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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा जैन शासनमें नयव्यवस्थाका आधार
जीवके विषय में यह विचार किया जा सकता है कि वह यथाशक्ति पदार्थको जानता है, जाने हुए पदार्थ का यथासम्भव विश्लेषण करता है और विश्लेषण करके उस पदार्थका अपनी इष्टसिद्धिके लिए उपयोग करता है। इतना ही नहीं, विश्लेषण करने के आधारपर वह जोव अन्य जीवोंको भी पदार्थका ज्ञान कराता है। इस तरह जैन शासनमें पदार्थोको जानने और जाने हुए पदार्थोका विश्लेषण करने के लिए मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यय और केवलके भेदसे पांच ज्ञानोंको माम्म किया गया है। इन पांचों शानों से मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलजान ये चार ज्ञान यथाशक्ति पदार्थो को जाननेके लिए उपयोगी है व श्रुतशाम जाने हुए पदार्थों का विश्लेषण करनेके लिए उपयोगी है।
यहाँ यह अवश्य ज्ञातव्य है कि केवलज्ञानी जीव केवलज्ञानके द्वारा पदार्थोंको जानता तो है, परन्तु यह उन जाने हुए पदार्थोंका विश्लेषण नहीं करता, क्योंकि उसमें पदार्थका विश्लेषण करनेमें समर्थ थुतज्ञानशक्तिका अभाष पाया जाता है । यही कारण है कि वह दुसरे जीवोंके लिए उपदेश कर्ता नहीं है, अपितु मात्र भव्य जीवोंके भाग्यका निमित मिलमेपर वचनयोगके बलपर उसका उपदेश होता है और उराका वह सपदेश अनक्षरात्मक ओंकार जैसी ध्वनिके रूप में होता है। उस ध्वनिका केवलज्ञान प्रभावसे इतना अतिशय अवश्य है कि अनक्षरात्मक होते हुए भी उग ध्वनिक आधारपर सभामण्डलमें उपस्थित सभी जीव अपनी-अपनो योग्यताके अनुरूप पदार्थका ज्ञान कर लिया करते हैं। केवलज्ञानी जीवोंको छोड़कर मतिज्ञानी, अवधिजानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें यतः यथायोग्य मतिज्ञान, अवविज्ञान या मनःपर्ययज्ञान. द्वारा जाने हए पदार्थका विश्लेषण करने में समर्थ श्रुतज्ञानशक्ति पायी जाती है, अतः दे जोव यथायोग्य गतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान द्वारा पदार्थ का ज्ञान करके श्रुतज्ञान द्वारा इसका विश्लेपण भी किया करते हैं।
मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्षय और केवल इन पांचों ज्ञानों से मनःपर्यय और केवल ये दोनों जान सम्बर ही होते हैं, अतः इनसे होनेवाला पदार्यज्ञान कभी मिला नहीं होता। इनके अतिरिक्त मति. थत और अवधि ये तीनों ज्ञान सम्यक और मिथ्या दोनों प्रकार के होते है । इसलिये मतिज्ञान या अवधिज्ञानसे जो पदार्थज्ञान होता है वह सम्पक भी होता है और मिथ्या भी होता है । तथा पदार्यज्ञान यदि सम्यक होता है तो जाने हुए पदार्थका श्रुतज्ञानले विश्लेषण भो सम्यक होता है और पदार्थज्ञान यदि मिथ्या होता है तो जाने हुए पदार्थ का श्रुतज्ञानले विश्लेषण भी मिथ्या होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका सम्यक्पना एक तो इन्द्रियों और मनके स्वस्थपनेके आधारपर होता है। दूसरे, मोहनीयकर्मक उपशम, क्षय या क्षयोपशममें भी होता है। इसी तरह मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका मिथ्यापना भी इन्द्रियों और मनके अस्वस्थपनेके आधारपर भी होता है व मोहनीय कर्मके उदयमें भी होता है। अवधिज्ञानका सम्पपना केवल मोहनीयकर्मके उपदाम, थर, या क्षयोपशममें होता है और मिथ्यापना केवल मोहनीयकर्मके उदय में ही होता है, क्योंकि अवधिज्ञान इन्द्रियसापेश नहीं होता।
मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मतःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानसे पदार्थ का मान ज्ञान होता है। इन जानोंसे पदार्थका विश्लेषण नहीं होता। इस बातको इस तरह समझा जा सकता है कि एक भतिज्ञानी जीव नेत्रों के सहयोगले मतिज्ञान द्वारा खूटीपर टंगी हुई मणिमालाका ज्ञान कर रहा है तो उस समय उसे खूटी और मणिमालाके साथ मणिमालामें गुम्फित मणियोंका भी ज्ञान होता है। वन मणियोंके ययासम्भव मोल, त्रिकोण,