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अपनी बात पहुँच सके । श्री पं० अजितकुमारजी शास्त्री आदि कतिपय अन्य विद्वान् भी २२ अक्टूबर के प्रातः ही खानियो पहुंच सके थे । पं० फूलचन्द्रजी सहित जो विद्वान् २० अक्टूबरको स्वानियाँ पहुँच चुके थे उन्होंने २१ अक्टूवरको एक साथ बैठकर तत्त्वच की प्रक्रियाको व्यवस्थित रूपसे सम्पन्न करने के लिए आवश्यक नियम निर्धारित किये थे और उन्हीं नियमोंके आधारपर खानियाँमें २२ अन्नद्रवरसे एक नवम्बर तक तत्वचर्चाक दो दोर सम्पन्न हुए थे।
यहाँ मैं बतलाना चाहता है कि पं० फूलचन्द्रजीने बीनामे मेरे सभक्ष यह प्रस्ताव भी रखा था कि तत्त्वच में उभयपक्षसम्मत प्रश्नही विचार के लिये स्वीकृत होंगे और उनपर विचार करनेकी प्रक्रिया यह होगी कि उन प्रश्नोंपर सर्वप्रथम दोनों पक्ष अपना-अपना मन्तब्य आगम-प्रमाण सहित लिखकर एक दूसरे पक्ष के समक्ष प्रस्तुत करेंगे । इराधा पश्मात् दूसरे दौरमै दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पक्ष से प्राप्त उन मन्तव्यों पर आगम-प्रमाण सहित अपनो लिखित आलोचनायें परस्पर में प्रस्तुत करेंगे और तीसरे (अंतिम) दौर में दोनों ही पक्ष एना-दुसरे पक्षसे प्राप्त उन आलोचनाओंका उत्तर आगम-प्रमाण सहित लिखकर एक-दूसरे पक्षके सामने रखगे।
मन पं० फूलचन्द्रजीके इस प्रस्तात्रको सहर्ष मान लिया था। परन्तु उनसे उक्त प्रस्ताव लिखित रूपमें नहीं लिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि खानियाँ में तत्त्वच के अवसर पर पं० फूलचन्द्र जीने अपने सहयोगी सोनगढके प्रतिनिधि पं० मिचन्द्र जी पाटनो के प्रभाव में आकर अपना उपयक्त प्रस्ताव समाप्त कर दिया था। इस तरह तत्व अपने निर्णीत रूपको खोकर शंका-समाधानकै रूपमें परिवर्तित हो गई थी। फलतः प्रश्नोंका निर्धारण करने में हमारे पक्षका प्रमुख हाथ होनेसे हमारा पक्ष तो शंका-पक्ष बन गया था और सोनगढ़-पक्ष समाधान-पक्ष हो गया था। प्रस्तुतमें पाठकोंसे निवेदन
यहाँ यह ध्यातव्य है कि सोनगढ़पक्ष ने तत्वचमि सर्वत्र शंकापक्षको 'अपरपक्ष' नामसे सम्बोधित किया है और मैंने उस (तत्त्वची) को इस समीक्षामें कांकापक्षको 'पूर्वपक्ष' तथा समाधानपक्षको 'उत्तरपक्ष' नाममे गभिहित किया है। अतः पाठक महानुभाव तत्वचचकिी इस समीक्षाका स्वाध्याय करते समय इन सम्बोधनोंका ध्यान रखेंगे, ऐसा निवेदन है। उनसे मेरा यह भी निवेदन है कि 'अपनी दात' नामसे लिखी प्रस्तुत प्रस्तावना मैंने आमे सोनगढको 'सोनगढ़पक्ष' और इतर पक्षको 'अपरपक्ष' नामोंसे सम्बोधित किया है। वे इसका भी ध्यान रखें। तत्वच क प्रकाशनके सम्बन्धमें---
वानिवौं तत्वच का प्रवाशन आचार्यकल्प पं. श्री टोडरमल अन्धमाल, जयपुरसे हुआ है। वह ग्रन्थमाला सोनगढ़ की ही संस्था है और सोनगढ़ खानियाँ तत्त्वचमि एक पक्ष था। उक्त तत्त्वचर्चाका प्रकाशकीय ग्रन्थमालाके व्यवस्थापक पं० नेमिचन्मजी पाटनीने लिखा है और पाटनीजी उस तत्वचचमि सोनगढ़की ओरसे एक प्रतिनिधि थे। तथा उसका सम्पादकीय पंक फूलचन्द्रजीने लिखा है। पं० फूलचन्द्रजी उस चमि सोनगढ़पक्ष के मध्य प्रतिनिति ।
गद्यपि मैं यह नहीं कहना चाहता कि उस ग्रंथमालाको स्वानिया तत्वचर्चाका प्रकाशन नहीं करना था और न मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि पाटनौजीको उसका प्रकाशकीय व पं० फूलचन्द्रजीको उसका सम्पादकीय नहीं लिखना था । परन्तु तथ्य यह है कि खानिया तत्त्वचाका प्रकाशन करने तथा उसका प्रकाशकीय पसम्पादकीय लिखने से पूर्व उन महानुभावोंको निश्चित ही यह सोचना था कि जिस ग्रन्थका प्रकाधान किया जा रहा है और प्रकाशकीय व सम्पादकीय वे लिख रहे है वह मात्र सोनगढ़का हो ग्रन्थ नहीं है। यदि वे