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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अर्थ :- औपपादिक जन्म वाले देवों और नारकियों, चरम और उत्तम देह बालों तथा असंख्यात वर्षकी आयु वालोंको आयु अन्ववर्त्य होती है अर्थात् इनका अकाल मरण न होकर काल मरण ही होता है । शेष जीवोंका अकाल और काल दोनों प्रकारका मरण सम्भव है ।
इन दोनों आगमप्रमाणोंपर ध्यान देनेसे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने जो काल मरण और अकाल मरणकी परिभाषाएँ निश्चित की हैं वे आगमविरुद्ध हैं ।
सबसे अन्तमें पृ० ४३ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है कि "यह वस्तु स्थिति है जो अपरपक्ष के उयत वक्तव्यसे भी फलित होती है। हमें आशा है कि अपरपक्ष अपने वक्तव्यको 'किन्तु घातिया कर्मोदयके साथ ऐसी बात नहीं है वह तो अन्तरंग योग्यताका सूचक है।' इस वचनको ध्यान में रखकर सर्वत्र कार्य-कारणभावका निर्णय करेगा" ।
इसके विषय में मेरा मन्तव्य है कि पूर्वपक्ष तो अपनी इस मान्यतापर पहले भी दृढ़ था, आज भी दृढ़ है और आगे भी दृढ रहेगा कि 'घातियाक मोंदयके साथ ऐसी बात नहीं, वह सो अन्तरंग योग्यताका सूचक है' परन्तु जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्षकी इस मान्यतासेघातिया कर्मोदयमें tent विभाव परिणतिको उत्पत्तिके प्रति कार्यकारी निमित्तकारणता सिद्ध होती है, उत्तरपक्षको मान्य अर्कचित्र निमित्तकारणता नहीं। इसलिए उत्तरपक्षको पूर्वपक्ष की मान्यता के आधारपर अपनी मान्यता के विषयमें यह निर्णय करना है कि पूर्वपक्षका दृष्टिकोण सम्यक् है या उसका अपना दृष्टिकोण सम्यक् है और इस तरह उसे यदि यह बात समझ में आ जाये कि पूर्वपक्षका दृष्टिकोण ही सम्यक् है उसका अपना दृष्टिकोण सम्यक नहीं है तो उसे अपने हठवादको छोड़कर पूर्वपक्ष के आगम-सम्मत दृष्टिकोणको अपना लेना चाहिए । कथन २८ और उसकी समीक्षा
(२८) पूर्वपक्ष ने त० च० ० १३-१४ पर विविध आगम-प्रमाणके माघारपर यह सिद्ध किया है कि द्रव्यकर्मोदय संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण होता है । वह वहाँ सर्वथा अकिंचित्कर निमित्तकारण नहीं है ।
उत्तरपक्षनेत० च० पृ० ४३-४४ पर पूर्वपक्ष कथनपर विचार करते हुए "प्रस्तुत प्रतिशंकामें उल्लिखित अन्य उद्धरणोंका स्पष्टीकरण" शीर्षक के अन्तर्गत प्रथम तो उन उद्धरणोंका आशय स्पष्ट किया है और पश्चात् अपना मन्तव्य इस रूपमें व्यक्त किया है कि "अपने पक्ष के समर्थन में अपरणाने ये आठ प्रमाण उपस्थित किये हैं । इनके द्वारा किस कार्य में कौन किस रूपमें निमित्त है इसका व्यवहारसे निर्देश किया गया है ।" इसके अनन्तर अपने इरा मन्तव्य के समर्थन में उसने समयसार गाथा १०८ को प्रमाण रूपमें अद्भुत किया है। वह गाथा निम्न प्रकार है
"जह राया ववहारा दोसगुण-पादगो ति आलविदो । तह जीवो वबहारा दव्वगुणप्पादगो भणिदो ॥"
इसका अर्थ उत्तरपक्षने यह किया है जिस प्रकार राजा व्यवहारसे प्रजाके दोष गुणका उत्पादक कहा गया है उसी प्रकार जीव व्यवहारसे गुद्गल द्रव्य गुणों का उत्पादक कहा गया है।"
उत्तरपक्षने आगे यह भी लिखा है- " आशय यह है कि यथार्थ में प्रत्येक द्वय अपना कार्य स्वयं करता हूँ और बाह्य सामग्री उसमें निमित्त होती है । फिर भी लोकमे निमित्तव्यवहारके योग्य बाह्य