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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
होगा अर्थात् अणुव्रती और पश्चात् महाव्रती बनना होगा। इसके भी पश्चात् वह बाह्यावलम्बनका सर्वथा त्याग कर सप्तम गुणस्थानमे वशम गुणस्थान तक द्रव्यमनके आधारपर अन्तरंग में पूर्ण आत्मावलम्बी बननेका पुरुषार्थ करेगा और इस तरह तभी एकादश वा द्वादश गुणस्थानमें ही वह पूर्णरूपसे आत्मा की शरण पा सकता है। यदि उत्तरा यवहारमय सोकर निर्भरताको बात सोचता हूँ तो उसका ऐसा सोचना बबूल के वृक्षसे आम प्राप्त करने की चाह करना मात्र है । कथन १३ और उसकी समीक्षा
आगे त० ० पृ० ९० पर ही उत्तरपक्षने यह कथन किया है- "अपरपक्षने अपने प्रत्यक्षको प्रमाण मानकर और लौकिक दृष्टिसे दो-तीन दृष्टांत उपस्थित कर इस सिद्धान्तका खण्डन करनेका प्रयत्न किया है। कि 'उपादानके अपने कार्यके सम्मुख होने पर निमित्तव्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है । किन्तु उस पक्षका यह समग्र कथन कार्यकारणको विडम्बना करनेवाला ही है। उसकी सिद्धि करनेवाला नहीं । हम पूछते हैं कि मन्दबुद्धि शिष्यके सामने अध्यापन क्रिया करते हुए अध्यापक के रहने पर शिष्य ने अपना कोई कार्य किया या नहीं ? यदि कहो कि उस समय शिष्यने अपना कोई कार्य नहीं किया तो शिष्य को उस समय अपरिणामी मानना पड़ेगा। किन्तु इस दोषसे चचनेके लिए अपरपक्ष कहेगा कि शिष्यने उस समय भी rorer कार्यको छोड़कर अपना अन्य कोई कार्य किया है। तो फिर अपरपक्षको यह मान लेना चाहिये कि उस समय शिष्यका जैसा उपादान था उसके अनुरूप उसने अपना कार्य किया और उसमें निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री निमित्त हुई, अध्यापक निमित्त नहीं हुआ। जिस कार्यको लक्ष्य में रखकर अपरपक्षने मह दोष दिया है, वस्तुतः उस कार्यका शिष्य उस समय उपादान ही नहीं था। यही कारण है कि अध्यापन क्रियामें रत अध्यापक के होनेपर भी वह निमित्त व्यवहारके अयोग्य हो बना रहा। यह कार्य कारण व्यवस्था है, जो प्रत्येक द्रव्यके परिणाम स्वभावके अनुरूप होने से इस तथ्य की दृष्टि करती हैं कि उपाशनके कार्यके सम्मुख होने पर निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है ।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
कार्य-कारण व्यवस्थाको निर्णीत करते में उत्तरपक्षका मुख्य मुद्दा यह है कि 'उपादान के अपने कार्यके सन्मुख होनेपर निमित्त व्यवहारके योग्य सामग्री मिलती ही है।' विचार कर देखा जाय तो उत्तरपक्ष इस कथनका यह अभिप्राय होना चाहिये कि उपादान अर्थात् कार्यरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट वस्तु जिसे नित्य उपादान कहते हैं, तभी स्वपरप्रत्यय कार्यरूप परिणत होती है जब वह कार्यरूप परिणत होनेके सम्मुख अर्थात् कार्याव्यवहित पूर्वपर्यायके रूपमें अनित्य उपादान रूप परिणत हो जाती है । तो यह मान्यता तो पूर्वपक्ष भी है, परन्तु इस सम्बन्ध में पूर्वपक्षका यह कहना अवश्य है कि उसकी यह अनित्य उपादानरूप परिणति निमित्तभूत बाह्य मामग्री के सहयोगपूर्वक ही हुआ करती है और उसके अनन्तर पश्चात् जो विवक्षित कार्यरूप परिणति होती है वह भी निमित्तभूत बाह्यवस्तुके सहयोगपूर्वक ही हुआ करती हैं, क्योंकि पूर्व और उत्तर दोनों ही पर्यायें अपनी-अपनी पूर्व पर्याका कार्य होती हैं और उत्तर पर्यायका अनित्य उपादान होती हैं । पूर्वपक्षने इस आधार पर ही उत्तरपक्षके 'उपादानके अपने कार्यके सम्मुख होनेपर निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्यसामग्री मिलती ही है।' इस सिद्धान्तका खण्डन किया है। इस खण्डनमें हेतु यह है कि उत्तरपक्षके उक्त सिद्धान्तसे कार्योत्पत्ति में निमित्त कारणकी अकिचित्करता सिद्ध होती हैं जबकि पूर्वपक्ष कार्योत्पत्ति में निमित्तको सर्वथा अकिंचित्कर न मानकर सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही मानता है । कार्य कारण व्यवस्था के संबंध में दोनों पक्षोंके मध्य यही मतभेद है ।