________________
शंका-समाधान १ की समीक्षा
०
को निश्चयनयसे पौदधिक मानने में पुनरुक्त होते हुए भी उन्हें यहाँ दिया जाता है
० ५० ४२ पर इसी प्रकारले आधारोंको स्वीकार किया है।
"उत्तरपक्ष कहता है कि "इस प्रकार उक्त कथनसे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय कर्मके उदयको अवलम्बन ( निमित्त ) कर जो गुणस्थान या रागादि भाव होते हैं ये अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा जीव ही है। यहां जो उन्हें जीब होने का निषेध कर अपेतन कहा है वह शुद्धनयकी अपेक्षा ही कहा है । तात्पर्य यह हैं कि (१) त्रिकाली ज्ञायक स्वरूप आत्माके अवलम्बनसे उत्पन्न हुई आत्मानुभूतिमें गुणस्थान या रागादि भावका प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता। (२) वे पुद्गलादि परद्रव्यका अवलम्बन करनेसे उत्पन्न होनेके कारण शुद्ध चैतन्य प्रकायस्वरूप न होकर चिदिकार स्वरूप हैं अतएव अचेतन है तथा (३) उनकी जीवके साथ वैकालिक व्याप्ति नहीं पाई जाती, इसलिए शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा वे जीव नहीं हैं. अतएव पौगलिक है " ० ० ५० ४२ १
उत्तरपक्ष के इस मनसे स्पष्ट है कि यह विधान्त है और अपने कथनको मूल जाता है तथा पूर्व पक्षपर कल्पित आरोप लगाने को उद्यत रहता है ।
लगाते
उत्तरपक्ष जानता है कि पूर्वपक्ष उत्तरके इस कथनका निषेधक नहीं है वह तो उत्तरपक्ष के इस कथनका भी पूर्ण समर्थक है कि "यह जीव अनादिकाल को भूलकर परका अवलम्बन करता आ रहा है और परफे असे उत्पन्न चिविकारोंमें उपावेय बुद्धि करता आ रहा है, इसमें हेय बुद्धि कर उनसे अवलम्बनसे विरत करना उक्त बचनका प्रयोजन है। यही कारण है कि कर्तृककार रागादि भावोंका कल स्वतन्त्रपने स्वयं जीव ही है यह बतलाकर भो जीवाजीवाधिकार में परका अवलम्बन करनेसे होने के कारण उनमें पर बुद्धि कराई गई है ।" परन्तु प्रकृत प्रकरण पूर्वपक्षने जो समयसार गाथा ६८ की टीकाका उल्लेख किया है उस उल्लेखका प्रयोजन वह नहीं है जिसे उत्तरपक्षनेत ० पृ० ४२ के उपयुक्त अनुच्छेदमें किया है, क्योंकि ऊपर बतलाया जा चुका है कि एक हो इस विषयको लेकर दोनों पक्षोंके मध्य कोई मतभेद नहीं है और दूसरे प्रकृत विषयके साथ उसका कोई सम्बन्ध भी नहीं है प्रकृत विषय तो मात्र इतना ही हैं कि कर्मके उसकी संसारी आत्मा विकार भाव और चतुर्थीतभ्रमण में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण माना जाये या उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अर्किचित्कर निमित्त कारण ही मान लिया जाये। पचपि ० ० ० ४२ के उपर्युक्त अनुच्छेदने उत्तरपदाने भी यह स्वीकार किया है कि जीवना जो गुणस्थान या रामादि भाव रूप परिणमन होता है यह मोहनीय कर्मका अवलम्बन (निमित) कर ही होता है, परन्तु आश्चर्य इस बातका है कि उत्तरपक्ष ऐसा स्वीकार करके भी मोहनीय कर्मके उदयको वहाँपर सहायक होने रूपसे कार्यकारी निभिसकारण न मानकर सहायक न होने रूपसे अकिचिरकर निमित्त कारण ही मानता है व संसारी आत्माके विकारी भाव तथा चतुर्गतिभ्रमण रूप परिणतिको उसके सहयोग बिना अपने आप ही मान लेता है जिसे आगमविरुद्ध बार-बार कहा जा चुका है। पर उत्तर पक्ष अभी तक उसका आगमानुसार समाधान प्रस्तुत नहीं कर सका और अपने आग्रहपर आरूढ़ है, जो तत्त्व निर्णयका अवशेष है। इस तरह उत्तरपक्षकी कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्तकारणको सर्वथा अकिचित्कर स्वीकार करनेकी मान्यता आगमविरुद्ध तदवस्थ है ।
यद्यपि
उत्तरपक्षने त० च० पृ० ४२ के अपने उपर्युक्त कथन के अन्त में पूर्वपक्ष पर एक मिथ्या आरोप और लिखा है कि "आया है अपरपक्ष समयसार गाथा ६८ की टीकाले यही सास्पर्य ग्रहण करेगा, न