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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१७७ करते समय गाथा ११६ के पूर्वार्धपर दृष्टिपात कर लेता तो उसके द्वारा यह आपत्ति ही न उपस्थित को गई होती।"
मालुम पड़ता है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षके कथनके अभिप्रायको समझ नहीं सका है । पूर्वपक्षके कयनका अभिप्राय तो यह है कि उत्तरपक्ष पुनलका स्वय अपने आप अर्थात निमित्तभूत जीवकी परिणतिकी सहायता के बिना कर्मरूप परिणत होने का स्वभाव मानता है तो उसके अभावमें संसारके अभाब या सांख्यमतकी प्रसक्ति न होकर परतः अर्थात् निमित्तभूत जीवकी परिणतिको सहायतासे पुद्गलका कर्मरूप परिणत होनेका स्वभाष प्रसक्स होगा, जो उत्तरपक्षके लिए इष्ट नहीं है। साथ ही भाचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र के आशयके विरुद्ध है। उत्तरपक्षको अपने लेखमें इस समस्याको सुलझानेका ही प्रयत्न करना था। उसने अपने लेखमें जो कुछ कहा है उससे तो ऐसा जान पड़ता है कि वह पक्ष मानो पूर्वपक्षकी ओरसे बोल रहा है।
कठिनाई यह है कि उत्तरपक्ष अपरपक्षके खण्डन करनेका ही प्रयत्न करता है, उसके प्रश्नका मागमसम्मत समाधान नहीं करना चाहता । आचार्यने पुदमलको परिणामीस्वभाव न माननेपर गाथा ११७ के उस्तराधमें संसारके अभाव अथवा सांस्यमतके प्रसंग आनेकी आपत्ति दी है। उसे ही पूर्वपक्षने भी दोहराया था और कहा था कि वह आपत्ति अपने-आप (स्वत: सिद्ध) परिणामी स्वभावके अभाव में नहीं उपस्थित हो सकती है, किन्तु जीवकी रागादि परिणतिकी सहायकतारूप बाह्य कारण और पुद्गल द्रव्यकी स्वभावभूत परिणामशक्तिरूप आभ्यान्तर कारण दोनों की अपेक्षासे होनेवाले पुद्गलके परिणमन स्वभावको न माननेपर ही उपस्थित हो सकती है । इसका स्पष्ट आशय है कि आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रस्तुत आपत्तिको पूर्वपक्षने भी स्पष्ट किया है । पूर्वपक्षके उक्त कथनसे न तो प्रत्येक द्रव्यका परतः परिणामस्वभाव सिद्ध होता है और न जीन पुद्गल कर्म से सदा बद्ध बना रहता है, जिससे वह मुक्तिके प्रयत्नसे वचित रहे। यह समस्पा तो उत्तरपक्षके कथनसे ही उत्पन्न होती है अतः उसे ही इसपर ध्यान देना है। पूर्वपक्ष तो उक्त कयन द्वारा इतना ही सिद्धान्त स्पष्ट करना चाहता है कि पुदगलका, यहाँ तक कि प्रत्येक द्रव्यका जो परिणमन होता है, वह बाह्यकारण बीवकी परिणति आदि और आभ्यन्तर कारण अपने-अपने रूपसे परिणमनकी स्वाभाविक शक्ति इन दोनोंसे ही होता है। अतः प्रकृतमें पुदगल द्रव्यको कर्मरूप परिणमनेकी शक्ति के अनुरूप कर्मरूपसे परिणामस्वभावी मानना ही सिद्धान्त है, अपने आप परिणामस्वभावी नहीं । उत्तरपक्षसे क्या हम आशा करें कि वह शास्त्रार्थ के लटके या छल-निग्नहकी प्रवृत्तिको छोड़कर सत्त्वनिर्णयके लिए प्रयत्न करेगा।
यहाँ इतना और कह देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने उक्त कथनमें उद्धत पूर्वपक्ष के त० ० पु० ३० पर निर्दिष्ट गाथा “११७ के उत्तरार्धमें." आदि कथनके साथ उपलल्ध 'अपने आप पदके अर्थ के रूपमें धैकटके अन्तर्गस जो 'स्वतः सिद्ध' पद लिखा है वह भी उसमें पूर्वपक्षके अभिप्रायको न समझ सकनेके कारण अपनी ओरसे ही लिखा है । पूर्वपक्षका कथन केवल इस रूपमे है कि "गाथा ११७ के उत्तरार्धमें जो संसारके अभावकी अथवा सांख्यमतकी प्रसवितरूप आपत्ति उपस्थित की है वह पुद्गलको परिणामी स्वभाव न माननेपर ही उपस्थित हो सकती है, अपने आप परिणामी स्वभावके अभाव नहीं।" और उसने यह कथन इस अभिप्रायसे किया है कि वह पुदगल में कर्मरूपसे परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताको स्वत:सिद्ध मानता हुआ उस योग्यताके आधारपर होनेवाले पुद्गलके कर्मरूप परिणमनको निमित्तभूत जीपके सहयोगसे मानता है, निमित्त भूत जीवके सहयोगके बिना अपने आप नहीं मानता है। परन्तु उत्तरपक्ष पुद्गलमें कर्मरूपसे
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