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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उपादेयता और निमत्तोंकी अपेक्षा नैमित्तिकता सिद्ध होकर निमित्त कारणों की विविधरूपताके आधारपर उस घटकी नैमित्तिकताकी विविधरूपता भी सिद्ध हो जाती है व घट में विद्यमान उस उगादेयताकी निश्चयनविषमता तथा उसी घट में विद्यमान नैमित्तिकताकी भी उस-उस रूप सद्भुतब्यवहारनविषयता भी सिद्ध हो जाती है। ऐगी हो सद्भूतब्यवहाररूप कार्यकारणभावव्यवस्था घट कार्य के साथ मिट्टी की स्थास, कोश और कुशलपर्यायोंकी क्षण-क्षणमें होनेवाली पर्यायोंकी अपेक्षा भी ममा लेना चाहिए तथा उनकी यथायोग्य सदभूतव्यवहारनयविषयताको भी इसी तरह समश लेना चाहिए।
यहाँ जिरा प्रकार मिट्टीने होने वाली घटोत्पत्तिमें मिट्टीकी ही स्यासादि स्थूल और सूक्ष्म पर्यायोंकी अपने-अपने ढंगसे राद्भुतव्यवहारकारणता और उसकी नयविषयताका प्रतिपादन दिया गया है उसी प्रकार जीवमें होनेवाली निश्चयधर्मकी उत्पत्ति में 'जीवी ही व्यवहारधर्मरूप' पर्वायकी सद्भूतव्यवहारकारणताका और उसकी नयविश्यताका प्रतिपादन समझ लेना चाहिये।
यहाँ प्रसंगवश यह बात भी स्पष्ट करने योग्य है कि मिद्रीसे जो घटको उत्पत्ति होती है वह यद्यपि उपर्यत प्रकार स्थूलरूपरो मिट्टोको स्थास, कोचा और कुमालपर्यापों के क्रमिक विकास पूर्वक तथा सूक्ष्मरूपसे इन स्थान, कोश और कुशल पर्यायोंको क्षण-क्षणवर्ती पर्यायोंके क्रमिक विकास पूर्वक की होती है । गन्तु खानमें अथवा घटोत्पत्तिको क्षेत्रमें पड़ी हुई मिट्टीको प्राकृतिक हंगले प्राप्त बाय निमित्तों के सहयोगरा जो पनि सतत होती रहती हैं उन पर्यायों के समान मिट्टी की वे स्थास, कोश, कुशूल और घट रूप स्थूल पायें
और इन स्वात, कोश, कुमार और स्टाय पर्यायोंमें अन्तर्मग्न क्षण-क्षणयर्ती पर्वायें भी अनायास प्राप्त बाम निमित्तों के सहयोगसे ही हो जाती हों, ऐसा नहीं है अथवा मिदीकी स्वप्रत्यय पर्यायों की तरह बाह्य निमित्लोमा सहयोग के बिना हो जाती हों, ऐमा भी नहीं है। अपितु बुम्भकार द्वारा संकल्पपूर्वक तदनुकूल क्रियाव्यापार किये जाने पर ही होती हैं और जब तक कुम्भकार अपना तन्नुकूल क्रियान्यापार नहीं करता तब तमा मिट्टीमें ग पोंका उत्पन्न होना संभव नहीं है । इससे स्पष्ट है कि मिट्टी में उन पर्यायोंके उत्पन्न होने के लिए कुम्भकारका तदनुकूल क्रियाव्यापार अपेक्षित रहता है । अर्थात मिट्टी में घटोत्पत्तिके अवसरपर जो प्रथमतः स्थामपर्यायका, इसके पश्चात कोशपर्यायका और हमके भी पश्चात कुशलपर्यायका विकास हो जाने पर घटपर्यायका विकास होता है। वह सब निकास कुम्भकारका तदनुकूल क्रियाव्यापार चालू रहते ही होता है और इमलिये हो यह माना जाता है कि मिट्टी में रथाससे लेकर वट पर्यन्त क्रमशः होने वाली उन स्थास, कोश, कुशल और घटः पर्यायों तथा उनकी क्षण-क्षणवती पर्यायों की उत्पत्ति तदनकल क्रियावयापारमें प्रवृत्त बृम्भकार का राहयोग रहते ही होता है, अन्यथा नहीं । इतना अवश्य है कि जिस प्रकार उन पर्यायोंमें मिट्टीका प्रवेश रहता है, या के पर्या मिट्टीमें प्रविष्ट रहतो हैं उस प्रकार उन पर्यायोंमें तदनुकल क्रियाध्यापारमें प्रवस कुम्भकारका प्रवटा नहीं होता था ये पर्याचं उस कुम्भकारमें प्रविष्ट नहीं होती। अतएव मिट्टीकी उन पर्यायों के विकासमें उरा कुम्भवारको अराद्भूत व्यवहार कारण माना जाता है । इसके अतिरिक्त कुम्भकाका वह क्रियाव्यापार नगणशील चक्रक सहयोगसे होता देखा जाता है और चक्रका' वह भ्रमण तदनुफल क्रियाशील दाटी सहयोगी होता देखा जाता है, अतः यह भी माना जाता है कि कुम्भकारके उस क्रियाव्यापार में भ्रमणशोल चक्र असदभूत व्यवहारकारण है और चक्रके उस भ्रमधमें अयनुकूल क्रियाशील दण्ड असदभूत व्यवहारकारण है। यदि मिट्टीकी उन प्रर्यायोंकी उत्पत्तिको अपेक्षा विचार किया जाय तो इनकी इरा असदगत व्यवहारकारणतामें यह अन्तर भी पाया जाता है कि पिट्रोमें मन पर्यायोंकी उत्पत्ति में साक्षात् अनतन्यवहारकारण होनेसे कुम्भकार अनुपचरितअसद्भुतव्यवहारकारण है, चक्र