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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
३०५ चतुष्कोण आदि आकारोंका तथा उनके यथासम्भव छोटे-मध्यम-बड़े परिमाणोंका भी ज्ञान होता है । इसके अतिरिक्त उन मणियोंके यथासम्भव लाल, हरे, पीले आदि रंगोंका भी ज्ञान होता है एवं उस मणिमाला मणिका कौन दाना क गुम्फित हैं उस स्थानका भी ज्ञान होता है। परन्तु वह जीव उस मतिज्ञानसे ऐसा विश्लेषण नहीं कर सकता है कि यह खुटी है। यह मणिमाला है । इस मणिमाला में मणियोंको संस्था अमुक परिमाण में हैं। मणियों अमुक दाने गोल है, अमुक दानें त्रिकोण हैं और अमुक दानें चतुष्कोण या अन्य अमुक आकार के हैं । अमुक दाने छोटे हैं, अमुक दानें मध्यम हैं और अमुक दानें बड़े हैं | अमुक दानें लाल हैं, अमुक दानें हरे हैं और अमुक दानें गीले अथवा अन्य अमुक रंगके हैं। तथा वह उस मतिज्ञानसे यह भी विश्लेषण नहीं कर पाता है कि अमुक दाना उस मणिमाला में अमुक स्थानपर गुम्फित हैं, अमुक दाना अमुक स्थानपर गुम्फित है यदि सही स्थिति अन्य इन्द्रियोंके सहयोग होनेवाले मतिज्ञानके विषयमें भी जान लेना चाहिए | एवं अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञानके विषयमें भी जान लेना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि सभी प्रकारके मतिज्ञानोंसे व अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानसे, साथ ही केवलज्ञानसे भी पदार्थको जाना तो जा सकता है, परन्तु उस जाने हुए पदार्थका उन जानोंसे विश्लेषण नहीं किया जा सकता है 1 इसका कारण यह है विज्ञानों द्वारा एक से हो सकता हैं जो वितत्मिक हो । परन्तु मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन ज्ञानों में वितर्कात्मकता का अभाव हो रहा करता है । केवल श्रुतज्ञान ही वितर्कात्मक होता है। जैसा कि तत्वार्थ सूत्रके "वितर्कः श्रुतम्" (९-४३ ) सूत्रसे ज्ञात होता है। एक बात यह भी है कि यदि इन सभी ज्ञानोंको वितर्कात्मक माना जाये तो श्रुतज्ञानकी निरर्थकताका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा, जबकि जैनागम में श्रुतज्ञानका मति, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान इन चारोंसे पृथक् अस्तित्व मान्य किया गया है। तत्वार्थसूत्र के "श्रुतं मतिपूर्वम्" (१-२०) सूत्रसे श्रुतज्ञानका मतिज्ञानसे पृथक् ही अस्तित्व सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त यद्यपि इस सूत्रका अर्थ यह है कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, परन्तु इसका आशय यह नहीं ग्रहण करना चाहिए कि श्रुतज्ञान मात्र मतिपूर्वक ही होता है, क्योंकि सूत्रका आशय यही है कि जो श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है वह दो, अनेक और द्वादश भेटवाल है । फलतः ऐसा माननेमें कोई बाघा उपस्थित नहीं होती कि श्रुतज्ञान मविज्ञानके समान अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान पूर्वक भी होता है।
यहां पर मैंने मति श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानके विषय में जो उपर्युक्त विवेचन किया है उसपर विद्वानोंको विचार करना चाहिए, क्योंकि यह विवेचन यदि उनकी समझमें आ जाता है तो सोनगढ़को सम्पूर्ण मान्यता की निरर्थकता भी उनकी समझा में आ जायेगी ।
मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान द्वारा जीवोंको जो पदार्थज्ञान होता है वह विश्लेषणात्मक न होने से अखण्डात्मक हो होता है, इसलिए इन ज्ञानों द्वारा होनेवाले पदार्थज्ञानों में अंशोंकी परिकल्पना संभव नहीं है। फलतः इनमें नयव्यवस्था नहीं बन सकती है, क्योंकि नयको प्रमाणका अंश माना गया । यतः प्रमाणवितर्कात्मक होनेसे मति आदि ज्ञानों द्वारा जाने हुए पदार्थका विश्लेषण करता है, अत: उस श्रुतज्ञानको सांश मानना अनिवार्य 'जाता है । इस तरह श्रुतज्ञान में नयव्यवस्था बन जाती हूं और इसके आधारपर यह कहा जा सकता है कि मति आदि ज्ञानोंसे जाने हुए पदार्थ के एक-एक श्रंशका सज्ञान द्वारा विश्लेषण किया जाना तो नयज्ञान है और सभी अशोका सामूहिक विश्लेषण उसी श्रुतज्ञान द्वारा किया जाना प्रमाणज्ञान है ।
सु०-३९