________________
शंका-समाधान ४ को समीक्षा
२९१
करणानुयोग कहना युक्त है । फलतः इस धाधारपर भी पूर्वपक्षद्वारा निश्चयधर्मका प्रतिपादक करणानुयोगको मान्य किया जाना संगत सिद्ध होता है ।
स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डश्रावकाचारके पद्य ४६ में धूम्यानयोगके स्वरूपका जो विवेचन किया है उससे निश्चयधर्मका प्रतिपादक यद्यपि द्रव्यानुयोग ही सिद्ध होता है । परन्तु स्वामी समन्तभद्रका निश्चयधर्मका प्रतिपादक द्रव्यानुयोगको स्वीकार करनका आधार यह है कि उन्होंने करणानुयोगको लोक और अलोकके विभागके प्रतिपादन, व्यवहारकालके उत्सपिणी और अवसपिणी भेद तथा उत्सपिणीके दुःषमा-दुःषमा आदि छह और अवसर्पिणीके सुषमा-सुषमा मादि षट् कालोंके रूपमें होनेवाले युग-पविर्तनके प्रतिपादन एवं यथायोग्य उबलोक, मध्यलोक और अधोलोकमें विद्यमान स्वर्ग, मनुष्य, तिर्यग और नरक गतियों के प्रतिपादन तक ही सीमित रखा है । फलतः उनकी दृष्टि से तिलोयपण्पत्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और त्रिलोकशार आदि ग्रन्थोंका ही अन्तर्भाव करणानुयोगमें होता है। धवल, जयपवल, महाबन्ध, जीयकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रन्थोंका अन्तर्भाव करणानुयोगमें न होकर प्रन्यानयोगमें ही होता है जो सापेक्षदृष्टि से यद्यपि बिवादका वस्तु नहीं है । परन्तु इससे वस्तुविज्ञान और अध्यात्मविज्ञानको एक तो कदापि नहीं माना जा सकता है । इसलिये स्वामी रामन्तभद्रकी दृष्टिरो द्रव्यानुयोगके वस्तुविज्ञान और अध्यात्मविज्ञानके रूपमें दो भेद स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है । यतः आगममें यत्र-तत्र श्रवल आदि उक्त ग्रन्थोंको करणानुयोगमें भी अन्तर्भूत किया गया है, अत: अध्यात्मविज्ञान स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टि से द्रध्यानयोगका विषय होकर भी अन्य आचार्योकी दृष्टिसे उसे करणानुयोगका विषय मान्य किया जाना अयुक्त नहीं है। फलतः पूर्वपनद्वारा करणानुयोगको निश्चयधर्मका प्रतिपादक मानना भी युक्त है।
उत्तरपक्षके उक्तकथनसे ऐसा ज्ञात होता है कि वह पक्ष बस्तुविज्ञान और अध्यात्मविज्ञान के अन्तरको नहीं समझ सका है और न वह आगममें प्रतिपादित व्यवहारधर्मके स्वरूप तथा स्थितिको ही समझ सका है। ऐसी अवस्थामें मही कहा जा सकता है कि वह केवल अध्यात्मके नाम पर सोनगढ़के अज्ञानपूर्ण, मिथ्या और मनघडंत मान्यताओंसे प्रभावित होकर ही तत्वचर्चा करनेके लिए तैयार हआ। यही कारण है कि वह अपने पक्षवे. समर्थन और पूर्वपक्ष की आलोचनामें तर्कपूर्ण व्यवस्थित प्रक्रियाको नहीं अपना सका तथा उसने तत्त्ववर्चाको वीतरागकथा नाम देकर भी विजिगीषुकथा बना दिया । एवं विजयकी भावनासे यदि उसे आगमका अर्थ-परिवर्तन करना भी आवश्यक समहामें आया तो उसने निःसंकोच भावसे पत्र-तत्र ऐसा भी किया है।
निष्कर्ष
प्रकृत प्रश्नोत्तरकी इस समीक्षामें निश्चय और व्यवहार धर्मोके स्वरूप और उनमें विद्यमान साध्यसाधकभावको स्पष्ट करनेके लिए जो कुछ कहा गया है उससे उत्तरपक्षको निम्नलिखित मान्यतायें निरस्त हो जाती है
(१) उत्तरपक्ष मानता है कि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी यथायोग्य कियाका नाम व्यवहारधर्म है।
पर यह मान्यता इस आधारपर निरस्त होती है कि इस संबंधमें इस समीक्षामें जो विवेचन किया गया