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द्वितीय दौर
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शंका ४
व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका साधक है या नहीं ? प्रतिशंका २
इसका उत्तर आपने यह दिया है— 'निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चयधर्मको उत्पत्तिको अपेक्षा यदि विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्म की उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती हैं ।"
अपने इस अभिप्रायकी सिद्धिके लिये नियमसारको गाथा १३ और १४ का प्रमाण उपस्थित किया है, जिसके आधार पर आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि चूंकि स्वभाव पर्याय परनिरपेक्ष है और इस तरह निश्चयधर्म जब परनिरपेक्ष सिद्ध होता है तो इसे व्यवहारधर्म सापेक्ष कैसे माना जा सकता है ।
आपके उत्तरसे यह मालूम होता है कि सबसे बड़ी चिन्ता आपको यही है कि यदि निश्चयधर्मको व्यवहारधर्म सापेक्ष माना जाता है तो फिर निश्चयधर्मको आत्माको विभाव पर्याय माननेका प्रसंग उपस्थित हो जायगा, परन्तु इस पर हमारा कहना यह है कि व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म दोनों आत्मा ही धर्म है । निश्चयधर्म में व्यवहारधर्मकी साध्यता मान लेने पर भी परनिरपेक्षता का सद्भाव बना रहने से (निश्चय धर्मके समान व्यवहार धर्म भो पर नहीं है, इसलिये) निश्चयधर्मको आत्माको स्वभाव पर्यायताका अभाव नहीं हो
सकता ।
आगमर्भे व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साचक बतलाया है। जिसके कुछ प्रमाण निम्नलिखित है-निश्चय व्यवहारयोः साध्य साधनभावत्वात्सुवर्णसुवर्णपाषाणवत्
अर्थ - निश्चय और व्यवहार में परस्पर साध्यसाधनभाव है, जैसे सोना साध्य है और सुवर्णपाषाण साधन है। पंचास्तिकाय गा० १५९, श्री अमृतचन्द्रजीकृत टीका तथा परमात्मप्रकाश अ० २ १२ टीका ।
भिन्नविषयश्रद्धान- ज्ञान चारित्रे रधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्यसाधनभावस्य रजक - शिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतिविहितोषपरिष्वङ्गमलिनवासस इव मनाङ मनाविशुद्धिमविगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शन- ज्ञान चारित्रसमाहितस्वरूपे विश्रान्तसकलक्रिया काण्ड डम्बर निस्तरंग परम चैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूत्रयन्तः ।
- पंचास्तिकाय गा० १७२ अमृतचन्द्रसूरिकृत टीका
अर्थ — जीव पहले भिन्नस्वरूप श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप व्यवहाररत्नत्रय से शुद्धता करते हैं- जैसे aata ant धोबी भिन्न साध्यसाधनभावकर शिलाके ऊपर साबुन आदि सामग्रियोंसे उज्ज्वल करता है, तँसे ही जीव व्यवहार नयका अवलम्बन पाय भिन्न साध्यसाधन भावके द्वारा क्रमसे विशुद्धताको प्राप्त होता हैं। तदनन्तर निश्चय नयकी मुख्यतासे भिन्न साध्यसाधनभावका अभाव होनेसे दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप fe सावधान होकर अन्तरंग गुप्त अवस्थाको धारण करता है ।