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जयपुर (खामिया) तत्वचर्चा और उसको समीक्षा
उतरपक्षने अपना उपर्युक्त जो वक्तव्य त० च० पृ० ४२ पर निर्दिष्ट किया है उसके आगे उसने लिखा है कि "किन्तु अपरपशने हमारे उक्त वचनोंको उधृत करते हुए 'अत: कर्मका स्थान बाला सामग्री नहीं ले सकती' इसके बाद उक्त उल्लेखके इस वचनको तो छोड़ दिया है" ऐसा लिखकर उसने पूर्वपक्ष द्वारा छोड़े गये वचनको उद्धृत किया है जो निम्न प्रकार है
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"फिर भी अन्तरंग में योग्यता रहते हुए बाह्य सामग्री के मिलने पर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है इसलिये निमित्तोंकी परिगणना में बाह्य सामग्री की भी गणना की जाती हैं पर यह परम्परानिमित है. इसलिये इसकी परिगणना नोकर्मके स्थानपर की गई है" तथा इसके भी आगे उसने (उत्तरपक्षने) "और इसके स्थानमें हमारे वक्तव्यके रूपमें उसने अपने इस वजनको सम्मिलित कर दिया है" ऐसा लिखकर • पूर्वraast उसने इस रूपमें उद्धृत किया है- "मतः कर्मके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारकी अवस्था होती है और जीवमे वंसी योग्यता आती है ।"
इस विषय में मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षपर पं० फूलचन्द्रजीकी प्रस्तावनाके उक्त अंशको छोड़ देनेका जो दोषारोपण किया है वह उचित नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्षने पं० फुलचन्द्रजीकी प्रस्ताबनाके उक्त अंशको किसी दुरभिप्रायसे नहीं छोड़ा है किन्तु प्रकृत में उसका विशेष उपयोग न होने के कारण ही छोड़ा है । तथा उत्तरपक्षने पूर्वपक्षपर दूसरा दोषारोपण यह किया है कि "पूर्वपक्षने पं० फूलचन्द्रजी के वक्तव्य में अपने वचन को सम्मिलित कर किया है" सो उसके (उत्तरपक्ष के ) द्वारा पूर्वपक्षपर यह दोपारोपण भ्रान्तिवश किया गया है, क्योंकि पूर्वपक्षने अपना उक्त वचन अपने मन्तव्यका समर्थन करने की दृष्टिसे ही लिखा है, इसे उसने उत्तरपक्षके वक्तव्यको पुष्टि में नहीं लिखा है, जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। ऊपर मैंने जो यह लिखा है कि उत्तरपक्षने गं० फूलचन्द्रजीके कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की प्रस्तावना में निहित अभिप्रायको बदल दिया है वह इस आधारपर लिखा है कि पं० फुलचन्द्रजीने उक्त प्रस्तावनायें जो यह कथन किया है कि फिर भी अन्तरंग में योग्यता के रहते हुए भी बाह्य सामग्री मिलनेगर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है' इत्यादि, सो इससे कार्य के प्रति कमोंदयकी और बाह्य सामग्रीकी सहायक होने रूपसे कार्यकारिता ही सिद्ध होती है जबकि उत्तरपक्ष उस प्रस्तावनाका उपयोग कार्यके प्रति क्रमदेव और बाह्य सामग्रीको सहायक न होनेरूपसे अकिंचित्करता सिद्ध करनेके लिये करना चाहता है ।
पं० फूलचंद्रजीने कर्मग्रन्य पुस्तक ६ की प्रस्तावनायें जो यह लिखा है कि 'कभी वैसी योग्यताके सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और उसके अभावमें भो बाह्य सामग्रीका संधान देखा जाता है' यह मान्यता उत्तरपक्षको भी है क्योंकि पं० फूलचंद्रजी और उत्तरपक्ष में कोई अन्तर नहीं है। पं० फूलचन्द्र जी ही उत्तरपत्रके सर्वेसर्वा रहे हैं। इस तरह जो कुछ पं० फूलचन्द्रजीने उत्तरपश्वकी ओरसे लिख दिया उसपर ही उत्तरपत्रके शेष सभी प्रतिनिधियोंने अपनी स्वीकृति देकर हस्ताक्षर किये हैं। ऐसी स्थिति में पं० फूलचन्द्रजीने कर्मग्रंथ पुस्तक ६ की प्रस्तावना में जो यह मान्य किया है कि 'कभी वैसी योग्यताके सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और उसके अभाव में भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है' सो यह मान्यता उत्तरपक्षको भी मान्यता समझना चाहिए। इस तरह कहा जा सकता है कि उत्तरपक्ष एक ओर तो यह स्वीकार करता है कि "कभी वैसी योग्यता के सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और उसके अभाव में भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है" और दूसरी ओर उसने त० च० पृ० ३८७ पर यह भी स्वीकार किया है कि "ज़ंसी होनहार होती है उसके अनुसार ही