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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
तात्पर्य यह है कि जो अपने उपादानको सम्हाल करता है उसके लिए उपादानके अनुसार कार्य काल में निमित्त अवश्य ही मिलते । ऐसा नहीं है कि उपादान अपना कार्य करने के सम्मुख हो और उस कार्य में अनुकूल ऐसे निमित्त न मिलें। इस जीवका अनादिकालसे पर द्रव्यके साथ संयोग बना चला आ रहा है, इसलिए वह संयोगकाल में होने वाले कार्योंको जब जिस पदार्थका संयोग होता है उससे मानता आ रहा है, यही इसकी मिथ्या मान्यता है। फिर भी यदि जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म माना जावे तो मुनिके ईसे गमन करते समय कदाचित् किसी जीवके पगका निमित्त पाकर भरनेपर उस क्रिया से मुनिको भी पापबन्ध मानना पड़ेगा । पर ऐसा नहीं है। जिनागममें कहा भी है
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वियोजयति चासुभिनं च वधेन संयुज्यते ।
- सर्वार्थसिद्धि ७-१३
दूसरेको निमित्तकर दूसरे के प्राणोंका वियोग हो जाता है, फिर भी वह हिंसाका भागी नहीं होता ।
अत एव प्रत्येक प्राणी के अपने परिणामोंके अनुसार हो पुण्य, पाप और धर्म होता है, जीवित शरीर की क्रिया के अनुसार नहीं यही यहाँ निर्णय करना चाहिए और ऐसा मानना ही जिनागमके अनुसार है ।
वृतीय दौर
: ३ ।
शंका २
जीवित शरीरकी क्रिया से आत्मामें धर्मं अधर्म होता है या नहीं ?
प्रतिशंका ३
इसके उत्तरमें आपने यह लिखा कि 'जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यको पर्याय होनेके कारण उसका अजीव तत्वमें अन्तर्भाव होता है, इसलिए वह स्वयं जीवका न तो धर्म भाव है और न अधर्मभाव ही हैं। मात्र जीवित शरीरको क्रिया धर्म नहीं ।'
इस उत्तरमें आपने जीवित शरीर की क्रियासे आत्मामें धर्म अधर्म होता है या नहीं, इस मूल प्रश्नको तो हुआ नहीं, सिर्फ़ इतना लिख दिया कि शरीरकी क्रिया धर्म अधर्म नहीं है । जैसा कि हमने पूछा हो कि जीवित शरीरकी क्रिया धर्म है या अधर्म ?
यह सर्वविदित है कि धर्म और अधर्म आत्माको परिणतियाँ है और वे आत्मामें हो अभिव्यक्त होते हैं । परन्तु उनके अभिव्यक्त होने में जीवित शरीरको क्रियाएँ निमित्त पड़ती है। यदि ऐसा न हो तो शरीर द्वारा होनेवाली समीचीन और असमीचीन प्रवृत्तियाँ निरर्थक हो जावें। कार्यकी सिद्धिमें निमित्त और उपादान—दोनों कारण आवश्यक हैं, परन्तु केवल उपादानकी मान्यता शास्त्र सम्मत कार्य-कारण व्यवस्था पर कुठाराघात कर रही है ।