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शंका ४ और उसका समाधान
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है । वहाँ साधन शब्द निमित्त के अर्थमें आया है। इसे अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा । और एकको दूसरेका निमित्त कहना यह उपचार है । तभी वह व्यवहार मोक्षमार्ग संज्ञाका अधिकारी हैं और तभी उस रूप परिणामको तत्वमें गर्भित कर उसे बन्धका हेतु कहा गया है और तभी उसे संतर तत्त्वसे विलक्षण बतलाया गया है। उसकी आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाका यही आशय हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जो बृहदुद्रव्यसंह गाथा १३ की टीकाके वचनानुसार व्यवहारनयको साध्यभूत निश्चयनयका उपचरित हेतु स्वीकार न कर उसे परमार्थरूप मानता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। हमने परमात्मप्रकाश के दूसरे अध्यायकी गाथा १४ पर दृष्टिपात किया है, उस द्वारा उसी व्यवहार मोक्षमार्गका निर्देश किया गया है जिसका हम पूर्व में स्पष्टीकरण कर आये हैं । निवमसारकी ५१ प्रभृति पांच गाथाओं पर हम्ने दृष्टिपात किया है। इनकी टीका करते हुए श्री पद्मप्रभमलधारीदेव मेदोपवार रत्नत्रयको निश्चयभक्ति रूप घोषित कर रहे हैं। टीका पर दृष्टिपात कीजिए । पदकी श्रद्धा आदि इसके सिवा और अन्य क्या हो सकता है। अपर पक्ष यदि इसे दृष्टिपथ में ले तो उसे यह स्वीकार करने में देर न लगे कि निश्चय रत्नत्रय से भिन्न वह निश्चय भक्तिरूप अनुराग ही हो सकता है, अन्य कुछ नहीं ।
नियमसारके चौथे अध्यायमें पांच पापोंको निवृतिको व्रत बतलाया है और उसे व्रत, समिति, गुप्तिरूप कहा है। इसीसे यह स्पष्ट है कि पापक्रियाओं से निवृत्ति और व्रतादिरूप पुण्य क्रियाओं में प्रवृत्तिका नाम ही व्रत है। दर्शनप्राभूतके उल्लेखसे भी यही सिद्ध होता है कि छह द्रव्यादिकी सच्ची श्रद्धा सम्यग्दृष्टिके ही होती है। यही बात रत्नकरण्ड श्रावकाचारके वचनसे भी ज्ञात होती है। इसमें विरोध किसे है यह हमारी समझ में नहीं आया । यहाँ तो विचार इस बातका हो रहा है कि व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय क्या वस्तु है, क्या ये दोनों एक है या भिन्न-भिन्न वस्तु हैं और उनमें साध्य साधन भाव किस नयसे कहा गया है । यह अपर पक्ष ही विचार करे कि क्या उल्लेखोंका आशय स्पष्ट किये बिना उनके उपस्थित कर देने मात्र से देवादिविषयक प्रशस्त राग व्यवहार रत्नत्रय नहीं है इसकी पुष्टि हो जाती है ? पूर्वोक्त प्रमाणक प्रकाशमें विचार कर देखा जाय तो अपर पक्षको विदित होगा कि आगम विरुद्ध हमारा कथन न होकर वस्तुतः अपर पक्ष ही ऐसा प्रयत्न कर रहा है जिसे आगम विरुद्ध कहना उपयुक्त होगा । दूसरेको शब्दों द्वारा लाहित करने की चेष्टा करना अन्य बात है और आगम प्रमाणोंके प्रकाश में यथार्थका निर्णय करना अन्य बात है ।
अपर पक्षने लिखा है कि राग, भेद या विकल्प सहित जो सप्ततत्व आदिका श्रद्धान व ज्ञान तथा पापोंसे निवृत्तिरूप चारित्र है वह व्यवहार रत्नत्रय या व्यवहार मोक्षमार्ग है ।'
हमने अपर पक्षके इस कथन पर दृष्टिपात किया । किन्तु अपर पक्ष हमारी इस घृष्टताको क्षमा करेगा कि वह जो कहना चाहता है वह शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं हो पा रहा है। हमारी समझसे सद्भूत व्यवहार नयका आश्रय लेकर वह कहना यह चाहता है कि निश्चय सम्यक्त्वादि तीनों में से एक-एकको मुक्तिका साधन कहना व्यवहार रत्नश्रय है । यहाँ तीनों मिलकर मुक्ति के साधन हैं, एक-एक नहीं, इसलिए तो यह व्यवहार उपवरित हुआ और प्रत्येकमें मुक्तिको साघनता विद्यमान है, इसलिए वह व्यवहार सद्भूत हुआ। इस प्रकार निश्चय रत्नत्रय में से एक एकको सावन कहना उपचरित सद्भूत व्यवहार नयका विषय है । या मुक्तिरूप परिणत आत्मा कार्य है और रत्नत्रय परिणत आत्मा उसका कारण है ऐसा भेद द्वारा कथन करना सद्भूत व्यवहार नयका विषय है। किन्तु अपर पक्षने वाक्य योजनाकर उस द्वारा जो कथन किया