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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
हुआ आत्मा रनको उत्पन्न करता है और रत्नत्रयपरिगत आत्मा गोलको उत्पन्न करता है, परन्तु यह बात कोई साहसपूर्वक नहीं कह सकता कि जीवित शरीरको किया रत्नत्रय या मोक्षको उत्पन्न करती है।"
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उत्तरपक्ष के इस कथनसे ऐसा लगता है कि वह अपनेको तो तरनज्ञ समझता है और पूर्वपक्ष को अतत्वज्ञ समझता है । केवल यहीं पर नहीं, अपितु तत्वचर्चा में सर्वत्र उत्तरपक्ष ने ऐसा ही समझकर अपनी लेखनी चलाई है। लेखनी चलाने से पूर्व उसने कहीं पर भी यह समझने का प्रयास नहीं किया कि पूर्वपक्षी अमुक विषयमें क्या मान्यता है और यह अपने भक्तों में क्या कह रहा है यदि वह पूर्वपक्ष की मान्यताओं और उस वक्तव्योंके अभिप्रायोंको समझकर अपनी देवी चलाने की बात सोचता तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वह (उत्तरपक्ष) अपनी लेखनी अनर्गक रंगसे कदापि नहीं चलाता । उत्तरपक्ष द्वारा सर्वत्र अनर्गल ढंगसे लेखनी चलाने का यह परिणाम हुआ हूँ कि तत्वचर्चा अत्यधिक लम्बायमान हो गई है और वह सार्थक भी नहीं हो सकी है।
प्रकृत में उत्तरपने अपने वक्तव्य पूर्वपत्र के प्रति जो कुछ लिखा है उसमें मेरा कहना यह है कि जिस प्रकार उत्तरपक्ष कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्रीको उपचरित कारण और आभ्यन्तर सामग्रीको अनुपचारित कारण मानता है उसी प्रकार पूर्वपक्ष भी कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्रीको उपचरित कारण और आभ्यन्तर सामग्रीको अनुपचरित कारण मानता है। दोनों पक्षोंकी मान्यताओंमें अन्तर केवल यह है कि उत्तरपक्ष कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्रीको जो उपचरित कारण मानता हूँ यह अकिंचित्कर रूपमें मानता है। और पूर्वपक्ष कार्योत्पत्ति बाह्य सामग्रीको जो उपचरित कारण मानता है वह अफिचिरकर रूपमें न मानकर उपादानका सहायक होने के आधारपर कार्यकारी रूपमें मानता है। अब देखना यह है कि क्या उत्तरपक्ष साहसपूर्वक यह कह सकता है कि कोई भी भव्य जीन मानवशरीर प्राप्त किये बिना और उसमें भी बच्च वृषभनाराच संहनन प्राप्त किये बिना मोक्ष प्राप्त कर सकता है तथा वह क्या सुषमा दुःषमा, दुःषमा- सुषमा और दुःषमा-इन तीन कालोंसे अतिरिक्त किसी अन्य कालमें मोक्ष प्राप्त कर सकता है? यदि नहीं, तो मोक्ष प्राप्ति में इनको अकिंचित्कर कैसे माना जा सकता है ? रही उपादानके समान इनको कारण माननेकी बात सरे पूर्वपक्ष इन सबको उपादानकारणके समान कारण कहाँ मानता है? यह तो इन्हें केवल उपादानका सहायक कारण ही मानता है, क्योंकि इनके अभाव में कोई भी भव्य जीव त्रिकालमें मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है । इसलिये 'अन्तरं महदन्तरम्' की बात पूर्व पक्षपर लागू न होकर उत्तर पक्षपर ही लागू होती ही वास्तविक मूल्य हो सकता है कि इस महान्
इस तरह उतरपक्षको अपेक्षा मेरे इस कपनका अन्तरको उत्तरपक्ष ध्यानमें ले यही मेरी भावना है ।'
यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि पूर्व पक्ष जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियाको मोक्षका साधन नहीं मानता है वह तो शरीरके सहयोग से होनेवाली जोक्की क्रियाको ही मोक्षका साधन मानता है और वह किस प्रकार मोक्षका साधन होती है तथा किस प्रकार संसारका साधन बन रही है, इसका स्पष्टीकरण प्रकृत प्रश्नोत्तरकी समीक्षा में विस्तारसे किया जा चुका है, इसलिये उत्तरपक्षने अपने प्रकृत कथन में यह तो कोई भी साहसपूर्वक कह सकता है' इत्यादि जो कुछ लिखा है वह सब निरर्थक हो सिद्ध होता है।
उत्तर पक्षने अपने प्रकृत कनके समर्थन में सर्वार्थसिद्धि ० १ ० १ में निर्दिष्ट निम्नलिखित वचन उपयुक्त किया है-