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शंका-समाधान १ की समीर
निमितता सहायक होने रूपसे वास्तविक है। मात्र पराश्रितताके आधारपर वह उपचरित है । वास्तवमें अम्नमें प्राणरूपताका कथन आलापपद्धतिके उक्त वचनके अनुसार उपचरित है। इसी प्रकार आगेके अनुच्छेदमें व्यवहार और उपचारको एकार्थवाची बतलाते हुए उत्तरपक्षने लिखा है कि "उपचार और व्यवहार ये एकार्थवाची है" उसमें भी विवाद नहीं है। परन्तु पूर्वपक्षकी दृष्टिमें व्यवहार या उपचार कल्पनारोपित नहीं है, जैसा कि उत्तरपक्ष मानता है। इसी प्रकार जसरपक्ष द्वारा त० च० ० ५९ पर निर्दिष्ट "तत्त्वार्थराजबार्तिक अ० ५ सू० १२ रो भी यही तथ्य फलित होता है" इत्यादि अनुच्छेदके विषयमें भी जान लेना चाहिए । अर्थात् उसमें भी पूर्वपदाको विषाद इतना ही है कि उत्तर पक्ष उस तथ्यको कल्पनारोपित स्वीकार करता है जब कि पूर्वपक्ष उसे वास्तविक मानता है।
उपर्युक्त विवेचनके पश्चात उत्तरपक्षनेत० च० १०५९ पर ही जो यह लिखा है कि "यह तथ्य है। इस तथ्य को ध्यानमें रखकर आलापपद्धतिक 'मुख्याभाये सति निमित्त प्रयोजने चोपचारः प्रवतते" इस पदका असद्भुत व्यवहारनयसे यह अर्थ फलित होता है कि यदि मुख्य (यथार्थ) प्रयोजन और निमित्त (कारण) का अभाव हो अर्थात् अविवक्षा हो तथा असद्भूत व्यवहार प्रयोजन और असद्भूत व्यवहार निमित्तकी विवक्षा हो तो उपचार प्रवृत्त होता है ।" वह निराधार है, क्योंकि आलापपद्धतिके उक्त वचनका अर्थ यह है कि जहाँ मुख्य (यथार्थ) का अभाव हो और निमित्त (कारण) व प्रयोजनका सद्भाव हो वहाँ उपचारकी प्रवृत्ति होती है । जैसे-"घी का घड़ा" इस वचनसे 'घीका आधारभूत बड़ा यह अर्य विवक्षित है, जो उपचरित अर्थ है, क्योंकि घीसे घड़े का निर्माण संभव न होनेसे घी से निमित्त घड़ा इस मुख्य (यथार्थ) अर्थका प्रतिपादन "घीका घड़ा" इस वचनसे नहीं होता है तथा "घोका आधारभूत घड़ा" यह अर्थ इस कारणसे किया जाता है कि घड़ा पीका आधार बना हआ है । इतना ही नहीं, "धी का घड़ा लाओं' इस वचनसे वक्ता यह प्रतिपादन करना चाहता है कि जिसमें ची रखा हुआ है या रखा जाता है वह घटा लाओ। जिरामें उसका घी रखने या निकालने का प्रयोजन होता है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति विशेषको जो "कुम्भकार" शब्दसे बोला जाता है वह इसलिये नहीं बोला जाता है कि वह व्यक्ति विशेष
। मध्य (उपादान) का है क्योंकि बठ्ठ व्यक्तिविशेष घटरूप परिणत नहीं होता है। परन्तु वह मिट्रीसे होने वाले चटके निर्माण में सहायक होने रूपसे निमित्त (कारण) होता है तथा वह घटानुकूल व्यापार प्रयोजनसे करता है क्योंवि. बटसे जलाहरण आदि कियायें सम्पन्न की जा सकती हैं। इसलिये कुम्भकार झाब्दका 'कुम्भका का" यह अर्थ उपचरित सिद्ध हो जाता है। इसी तरह उसरपक्षने त० च० पृ० ५९ पर ही जो यह लिखा है कि "तया अखण्ड द्रव्यमें भेदविवक्षावश इसका यह अर्थ होगा कि मुख्य अर्थात् द्रव्याथिकनयका विषयभत यथार्थ प्रयोजन और यथार्थ निमित्त का अभाव हो अर्थात् अविवक्षा हो तथा सद्भूत व्यवहाररूप प्रयोजन और सद्भूत व्यवहाररूप निमित्तकी विवक्षा हो तो उपचार प्रवृत्त होता है।" सो "मुख्याभाव" इत्यादि उक्त बचनका यह अर्थ भी उत्तरपक्षकी कल्पनाकी उड़ानके सिवाय और कुछ नहीं है, क्योंकि वह अर्थ उसका नहीं है । आगे त० च०५० ६० पर उत्तरपक्षने लिखा है कि “यही कारण है कि "मुख्याभाये' इत्यादि वचतके बाद उस उपचारको कहीं अविनाभाव संबंधरूप, कहीं संश्लेष रूप और कहीं परिणाम परिणामिसम्बन्ध आदि रूप बतलाया गया है। यह लिखना भी उसका असंगत है, क्योंकि जब "मुख्याभावे" इत्यादि बचनका उत्तरपक्ष द्वारा किया गया उपयुक्त अर्थ हो असंगत है तो इस कथनका उसके साथ समन्वय करनेकी निरर्थकता अपने आप सिद्ध हो जाती है तमा त च पृ० ६० पर
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