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शंका और उसमा समाधान इसी तथ्यको परमात्मप्रकाश अध्याय एकमें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
भवतणुभोयविरत्तमणु जी अप्पा झाएइ ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ॥३२।। संसार, शरीर और भोगोंमें विरक्त मन हुआ जो जीव आत्माको ध्याता है उसकी बड़ी भारी संसाररूपी बेल छिन्न-भिन्न हो जाती है ॥३२॥
इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रत्येक समयमें निश्चय षट्कारकरूपसे परिणत हुआ प्रत्येक द्रस्य स्वयं अपना कार्य करनेमें समर्थ है । इसको विशदरूपसे समझने के लिए तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १० ४१० का 'ततः सूक्तं लोकाकाशधर्मादिद्रव्याणामाधाराधेषता' यह बकाव्य दृष्टिपथमें लेने योग्य है । इसमें स्पष्ट बतलाया है कि निश्चयनयसे (यथार्थस्पसे) विचार करनेपर प्रत्येक द्रव्यमें स्थितिरूप, ममनरूप और परिणमन आदि रूप जो भी कार्य होता है उसे यह द्रव्य स्वयं अपने द्वारा अपने में आप कर्ता होकर करनेमें समर्थ है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यका उत्साद, यम और प्रौद्यरूप जो भी स्वरूप है वह विनसा है । अभेद विवक्षामें ये तीनों एक है, भेदविवक्षामें ही ये तीन कहे जाते हैं।
इसपर यह प्रश्न होता है कि ये तीनों जब कि द्रव्यस्वरूप है तो कालभेदसे प्रत्येक द्रव्य अन्य-अन्य क्यों प्रतीत होता है, उसे जो प्रथम समयमें है वही दूसरे समयमें रहना चाहिए ? इसी प्रश्नका समाधान व्यवहारनयसे करते हुए यह बचन लिखा है
व्यवहारनयादेव उत्पादादीनां सहेतुकत्वप्रतीतेः । व्यवहारनयसे ही उत्पादादिक सहेतुक प्रतीत होते हैं ।
मह तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि व्यवहारनयके दो भेद है-सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनय । सद्भूत व्यवहारनयमें भेदविवक्षा मुख्य है और असद्भूतव्यवहारनयमें उपचार विवक्षा मुख्य है । इससे दो तथ्य फलित होते हैं कि सद्भूत व्यवहारनयजी अपेक्षा विचार करनेपर किस पर्याययुक्त द्रव्यके बाद अगले समयमै किस पर्याय युक्त द्रव्य रहेगा यह ज्ञात होता है और असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा विचार करनेपर बाह्म किस प्रकार के संयोगमें किस प्रकारको पर्यायसे युक्त द्रव्य रहेगा यह ज्ञात होता है । यहाँ आचार्य विद्यानन्दिने जो उत्पादादिको व्यवहारनय से सहेतुक कहा है उसका आशय भी यही है । इसी तथ्य को उन्होंने अष्टसहस्री पृ० ११२ में इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
स्वयमुत्पित्सोरपि स्वभावान्तरापेक्षणे विनश्वरस्यापि तदपेक्षणप्रसंगात् । एतेन स्थास्नोः स्वभावान्तरानपेक्षणमुक्तम्, विरसा परिणामिन: कारणान्तरानपेक्षोत्पादादित्रयव्यवस्थानात् । तद्विशेषे एव हेतुव्यापारोपगमात् ।
स्वयं उत्पादशील है फिर भी उसमें यदि स्वभावान्तरकी अपेक्षा मानी जाय तो जो स्वयं विनाशशील है उसमें भी स्वभावान्तरकी अपेक्षा माननेका प्रसंग आता है। इससे स्वयं स्पितिशील में स्वभावान्तरकी अपेक्षा नहीं होती यह कहा गया है, क्योंकि विस्रसा परिणमनशील पदार्थमें कारणान्तरकी अपेक्षा किये बिना उत्पादादित्रयकी व्यवस्था है; तद्विशेषमें ही हेतुका व्यापार स्वीकार किया है।
यहाँ 'तद्विशेषे एवं हेतुल्यापारोपगमात्' इस वचनके तात्पर्यको समझने के लिए अष्टसहस्री