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शंका ३ और उसका समाधान
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पदार्थोंका अयथाग्रहण, तिर्यञ्चों तथा मनुष्योंमें करुणाभाव और विषयोंकी संगति ये मोहके लक्षण है ।। ८५ ।।
इसको टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
पदार्थोंकी अयथातथ्य प्रतिपत्ति द्वारा तथा तिर्यंच और मनुष्यमात्र प्रेक्षायोग्य हैं फिर भी उनमें करुणाबुद्धि द्वारा मोहको अभीष्ट विषयोंके प्रसंगसे रागको और अनभीष्ट विषयोंमें अप्रीतिसे द्वेषको इस प्रकार इन तीन लिंगोंसे इन तीनोंको जानकर जैसे ही यह तीन प्रकारका मोह उत्पन्न हो वैसे ही उसे नष्ट कर देना चाहिए । संस्कृत - टीका अन्य में देखिए ।
इस गाथापर टीका करते हुए आचार्य जयसेन लिखते हैं----
शुद्ध आत्मादि पदार्थ यथास्वरूप अवस्थित है, फिर भी उन्हें विपरीताभिनिवेश यश बयथार्थ रूपरी ग्रहण करना तथा मनुष्यों बार तियंचों में शुद्धात्मोपलात्रलक्षण परम उपेक्षासंयम के विपरीत करुणाभाव और दयाभाव करना अथवा व्यवहारसे करुणा नहीं करना यह दर्शनमोहका चिन्ह है। निर्विषय सुखके आस्वादसे रहित बहिरात्मा का जो मनोज्ञ और अमनोज विषयोंमें प्रकर्षरूप से संसर्ग होता है उसे देखकर प्रीति और अप्रतिलक्षण चारित्र मोहसंज्ञात्राले रागद्वेष जाने जाते हैं। विवेकीजन उन्न चिन्हों द्वारा मोह, राम और द्वेषको जान लेते हैं । इसलिए उनका परिज्ञान होने के अनन्तर ही निर्विकार स्वशुद्धात्मभावना द्वारा राम द्वेष और मोहका नाश कर देना चाहिए। संस्कृतटीका मूलमें देखिए ।
आशय यह है परजीवोंके लक्ष्यसे उत्पन्न हुई दया शुभराग है, उसे आत्माका निश्चयधर्म मानना मियात्व है और व्यवहारधर्म मानना मिध्यात्व नहीं है ।
ज्ञानी जीवके कृपा या करुणाभाव से जीवोंमें अनुकम्पा होती है पर वह ममःखेद ही है इसे स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय गाथा १३७ को टोकामें मचायें अमृतचन्द्र लिखते हैं---
कञ्चिदन्यादिदुः खप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षा कुलितचित्तत्त्रमज्ञानिनोऽनुकम्पा । ज्ञानिनस्त्वत्रस्तनभूमिकासु विहरमाणस्य जन्मार्णवनिभग्नजगदव लोकनान्मनाग्मनः खेद इति ।
तुषादि दुःखसे पीड़ित प्राणीको देखकर करुणाके कारण उसका प्रतीकार करनेको इच्छासे आकुलित वित्त होना अज्ञानको अनुकम्पा है तथा जन्माव में निमग्न जगत् के अवलोकनसे किंचित् मनः खेद होना यह विकल्प भूमिका में वर्तते हुए ज्ञानोको अनुकम्पा है ।
दया, करुणा, क्षमा, व्रत, संयम, दम, यम, नियम और तप आगममें प्रयुक्त हुए हैं और व्यवहार धर्म के अर्थ में भी प्रयुक्त हुए हैं। किस अर्थ में इनका प्रयोग हुआ है इसे जानकर यथार्थका निर्णय करें। मानना उचित नहीं है ।
इत्यादि शब्द निश्चय धर्म के अर्थ में भी
यह विवेकियोंका कर्तव्य है कि कहाँ दोनोंको मिलाकर एक कहना और
अज्ञानीका शुभ और अशुभभाव
का हेतु है ही । ज्ञानी का भी शुभ भाव पुण्यरूप और अशुभभाष पापरूप होनेसे निश्चयसे एकमात्र बन्ध करानेवाला ही है। पुण्य और पापपदार्थका निर्णय करते हुए पंचास्तिकाय गाथा १०८ की टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
शुभपरिणामो जीवस्य तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानां च पुण्यम् । अशुभपरिणामी जीवस्य तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानां च पापम् !