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शंका ४ और उसका समाधान
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यह अज्ञान है, यह आदरने योग्य है, यह वस्तु आचरने योग्य नहीं है, यह आचारमयी भाव है, यह आचरण करनेवाला है, यह चारित्र है. ऐसे अनेक प्रकारके करने न करनेके कर्ता कर्मके भेद उपजते हैं, उन विकल्पों के होते हुए उन पुरुष तीको सुदृष्टिके बढ़ाव से बार-बार उन पूर्वोक्त गुणोंके देखनेसे प्रकट उल्लास लिए उत्साह बढ़े हैं । जैसे द्वितीयाके चन्द्रमाको कला बढ़ती जाती हैं तैसे ही ज्ञान दर्शन चारित्ररूप अमृत चन्द्रमाकी कलाओंका कर्तव्याकर्तव्य भेदोंसे उन जीवोंको बढ़वारी होती है । फिर उन्हीं जीवोंके शनैः शनैः मोहरूप महामल्लका सत्तासे विनाश होता है । किस ही एक कालमें अज्ञानता के आवेश हैं प्रमादकी अधीनतासे उनही free आत्म शिथिलता है, फिर आत्माको न्याय मार्ग में चलाने के लिए आपको दण्ड देते हैं। शास्त्र म्यायसे फिर ये ही जिनमार्गी बारंबार जैसा कुछ रत्नत्रयमें दोष लगा होय उसी प्रकार प्रायश्चित्त करते हैं । फिर निरन्तर उद्यमी रहकर अपनी आत्माको जो आत्मस्वरूपसे भिन्न स्वरूप (भिन्न पदार्थोको विषय करनेवाला) श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप व्यवहार रत्नत्रय शुद्धता करते हैं, जैसे मलीन वस्त्रको धोबी भिन्न साध्यसाधनभाव कर शिलाके ऊपर साबुन आदि सामग्रियोंसे उज्ज्वल करता है । तसें ही व्यवहारनयका अवलम्ब पाय भिन्न साध्यसाधनभावके द्वारा गुणस्थान चढ़ने से क्रमवशुद्धताका होता है फि उन ही मोक्षमार्ग साधक जीवोंके निश्चयनयकी मुख्यतासे भेदस्वरूप पर भवलम्बी व्यवहारमयी भिन्न साध्यसाधनका अभाव है, इस कारण अपने दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप विषं सावधान होकर अन्तरंग गुप्त अवस्थाको धारण करता है । और जो समस्त बहिरंग योगों से उत्पन्न है क्रियाकाण्डका आडम्बर तिनसे रहित निरन्तर संकल्प-विकल्पोंसे रहित परम चैतन्य भावोंके द्वारा सुन्दर परिपूर्ण आनन्दवंत भगवान् परम ब्रह्म आत्मामें स्थिरताको करे हैं ऐसे जे पुरुष हैं वे ही निश्चयावलम्बी जीव हैं । व्यवहारनयसे अविरोधी क्रमसे परम समरसी भाव के भोक्ता होते हैं ।
- पांडे हेमराज कृत हिन्दी टीका पृ० २४७-४८
श्री कुन्दकुन्द स्वामीकी निम्नलिखित गाथा भी हमें यही पथ प्रदर्शन करती है कि कहीं किसके लिए कौन नय प्रयोजनवान् है-
सुद्धो सुद्धादेसो नायवी परमभावदरिसीहि ।
वहारदेसिया पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ॥ १२ ॥ - समयसार
अर्थ ---- जो शुद्ध नय तक पहुँचकर श्रद्धावान् हुए तथा पूर्ण ज्ञान चरित्रवान् हो गये उनको तो शुद्ध नयका उपदेश करनेवाला शुद्धमय जानने योग्य है। और जो अपरमभाव अर्थात् श्रखा ज्ञान और चारित्र के पूर्णभावको नहीं पहुँच सके तथा साधक अवस्थामें ही ठहरे हुए हैं वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं ।
लोकम जिनधर्मकी देशना, परस्पर सापेक्ष उभयनयके ही आधीन है, एकनयके आधीन नहीं। जैसा कि कहा है-
जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा वबहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जर तित्थं अण्गेण उण तच्छं ॥
— समयसार गाथा १२ को मात्मख्यातिटीक
अर्थ --- यदि तुम जैनधर्मका प्रवर्तन चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयोंको मत छोड़ो,