________________
८७
शंका २ और उसका समाधान हमें विश्वास है कि इस स्पष्टीकरणके आधारपर अपर पक्ष जीवित शरीरकी क्रियाओंके स्वयं समीचीन और असमीचीन होनेके विचारका त्यागकर अपने इस विचारको मुख्यता देगा कि प्रत्येक प्राणीको मोक्षके साधनभूत स्वभाव सन्मुख हुए परिणामोंकी सम्हालमें लगना चाहिए । संसारके छेदका एकमात्र यही भाव मूल कारण है, अन्यथा संसारफी ही वृद्धि होगी।
बाह्य क्रिया धर्म नहीं है इस अभिप्रायकी पुष्टि में ही हमने नाटक समयसारके वचनका उल्लेख किया था।
अपर पक्षका कहना है कि क्रियाको तो सर्वधा धर्म-अधर्म हम भी नहीं मानते । तो क्या इस परसे यह आशय फलित किया जाय कि अपर पक्ष जीवित शरीरको क्रियाको कथंचित धर्म-अधर्म मानता है ? यदि यही बात है तो अपर पक्षके इस कथनकी कि 'धर्म और अधर्म आत्माकी परिणतियाँ हैं और वे आत्मामें हो अभिव्यक्त होते हैं क्या सार्यकता रही? इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। यदि यह बात नहीं है तो उस पक्षको इस बातका स्पष्ट खुलासा करना था।
यह तो अपर पक्ष भो जानता हूं कि निमित्त और कारण पर्यायवाची रांज्ञाएँ हैं। वह बाह्म भी होता है और आभ्यन्तर भो । उनमें-से आभ्यन्तर निमित्त कार्यका मुख्य-निश्चय हेतु है । यही कारण है कि आचार्य समन्तभदने स्वयंभूस्तोत्र कारिका ५९ में मोक्षमार्गमें बाह्य निमित्तकी गौणता बतलाकर आभ्यन्तर हेतुको पर्याप्त कहा है। इस कारिकामें आया हुआ 'अंगभूतम्' पद गोणपनेका ही सूचक है और तभी 'अभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते' इस वचनकी सार्थकता बन सकती है। 'अंगभूत' पदका अर्थ 'गौण' है इसके लिए अष्टसहस्री पृ० १५३ 'तदंगता तद्गुणभावः' इस बननपर दुष्टिपात करना चाहिए।
अपर पक्षाने जीवित शरीरको क्रियाको आत्मा धर्म-अधर्म में निमित्त स्वीकार करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें दोनों कारणोंको पूर्णता आवश्यक है और इसके समर्थनमें स्वयंभूस्तोत्रका 'बाह्येतरोपाधिसमनतेयम्' बचन उक्त किया है । किन्तु प्रकृतमें विचार यह करना है कि मोक्ष दिलाता कौन है ? क्या शरीर मोक्ष दिलाता है या वजवृषभनाराचसंहनन या शरीरकी क्रिया मोक्ष दिलाती है ? मोक्षकी प्राप्तिमें विशिष्ट कालको भी हेतु कहा है। क्या यह मोठा दिलाता है ? यदि यही बात होती तो आचार्य गृपिचछ तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।' १-१ इस सूत्रकी रचना न कर इसमें बाह्याभ्यन्तर सभी सामग्रोका निर्देश अवश्य करते। क्या कारण है कि उन्होंने बाह्य सामग्रीका निर्देश न कर मात्र आभ्यन्तर सामग्रीका निर्देश किया है, अपर पक्षको इसपर ध्यान देना चाहिए। किसी कार्यको उत्पत्ति के समय आभ्यन्सर सामग्रीकी समग्रताके साथ बाह्य सामग्रीकी समग्रताका होना अन्य बात है और आभ्यन्तर सामग्रीके समान ही बाह्म सामग्रीको भी कार्यकी उत्पादक मानना अन्य बात है । अन्तरं महदन्तरम् । इस महान अन्तरको अपर पक्ष ध्यानमें ले यही हमारी भावना है। यदि वह इस अन्तरको ध्यान में ले ले तो उस पक्षको यह हृदयंगम करनेमें सुगमता हो जाय कि हम बाह्य सामग्रीको उपचरित कारण और आभ्यन्तर सामग्रीको अनुपचरित कारण ययों कहते हैं । यह तो कोई भी साहस पूर्वक कह सकता है कि आत्मसम्मुख हुआ आत्मा रत्नत्रयको उत्पन्न करता है और रत्नत्रयपरिणत आत्मा मोक्षको उत्पन्न करता है, परन्तु यह बात कोई साहसपूर्वक नहीं कह सकता कि जीवित शरीरकी किया रत्नत्रय या मोक्षको उत्पन्न करती है । सर्वार्थ सिद्धि अ० १ ० १ में सम्यक्चारित्रका लक्षण करते हुए लिखा है