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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
२४५ जीषकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे नियुत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही माह्म हो सकता है।
यदि कहा जाये कि जीवको मोक्ष की प्राप्ति उसको भावक्तीशक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्मके रूपमें परिणमन होने पर ही होती है, इसलिए "सुह-सुद्धपरिणामहि" पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्द निरर्थक नहीं हैं तो इस बातको स्वीकार करनेमें यद्यपि कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु ऐसा स्वीकार करनेपर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि मोक्ष की प्राप्ति जीवकी भाववतीयाक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके होनेपर होना एक बात है और उस स्वभावभत शुद्ध परिणमनको कर्मक्षयका कारण मानना अन्य बात है, क्योंकि वास्तव में देखा जाये तो द्वादश गुणस्थानवी जीवका वह शुद्ध स्वभाव मोक्षरूप शुद्ध स्वभावका ही अंश है जो मोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय होनेपर ही प्रकट होता है।
अन्समें एक बात यह भी विचारणीय है कि उक्त "सुह-सुद्धपरिणाम हिं' पदके अन्तर्गत ''सुख" शब्दका जोनकी भाववतीशक्तिका स्वभायभूत शुद्ध परिणमन अर्थ स्वीकार करने पर पूर्वोक्त यह समस्या तो उपस्थित है ही कि द्वादश गुणस्थानके प्रथम समय में शुख स्वभावभत निश्चयधर्मका पूर्ण विकास हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिकमोंका तथा चारों अघातिकर्मोंका एक साथ क्षय हॉकी प्रसव हासी । पाप होयह समस्या भी स्थित होती है कि जीवको भावबती शक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके विकासका प्रारम्भ जब प्रधम गुणस्थानके अन्त समयमें मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्व, सभ्यगमिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया ओर लोभ रूप चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने पर चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें होता है तो ऐसी स्थितिमें उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमनको कर्मोंके सवर और निर्जरणका कारण कैरो माना जा सकता है ? अर्थात् नहीं माना जा सकता है । यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है। उत्तरपक्षको यह जो मान्यता है कि जीव द्रव्यकर्मोके उदयकी अपेक्षा न रखते हुए स्वयं (अपने आप) ही अज्ञानी' बना हुआ है और उन क्रमोसे यथायोग्य उपशम, भय या क्षयोपशमको अपेक्षा न रखत हए स्वयं (अपने जाप) ही ज्ञानी बनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है सो इस मान्यताका निराकरण प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें किया जा चुका है तथा प्रश्नोत्तर षष्ठको समीक्षा भी किया जायेगा। इसी तरह उत्तरपक्षको भान्य नियतिवाद और नियतवादका निराकरण प्रश्नोत्तर पाँचकी समीक्षामें किया जायेगा । प्रकृतमें कर्मोंके आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जसकी प्रक्रिया
(१) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जबतक आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृप्ति करते रहते हैं तबतक वे उस प्रवृत्तिके आधारपर सतत कर्मोका आसव
और बन्ध ही पिया करते हैं। तथा इस संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति के साथ वे यदि कदाचित् सांसारिक स्वार्थवश मानसिक, बाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी करते हैं तो भी वे उन प्रवृत्तियों के आधारपर सतत काँका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं ।
(२) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जब आसक्तिवश होनेवाले संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृतिको कर्तव्यवश करने लगते है तब भी दे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करने है।