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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
नवम अध्यायमें अहिंसा आदिको हिंसादिमें प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूपमें धर्मका साधन माना गया है । उत्तरपक्षने इसी कथनमें जो यह लिखा है कि 'निमित तो अनेक पदार्थ होते हैं तो क्या इतने मानसे इन सबसे धर्मकी-प्राप्ति मानी जायेगी ? लो इसके विषय में मेरा कहना यह है कि जो निमित्त धर्मफे साधन हों उन्हें धर्म प्राप्तिका निमित्त मामा जाता है और जो निमित्त अधर्मप्राप्तिके साधन हों उन्हें अधर्मप्राप्तिका निमित्त माना जाता है तथा जिनसे धर्म या अधर्म किसीकी भी प्राप्ति न हो सके उन्हें वहां पर निमित्त ही नहीं माना जा सकता है। उत्तरपक्षने अपने इस वक्तब्यमें जो यह लिखा है कि 'शरीर आदि पदार्थोको वहाँ भी निमित्त लिखा है सो वह विजातीय असद्भुत व्यवहारमयको अपेक्षा ही निमित्त कहा है।' सो यह निर्विवाद है, परन्तु इसके संबंध मेरा यह कहना है कि अदभूत व्यवहारनयकी अपेक्षा जिसको निमित्त कहा है वह कार्यमें सहायक होने रूपसे कार्यकारिताके आधारपर ही कहा है, सहायक न होन रूपसे अकिंचित्करताके आधारपर नहीं, जैसा कि उत्तरपक्ष मानता है । इसे प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें विस्तारसे स्पष्ट कर दिया गया है।
(५) उत्तरपक्षने अपने पशके समर्थनमें आगे त• च. पृ० ७९ पर ही स्वयंभू स्तोत्रका निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है
पदस्त गा गणतोषोनिमित्तमाभ्यन्तरमूलहेतोः ।
अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमाभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥५९|| इसका अर्थ उसने यह किया है कि 'अभ्यन्तर अर्थात् उपादानकारण जिसका मूल हेतु है ऐसी गुण और दोषोंकी उत्पत्तिवा जो बाह्य वस्तु निमित्त मात्र है, मोक्षमा पर आरूढ़ हए जीवके लिए बह गौण है, क्योंकि हे भगयन् ! आपके मन में उपादान हेतु कार्य करनेके लिए पर्याप्त है ॥५९॥
आगे तक च०५०८. पर उसने उक्त पद्यका अभिप्राय इस रूपमें लिखा है-'तात्पर्य यह है कि जो अपने उपादानवी सम्हाल करता है उसके लिए उपादानके अनुसार कार्यकालमें निमित्त अवश्य ही मिलते है । ऐसा नहीं है कि उपादान अपने कार्य करने के सम्मुख हो और उस कार्य में अनुकूल ऐसे निमित्त न मिले । इस जीवका अनादिकालसे पर द्रध्यके साथ संयोग बना चला आ रहा है, इसलिये वह संयोग कालमें होनेवाले कायौंको जब जिस पदार्थका मयोग होता है उससे मानता आ रहा है, यही इसकी मिथ्या मान्यता है। फिर भी यदि जीवित शारीरकी क्रिया धर्म माना जावे तो मुनिके ईपिवसे गमन करते समय कदाचित् किसी जीवके उसके पगका निमित्त पाकर मरनेपर उस क्रियासे मुनिको भी पापबन्ध मानना पड़ेगा, पर ऐसा नहीं है। अपने इस अभिप्रायके समर्थनमें उसने सर्वार्थसिद्धिके 'वियोजयप्ति चासुभिर्न वधेन संयुज्यते । (७-१३)' को भी उच्च त किया है और उसका उसने यह अर्थ लिखा है कि "दूसरेको निमित्त कर दूसरेके प्राणोंका वियोग हो जाता है, फिर भी वह हिंसाका भागी नहीं होता है।" और अन्तमें उसने यह निष्कर्ष लिखा है कि 'अतएव प्रत्येक प्राणीको अपने परिणामोंके अनुसार ही पुण्य, पाप और धर्म होता है। जीवित शरीरको क्रियाके अनुसार नहीं, यही निर्णय करना चाहिए और ऐसा मानना ही जिनागमके अनुसार है।'
आगे इसकी समीक्षाफी जाती है
स्वयंभू स्तोत्रके उल्लिखित पद्यका बास्तविक अर्थ यह है कि 'अभ्यन्तर अर्थात अंतरंग परिणाम जिसका मूल हेतु है ऐसे गुणों और दोषोंबी उत्पत्तिका जो बाह्य वस्तु निमित्त अर्थात् अवलम्बन है अध्यात्ममें प्रवृत (लोकोत्तर) जनके लिए वह बाह्य वस्तु जिसका अंग अर्थात् गौण रूपले सहायक बनी हुई है ऐसा अंतरंग परिणाप केवल भी हे भगवन् ! आपके मतमें समर्थ है ।'