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जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा पञ्चास्तिकायफी गाथा १७१ की टीकामें लिखा हैसंहननादिशक्त्यभावात् शुद्धात्मस्वरूपे स्थातुमशक्यत्वात् वर्तमानभवे पुष्यबन्धं करोति ।
अर्थ-शारीरिक संहननशक्तिके अभादसे शुद्ध आत्मस्वरूपमें स्थिर न हो सकनेके कारण वर्तमानभव, पुण्यबन्ध करता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने रयणसारमें कहा है
दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा ॥११॥ अर्थ-दान करना और पूजा करना थावक धर्ममें मुख्य है, उनके बिना श्रावक नहीं होता ।।११।। कुन्दकुम्दाचार्यका बतलाया हुआ यह धर्म जीवित शरीर द्वारा ही होता है।
अन्तमें आपने स्वयं अशुभ, शुभ और शुद्धभावोंका नोकर्म शरीरको निमित्तकारण मान लिया है, किन्तु निराधार उपचार शब्दका प्रयोगकर अर्थान्तर करनेका प्रयास किया है।
शंका २ जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म अधर्म होता है या नहीं ?
प्रतिशंका २ का समाधान प्रतिशंका नं० २ को उपस्थित करते हुए तस्वार्थसूत्र प६, सू० १, ६ व ७ तथा पंचास्ति० गा० १७१ और रयणसार मा० ११ को प्रमाणरूपमें उपस्थित कर तथा कतिपय लौकिक उदाहरण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है कि जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म अधर्म होता है।
यह तो सुविमित सत्य है कि आगममें निश्चयरलषयको यथार्थ धर्म कहकर उसके साथ जो देवादिकी श्रता, संयमासंयम और संयमसम्बन्धी प्रतादिमें प्रवृत्तिरूप परिणाम होता है उसे व्यवहार धर्म कहा है। और सम्यग्दृष्टिके शरीरमें एकत्वबुद्धि नहीं रहती । यदि कोई जीव शरीरमें एकत्यबुखि कर शरीरको क्रियाको आत्माकी क्रिया मानता है तो उसे अप्रतिबुद्ध कहा है । यहाँ ( समयसारमें ) कहा है
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं ।
जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।। १९ ॥ अर्थ-कर्म और नोकर्म ( देहादि तथा शरीरको क्रिया ) में मैं हूँ, तथा मैं कर्म-नोकर्म है 'जो ऐसी बुद्धि करता है तबतक वह अप्रतिबद्ध है ।। १९ ॥ इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार गाथा १६० में भी कहा है
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि ।
कत्ता ण कारयिदा अणुमंता णेब कत्तीणं ।। १६० ।। अर्थ-मैं न देह हूँ, न मम हूँ और न वाणी है। उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं है, कारयिता नहीं हूँ और कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ ।। १६ ।।