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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अणुरूप नाना पुद्गल द्रव्योंका स्कन्ध होनेके आधारपर उसमें पट निर्माणकी वोग्यता का सद्भाव वही स्वीकार कर सकता है जिसने इस विषय संबंधी जैन दर्शनको व्यवस्थाको नहीं समझा है। जैन दर्शनकी व्यवस्थाके अनुसार प्रत्येक अणुरूप पुद्गल में घट पट आदि पर्यायोंकी योग्यताओंका सद्भाव स्वीकार करते हुए भी नाना अणुओं स्कन्ध रूप मिट्टी में घट निर्माणकी योग्यताका सद्भाव और पट निर्माकी योग्यताका प्रभाव स्वीकार करनेका कारण यह है कि मिट्टी में पुद्गलत्वके आधारपर घटका निर्माण न होकर मृत्तिकास्वके आधारपर ही घटका निर्माण होता है। इसी तरह नाना अणुओंके स्कन्ध रूप कपासमें भी पुद्गलत्वके आधारपर पटका निर्माण न होकर कार्पासत्वके आधारपर ही पटका निर्माण होता है। इसका आशय यह है कि पुद्गलमें मृत्तिकात्वका उद्भव हो जाना ही घटोत्पत्तिकी द्रव्यगत योग्यता है और पुद्गल कार्यासत्वका उद्भव हो जाना ही पटोत्पत्तिको द्रव्यगत योग्यता है । इस तरह वह योग्यता पर्यायगत नहीं हूं 1 घटमें और पदमें आचार्यने जो इतरेतराभाव स्वीकार किया है कारण यह है कि फपास रूप स्कन्धके परमाणु वहांसे निकल कर मिट्टीरूप स्कन्धमें मिलकर घटरूपताको धारण कर सकते हैं और मिट्टी रूप स्कन्धके परमाणु हाँसे निकलकर कपास रूप स्कन्धमें मिलकर पदरूपताको धारण कर सकते हैं। इतना ही नहीं, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप स्वम्षोंके परमाणु भी उस उस स्कन्धसे निकलकर एक-दूसरे से भिन्न यथायोग्य पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप स्कम्भों में मिलकर उस उस रूपताको धारण कर सकते हैं। इसका arra यह है कि अणुरूप पुद्गल म पृथ्वी रूप हैं, न जल रूप हैं, न अग्निरूप है और न वायुरूप हैं किन्तु उनमें ऐसी योग्यता विद्यमान हैं कि वे पुद्गल परमाणु यथायोग्य पृथ्वी आदि किसी भी स्कन्धमें मिलकर उस उम्र रूपको धारण कर सकते हैं। इस तरह केवल घट और पटमें ही नहीं, अपितु पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुमें भी आचायने इतरेतराभाव ही स्वीकार किया है। अत्यन्ताभाव नहीं, क्योंकि अत्यन्ताभाव एक स्वतंत्र द्रव्यका दूसरे स्वतंत्र द्रव्य में ही हुआ करता है और वह कालिक होता है | अतः पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तथा मिट्टी और कपास या घट और पट सभी पुद्गल द्रव्य हैं, अतः गुद्गल द्रव्य होने के कारण इन सभी में इतरेतराभाव हो स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार पूर्वपक्ष ऐसा मानता है कि मिट्टी में पट बननेकी कार्पासत्वरूप द्रव्यगत योग्यताका अभाव है। वह उत्तरपक्ष के समान यह नहीं मानता है कि मिट्टी में पट बननेकी का सत्य रूप पर्यायगत योग्यताका अभाव क्योंकि जब तक मिट्टी मिट्टी बनी रहती है तब तक उसमें पटरूप बनने की कार्पासत्व रूप योग्यताका अभाव विद्यमान रहता | केवल वह मिट्टी जब मिट्टी न रहकर कपास बन जाती है तब मिट्टी में नहीं, किन्तु कपासमें हो कार्पासत्व रूप पट बननेकी योग्यताका सद्भाव माना जा सकता है। और यह युक्तिसंगत भी प्रतीत होता है। फलतः उत्तरपक्षका
अपने वक्तव्य में यदि अपरपक्ष कहे' इत्यादि कथन अविचारित रम्य ही है ।
इसी प्रकार उत्तरपक्षने जो यह कथन किया है कि "अपरपत्र मिट्टी में पट दननेकी योग्यताको स्वीकार नहीं करता | किन्तु मिट्टी पुद्गल द्रव्य है । घट और पट दोनों पुद्गल द्रव्यकी व्यंजन पर्यायें हैं । ऐसी अवस्था में मिट्टी में पटरूप बनने की योग्यता नहीं है यह तो का नहीं जा सकता । परस्पर में एक दूसरे रूप परिणमनकी योग्यताको ध्यान में रखकर ही इनमें आचार्योंने इतरेतराभावका निर्देश दिया है ।" उसका यह सब कथन भी निरर्थक है ।
इसी तरह उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी मिट्टी में पटनिर्माणको योग्यताका अभाव रहनेसे जुलाहा उससे पट बनाने में असमर्थ है ।" इस मान्यतासे जो यह सिद्ध करना चाहता है कि "जो द्रव्य जब जिस पर्याय परिणमनके सन्मुख होता है तभी अन्य सामग्री उसमें व्यवहारसे निमित्त होती हैं।" सो इस संबंध में उत्तरपक्षका