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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा सूत्रक होता है। इसीको जीवके अज्ञानावि भावों में कर्मोदयको निमित्तता कही गई है। हमारे जिस वचनको महाँ प्रमाण रूप से उद्धृत किया गया है उसका भी यही आशय है ।" उत्तर पक्षकी इन सब बातोंको यहाँ समीक्षा की जाती है--
जिनागममें यह कहा गया है कि प्रत्येक जीवमें स्वत: सिद्ध अतएव अनादिनिधन विभाव शक्ति (विभावरूपसे परिणस होने की योग्यता) विद्यमान है। इस शक्ति की व्यक्ति अर्थात् जीवको विभावरूप परिणति भी अनादिकालसे होती आई है, क्योंकि यिभावपरिणतिके होने में निमित्तभूत घातियाकर्मोदयका सभाच जीवमें अनादिकालसे हैं। जैसे जीवमें मिथ्यात्वरूपसे परिणत होनेकी योग्यतास्वरूप विभावशक्ति तो स्वतः सिद्ध है, इस कारणसे वह उसमें अनादिकालसे ही रहती है। परन्तु उस योग्यताके आधार पर जो जीवका मिथ्यात्वरूप परिणमन अनादिकालसे होता भा रहा है वह उसमें अनादिकालसे ही विद्यमान घातिमाकों में मोहनीयके भेद मिथ्यात्वकमके उदयसे होता है । इसका आशय यह है कि जीवमें जब तक मिथ्यात्व कर्मका उदय विद्यमान है तब तक उसके सहयोगसे जीवकी परिणति स्वतः सिद्ध विभावशक्तिके आधारपर नियमसे मिथ्यात्वरूप होती है। लेकिन यदि कोई भव्य (मोक्ष प्राप्त करनेकी योग्यता विशिष्ट) जीव अपने मानसिक वानिक और कायिक परुषार्थ के बलसे कदाचित मिथ्यात्व कर्मके उदयका उस कर्मके यथायोग्य उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके हो जानेपर अभाव कर देता है तो विभावशक्तिका सदभाव रहते हुए भी उस जीवका विभावरूप विपरिणमन होना समाप्त हो जाता है।
यहाँ प्रसंगवश मैं यह कह देना चाहता हूँ कि जिमागममें जो यह प्रतिपादित किया गया है कि घातिया कर्मोदयका सह्योग पाकर स्वतः सिद्ध विभावशक्ति (विभावरूपसे परिणत होनेकी योग्यता) विशिष्ट जीवका विभावरूप परिणमन होता है । इससे पं० फूलचन्द्रजी द्वारा कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की प्रस्तावनामें निर्दिष्ट 'किन्तु कर्मक विषयमें ऐसी बात नहीं है इसका सम्बन्ध तभी तक आत्मामें रहता है जब तक उसमें तदनुकूल पोग्यता पाई जाती है। यह कथन प्रेर्य-प्रेरक भावरूप कार्यकारण भावपर विचार करनेकी अपेक्षा असंगत हो जाता है, क्योंकि आगमके उपर्युक्त प्रतिपादनसे जहाँ कर्मके उदयके साथ जीवकी स्वतः सिंच वैभाविक शक्तिके आधारपर होने वाली विभावरूप परिणतिका अविनाभाव निर्णीत होता है वहाँ पं० फूलचन्द्रजीके इस प्रतिपादनसे आगमके विपरीत जीवकी स्वतः सिद्ध वैभाविक शक्तिके आधारपर होने वाली विभाव परिणतिके साथ कर्मके उदयका अविनाभाव निर्णीत होता है। इन दोनों (उपर्युक्त आगम और पं० फूलचन्द्रजीके) प्रतिपादनोंमें परस्पर विरोध है क्योंकि आगमके प्रतिपादनसे जीबनी विभावरूप परिणतिमें कर्मोदयकी प्रेरकरूपमें सहायक होनेरूपसे कार्यकारिता सिद्ध होती है जब कि पं० फूलचन्द्रजीके उपत प्रतिपादनसे जीवको विभावरूप परिणतिमें कर्मोदयकी सहायक न होनेरूपसे अकिंचित्करता सिद्ध होती ।। यह बात दूसरी है कि पं० फुलचन्द्रजी अपने प्रतिपादनसे भी जीवकी विभावरूप परिणतिमें कमंदियक सहायक न होनेसे अकिंचित्करता सिद्ध नहीं कर सकते हैं, क्योंकि निमितकारणका कार्य के साथ जो अविना
१. भयस्कान्तोपलाकृष्टा सूचीवत्तद्वयोः पृथक ।
अस्ति शक्तिविभावाच्या मियो बन्धाधिकारिणी ।।२ ४५।।-पंचाध्यायी २. परिणममानस्य चिप्तः चिदात्मकः स्वयमपि स्वकैविः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौगलिक कर्म तस्यापि ॥१३॥ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ।