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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अपर पक्ष ने समयसारकी 'अप्पडिकमणं दुविहं' गाथा उबूत कर तीन गाथाओंको टीका दी है। और उस परसे यह सिद्ध किया है कि पर द्रव्य निर्मित कारण है और आश्माके रागादि विकार पर द्रव्यके निमित्तसे होते हैं।' पर अपर पक्ष इस तथ्य को भूल जाता है कि पर द्रव्यमें रागादिकी निमित्तताका व्यवहार कब होता है, उनके प्रति प्रीति- अप्रीति करने पर या सदा काल ही । यदि वे सदा काल निमित्त हैं तो इस जीवके रागादिका परिहार होना सदा काल असम्भव है। यदि इस दोषसे बचने के लिए अपर पक्षका यह कहता हो कि जब यह जीव उनके प्रीति - अप्रीतिरूप परिणाम करता है तभी वे रापादिकी उत्पत्तिमें निमित्त है, अन्यथा नहीं। तो इससे सिद्ध हुआ कि यह रागाविष्ट जीव आप कर्ता होकर रागादिको उत्पन्न करता है, पर जिनको लक्ष्य कर यह रागादिको उत्पन्न करता है उनके साथ रागादि परिणामोंका निमित्तनैमित्तिकपना बन जाने से उनका प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान कराया जाता है । जैसे आत्मा स्वभावसे रागादिका कर्ता महीं है, वैसे हो परद्रव्य मी स्वभावसे रागादिकके उत्पादक नहीं है। उनमें उत्पादकताका व्यवहार तभी बनता है जब कि उनके लक्ष्य से आत्मा रागी, द्वेषी हो परिणमता है। आत्मामें पायी जानेवाली कोवादिरूपताके सम्बन्ध में भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए। इसका विशेष ऊहापोह ५वें प्रश्नके तीसरे उत्तर में करनेवाले हैं ही। पण्डितप्रवर दौलतरामजीने छहढालाकी तीसरी ढालमें व्यवहारधर्म में जो निश्चयधर्मकी हेतुताका उल्लेख किया है वह व्यवहारहेतुता की दृष्टिसे ही किया है। व्यवहार धर्म जब कि स्वयं उपचरित धर्म है तो वह निश्चयधर्मका उपवरित हेतु ही हो सकता है । इससे सिद्ध होता है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका परमार्थसे साधक नहीं है । उसे निश्चयधर्मका साधक उपचार नयका आश्रय करके ही कहा गया है ।