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शंका ३ और उसका समाधान
११५ निर्षराका भी हेतु है । किन्तु इससे यही सिद्ध होता है कि जो रागांश है वह एकमात्र आस्रव और बन्धका हेतु है और जो रत्नत्रयांश है वह संवर और निर्जराका हेतु है ।
यह तो अपर पक्षने भी स्वीकार कर लिया है कि रागाथा १० गुणस्थानके अन्त तक पाया जाता है ऐसी अवस्थामें बह रागांश और रत्नत्रयांश मिथित रूप शुभभावको छठे गुणस्थान तक ही क्यों स्वीकार करता है, आगे क्यों नहीं स्वीकार करता ? यदि वह कहे कि आगे ध्यानकी भूमिका है. इसलिए वहाँ पर लक्ष्यसे बुद्धिपूर्वक रागको प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है । अतः वहाँ रागांश एकमात्र बन्धका ही हेतु है। तब तो इससे यही सिद्ध होता है कि अबुद्धिपूर्वक जितना भी रागांश है वह तो मात्र बन्धका कारण है ही। बुद्धिपूर्वक राग भी बम्घका ही कारण है। और इस कथनसे यह तथ्य सुतरां फलित हो जाता है कि रत्नत्रयांश स्वयं आरमस्वरूप होनेसे अणुमात्र भी बन्धका हेतु नहीं ।
अपर पक्षने अपने विचारोंके समर्थनमें एक भोजनका उदाहरण दिया है और दूसरा कालेका उदाहरण दिया है। किन्तु ये उदाहरण ही इस बातका समर्थन करते है कि भोजनमें या काडेमें जिन तत्त्वोंका समावेश होता है उनसे उन्हीं तत्त्वोंकी पुष्टि होती है। उदाहरणार्थ काम कफ क्षयकारक द्रव्यका समावेश कर ही उस काढ़े पान करने पर कफकी हानि होती है, अन्यथा नहीं होती । इससे सिद्ध है कि प्रत्येक तत्त्व अपना-अपना ही कार्य करता है, अन्यका नहीं। कर्मशास्त्र भी इसी आशयका समर्थन करता है। बारहवें गुणस्थानमें ज्ञानावरणका उदय है। पर उससे मोह मा र्यायवीजन में गोमाती। कर्मका विपाक किस प्रकार होता है इसका ज्ञान कराते हुए तत्त्वार्थ सूत्र अ० ८ सू ० २२ में बतलाया है'स यथानाम ।' जिस कर्मका जो नाम है, उसके अनुसार ही उसका फल होता है। इससे सिद्ध है कि जिसका जो कार्य है उससे उसी कार्यकी निष्पत्ति होती है, अन्य कार्यकी निष्पत्ति होना निकालम सम्भव नहीं। फिर भले ही वे मिलकर ही क्यों न रहें। किन्तु करेंगे अपना-अपना ही कार्य। इसी प्रकार रागभाव और रत्नत्रयके विषयमें भी जान लेना चाहिए ।
____ अपर पक्षाने चौथेसे लेकर सातवें गुणस्थान तककै परिणामको मित्रगुणस्थानके परिणामके समान बतलाते हुए लिखा है कि 'उन गुणस्थानोंमें सम्मिलित एक विचित्र प्रकारका परिणाम होता है जैसा कि मिश्र गुणस्थानमें सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्वभावसे पृथक् यिचित्र प्रकार का परिणाम होता है, उस मिश्र गुणस्थानके विचित्र मिश्रित परिणाममें श्रद्धा-अश्रद्धाका क्रियात्मक विभाजन अशक्य होता है। तदनुसार शुभ परिणतिकी मिश्रित अयस्था हा करती है जिससे कि कर्मबन्ध, कर्मसंबर और कर्मनिर्जरा ये तीनों कार्य एकसाथ हुआ करते हैं। किन्तु अपर पक्ष का यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि इससे पूरी मोक्षमार्गकी व्यवस्था ही गड़बड़ा जाती है। जो कर्मशास्त्रका साधारण जानकार भी होगा वह भी ऐसे विचित्र कथनको त्रिकालमें स्वीकार नहीं करेगा।
यह तो सभी जानते है कि तीसरे गुणस्थानमें कारण एक है-सर्पधाति मिश्रप्रकृतिका उदय । तदनुसार उसका कार्य भी एक है--मिश्र परिणाम । इसलिए उसे अशक्यविवेचन कहा है । गोम्मटसार जीवकाण्डमें कहा भी है
सम्मामिच्छुदयेण य जत्तंतरसम्वधादिकज्जैण । ण य सम्म मिच्छ पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१।। ।