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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा के उदयकी कार्यकारिता सिद्ध होती है अन्तमें "आशा है आप हमारे मूल प्रश्नका उत्तर देनेको कृपा करेंगे।" इस निवेदन रूप कथन द्वारा उत्तरपक्षको प्रश्नका उत्तर देनेके लिए प्रेरित किया है। उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्षके विषयका पांच भागोंमें विभाजन
उत्तरपशने अपने द्वितीय दौरमें पूर्वपक्ष के निवेदनपर ध्यान न देन हुए उसके द्वितीय दौरकी सामग्री पर आलोचनात्मक ढंगसे विचार करनेकी चेष्टा की है तथा विषारके लिए जराकी सामग्रीको पांच भागोंमें विभक्त किया है। यहाँ उस सामग्रीकी समीक्षा भी प्रत्येक भागके कमसे की जाती है। प्रथम भागकी समीक्षा
प्रथम भागम एकत्रित पूर्वपक्षकी सामग्रीपर विचार करते हुए उत्तरपक्षने निम्नकथन किया है
"प्रतिशंका २ में विविध प्रकारके प्रमाण देकर जो संसारी जीव और द्रव्यकर्मोदयमें हेतुकर्तृता सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है सो ऐसा करने में क्या उद्देश्य रहा है, यह समझमें नहीं आया। यदि हेमकर्तता सिद्ध करते हुए निमित्तोंमें उदासीन निमित्त और प्रेरक निमित्त ऐसा भेद करनेका अभिप्राय रहा हो तो यह इष्ट है, क्योंकि प्रवचनसार गाथा ८८ में यह भेद स्पष्ट शब्दों में दिखलाया गया है। परन्तु ऐसे भेदको दिखलाते हुए भी उषत वचनके आधारसे यदि यह सिद्ध करने का अभिप्राय हो कि प्रेरक कारण बलसे किसी द्रव्यमें कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो यह सिद्ध करना संगत न होगा, क्योंकि हेतुकर्तृ पदका व्यपदेश निमित्त मात्रमें देखा जाता है।" -तच पृ०७।
___इससे आगे उसने (५. प्रेरक प्रो. : दान निमित तुप पन व्यपदेशको पुष्टि के लिए सर्वार्थसिक्केि प्रमाणको उद्धत किया है तथा दोनों निमित्तामें समानता सिद्ध करने के लिए उसने इष्टोपदेश और उसकी टोकाको भी उद्धृत किया है । समीक्षा
पूर्वपक्षने प्रतिशंका २ में विविध प्रमाण देकर जो संसारी जीव और द्रव्यकर्मोदयमें हेतुकर्तृता सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है उसमें उसका उद्देश्य उपाधान कर्तृत्व और निमित्त कर्तृत्वका प्रकृतमें भेद दिखलात. हुए यन्त्र प्रकट करनेका था कि द्रव्यकर्मोदय संसारी आस्माके विकारभाव और चतुगंतिभ्रमणमें उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी सहायता मात्र करता है, उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी तरह वह उस कार्यरूप परिणत नहीं होता। जैसा कि पूर्वपक्षने अपने वक्तव्य में स्वयं लिखा है कि "हमारा प्रश्न निमित्तकर्ताक उद्देश्यसे ही है उपादानकर्ताके उद्देश्यसे नहीं है । तथापि उत्तरपसने पूर्वपक्षके कथनका इस अभिप्रायसे भिन्न अभिप्राय ग्रहण करते हुए उसकी (पूर्वपक्षकी) ओरसे निमित्तकारणके जो प्रेरक और उदासीन दो भेदों की स्थापना की और जिन्हें उसने स्वयं भी प्रवचनसार गाथा ८८ के आधारसे स्वीकार किया है. इस विषयमें पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है । इसी प्रकार उत्तरपक्षने सर्वार्थसिद्धि के उद्धरणके आधारसे जो प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तकारणोंको हेतुकर्ता स्वीकार किया है उससे भी पूर्वपक्ष सहमत है, क्योंकि पूर्वपक्षने अपने बक्तब्यमें प्रेरक निमित्तको हेलुकर्ता सिद्ध करते हुए भी उदासीन निमित्त में हेतुफर्तृत्वक निषेधका आभास नहीं दिया है । परन्तु उत्तरपक्षके वक्तब्यसे ऐमा मालूम होता है कि वह हेतुर्तृत्व के आधारसे उधा१. देखो, त: च पृ० ६। २. देखो, त० न० पृ. ३ ।