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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा अब मैं दूसरे नेत्रके मोतियाबिन्दुका आपरेशन करानेके पश्चात् खानिया तत्त्वचर्चा-समीक्षाके दूसरे आदि शेष भागोंको लिखने की सोच रहा हूँ। मेरी हार्दिक भावना है कि जब तक जीवन है और सोचने तथा लिखनकी शक्ति है तबतक मैं इसी कार्यमें संलग्न रहूँ।
इस ग्रन्यको अनुभव, इन्द्रि यप्रत्यक्ष (लोकव्यवहार), तर्क और आगमप्रमाणोंके आधारपर जितना व्यवस्थित बना सकता था, बनानेका प्रयत्न किया है । तथापि मेरी अल्पज्ञताके कारण इसमें श्रुटियां रह जाना स्वाभाविक है । अतएव निष्पक्ष विद्वानोंसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वे सिद्धान्तको सुरक्षाको दृष्टिसे उन त्रुटियोंकी जानकारी मुझे में, ताकि मैं उन्हें परिष्कृत कर सकूँ। श्रुटियोंके परिष्कारसे मुझे अत्यन्त हर्ष होगा। इसके साथ ही मेरा दृढ़ विश्वास है कि सोनगढ़मतसे जैन संस्कृतिका संद्धान्तिक पक्ष विकृत हुआ है, जिसका दूषित प्रभाव दि० जैन संस्कृतिक आचारपक्षपर भी पड़ा है । अन्तिम श्रुतवली भावाहुके समय में जैन संघका प्रथम विघटन हुआ था तथा उसके पश्चात् आगे भी विघटनको प्रक्रिया चालू रही तथापि जैनसंस्कृतिके सैद्धान्तिक पक्षको सभीने सुरक्षित रखा । परन्तु सोनगढ़ने अनुभव, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष (लोक-व्यवहार), तर्क और आगमप्रमाणोंकी उपेक्षा पार का महत्व टारने या है। इसलिये विद्वानोंसे विनम्र अनुरोध है कि वे व्यक्तिगत स्वार्थको त्याग कर जैन संस्कृतिके सैद्धान्तिक पक्षको उजागर करने में अपनी विजुत्ताका उपयोग करें। पाठकोंसे निवेदन है कि वे शुद्धिपत्रको देखकर ही इस ग्रंथका स्वाध्याय करें। तथा अनवधानताके कारण बहुत-सी अशुद्धियोंका शुद्धीकरण न हो सका हो, यह भी सम्भव है । अतः उनकी सूचना मुझे देनेकी कृपा करें। दिनांक २०-२-८२
-वंशोपर पास्त्री