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शंका ४ और उसका समाधान
पायो जाती है। तथा जो अभी अपने जीवनको बाह्य स्थितिमें ही प्रवर्तमान है उन्हें इस हालतमें अपरम भावके ही दर्शन हुआ करते हैं, अतः इन जीवोंके पराश्रित व्यवहार धर्मको ही प्रमुखता पायी जाती है।
व्यवहार धर्मका सद्भाव निश्चय धर्मके अभावमे भी पाया जाता है और जहाँ निश्चय धर्मका सदभाव होगा वहाँ व्यवहार धर्मका सद्भाव रहना ही चाहिए। इससे व्यवहार धर्मकी कारणता और निश्चय धर्मको कार्यतामें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है, क्योंकि आगमका अभिप्राय व्यवहार धर्मको कारण और निश्चन गर्न सका कार्य स्वीकार गर है कि निश्चय धर्मकी उत्पत्ति और स्थिति व्यवहार धर्मको अंगीकार किये बिना असम्भव है, इसलिये आपका ऐसा सोचना भी गलत है कि निश्चय धर्मको प्राप्त होनेपर व्यवहार धर्मकी प्राप्ति अपने आप हो जाती है। समयसारको "अपडिक्कमणं दुविह" इत्यादि २८३ से २८५ वी गाथाओंकी आत्मख्याति टीकासे स्पष्ट रूपमें यह बात सिद्ध होती है कि व्यवहार धर्म निश्चय धर्मको उत्पत्ति और स्थितिमें कारण होता है । वह टीका निम्न प्रकार है
ततः एतत् स्थितं, परद्रव्यं निमित्तं, नैमित्तिका आत्मनो रागादिभावाः। यद्येचं नेष्येत तदा द्रव्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात् । तदनर्थकत्वे त्वेकस्यवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्तौ नित्यकर्तृत्वानुषंगान्मोक्षाभावः प्रसज्येच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा, तथापि यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नमित्तिकभूतं भावं न प्रतिकामति न प्रत्याचष्टे च। यावत्तु भावं न प्रतिकामति न प्रत्याचष्टे तावत्तक्कतेंध स्यात् । यदैव निमित्तभूतं द्रव्य प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदेव नैमित्तिक भूतं भावं प्रतिकामति प्रत्याचष्टे च । यदा तु भावं प्रतिकामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षात् अकते व स्यात् ॥२८३, २८४, २८५||
अर्थ-इस तरह मह निश्चित हो जाता है कि पर द्रव्या निमित्तकारण है और आश्माके रागादिविकार परद्रज्यके निमित्तसे उतान्न होनेवाले हैं। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो आगममे द्रव्य अप्रतिक्रमण
और द्रश्य अप्रत्याख्यानमें जो आत्माके राग-द्वेषादि विकारोकी उत्पत्तिकी निमित्तता प्रतिपादिप्त की गयी है यह अनर्थक हो जायगी। इसके अनर्थक हो जाने पर एक आत्मामें ही रागादिकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त हो जाने पर आत्मामें रामादिके नित्यकर्तृत्वकी भी प्रसक्ति हो जानेसे मोक्षफे अभावका भी प्रसंग उपस्थित हो जायगा, इसलिये आत्मामें उत्पन्न होनेवाले रागादि विकारोंका निमित्त पर द्रव्य हो ठहरता है । इस तरह यद्यपि आत्मा स्वयं तो रागादिका अकारक ही है तो भी जब तक जीव निमित्तभूत पर
वयका प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण नहीं करेगा तब तक भावरूप रागादि विकारोंका प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान नहीं हो सकता है। इस तरह तब तक आत्मा रागादिका कर्ता ही बना रहता है और जब निमित्तभूत पर द्वन्यका प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान जीव करता है तभी वह उसके निमित्तसे होनेवाले रागादिका भी प्रतिक्रमण और प्रत्यास्यान करता है । इस प्रकार जब रागादि विकारोंका भी प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान हो जाता है तब आत्मा रागादिका साक्षात् अकर्ता हो जाता है । २८३, २८४, २८५ ।।
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि आत्माकी परिणतिमें जो क्रोधादिरूपता पायी जाती है उसका कारण क्रोषादि द्रव्यकर्मो का उदय ही होता है। आत्मामें क्रोधादि विकारोंकी उत्पत्ति स्वतः अपने आप नहीं हो जाती है। पण्डित दौलतरामजीने छहढालाकी तीसरी हालमें व्यवहार धमकी निश्चय धर्मम कारणताका स्पष्ट उल्लेख किया है