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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इसका अर्थ यह है कि "यदि जिन शासनकी प्रवत्ति (रक्षा, प्रचार, प्रसार) चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारके छोड़नसे वर्मतीर्थ का नाश होता है और निश्चयको छोड़ देनेसे वस्तुतत्त्व नष्ट होता है। अतः दोनोंका ग्रहण आवश्यक है।"
इसको ध्यानमें रखकर जहाँ पूर्वपक्ष व्यवहार और निश्चय दोनों नवों को अपने-अपने दष्टिकोणका प्ररूपण करनेसे वास्तविक स्वीकार करता है वहाँ उत्तरपथ निश्चयनयको वास्तविक और व्यवहारनमको अवास्तविक ( कल्पनारोपित ) मात्र मानना चाहता है । यही पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके विवादकी मूल
आगे उत्तरपक्षने तक च०१० ५७ पर त. इलो० वा०प०४१० का यह कथन भी उद्धृत किया है कि "व्यवहारनयादेवोत्पादादीनां सहेतकत्वातीतः" और उसका अर्थ भी उमने यह किया है कि "ध्यदहारनयसे ही उत्पादादिक सतक प्रतीत होते है । परन्तु प्रश्न फिर भी असमाहित रहता है, क्योंकि व्यवहारनयके विषयको वह आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र मानता है, जो प्रमाणविरुद्ध है। इसे पूर्वमें भो स्पष्ट किया जा सका है।
मागे त च पृ० ५७ पर ही उत्तरपक्ष लिखा है---''यह तो अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा कि व्यवहारनयके दो भेद है" इत्यादि । सो इसे स्वीकार करने में पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है तथा उसकी पष्टिके लिए उसने जो अष्टसहस्री प. ११२ का उद्धरण दिया है जो उसमें और उसके अर्थमें भी पूर्वपक्षका कोई विरोध नहीं है । परन्तु उसने अष्टसहस्री १० ११२ के उद्धरणके अंशभत "तद्विशेषे एव हेतुव्यापारोपगमात" वचनके अभिप्रायको समझने के लिए जो अष्टसहस्त्री १० १५० का उद्धरण प्रस्तुत किया है उसके आधारपर प्रकट किये गये अभिप्रायसे पूर्वपक्ष सहमत नहीं है क्योंकि उससे वह स्वपरप्रत्यय कार्यमें मी बाह्य सामग्रीकी अकिंचित्करताको सिद्ध करना चाहता है किन्तु वह अष्ट राइसीके उक्त वचनसे सिद्ध नहीं होती है। उसके त०च. प० ५८ पर निर्दिष्ट इस कथनसे कि "सदभत व्यवहारमयसे अन्तःसामग्रीको और असदभूतव्यवहारमयस बाय सामग्रीको उत्पादक कहा गया है। एकको दूसरेवा उत्पादक कहना व्यवहार है और स्वयं उत्पन्न होता है यह कहना निश्चय है अर्थात निश्चयनयका विषय है" पूर्वपक्षको विरोध नहीं है। परन्तु उत्तरपक्ष जो उससे असद्भूत व्यवहारनयके विषयको आकाशकुसुमकी तरह काल्पनिक मानना चाहता है वह किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं किया जा सकता है । इसे पूर्व में अनेक स्थलोपर स्पष्ट किया जा चु
इसके आगे त० च० ० ५८ पर ही उत्तरपक्षने जो "यह वस्तुस्थिति है" इत्यादि अनुच्छेद लिखा है उसके विषयमें भी पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है । लेकिन उसने इस अनुच्छेदके अन्तमें जो यह लिखा है कि "हमें विश्वास है कि अपरपक्ष पूर्वोक्त उदाहरण द्वारा आसमप्रमाणों के प्रकाशमें इस तथ्यको ग्रहण करेगा ।" यह उसने पूर्वपक्षने निश्चय और व्यवहारके विश्यमें आगम प्रमाणोंके आधारपर निर्णीत दृष्टिकोणको नहीं समझने के कारण ही लिखा है। इस विषयमें पूर्वपक्षका क्या दृष्टिकोण है, यह बात पूर्वपक्षने अपने वक्तव्यों में स्वयं स्पष्ट की है और इस समीत में मैं भी अनेक स्थलोंपर स्पष्ट कर चुका है।
___ इसके आगे उत्तरपलने त. च० पृ० ५८-५९ पर यह कथन किया है कि 'अपरपक्षने उपचार कहाँ प्रवृत्त होता है यह बतलाने के लिए जो अन्य दो उदाहरण प्रस्तुत किये हैं उनका आशय भी यही है । अन्न अपने परिणामलक्षण क्रियाका कर्ता है। और अपने परिणाम लक्षणक्रियाके का है। ये परस्पर