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शंका-समाधान ३ को समीक्षा
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लिये हुये शुद्ध स्वभावरूप निश्चयधर्म के रूपमें दयारूप परिणमन भी होता जाता है । इतना अवश्य है कि उन उन कोष प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्य रूप में होनेवाला वह उपदाम श्रय या क्षयोपशम उस भव्य जीवमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासपूर्वक आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है।
व्यवहारधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण
मध्य जीयमें उपर्युक्त पांचों लब्धियोंका विकास तब होता है जब वह जीव अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप मानशिक यावनिक और कायिक दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तियों को क्रियावती शक्ति ही परिणमनस्वरूप मानसिक, वावनिक और कायिक अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृतियोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति के रूप में सर्वथा निवृत्तिपूर्वक करने लगता है । इन अश्वारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तियों से सर्वथा निवृत्तिपूर्वक की जानेवाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिका नाम ही व्यवहारधर्मरूप दया है । इस तरह यह निर्णत है कि जीवकी क्रियावती शक्ति के परिणमन स्वरूप व्यवहारधर्मरूप जीवदया के बलपर ही भव्य जीवमें भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति में कारणभूत क्षयोपराम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धियोंका विकास होता है। इस तरह निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें व्यवहारश्रर्मरूप जीवदया कारण सिद्ध होती हैं ।
यहाँ यह ज्ञातस्य है कि कोई-कोई अभव्य जीव भी इस व्यवहारधर्मरूप दयाको अंगीकार करके अपने क्षयोपशम विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेता है। इतना अवश्य है कि उसको स्वभावभूत अभव्यता के कारण उसमें आत्मोन्मुखताहप करणलब्धिका विकास नहीं होता है । इस तरह भी उसमें भागवती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विकास भी नहीं होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भव्य जीव में उक्त क्रोध प्रकृतियों का यथासंभव रूप में होनेवाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम यद्यपि आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है, गरन्तु उसमें उस करणलब्धिका विकास क्रमशः क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चारों लब्धियों का विकास होनेपर ही होता है। अतः इन चारों लब्धियोंको भी उक्त क्रोध प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय वा क्षयोपशममें कारण माना गया है ।
जीवकी भाववती और कियावती शक्तियों के सामान्य परिणमनोंका विवेचन
जीवको भाववती और क्रियावतो दोनों शक्तियोंको प्रश्नोत्तर २ को समीक्षा में उसके स्वतः सिद्ध स्वभाव के रूप में बतलाया गया है। इनमेंसे भावयतीशक्तिके परिणमन एक प्रकारने तो मोहनीय कर्मके उदयमैं विभावरूप व उसके उपग्रम, क्षय या क्षयोपशममें शुद्ध स्वभावरूप होते हैं व दूसरे प्रकारसे हृदयके सहारेपर तत्त्वश्रद्धानरूप या अतत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारेपर तत्वज्ञानरूप या अतत्त्वज्ञानरूप होते हैं । एवं क्रियावती शक्ति के परिणमन संसारावस्था में एक प्रकारसे तो मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ और पापमय अशुभ प्रवृतिरूप होते हैं। दूसरे प्रकारसे पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्तिके रूपमें निवृत्तिपूर्वक मानसिक, वावनिक और कायिक पुष्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं और तीसरे प्रकार से सक्रिय मनोवर्गणा, वचनवर्मणा और कादवर्गणा के सहारेपर पुभ्यरूपता और पापरूपतासे रहित आत्मक्रिया के रूपमें होते हैं। इनके अतिरिक्त संसारका विच्छेद हो जानेपर जीवकी क्रियावती शक्तिका