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शंका है और उसका समाधान अपर पक्षने अपने पक्ष के समर्थनमें समयसार गाथा १०० को उपस्थित किया है, किन्तु यह गाथा विस यानिमायसे निबस का गई है। इसके लिए समसार ०७ गाया अवलोकनीय है। उसके प्रकाशमें इस
पहनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि गाथा १०० में आचार्य कन्दकन्दने जो कुम्भकारके योग और विकल्पको घटका उत्पादक कहा है और आचार्य अमतचन्दने कुम्भकारके योग और विकल्पको जो निमित्त कर्ताकहा है यह किस अभिप्रायसे कहा है। गाथा १०७ में यह स्पष्ट बतलाया गया है कि आत्मा पगल कर्मको उत्पन्न करता है, करता है, धिता है, परिणमाता है और ग्रहण करता है यह सब कथन व्यवहारनय का वक्तव्य है । गाथा १०० में तो मात्र निमित्त कर्ताके अर्थमें किस प्रकारका प्रयोग किया जाता है यह बतलाया गया है। किन्तु गाया १०७ में ऐसा प्रयोग किस नयका विषय है इसे स्पष्ट किया गया है । अतः इस परसे भी अपर पक्षके अभिप्रायकी पुष्टि न होकर हमारे ही अभिप्रायको पुष्टि होती हैं ।
अपर पक्ष यह तो बतलाये कि जब जिसमें निमित्त व्यवहार किया गया है उसका कोई भी धर्म जिसमें नैमित्तिक दवहार किया गया है उसमें प्रविष्ट नहीं होता तो फिर वह उसका यथार्थमें निमित्त कर्ता-कारणरूपसे कर्ता कैसे बन जाता है ? बागममें जब कि ऐसे कथनको उपचरित या उपचरित्तोपचरित स्पष्ट शब्दों में घोषित किया गया है तो अपर पक्षको ऐसे आगमको मान लेनेमें आपत्ति ही क्या है । हमारी रायमें तो उसे ऐसे कथनको बिना हिचकिचाहटके प्रमाण मान लेना चाहिए ।
____ अपर पक्षने प्रमेयरत्नमाला समुद्देश ३ सू० ६३ से 'अन्वय-व्यतिरेक' इत्यादि बचन उद्धत कर अपने पक्षका समर्थन करना चाहा है, किन्तु इस वचनसे भी इतना ही ज्ञात होता है कि जिसके अनम्तर जो होता है वह उसका कारण है और इतर कार्य है। यही बात इसी सूत्रकी व्याख्यामें इन शब्दोंमें कही गई है--
तस्य कारणस्य भावे कार्यस्य भाबित्वं तद्भावभावित्वम् । उसके अर्थात् कारण होने पर कार्यका होना यह तद्भावभावित्व है ।
किन्तु यह सामान्य निर्देश है । इससे बाह्य सामग्रीको उपचरित कारण क्यों कहा और आम्यन्तर सामग्रीको अनुपचारित कारण क्यों कहा यह ज्ञान नहीं होता । इसका विचार तो उन्हीं प्रमाणोंके आधार पर करना पड़ेगा जिनका हम पूर्व में निर्देश कर आये है ।।
__ यह तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक द्रव्यमें एक कालमें एक ही कारण धर्म होता है और उस धर्मके अनुसार वह अपना कार्य भी करता है। जैसे कुम्भकारमें अब अपनी क्रिया और विकल्प करनेका कारण धर्म है तब वह अपनी क्रिया और विकल्प करता है, मिट्टोकी घट निष्पत्तिरूप क्रिया नहीं करता । ऐसी अवस्थामें कुम्भकारको घटका कर्ता उपचारसे ही तो कहा जायगा । और उस उपचारका कारण यह है कि जब कुम्भकारकी विवक्षित किया और विकल्प होता है तब मिट्टी भी उपादान होकर घटरूपरो परिणमती है । इस प्रकार कुम्भकारको विवक्षित क्रियाके साथ घट कार्यका अम्बय-व्यतिरेक बन जाता है । यही कारण है कि कुम्भकारको घटका कर्ता उपचारसे कहा गया है। किन्तु ऐसा उपचार करना तभी सार्थक है जब वह यथार्थका ज्ञान करावे, अन्यथा वह व्यवहाराभास ही होगा। यह वस्तुस्थितिका स्वरूप निर्देश है। इससे बाह्य सामग्रीमें अन्य द्रव्य कार्यकी फारणता काल्पनिक ही है यह ज्ञान हो जाता है। फिर भी आगममें इस कारणताको काल्पनिक न कहकर जो उपपरित कहा है वह सप्रयोजन महा है। खुलासा पूर्व में ही किया है और आगे भी करेंगे।