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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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स्वपरप्रत्यय कार्योके होने की स्वाभाविक योग्यता मानी गई है वह उपादान और निमित्त उभय कारण जन्यताके सपमें ही स्वीकार करना उचित है जिसका आाय यह होता है कि उपादान जो कार्यरूप परिणत होता है, उसको वह कार्यरूप परिणति निमित्तकारणभूत वस्तुको महायतापूर्वक ही हुआ करती है। इसके अनुसार उपादानभूत वस्तुमें उपाधानता अर्थात कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यताके भमान निमित्तभूत वस्तुमें निमित्तता अर्थात उपादानकी कार्यरूप परिणतिम सहायक होनेरूप स्वाभाविक योग्यता भी स्वीकार करना आवश्यक है। इससे निर्णीत होता है कि उपादान और निमित्त दोनों ही प्रका के कारण नित्य और अनित्य दो-दो प्रकारके होते है। अत: जिस प्रकार कार्यरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट वस्तुको नित्य उपादान और उसकी कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायको अनित्य उपादान माना जाता है उसी प्रकार नित्य उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेरूण स्वाभाविक योग्यताविशिष्ट वस्तुको नित्य निमित्त और उसके उस उपादानभत' वस्तुको कर्यरूप परिणतिमें सहायक होनेरूप व्यापारको अनित्य निमित्त जानना चाहिए । जैसे कोई व्यक्ति अपने पुत्रको अध्ययन करने योग्य समझकर उसे अध्ययन करानेकी दृष्टिसे अध्यापक अर्थात् अध्यापन करानेकी योग्यता विशिष्ट व्यक्ति के पास ले जाता है । अध्यागी उन दुई पामार कर यो मतकर उसे लक्ष्य करके अध्यापन क्रिया करने लग जाता है । अब यदि पुत्र सुबोध होता है अर्थात् अध्ययन करनेकी स्वामाविक योग्यता विशिष्ट होता है तो वह अध्यापककी उस अध्यापन क्रियाकी सहायतासे अध्ययन करनेमें सफल हो जाता है। इसके विपरीत पुत्र यदि मन्दबुद्धि हुआ अर्थात् अध्ययन करनेको स्वभाविक योग्यतारहित हुआ तो अध्यापककी अध्यापन क्रियाकी सहायता प्राप्त रहनेपर भी वह अध्ययन करने में असमर्थ ही बना रहता है । कार्यकी उत्पत्ति में उपादानोपादेयभाव और निमित्त नैमित्तिकभावकी यही प्रक्रिया है। परन्तु उत्तरपक्ष ऐसा न मानकर कहता है कि उपादान अपने कार्य के सन्मुख होनेपर अर्थात् कार्यान्यवहित पूर्व पामरूप परिणत होनेपर नियमसे कार्यरूप परिणत हो जाता है और निमित्त यद्यपि वहां उपस्थित रहता है, परन्तु वह उपादानकी उस कार्योत्पत्तिमें सर्वथा अकिंचिकर ही बना रहता है अतः उसमें केवल निमित्त व्यवहार किया जाता है, सो उसकी यह मान्यता एकान्त नियतिवाद और एकान्त नियतवादपर ही आधारित है। इन दोनों वादों की समीक्षा में प्रश्नोत्तर ५ और प्रश्नोत्तर ६ को समीक्षा करते समय कामंगा इस सम्बन्धमें मैं यहां मात्र इतना कह देना आवश्यक समझता है कि निमित्तभूत वस्तुमें उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेरूप निमितताको यदि नित्य नहीं माना जाय, तो बद्धिमान व्यक्तिका उस कार्यकी उत्पत्ति में उसकी कार्योत्पत्तिके पूर्व महण करना संभव नहीं रह जायगा। इतना ही नहीं, जब कायोत्पत्ति में निमित्त सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है तो उसमें निर्मितव्यवहार करनेकी क्या आवश्यकता रह जाती है। तत्त्वजिज्ञासुओंको इसपर विचार करना चाहिये ।
उत्तरपक्षने अपने इसी वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि 'अपरपक्षको समझना चाहिए कि सुबोध छात्रका होना अन्म बात है और छात्रका उपादान होकर अध्ययन क्रियासे परिणत होना अन्य बात है।" सो उत्तरपक्षके लिए 'सुबोध छात्रका होना' इस कथनको छात्रकी अध्ययन करनेकी स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शक्तिका परिचायक व 'उपादान होकर क्रियासे परिणत होना' इस कथनका अध्ययन करने में प्रवत्तिसे अव्यवहित पूर्व पर्यायरूप अनित्य उपादान शक्ति का परिचायक ही मानना होगा, जिसके विषयमें पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है। इसी तरह उत्तरपक्षने वहींपर जो यह लिखा है कि “इस प्रकार अपरपक्षको यह भी समझना चाहिए कि अध्यापकका अध्यापनरूप क्रिया करना अन्य बात है और उस किया द्वारा अन्यके