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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
विकार भाव तथा चतुर्गतिभ्रमण रूप परिणामका प्रवेश द्रव्यकर्म में नहीं होता । इस सिद्धान्तको उत्तरपक्षकी इस मान्यतानुसार कि "कर्मका उदय कर्म में होता है और जोषका परिणमन जीव में होता है ।" पूर्वपक्ष भी मानता है ।
उत्तरपक्ष ने अपने उपर्युक्त कथनमें कहा है कि "प्रत्येक दव्य स्वयं परिणमन स्वभाव वाला है" यहां द्रव्यको परिणमन स्वभावाना तो 'स्वयं' शब्दप्रयोग आगमसम्मत नहीं है । उसका प्रयोग उत्तरपक्षने केवल इस अभिप्रायसे किया है कि उसकी मान्यतायें प्रत्येक द्रव्यका प्रत्येक परि
मन निमित्तकारणभूत वस्तुका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही हुआ करता है । परन्तु ऊपर बतलाया जा चुका है कि आगम' में स्वप्रत्ययपरिणमनके अतिरिक्त स्वपरप्रत्ययपरिणमन भी स्वीकार किया गया है जो निमित्तकारणभूत वस्तुका सहयोग प्राप्त होनेपर ही हुआ करता है, उसका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने-आप नहीं होता ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें लिखा है कि " द्रव्यमें जब जो परिणमन होता है उस रूप बह स्वयं परिणम जाता है इसमें अन्यका कुछ भी हस्तक्षेप नहीं " यहाँ भी उसने स्वयं का प्रयोग किया है । उससे वह यदि यह प्रगट करना चाहता है कि परिणमन उपादानकारणभूत वस्तुका अपना ही होता है उसमें निमित्तकारणभूत वस्तुका अणुमात्र भी प्रवेश नहीं होता, तो उसमें कोई विवाद नहीं है । परन्तु वह यदि 'स्वयं' शब्द से वहीं यह प्रकट करना चाहता है कि उपादानकारणभूत वस्तु का प्रत्येक परिणमन निमितकारणभूत वस्तुका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही हुआ करता है जैसा कि उत्तरपक्ष "इसमें अन्यका कुछ भी हस्तक्षेप नहीं" इस कथनसे ज्ञात होता है, तो वह आगमसम्मत नहीं है जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि आगम में वस्तुके स्वप्रत्ययपरिणमनके अतिरिक्त उसका स्वपरप्रत्ययपरिणमन भी स्वीकार किया गया है, जो निमित्त सापेक्ष होता है ।
पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौर में स० च० पृ० २८ से पृ० ३१ तक इस बातको विस्तारसे स्पष्ट किया है कि आगममें प्रयुक्त 'स्वयं' शब्दका कहाँ क्या अर्थ लिखा गया है । यद्यपि उत्तरपक्षन अपने तृतीय दौर में त० च० पृ० ७० और उसके आगे पृष्ठोंपर उसकी आलोचना भी की है, परन्तु मैं उरापर यहाँ विचार न करके आगे ही विचार करूँगा । यहाँपर तो मैं केवल यही कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षाने 'स्वयं' शब्दका प्रयोग कार्यकारणभाव के विषयमें एकान्त नियतिवाद और नियतवाद इन दोनों मान्यताओंको स्वीकार करते हुए कार्योत्पत्तिनिमित्तको सर्वथा अकिंचित्कर सिद्ध करनेके लिए ही किया है । परन्तु आगममें जब उपर्युक्त प्रकार स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दोनों प्रकारके परिणमन स्वीकार किये गये हैं तो इससे उत्तरपक्ष की एकान्त नियतिवाद और नियतवाद में दोनों ही मान्यतायें स्वतः निरस्त हो जाती हैं ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें यह भी लिखा है कि "ऐसी दो क्रियायें और दो परिणाम दोनों aria एक कालमें होते हैं, इसलिये कर्मोदयमें निमित्त व्यवहार किया जाता है" । यहाँ उत्तरपक्षको यह देखना चाहिये कि आगम में और लोकमें भी दो द्रव्योंकी दो क्रियाओं और दो परिणामों का एक कालमें होने मात्र से उनमें निमित्तनैमित्तिक व्यवहार नहीं स्वीकार किया गया है प्रत्युत आगमने तो यह बतलाया गया है कि निमित्त व्यवहार उसी वस्तुमें होता है जो वस्तु कार्योत्पत्ति में उपादान कारणभूत वस्तुकी असामर्थ्यको
१. देखो त० सू० ५-७ को स० सिद्धि टीका ।