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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
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परम्परया अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गका साधक होकर साधक है। इस तरह साक्षात् होनेसे निश्चयमोक्षमार्ग हो मोका वास्तविक कारण सिद्ध होता है और व्यवहारमोक्षमार्ग मोक्षका साक्षात् कारण तो है नहीं, अपितु निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर हो मोक्षका कारण है, अतः परम्परया कारण होनेसे मोक्षका उपचरित कारण है । इस तरह व्यवहारमोक्षमार्गको निश्वयमोक्षमार्गको प्राप्तिमें कारणता स्पष्ट हो जाती है । आगममें निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्षमागके मध्य निश्चय मोक्षमार्गकी साध्यता और व्यवहार मोक्षमार्गी सामान्य करने का यही अभिप्राय है । मोक्षमार्गप्रकाशकके उपर्युक्त वचनमें भी इसी अभिप्रायसे व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चयमोक्षमार्गका निमित्त व सहचारी कहा है और उससे यदि केवल सहचारी पद भी होता तो उसका भी यही अभिप्राय ग्रहण करना आगम सम्मत होता । इस तरह उसमें पठित सहचारीपद लिन और व्यवहार दोनों मार्गो में साध्य साधकभावकी ही स्थापना करता है, क्योंकि यदि दोनों मोक्षमार्गो में उपर्युक्त प्रकार साध्य साधकभाव न हो तो यहाँ पर व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चयशेक्षमार्गका सहचर बतलाने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती ।
त० च० १० १३३ पर ही उत्तरपक्षने जो प्रवचनसारका कथन उपस्थित किया है सो विचार कर देखा जाये तो उसके साथ पूर्वपक्ष की मान्यताका अणुमात्र भी विरोध नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष व्यवहारमोक्षमार्गको मोक्षका साक्षात् व वास्तविक कारण नहीं मानता है अपितु परम्परया व उपचारित कारण ही मानता है और ऐसा इस मावारपर मानता है कि वह मोक्ष के साक्षात् कारणभूत निश्चयमोक्षमार्गका ही साक्षात् कारण होता है। इस तरह भूल उत्तरपक्ष की है कि वह आगमके अभिप्रायको नहीं समझ पा रहा है और इस लिये वह आगमके अभिप्रायको विपरीत ग्रहण कर मोक्षकी प्राप्ति में व्यवहारमोक्षमार्गको सर्वथा अकिंचिरकर मान लेता है । यद्यपि प्रवचनसारके उक्त कथन में मोक्ष की प्राप्ति में वीतरागचारित्रको उपादेय और सरागचारित्रको हेय प्रतिपादित किया गया है । परन्तु कोई व्यक्ति इस कथन के आधार पर यदि सरागचारित्रको प्राप्त किये बिना हो वीतरागचारित्रको प्राप्त करना चाहे तो वह सम्भव नहीं है। इसलिये प्रवचनसारके कनका यही अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए कि सरागचारित्र में रहते हुए भी जब तक सरागचारित्रका अभाव करके वीतरागचारित्रको नहीं प्राप्त कर लेता सब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती है। यहाँ पर ध्यातव्य है कि जीवको वीतरागचारित्रकी प्राप्ति एकादश गुणस्थानसे पूर्व सम्भव नहीं है। दशम गुणस्थान तक तो जीवके सरागचारित्र ही रहता है, क्योंकि दशम गुणस्थान तक संज्वलन सूक्ष्मलोभ के रूपमें कषायका उदय विद्यमान रहता है ।
४. प्रश्नोत्तर ४ के तृतीय दौरकी समीक्षा
तृतीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौर में उत्तरपक्ष के प्रथम और द्वितीय दौरोंकी आलोचना करते हुए अन्य आगम प्रमाणों के आधारपर भी अपनी इसी मान्यताको पुष्ट किया है कि - "व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है" ।
तृतीय दौर में उत्तरपक्षकी स्थिति और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने अपने सूलीय दौर में पूर्वपक्ष के द्वितीय और तृतीय दौरोंकी आलोचना करते हुए अपनी "व्यवहारधर्म विश्ववधर्ममें साधक नहीं है" इस मान्यता की पुष्टिमें उसी ढंगको अपनाया है जिस ढंगको