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शंका-समाधान १ को समीक्षा
१५५ कार्योत्पत्तिमें साधक मान लिया है यह तो ठीक है, परन्तु कारिकामें पठित "द्रव्यगतस्वभावः' पदका अर्थ समझने में आपन भूल कर दी है और उस भूलके कारण ही आप निमित्तको उपादानसे कार्योत्पत्ति होने में उपचरित अर्थात् कल्पनारोपित कारण मानकर केवल उपादानसे ही कार्योत्पत्ति मान बैठे हैं। इसके साथ अपना एक कल्पित सिद्धान्त भी आपने बिना आगम प्रमाणके अनुभव और तक के विपरीत प्रस्थापित कर लिया है कि प्रत्येक समयमे निमित्तकी प्राप्ति उपादानके अनुसार ही होती है जिसका आशय संभवतः आपने यह लिखा है कि उपादान स्वयं कायोत्पत्तिके समय अपने अनुकूल निमित्तोको एकत्रित कर लेता है।
इराकी आलोचना करते हुए उत्तरपक्षने त० च पृ० ६७ पर लिखा है कि ''आगे अपरपक्षने हमारे द्वारा उल्लिखित स्वामी समन्तभद्रकी "बाह्येतरोपाधि" इत्यादि कारिकाकी चर्चा करते हुए हमारी मान्यताके रूपमें लिखा है कि संभवतः हम वह मानते है कि "उपादान स्वयं कार्योत्पत्तिके समय अपने अनुकूल निमित्तोंको एकत्रित कर लेता है"। किन्तु अपरपक्षने किस कथनके आधारपर हमारा यह अर्थ फलित किया है यह हम नहीं समझ सकें"। इसके आगे उसने (उत्तरपक्षने) स्वयं लिखा है कि "हमने भट्टाकलंक देवकी अष्टदातीके ''तादृशी जावत बुद्धिः"--इस कथनको प्रमाण रूप से अवश्य ही उद्धत किया है और यह निर्विवाद रूपसे प्रमाण है । परन्तु इससे भी उक्त आशय सूचित नहीं होता' |
इसको समीक्षामें मेरा कहना यह है कि "तादृशी आयते युतिः" इत्यादि वचनको उत्तरपक्ष प्रमाण तो मानता हो है अतएव इसके आधारपर हो पूर्वपक्षने उसके स च पृ० ९ पर निर्दिष्ट "पर नियम यह है कि प्रत्येक समयमें निमित्तको प्राप्ति उपादानके अनुसार ही होती है। इस कथनका उसके (उत्तर द्वारा उपत आशय लिये जानेकी संभावना प्रगट की है। अब यदि उत्तरपक्ष 'ताशी जायते बुद्धिः" इत्यादि कथनको प्रमाण मानकर भी यह कहता है कि "इससे भी उयत आशय सुचित नहीं होता तो उसे इसका स्पष्टीकरण करना चाहिए था । पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि "तादृशी जायते बुद्धिः" इत्यादि कथन इसी बातको सूचित करता है कि "उपादान स्वयं कार्योत्पत्तिके समय अपने अनुकूल निमित्तोंको एकत्रित कर लेता है" परन्तु इसके साथ पूर्वपक्षका यह भी कहना है कि उक्त कथन जनागमका नहीं है, इसलिए प्रमाण रूप नहीं है। आचार्य भट्टाकलंकदेवने अष्टशती में उसका उद्धरण लोकोक्तिके रूपमें उन लोगोंकी मान्यताका खण्डन करने के लिए किया है जो गुरुषार्थसे अर्थसिद्धि मानते हुए भी "तादृशी जायते बुद्धिः" इत्यादि कथनके आभारपर पुरुपा की सिद्धि देवगे स्वीकार करते हैं। इस कथनको जैनागमका कथन न मानने में हेतु यह है कि जैनागमके अनुसार कार्योत्पत्ति भवितव्यता और पुरुषार्थ आदि स्वतन्त्र होते हुए एक दूसरेके पूरक होते है अर्थात दोनोंमसे कोई भी एक दुसरेकी अधीनतामें निष्पन्न नहीं हुआ करता है । केवल इतनो बात अवश्य है कि कार्योत्पत्ति में दोनों ही अपेक्षित रहा करते है । इसका आशय यह होता है कि भवितव्यता हो लेकिन पुरुषार्थ आदि बाह्य साधन विद्यमान न हों तो कार्योत्पत्ति नहीं होगी। इसी तरह भवितव्यता न हो, लेकिन पुरुषार्थ आदि बाह्य साधन हों तो भी कार्य नहीं होगा। इस तरह "तादुशी जायते बुद्धि." इत्यादि कथन जैनागमका अंग नहीं हूँ यह बात अच्छी तरह निर्णीत हो जाती है। . कथन ७१ और उसकी समीक्षा
(७१) आगे उत्तरपक्षने त० च० १० ६८ पर उक्त अनुच्छेदमें ही यह लिखा है कि "निमित्तोंको जुटाने की बात तो अपरपक्ष की ओरसे ही मथार्थ मानी जाती है। उसकी ओरसे इस आशयका कथन ५वीं शांकाके तीसरे दौर में किया भी गया है। हम तो ऐसे कपनको केवल विकल्पका परिणाम मानते हैं। अतएव