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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः ।
शुभ और अशुभ परिणामका निरोध करना संवर है ।
इसी तथ्यको और भी स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय गाया १४२ में कहा है
• जस्स पण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु ।
सर्वादि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ११४२ ।।
जिसका सब द्रव्योंमें राग, द्वेष या मोह परिणाम नहीं है, सुख दुखमें सम परिणामवाले उस भिक्षुके शुभ और अशुभ कर्मका आस्रव नहीं होता ।। १४२ ।।
इसलिए शुभोपयोगसे संवर निर्जरारूप कार्य मानना योग्य नहीं है ।
अपर पक्षका कहना है कि 'पहला गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वके सन्मुख होता है तब शुद्ध 'परिणामोंके अभाव में भी असंख्यातगुणी निर्जरा स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकथात करता ही है । सवत् शुभोगयोगरूप पुण्यका प्रत्येक भाव कर्मसंवर, कर्म-निर्जरा, कर्मबन्धरूप तीनों कार्य प्रतिसमय किया करता है । अतः जीवदया, दान, पूजा, व्रत आदि कार्य गुणस्थानानुसार संदर, निर्जराके भी निर्विवाद कारण हैं ।'
समाधान यह है कि प्रथम गुणस्थानमें इस जीवके परद्रव्य भावोंसे भिन्न आत्मस्वभाव के सन्मुख होनेपर जो विशुद्धि उत्पन्न होती है वह विशुद्धि ही असंख्यातगुणी निर्जरा आदिका कारण है, परद्रव्य- भावों में प्रवृत्त हुआ शुभोपयोग परिणाम नहीं । यह जीव जब कि मिध्यादृष्टि है. ऐसी अवस्थामें उसके शुद्धोपयोग समान शुभोपयोग कहना भी उपयुक्त नहीं है । फिर भी वहाँपर जो भी विशेषता देखी जाती है वह आत्मस्वभाव सन्मुख हुए परिणामका ही फल है 1
अपर पक्षने दया धर्म है इसकी पुष्टि में स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, उसकी टीका, नियमसार गाथा ६ की टीका, आत्मानुशासन, यशस्तिलक आचार्य कुन्दकुन्दकृत द्वादशानुप्रेक्षा, भावपाडुड, शीलपाहुड और मूलाराधना के अनेक प्रमाण उपस्थित किये हैं । किन्तु उन सब प्रमाणोंसे यही प्रख्यापन होता है कि जो निश्चय दया अर्थात् वीतरागपरिणाम है वही आत्माका यथार्थ धर्म है, सराग परिणाम आत्माका यथार्थ धर्म नहीं है, फिर चाहे वह व्रत परिणाम हो, भूतदया हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो । सरागभाव होनेसे वह जीवका निश्चयस्वरूप यथार्थं धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि मोह, राग और द्वेषरूपसे परिणत हुए जीवके नाना प्रकारका बन्ध होता है, इसलिए उनका क्षय करना ही उचित है। प्रवचनसार में इसी अभिप्रायको व्यक्त करते हुए लिखा भी है
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स ।
जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदन्ना ॥ ८४ ॥
मोहसे, रागसे और दोपसे परिणत हुए जीवके विविध प्रकारका बन्ध होता है, इसलिए उन्हें उत्तरोत्तर घटाना चाहिए ||८४||
अतएव परजीवोंमें किये गये करुणाभाव या दयाभावको धर्म मानने के प्रति ज्ञानी जीवोंकी क्या दृष्टि होनी चाहिए इसके लिए प्रवचनसारके इस वचनपर दृष्टिपात कीजिए
अट्ठे अजधागणं करुणाभावो य मणुव- तिरिए 1 विसएसु अ प्यसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ॥७५॥