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शंका-समाधान १ की समीक्षा
दोनों प्रकारके निमित्तों में जो कार्य के प्रति अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां पायी जाती हैं उन्हें बहव्याप्ति नाम दिया गया है, क्योंकि दोनों ही निमित करत होने वाले उपाधनके मात्र सहायक होते हैं। यह महिर्व्याप्ति प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकारके निमित्तोंमें पूर्वोक्त प्रकार भिन्नभिन्न रूपमें हैं । इन भिन्न-भिन्न रूपमें विद्यमान व बहिर्व्याप्ति नामसे कही जाने वाली अन्दय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर ही प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके पूर्वोक्त लक्षण निधारित किये गये हैं ।
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इस प्रकार पूर्वपक्षको मान्य दोनों निमित्तोंके पूर्वोक्त लक्षण आगमके आधारपर सम्यक् सिद्ध होते हैं । तथा उत्तरपक्षको मान्य पूर्वोक्त निमित्तोंके लक्षणोंके समर्थन में उत्तरपक्षने न तो कोई आगम प्रमाण प्रस्तुत किया है और न ऐसा आगमप्रमाण उपलब्ध हो होता है । अतः उनका असम्यक्पना स्पष्टतया विदित हो जाता है ।
आगमप्रमाणोंके आधारपर ऊपर दोनों निमित्तोंके सम्यक् लक्षणोंका जो निर्धारण किया गया है उससे कार्योत्पत्ति के प्रति दोनों निमित्तोंकी कार्यकारिताका समर्थन होता है. अकिचित्करताका नहीं। आगे प्रमाणके आधारपर उनकी इस फार्मकारिताका और भी समर्थन किया जाता है ।
पूर्व में बतलाया जा चुका है कि उत्तरपक्षके द्वारा प्रथम दौर में उद्घृत प्रवचनसार गाथा २७७ ।। १६९ ।। और उसकी टीकासे व समयसार गाथा १०५ और उसकी टीकासे कार्यके प्रति प्रेरक निमित्तोंकी उपादानका सहायक होने रूपसे कार्यकारिता स्पष्टतया सिद्ध होती है। इन आगमप्रमाणके अतिरिक्त समयसार गाथा ९१ से भी कार्योत्पत्तिके प्रति प्रेरक निमितोंकी कार्यकारिता सिद्ध होती है। वह गाथा निम्न प्रकार है
जं कुइ भागमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स ।
कम्मत परिणमदे तम्हि सयं पुग्गल दव्वं ॥ ९१ ॥
अर्थ - आत्मा अपने जिस परिणामको करता है उसका वह कर्ता होता है और आत्माके उस परिगामके होनेपर पुद्गल द्रव्य स्वयं (अपनी योग्यतानुसार ) कर्मरूप परिणत होता है ।
इसी तरह पुरुषार्थसिद्धयुपायकी कारिका १२ से भी कार्योत्पत्तिके प्रति प्रेरक निमित्तोंकी कार्यकारिता सिद्ध होती है । वह कारिका भी निम्न प्रकार है
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१२॥
अर्थ — जीवद्वारा कृत परिणामको मात्र निमित्तरूपसे प्राप्त कर अन्य पुद्गल वह स्वयं ( अपनी योग्यताके अनुसार) कर्म रूपसे परिणत होते हैं ।
इन सब आगमप्रमाणोंसे प्रेरक निमिलोंकी उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारिता स्पष्ट सिद्ध होती है, अकिचित्करता नहीं, क्योंकि इन सब स्थलोंमें प्रेरक निमित्तों के साथ कार्यकी अन्वय और व्यतिरेकव्याप्तियाँ हैं ।
इसी तरह पूर्वपक्षाने अपने द्वितीय' दौर में जो पंचास्तिकायकी गाथा ८७ और ९४ की आचार्य
१. देखो, त० च० पृ० २ ।
२. देखो, त० च० १०५ ।
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