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सम्पादकीय
जैन शासन में वस्तु व्यवस्था या पदार्थज्ञानके लिए दो साधन स्वीकार किये गये हैं। एक है प्रमाण और दूसरा है नय | प्रमाण के दो भेद हैं- १. परोक्ष और २. प्रत्यक्ष । इन्द्रियों और मनकी सहायता से जो अविशद (धूला अस्पष्ट ) ज्ञान होता है वह परोक्ष है तथा इन्द्रिय और मनको सहायता के बिना मात्र मामाकी अपेक्षासे जो विशद ( स्पष्ट ) ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है । आगम में ज्ञानमार्गणाके अन्तर्गत माठ ज्ञानोंका कथन किया गया है। इन आठ ज्ञानोंमें मति श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल ये पांच ज्ञान सम्य ज्ञान तथा विपरीत मति विपरीत श्रुत और विभङ्गावधि ये तोन ज्ञान मिथ्याज्ञान प्रतिपादित किये गये हैं । पांचों सम्मानोंको प्रमाण" और तीनों मिथ्याज्ञानोंको प्रमाणाभास" भी कहा गया हूँ ।
आचायोंने इन सभीका विस्तारपूर्वक अपने मूलग्रन्थों तथा टीकाग्रन्थोंके द्वारा निरूपण किया है । ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त पाँच ज्ञानोंमे श्रुतको छोड़कर अन्य चार (मति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ) ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं । अर्थात् ज्ञाता इन चार ज्ञानोंस ज्ञेयको स्वयं जानता है, दूसरोंको उनसे ज्ञेयका बोध नहीं करा सकता । किन्तु श्रुत प्रमाणकी विशेषता है कि यह स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकारका हूँ | स्वार्थं श्रुत ज्ञानात्मक हैं और परार्थ श्रुत वचनात्मक है । उन्ही के भेद नय हैं । ज्ञाननव स्वार्थ श्रुतके तथा वचननय परार्थ श्रुतके भेद है।
प्रमाण वस्तु (जीवादि पदार्थो को अखण्ड (समय-धर्म श्रम भेदसे रहित ) विषय करता है और नय वस्तु (जीवादि) को खण्ड (धर्म-धर्म के भेद ) रूपमें ग्रहण करता है । इसीसे सकलादेशको प्रमाण और विदेशको नम कहा गया है। वर्मीको विपत्र करने वाला व्यार्थिक तथा धर्म (पर्याय, गुण, स्वभाव ) को ग्रहण करने वाला नय पर्यायार्थिक है। वस्तुको खण्डित करके ग्रहण करनेके कारण द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के रूपमें नयोंका निरूपण किया गया है। प्रमाण और नममें यही भेद है। जहाँ उल्लिखित मति आदि चारों ज्ञान मात्र स्वार्थ प्रतिपत्तिके साधन होनेसे प्रमाण हैं वहाँ थुत स्वार्थ तथा परार्थ दोनों प्रतिपत्तियोंका साघन होनेसे प्रमाण और नय दोनों है । यह जेयमीमांसाकी दृष्टिसे दार्शनिक निरूपण है ।
योगादेमीमांसाकी दृष्टिसे उक्त नयोंसे भिन्न निश्चय और व्यवहार इन दो नयोंका भी विवेचन किया गया है, जिसे आध्यात्मिक निरूपण कहा गया है । अध्यात्मका अर्थ है वस्तुका निजी (असंयोगी) रूप । इस असंयोगी रूपको जो नय जनाता या बतलाता है वह निश्नयनय है और जो वस्तुके संयोगी रूपको प्रदर्शित करता है यह व्यवहारनय है । आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्य श्लोकवात्तिक में जीवादि सभी द्रश्योंमें इन दोनों नयोंका उपयोग किया है। इन नयोंके विवेचनका लक्ष्य यस्तुको परखने और जानने का है। निश्चयतय जहाँ स्वरूपस्पर्शी है वहाँ व्यवहारनय संयोगस्पर्शी है । ये दोनों ही नय यथार्थ हैं- अपने-अपने विषय (असंयोगी और संयोगी रूप) को सही रूप में ग्रहण करनेरो सम्यक नय हैं। इनमें निश्चयको सम्यक् और व्यवहारको मिथ्या मानना या कहना अनेकान्त दृष्टि नहीं है, जो जैन तत्त्वज्ञानका प्राण हैं । आचार्य रामन्तभद्रने निरपेक्षताको मिया और सापेक्षताको सभ्यक् बतलाया है। निश्चयनयका ही उपदेश और व्यवहारनयका अनुपदेश अनेकान्तदर्शनमें नहीं है । उसमें दोनों नयोंका उपदेश है । वास्तव में अनेकान्त और उसके प्रतिपादक स्या
३. वही, १-१२ ।
१. 'प्रमाणनयैरधिगमः ' —त. सू १-६ ॥ ४. यही, १-९ ।
६. स० स० १-६ ।
२. वी. १ ९, १०, १२ ।
५. वही, १ ३१ ।
७. वही, १-६ ।