपर पक्ष स्वयं निर्णय करें।
यहाँ पर अपर पक्षने जिस प्रकार यह स्वीकार कर लिया है कि वास्तव में सम्यक्त्व बन्धका कारण नहीं है, किन्तु सम्यक्त्यके साथ रहनेवाला रागांश ही देव आ युके बन्धका कारण है। उसी प्रकार वह यह भी स्वीकार कर लेगा कि शुभ-अशुभको निवृत्तिरूप निश्चय चारित्रांश या रत्नत्रयांश वास्तवमें बन्धका कारण नहीं है, किन्तु उसके साथ रहनेवाला रागांश हो वास्तवमें बन्धका कारण है । इसे स्वीकार कर लेने पर उस पक्षने जो यह लिखा है कि 'एक मिश्रित अखण्ड पर्याय निवृत्ति तथा प्रवृत्ति (राग) दोनों अंश सम्मिलित है । अतः उससे बाखव-बंध भी है और संबर निर्जरा भी है।' इसका सुतरां निरास हो जायगा । निश्चय रत्नत्रयांशमें केवल अशुभकी ही निवृत्ति नहीं है, किन्तु शुभकी भी निवृत्ति है । अतः सिद्ध हुआ कि जो निश्चय रलत्रयांश है उससे संबर और निर्जरा है और गृहस्थों तथा मुनियों के उस उस पदके योग्य जो शुभ-अशुभरूप प्रवृत्त्यश या रागांश है उससे आस्रव और बन्ध है।
- आगममें अपर पक्ष के कथनानुसार व्रतोंके छोड़ने का उपदेश तो कहीं नहीं है। इन प्रतोंके धारण करनेमात्रसे ही मैं मुक्तिका पात्र बनेंगा ऐसे विकल्पके छडानेका उपदेश अवश्य है। अब यह जीव स्वभाव सम्मुख हो निर्विकल्प समाशिका अधिकारी बनता है तश्व अतरूप विकल्प स्वयं विलयमान हो जाते हैं इतना अवश्य है । शुभ-अशुभकी निवृत्तिरूप जो व्रत है वह तो एक मात्र वीतरागभाव है । उराको संज्ञा कुछ भी रख ली जाय, है वह स्वयं एक मात्र वीतराग भाव हो। सप्तभादि गुणस्थानों में यदि व्रतोंका सद्भाव है भी तो एक मात्र इसी रूपमें है।
इस प्रकार किस रूपमें दया आत्मधर्म है और किस रूपमें पुण्यभाव है इसका स्पष्टीकरण किया ।