________________
१०४
जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा होता रहता है। उस सम्मिलित परिणामके विभाजनको बिचारा तो जा सकता है किन्तु किया नहीं जा सकता । अब हम शुभोपयोगके विषयमें विचार करते हैं तब वहाँ भी ऐसा ही मिश्रित फल प्रगट होता हला प्रतीत होता है । राग और विराग अंशोंका सम्मिलित रूप शुभोपयोग हुआ करता है जिसको कि अंश विमाजन द्वारा विचारा तो जा सकता है कि इसमें इतना अंश राग परिणामका है और इतना अंश विराग परिणामका है, परन्तु उस मिश्रित परिणामका क्रियात्मक विभाजन नहीं किया जा सकता ।
तदनुसार चौधे, पांचवें, छठे, सातवें गुणस्थानोंकी शुभ परिणतिमें सम्मिलित सम्यक्त्व, जाम, चारित्र, चारित्राचारित्रकृत विराग
चारित्राचारित्रक्रत विराग अंश भी होता है और कुछ कषाय नोकवायकृत रागोश भी होता है, तदनुसार उन गुणस्थानोंमें सम्मिलित एक विचित्र प्रकारका परिणाम होता है जैसा कि मित्र गुणस्थानमें सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व भावसे पृथक् विचित्र प्रकारका मिश्र परिणाम होता है, उस मित्र गुणस्थानके विचित्र मिश्रित परिणाममें श्रद्धा, अश्रद्धाका क्रियात्मक विभाजन अशक्य होता है । तदनुसार शुभ परिणतिकी मिश्रित अवस्था हुआ करती है जिससे कि कर्मबम्घ, फर्मसंवर और कर्मनिरा ये तीनों कार्य एक साथ हुआ करते हैं।
यह बात भी ध्यानमें रखने योग्य है कि पौधेसे सात गुणस्थान तक शुभोपयोग ही होता है, अन्य कोई शुद्धोपयोगांश आदि उन गुणस्थानोंमें नहीं होता, क्योंकि एक समयमें एक ही उपयोग होता है और आत्मा उस समय अपने उपयोगसे तन्मय होता है। एक समय में दो उपयोग साप साप नहीं हो सकते है। इसके प्रमाणमें श्री प्रवचनसारकी गाथा ८ व ९ देखनेकी कृपा करें:
जीवी परिणदि जदा सुहेण असुहेण या सुहो असुहो ।
सुखेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसन्मावो ॥९॥ अर्थ-जब यह परिणाम स्वभाववाला जीव शुभ-अशुभ या शुखभावकरि परिणमता है, तब शुभअशुभ या शुद्ध रूप ही होता है।
जिस तरह जलता हुआ दीपक अपने एक ही ज्वलित परिणामसे प्रकाश, अन्धकारनाश, उष्णता, तेलशोष ( तेलसखाना ), बती जलाना आदि अनेक कार्य करता है उसी तरह एक समयमें होनेवाले केवल एक शभ उपयोग परिणाम द्वारा कार्यकारणभावसे कर्मबन्ध, कर्मसंवर और कर्मनिर्जरारूप तीनों कार्य होते रहते हैं । यही शुभ उपयोगरूप पुण्य आत्माको मुक्तिके निकट लाता है ।
पहला गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्व के सम्मुख होता है तब शुद्ध परिणामों के अभावमें भी असंख्यातगुणी निर्जरा, स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात करता ही है। सात् शुभोपयोग रूप पुण्यका प्रत्येक भाव कर्म-संवर, कर्म-निर्जरा, कर्मबन्धरूप तीनों कार्य प्रतिसमय किया करता है, अतः जीवदया, दान, पूजा, व्रत आदि कार्य गुणस्थानानुसार संवर, निर्जराके भी निर्विवाद कारण हैं। जिसके कुछ अन्य प्रमाण भी नीचे दिए जाते हैं । स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी निम्न गाथा ध्यान देने योग्य है
णिज्जियदोस देवं सजिवाणं दयावरं धम्म ।
वज्जियगथं च गुरुं जो मण्णादि सोह्र होदि सट्टिी ॥३१७।। अर्थ-जो क्षुधा तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित देव, सर्व जीवोंपर दया करने वाले धर्म और अन्य--परिग्रह रहित गुरुको मानता है वह सम्यग्दृष्टि है।