Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द मामिक प्रप्रल १६५० अनेकान्त wome . .....AAMS '.. . -w- OPATRA । riginal SHORT भगवान ग्रादिब्रह्मा, प्रादिनाथ । वह बाबा, रिलपर ममन्तभद्राश्रम (वीर-मेवा-मन्दिर) का मुख पत्र Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अनेकान्त को सहायता कमांक विषय पष्ठ २१) मेट कम्मीरीलालजी (कश्मीर वालो) ने अपने मुपुत्र विनोद कुमार जी जैन (इजीनियर) का विवाह १. म्वयम्भू-तृति--पद्यनन्द्याचार्य ला. महावीर प्रमाद जी अरवाल मेटलवर्स रेवाडी की २ यगम्तिलक का मास्कृतिक यध्ययन-- डा० पुत्री चि. कुमारी प्रमिला के माथ जैनविधि से ३० अप्रैल गोकुलचन्द जैन आचार्य एम ए पी-एच. डी २ को सम्पन्न हुग्रा । उम मुअवसर पर ७५१) के निकाल ३. मोनागिरि मिद्धक्षेत्र और तन्मम्बन्धी माहित्य । हए दान में मे २१) अनेकान्ल को मधन्यवाद प्राप्त हुए । -डा० नेमिचन्द शास्त्री, एम ए. डी लिट् ८ २१) गयबहादुर सेठ हरखचन्द जी पाण्ड्या गची के ४ क्या कभी किमी का गर्व स्थिर रहा है? १३ लघुभ्राता नागचन्द जी की सुपुत्री चि० मरोज कुमारी के मानव जातियों का देवीकरण -माध्वी । विवाहोपलक्ष मे निकाले हए ५४१) के दान में में इक्कीम श्री मघमित्रा १४ | रुपया अनेकान्त को मवन्यवाद प्राप्त हुए। आशा है दमी ६ प्रनिष्ठा तिलक के कर्ता नमिचन्द्र का ममय तरह अन्य महानुभाव भी धार्मिक एवं सामाजिक अवमगे ----पं० मिलापचन्द्र कटारिया पर ग्रनकान्त को महायता भिजवाने का प्रयत्न करेंगे। पागम और त्रिपिटको के मदर्भ में अजातशत व्यवस्थाप 'अनेकान्त' कुणिक-मुनि श्री नगगन वोग्मेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। ८ कुलपाक के माणिक म्वामी- डा० विद्याधर जोहग पुरकर अनेकान्त के ग्राहकों से मुग्व का स्थान - -परमानन्द अनेकान्त के प्रेमी पाठको मे निवेदन है कि अनेकान्त १०. गजपून कानिक मालवा का जैन-पुगतन्य- का २१वे वर्ष का प्रथमाक उनकी मेवा में पहुंच रहा है। नेमिह गौद एम. बी. एड " | कृपया अक मिलते ही २१व वर्ष का वार्षिक मूल्य ६) ११ माध्याय मेघविजय के मेघ महोदय में मनीग्राईर में भिजवा कर अनुगृहीत करें। अन्यथा अगला उल्लिग्विन कतिपय अपात्र रचना. अक वी० पी० में भेजा जावेगा। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' अगरचन्द नाहटा अग्रवालो का जैन सम्कति स्वास्थ्य-कामना परमानन्द शास्त्री वीर मवामन्दिर के सम्थापक वयोवृद्ध प्रसिद्ध नि१२. माहित्य-ममीक्षा--परमवन्द शास्त्री / ७ हामिक विद्वान ५० जुगलकिशोर जी मुख्तार एटा में बीमार हो गये थे। उनकी अवस्था १२ वर्ष की है, इम सम्पादक-मण्डल बद्धावस्था में भी वे बगबर लम्बन कार्य करते है। और डा० प्रा० ने० उपाध्य योगमार की प्रस्तावना लिम्व रहे है। अनेकान्त परिवार डा०प्रमसागर जन उनकी स्वास्थ्य कामना करते हए उनके चिरजीवी होने की श्री यशपाल जैन कामना करता है। अनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम्पारक मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक अनेकान्त । अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पं० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् अहम् अनेकाना परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ । वर्ष २१ किरण १ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६४, वि० सं० २०२५ प्रप्रेल सन् १९६८ स्वयम्भू स्तुतिः स्वयंभुवायेन समुद्धतं जगज्जडत्वकूपे पतितं प्रमावतः । परात्मतत्त्व प्रतिपादनोल्लसद्वचो गुणैरादि जिनः स सेव्यताम् ॥१ -पानन्द्याचार्य अर्थ-स्वयम्भू-स्वयं ही प्रबोध को प्राप्त हुए जिस प्रादि (ऋषभ) जिनेन्द्र ने प्रमाद के वश होकर प्रज्ञाननारूप कुएं में गिरे हुए जगत के प्राणियो का परतत्त्व और प्रात्मतत्त्व (अथवा उत्कृष्ट प्रात्मतत्त्व) के उपदेश मे शोभायमान वचनरूप गुणो से उद्धार किया है उस आदि जिनेन्द्र की प्राराधना करना चाहिए। भावार्थ-इस पद्य में प्रयुक्त 'गुण' दाब्द के दो अर्थ है-हितकारकत्व आदि गुण तथा रस्सी । उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि असावधानी से कुएँ मे गिर जाता है तो इतर दयालु मनप्य कुएं में रस्सियो को डालकर उनके सहारे से उसे बाहर निकाल लेते है। इसी प्रकार भगवान आदि जिनेन्द्र ने जो बहुत से प्राणी अज्ञानता के वश होकर धर्म के मार्ग से विमुख होते हुए कष्ट भोग रहे थे उनका हितोपदेश के द्वारा उद्धार किया था-उन्हे मोक्षमार्ग में लगाया था। उन्होने उनको ऐसे वचनो द्वारा पदार्थ का स्वरूप समझाया था जो कि हितकारक होते हुए उन्हे मनोहर भी प्रतीत होते थे। 'हित मनोहारि च दुर्लभ वचः' इस उक्ति के अनुसार यह सर्वसाधारण को सुलभ नहीं है ॥१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन डा० गोकुलचन्द प्राचार्य, एम. ए. पा-एच. डा. पाणिनी के विषय में सोमदेव ने एक महत्त्वपूर्ण जान- ससर्ग विद्या या नाट्यशास्त्र, चित्रकला तथा शिल्पकारी दी है। इनके पिता का नाम पणि या पाणि था। शास्त्र विषयक सामग्री भी यशस्तिलक में पर्याप्त और इसीलिए इन्हे पाणि पुत्र भी कहा जाता था। गणित को महत्त्वपूर्ण है। ललितकलाये और शिल्प विज्ञान नामक सोमदेव ने प्रसण्यात शास्त्र कहा है। सोमदेव के समय तीसरे अध्याय मे इम सामग्री का विवेचन किया गया है। प्रमाणशास्त्र के रूप मे अकलक-न्याय की प्रतिष्ठा हो चुकी कामशास्त्र को सोमदेव ने कन्तुमिद्धान्त कहा है। थी । राजनीति मे गुरु, शुक्र, विशालाक्षा परीक्षित, पारा यशस्तिलक में इसकी मामग्री यत्र तत्र बिग्वरी है। भोगाशर, भीम, भीष्म तथा भारद्वाज रचित नीतिशास्त्रों का वलि राजस्तुति को कहते थे । उल्लेख है । सोमदेव ने गज विद्या मे यशोधर को रोमपाद की तरह कहा है। रोमपाद के अतिरिक्त गजविद्या विशे काव्य और कवियों में मोमदेव ने अपने पूर्ववर्ती अनेक महाकवियो का उल्लेख किया है। उर्व, भारवि, षज्ञो मे इभचारी, याज्ञवल्क्य, वाद्धलि (वाहालि), नर, नारद, राजपुत्र तथा गौतम का उल्लेख है। कुल मिलाकर भवभूति, भर्तहरि, भर्तृमण्ठ, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास, बोस, कालिदास, बाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ तथा यशस्तिलक मे गज विद्या विषयक प्रभूत सामग्री है । गजोत्पत्ति की पौराणिक अनुश्रुति, उत्तम गज के गुण, गजो के राजशेखर का एक साथ एक ही प्रसग में उल्लेख है। भद्र, मन्द, मृग और सकीर्ण भेद, गजो की मदावस्था, सोमदेव द्वारा उल्लिखित अहिल, नीलपट, त्रिदश, कोहल, उसके गुण-दोष और चिकित्सा, गज परिचारक, गज शिक्षा गणपति, शकर, कुमुद तथा केकट के विषय में अभी हमे इत्यादि के विषय मे सोमदेव ने विस्तार मे लिखा है। विशेष जानकारी नही उपलब्ध होती। वरमचि का भी मैने उपलब्ध गजशास्त्रो से इसकी तुलना करके देखा है । एक पद्य उद्धृत किया गया है । कि यह सामग्री एक स्वतन्त्र गजशास्त्र के लिए पर्याप्त है। दाशानक पार पायाणक शिक्षा और साहित्य का गजशास्त्र की तरह प्रश्वशास्त्र पर भी सोमदेव ने ता पशास्तलक खान है । प्रा० हान्दका ने इस सामग्रा का विस्तार से प्रकाश डाला है। राजाश्व के वर्णन मे केवल विस्तार से विवचन किया है, हमने इसकी पुनरावृत्ति एक प्रसग मे ही पर्याप्त जानकारी दे दी है। रेवत और नहा क शालिहोत्र अश्वशास्त्र विशेषज्ञ माने जाते थे। सोमदेव ने परिच्छेद ग्यारह में आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डाला अश्व के इकतालीस गुणो की परीक्षा करना अपेक्षित गया है। सोमदेव ने कृषि, वाणिज्य, सार्थवाह, नौ सन्तरण बताया है। यशस्तिलक में इन सभी गुणों के विषय में और विदेशी व्यापार, विनिमय के साधन, न्याय आदि के पर्याप्त जानकारी दी गयी है। अश्वशास्त्र के साथ तुलना विषय में पर्याप्त सामग्री दी है। काली जमीन विशेष करने पर यह सामग्री और भी महत्त्वपूर्ण और उपयोगी उपजाऊ होती है। सुलभ जल, सहज प्राप्य श्रमिक, कृषि सिद्ध होती है। के उपयोगी उपकरण, कृषि की विशेष जानकारी तथा रत्नपरीक्षा मे शुकनास का उल्लेख है। वैद्यक या उचित कर कृषि की समृद्धि में कारण होते है। तभी आयुर्वेद मे काशिराज धन्वन्तरि, चारायण, निमि, धिषण वसुन्धरा पृथ्वी चिन्तामणि की तरह शस्य सम्पत्ति तथा चरक का उल्लेख है। रोग और उनकी परिचर्या लुटाती है। नामक परिक्छेद मे इनके विषय मे विशेष जानकारी दी है। वाणिज्य में सोमदेव ने स्थानीय तथा विदेशी व्यापार Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन का उल्लेख किया है। स्थानीय व्यापार के लिए प्रायः एक वृत्ति स्वीकार भले ही कर ली जाये, किन्तु उसे अच्छा चीज का अलग-अलग बाजार या हाट होता था। बडे- नही माना जाता था। बड़े व्यापारिक केन्द्र पेण्ठास्थान कहलाते थे। देश-देश के ग्यारहवे परिच्छेद में इस सम्पूर्ण सामग्री का विवेव्यापारी प्राकर इन पेण्ठास्थानो मे अपना रोजगार करते . थे। पेण्ठास्थानों का संचालन राज्य की ओर से होता था या किसी विशेष व्यक्ति द्वारा । इनमें व्यापारियो को दाया इनमें व्यापारियों को परिच्छेद बारह में यशस्तिलकमे उल्लिखित शस्त्रास्त्री हर तरह की सुविधा दी जाती थी। मध्ययुग मे जो व्या- का विवेचन है। मोमदेव ने छत्तीस प्रकार के शस्त्रास्त्रो पारिक प्रगति हुई उसमे इन मडियो का विशेष हाथ था। का उल्लेख किया है। इन उल्लेखो की एक बडी विशेषता यह है कि इनसे अधिकाश शस्त्रास्त्रो का स्वरूप भारतवर्ष मे व्यापार करने के लिए जिम प्रकार उनके प्रयोग करने के तरीके तथा कतिपय अन्य बातों पर विदेशी सार्थ पाते थे उसी प्रकार भारतीय सार्थ टाडा बाधकर विदेशी व्यापार के लिए निकलते थे । सोमदेव ने भी प्रकाश पड़ता है। धनुष, असिधेनुका, कर्तरी, कटार, कृपाण. खड्ग,कौक्षेयक, या करवाल, तरवारि, भुसुडी, ताम्रलिप्ति तथा सुवर्णद्वीप के व्यापार को जाने वाले सार्थों का उल्लेख किया है। मडलान, असिपत्र, प्रशनि, अकुश, कणय, परशु या कुठार, सोमदेव के युग मे वस्तु विनिमय तथा मृद्रा के मध्यम प्रास, कुन्त, भिन्दिपाल, करपत्र, गदा, दुम्फोट या मूसल, से विनिमय की प्रणाली थी। पिछड़े क्षेत्रो मे वस्तु विनि मुद्गर, परिध, दण्ड पट्टिस, चक्र, भ्रमिल, प्टि, लांगल, मय चलता था । मुद्राओं में सोमदेव ने निष्क, कापिण शक्ति, त्रिशल, शकु, पाश, वागुग, क्षेपणि हस्त तथा गोल घर के विषय में इस परिच्छेद मे पर्याप्त जानकारी दी तथा सुमन का उल्लेख किया है। निष्क वैदिक यग मे एक म्वर्णाभूपण था, किन्तु बाद मे एक नियत स्वर्ण मुद्रा बन गया । मनुस्मृति मे निष्क को चार-सुवर्ण या तीन मी तृतीय अध्याय में सब चार परिच्छेद है। इनम ललित बीस रत्ती के बराबर कहा गया है। कार्षापण चादी का कलानो तथा शिल्प विज्ञान विषयक सामग्री का विवेचन सिक्का था। मनुस्मृति में इसे रजत पुगण और धारण है। परिच्छेद एक में संगीत, वाद्ययन्त्र तथा नृत्यकला का कहा है । पुराण का वजन बत्तीस रत्ती होता था कार्षा- विवेचन है। सोमदेव ने यशोधर को गीतगन्धर्वचक्रवर्ती पण की फुटकर खरीज भी होती थी। सुवर्ण निष्क की कहा है। यशोधर का हस्तिपक, जिसकी ओर महागनी तरह एक सोने का सिक्का था। अनगढ सोने को हिरण्य प्राकष्ट हई, सगीत में माहिर था। संगीत और म्बर लहरी कहते थे और जब उसी के सिक्के ढाल लिए जाते तो वे का अनन्य सबध है। सोमदेव ने सप्त म्बगे का उल्लेख सुवर्ण कहलाते थे। मनुस्मृति के अनुसार सुवर्ण का वजन किया है। अस्सी रत्ती या सोलह माषा होता था। वाद्य यन्त्रो में यशस्तिलक के उल्लेख विशेष महत्त्व सोमदेव ने न्यास या धरोहर रखने का भी उल्लेख के हैं। वाद्यो के लिए मम्मिलित शब्द प्रातोद्य या। किया है। प्राचार, व्यवहार तथा विश्वास के लिए विश्रुत संगीतशास्त्र की तरह मोमदेव ने भी वाद्यो के घन, मूपिर, व्यक्ति के यहां न्यास रखा जाता था। यदि न्यास रखने नत और अवनद्ध, ये चार भेद बताये है। सोमदेव ने वाले की नियत खराब हो जाये और वह समझ ले कि तेईस वाद्य यन्त्रो की जानकारी दी है। शख, काहला, न्यास धर्ता के पास ऐसा कोई प्रमाण नही, जिसके आधार दुदुभि, पुष्कर, ढक्का, प्रानक, भम्भा ताल, करटा, पर वह कह सके कि उसने अमुक वस्तु उसके पास न्यास त्रिविला, डमरुक, रुंजा, घटा, वेणु, वीणा, भल्लरी, रखी है, तो वह न्यास को हडप जाता था। वल्लकी, पणव, मदग, भेरी, पटह और डिण्डिम, इन सभी भूति या सेवावृत्ति के विषय में लोगो की भावना के विषय में यशस्तिलक की सामग्री से पर्याप्त प्रकाश अच्छी नहीं थी। विवश होकर आजीविका के लिए सेवा- पड़ता है। सगीतशास्त्र के अन्य प्रन्थो के तुलनात्मक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अध्ययन के आधार पर इन वाद्य यन्त्रों का इस परिच्छेद यक्ष मिथुन के चित्र बनाये गये थे। प्रतीक चित्रों मे में पूरा परिचय दिया गया है। तीर्थंकरो की माता के सोलह स्वप्नों के चित्र थे। श्वेनृत्यकला विषयक सामग्री भी यशस्तिलक मे पर्याप्त ताम्बर साहित्य में इनकी संख्या चौदह बताई गई है। है। सोमदेव ने लिखा है कि सम्राट् यशोधर नाट्यशाला ऐरावत हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, लटकती हुई पुष्प में जाकर कुशल अभिनेताओं के साथ अभिनय देखते थे। मालाये, चन्द्र-सूर्य, मत्स्य युगल, पूर्ण कुभ, पग्रसरोवर, नाट्य प्रारंभ होने के पूर्व रंगपूजा की जाती थी। सोम- सिंहासन, समुद्र, फणयुक्त सर्प, प्रज्वलित अग्नि, रत्नो का देव ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। ढेर और देव विमान ये सोलह स्वप्न तीर्थकर की माता बालक के गर्भ में जाने के पहले देखती है। प्राचीन पाण्डुयशस्तिलक मे नृत्य के लिए नृत्य, नृत्त, नाट्य लास्य, लिपियो में भी इनका चित्राकन मिलता है। ताण्डव तथा विधि शब्द पाये है। नृत्य, नृत्त और नाट्य देखने में समानार्थक शब्द लगते है, किन्तु वास्तव में इनमें रगावली या धूलिचित्रो का सामदेव ने छह बार पर्याप्त अन्तर था । दशरूपक मे धनजय ने इनके पारस्प- उल्लेख किया है। चित्रकला मे रगावलि का क्षणिक चित्र रिक भेदो को स्पष्ट किया है। नाट्य दृश्य होता है, इस कहते है। इसके धूलिचित्र और रचित्र दो भेद है। लिए इसे 'रूप' भी कहते है और रूपक अलकार की तरह आजकल इसे रगीली या अल्पना कहा जाता है। प्रत्येक प्रारोप होने के कारण रूपक भी। काव्यो में वणित मागलिक अवसर पर रगीली बनान का प्रचलन भारतवष धीरोद्धत आदि प्रकृति के नायकों, नायिकामो तथा पात्रो में अभी भी है। का आगिक, वाचिक आहार्य तथा सात्विक अभिनयो द्वारा प्रजापति प्रोक्त चित्रकर्म का एक विशेष प्रसग में अवस्थानुकरण नाट्य कहलाता है । यह रसाश्रित हाता उल्लेख है। पद्य का तात्पर्य है कि जो कलाकार प्रभा है । नृत्य भावाश्रित और कल दृश्य होता है। ताल अरि मण्डल यक्त तथा नव भक्तियो सहित तीर्थकर का चित्र लय के आश्रित किए जाने वाले नर्तन को नृत्त कहते है। हत ह। बना सकता है वह सम्पूर्ण पृथ्वी का भी चित्र बना इसमे अभिनय का सर्वथा अभाव रहता है। लास्य और सकता है। ताण्डव नृत्त के ही भेद है। इस परिच्छेद में इस सम्पूर्ण चित्रकला के अन्य उल्लेखो मे ध्वजामो पर बने चित्र, सामग्री का विशद विवेचन किया गया है । दीवालो पर बने सिंह तथा गवाक्षो से झाकती हुई कामिपरिच्छेद दो में यशस्तिलक की चित्रकला विषयक नियो के उल्लेख है। इस परिच्छद में इस सम्पूण सामग्री सामग्री का विवेचन है। सोमदेव ने विभिन्न प्रकार के का विवेचन किया गया है।। भित्ति चित्रो तथा धूलि चित्रो का उल्लेख किया है। प्रजा परिच्छेद तीन में यशस्तिलक की वास्तुशिल्प विषयक पति प्रोक्त चित्र कर्म का सदर्भ विशेष महत्त्व का है। मामयी का विवेचन किया गया है। सोमदेव ने विभिन्न उसका एक पद्य भी उद्धृत किया गया है। प्रकार के शिखर युक्त चैत्यालय, गमनचुबी महाभागभवन, भित्तिचित्र बनाने की एक विशेष प्रक्रिया थी। भित्ति त्रिभुवन-त्रिलकनामक राजप्रासाद, लक्ष्मीविलासतामरस चित्र बनाने के लिए भीत का पलस्तर या उपलेप कैसा नामक स्थानमडप, श्री सरस्वती विलास कमलाकर होना चाहिए, उसे कैसे बनाना चाहिए, उस पर लिखाई नामक राजमदिर, दिग्विलयविलोकनविलास नामक क्रीड़ा करने के लिए जमीन कैसे तैयार करना चाहिए-इत्यादि प्रासाद, करिविनोदविलोकनदोहद नामक वासभवन, गृहका मानसोल्लास मे विस्तृत वर्णन है। सोमदेव ने दो दीपिका, प्रमदभवन तथा यन्त्रधारागृह का विस्तृत वर्णन प्रकार के भित्ति चित्रो का उल्लेख किया है-व्यक्ति किया है। चित्र और प्रतीक चित्र। एक जिनालय मे बाहुबलि, चैत्यालयों के शिखरो ने सोमदेव का विशेष ध्यान प्रद्युम्न, सुपार्श्व, अशोक राजा और रोहिणी रानी तथा आकृष्ट किया । सोमदेव ने लिखा है कि शिखर क्या थे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन मानो निर्माण कला के प्रतीक थे । शिखरो की पटनि पर मरकतपरागनिर्मित रगावलि, सचरणशील हेमकन्यकाये, सिह निर्माण किया जाता था। मणिमुकुर युक्त ध्वज तुहिनतरु के वलीक, कूर्चस्थान इत्यादि का विश्लेषण किया स्तंभ और स्तंभिकायें, सचित्र ध्वज दण्ड, रत्नजटित गया है । काचन कलश, चद्रकान्त के बने प्रणाल, उज्ज्वल मामला दीपिका और प्रमदवन के विषय मे भी सोमदेव ने सार कलश और उन पर खेलती हुई कलहस श्रेणी विटको पर्याप्त जानकारी दी है। दीपिका राजभवन मे एक पोर पर बैठे शुक शावक, इन सबके कारण शिखर और अधिक से दूसरी ओर दौडती हुई वह लम्बी नहर थी, जिसे बीचपाकर्षण का केन्द्र बन रहे थे। सोमदेव की इस सामग्री बीच मे रोककर, पुष्करणी, गधोदक कूप, क्रीडा वापी को वास्तुसार, प्रासादमडन तथा अपराजित पृच्छा की प्रादि मनोरजन के माधन बना लिए जाते थे और अन्त तुलना पूर्वक स्पष्ट किया गया है। में जाकर दीपिका प्रमदवन को सीचती थी। दीपिका त्रिभुवनतिलक प्रासाद के वर्णन मे सोमदेव ने प्राचीन तथा प्रमदवन दोनो के प्राचीन वास्तु-शिल्प की यह विशेवास्तु शिल्प की अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ दी है। इससे षता बहुत समय तक जारी रही और भारत के बाहर भी जात होता है कि प्राचीन काल मे सूर्य और अग्नि मन्दिर इराके उल्लेख मिलते है। इस परिच्छेद मे इस सबके की तरह इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण, चन्द्र प्रादि के भी विषय में विस्तृत जानकारी दी गयी है। मन्दिरो का निर्माण किया जाता था। परिच्छेद चार मे यन्त्रशिल्प विषयक सामग्री का प्रास्थान मडप को सोमदेव ने लक्ष्मीविलाम नाम विवेचन है। यन्त्रधारागृह के प्रसग मे सोमदेव ने अनेक दिया है। गुजरात के बडौदा आदि स्थानों मे विलास प्रकार के यान्त्रिक उपादानो का उल्लेख किया है। कुछ नामान्तक भवनो की परपरा अब तक सुरक्षित है । मुगल सामग्री अन्य प्रसगो में भी पायी है। वास्तु मे जिसे दरबारे आम कहा जाता था, उसी के लिए यन्त्रधारागृह के निर्माण को परपरा का क्रमशः प्राचीन नाम प्रास्थान मडप था सोमदेव ने इसका विस्तृत विकास हुआ है। ममगगण सूत्रधार में पांच प्रकार के वर्णन किया है। __ वारिगृहो के उल्लेख है। सोमदेव ने यन्त्रधारागृह का प्रास्थानमडप के ही निकट गज और अश्वशालाएं विस्तार से बर्णन किया है। यहा यन्त्रजलधर या मायाबनाई जाती थी। राजभवन के निकट इन शालाओं के मेघ की रचना की गई थी। विभिन्न प्रकार के पशुबनाने की परंपरा भी प्राचीन थी। राजा को प्रात. गज- पक्षियो के मह से निकलता हुअा जल दिखाया गया था। दर्शन शुभ बताया गया है, यह इसका एक बड़ा कारण यन्त्रपुत्तलिकाएं, यन्त्रवृक्ष आदि की रचना की गयी थी। प्रतीत होता है । फतेहपुर सीकरी के प्राचीन महलो मे इस यन्त्रधारागृह का प्रमुख आकर्षण यन्त्रस्त्री थी, जिसके हाथ प्रकार की वास्तु का दर्शन अब भी देखा जाता है। छूने पर नाखाग्रो से, स्तन छूने पर चूचुको से, कपोल छून सरस्वती विलास कमलाकर सम्राट का निजी वास- पर नेत्रो से, सिर छूने पर नाभि से चन्दन चचित जल की भवन था। क्रीडा पर्वतक की तलहटी में बनाये गये दिग्व- धाराएँ बहने लगती थी। सोमदेव ने पखा झलने वाली लयविलोकन प्रासाद मे सम्राट अवकाश के क्षणों को ताम्बूलवाहिनी यान्त्रिकपुत्तलिकामो का भी उल्लेख किया प्रानन्दपूर्वक बिताते थे। कारिविनोदविलोकनदोहद आज- है अन्तःपुर के प्रसंग मे यन्त्रपर्यक का उल्लेख है। इस कल के स्पोर्टस्-स्टेडियम के सदृश था। मसिजविलासहस- परिच्छेद मे इस सम्पूर्ण सामग्री का विवेचन किया गया तिवासतामरस नामक भवन पटरानी का अन्तःपुर था। है। यह सप्ततलप्रासाद का सबसे ऊपरी भाग था। इसके वर्णन चतुर्थ अध्याय मे यस्तिलककालीन भूगोल पर प्रकाश में सोमदेव ने बहुमूल्य और प्रचुर सामग्री की जानकारी हाला गया है। यशस्तिलक मे सैतालीस जनपद, चालीस दी हैं। रजतवातायन, अमलक देहली, जातरूपभित्तियाँ, नगर और ग्राम, पाँच वृहत्तर भारत के देश, पंद्रह बन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और पर्वत तथा बारह भील भार नदियों के उल्लंख है। वन, मन्दर, मलय, मनिमनोहरमेखला, विन्ध्य, शिखण्डिइसमें कुछ सामग्री ऐसी भी है जा सोमदेव के युग में ताण्डव, सुवेना, मेतबन्ध और हिमालय का उल्लेख किया अस्तित्व में नही थी। एसी सामग्री को सोमदेव ने परम्पग है। इन सबके विषय में इस परिच्छेद मे जानकार दी में प्राप्त किया था। मैंने इस सम्पूर्ण सामग्री का पाच गई है। परिच्छेदों में विवेचन किया है। परिच्छेद पाच में यशस्निलक में उल्लिखित सगेवर पहले परिच्छेद मे यशस्तिलक में उल्लिम्बित सेनालीम तथा नदियों का परिचय दिया गया है । सोमदेव ने मानस जनपदो का परिचय है। अवन्ति, अश्मक, अन्ध्र, इन्द्रकच्छ, या मानसरोवर झाल तथा गगा, यमुना नर्मदा, जलवाकम्बोज, कर्णाट या कर्णाटक, करहाट कालग, थकाशक, हिनी,गोदावर्ग, चन्द्रभागा, मरस्वती, मरयू, लोणा, सिन्धु काची, काशी, कीर, कुरुजागल, कुन्तन केरल, कोग, और सिप्रा नदी का उल्लेख किया है। इस परिच्छेद में कौशल, गिरिकूटपत्तन, चेदि चेग्म, चोल, जनपद, डहाल, इनके बारे में जानकारी प्रस्तुत की गयी है। दशाणं, प्रयाग, पल्लव, पाचान, पाण्डु या पाण्डय, भोज बर्बर, मद्र, मलय, मगध, यौधेय, लम्पाक, लाट, वनवामि, पचम अध्याय यग स्तिलक की शब्द सम्पत्ति विषयक है। यशस्तिलक मम्कृत के प्राचीन, अप्रमिद्ध, अप्रचलित बग या बगाल, बगी, श्रीचन्द, थीमाल, मिन्धु, सूरसेन, नथा नवीन शब्दो का एक विशिष्ट कोश है। मोमदेव ने सौराष्ट्र, यवन नथा हिमालय इन मेनानिस जनपदों में से प्रयानपूर्वक से अनेक शब्दो का यशम्तिलक मे मग्रह किया यशस्तिलक में कई एक का एक बार और अधिकाश का है। वैदिक काल के बाद जिन शब्दों का प्रयोग प्राय एक से अधिक बार उल्लेख हया है । इस परिच्छंद में उन ममान हो गया था जो शब्दकोश ग्रन्थो में तो पाये है, म्बका परिचय दिया गया है। किन्तु जिनका प्रयोग साहित्य में नहीं हुआ या नही के परिच्छेद दो में यशस्निलक उल्लिखित चालीस नगर बगबर हमा, जी शब्द केवल व्याकरण ग्रन्थो मे सीमित और ग्रामी का परिचय है। अहिच्छत्र, अयोध्या, उज्ज थे तथा जिन शब्दों का प्रयोग किन्ही विशेष विषयों के यिनी, एकचऋपुर, एकानसी, कनकगिरि, ककाहि, काकन्दी, ग्रन्थों में ही देखा जाता था, मे अनेक शब्दों का संग्रह पाम्पिल्य, कुशाग्रपुर, किन्नरगीह, कुसुमपुर, कौशाम्बी. यशस्तिलक में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त यशचम्पा, चुकार, ताम्रलिप्ति. पद्मावतीपुर, पानिखेट, स्तिनक में ऐसे भी अनेक शब्द है, जिनका सस्कृत साहित्य पाटलिपुत्र, पोदनपुर, पौरव, बलबाहनपुर, भावपुर. भूमि में अन्यत्र प्रयोग नहीं मिलता। बहत से शब्दो का तो तिलकपूर, उत्तर मथग. दक्षिण मथुग या मदुग, माया अर्थ और ध्वनि के आधार पर सोमदेव ने स्वयं निर्माण पुरी, मिथिलापुर, माहिष्मती गजपुर राजगृह, वल्लभी. किया है। लगता है सोमदेव ने वैदिक, पौराणिक, दाशंवाराणसी, विजयपुर, हस्तिनापुर, हमपुर, स्वस्तिमति, निक, व्याकरण, कोश, आयुर्वेद, धनुर्वेद, अश्वशास्त्र, गजसोपारपुर, श्रीमागर या श्रीसागरम्. सिहपुर तथा शखपुर, शास्त्र, ज्योतिष तथा साहित्यिक ग्रन्थो से चुनकर विशिष्ट इन चालीस नगर और ग्रामों के विषय में यशस्तिलक में शब्दो की पृथक्-पृथक् मूचिया बना ली थी और यशस्तिजानकारी पायी है। इस परिच्छंद में इनका परिचय दिया मक में यथास्थान उनका उपयोग करते गये। यशस्तिलक गया है। की शब्द सम्पत्ति के विषय मे सोमदेव ने स्वय लिखा है परिच्छेद तीन में यशस्तिलक में उल्लिखित वृहतर कि "काल के कराल ने जिन शब्दो को चाट डाला उनका भारतवर्ष के पाच देश-नेपाल, सिंहल, सुवर्णद्वीप. विज मैं उद्धार कर रहा है। शास्त्र-समुद्र के तल मे डूबे हुए य.घं, नया कुलत का परिचय दिया गया है। शब्द-रत्नो को निकालकर मैंने जिस बहुमूल्य प्राभूषण का परिच्छेद चार में यशस्तिलक में उल्लिखित पद्रह वन और पर्वतो का परिचय है। सोमदेव ने कालिदासकानन, निर्माण किया है, उसे सरस्वती देवी धारण करें।" कलास, गन्धमादन, नाभिगिरी, नेपालशल, प्रागडि, भीम- प्रस्तुत प्रबन्ध में मैंने ऐसे लगभग एक सहस्र शब्द Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन दिये हैं । पाठ सौ शब्द इस उध्याय मे है तथा दो सौ से प्रथम महत्त्वपूर्ण कार्य अपेक्षित है, वह है सोमदेव के दोनो भी अधिक शब्द अन्य अध्यायो मे यथास्थान दिये है। उपलब्ध अन्यों के प्रामाणिक संस्करण तैयार करने का। इस अध्याय मे शब्दों को वैदिक, पौराणिक, दार्शनिक ऐसे सस्करण जिनमें इन ग्रन्थों से सम्बन्धित सम्पूर्ण प्रकाप्रादि श्रेणियो में वर्गीकृत न करके प्रकारादि कम से शिन और अप्रकाशित सामग्री का उपयोग किया गया हो। प्रस्तुत किया गया है। शब्दों पर मैने तीन प्रकार से अपने अनुसबान काल मे मुझे निरन्तर इसकी तीव्र अनु अपने पासवान विनार किया है-१. कुछ शब्द ऐसे हैं, जिन पर विशेष भूति होती रही है। अभी तक दोनो ग्रन्थों के जो सस्करण प्रकाश डालना उपयुक्त लगा। ऐसे शब्दो का मूल सदर्भ निकले है, वे अशुद्धि पुज तो है ही, अनेक दृष्टियो से अर्थ तथा आवश्यक टिप्पणी दी गई है। २. सोमदेव के अपूर्ण और अवैज्ञानिक भी है। इसके अतिरिक्त उनको प्रयोग के आधार पर जिन शब्दों के अर्थ पर विशेष प्रकाश प्रकाशित टा भी ब्दा के अथ पर विशष प्रकाश प्रकाशित हुए भी इतना समय बीत गया कि बाजार में पड़ता है, उन शब्दो के पूरे मदर्भ दे दिये है। ३. जिन एक भी प्रति उपलब्ध नहीं होती। भी पति पतन शब्दो का केवल अर्थ देना पर्याप्त लगा, उनका सदर्भ यशस्तिलक का एक ऐसा सस्करण मै स्वयं तैयार सकेत तथा अर्थ दिया है। कर रहा हूँ, जिसमे श्रीदेव के प्राचीन टिप्पण. श्रुतसागर ___ शब्दों पर विचार करने का प्राधार श्रीदेव कृत की संस्कृत टीका तथा प्राधनिक अनुसघानो का तो पूर्ण टिप्पण तथा श्रुतसागर की अपूर्ण संस्कृत टीका तो रहे ही उपयोग किया ही जायगा, हिन्दी अनुवाद और सास्कृतिक है, प्राचीन शब्द काश तथा मानियर विलियम्म पार प्रा० भाष्य भी साथ में रहेगा। इस सस्करण के स्वरूप की आप्टे के कोशो का भी उपयोग किया है। स्वय सोमदेव माधारण परिकल्पना इस प्रकार हैका प्रयोग भी प्रसगानुसार शब्दो के अर्थ को खोलता चलता १ यशस्तिलक का मूल शुद्ध पाठ है । श्लिष्ट, क्लिष्ट, अप्रचलित तथा नवीन शब्दोके कारण (प्राचीन पाण्डुलिपियो के आधार पर) यशस्तिलक दुरूह अवश्य लगता है, किन्तु यदि सावधानो- २. श्रतसागर की सम्कृत टीका। पूर्वक इसका मूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो क्रम बम से ३ मूल का हिन्दी अनवाद । यशस्तिलक के वर्णन स्वय ही आगे पीछे के सदर्भो को - ४. सास्कृतिक भाष्य । स्पष्ट करते चलते है। इस प्रकार यशस्तिलक की कुजी ५-६. प्रस्तावना में यशस्तिलक की सम्पूर्ण उपलब्धियो यशस्तिलक मे ही निहित है। सोमदेव की इस बहुमूल्य का सर्वेक्षण तथा परिशिष्ट मे यशस्तिलक का सामग्री का उपयोग भविष्य में कोश ग्रन्थो में किया जाना विशाल शब्दकोश। चाहिए। नीतिवाक्यामृत के सपादन का कार्य पटनाके श्री श्रीधर इस तरह उपर्युक्त पाच अध्यायों के पच्चीस परिच्छेदो वामदेव मौहानी ने करने की रुचि दिखायी है। प्राशा है मे प्रस्तुत प्रबन्ध पूर्ण होता है। वे इसे अवश्य करेगे । यदि किन्ही कारणोवश न कर पाये, सोमदेव के समग्र अध्ययन के लिए इस समय जो सर्व तो यशस्तिलक के बाद इसे भी मै पूरा करूँगा। अनेकान्त के ग्राहक बनें 'भनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याषियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और न भुत को प्रभावना में श्रवा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि 'भनेकान्त के हक स्वयं बने और दूसरों को बनावें। और इस तरह बन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनागिरि सिद्धक्षेत्र और तत्सम्बन्धी साहित्य डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, एम. ए. (त्रय). पी-एच. डी. सोनागिरि सिद्धक्षेत्र के श्रमणगिरि, स्वर्णगिरि, स्वर्णा- प्रेमीजी के उक्त कथन को निराधार कहना तो अनुचल, कनकाचल, कनकगिरि एव कनकपवंत प्रादि नाम भी चित है; पर यह पुन. विचारणीय अवश्य है। सोनगिरि मिलते हैं । निर्वाणकाण्ड' में स्वर्णगिरि से नग और प्रनग- के सम्बन्ध मे जो उल्लेख उपलब्ध है, उनसे उसकी निर्वाण कुमार के निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख पाया है। जन भूमि के रूप में १५वी शती या इससे पूर्व की मान्यता इतिहाम के प्रसिद्ध विद्वान स्व०प० नाथगम प्रेमी ने सिद्ध होती है। वहाँ के मूर्तिलेख १३वी शती के उपलब्ध अनेक प्रमाणों के आधार पर गजगृह पञ्चपर्वतो में श्रमण- है, अत इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा इसके पूर्व ही हो चुकी गिरि को नग, अनगकुमार का निर्वाणस्थल सिद्ध किया है, होगी। १५वी शती के अपभ्रश भाषा के विद्वान् कवि साथ ही उन्होने जैन एव बौद्ध वाङ्मय के आधार पर रहध ने "रिट्रणेमिचरिउ' की प्रशस्ति मे सोनगिरि का राजगृह के ऋषिरि का नामान्तर श्रवण या श्रमणगिरि उल्लेख किया। बताया है - को माना है। प्रेमीनीको मोनगिरि के सिद्धक्षेत्र होने मे 'कमलकित्ति उत्तमखम-धारउ, प्रशका थी ही, पर उन्हे इसकी प्राचीनता मे भी सन्देह भवह भव-अंबोणिहि-तारउ । था। उनके निबन्ध का अध्ययन करने से यह धारणा तस्स पट्ट 'कणद्दि' परिदृउ, उत्पन्न होती है कि सोनगिरि का प्रचार सिद्धक्षेत्र के रूप सिरि 'सुहचंद' सु-तव-उक्कंठिउ । १७वी शती के पश्चात् हुआ है। उन्होने स्वर्णाचल अर्थात- भण्य जीवो को ससार समुद्र से पार करने माहात्म्य के प्रकाशित होने पर लिखा है-"ऐसा मालूम ___ वाले उत्तम क्षमा के धारक कमलकीति हुए । इनके पट्टधर होता है कि यह सब कगमात सौरीपुर या बटेश्वर के शभचन्द्र का कनकगिरि-सोनागिरि पर अभिषेक हपा भट्टारक जिनेन्द्रभूषण (विश्वभूषण के शिष्य और ब्रह्म था। महाकवि रइधू ने कमलकीत्ति का निर्देश इस ग्रन्थ हर्षमागर के पुत्र) की है, जिन्होने अटेर निकासी दीक्षित की अन्तिम प्रशस्ति में किया है। देवदत्त से यह १६ मों का सस्कृत काव्य वि० स०१८४५ शंदऊ सूरि सुगुरु 'सुहचंदों, मे बनवाया और उन्होने ही इसे सबसे पहले मिद्धक्षेत्र के 'कमलकित्ति-पढेंबर चंदो॥ रूप मे प्रसिद्ध किया।" कमलकीत्ति और उनके पट्टधर शिष्य शुभचन्द्र का १ अगाणगकुमाग विक्खा-पचद्ध-कोडि-रिसिसहिया। का निर्देश वि० सं० १५०६; १५१०; १५३० और मुवण्णगिरि-मत्थयत्थे णिव्वाण गया णमो तेसि ।। १६३६ के अभिलेखों में उपलब्ध होता है। कमलकीत्ति -निर्वाणकाण्ड (गाथा) काष्ठासघी माथुरगच्छ और पुष्करगण के भट्टारक हेमनग अनग कुमार सुजान, पांच कोडि मस अर्घ प्रमान। कीति के शिष्य थे । यथामृक्ति गय सानागिार-शाश, त वदो त्रिभुवनपति ईस ॥ सवत् १५.६ वर्षे ज्येष्ठ सुदी १५ शुक्रे काष्ठासंघ -निर्वाणकाण्ड (भाषा) श्रीकमलकीत्ति देवाः तदाम्नाये सा० थिरू स्त्री भानदे पुत्र २ जनसाहित्य और इतिहास, हिन्दी प्रथरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, द्वितीय सस्करण पृ० ४३६ ४ जनग्रंथ-प्रशस्तिसंग्रह द्वितीय भाग, वीरसेवा मन्दिर, ३ वही, पृ० ४३६ दिल्ली पृ० ८८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनागिरि सिडक्षेत्र और तत्सम्बन्धी साहित्य सा. जयमाल जाल्हण ते प्रणमंति महाराज पुत्र गोशल'। एक अन्य अभिलेख से भी कमलकीत्ति का भद्रारक + + + + + हेमकीत्ति के पट्र पर प्रतिष्ठित होना सिद्ध होता है। सं० १५१० वर्षे माघ सुदि ८ सोमे काष्ठासघे भ. सं० १५०६ जेठ सुदि ... शुके श्रीचन्द्रपाटदुर्ग पुरे कमलकीतिदेव अनोत्कान्वये गर्गगोत्रे तारन भा० देन्ही पुत्र चौहानवशे राजाधिराज श्रीरामचन्द्रदेव युवराज श्रीप्रतापसदृय भा. वारु पुत्र षेमचन्द प्रणमति'। चन्द्र देवराज्यवर्तमाने श्रीकाप्ठामधे मथुरान्वये पुष्करगणे + + + + + सवत् १५३० वर्षे माघ सुदि ११ शुके श्रीगोपाचल प्राचार्य श्रीहेमकीत्तिदेव तत्प? भ. श्रीकमलकीतिदेव । दुर्गे महाराजा श्रीकीतिसिंघदेव काष्ठासघे माथरगच्छे पं० प्राचार्य रडधू नामधेय। पुष्करगणे भ० श्रीहेमकीत्ति तत्प? भ० कमलकीति तत्पट्ट प्रतएव स्पष्ट है कि सोनागिरि क्षेत्र की भट्टारक परंभ० शुभचन्द्र तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गर्गगोत्रे स.....। परा मे कमलकीति और शुभचन्द्र के नाम इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यह क्षेत्र वि० सं० १५०० के पूर्व सं० १६३६ वैशाख वदि ८ चन्द्रवासरे श्रीकाष्ठासघे सिद्धक्षेत्र के रूप में मान्य था, तब शुभचन्द्र का कनकपद्दि माथुरगच्छे पुष्करगणे भ० कमलकीत्ति देवाः तत्प भ० -कनकादि-पर अभिषेक हुआ। शुभचन्द्र के पश्चात् श्रीशुभचन्द्र देवाः तत्पट्टे भ० यश सेनदेवा. तदाम्नाये'... । सोनागिरि के साथ भट्टारक यशस्सेन का सबंध रहा है। उपर्युक्त अभिलेखो से स्पष्ट है कि हेमकीत्ति के पट्ट पर इन यशस्सेन द्वारा प्रतिष्ठापित एक दशलक्षणयन्त्र वि. कमलकीत्ति, कमलकीत्ति के पट्ट पर शुभचन्द्र और शुभ- स. १६३६ का प्राप्य है। चन्द्र के पट्ट पर यश सेनदेव आसीन हुए। भट्टारक कमल कमलकीत्ति भट्टारक के दो शिष्य थे-शुभचन्द्र और कीत्ति ने तत्त्वसार टीका की रचना की है। इस टीका मे कुमारसेन . सोनागिरि क्षेत्र का अधिकार शभचन्द्र की जो प्रशस्ति अंकित की गई है, उसमे संघ, गण, गच्छ वे शिष्यपरम्परा के अधीन रहा है। प्रतः वि० स० को १७वीं ही है, जो पूर्वोक्त अभिलेखो मे अकित है। यहाँ कमल शताब्दी के मध्य तक माथुरगच्छ और पुष्करगण के कोत्ति को भट्टारक क्षेमकीत्ति, हेमकीत्ति और सयमकीत्ति भट्टारक यहाँ की गद्दी के अधिकारी रहे । सत्रहवी शती के की परम्परा मे अमलकीत्ति का शिष्य लिखा गया है। उत्तरार्द्ध मे यह क्षेत्र कुछ दिनो तक बलात्कार गण की १ भट्टारक सम्प्रदाय, जैनसस्कृति संरक्षक संघ, शोलापूर, अटेर शाखा के भट्टारको द्वारा उपयुक्त हुआ। अभिलेखों वि० २०१४ लेख संख्या ५६० के अध्ययन से ऐसा अनुमान होता है कि भट्टारक विश्व२ वही, लेख सख्या ५६२ भूषण के समय तक गोपाचल, वटेश्वर और सोनागिरि ये ३ वही, लेख सख्या ५६३ तीनों ही स्थान एक ही भट्टारक परम्परा के अधीन रहे। ४ वही, लेख सख्या ५६५ एक स्थान का भट्टारक ही तीनों स्थानो की देखभाल करता ५ श्रीमन्माथुरगच्छ पुष्करगणे श्रीकाष्ठसघे मुनिः, था । सोनागिरि क्षेत्र मूलत' बलात्कारगण के भट्टारकों का सम्भूतो यतिसघ नायकमणि. श्रीक्षेमकीतिर्महान् । था, प्रत विश्वभूपण से पश्चात् यहाँ की गद्दी पर स्वतन्त्र तत्पट्टाम्बरचन्द्रमा गुणगणी श्रीहेमकीत्तिर्गुरुः, रूप से भट्टारक अभिपिवत होने लगे। इस परम्परा में श्रीमत्सयमकोतिपूरितादशापूरो गरीयानभूत् ॥१॥ देवेन्द्र भूषण, जिनेन्द्र भूषण, नरेन्द्रभूषण एव चन्द्रभूपण अभवदमलकीत्तिस्तत्पदाम्भोजभानुमुनगणनुत- प्रभृति के नाम उपलब्ध होते है। कीतिविश्वविख्यातकीत्तिः । निष्कर्प यह है कि भट्टारको के सम्बन्धों का अध्ययन शम-यम-दम-मूतिः. खडगरातिकीत्ति करने से सोनागिरि क्षेत्र की मन्यता १५वी शती से पूर्व जंगतिकमलकीत्ति प्राथितज्ञानमूत्तिः ॥२॥ -नग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह प्रथमभाग, वीरसेवा ६ प्राचीन जैनलेखसग्रह, सम्पादक बाबु कामताप्रसाद । मन्दिर, पृ० १२३.१२४ ७ भट्टारक-सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ. २२६ (लखाडू ५६५) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त की उपलब्ध होती है। प्रतः प्रेमीजी ने जो वि० सं० उल्लेख पाया है तथा मूलसंघ बलात्कार गण के श्रवणसेन १८४२ के बाद सिद्धक्षेत्र के रूप में मान्य होने का अनुमान और कनकसेन नामक दो भाइयों का भी निर्देश किया है। किया था, वह समीचीन नही है। पूवोंक्त विचार विनिमय विक्रम स० ३३५ तो अशुद्ध है; क्योकि बलात्कार गण से इस क्षेत्र की प्रसिद्धि का समय १५वीं शती तक पहुंच का अस्तित्व दशमी शती के पूर्व के वाङ्मय मे नहीं मिलता जाता है। है। इस गण का सबसे प्राचीन अभिलेख ई० सन् १०७५ सोनागिरि क्षेत्र पर संकलित प्राचीन ग्रन्थों की पाण्ड- का उपलब्ध है । अतः स्वर्गीय प्रेमीजी ने वि० स०१३३५ लिपियां भी इस क्षेत्र की प्राचीनता सिद्ध करती हैं। यहां का अनुमान किया था, पर कालगणना करने पर यह काष्ठासंघी चन्द्रकीर्ति के शिष्य भट्टारक अमरकीति द्वारा सवत् भी अशुद्ध प्रतीत होता है। हमारा अनुमान है कि बिरचित 'णेमिणाहचरिउ' की प्रति प्राप्य है। इस ग्रन्थ का "तीन सतक पेतीस" पाठ प्रशद्ध है और इसके स्थान पर रचनाकाल वि० स० १२४४ भाद्रपद शुक्ला चर्तुदशी है। "एक सहस पैतीस" होना चाहिए । उक्त पाठ मे "दिना" सोनागिरि भण्डार में उपलब्ध प्रति का लेखनकाल वि० शब्द भी विचारणीय है। ज्योतिष में "दिन' शब्द दो स० १५१२ है। अर्थों मे उपलब्ध होता है--दिवस और रविवार । भार तीय परम्परा मे सप्ताह का प्रथम दिन रविवार को माना पण्डित पाशाधरजी ने स्वोपज्ञ सहस्रनाम की रचना गया है, अत: कालगणना प्रसग मे 'दिन' रविवार का अर्थ की है । इस ग्रन्थ पर श्रुतसागर सूरि ने वि० सं० १५७० बोध करता है। यतः प्रथम वारेश 'रवि' है, जिससे मे सस्कृतटीका लिखी है। इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि भी सामान्यतः बारेश के आधार पर 'दिन' रविवार के अर्थ मे यहाँ के ग्रन्थागार में प्राप्य है। व्यवहृत है। इस प्रकार अभिलेख से वि० स० १०३५ प्रतिमालेख पौष शुक्ला पूर्णिमा रविवार को जीर्ण मन्दिर के निर्माण प्रतिमालेखो से भी इस क्षेत्र की प्राचीनता पर प्रकाश किये जाने का फलितार्थ निकलता है। कालगणना करने पडता है । यहाँ का मुख्य मन्दिर चन्द्रप्रभ स्वामी का है। पर वि० स० १०३५ मे पौष पूणिमा भी रविवार को इस मन्दिर का जीर्णोद्धार वि० स० १८८३ मे मथुरा के पडती है, अत. चन्द्रप्रभ स्वामी का प्राचीन मन्दिर वि. सेठ लखमीचन्द द्वारा सम्पन्न हुआ है। इस मन्दिर मे १०३५ मे निर्मित हुआ है। चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा जीर्ण मन्दिर के शिलालेख का साराश ग्रह्य कर हिन्दी मे का स्थापत्य भी मध्यकालीन है, इस प्रकार की मूत्तियाँ पद्यबद्ध अभिलेख अकित किया गया है । यथा खजुराहो के कालावशेषो में भी उपलब्ध है। प्रतएव मुख्य मन्दिर सह राजतभये, चन्द्रनाय जिन ईस । मन्दिर का निर्माण विक्रम की ११वीं शती मे हुआ होगा। पोशसुदी पूनम दिना, तीन सतक पैतीस ॥ सोनागिरि क्षेत्र मे अन्य प्राचीन मूर्तिलेख भी उपलब्ध मूलसंघ पर गण करो (ह्यो), बलात्कार समुदाय । है। यहाँ १६ सख्यक मन्दिर राजाखेड़ा (धौलपुर) के श्रवणसेन अरु दूसरे, कनकसेन दुइ भाय ॥ जैसवाल समाज का है। इस मन्दिर मे निम्नलिखित दो वोजक प्रक्षर बाँचके, कियो सुनिश्चय राय । प्राचीन अभिलेख पाये जाते है :-१ सवत् १२१३ गोलाऔर लिख्यो तो बहुत सौ. सो नहि परयो लखाय॥ १ स्वस्तिश्री चित्रकूटाम्नायदावलि मालवद शान्तिनाथदेव इस अभिलेख मे संवत् ३३५ पौष शुक्ला पूर्णिमा का सम्बन्ध श्रीबलात्कार-गण मुनिचन्द्र-सिद्धान्त-देवर शिसिनु अनन्तकीति-देवरु हेग्गडे केसव-देवङ्ग धारा१ जैनग्रन्थ प्रशस्तिसग्रह, द्वितीय भाग, वीरसेवा मन्दिर, पूर्वक माडि कोटेवु प्रतिष्ठे पुण्य सान्ति ।-जैन शिलापृ० ६६ प्रस्तावना लेख संग्रह द्वितीय भाग, २०८ सख्यक । यह अभिलेख २ जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई, द्वितीय संस्करण बलगाम्बे मे चन्नबसवप्प के खेत मे एक भग्नमूर्ति पर पृ० ४३५ उपलब्ध हुमा है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनागिरि सिद्धक्षेत्र और तत्सम्बन्धी साहित्य पल्लीवसे सा० साबू सोढो, साधू श्री लल्लूभार्या जिणा, भगीरथ ने वि० सं० १८६१ मे ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी तयो सुत साबू दील्हा भार्या पल्हासस जिननाथं सविनयं को इसे पूर्ण किया है। इस कृति में क्षेत्र के मुख्य मन्दिर प्रणमन्ति। परिक्रमा एव अन्य मन्दिरो का वर्णन किया है। उन दिनों + + + + में इस क्षोत्र पर कार्तिक सुदि पूर्णिमा को मेला लगता था। २ सवत् १६४३ वर्षे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बला- कवि ने इस मेले का सजीव चित्रण किया है। यथास्कारगणे (श्री) चारुणदीदेव तदन्वये श्री गोल्लाराडान्वये मेला है जहा को कातिक सुद पूनौ को, सा० नावे भार्या केवल एक पुत्र नगउ गोल्लासुत सेठ हाट हू बजार नाना भांति जुरि पाए हैं। चल्लाती नित्य प्रणमन्ति । भावधर वंदन को पूजन जिनेद्र काज, मूर्तिलेखो के अतिरिक्त इस मन्दिर मे दो-तीन अन्य पाप मूल निकंदन को दूर हू से धाए हैं। प्रतिमाएँ भी ११-१२वी शती की कलासूचक है। मध्य- गोठ जेउनारे पुनि दान देह नानाविधि, कालीन पाषाण, स्थापत्य एवं अङ्गोपाङ्ग की प्राकृति सुर्ग पंथ जाइवे को पूरन पद पाए हैं। 'नागर' शैली की है। अन्य एकाध मन्दिर में भी प्राचीन कोजिए सहाय पाइ पाए हैं भगीरथ, प्रतिमाएँ विराजमान हैं। गुरुन के प्रताप 'सोनागिरी' के गुण गाए हैं। नीची पहाडी पर निर्मित मन्दिरो का स्थापत्य मुगल कृति के रचनाकाल का निर्देश करते हुए बताया गया कला से प्रभावित है। यहां के गुम्बजो का आकार-प्रकार हैएवं कोणाकार तोरण मुसलमानी कला के अनुरूप है। जेठ सुदी चौदस भली, जा दिन रची बनाय। प्राय. सभी मन्दिर सौ-दी-सौ वर्ष से प्राचीन प्रतीत नही संवत् अष्टावस इकिसठ, संवत लेउ गिनाइ॥ पद सुन जो भाव घर, मोरे देइ सुनाई। होते । मनवांछित फल को लिए, सो पूरन पद को पाइ॥ सोनागिरि क्षेत्र सम्बन्धी साहित्य इस पच्चीसी मे कवि ने क्षेत्र के मन्दिरों का भी ___ सोनागिरि क्षेत्र के सम्बन्ध मे कई पूजापाठ एव माहा सक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है। क्षेत्र की वदना से रम्य सूचक रचनाएँ उपलब्ध होती है । भट्टारक जगद्भूषण अन्तरात्मा पावन हो जाती है और कर्मकालुष्य नष्ट के शिष्य भट्टारक विश्वम्भूषण ने वि. स. १७२२ के हो जाता है । भावपूर्वक वन्दना करने से विशुद्धता और लगभग "सर्व लोक्य जिनालय जयमाला" नामक एक पवित्रता के साथ मनोकामनाएँ भी पूर्ण होती है। क्रोध, लघुकाय ग्रन्थ रचा है। इसमे सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्र मान, माया और लोभ रूप कपाय क्षीण होती है तथा और अतिशयक्षेत्रों का विवेचन किया गया है। भट्टारक ज्ञान, श्रद्धा, भक्ति की समृद्धि होने से परमानन्द की उपविश्वभूषण सोनागिरि के भट्टारक थे, अत: इन्होंने अपने लब्धि होती है। कवि ने विवरणात्मक परिचय के साथ उक्त ग्रन्थ का सोनागिरि की वन्दना से किया है : क्षेत्र का प्रान्तरिक महत्त्व भी अकित किया है। सिद्धक्षेत्र सोनागिरि बुंदेलखंडे, पायातो चन्द्रप्रभचंडे । के रूप मे मूल्याङ्कन उपस्थित करते हुए तीर्थवदना को पंचकोडि रेवा वहमान, रावनसून मोक्ष शिवजाणं ।३२ कर्मनिर्जरा का हेतु प्रतिपादित किया है। + + + + + 'स्वर्णाचलमाहात्म्यम्' सस्कृत काव्य की रचना कान्यमूलसंघ शारदबरगच्छे बलात्कार कुन्दान्बय हंस ॥६६ कुब्ज ब्राह्मण कुल मे उत्पन्न देवदत्त दीक्षित ने की है। जगताभूषण पट्टदिनेशं, विश्वभूषण महिमा ज गणेशं। ये भदौरिया राजामो के राज्य में स्थित अटेर नामक नगर लाडभव्य उपदेश सुरचिता, सदाचने जयमाल सचीता ॥९७ के निवासी थे। इन्होने भट्टारक जिनेन्द्रभूषण की आज्ञा सोनागिरि पच्चीसी ऐतिहासिक रचना है, इसमे से 'स्वर्णाचलमाहात्म्य' और सम्मेदशिखर माहात्म्य' इन सोनागिरि क्षेत्र का सक्षिप्त इतिवृत्त वणित है। कवि दोनों ग्रन्थों की रचना की है। इस ग्रन्थ मे यौधेय देश के Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त श्रीपुर नगर के राजा मारेंजय के पुत्र नंग और अनंग और अनंगकुमार के स्वर्णाचल से मुक्ति गमन के समाचार कुमार की कथा वणित है। बताया गया है कि उस समय को सुनकर सुवर्णभद्र ने सोनगिरि क्षेत्र के लिए यात्रा मालवदेश के अरिष्टपुर नगर मे धनञ्जय नाम का राजा सघ निकाला और वहाँ जाकर दीक्षा धारण कर ली। राज्य करता था। इस राजा के राज्य पर तेलग देश के घोर तपश्चरण करने के उपरान्त उन्होने पञ्च सहस्र राजा अमृतविजय ने अकारण ही माक्रमण किया । धन- मुनियो सहित मोक्षपद प्राप्त किया। जय ने माण्डलिक राजा अरिञ्जय को अपने सहायतार्थ सोनागिरि तीर्थक्षेत्र की यात्रा करने से सभी प्रकार आमन्त्रित किया । प्रारजय क दाना पुत्र नग मार अनग- की लौकिक इच्छाएं पूर्ण होती है । कवि ने बताया है-- कुमार ससैन्य अरिञ्जय की सहायता करने के हेतु अरिष्ट यस्यां कृतायां भावेन संसारे पुत्रकामिनाम् । पुर पहुंचे और युद्ध मे उन्होने अमृतविजय को परास्त कर सत्पुत्र लाभस्तद्वाद्धि धनलाभो धनाथिनाम् ॥ दिया तथा उसे बन्दी बना लिया गया । बन्दी बन जाने से धर्मार्थिनां धर्मलाभः कामलाभस्तुकामिनाम् । अमृतविजय के मन में अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न हुई और मुमुक्षणां मोक्षलाभो बहुनोक्तेन कि बुधाः ।। उनका मन विरक्ति से भर गया। इसी समय अरिष्टपुर ईदक पदार्थो नवास्ति यस्य लाभो न वै भवेत् । मे चन्द्रप्रभ भगवान् का समवशरण पाया। भगवान् की वदमानाः पूजयंतो ये स्वर्णाचलमुत्तमम् ॥ दिव्यध्वनि प्रवाहित हुई। उनके उपदेश को सुनकर -स्वर्णाचलमाहात्म्यम्, १६।२४-२६ धनञ्जय, नंग, अनग आदि विरक्त हो गये और सभी ने जिन दीक्षा ग्रहण की। इस सन्दर्भ मे कवि ने चन्द्रप्रभ सोनागिरि क्षेत्र की वन्दना करने से पुत्रार्थी को भगवान् के मुख से अमृतविजय और धनञ्जय की शत्रता सत्पुत्र लाभ, धन के इच्छुको को धन लाभ; धर्माथियो के कारण का वर्णन पूर्वभव की घटनाग्रो के कथन द्वारा धमलाभ एव कामाथिया का कामना को पूति होता है। निर्दिष्ट किया है। अपनी पूर्वभवावलि के श्रवण से ही अधिक क्या, इस पावन क्षेत्र का वन्दन करने से मुमुक्षुओ धनञ्जय को वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ। को मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव है। विश्व में ऐसा कोई तदनन्तर भगवान् चन्द्रप्रभ का समवशरण विहार पदाथ नहा हजा स्वणाचल का वन्दना पार पूजा करने करता हुआ स्वर्णाचल पर पहुँचा। यहाँ बत्तीस लाख वर्ष वालो को प्राप्त न हो सके। जो भक्तिभाव पूर्वक इस क्षेत्र तक भव्यजीवो को कल्याणमार्ग का वे उपदेश देते रहे। का पूजन-वन्दन करता है, उसका पूजा प्रातष्ठा दवा दरा होती है। अनन्तर पाठवे अध्याय से कथा दूसरी मुड़ती है। उज्जयिनी के राजा श्रीदत्त और रानी विजया के काई कवि ने इसी अध्याय मे स्वर्णाचल की यात्रा का पुत्र नही था। राजा-रानी पुत्राभाव के कारण चिन्तित महत्त्व प्रतिपादित करते हुए इस क्षेश का पूजन-वन्दन रहते थे। सौभाग्वश वहाँ प्रादिगत और प्रभागत नामक को बत्तीस करोड प्रोषधोपवास का फलदायक लिखा है। चारण ऋद्धिधारी मुनिराज पधारे। उन्होंने राजा-रानी यथाको सोनागिरि की यात्रा विधिपूर्वक करने का उपदेश यः श्रीस्वर्णाचलस्यात्र यात्रामिष्ट प्रदायिनीम् । दिया। राजा ने सोनागिरि की यात्राके लिए सघ निकाला पापघ्नी तथा पुण्यद्धिनों भव्यसत्कृताम् ॥ तथा विधिपूर्वक ससघ उस पुण्य भूमि की वदना की। कुर्याद् भावेन संयुक्तो द्वात्रिंशत्कोटिसम्मितः । इसके फलस्वरूप राजा-रानी के सुवर्णभद्र नामका पुत्ररत्न यत्फलं प्राप्यते भव्यर्वतः प्रोषषनामभिः । उत्पन्न हुमा। वयस्क होने पर सुवर्णभद्र का विवाह प्राप्नुयाविह संसारे तद्वदेव विनिञ्चयम् । सम्पन्न हुआ। कालान्तर मे नग, अनगकुमार मुनिराज तस्मादवश्यमस्यात्र यात्रा कार्या विचक्षणः ।। उज्जायनी पधारे। उनके उपदेश से श्रीदत्त ने दीक्षा ग्रहण -स्वर्णाचलमाहात्म्यम् १६:१२-१४ कर ली और स्वर्णाचल पर जाकर तप करने लगा। नंग इस प्रकार कवि देवदत्त ने सोनागिरि क्षेत्र की यात्रा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनागिरि सिद्धक्षेत्र और तत्सम्बन्धी साहित्य का विस्तारपूर्वक महत्त्व प्रतिपादित किया है। नंग और में मन्दिरों का निर्वाण हो चुका था। चन्द्रप्रभ स्वामी का अनगकुमार का पुण्यचरित भी इसी काव्य में पाया जाता समवशरण लाखों वर्षों तक यहाँ रहा, अतः प्रधान मन्दिर है, अन्य किसी ग्रन्थ मे नही । चन्द्रप्रभ भगवान् का रहना तर्कसंगत है। नग और अनंग'सोनागिरि क्षेत्र के तीन पूजा ग्रन्थ उपलब्ध है। कुमार का सम्बन्ध सोनागिरि के साथ अवश्य है, अतएव सस्कृत भाषा मे कवि पाशा द्वारा विरचित पाठ पत्रों की इसके सिद्धक्षेश होने में प्राशका नही है। यहाँ का मेरुयह पूजा है। पूजा में रचनाकाल का निर्देश नही है, पर मन्दिर, जो कि चक्की के प्राकार का होने के कारण भाषा शैली के आधार पर इसे सत्रहवी शती की रचना चक्की वाला मन्दिर कहलाता है, बहुत आकर्षक है। पर्वत मानी जा सकती है। के ऊपर का नारियलकुण्ड एव बजनीशिला यात्रियों के लिए विशेष रुचिकर है। पर्वत पर कुल ७७ मन्दिर और हिन्दी भाषा में इस क्षेत्र को तीन पूजा प्रतियो का नीचे अठारह मन्दिर है। अधिकाश मन्दिर विक्रम सवत् निर्देश मिलता है ! रचयिताओं के नाम इन पूजा प्रतिया की अठारहवी और १६वी शती के ही बने हुए है। इस मे अकित नही है और न रचनाकाल का ही स्पष्ट निश क्षेत्र की विशेषता इस बात मे है कि यहाँ धार्मिक वाताहै। राजस्थान के जन शास्त्र भण्डारी को ग्रन्थसूचो वरण के साथ प्रकृति का रमणीय रूप भी परिलक्षित होता चतुर्थभाग मे ग्रन्थसख्या ५५२१ और ५८६५ मे उक्त है। कलकल निनाद करते हुए झरने एव हरित मखमल पूजाओं की सूचना दी गई है। ५८६५ सख्या के गुटके मे की आभा प्रकट करती हुई दूर्वा भावुक हृदयकोल्हज ही पावागिरि और मोनागिरि की इन दोनो ही क्षेत्रो की अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। पूजा निबद्ध है। हम क्षेत्र के अधिकारियों से इतना नम्र निवेदन भी उपसंहार कर देना अपना कर्तव्य समझे है कि वे वहाँ के मूर्तिलेख एव ग्रन्थ प्रशस्तियों को प्रामाणिक रूप में प्रकाशित करा सोनागिरि क्षेत्र निर्वाणभूमि है, इसका प्रचार पन्द्रहवी देने को व्यवस्था करे, जिससे इस पुण्यभूमि का इतिहास शती से व्यापक रूप में है। यो यहाँ पर ११-१२वी शती लिखा जा सके। क्या कभी किसी का गर्व स्थिर रहा है ? रे चेतन | तू किस किस पर गर्व कर रहा है, ससार में कभी किसी का गर्व स्थिर नहीं रहा । जिसने किया उसी का पतन हुआ । फिर पामर । तेरा गर्व कैसे स्थिर रह सकता है। अहंकार क्षण मे नष्ट हो जाता है। जब सांसारिक पदार्थ ही सुस्थिर नही रहते, तव गर्व की स्थिरता कैसे रह सकती है ? सो विचार, अहंकार का परित्याग ही श्रेयस्कर है। इस सम्बन्ध मे कविवर भगवतीदास प्रोसवाल का निम्न पद्य विचारणीय है : धूमन के धौरहर देख कहा गवं कर, ये तो छिन माहि जाहि पौन परसत हो। संध्या के समान रंग देखत हो होय भंग, दीपक पतंग जैसें काल गरसत ही॥ सुपने में भूप जैसें इन्द्र धनुरूप जैसे, प्रोस बंद धूप जैसे दुरै दरसत हो। - ऐसोई भरम सब कर्मजाल वर्गणा को, तामें मढ मग्न होय मर तरसत ही ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जातियों का देवीकरण साध्वी श्री संघमित्रा जैनागमों में उल्लेख है कि भगवान महावीर को भी सक्षम होते है। जैन परम्परा के अनुसार देव शब्द से मंगलमयी वाणी सुनने के लिए चार प्रकार के देव उप- उन प्राणियों का बोध होता' है जिनका निवास स्थान इस स्थित होते थे। धरती पर नही है। जो या तो इस लोक से सहस्रों मील (१) भवन पति, (२) वाणव्यन्तर, (३) ज्योतिष्क ऊंचे रहते है या सहस्रों मील नीचे, जहाँ मानव की पहुँच मोर (४) वैमानिक ये देव कौन थे? उनकी क्या महत्ता किसी भी प्रकार से नही है। उन देवो का शरीर सूक्ष्म थी ? क्या सस्कृति थी? कहाँ रहते थे ? आज यह प्रश्न परमाणुओं से बना होता है। वे समय-समय पर चाहे बहुत ही मीमासनीय बन गए है । भिन्न-भिन्न परम्परामो जैसा रूप परिवर्तित करने में सक्षम होते है। उनके शरीर मे देव शब्द से भिन्न-भिन्न बोध होता है। वैदिक दर्शन मे अस्थि, मास और रक्त जैसा कोई तत्त्व नहीं होता। के व्याख्याता ऋग्वेद और पुराण इन दोनो के देव भी इसलिए वे सदा युवा बने रहते है, बहुत ही ऋद्धि सम्पन्न एक नही है। ऋग्वेद मे देव शब्द (Natural Powers) प्राणी होते है उन्हे इस धरती की दूर से ही गध आती है। का प्रतीक है। उन्होंने सूर्य, चन्द्र, मरुत्, वरुण, अग्नि भगवान महावीर की परिषद मे उपस्थित होने वाले प्रादि की सचालित शक्तियों को देव रूप में स्वीकार क्या ये ही देव थे? इस प्रश्न के सदर्भ मे हमे कुछ किया है। ऋगवेद के देवो में मानवीय सम्बन्ध नहीं होते चिन्तन करना है। थे । यद्यपि' ऋग्वद को प्राथना में ऐसा गाया जाता है जैन दृष्टि से देवो के क्रम में सबसे पहले भवनपति नियम और यमी सूर्य की सन्तान है ।. दोनो परस्पर आते है इनके दस प्रकार है। ई-बहिन है । यम दिन है और यमी रात। एक बार (१) असुर, (२) नाग, (३) विद्युत, (४) सुपर्ण, यमी वैवाहिक सम्बन्ध की याचना करती है लेकिन यम । (५) अग्नि, (६) वायु, (७) स्तनित, (८) उदधि, भाई-बहिन के पवित्र सम्बन्ध को सुरक्षित रखना चाहता ही है अतः वह इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है। इस इन दसो मे असुर कुमार का स्थान सर्व प्रथम है। पवित्र सम्बन्ध को युग-युग तक सुदृढ़ रखने के लिए यम असुर कुमार की चर्चा वैदिक, बौद्ध और जैन तीनों परऔर यमी कभी नही मिलत, यम आता ह तब यमा चला म्पराओं में रही है। इतिहास के संदर्भ में यह स्पष्ट है जाती है और यमी आती है तब यम भाग जाता है । यही कि किसी समय यहाँ पर तीन मुख्य जातियाँ निवास स का क्रम युग-युग से चला आ रहा है। दाना करती थी। देव, असुर और मानव' । बाल्मीकि रामायण का प्राज तक कभी मिलन नहीं हुआ। ऋग्वेद में देव में आया है कि देव, असुर और मनुष्य इन तीनो जातियो विषयक इसी प्रकार के सारे कल्पित सम्बन्ध है। के हथियारों को चलाने में राम बहुत ही निपुण थे। पौराणिक देवो मे मानवीय सम्बन्ध जुड़ जाते है। ३. जीवाभिगम देवताधिकार । उनका परिवार होता है। सन्ताने होती है। जन्म मरण ४. प्रोपपातिक अध्याय १ को धारण करते है। तथा वरदान और अभिशाप देने में ५. देवासुर मनुष्याणां सर्वास्त्रेषु विशारदः । १. औपपातिक अध्याय १ सम्यग् विद्या व्रत स्नातो-यथावत्साङ्ग वेदवित् ॥३४॥ २. The Sphiny Speakes Ch. IV P. 27. वा. रा. पायोध्याकाण्ड सर्ग २॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जानियों का देवीकरण मनु की सन्तान मानव, दिति की मन्तान दैत्य, (असुर) सग्राम देव और दैत्यों के बीच अमृत को लेकर हुआ था। और अदिति की सन्तान देव जाति में प्रविष्ट हुई। यह इस सग्राम में भी असुरो से देव हारने लगे तब विष्णु के अदिति कौन है ? महर्षि यास्क ने निघण्टु मे पृथ्वी के पास गए। विष्णु ने दधीचि ऋषि से हथियार मागने की २१ नाम गिनाए है उसमें एक नाम अदिति भी पृथ्वी सलाह दी । दधीचि ने अपनी अस्थि का एक टुकड़ा देवों का नाम है । अदिति को देव माता भी कहा है। इससे को दिया और विश्वकर्मा ने शस्त्र बनाया। उसी शस्त्र स्पष्ट होता है कि देव जाति को जन्म देने का सौभाग्य प्रयोग से देवो ने असुरो को पराजित कर दिया था। इस इस पृथ्वी को मिला । पौराणिक अभिमत यह है कि दिति पराजय के बाद असुर पाताल में चले गए। पौर अदिति काश्यप की पत्नियाँ थी। अदिति से देव और वैदिक परम्परा और जैन परम्परा दोनो के अनुसार दिति से दैत्य (असुर) पैदा हए । ये परस्पर सौतेले भाई अमुरो का निवास स्थान पाताल माना है लेकिन यह थे इसलिए बार-बार युद्ध हा करते थे। प्रत्येक शब्द पाताल कहाँ था यही एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। हिन्दू पुराण का समय के साथ उत्कर्ष और अपकर्ष होता है । असुर मे सात पाताल माने गए है.-अतल, वितल, सुतल, तलाशब्द अाज अभद्र अर्थ में प्रयुक्त होता है पर उस समय तल, महातल, रसातल और पाताल'। सर्वत्र ऐसा नही था। असुर वे थे जो सुरा नही पीते थे। जैन दर्शन में बताया है कि धरती के निम्नस्तरीय नशा नहीं करते थे। सुरा नही पीने के कारण ही उनका भाग मे पाताल है। इतिहास की दृष्टि से भी पाताल की नाम असुर पडा था' इससे लगता है यह बहुत ही सभ्य कल्पना वर्तमान पृथ्वी के निम्नस्तरीय भाग में है। जहाँ जाति थी इसमे खान-पान का उच्चस्तरी विवेक था। आज भी असुर जाति के ध्वसावशेष प्राप्त है। धरती का बहुत सभव है कि अनेक प्राणी का सरक्षण करने के कारण पर्वतीय भाग ऊर्ध्व भाग होता है। तिब्बत, चीन और भा उन्ह असुर कहा गया हो। असन-प्राणान रक्षतीति- उसके पास-पास के प्रदेश पर्वतीय भाग पर बसे हुए है। असुरः । तिब्बत को संस्कृत साहित्य में त्रिविष्टप कहा जाता है । पौराणिक साहित्य में देवासर का संग्राम बहुत ही त्रिविष्टप' नाम स्वर्ग का है । इसे ऊर्वलोक मे भी माना प्रसिद्ध है। असुर एक बहुत ही बलवान जाति थी। जब है। इससे स्पष्ट होता है कि तिब्बत, चीन और उसके देव और अमुर का प्रथम सग्राम हा तो असरो ने सरो प्रासपास का भाग उवलोक में सम्मिलित थे। और यही को बुरी तरह से हरा दिया था। असर के गुरु शक्राचार्य स्वर्गभूमि थी। यहाँ पर देवसंस्कृति का विकास था। थे उनके पास एक ऐसी विद्या थी कि सग्राम मे घायल वनवास करते समय ऋषि भारद्वाज ने कहा-चित्रकूट मसुरो को पुनः शीघ्र ही स्वस्थ बना दिया जाता था। पर्वत पर बहुत से ऋषि सैकडो वर्ष तप कर महाअसुरों को जीतने का साहस देवों मे नही था समुद्र मन्थन देव के साथ स्वर्ग को चले गए थे। आप वही पर के समय देव-असुरों के बीच एक भयंकर सग्राम छिड़ा था। निवास करे। विष्णु त्रिविष्टप के अधिपति थे। हिन्दी विश्व के इतिहास में यह सग्राम बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध १. बा० रा. वाल काड मर्ग ४५ श्लोक ४० हा क्योकि इस समय दैत्य सस्कृति एक ओर इडोनेशिया २. भागवतसे अमेरिका तक तथा दूसरी ओर अफ्रीका और इजिप्ट ३. स्कन्द पुराण-महेश्वर खड-१ प्र० ५० श्लोक तक फैल गई थी। अभी-अभी इडोनेशिया में खुदाई होने २।३।४ से दैत्य संस्कृति के बहुत से चिह्न प्राप्त हुए है। यह ४. स्वर्गस्त्रिविष्टप घौदिवौ भुविस्तविषताविषो नाकः । १. हिन्दू देव परिवार का विकास खण्ड १ पृ० ५१ गौस्त्रिदिवमूर्ध्वलोक. सुरालयस्तत्सदस्त्वमटा: ॥८७॥ -अभिधान चिन्तामणि देवकाण्ड २ २. वा० रा. बालकांड सर्ग ४५ श्लोक ४० ३. वा. रा. वाल का. सर्ग ४५ श्लोक ३८ ५. ऋषयस्तत्र बहवोविहत्य शरदां शतम् । तपसादिवमारूढा कपाल शिरसा सह ॥३१॥ ४. The s.S Ch. IV P.31 -बा०रा० अयोध्या का० सर्ग ५४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त कोश में त्रिविष्टप को ही बैकुण्ठ कहा गया है। नीचे पडता था उस भूमि को पाताल मान गया था। विष्णु यही निवास करते थे। शिव हिमालय की कैलास पाताल भूमि बहुत विस्तृत थी। असुर जब हार गए तब चोटी पर रहते थे उसी के पास मान सरोवर था। देव सुतल, तलातल और महातल मे चले गये थे। सुतल जाति यहाँ पर क्रीडा करने के लिए पाया करती थी। बहुत सुन्दर भूमि होने के कारण सुतल कहा गया था। इन्द्र की पुरी अमरावती थी जो वर्तमान में चीन है। वर्तमान मे सुतल इंडोनेशिया मे आ गया है। और आज ब्रह्मा का निवास स्थान ब्रह्म लोक था जो वर्तमान मे भी वहाँ बलि नाम का द्वीप है जिसका सम्बन्ध असुरों के हर्मा हो गया है। उदयाचल पर्वत जहाँ सूर्य उदय होता अधिपति बलि से है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि है इसके विषय में बाल्मीकि रामायण मे सुग्रीव कहता है- बलि महाबलिपुर में रहता था जो अभी दक्षिण में है। यह स्थान ब्रह्मा ने बनाया था। ब्रह्मलोक और भूलोक मे रसातल पाताल में गन्डवाना खड का उत्तर पश्चिम भाग जाने के बीच का द्वार यही था। वर्तमान में हिन्दुस्तान तुकिस्तान, काश्पियन एरिया, मध्य एशिया और एशिया की अपेक्षा से सूर्य सर्व प्रथम वर्मा के पर्वत से उदित होता का कुछ भाग पा जाता है। यहा एक रसा नाम की नदी है। इस प्रमाण से स्पष्ट है कि वर्मा ही पहले ब्रह्मलोक वहती थी जिसका नाम दर्तमान मेग्रोक्सस हो गया है। था। प्रा० चतुरसेन शास्त्री का कथन है-- देव श्री नार इस रसा नदी के आधार पर भी इसको रसातल कहा पर्वत पर रहते थे। श्री नार को आज सीनार कहते है। गया था वर्तमान में एशिया इसी रसातल का परिवर्तित यह पर्वत फारस में है। उर्वलोक की सीमा के बाद रूप हो ऐसा अनुमान होता है। इसी रसातल भाग में सप्तसिन्धु पाता है। यहां पर मानव जाति निवास करती दैत्य, गरुड़ और नाग तीनों जातियाँ निवास करती थी। थी। यह देश सिग्ध और सरस्वती के बीच का प्रदेश था रघु ने अश्वमेघ यज्ञ के समय अपने घोड़े को रसातल मे जिसमें सतलज, व्यास, रावी, चिनाब और भेलम आदि छिपाया था। युद्ध के समय विष्णु से हार कर मालि सात नदियाँ बहती थी। इसीलिए इसे सप्तसिन्धु कहा सुमालि राक्षस बहुत समय तक रसातल पाताल में ही गया था। इसमें सारा पजाब, कश्मीर का दक्षिणी पश्चिमी छिपकर रहे थे। इससे लगता है कि रसातल छुपने के भाग और अफगानिस्तान का वह भाग पा जाता है। जो लिए एक बहुत ही गम्भीर स्थान था। अतल और कुंभ (काबुल) नदी के पास बसा हुआ है। इसके दक्षिण वितल पताल अच्छं भी नही थे और खराब भी नही मे जहाँ आज राजस्थान है वहाँ समुद्र था। इसी प्रकार थे । यहाँ पर भी राक्षस और बानर जाति निवास करती पूर्व दिशा में भी जहाँ आज उत्तर प्रदेश है। वहाँ भी थी। तलातल, सुतल और महातल के बीच मे पडता था। समुद्र था । यह सप्त सिन्धु भाग ही अवेस्ता मे 'हप्तहिन्दु' महातल मे जाने के लिए तलातल को पार करना पड़ता और वर्तमान में हिन्दुस्तान हो गया है। सप्त सिन्धु के था। महातल पृथ्वी का वह भाग था जहाँ पर सोने और पास तेतीस का दरिया प्राता था जिसका पिछला भाग चाँदी की खाने थी। मटातल का चाँदी की खाने थी। महातल का अपभ्रश होते-होते मक्षिका और फिर मेकस्किो हो गया है 1 मेकस्किो वर्त१. Thes.s Ch. IV P.34 २. वही। मान में अमरीका की बहुत सुन्दर नगरी है। 3. The S.S. Ch. XIV P. 139 सातवां पाताल बहुत ही दूर और गम्भीर स्थान है। ४. काचनस्य च शैलस्य-सूर्यस्य च महात्मनः । बाट पाने से पहले सुमालि के वशज वहीं रहे थे। इन्हीं प्राविष्टा तेजसा संध्या-पूरिक्ता प्रकाशते ॥६४।। ६. The s.s Ch. 10 P.91 पूर्वमेतत्कृतं द्वारं-पृथिव्या भुवनस्य च । 1. The SS Ch. 10 P. 5€ सूर्योस्योदयन चैव-पूर्वाह्यषां द्विगुच्यते ॥६५॥ ८. रघुवश सर्ग १३ श्लोक ८ -वा० रा० किष्किन्धा का० सर्ग ४० ६. बा० रा० उत्तर काड सर्ग ३ श्लोक २८,२६,३० ५. वयं रक्षाम परिशिष्ट (प्रा० चतुरसेन शास्त्री) १०. The ss. Ch. 10 P. १३ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जातियों का देवीकरण मान पाताल में युद्ध के बाद असुर सस्कृति फैल गई थी देव परिषद सहित असुर हिन्दुस्तान के दक्षिण में तो असुर संस्कृति का बहुत ही असुर परिषद सहित देव विकास हुआ था। इसकी पुष्टि दो तीन बातो से की देव परिषद सहित देव गई है। इनमें जो दुःशील है पापी है वे असुर और जो सुशील केरलके निवासियों का यह विश्वास है कि बलि उनके है सदाचार परायण है वे देव है। राजा थे। अब भी लोग एक सप्ताह के लिए बड़ी धूम उक्त कथन मे देव और असुर दोनो शब्दों का मानधाम से उत्सव मनाते है। मैसूर मे यह धारणा है कि वीकरण हया है। महिषासुर वही राज्य करता था। जो सुशील और सदाचारी है उन्हे देव कहा गया है जैन दर्शन में असुर कुमारों का शारीरिक वर्णन करते और जो पापी व दु शील है उन्हें प्रसुर कहा गया है। हुए बताया है कि उनका रंग महानील मणि के समान नाग तथा सुपर्णनीला था उनके चेहरे पर मणि की सी कान्ति थी उनकी प्रांखें लाल थी। दात दूध की तरह सफेद और हाथ-पैर अमुर के बाद नाग और सुपर्ण का उल्लेख पाता है के तलवे अग्नि मे तपे स्वर्ण की तरह लाल थे। इस नाग और सुपर्ण ये दोनो ही यहाँ की प्रसिद्ध जातियाँ थी शारीरिक वर्णन से अनुमान होता है कि-यह असर जाति जो आज भी प्रासाम की तरफ मिलती है। नागालैंड गर्म प्रदेश में रहने वाली बहुत ही स्वस्थ और वीर जाति प्रदेश भी इसी नाग जाति का सूचक है । नागवश इतिहास थी। दक्षिण हिन्दुस्तान बहत गर्म प्रदेश माना जाता है। के पृष्ठो पर बहुत ही चर्चित रहा है। भगवान महावीर वहाँ के निवासियों का वर्ण आज भी श्याम होता है। स्वयं नागवंश के थे ऐसा मुनि श्री नथमल जी ने अपने इन सब बातों से निष्कर्ष यह प्राता है कि असुर वश का एक निबन्ध मे सिद्ध किया है। शिशुनाग वश ऋष्यमूक राज्य दक्षिणी भारत में था। असुर परिवार निश्चय ही पर्वत की रक्षा किया करता था। बिम्बसार के समय बलशाली और सभ्य समुदाय था । आर्य सस्कृतिके विकास शिशुनाग वश काशी पर राज्य किया करता था। नागमे इन समुदायो का महत्त्वपूर्ण हाथ था । देवराज इन्द्र वश की अनेक शाखाएँ थी। तक्षक, अहि, वासुकि, पणी, की कन्या जयन्ती का असुर गुरु शुक्राचार्य से विवाह हा फणी, पन्नग, शेषनाग प्रादि-प्रादि । इनमे से कोई जाति था। इससे लगता है कि देवों के साथ इनके वैवाहिक भी कश्मीर में निवास करती थी। शेषनाग और अनन्तनाग सम्बन्ध होते थे। के नाम पर आज भी वहाँ तीर्थ स्थान बने हुए है । वासुकि प्रज्ञापना' सूत्र में आया है कि असुरो के शरीर का जाति का निवास स्थान समरकन्द और मकरन्द देश था। सहनन बहुत ही सुन्दर होता है यह सहनन शब्द भी उन्हे अजि के पूर्वज अहि कहलाते थे। पाणिनी व्याकरण के आज मानव सिद्ध करता है, क्योकि सहनन का सम्बन्ध प्रौदारिक रचनाकार पाणिनी और पाहिक नाम से इसी नागवश की शरीर से है। वैक्रिय शरीर धारक देवो के अस्थिया दोनी सूचना मिलती है। माज के युग में गायो के धनी अहीर ही नही ऐसी जैन दर्शन की स्पष्ट मान्यता है । बौद्ध दर्शन इसी अहि जाति के वंशज है ऐसा उनके नाम से अनुमान इसी अहि जाति मे बताया है कि इस दुनियाँ मे चार प्रकार के लोग विद्यमान है। अाज का वणिक शब्द इस पर्णी शब्द का ही अपभ्रश असुर परिषद सहित असुर हो ऐसा प्रतीत होता है । जाकार्त नदी के किनारे पर १. हिन्दूदेव परिवार का विकास पृ० १७ सिथियम रहते थे उनको नागोइ भी कहा जाता था। २ औपपातिक अ०१ पर्णी, नागोड मिलकर पन्नग नाम हो गया था । ३. प्रज्ञापना सूत्र १. भगवान महावीर ज्ञात पुत्र थे या नागपुत्र । पृ० ४. अगुत्तर निकाय-नि० ४ अमुरवर्ग पृ० ६६ २. The s.s Ch. IV P. 33 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त तक्षक जाति की सूचना तक्षशिला विश्वविद्यालय से अस्तित्व इस धरती पर है। एक भी नाम ऐसा नही है मिलती है । जनमेजय ने इसी स्थान पर नाग यज्ञ किया जिनका निशान इस धरती पर नहीं है तथा इन देवों के था उसमें उसने नागजाति को होम दिया था क्योंकि चिह्न और वाहन भी इस धरती के ही पशु-पक्षी है। इस तक्षक जाति ने जनमेजय के पिता परीक्षित को मार डाला अनुमान के आधार पर इन देवो का धरती के निवासी था'नाग जाति का गरुड़ जाति से बहुत वैर था। गरुड होना ही अधिक पुष्ट होता है। का प्रागरूप (SU) सु जाति' है। इसे सुपर्ण भी कहा व्यन्तर देवजाता है। सूपर्ण और नाग दोनों पड़ोसी थे। इमलिए (१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, उनमें स्वाभाविक वैर हो गया था । सुपर्ण जाति (गरुड़) (५) किन्नर, (६) किंपुरुष (७) महोरग, (८) गन्धर्व । जाकात नदी के पूर्व में रहती थी। आज उसे जर्फसन इनमें सर्वप्रथम पिशाच है। पिशाच भी यहाँ की एक कहा जाता है। तक्षक की मूल जाति टोकारिस' थी जो जाति थी जो कश्मीर की तरफ रहती थी यह जाति टोकारि स्थान में रहती थी। जिसको आज तुकिस्तान कच्चा मास खाती थी। पैशाची भाषा प्राकृत की एक कहा जाता है। समुद्र मन्थन के समय देव, दैत्य, नाग, महत्त्वपूर्ण भाषा है। उसका होना ही कितना पुष्ट प्रमाण कच्छप, गरुड, गन्धर्व, आदि सभी जातिया सम्मिलित है कि इसके बोलने वालों के अस्तित्व मे सदेह नही किया थीं। देवासुर संग्राम में इन जातियो ने दैत्यो का साथ जा सकता है। दिया था। विद्युत्कुमार अग्निकुमार आदि कौन थे ? इसका ऐतिहासिक और साहित्यिक पृष्ठो मे कोई उल्लेख नही तिब्बत प्रदेश में भूट्टान नाम का एक प्रदेश है । आज मिलता अनुमान होता है कि ये किसी जाति के मूल नाम के इतिहासज्ञ भूट्टान का भी भूत स्थान से अर्थ बैठाते है। नहीं उपाधिगत नाम हों। जैसे विद्युत्कुमार उस वर्ग को उनका अभिमत है कि यहाँ एक भूत जाति निवास करती थी इसलिए इस स्थान का नाम भूत स्थान और क्रमशः कहा जाता हो कि जिसके हाथ मे विद्युत सम्बन्धी कार्यो । भूट्टान हो गया है। वनवास करते समय राम की हित का सचालन हो अग्नि की सामग्री पर शासन करने वाले कामना के लिए भूत जाति का स्पष्ट उल्लेख वाल्मीकि अग्निकुमार द्वीपों का सरक्षण करने वाले द्वीप कुमार, गमायण मे हुआ है। समुद्रों पर पहरेदारी करने वाले उदधिकुमार दिशामो पर आधिपत्य रखने वाले दिग् कुमार वायु सम्बन्धी यानों का यक्षसचालन करने वाले वायुकुमार और युद्ध के समय साइरन यक्ष भी एक जाति थी जो वृक्ष के नीचे भी अपना की तरह विशेष यन्त्रो का संचालन करने वाले स्तनित घर बना कर रहती थी इसलिए इनका दूसरा नाध वटकुमार कहे जाते हो। हो सकता है इन नामो की कोई वासी भी है। इनको गुफापो में छिपकर रहने का अभ्यास जातियाँ हो या और भी कोई कारण रही हो पर यह तो था इसलिए इनका नाम गुह्यक भी है कालिदास ने अपने स्पष्ट ही है कि किसो के नामकरण में स्थानीय संस्कृति ४. राक्षसाना पिशाचाना रौद्राणां क्रूरकर्मणाम् । तथा प्रासपास के वातावरण का हाथ रहता है। स्थानीय क्रव्यादाना च सर्वेण च मा भूत्पुत्रक ते भयम् ॥१७॥ पशु पक्षियों तथा अनेक अत्यन्त प्रसिद्ध वस्तुओं के आधार -अयोध्या काड सर्ग २५ पर भी अनेक नाम निर्मित होते है । इन भवनपति देवो के ५. मयाचिता देवगणाः शिवादयो महर्षयो भूतगणा: सुरोरगाः जितने भी नाम है वे सब नाम उन पदार्थों के है जिनका अभिप्रयातस्य वन चिराय ते हितानि कांक्षन्तु दिशश्च १. भारतीय इतिहास की रूपरेखा पृ० ५२३ राघवः ॥४३॥ -अयोध्या काड सर्ग २५ २. Thes.s. Gh. IV P.33 ६. यक्षः पुण्यजनो राजा गुह्यको वटवास्यपि ॥ ३. वही -अभिदान चि० देव कांड २ श्लोक १६४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जातियों का देवीकरण काव्य मेघदूत में यक्ष को प्रमुख पात्र के रूप में स्वीकार यक्ष पौर राक्षस जाति की उत्पत्ति के विषय में किया है । यक्ष का अधिपति कुबेर' कैलास की चोटी पर पौराणिक जगतकी यह मान्यता है कि एक बार सब मनुष्य रहता था इसके पास पुष्पक विमान था। यह विमान मिल कर ब्रह्मा के पास गए और उन्होंने ब्रह्मा से पूछा बहुत तेज गति से दौडा करता था। चैत्ररथ नाम का हमें क्या करना चाहिए ? तभी ब्रह्मा ने कहा--प्राणियों बन ही सुन्दर वन था। अलका उसकी नगरी थी। धन की रक्षा और पूजा करो। जिन्होंने रक्षा का भार लिया का स्वामी माना जाता था। शिव का मित्र था। रावण वे राक्षस और जिन्होंने पूजा का भार लिया वे यक्ष कहका सौतेला भाई था। मनुष्यों को वाहन भी बनाता' था। लाये। एक बार यक्ष और राक्षसों के बीच भयंकर युद्ध आज हम यक्ष और राक्षस शब्द को निम्न अर्थ में छिडा । सारी भूमि रक्त पंकिल हो गई पाखिर यक्ष हार लेते है किन्तु कभी इस धरती पर यक्ष और राक्षस दोनों गए। कुबेर का पुष्पक विमान रावण ने छीन लिया। ही बहुत उच्चस्तरी जाति थी। गवण जब पुष्पक विमान पर चढ कर गिरि को पार कर किन्नर किंपुरुषजाने लगा तब विमान रुक गया । नान्दी ने आकर बताया किन्नर और किपुरुष भी एक यक्ष जाति थी जो प्राज कि यहाँ शिव रहते है उनकी इजाजत के बिना देव दानव, भी हिमाचल प्रदेश के उत्तर भाग में मिलती है। इस यक्ष, राक्षस, किन्नर, नाग, गरुड, गन्धर्व प्रादि कोई भी जाति के मनष्यो का मख घोडे की तरह लम्बा होता था पार नही कर सकता । तब वह शिव के पास गया । शिव लिा दमे तगवदन' भी कहा जाता था। एक बार ने उसे चन्द्रहास दिया। और उसी दिन से वह शिव का चन्द्र के पुत्र बुध ने अनेक स्त्रियो से घिरी त्रिलोक सुन्दरी पुजारी हो गया। इस युद्ध के बाद समग्र यक्ष जाति । को घुमते हुए देखा। वह उसके रूप को देखकर पाश्चर्य राक्षस जाति के साथ मिल गई । चकित हो गया। मन ही मन सोचा नागकुमारियों असुर राक्षस कुमारियो तथा अप्सरापो से भी अधिक सुन्दर यह स्त्री राक्षस जाति भी एक बहुत बलवान जाति थी। कौन है। पास जाकर पूछा तो पाया कि यह त्रिलोक राक्षम संस्कृति का विस्तार दक्षिण में भी था। राक्षस सुन्दरी अपने वर को ढढ रही है। तभी बुध ने पास के जाति का सुप्रसिद्ध अधिपति पाज रामायण के पाठकों से पर्वत की मोर मकेत करते शाक प्रविदित नही है । दक्षिण के कुछ भाग मे अाज भी रावण कुछ विशेष तप करते हुए निवास करो तुम्हे किपुरुष जाति को पूज्य माना जाता है और राम को हेय दृष्टि से समझा मिलो। मन की बातो मे जाना जाता है। उनका अभिमत है कि रावण का चरित्र कितना कैकयो तीर से वीधी हई किन्नरी के समान भूमि पर लेट ऊंचा था कि एक नारी की बिना इच्छा के उस पर हाथ जाती हैं। तक नहीं उठाया और उसने अपने प्रण पर प्राणो का बलि- महोरगदान तक कर दिया। जब कि राम अपनी एक नारी की उरग भी एक जाति थी। यह नाग वश की उपशाखा सरक्षा भी नही कर सका । रावण पहले सूर्यवशी था और ३. बा. रा. उत्तर काड सर्ग ४ इलांक ११-१२.१३-१४ सर्य की पूजा किया करता था सूर्यको रा कहा जाता था। ४ The ss. Ch. ४ P ३२ रा की पूजा करने के कारण उसका नाम रावण पडा ५. किन्न इस्तू किम्पुरुषस्तूरजवदनो मयुः ।। था। -प्र० चि० देव कांड सर्ग ८८ श्लो०१३-२३ १. पौलस्त्यर्वश्रवण रत्नकराः कुबेर ।। ६. वा० रा० उत्तर काड सर्गफ श्लो० १३-२३ अभि० चि० दे० का० २ श्लोक १८६ ७ विदर्शिता यदादेवी-कुब्जया पापया भृशम् । २ यक्षौ नृधर्मधन दो नर वाहन च० ।।. तदा शेतेस्म सा भूमी, दिग्धबिद्धेव किनरी ॥१॥ -अभि० चि० दे० का० २ श्लोक १८६ । -बा० रा० अयोध्या काड सर्ग: Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त थी वाल्मीकि रामायण में इसका उल्लेख है। राम की वशी बन गए। जो लोग शीत प्रदेशों में रहते थे उनका प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि सुर, असुर, मानव, मूर्य का ताप बहुत सुखकारक था। मकान बनाते समय गन्धर्व, उरगादि सब प्राणियों मे गम का बल, आरोग्य ईटे मूर्य के ताप से बहुत जल्दी सूख जाया करती थी इस और दीर्घ जीवन विदित है। इसलिए वे सूर्य की पूजा करने लगे और आगे चलकर गन्धर्व सूर्यवंशी हो गए । सूर्यवशी लोग बड़े कठोर हृदय के होते गन्धर्व जाति बड़ी चपल और नित्यप्रिय होती थी थे । चन्द्रवशी चन्द्रमा की शीतलता ग्रहण कर सौभ्य स्वइनको मजाक करने में बड़ा आनन्द प्राता था। इनकी भाव में रहने का अभ्यास करते थे। सूर्यवशी लोग मृताजाति में विवाह विशेष पद्धति से होता था। जब इनकी त्मा के माथ आदमी और पशु को भी गाड़ते थे। मानव विवाह पद्धति को दूसरो ने अपनाना शुरु किया तब से की बलि भी उनमे निहित थी। चन्द्र वशी लोग ऐसा नही इस पद्धति का नाम गन्धर्व विवाह पड़ गया । इसकी राज- किया करते थे । सूर्यवंशी लोग बहत कलाकार थे उन्होने पानी का नाम गन्धार था जो वर्तमान मे कन्धार हो गया बहत विशाल भवन बनाये । है । अफगानिस्तान मे अफगान लोग है उनमे गन्धर्व जाति मिश्र के पेरामिड इन मूर्यशियो से निर्मित है । वेस्थ के चिह्न प्राज भी मिलते है । गन्धव जाति कलाग बहुत के उत्तर-पश्चिम भाग में एक मन्दिर है जिसके प्रागन का सुन्दर होते थे । बाल्मीकि रामायण मे गम के मौन्दर्य को एक पत्थर १२ टन का है। चन्द्रवशी अधिक कलाकार गन्धर्व जाति से उपमित किया है। नहीं थे । वे वर्षों तक झोपडियो मे ही रहते थे। ये दोनों ज्योतिष्क सस्कृतियाँ बाहर से पाई और भारत पर छा गई । पहले ज्योतिष्क देवो में सूर्य, चन्द्र, तारा, ग्रह और नक्षत्र ये दोनों संस्कृतियाँ भिन्न-भिन्न थी और बाद में दोनों भगवान की परिषद में उपस्थित थे। पुराणो की कल्पना क हो गई। इनकी मस्कति का विकास , है कि सर्य और चन्द्र कौन थे? आकाश से सूर्य और चन्द्र फैल गया था । वनवास जाते समय कौटाया m का धरती पर अवतरण होने की बात बुद्धिगम्य कम होती है कि सूर्य, चन्द्र, शुक्र, कुबेर और यम तुम्हारी रक्षा है। संभव कल्पना यह है कि इस भूमि पर मूर्यवश और करें। यहाँ कुबेर और यम व्यक्ति विशेष के साथ सूर्य चंद्रवंश थे। चन्द्र का उल्लेख किसी व्यक्ति या जाति का ही सभवत' इतिहास बताता है कि राम सूर्यवशी और कृष्ण चन्द्र सकेत करता है। वंशी थे। सूर्यवश और चन्द्रवंश भी बहुत विस्तृत वश थे। १२ प्रकार के वैमानिक देव सबसे अन्त मे आए। सौइनका उद्भव विशेष परिस्थिति को लेकर हुआ था। जो धर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म लान्तक, शुक्र, लोग बहुत गर्म प्रदेशों में रहते थे उनके लिए सूर्य का ताप महस्त्रारज, प्रानतज, प्राणतज, पारणज, अच्युतज । बहुत कष्टदायक था। चन्द्रमा की किरणे उन्हें अमृत के समान प्रतीत होती थी इसलिए गर्म प्रदेश में रहने वाले इनमे से किसी भी जाति का उल्लेख इतिहास के लोग चन्द्र की पूजा करने लगे और वे आगे चलकर चन्द्र- प्रकाश में नहीं है पर यह तो स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि उक्त चार प्रकार के देवों में से अधिकाश १. बल मारोग्य मायुश्च-रामस्य विदितात्मनः यहाँ की जातियाँ प्रमाणित हो चुकी है तो फिर क्या कारण देवासुर मनुष्येषु-सगन्धर्वोरगेबुच ॥५०॥ अन्य भी धरती पर निवास करनेवाली जातियाँ नही थी। -वारा० अयोध्या कॉड सर्ग २ २. The SS. Ch. IV P. ३२ इनको इनकार करने मे तो एक भी पुष्ट प्रमाण नहीं है ३. गन्धर्व राजप्रतिम, लोके विख्यातपौरुषम् । ४. शुक्र सौमश्च मूर्याश्च, धनदोऽयं यमस्तथा । दीर्घ बाहु महासत्त्व मत्तमातङ्गगामिनम् ॥२८॥ यान्न त्वामाचिता राम दण्डकारण्य वासिनम् ॥२३॥ -वा० स० अयोध्या काड सर्ग ३ -वा०रा० अयोध्या का० सर्ग २५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जातियों का देवीकरण प्रत्युत उनको स्वीकार करने मे जैनागमो मे कुछ ऐसे लड़की थी। जिसने दुप्यन्त को पसन्द किया । गगा देवी ने प्रानुमानिक प्रमाण प्राज भी उपलब्ध हैं । प्रौपपातिक सूत्र राजा शान्तनु के साथ पाणि-ग्रहण किया। इन्द्र स्वय में इन देवों के अंग प्रत्यग, गति प्रादि का स्पष्ट विवेचन गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या पर मोहित हो गया था। हना है पर यह वर्णन कहीं नही पाया कि देव पाए और एक बार गौतम ऋषि को अनाम्थिति में उन जैसा रूप उनके पैर धरती से चार अगुल ऊपर थे तथा उनकी पलके धारण कर अहिल्या के पास चले पाए। गौतम ऋषि झपकार नही रही थी जब कि जैन सिद्धान्त यह मानता अचानक पाए और यह देख कर तो क्रोधित होकर अभिहै कि वैक्रिय शरीर धारक देवो के पैर धरती से चार शाप दिया कि तुम्हारा शरीर चलनी की तरह महस्रों छिद्रों अंगुल ऊपर रहते है और आँखें भी झपकारा नहीं करती। वाला हो फिर वग्दान विगंप से इन्द्र के गहन छिद्र सहस्र इन चार प्रकार के देवों के आभूषण तथा मुकुटो के विशेष चक्र के रूप में परिवर्तित हो गये तभी से इन्द्र सहस्र चक्षु चिह्नों का वर्णन करते हुए बताया कि इनके कान में कहलाने लगे। ' कुण्डल था। शरीर मे चन्दन का लेप लगाया हुआ था। रघुवग मे आता है कि स्वय रघु मपन्नीक इन्द्र से झोने वस्त्र पहने हुए थ। दसा अगुलिया म अशाठया पहना मिलने गए। देवासुर संग्राम में दुप्यन्त, दशरथ आदि ने हई थी। मणि रत्नो से जटित भुजाओ पर भुजबन्ध थ, दैत्यो में लड़ने के लिए इन्द्र को मदद की थी'। निरन्तर कर्णपीठ थे। मस्तक से लेकर नीचे तक पुष्प मालाए युद्ध होने के कारण देवो के पास टास्त्र मामग्री बहुत पहनी हुई थी। देश-देश की वेशभूषाए थी। नागफण, अच्छी तैयार हो गई थी। महाभारत की बडाई से पहले गरुड़, बच, पुष्प, सिंह, अश्व, हाथी, मृग, सर्प, वृषभ, अर्जुन स्वय हिमालय को पार कर दिव्य शस्त्र लाने को तलवार, मेंढक, मम्पक आदि चिह्नो से उनके मुकुट चिह्नित कर थे । अब देखना यह है कि इन आभूषणो मे से कौन से देव जब मनुप्यो से मिलने आते तो हिमालय को पार प्राभूषण ऐसे है जिनका उपयोग यहां की मानव करके पाते थे और मनुष्यो को भी देवो मे मिलने जाते जाति नही करती थी। भगवान को वन्दन करने जाते समय महाराज कोणिक ने भी इसी प्रकार के आभूषण समय हिमालय पार करना पड़ता था। इससे स्पष्ट है कि हिमालय की ओर तथा उसकी चोटियो पर देव सस्कृति धारण किये हुए थे। का विकाम था। दूसरी मोर मध्य भूभाग मे मानव रहते इन देवो के मुकुटो में जो पशु-पक्षियों के चिह्न है वे । थे तथा हिन्दुस्तान के दक्षिण-पश्चिम मे दैत्य संस्कृति सब के सब पशु-पक्षी इस धरती के ही है। कोई भी ऐसे प्रचलित थी जिममे अमुर, नाग, मुपण, कच्छप, गरुड़ आदि पशु-पक्षी का चिह्न नहीं है जो इस धरती के अतिरिक्त काफी जातियाँ सम्मिलित थी। इनमे देव जाति बहुत ऊची स्थान के हो। देश काल की दूरी में अखण्डित एकरूपता मानी जाती थी, वह उर्ध्व स्थान में रहती थी। संस्कार नही होती। पाँच महाद्वीपों के भी सब के सब पशु-पक्षी अच्छे थे। दिमाग बहुत अच्छा होता था। लोग उन्हें एक नहीं होते और न सब प्रकार के आभूषणो मे भी एक पूज्य दृष्टि से देग्वा करते थे। आज भी कहते है कि बारूद रूपता होती है तो फिर क्या कारण है कि एक अदृश्य के गोले सबसे पहले चीन में नैयार हुए जो बहुत संभव है दुनियाँ में रहनेवाले प्राणियों की मानव जाति से एकरूपता कि उन्ही देव वंशजों की देन हो । मानव जाति का निवास थी। यही प्रश्न बस हमे यहाँ की जाति विशेष मानने को मध्य मे था। यहा धर्मप्रधान संस्कृति थी। त्याग और विवश कर देता है। तपावल पर इनके सामने स्वय देवता भी नतमस्तक थे। पौराणिक साहित्य से तो यह भी स्पष्ट होता है कि इन देवों और मनुष्यों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध होते थे। १. पुगदेवासुरे युद्धे सह राजषिभिः पतिः । देवता की सन्तान मैनका का सम्बन्ध विश्वामित्र से हुआ अगच्छत्वामुपादाय देवगज्यस्य सायकृत ॥११॥ था। उर्वशी राजा पुरुरवा से भोहित थी जो अप्सरा की -वा० रा० अयोध्या काड सर्ग: Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनेकान्त जैन दर्शन में कही इस प्रकार के देव और मनुष्यों के ओर दक्षिणी गोलार्ध के राक्षस काले रग के थे। बीच सम्बन्ध का उल्लेख नहीं हुआ है लेकिन देवों का बौद्ध दर्शन में पाया है कि एक समय भगवान् वैशाली वर्णन करते समय प्रौपपातिक में एक ऐसा तथ्य पाया है के महावन मे कूटागार शाला मे विहार करते थे। उस जो एक नया हो रहस्य उद्घाटित करता है। उक्त देवो समय पाँच सौ लिच्छवी थे। उनमे से कुछ नील वर्ण, नील के शरीर का रग चार प्रकार का माना गया है। श्याम, वस्त्र और नील अलकारो वाले, कुछ लिच्छवी पीत वर्ण, पीला, लाल और सफेद । आधुनिक विद्वानों का अभिमत पीत वस्त्र और पीत अलकारो वाले, कुछ लिच्छवी लाल है कि ससार की समस्त जातियाँ इन चार ही रगों में वर्ण, लाल वस्त्र और लाल अलकारोवाले और कुछ विभक्त है। रूमी, चीनी और मगोलिया पीली जाति के । लिच्छवी श्वेत वर्ण, श्वेत वस्त्र और श्वेत अलकारोबाले लोग है । अमेरिका के रेड इंडियन भी मंगोलिया वर्ग मे थे। माने जाते है। पीली जाति के लोग पूर्वी एशिया तथा देव जाति के रंगो के साथ मानव जाति के रंगो का पश्चिम और विपुवन् अमेरिका के अधिकांश भाग मे रहते थे । अफ्रिका तथा गर्म प्रदेशो के लोग श्याम रग के होते । साम्य हमे कोई बहुत ही गम्भीर निष्कर्ष पर पहुंचाता है हैं। यूरोप में लाल और श्वेत रग के लोग होते है। और यह सोचने के लिए अवसर देता है कि भगवान की प्राचीन काल मे भी यही मान्यता रही है। वाल्मीकि परिषद में उपस्थित होनेवाले देव यदि धरती से दूर कोई रामायण के अनुमार रावण का ध्वस करने के लिए सुग्रीव भिन्न ही वायुमण्डल मे रहनेवाले होते तो इसी धरती पर ने अपार सेना जमा की थी उसमे सूर्य के समान लाल, निवास करनेवाले और धरती की पाबहवा मे पलनेवाले चन्द्रमा की तरह सफेद, कमल केसर जैसे पीले लोग प्राणियों के रगो से यह समता नहीं होती प्रत लगता है ये देव भी इसी धरती पर रहने वाले प्राणी थे। धरती पर शामिल थे। निष्कर्ष की भाषा यह है कि राम और रावण के युद्ध विभिन्न जातियां फैली हुई थी उनमे से देव जातियां भी मे एक ओर भूमण्डल के पूरे उत्तरी गोलार्ध के श्वेत, थी। उनका शरीर मानव जैसे ही अस्थि. रक्त आदि पीली, और लाल रंग की जातियाँ सम्मिलित थी तो दूसरी परमाणु पो से बना हुआ था। इनकी संस्कृति, इनकी भाषा, इनका रहन-सहन मानवीय जगत् मे कोई निविशेष नही १. तरुणादित्य वर्णेश्च-शशि गौरश्च वानर । था ऐसी सभव कल्पना लगती है। पन केसर वर्णेश्च-वेतै मेरु कृतालय. ॥१३॥ -वा० रा० किष्किन्धा काड मर्ग ३६ २ अगुत्तर निकाय-नि० ५ ब्राह्मण वर्ग पृ० ४२४ सबोध जीवन कितेक ताप सामा तू इतेकु कर, लक्ष कोटि जोर जोर नेकु न अघातु है। चाहतु धरा को धन प्रान सब भरों गेह, यों न जाने जनम सिरानों मोहि जातु है। काल सम क्रूर जहां निशदिन घेरो करें, ताके बीच शशा जीव कोलों ठहरातु है। देखतु हैं नैन निसो जग सब चल्यो जात, तऊ मूढ चेत नाहि लोभ ललचातु है। + + सुनिरे ! सयाने नर, कहा कर घर घर, तेरो जु शरीर घर घरी ज्यों तरतु है। छिन छिन छोजे प्रायु जल जैसे घरी जाय, ताहू को इलाज कछु उरहू परतु है ।। प्रादि जे सहे है ते तो यादि कछु नाहि तोहि अागे कहो कहा गति काहे उछरतु है। घरो एक देखो ख्याल घरी को कहाँ है चाल, घरी घरी धरियाल शोर यों करतु है। -भगवतीदास + Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता नेमिचन्द्र का समय मिलापचन्द्र कटारिया "विद्याभूषण" प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता नेमिचन्द्र है इन्होंने प्रतिष्ठा- इस प्रकार नेमचद्र ने अपनी वशावली तो विस्तृत तिलक में अपने वशका वर्णन इस प्रकार किया है- लिख दी परन्तु वे किस साल सवत में हुये यह लिखने की कृपा नही की। यह गृहस्थ थे, इन्होंने उक्त प्रतिष्ठापथ वीरसेन, जिनसेन, वादी सह और वादिराज इनके वश में हस्तिमल्ल गृहाश्रमी हुये । इन हस्तिमल्ल के कुल पाशाधरकृत प्रतिष्ठाशास्त्र को प्राधार बनाकर लिखा है। में परवादिमल्ल मुनि हये । और भी कई हुये जिन्होंने यद्यपि इन्होंने अाशाघरका कही उल्लेख नहीं किया है किंतु दीक्षा ले जैनमार्ग की प्रभावना की । इसी कुल मे लोकपाल दोनो मे इतना अधिक माम्य है कि उसे देखकर यह नि: द्विज गृहस्थाचार्य हुये जो चोल राजा के साथ अपने बधुवर्ग Tथ अपने बधवर्ग सकोच कहा जा सकता है कि-प्रकरारोपण प्रादि कुछ को लेकर कर्नाट देश मे आये। उनके समयनाथ नाम का विशेष प्रकरणो को छोडकर बाकी सारा का सारा तार्किक पुत्र हया । समयनाथ के आदिमल्ल, आदिमल्लके नेमिचंद्र ने अाशाघर के ग्रथ से ज्यो का त्यो ले लिया है। चितामणि, चितामणि के अनंतवीर्य । अनतवीर्य के पार्श्वनाथ मिर्फ दोनों मे शब्द रचना का ही अन्तर है, प्रायः अर्थ पार्श्वनाथ के आदिनाथ । आदिनाथ के वेदिकोदड । वेदि- इकसार है । दोनो का मिलान करने में यह बात कोई भी कोदड के ब्रह्मदेव । और ब्रह्मदेव के देवेन्द्र नामक पुत्र हुआ जान सकता है अतः उनके उदाहरण देने की मैं जरूरत जो महिताशास्त्रों में निपुण था देवेन्द्र की भार्या का नाम नही समझता। किन्तु आशाधर प्रतिष्टापाठ के कितने ही आदिदेवी था। यह ग्रादिदेवी की विजयपार्य और श्रीमती पद्य तो नेमिचद्र ने ज्यो के त्यो भी लिये है। की पुत्री थी। इस प्रादिदेवी के चद्रपार्य ब्रह्मसूरि और इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि ये नेमिचद्र पागाधर पार्श्वनाथ ये तीन सगे भाई थे। उस दपति (देवेन्द्र-प्रादिदेवी) के बाद हये है। बाद मे होने का दूसरा हेतु यह है किके तीन पुत्र हये-आदिनाथ, नेमिचद्र और विजयम। इन्होने अपने प्रतिष्ठातिलक के मगलाचरण में इद्रनदि आदिनाथ जिन सहिताशास्त्रो का पारगामी हुआ । इसके आदि कृत प्रतिष्ठाशास्त्रों के अनुसार कथन करने की बात त्रैलोक्यनाय, जिनचद्रादि विद्वान पुत्र हुये । और विज- कही है। और इद्र नदि ने अपनी जिनसहिता मे प्राशाधरयम ज्योतिष का पंडित हुआ जिसका समतभद्र पुत्र साहित्य कृत सिद्धभक्तिपाट को उद्धृत किया है। तथा नेमिचद्र ने का विद्वान हुआ। तथा नेमिचंद्र, अभयचद्र उपाध्याय के अपने प्रतिष्ठाग्रंथ के १८वे परिच्छेद में एकसंधिसहिता के पास पढ़कर तर्क व्याकरण का ज्ञाता हुप्रा । नेमिचद्र के भी बहुत से श्लोक उद्धृत किये है। उधर एक सधि भी दो पुत्र हुये-कल्याणनाथ और धर्मशेखर । दोनों ही महा अपनी जिनमहिता के २०वे परिच्छेद मे इन्द्रनदी का उल्लेख विद्वान हुये । नेमिचंद्र ने सत्यशासन परीक्षा मुख्य प्रकर- करते है । इन सब उल्लेखो से यही निश्चित होता है कि णादि शास्त्र रचे । राजसभाओ मे प्रतिवादियो को जीत आगाधर के बाद इन्द्रनदी, इन्द्रनदी के बाद एकसधि और कर जिसने जैनधर्म की प्रभावना की जिसको राजा द्वारा एक सधि के बाद नेमिचद्र हए है। १० आशाधर जी वि० छत्र, चंवर, पालकी भेट मे मिली। और जो स्थिर कदब स-१३०० तक जीवित थे यह निर्धांत है। गिर का रहने वाला है ऐसे नेमिचद्रने अपने मामा ब्रह्मसूरि अयंपार्य अपने बनाये “जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय" नामक आदि बन्धुओं के प्राग्रह से यह प्रतिष्ठातिलक अथ बनाया प्रतिष्ठापाठ को वि० सं० १३७६ में पूर्ण करते हये लिखते है कि-मैंने यह प्रतिष्ठाग्रथ इन्द्रनंदी, पाशाधर, हस्तिमल्ल Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और एक मधि के कथनो का सार लेकर बनाया है। नेमिचन्द्र ने जो वंशावली दी है उसमे वे अपना वशक्रम इन्द्रनदि ने स्वरचित सहिता में एक जगह हस्तिमल्ल १० पीढी पूर्व में होने वाले लोकपाल द्विज से शुरू करते है । का उल्लेख किया। (देखो उसका ३रा परिच्छेद) किन्तु और ब्रह्मसूरि अपनी बंशावली 'अपने से ४ पीढी पूर्व मे जैनसिद्धातभारकर भाग ५ किरण १ मे हस्तिमल्लकृत होने वाले हस्तिमल्ल से शुरू करते हैं । इसका अर्थ यह प्रतिष्ठाविधान की प्रशस्ति छपी है उममे हस्तिमल्ल ने भी हा कि नेमिचंद्र ने हस्तिमल्ल से करीब एक सौ वर्ष पूर्व इन्द्रनदी का उल्लेख किया है। इससे हस्तिमल्ल और इन्द्र- मे अपनी वशावली शरू की है। इस प्रकार यह अन्तर नंदी दोनो ममकालिक सिद्ध होते है । रफा होकर नेमिचन्द्र का समय विक्रम की १५वी सदी का फलितार्थ यह हुआ कि हम्तिमल्ल, इन्द्र नदी और पूर्वाद्धही ठीक रहता है और यही समय ब्रह्मसूरि का भी है एकमधि ये अतिम सब प्राशाधर के समय से लेकर वि० नेमिचन्द्रने प्रशस्ति मे लोकपाल हस्तिमल्ल के कुल सं०१३७६ के मध्य में हुये है। मे हुमा लिखा है। इसका अर्थ यह नहीं समझना कि उक्त प्रतिष्ठातिलक के कर्ता नेमिचन्द्र कब हुए ? अब लोकपाल हस्तिमल्ल के बाद हुआ है। चूकि हस्तिमल्ल हम इस पर विचार करते है । इन नेमिचन्द्र ने जो अपनी एक विख्यात विद्वान हुये थे इसलिए नेमिचंद्र ने हस्तिमल्ल वशावली दी है उसके अनुमार ब्रह्ममरि रिस्ते में इनके के पूर्वज लोकपाल आदि को हस्तिमल्ल के अन्वय में होना मामा लगने थे । नेमिचन्द्र ने हस्तिमल्ल के कुल में होने लिख दिया है। क्योकि जिस वश मे कोई प्रसिद्ध पुरुष वाले कोछपाल द्विज से लेकर अपने पिता देवेन्द्र तक करीब हो जाता है तो उसकी आगे पीछे पीढिये उसी के नाम के ६ पीढी का उल्लेख किया है । इन पीढ़ियों का समय यदि दोसौ वर्ष भी मानलिया जाय तो नेमिचन्द्र का समय विक्रम वन्श से बोली जाया करती है। यहा इतना जरूर समझ की १६वी शताब्दिका पर्वाद्ध बनता है। किन्त नेमिचन्द्रके लेना कि नेमिचंद्र और ब्रह्मसूरि दोनों समान वंश में होते समय में ही उनके मामा ब्रह्ममूरि हए है उन्होंने भी हुये भी जिस सतान परंपरा मे नेमिचद्र हुये है उस सतान प्रतिष्ठाग्रथ बनाया है उसमे वे लिखते है कि परंपरा में न हस्तिमल्ल हुये और न ब्रह्मसूरि ही। अर्थात् नेमिचद्र और ब्रह्मसूरि दोनो के परदादो के परदादे आदि “पाडय देश में गुडिपतन नगर के गजा पाडव नरेन्द्र जुदे-जुदे थे। थे । गोविद भट्ट यही के रहने वाले थे। उनके हस्तिमल्ल "बाबू छोटेलालजी स्मृति प्रथ" मे डा० नेमिचद्र जी को आदि लेकर छह पूत्र थे । हस्तिमल्ल के पुत्र का नाम शास्त्री पारा वालो का "भट्टारकयुगीन जैनमस्कृत साहित्य पार्श्वपडित था । वह अपने बन्धनो के साथ होयसल देश की प्रतियो" नामक लेख प्रकाशित हया है । उसमे लेखक मे जाकर रहने लगा था जिमकी राजधानी छत्रत्रयपुरी थी। नेन मालम इन नेमिचद्रका समय (पृ. ११८) विक्रम पावपडित के चन्द्रप, चन्द्र नाथ, और वैजय्य नामक तीन की१३वी सदी किस प्राधार से लिखा है? आपने कुछ पुत्र थे। उनमें में चद्रनाथ अपने परिवार के साथ हेमाचल और भी ग्रथकारों का समय यद्वा तद्वा लिम्व दिया है। में जा बमा और दो भाई अन्य स्थानों को चले गए। चद्रप । जैसे कि आपने भैरवपद्मावतीकल्प आदि मंत्रशास्त्रो के के पूत्र विजयेन्द्र प्रा और विजयन्द्रक ब्रह्मसुरि।" का मल्लिषण का समय १२वी शती लिखा है। यह नुसार हास्तमल्ल उनके पितामहक बिल्कुल गलत है। इन मल्लिषेण ने महापुराण की रचना पितामह थे । यदि एक एक पीठीके २५-२५ वर्ष गिन लिए वि० सं०-११०४ में पूर्ण की है। अत ये ११वी सदी के जाये तो हास्तमल्ल उनसे लगभग सौ वर्ष पहले के थे। अत व १२वी सदी के प्रारम्भ में हुये है। इसी तरह इससे नेमिचद्र और ब्रह्मसूरि का समय विक्रम की १५वी आपने वाग्भट्टालकार के टीकाकार वादिराज को तोडानगर शताब्दि का पूर्वार्ट सिद्ध होता है । ऊपर हम १६वी शदी के राजा मानसिह का मत्री और उनका समय वि० स०का पूर्वाद्ध बता पाये है । दोनोमे एकसौ वर्षका अन्तर है। १४२६ लिखा है। यह भी ठीक नहीं है । उक्त वादिराज यह अन्तर इस तरह दूर किया जा सकता है कि (शेष पृष्ठ ३२ १र) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटिकों के संदर्भ में अजातशत्र कुणिक अणुव्रत परामर्शक मुनि श्री नगराज श्रेणिक की तरह कुणिक (अजातशत्रु) का भी दोनो महान आजीविका पाता था। उसका कार्य था, महावीर को परम्परागो मे समान स्थान है। दोनो ही परम्पराए उसे प्रति दिन की प्रवृत्ति से उसे अवगत करते रहना। उसके अपना अपना अनुयायी मानती है और इसके लिए दोनो के नीचे अनेको कर्मकर रहते थे । वे भी भाजीविका पाते थे। पास अपने-अपने प्राधार है। बौद्ध परम्परा के अनुसार उनके माध्यम से महावीर के प्रतिदिन के समाचार उस सामञ्जफल मुत्त का सम्पर्क बुद्ध और अजातशत्रु का प्रथम प्रवृत्ति वादुक पुरुष को मिलते और वह उन्हे कुणिक को प्रथम मिलन था। उसी मे वह बुद्ध, धर्म और मघ का बताता'। शरणागत उपासक हुआ'। बुद्ध के प्रति अजातशत्रु को महावीर के चम्पा-आगमन और कुणिक के भक्तिभक्ति का अन्य उदाहरण उनकी अस्थियों पर एक महान्, निदर्शन का विवरण प्रौपपातिक सूत्र में बहुत ही विशद् स्तूप बनवाना है। बुद्ध के भग्नावशेष जब बांटे जाने लगे और प्रेरक है । 'मामजफल सुत्त' की तरह वह भी यदि उस समय अजातशत्रु ने भी कुशीनाग के मल्लो से कह- गवेषको की समीक्षा का विषय बना होता, तो उतना हो लाया-बुद्ध भी क्षत्रिय थे, मै भी क्षत्रिय हूँ। अवशेषो का महत्त्व उसका बनता। स्थिति यह है कि जितनी शोधएक भाग मुझे अवश्य मिलना चाहिए। द्रोण विप्र के खोज अब तक त्रिपिट को पर हई है. उतनी आगमों पर परामर्श पर उसे एक अस्थि-भाग मिला और उस पर उसने नही। यदि ऐमा हवा होता, तो अनेकों महत्त्वपूर्ण विषयो म्तूप बनाया। पर निर्णायक प्रकाश पडता। अजातशत्रु कुणिक के विषय सामजफल सुत्त मे अजातशत्रु कार्तिक पूर्णिमा की में भी जितनी अवगति पागम देते है, उतनी त्रिपिटक गत को ही अपने राजवैद्य जीवक कोमार भत्य से बुद्ध का नहीं। परिचय पाता है और पाँच सौ हाथियो पर पांच मौ महावीर-पागमन का सन्देश रानियो को लिए उसी रात मे बुद्ध का साक्षात् करता है। महावीर और कणिक का यह सम्पर्क चम्पा नगरी में महावीर से उसका प्रथम साक्षात् कब होता है, यह कहना कब हाता है, यह कहना होता है-महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते १४ सहस्र होता_मटा कठिन है। उनके जितने साक्षात् उनसे मिलते है; वे चिर भिक्षु ३६ सहस्र भिक्षुणियो के परिवार से चम्पा नगरी मे : परिचय और अनन्यभक्ति के ही सूचक मिलते है। प्रथम पाये । प्रवृत्ति वादुक पुरुष यह सवाद पा, पानन्दित हुमा, उपाङ्ग प्रौपपातिक प्रागम मुख्यत: महावीर और कुणिक के प्रफुल्लित हुआ। स्नान कर मंगल वस्त्र पहने, अल्प भार सम्बन्धों पर ही प्रकाश डालता है। चम्पानगरी और युक्त तथा बहुत मूल्य युक्त प्राभूषण पहने। घर से कुणिक की राज्य स्थिति का भी वहाँ सुन्दर चित्रण है। निकला। चम्पा नगरी के मध्य होता हुआ भभसार पुत्र कुणिक की महावीर के प्रति रही भक्ति के विषय में वहाँ कुणिक की राजसभा मे पाया, जय-विजय शब्द से वर्धापना बताया गया है-उसके एक प्रवृत्ति वादुक पुरुष था। वह ३ तस्स ण कोणिअस्स रण्णो एक्के पुरिस विउलकय १ एसाह, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्म च भिक्खु वित्तिए भगवो पवित्तिवाउए, भगवो तद्दे वसिम सङ्घ च । उपासक म भगवा धारेतु प्रज्जतग्गे पवित्ति णिवेएइ। तस्स ण पुरिसस्स बहवे अण्णे पाणुपेतं सरणं गतं । पुरिसा दिण्ण-भति-भत्त-वेप्रणा भगवो पवित्ति२ बुद्धचर्या, पृ. ५०६ वाउमा भगवो तद्दे वसिनं पवित्ति निवेदेति । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त की, बोला-"देवानुप्रिया पाप जिनके दर्शन चाहते है, यथारूप स्थान ग्रहण कर संयम और तप से प्रात्मा को जिनके दर्शन आपके लिए पथ्य हैं, जिनके नाम-गोत्र आदि भावित करते हए विचरने लगे। चम्पानगरी के शृगाटकों के श्रवण से ही प्राप हष्ट-तुष्ट होते है, वे श्रमण भगवान् और चतुष्को पर सर्वत्र यही चर्चा थी-"श्रमण भगवान् महावीर ग्रामानग्राम विचरते हुए क्रमश: चम्पा नगरी के महावीर यहां पाये है, पूर्ण भद्र चैत्य में ठहरे है। उनके उपनगर मे पाये है और चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य में नाम-गोत्र के श्रवण से ही महाफल होता है। उनके साक्षात् मानेवाले है । यह सम्बाद आपके लिए प्रिय हो।" दर्शन की तो बात ही क्या देवानुप्रियो ! चलो, हम सब भभसार पुत्र कुणिक उस प्रवृत्ति-निवेदक से यह सवाद भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करे। वह हमारे इस सुनकर अत्यन्त हर्षित हुआ। उसके नेत्र और मुख विकसित लोक और परलोक के लिए हितकर और सुखकर होगा।" हो गए। वह शीघ्रता से राज-सिंहासन छोड़कर उठा, तदन्नतर लोगोने स्नान किया, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित पादुकाएँ खोली । पाचो राजचिन्ह दूर किये। एक साटिक हुए तथा मालाए धारण की। कुछ घोडो पर, कुछ हाथियो उत्तरासग किया। अजलिबद्ध होकर सात-पाठ कदम महा- पर व कुछ शिविकायो में प्रारूढ होकर तथा अनेक जनवृन्द वीर की दिशा मे मागे गया। बाये पैर को सचित पैदल ही भगवान् महावीर के दर्शनार्थ चले। किया । दाये पैर को सकोच कर धरती पर रखा । मस्तक प्रवृत्तिवादुक पुरुप ने कुणिक को यह हर्ष-सवाद को तीन बार धरती-तल पर लगाया। फिर थोडा-सा ऊपर सुनाया। राजा ने साढ़े बारह लाख · रजत मुद्राओ का उठकर हाथ जोडे । अजलि को मस्तक पर लगाकर 'नमो- 'प्रीति-दान' किया । तब भभसार पुत्र कुणिकने बलव्याप्त त्थुण' से अभिवादन करते हुए बोला-"श्रमण भगवान् पुरुष (सेनाधिकारी) को बुलाया और कहा-"हस्तिरत्न महावीर जी आदिकर है, तीर्थकर है यावत् सिद्ध गति का सजाकर तयार करा। चतुरागना सना के अभिलाषुक है। मेरे धर्मोपदेशक और धर्माचार्य है, सुभद्रा आदि रानियों के लिए रथोको तैयार करो । चम्पाउन्हे मेरा नमस्कार हो। यहाँ से में तत्रस्थ भगवान का नगरी का बाहर और भीतर से स्वच्छ करो। गलियो और वन्दन करता हूँ। भगवान् वही से मुझे देखते है।" राजमार्गों को सजाओ। दर्शकों के लिए स्थान स्थान पर इस प्रकार वन्दन नमस्कार कर राजा पुन. सिहासना मच तैयार करो। में भगवान महावीर की अभिवन्दना के लिए जाऊगा।" रूढ हुआ। उसने प्रवृत्ति वादुक पुरुष को एक लक्ष अष्ठ सहस्र रजत मुद्रामो का 'प्रीतिदान' दिया और कहा राजा के प्रादेशानुसार सब तैयारियां हुई । राजा हस्तिरत्न हाथी पर सवार हुआ। सुभद्रा प्रभृति रानियाँ "भगवान् महावीर जब चम्पा के पूर्ण भद्र चैत्य मे पधारे, रथो पर सवार हुई । इस प्रकार चतुरगिनी सेना के महान् तब मुझे पुनः सूचना देना।" वैभव के साथ राजा भगवान् महावीर के दर्शनाथं चला । महावीर का चम्पा-प्रागमन ३ मूल प्रकरण में 'रजत' शब्द नही है, पर परम्परा से सहस्र किरणों से मुशोभित सूर्य आकाश में उदित ऐसा माना जाता है कि चक्रवर्तिका, प्रीतिदान साड़े हुआ। प्रभात के उस मनोरम वातावरण में भगवान् महा बारह कोटि स्वर्ण-मुद्रामो का होता है । वासुदेव का वीर जहाँ चम्पानगरी थी, पूर्णभद्र चंत्य था, वहाँ पधारे। प्रीतिदान साढ़े बारह कोटि रजत-मुद्राओं का होता १ खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानत् और चामर । है तथा माडलिक राजामो का प्रीतिदान साढ़े बारह २ णमोत्थुण समणस्स भगवग्रो महावीरस्स आदिगरस्स लक्ष रजत-मुद्रामो का होता है। तित्थगरस्स' "जाब सपाविउ कामस्स मम धम्माय -उववाई (हिन्दी अनुवाद), पृ० १३३ रियम्स धम्मोवदेसगस्स। ४ कुणिक राजा के वैभव, आडम्बर और अभियानवदामि ण भगवत तत्थगय इह गए, पासइ मे (मे से) व्यवस्था के विस्तृत वर्णन के लिए द्रष्टव्य प्रौपभगवं तत्थगए इहगय;-ति कटु वदह णमसइ ? पातिक सूत्र । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और त्रिपिटकों के संदर्भ में प्रजातशत्रु कुणिक चम्पा नगरी के मध्य भाग से होता हुआ पूर्णभद्र चैत्य के कह सके । इससे अधिक की तो बात ही क्या?" यह कह समीप आया। श्रमण भगवान् महाबोर के छत्र आदि कर गजा जिम दिशा से आया था, उस दिशा से वापिस तीर्थकर अतिशय दूर मे देखे । वही उसने हस्तिरत्न छोड गया। दिया। पाचों राज-चिन्ह छोड दिये । वहाँ से वह भगवान जैन या बौद्ध? महावीर के सम्मुख पाया। पच अभिगमन कर भगवान् सामजफल सुत्त और इस प्रौपपातिक प्रकरण को महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर तुलना की दृष्टि से देखा जाये तो प्रोपपातिक-प्रकरण बहुत मानसिकी, वाचिकी और कायिक उपासना करने लगा। गहरा पड जाता है। सामञ्जफल सुत्त में अजातशत्र के महावीर का उपदेश : श्रवण बद्धानयायी होने में केवल यही पक्ति प्रमाणभूत है, कि भगवान महावीर ने उपस्थित परिषद को अर्धमागधी "अाज से भगवान् मुझे अजलिबद्ध शरणागत उपासक भाषा मे देशना दी, जिसमें बताया- "लोक है, प्रलोक । समझे।' प्रौपपातिक-प्रकरण मे प्रवृत्ति वादुक पुरुष की है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, नियुक्ति, सिंहासन से अभ्युत्थान और णमोत्थुण से अभिप्राथव, सवर, वेदना, निर्जरा आदि है। प्राणातिपात, वन्दन, भक्तिसूचक साक्षात्कार, आदि उसके महावीरामृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, नयायी होने के ज्वलन्त प्रमाण है। इन शब्दों से किलोभ आदि है। प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद,विरमण, "जैसा धर्म अापने कहा, वैसा कोई भी श्रमण या ब्राह्मण अदत्तादान-विरमण, मथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण,... कहने वाला नही है", उसकी निर्ग्रन्थ धर्म के प्रति पूर्ण यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक है। सभी अस्तिभाव अस्ति आस्था व्यक्त होती है । लगता है, बुद्ध के प्रति अजातशत्र में है, सभी नास्ति-भाव नास्ति मे है। सुचीर्ण कर्म का का समर्पण मात्र औपचारिक था। मूलतः वह बुद्ध का सुचीर्ण फल होता है, दुश्चीर्ण कर्म का दुश्चीणं फल होता अनुयायी बना हो, ऐसा प्रतीत नही होता। है। जीव पृण्य-पाप का स्पर्श करते है। जीव जन्म-मरण बुद्ध से जहाँ उसने एक ही बार साक्षात् किया', महाकरते है। पुण्य और पाप सफल है । "धर्म दो प्रकार का वीर से अनेक बार साक्षात् करता ही रहा है। यहां तक है- अगार धर्म और अनगार धर्म । अनगार धर्म का कि महावीर-निर्वाण के पश्चात् महावीर के उत्तराधिकारी तात्पर्य है--सर्वतः सर्वात्मना मुण्ड होकर गहावस्था से सुधर्मा की धर्म-परिषद् मे भी वह उपस्थित होता है। अगृहावस्था मे चले नाना। अर्थात् प्राणातिपात आदि से डा० स्मिथ का कहना है-बौद्ध और जैन दोनों ही सर्वथा विरमण । अगार धर्म बारह प्रकार का है-पाच, अजातशत्रु को अपना-अपना अनुयायी होने का दावा करते अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत'।" है, पर लगता है, जैनों का दावा अधिक प्राधार-युक्त है। श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रमण कर परिषद् - २ णत्थि ण अण्णे केइ समणे वा माहणेवा जे एरिस धम्म उठी। भंभसार पुत्र कुणिक भी उठा। वन्दन-नमस्कार माइक्खित्तए । किमग पुण एत्तो उत्तरतर ? कर बोला--- "भन्ते ! आपका निर्ग्रन्थ प्रवचन सु-आख्यात ३ प्रौपपातिक सूत्र के आधार से । है, सुप्रज्ञप्त है, सुभाषित है' सुविनीत है, सुभावित है, ४ Buddhist India, p. 88. अनुत्तर है, आप ने धर्म को कहते हुए उपशम को कहा, ५ स्थानाग वृत्ति, स्था० ४, उ० ३ उपशम को कहते हुए विवेक को कहा, विवेक को कहते हुए ६ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ४, श्लोक १५-५४ विरमण को कहा, विरमण को करते हए पाप कर्मों के Both Buddhists and Jains claimed him as प्रकरण को कहा। one of them serves. The Jain claim app. "अन्य कोई श्रमण या ब्राह्मण नही है, जो ऐसा धर्म ears to be well founded. १ विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य, उपासकदसांग सूत्र --Oxford History of India, by V. A. प्र०१ Smith, Second Edition, Oxford,1923p.51. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अनेकान्त #. राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार भी महावीर और बुद्ध कर रहे थे, शिशु अजातशत्रु बिम्बसार की गोद मे था। की वर्तमानता मे तो अजातशत्रु महावीर का ही अनुयायी बिम्बसार का ध्यान बुद्ध के उपदेश में न लगकर, पुनःथा। उन्होने यह भी लिखा है कि जैसा प्राय. देखा जाता पुनः अजातशत्रु के दुलार मे लग रहा था। बुद्ध ने तब है, जैन अजातशत्रु और उदायिभद्द दोनो को अच्छे चरित्र राजा का ध्यान अपनी ओर खीचा । एक कथा सुनाई, का बतलाते है; क्योकि दोनो जनधर्म को माननेवाले थे। जिसका हार्द था-तुम इसके मोह मे इतने बँधे हो, यही यही अजातशत्र का समर्पण मात्र पोपचारिक था। मूलत तम्हारा घातक होगा। वह बौद्ध का अनुयायी बना हो, ऐसा प्रतीत नही होता। वज्जियो को विजय के लिए अजातशत्रु ने अपने मंत्री अजातशत्रु के बुद्धानुयायी न होने में और भी अनेकों वस्सकार को बुद्ध के पास भेजा। विजय का रहस्य पाने के निमित्त है -देवदत्त के साथ घनिष्ठता, जबकि देवदत्त लिए सचमुच वह एक षडयन्त्र ही था। अजातशत्रु बुद्ध बुद्ध का विद्रोही शिष्य था, वज्जियो से शत्रता, जबकि का अनुयायी होता, तो इस प्रकार का छद्म कैसे खेलता । वज्जि बुद्ध के अत्यन्त कृपा-पात्र थे; प्रसेनजित् से युद्ध, जब कि प्रसेनजित् बुद्ध का परम भक्त एव अनुयायी था। कहा जाता है, मौद्गल्यायन के वधक ५०० निगठों बौद्ध-परम्परा उसे पितृ-हतक के रूप में देखती है, का वध अजातशत्रु ने करवाया। इससे उसकी बौद्ध धर्म जब कि जैन परम्परा अपने कृत्य के प्रति अनुताप कर लेने के प्रति दृढता व्यक्त होती है, पर यह उल्लेख अट्टकथा पर उसे अपने पिता का विनीत कह देती है। ये समुल्लेख का है, अत एक किवदन्ती मात्र से अधिक इमका कोई भी दोनों परम्पराग्रो के क्रमश. दूरत्व और सामीप्य के महत्त्व प्रतीत नहीं होता। सूचक है। __ अट्टकथाप्रो के और भी कुछ उल्लेख है । जैसे-बुद्ध ___अजातशत्रु के प्रति बुद्ध के मन में अनादर का भाव की मृत्यु का सवाद अजातशत्रु को कौन सुनाये, कैसे था, वह इस बात से भी प्रतीत होता है कि श्रामण्य-फल सुनाये--अमात्यवर्ग में यह प्रश्न उठा । सबने सोचाको चर्चा के पश्चात् अजातशत्रु के चले जाने पर बद्ध राजा के हृदय पर आघात न लगे, इस प्रकार से यह भिक्षुग्री को सम्बोधित कर कहते है ---"इम राजा का सम्बाद सुनाया जाय । मत्रियो ने दुःस्वप्न-फल के निवारण सस्कार अच्छा नहीं रहा । यह राजा प्रभागा है । यदि यह का बहाना कर 'चतु-मधुर' स्नान की व्यवस्था की। उस राजा अपने घमंराज पिता की हत्या न करता तो ग्राज आनन्दप्रद वातावरण मे उन्होने बुद्ध के निर्वाण का सम्वाद इसे इसी आसन पर बैठे बैठे विरज, निर्मल, धर्म-चक्षु अजातशत्रु को मुनाया । फिर भी सम्वाद सुनते ही अजातउत्पन्न हो जाता।" देवदत्त के प्रसग मे भी बुद्ध ने शत्रु मूच्छित हो गया। दो बार पुन: "चतु-मधुर" स्नान कहा-भिक्षुया! मगधराज अजातशत्रु, जो भी पाप है, कराया गया। तब उसकी मूर्छा टूटी और उसने गहरा उनके मित्र है, उनसे प्रेम करते है और उनसे ससर्ग दुःख व्यक्त किया । एक परम्परा यह भी कहती हैरखते हैं। मन्त्री वस्सकार ने जन्म से निर्वाण तक बुद्ध की चित्रावलि एक बार बुद्ध राजप्रासाद में बिम्बसार को धर्मोपदेश दिखा कर अजातशत्रु को बुद्ध की मृत्यु से ज्ञापित किया। इस घटना से बुद्ध के प्रति रही प्रजातशत्रु की भक्ति का १ हिन्दू सभ्यता पृ० १६०-१ दिग्दर्शन मिलता है। बहुत उत्तरकालिक होने से यह कोई , पृ० २६४ प्रमाणभूत आधार नही बनती। २ दीघ निकाय, सामञ्जफल सुत्त ३ प्रौपपातिक सूत्र, (हिन्दी अनुवाद), १०२६; सेन- ६ जातकट्टकथा, थुस जातक, सं० ३३८ प्रश्न, तृतीय उल्लास, प्रश्न २३७ ७ धम्मपद अट्टकथा, १०-७ ४ दीघनिकाय, श्रामण्यफल सुत्त ८ घम्मपद अट्टकथा, २, ६०५-६ ५ विनय पिटक, चुल्लबग्ग, सघभेदक खन्धक, ७ & Encyclopaedia of Buddhism, p. 320 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और त्रिपिटकों के संदर्भ में प्रजातशत्रु कुणिक २९ देवदत्त के शिष्य मिण्डिका-पुत्र उपक ने बुद्ध से चर्चा बुद्ध के अथवा बौद्ध संघ के अन्य किसी भिक्षु के ती की; प्रजातशत्रु के पास प्राया और बुद्ध की गर्दा करने कभी दर्शन किये और न उनके साथ धर्म-चर्चा ही की। लगा । पर अजातशत्रु क्रोधित हुआ और उसे चले जाने के और न मेरे ध्यान में यह भी प्राता है कि उसने बुद्ध के लिए कहा। अट्टकथाकार' ने इतना और जोड दिया है जीवन-काल मे भिक्षु-संघ को कभी आर्थिक सहयोग भी कि अजातशत्रु ने अपने कर्मकगे से उसे गलहत्था देकर दिया हो । निकलवाया । इस प्रसंग से भी अजातशत्रु का अनुयायित्व "इतना तो अवश्य मिलता है कि बुद्ध निर्वाण के सिद्ध नहीं होता। अशिष्टता से चर्चा करनेवालो को तथा पश्चात् उसने बुद्ध की अस्थियो की मांग की, पर वह भी मुखर गर्दा करनेवालो को हर बुद्धिमान् व्यक्ति टोकता ही यह कह कर कि 'मैं भी बुद्ध की तरह एक क्षत्रिय ही हूँ है। यदि उपक अजातशत्रु को बुद्ध का दृढ अनुयायी मानता, और उन अस्थियो पर उसने फिर एक स्तूप बनवाया । तो अपनी बीती मुनाने वहां जाता ही क्यो ? अपने गुरु दूसरी बात- उत्तरवर्ती ग्रन्थ यह बताते है कि बुद्ध-निर्वाण देवदत्त का हितैषी समझ कर ही उसने ऐसा किया होगा। के तत्काल बाद हो जब राजगृह मे प्रथम संगीति हुई, तब उत्तरवर्ती साहित्य में कुछ प्रमग से भी मिलते है. अजातशत्रु ने सप्तपणी गुफा के द्वार पर एक सभा-भवन जो बौद्ध धर्म के प्रति प्रजातनत्र का विद्वेष व्यक्त करते बनवाया था, जहाँ बौद्ध पिटको का संकलन हमा, पर इस है । अवदानशतक के अनुसार राजा बिम्बिसार ने बुद्ध की बात का बौद्ध धर्म के प्राचीनतम और मौलिक शास्त्रों में वर्तमानता मे ही बुद्ध के नख और केशो पर एक स्तूप लेशमात्र भी उल्लेख नहीं है। इस प्रकार बहुत सम्भव है अपने राजमहलो में बनवाया था। राजमहल की स्त्रियाँ कि उसन बाब धम का बिना स्वाकार किये ही उसके प्रति धूप, दीप और फलों से उसकी पूजा किया करती थी। सहानुभूति दिखाई हो। यह सब उसने कंवल भारतीय अजातशत्र ने सिहासनारूढ़ होते ही पूजा बन्द करने का राजाग्रा की उस प्राचीन परम्परा के अनुसार ही किया हो प्रादेश दिया । श्रीमती नामक स्त्री ने फिर भी पूजा की तो कि सब धमों का सरक्षण राजा का कर्तव्य होता है" उसे मृत्यु-दण्ड दिया । थेरगाथा-पटकथा के अनुसार माता का दोहद अजातशत्रु ने अपने अनुज सीलवत् भिक्षु को मरवाने का कुणिक के जन्म और पितृ-द्रोह का वर्णन दोनों ही भी प्रयल किया। उक्त उदाहरण अजातशत्रु को बौद्ध परम्परागो में बहुत कुछ समान रूप से मिलता है। जैन धर्म का अनुयायी सिद्ध न कर प्रत्युत विगंधी सिद्ध करते पागम निरयावलिका और बौद्ध शास्त्र दीघनिकाय-प्रकथा है; पर इनका भी कोई आधारभून महत्व नहीं है। मे एतद्विपयक वर्णन मिलता है। दोनो ही परम्परामो के बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ राईस डेविड्स भी स्पष्टत. अनुमार इसके पिता का नाम थेणिक (बिम्बिसार) है। लिखते है-"बातचीत के अन्त में अजातशत्रु ने बुद्ध को माता का नाम जैन परपरा के अनुमार चेल्लणा तथा बौद्ध स्पष्टतया अपना मार्गदर्शक स्वीकार किया और पित-हत्या परम्परा के अनुसार कोसलदेवी था। माता ने गर्भाधान का पश्चाताप व्यक्त किया। किन्तु यह असदिग्धतया व्यक्त के अवसर पर सिंह का स्वप्न देखा। बौद्ध परम्परा मे किया गया है कि उसका धर्म-परिवर्तन नही किया गया। ऐसा उल्लेख नहीं है। गर्भावस्था में माता को दोहद उत्पन्न इस विषय में एक भी प्रमाण नही है कि उस हृदयस्पर्शी हुमा । जैन परम्परा के अनुसार दोहद था-राजा श्रेणिक प्रसंग के पश्चात भी वह बुद्ध की मान्यतापो का अनुसरण के कलेजे का मांस तल कर, भूनकर मैं खाऊ और मद्य करता हो। जहाँ तक मै जान पाया है, उसके बाद उसने पीऊ । बौद्ध परम्परा के अनुसार दोहद था-राजा १ अंगुत्तर निकाल, ४-८-१८८ श्रेणिक की बाहु का रक्त पीऊ। दोनो ही परम्परागों के २ Encyclopaedia of Buddhism, p. 319 अनुसार राजा ने दोहद की पूर्ति की। जैन परम्परा के ३ अवदानशतक, ५४ अनुसार अभयकुमार ने ऐसा छद्म रचा कि राजा के कलेजे ४ थेरगाथा-पटकथा, गाथा ६०६-१६ ___३ Buddhist India, pp. 15-16 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का मास भी न काटना पडे मोर रानी को यह अनुभव पिता का वध होता रहे कि राजा के कलेजे का मास काटा जा रहा है जैन परम्परा के अनुसार कुणिक किसी एक पर्व-दिन और मझे दिया जा रहा है । बौद्ध परम्परा के अनुमार पर अपनी माता चल्लणा के पास पाद-वन्दन करने के लिए वैद्य के द्वारा बाहु का रक्त निकलवा कर दोहद की पूर्ति गया। माता ने उसका पाद वन्दन स्वीकार नही किया। की। दोहद-पूर्ति के पश्चात् रानी इस घटना-प्रसग से कारण पूछने पर माता ने श्रेणिक के पुत्र-प्रेम की घटना दु.खित होती है और गर्भस्थ बालक को ही नष्ट-भ्रष्ट सुनाई और उसे उस दुष्कृत्य के लिए धिक्कारा। कुणिक करने का प्रयत्न करती है। बौद्ध परम्परा के अनुसार वह के मन में भी पितृ-प्रेम जागा। अपनी भूल पर अनुताप ऐसा इसलिए करती है कि ज्योतिषी उसे कह देत है हा । तत्काल उसने निगड काटने के लिए परशु हाथ मे यह पितृ-हतक होगा। जैन परम्परा के अनुसार वह स्वय मे उठाया और पित-मोचन के लिए चल पडा । श्रेणिक ने ही सोच लेती है कि जिसने गर्भस्थ ही पिता के कलंजे का मोचा- यह मुझे मारने के लिए ही पा रहा है। अच्छा मास मागा है, न जाने जन्म लेकर वह क्या करेगा? हो, अपने आप में प्राणान्त कर लू। तत्काल उसने तालपूट श्रेणिक का पुत्र-प्रेम विष खाया और अपना प्राण-वियोजन किया। जन्म के अनन्तर जैन परम्परा के अनुसार चल्लणा बौद्ध परम्परा में बताया गया है कि धूम-गृह में उसे अवकर पर डलवा देती है। वहाँ कोई कुर्कुट उसकी कोशल-देवी के सिवाय अन्य किसी को जाने का आदेश कनिष्ठ अगुली काट लेता है। अगुली से रक्तश्राव हाने नही था। अजातशत्रु गजा को भूखा रखकर मारना लगता है। राजा श्रेणिक इस घटना का पता चलते ही चाहता था, क्योकि देवदत्त ने कहा था-पिता शस्त्र-वध्य पुत्र-मोह से व्याकुल होकर वहा आता है, उसे उठा कर नही होता; अत उसे भूखा रख कर ही मारे । कोशलरानी के पास ले जाता है और रक्त व मवाद चुस-वस देवी मिलने के बहाने उत्मग में भोजन छिपाकर ले जाती कर बालक की अगुली को ठीक करता है। बौद्ध परम्परा और राजा को देती। अजातशत्र को पता चला तो उसने के अनुसार जन्मते ही राजा के कर्मकर बालक को वहा स कर्मकरी को कहा-मेरी माता का उत्सग बाध कर मत हटा लत है, इस भय से कि रानी कही इसे मरवा न डाल । जाने दो। तब वह जूडे मे छिपा कर ऐसा करने लगी। कालान्तर से वे उसे रानी को सौंपते है। तब पुत्र-प्रेम से उसका भी निषेध हुआ, तब वह स्वर्ण-पादुका मे छिपा कर रानी भी उसमे अनुरक्त हो जाती है। एक बार अजात ऐसा करने लगी। उसका भी निगंध होने पर रानी गन्धोशत्र की अगुली में एक फोडा हो गया । व्याकुलता से रोते बालक को कर्मकर राजसभा मे राजा के पास ले गए। दक से स्नान कर अपने शरीर पर चार मध का पावले । पोडा फट गया। कर राजा के पास जाती। राजा उसके शरीर को चाटपुत्र-प्रेम से राजा ने वह रक्त और मवाद उगला नही, चाट कर कुछ दिन जीवित रहा। अन्त मे अजातशत्र ने माता को धूम-गृह में जाने से रोक दिया। अब राजा प्रत्युत निगल गया। श्रोतापत्ति के सुख पर जीने लगा। पिता को कारावास पितृ-द्रोह के सम्बन्ध से जैन परम्परा कहती है, कुणिक अजातशत्रु ने जब यह देखा कि राजा मर ही नही के मन मे महत्वाकाक्षा उदित हुई, और अन्य भाइयो को रहा है, तब उसने नापित को बुलाया और आदेश दिया अपने साथ मिला कर स्वय राज्य सिंहासन पर बैठा तथा -"मेरे पिता राजा के पैरो को शस्त्र से चीर कर उनपर निगड़-बन्धन कर श्रेणिक को कारावास मे डलवा दिया। नून और तेल का लेप करो और खैर के प्रगारो से उन्हे बौद्ध परम्परा के अनुसार अजातशत्रु देवदत्त की पकायो। नापित ने वैसा ही किया और राजा मर गया। प्रेरणा से महत्त्वाकांक्षी बना और उसने अपने पिता को अनुताप घूम-गृह (लोह-कर्म करने का घर) मे डलवा दिया। श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् कुणिक का अनुतापित Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम और त्रिपिटकों के संदर्भ में प्रजातशत्रु कुणिक होना दोनो ही परम्पगए बताती है। जैन परम्परा के रचना-काल विक्रम संवत् के पूर्व का माना जाता है तथा अनुसार तो माता से पुत्र-प्रेम की बात सुन कर पिता की अट्टकथापो का रचना-काल विक्रम संवत् की पांचवी मृत्यु से पूर्व ही कुणिक को अनुताप हुआ था। राजा की शताब्दी का है। यह भी एक भिन्नता का कारण है। प्रात्म-हत्या के पश्चात् तो वह परशू से छिन्न चम्पक-वृक्ष जिस-जिस परम्परा में अनुश्रुतियो से कथा-वस्तु का जो भी की तरह भुमितल पर गिर पड़ा। मुहूर्तानर से सचेत रूपक आ रहा था, वह शताब्दियो बाद व शताब्दियों के हया। फट-फट कर रोया और कहने लगा ग्रहो । मैं अन्तर से लिखा गया । कितना अधन्य हूँ, कितना अपुण्य है, कितना प्रकृतपुण्य वध-सम्बन्धी समुल्लेखों से यह तो अवश्य व्यक्त होता हूँ, कितना दुष्कृत हूँ। मैने अपने देवतुल्य पिता को निगड- है कि बौद्ध परम्परा अजातशत्रु की क्रूरता सुस्पष्ट कर बन्धन में डाला । मेरे ही निमित्त से श्रेणिक राजा कालगत देना चाहती है, जब कि जैन परम्परा उसे मध्यम स्थिति हुआ। इस शोक से अभिभूत होकर वह कुछ ही समय में रखना चाहती है। बौद्ध परम्परा मे पैरो को चिरवाने, पश्चात गजगृह छोड़ कर चम्पानगरी में निवास करने उनमें नमक भरवाने और अग्नि से तपाने का उल्ले लगा । उसे ही मगध की राजधानी बना दिया। बहुत ही अमानवीय-सा लगता है । जैन परम्परा मे श्रेणिक को केवल कारावास मिलता है। भूखो मारने आदि की बौद्ध परम्परा के अनुसार--जिस दिन बिवसार की यातनाए वहाँ नही है ! मृत्यु भी उसकी 'आत्महत्या के रूप मृत्यु हुई, उसी दिन अजातशत्र के पुत्र उत्पन्न हुआ। मे होती है । जब कि बौद्ध परम्परा के अनुसार अजातशत्र सवादबाहको ने पुत्र-जन्म का लिखित सवाद अजातशत्र के हाथ में दिया। पुत्र-प्रम से राजा हप-विभोर हो उठा। स्वय पितृ-वधक होता है। इस सब का हेतु भी यही हो सकता है कि कुणिक जैन परम्परा का अनुयायी विशेष था। अस्थि और मज्जा तक पुत्र-प्रेम में परिणत हो गया। उसके मन मे आया, जब मैने जन्म लिया, तब राजा मातृ-परिचय श्रेणिक को भी इतना ही तो प्रेम हा होगा। तत्क्षण दोनो परम्पगमो में कुणिक की माता का नाम भिन्नउसने कर्मकगे को कहा-- 'मेरे पिता को बन्धन-मुक्त भिन्न है। जातक के अनमार कोशल-देवी कोशल देश के करो।" सवाद-वाहको ने विम्बिसार की मृत्यु का पत्र भी राजा महाकोशल की पुत्री थी अर्थात् कोशल-नरेश प्रसेनराजा के हाथो में दे दिया। पिताकी मृत्य का सम्वाद पढ़ते जित् की बहिन थी'। विवाह-प्रसग पर काशी देश का हो वह चीख उठा और दौड कर माता के पास प्राया। एक ग्राम उसे दहेज में दिया गया था । बिम्बिसार के वध माना से पूछा- "मेरे प्रति मेरे पिता का स्नेह था !" से प्रसेनजित् ने वह ग्राम वापिस ले लिया। लडाई हुई, माता ने वह अगुली चसने की बात अजातशत्रु को बनाई। एक वार हारने के पश्चात् प्रसेनजित् की विजय हुई। तब वह और भी शोक विह्वल हो उठा और अपने किए भानेज समझ कर उसने अजातशत्रु को जीवित छोड़ा, हुए पर अनुताप करने लगा। सन्धि की नथा अपनी पुत्री बजिरा का उसके साथ विवाह किया । बही गाँव पुनः उमे कन्या-दान में दे दिया। समीक्षा मयत्त-निकाय के इस वर्णन मे अजातशत्रु को प्रसेनजित् दोहद, अंगुली-ब्रण, कारावास आदि घटना-प्रसगो के १५० दलसुख मालवणिया, प्रागम-युग का जैन-दर्शन, बाह्य निमित्त कुछ भिन्न है, पर घटना-प्रसंग हार्द को दृष्टि सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६६ पृ० २६ से दोनों परम्परामो में समाम है। एक ही कथा-वस्तु का २ द्रष्टव्य, भिक्षु धर्म रक्षित, प्राचार्य बुद्धघोष, महाबोधि दो परम्परागो में इतना-सा भेद अस्वाभाविक नहीं है। सभा, सारनाथ, वागणसी, १९५६ पृ० ७ प्रत्येक बड़ी घटना अपने वर्तमान मे ही नाना रूपो मे प्रच- ३ Jataka Ed. by Fausball, Vol. III, p. 121 लित हो जाया करती है। संभवत: निरयावलिका पागमका ४ जातक अट्टकथा, स० २४६, २८३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अनेकान्त का भानेज भी कहा है और 'वैदेहीपुत्त' भी कहा है। इन बहिन थी। वे वैशाली के राजा चेटक की कन्याए थी। दोनों नामो में कोई सगति नही है। बुद्धघोष ने यहाँ भगवान महावीर की माता त्रिशला राजा चेटक की बहिन वैदेही' का अर्थ 'विदेह' देशकी राज-कन्या न कर 'पंडिता' थी। अत 'विबेह-दिन्न' या 'विदेहपत्त' प्रादि विशेषण किया है। यथार्थता यह है कि जैन परम्परा मे कथित बहुत ही सहज और बुद्धिगम्य है। जैन प्रागमो में भी तो चेल्लणा वैशाली गणतन्त्र के प्रमुख चेटक की कन्या होने कणिक को 'विदेहप्रत्त' कहा गया है। राईस डेविड्स के से 'वैदेही थी। प्रसेनजित् की बहिन कोशल-देवी प्रजात- मतानुसार भी बिम्बिसार के दो रानियां थी--एक प्रसेनशत्र की कोई एक विमाता हो सकती है । तिब्बती परम्परा' जित् की बहिन कोशल-देवी नथा दूसरी विदेह-कन्या, और तथा प्रमितावान सूत्र के अनुसार अजातशत्रु की माता अजातशत्रु विदेह कन्या का पुत्र था। का नाम "वैदेही वासवी" था और उसका वैदेही होने का राजा विम्बसार जब धूम्र गृह मे था, परिचारिका रानी कारण भी यही माना गया है कि वह विदेह-देश की गज कोशला थी, यह अट्टकथा बताती है । एन्सायक्लोपीडिया कन्या थी। 'विदेह' शब्द का प्रयोग तथारूप से अन्यत्र भी प्राफ बुद्धिज्म मे परिचारिका गणी का नाम खेमा बताया बहलता से मिलता है । भगवान् महावीर को 'विदेह विदेह गया है और उसे कोशल देश की राजकन्या भी कहा है। दिन्ने विदेहजच्चे' कहा गया है। महावीर स्वय विदेह देश पर यह स्पष्टत भूल ही प्रतीत होती है। खेमा वस्तुत में उत्पन्न हए थे, इसलिए 'वैदेह'; उनकी माता भी विदेह मद्र देश की थी5a | लगता है, कोशल-देवी के बदले खेमा देश में उत्पन्न थी; इसलिए 'विदेहदत्तात्मज'; और विदेही का नाम दे दिया गया है। अमितायुान सूत्र तबा तिब्बती मे श्रेष्ठ थे, इसलिए 'विदेहजात्य' कहे गये हैं। परम्परा के अनुसार परिचारिका रानी का नाम 'वैदेही महाकवि भास ने अपने नाटक स्वप्नवासवदत्ता में वामवी' था और वह वैशाली के सिहसेनापति की पुत्री थी। डा० राधाकुमुद मुखर्जी कहते है ---"वैदेही वामवी राजा उदायन को 'विदेह-पुत्र' कहा है; क्योकि उसकी की पहिचान चेल्लणा में की जा सकती है।" बौद्ध परमाता विदेह-देश की राज-कन्या थी। जैन परम्परा के अनुसार चेल्लणा और उदयन की माता मृगावती मगी म्परा की इस विविधतानो में भी इसमे परे की बात नही निकलती कि अजातशत्रु विदेह-राज कन्या का पुत्र था और इसीलिए वह 'वैदेहीपुत्त' कहलाता था। न जाने १ संयुत्त निकाय ३-२-४ प्राचार्य बद्धघोष के क्यो यह भ्रम रहा कि 'बदेही' नाम २ घेदेही पुत्तो ति वेदेहीति पण्डिताधिवचन एत , पण्डि 'पडिता' का है और अजात-शत्रु कोशल-देश की राज-कन्या तित्थिया पुत्तो ति अत्थो।। कोशला का पुत्र था। (क्रमशः) -सयुत्त निकाय अट्टकथा, १, १२० १ आवश्यक णि, भाग २, पत्र १६४ ३ Rockhill, Life of Buddha, p. 63 २ आवश्यक चूणि, भाग १, पत्र २४५ ४ S.BE. Vol. XLIX, p. 166 ३ भगवती सूत्र, शतक ७ उद्देशक ६, पृ० ५७६ ५ Rackhill, Life of Buddha, p. 53 ४ Buddhist India, p. 3 ६ कल्प सूत्र, ११० ५ Encyclopaedia of Buddhism, p. 316 ७S.B.E. Vol. XXII, P. 256, वसंतकुमार चट्टो- ६ थेरी, गाथा अट्टकथा, १३६-१४३ पाध्याय, कल्पसूत्र (बगला अनुवाद), पृ२७ ७ Rackhill, Life of Buddha, p. 63 ८ हिन्दू-सभ्यता, पृ० १६८ ८ हिन्दू सभ्यता, पृ० १८३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपाक के माणिकस्वामी डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर आन्ध्र प्रदेश मे हैदराबाद-काजीपेट रेलमार्ग के पालेर पन्द्रहवी या सोलहवी शताब्दी के लेखक सिंहनन्दि ने स्टेशन से चार मील उत्तर में कुलपाक नामक छोटा मा माणिक स्वामी विनती नामक चौदह पद्यो का गुजराती ग्राम हे यहा एक भव्य जिन मदिर में भगवान ऋषभदेव गीत लिया है (पूरा गीत हमने 'तीर्थवन्दनसग्रह' मे दे की पुरातन प्रतिमा है जो माणिक स्वामी के नाम से प्रसिद्ध दिया है) जिस के अनसार इस वलपाकपुर के माणिकहै। इसके सम्बन्ध में प्राप्त ऐतिहासिक उल्लेखो का यहा स्वामी की प्रतिमाका निर्माण भरत राज ने अपनी मुद्रिका वर्णन किया जाता है। के इन्द्र नील रत्न से कराया था। बाद में यह प्रतिमा इद्र के भवन में और फिर लकाधीश रावण के यहा रही, तदउदयकीति को अपभ्र श रचना तीर्थवदना के सोलहवं पद्य म माणिकदेव को नमस्कार किया है। इन का अनमा- नतर बहुत समयलेक समुद्र क जल में मग्न रही। शासन नित समय तेरहवी शताब्दी है) देवी की कृपा से दाकर राय ने इस मूर्ति को प्राप्त कर यह मदिर बनवाया। यहा नये-नये वेश और फूलो के मुकुट वंटिज्जड माणिकदेउ देउ। जस णामई कम्मह होइ छउ ॥ में भगवान की पूजा की जाती है। अर्थात्-उन माणिकदेव को वदन हो जिन के नाम में जिन प्रभुमूरि के विविध तीर्थकल्प (चौदहवी सदी) कर्मों का नाश होता है। में भी उपर्यक्त कहा है। उन्होने शकर राजा को कल्याण शेष पृ० २४ का) समय वादिराज और जगन्नाथ का है । डा० नेमिचद्रजी मानसिह के नही रायसिह के मत्री थे और उनका समय शास्त्री ने शायद उक्त सकलकीति को १५ वी शती मे वि० की १८वी का पूर्वार्द्ध था। इन वादिराज के बड़े भाई होने वाले प्रसिद्ध सकलकीति समझकर वादिराजकृत वाग्भजगन्नाथ कविभी बड़े विद्वान थे, जिन्होने चतुर्विशतिसधान, बालकार का टीकाकाल वि०स-१४२६ लिख दिया हो सुखनिधान और श्वेताबरपराजय आदि अनेक ग्रंथ रचे एर ऐसा प्रतीत होता है । आपने उपदेशरत्नमाला के कर्ता थे। इन तीनो ग्रंथो की प्रशस्तिये वीरसेवामदिर दिल्ली भट्टारक सकलभूषण का समय विक्रम की १५वी शती से प्रकाशित प्रशस्तिसग्रह के प्रथम भाग में छपी है । मुख- लिखा ह यह भ लिखा है यह भी समीचीन नही है । स्वय ग्रंथकार ने उपनिधान अथ मे विदेहक्षेत्रीय श्रीपाल चक्रवति का कथानक देशरत्नमाला की समाप्ति का समय वि०स०१६२७ दिया है। यह कथा आदिपुराण मे जयकुमार के पूर्वभवो मे आई है। यथाहै । इस ग्रथ की रचना इन जगन्नाथ कवि ने सकलचद्र, मप्तविंशत्यधिके षोडशशत वत्सरेषु विक्रमतः । सकलकीति (ये सकलकीति प्रसिद्ध सकलकीति से जुदे है) श्रावणमासे शुक्ल पक्षे षष्ठया कृतो ग्रथः ॥ २६५ ।। और पद्मकीति आदिकों की प्रेरणा से मालपुरा गांव मे को अतः सकलभूषण १० वी शती के है । न कि १५वी थी। ये खंडेलवाल जैन सोगाणी गोत्रके थे, शाह पोमराज शती के। के पुत्र थे और भ. नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे । उक्त पय अद्यावधितक बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री प्रकाश मे कीर्ति-सकलकीर्ति का समय भट्टारकसप्रदाय पुस्तक के प्राचुकी है इतने पर भी विद्वान लोग भूलें करते हैं यह पृ०-२०८ पर १८वी शती का प्रथम चरण लिखा है । यही खेद की बात है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनेकान्त का राजा बताया है कल्याण के कलचुरि राजवंश में संकम सुकुलपाक बन्दों माणिकदेव । राजा ने सन् ११७७ से ११८० तक राज्य किया था। हो सुगोमट स्वामी करु नित सेव ॥ सकता है कि उसी ने यह मन्दिर बनवाया हो । शीलविजय सत्रहवी सदी के ही कारजा के भट्टारक जिनसेन ने (सत्रहवी सदी) की तीर्यमाला के अनुसार शंकरराय तो भी यहा की यात्रा की थी - शिवभक्त था, मन्दिर उस की जिनभक्ता रानी ने बनवाया । जिनसेन नाव गुरुराय ने संघतिलक एते दिय । था (जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४४८) । माणिक्यस्वामी यात्रा सकल धर्मकाम बहु बहु किय ॥ पन्द्रहवी सदी के मराठी लेखक गुणकीति ने अपने (भट्टारक सप्रदाय पृ०१६) धर्मामृत ग्रंथ मे भी माणिक स्वामी को नमस्कार किया इसी वर्ष दीपावली की छद्रियो में हम ने इस क्षेत्र के है (परिच्छेद १६७) दर्शन किये। इस समय क्षेत्र पूर्णत: श्वेताम्बर सप्रदाय कुल्लपाख्य माणिक स्वामिस नमस्कार माझा। के अधिकार में है यद्यपि उपर्युक्त वर्णनो से स्पष्ट है कि सोलहवी सदी के गुजराती लेखक सुमतिसागर की मध्ययुग मे दिगम्बर यात्री भी यहा बराबर जाते रहे है । तीर्थजयमाला (पद्य ११) में भी माणिकस्वामी को यहां के मन्दिर के मभागृह में मुख्य मूर्ति माणिकस्वामी वदन है के अतिरिक्त अन्य बारह भव्य (करीब एक मीटर ऊंची) सुविझाचल बावणगज देव । अर्धपद्मासन मूतिया है। इन की शिल्पशेली दाक्षण भारत सुगोमट माणिकस्वामी सेव ॥ के श्रवणबेलगोल, कारकल, मूडबिद्री आदि स्थानों को सत्रहवी सदी के गुजराती लेखक ज्ञानसागर के सर्व मूर्तियो के समान ही है इन के पादपीठो पर प्रतिष्ठा सबधी तीर्थवन्दना में भी एक छप्पय इस विषय मे है लेख अवश्य ही रहे होगा खद की बात है कि इन सभी देश तिलंग मझार माणिक जिनवर वदो। मूर्तियो के पंगे तक सीमन्ट का प्लास्टर इस तरह कर भरतेश्वरकृत बिब पूजिय पाप निकदो ॥ दिया गया कि वे पादपीठ नष्ट प्राय. हो गये है। केवल पांच मणि सुप्रसिद्ध नीलवर्ण जिनकामह । शिलालेख मन्दिर के बाहरी प्राकार में है जिसके अनुसार पूजत पातक जाय दर्शनली सुख थायह ॥ इस का जीर्णोद्धार जहागीर बादशाह के जमाने में केसर. किनर तुबर अपछरा सकल मिल सेवा करे । कुशल गणी ने करवाया था। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति माणिकजिन पातक हरे॥ नोट- इस लेख में उद्धृत सभी रचनाएँ पूर्ण रूप सत्रहवी सदी के ही जयसागर की तीर्थ जयमाला के में हमारे द्वारा सपादित 'तीर्थवन्दन सग्रह' १० जीवराज ग्यारहवें पद्य मे भी कहा है ग्रथमाला शालापुर, मे सगृहीत है।] सुख का स्थान रे चेतन । तू सुख की खोज में इधर उधर भटक रहा है। उसकी प्राप्ति के लिये मृग की भाति छलागे भर रहा है। पर यह सब भटकना तेरा व्यर्थ है; क्योकि पर वस्तुप्रो और परस्थानो मे सुख नही है । तेरा सुख तो तेरे अन्दर है। बाहर नहीं, जरा अन्तर दृष्टि को उघाड कर देख । जैसे तिलो मे तेल और गोरस में मक्खन है, या दूध में घी है, धूलिकणों और पानी मे नही है । घट के पट खोल कर अन्दर झाक, तुझे सुख अवश्य मिलेगा। चर्म चक्षुत्रो से दिखने वाले इन बाह्य पदार्थो मे उम सुख का लेश भी नही, बाह्य पदार्थों की चमक-दमक में जो तुझे मुग्व का-सा आभास हो रहा है वह सुखाभाम है। बाह्य पदार्यों के सयोग में तू सुख की कल्पना कर रहा है ? यह तेरा अजान है, तू उनके सयोग मे सुख मानता है और वियोग में दुग्व, “सयुक्ताना वियोगो हि भवता हि नियोगतः । सयोग वियोग के साथ मिश्रित है। तू इस भौतिक सामग्री के जुटाने मे जीवन की अमूल्य घडिया बिता रहा है, यह तेरे अज्ञान की पराकाष्ठा है । वह सुख नही दुख है, तू उस पराधीन, विनश्वर सुख के पीछे मत दौड । अन्नदृष्टि और विवेक से काम कर और आत्मस्थ होकर स्वरूप में मग्न होने का प्रयत्न कर तुझे सच्चे स्वाधीन सुख का अनुभव होगा। -परमानन्द Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूत कालिक मालवा का जैन-पुरातत्त्व प्रो० तेजसिंह गौड़ एम. ए. वी. एड. गुप्त माम्राज्य के पतन के उपगत मालवा मे भी पित की गई। गजनीतिक उतार चढाव चलता रहा । फिर जब परमार विदिशा जिले के ग्यारसपुर नामक स्थान पर जैन राजपूतों का प्राधिपत्य मालवा पर हुआ तो लगभग ३०० मदिगे के भग्नावशेष मिले है । मालवा मे जैन मदिरो के वर्षों नव मालवा मे इनका ही शासन रहा । मालवा में जितने भग्नावशेषो का पता अभी तक चना है, उनमें जैनधर्म की उन्नति के लिये यह समय बहुत ही हितकारी प्राचीनतम अवशेष यही पर उपलब्ध हुए है। इस मदिर रहा । इस युग में कई जैन मदिरों का निर्माण हुआ। का मडप विद्यमान है और विन्याम एव स्तम्भो की रचना इम युग के प्रारम्भिक काल में जैन मन्दिर थे। जिसका शैली व राहा के समान है। फर्गमनने इनका निर्माण काल वर्णन डा० हीरालाल जैन इस प्रकार देते है । जैन हरिवश- १०वी शताब्दी के पूर्व निर्धारित किया है । यही पर एक पूराण की प्रशस्ति मे इसके कर्ता जिनसेनाचार्य ने स्पष्ट और मदिर के अवशेष मिल थे, किन्तु जब उस मंदिर का उल्लेख किया है कि शक सवन (७०५६० मन् ७८३) में जीर्णोद्धार हुआ तो उसने अपनी मौलिकता ही खो दी। उन्होंने वर्धमानपुर के पूर्वालय (पाश्वनाथ के मदिर) फर्गमन' के मतानमार ग्यारसपुर के आसपास के समस्त की अन्न राजवसति में बैठकर हरिवशपुराण की रचना की प्रदेश में इनके भग्नावशेष विद्यमान है कि यदि उनका और उसका जो भाग शेप रहा उसे वही के शातिनाथ विधिवत मकलन व अध्ययन किया जाय तो भारतीय वास्तु मदिर में बैठकर पूरा किया। उस समय उत्तर में इन्द्रा- कला और विशेषत जैनवास्तुकला के इतिहास के बड़े दीर्घ युद्ध दक्षिण में कृष्ण के पुत्र श्रीवल्लभ व पश्चिम में वत्स- रिक्त स्थान की पूर्ति की जा सकती है। राज तथा सौरमडल में वीर वराह नामक राजाम्रो का खजुराहो शैली के कुछ मदिर ऊन नामक स्थान पर राज्य था। यह वर्धमानपुर सौराष्ट्र का वर्तमान बढमान प्राप्त हुआ है । यह स्थान खरगोन नगर के पश्चिम में स्थित माना जाता है। किन्तु मैने अपने लेख में सिद्ध किया है है। ऊन के दो तीन अवशेष एक मुसलमान ठेकेदार द्वारा कि हरिवश पुराण मे उल्लिखित वर्धमानपुर मध्य प्रदेश ध्वस्त कर दिये गए थे तथा इनके पत्थर आदि का उपयोग के धार जिले में बदनावर है जिससे १० मील दूरी पर सडक निर्माण के कार्य में कर लिया। उत्तरी भारत मे स्थित वर्तमान दूतरिया नामक गाँव है, प्राचीन दोस्तरिका खजगहों को छोडकर इतनी अच्छी स्थिति में ऐसे मंदिर होना चाहिये, जहाँ की प्रजा ने जिनसेन के उल्लेखानुसार मिलने वाला और कोई दूसरा स्थान नही है । ऊन के मदिगे की दीवारो पर की कारीगरी खजुराहो से कुछ कम उस शातिनाथ मदिर मे विशेष पूजा अर्चा का उत्सव किया है किन्तु शेष सब बातो मे सरलता से ऊन के मदिरो की था। इस प्रकार वर्धमानपुर में आठवी शती मे पार्श्वनाथ नुलना खजुराहो से की जा सकती है । खजुराहो के समान और शातिनाथ के दो जैनमदिरो का होना सिद्ध होता है। ही ऊन के मदिरो को भी दो प्रमुख भागो मे विभाजित शातिनाथ मदिर ४०० वर्ष तक विद्यमान रहा। इसका प्रमाण हमे बदनावर से प्राप्त अच्छुप्तादेवी की मूर्ति पर १. भारतीय संस्कृति मे जैनधर्म का योगदान पृष्ठ ३३२-३३ के लेख में पाया जाता है, क्योकि उसमे कहा गया है History of Indian and Eastern Archtकि सवत १२२६ (ई०११७२) की बैशाख कृष्ण पचमी tecture Vol. II PP. 55 को वह मूर्ति वर्षमानपुर के शांतिनाथ चैत्यालय में स्था- ३ वही पृ. ५५ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अनेकान्त किया जा सकता है-१-हिन्दू मदिर और २. जैनमदिर। हुई है। जिस प्रकार की सीढियाँ खजुराहो की ऋषभदेव ऊन मे एक राज्याधिकारी द्वारा दक्षिण-पूर्वी सतह पर प्रतिमा के पास और गिरनार में बनी हुई है। ये मदिर खुदाई करने पर वहा कुछ पुरानी नीव और बहुत बड़ी ११वी और १२वी सदी के आसपास निर्मित किये गए है। मात्रा में जैन-मूर्तिया निकली थी। उनमे से एक मूति पर इस स्थान को पावागिरि ठहराया गया है जिसका विक्रम स० ११८२ या ११६२ अर्थात् ई. सन् ११२५ या प्राकृत निर्वाण काण्ड में दो बार उल्लेख पाया है:११३५ का लेख खुदा हुआ है जिसके द्वारा यह विदित होता रामसुमा वेण्णि जणा लाडणरिदाण पच कोडीयो। है कि यह मूर्ति आ. रत्नकीति द्वारा निर्मित की गई थी' । पावागिरि वर सिहरे णिब्बाण गया णमो तेसि ॥ ५॥ डा० हीरालाल जैन का कथन है कि मदिर पूर्णत. पाषाण पावागिरि वर सिहरे सुवण्ण भद्दाई-मुणिवरा चउरो। खण्डो से निर्मिन, चपटी छत व गर्भगृह, सभामंडप युक्त चलणा-णई-तडग्गे णिव्वाण गया णमो तेसि ॥ १४ ॥ प्रदक्षिणा रहित है। जिनसे प्राचीनता सिद्ध होती है । चकि क्षेत्र के ग्रासपास सिद्धवर कूट तथा बडवानी भित्तियो और स्तम्भो पर सर्वाग उत्कीर्णन है जो खजुराहो की कलासे मेल खाता है । चतुर होनेसे दो मदिर चौबारा के दक्षिण मे चूलगिरि शिखर का सिद्धक्षेत्र है तथा प्राम पास और भी प्राचीन अवशेष व स्थल है । इसी से यह डेरा कहलाते है । खम्भो पर की कुछ पुरुषस्त्री रूप प्राकृतिया शृगारात्मक अति मुन्दर और पूर्णत. सुरिक्षत है। स्थान डा० हीरालाल जैन को दूसरा पावागिरि प्रमाणित यद्यपि इस चौबारा डेरा मदिर का शिखर ध्वस्त हो गया लगता है। किन्तु प० नाथूगम प्रेमी दूसरा पावागिरि ऊन है। फिर भी ऊन के सुन्दरतम अवशेपो में से एक है। को न मानते हए ललितपुर एव झासी के निकट"पवा" मडप के सम्मुख ही एक बडा बरामदा है। किन्तु अासपास नामक ग्राम को पावा शब्द के अधिक निकट मानते है। कोई बरामदा नही है । मडप आठ स्तम्भो वाला वर्गाकार अर्थात प्रेमी जी पवा को पावागिरि मानते हैं। है। मध्य में गोल गुम्बद है तथा चार द्वार है जिनमे से ११वी सदी मे जैन मदिरो के कुछ अवशेष नरसिह गढ एक देवालय की ओर पूर्व और पश्चिम काले द्वार बाहर जिला गजगढ (व्यावग) से ६ मील दक्षिण में स्थित की ओर तथा शेष बचा हुआ चौथा द्वार मडप की और है बिहार नामक स्थान पर भी प्राप्त हुए है। यहां जैसे देवालय छत रहित है, लेकिन इसमे दिगम्बर मूर्तियों है। मदिरो के माथ ही हिन्दू, बौद्ध व इस्लाम धर्म के अवशेष उनमे से एक पर विक्रम सं०१३ (१२४) का एक लेख है। मिले हैं। इसके अतिरिक्त डा० एच० डी० त्रिवेदी ने निम्नाकित स्थानो पर भी जैन मदिरों के अवशेष बताये है इस मदिर से कुछ ही दूरी पर दूसरा जैन मदिर है जो इसी काल के है। जो आज कल ग्वालेश्वर का मदिर कहलाता है । इसका (१) बोजवाड़ा -यह स्थान देवास जिले मे है तथा यह नाम इसलिये पड़ा कि यहाँ पर ग्वाल प्रतिकूल मौसम देवास के दक्षिण पूर्व मे इन्दौर से ४५ मील की दूरी पर (गमी-वर्षा) में आश्रय लेते है। इनकी रचना शैली आदि भी चौबारा डेरा मदिर जैसी ही है । इस मदिर में भी Progress Report of Archaeological Survey of India W C. 1919 PP. 63-64 दिगम्बर जैन मूर्तियां है। मध्य वाली प्रतिमा १२॥ फुट के लगभग ऊंची है । कुछ मूतियो पर लेख भी उत्कीर्ण है। २ डा. हीरालाल जैन वही पृ० ३३१ से उद्धृत जिसके अनुसार वे विक्रम स० १२६३ अर्थात ई०सन् १२०६ । ३ वही पृ० ३३१ मे भेंट की गई थी। यहाँ उसी प्रकार की सीढिथा बनी ४ जैन साहित्य और इतिहास पु० ४३०-३१ | Bibliography of Madhya Bharat Part I .१ Progress Reporot of Archacological Survey Archaeology Pege 7 of India W C. 1919 PP. 61 ६ Bibliography of Madhya Bharat पृ०७,८, २ भारतीय संस्कृति मे जैनधर्म का योगदान पृ० ३३१ ६, १४, १८, २१, २४, ३३, ४४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूत कालिक मालवा का जैन-पुरातत्व स्थित है। यहाँ प्राचीन कालिक १०वी-११वी शताब्दी के इसके अतिरिक्त "लक्ष्मणो" जिला झाबुआ मे भी एक जैन मदिरो के अवशेष मिले है। विक्रम सवत १२३४ का जैन मन्दिर और मूर्तिया मिली है। यह स्थान भी जैन एक लेख भी यहाँ से मिला है। तीर्थ है। इसकी प्राचीनता इस बात से सिद्ध होती है कि (२) बीथला '-बूढी चदेगे जिला गुना से ५ मील सवत् १४२७ मे निमाड की तीर्थ यात्रा पर निकले जैनदक्षिण पश्चिम में स्थित है। यहा १२वी सदी के जैन- तीर्थ-यात्री श्री जयानन्द मुनि ने अपने प्रवासगीति मे इस मन्दिरो की प्राप्ति हुई है। तीर्थ का उल्लेख किया है। जिमके अनुसार यहां पर (३) बोरी . -यह ग्राम जिला झाबुमा मे स्थित है। जैनियो के २००० घर थे तथा १०१ शिखर बन्द मन्दिर यहाँ भी जैन मन्दिर मिले है तथा एक मोटीदार कुओं भी थे । सवत् १४२७ के उल्लेख में यह बात प्रमाणित होती मिला है। है कि यहा के मन्दिर सवत् १४२७ के पूर्व बने होगे । (४) छपरा - जिला राजगढ़ (ब्यावरा) में है। जैन व "मुकृत मागर" में रोमा उल्लेख मिलता है कि पेथड कुमार हिन्दू मन्दिर मिले है। तीन मुनियो पर लेख भी उत्कीर्ण मत्रीश्वर के पुत्र झाझण कुमार ने माडवगढ़ से शत्रुजय का मघ निकाला था जो लक्ष्मणी पाया था। कहने का (५) गुरिला का पहाड़ -यह स्थान चंदेरी जिना नात्पर्य यह है कि मोलहवी शताब्दी तक पूर्णरूपेण सभी गुना से ग्राठ मील की दूरी पर स्थित है। यहाँ दो दिगम्बर जैनियो को यह तीर्थ विदित था'। मोलहवी सदी में या जैन मन्दिर मिले है। वहाँ के क मन्दिर मे एक यात्री इसके पश्चात् यह स्थान किस प्रकार ध्वस्त झा, कोई का स०१३०७ का लेख यह मिद्ध करता है कि यह मदिर जानकारी नही मिलती है। यदि पूरे मालवा के जैनमदिरो इसके पूर्व का बना हया है। का इतिहास खोजा जाए तो उसमें अधिकाश मध्पकालीन मिलेंगे । किन्तु इन जैन मन्दिरो के जीर्णोद्वार के परिणाम (६) कड़ोद :-धार में उत्तर पश्चिम की पोर १४ मील की दूरी पर स्थित है। यहा एक जैन मन्दिर व स्वरूप ये अपना मौलिक स्वरूप खोते गये और इस प्रकार हिन्दू मन्दिर तथा मीढीदार कुया मिला है। इनकी प्राचीनता नष्ट होती गई। (७) पुरागुलाना :-मन्दसौर जिले मे बोलिया ग्राम माइब और धार में भी जनमन्दिगे का बाहुल्य था। से ४ मील की दूरी पर स्थित है तथा गरोठ के डामर किन्तु अब मब नष्ट हो चुके है। कुछ जैन मन्दिरो का रोड से जुड़ा हुया है। यहा ११वी शताब्दी १२वी शताब्दी उपयोग मस्जिदो के रूप में कर लिया गया है । माडव में का एक जैन मन्दिर व कुछ प्रतिमाए है। यहां से एक ७०० जैन मन्दिर होने का उल्लेव मुकृतसागर में मिलता सस्कृत का शिलालेख भी मिला है किन्तु उस पर काई है जिनमे मे ३०० जैन श्वेताम्बर मन्दिरों पर पेथडदेव तिथि नहीं है। यह अभी इन्दौर पुरातत्त्व संग्रहालय में और उसके पुत्र झाझडदेव ने सोने के कलश चढाए थे। विद्यमान है। माइवगढ के जैन मन्दिगे को ध्वस्त करने अथवा परि(८) वई खेड़ा -मन्दसौर के समीप थडाद रेलव वनित करने का एक अलग प्रकरण हो जाता है। किन्त स्टेशन से २ मील की दूरी पर है। यहाँ पर एक जैन यहाँ यह विचारणीय है कि यदि माडवगढ़ में इतनी पनि दीवालो और छत पर अच्छी चित्रकारी अधिक मख्या मे मन्दिर थे तो वे कहाँ गये ? माडवगढ मे दरवाजे की चौखट पर १२वो शताब्दी का नामवाला एक आज भी अनक भग्नावशप ह, उनका वास्तावकता को लेख भी है। यहा का भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर लग ओर ध्यान देना आवश्यक है। परमार काल में घार मे भग १००० वर्ष पूर्व बना प्रतीत होता है। यह जैनियो १ जैन तीर्थ सर्वस ग्रह भाग २ पृ० ३१३-१४ का तीर्थस्थान भी है। २ फर्गुसन वही पृ० २६३-६४ १ जैन तीर्थ सर्वसग्रह भाग २ पृ० ३३४ ३ श्री माडवगढ तीर्थ-नदलाल लोढ़ा पृ० १८ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनेकान्त संगमरमर के जैन मन्दिर का भी निर्माण हुआ था। के जीणोद्धार का ममय १२३३, १३८० और १५८० वि० सवत है। ___इस युग मे जिस प्रकार जैन मन्दिरो का. बाहल्य ठीक उसी प्रकार जैन प्रतिमानो का भी होना स्वाभाविक जैन प्रतिमायो का एक विशाल संग्रह "श्री जैन ही क्योकि बिना प्रतिमा के मन्दिर कसा? मन्दिरों पुरातत्त्व भवन जयसिंहपूग उज्जैन" में भी है। यहाँ पर के अतिरिक्त भी प्रतिमानो के अनेक अवशेष प्राप्त हुए है। विभिन्न तीर्थकगे की प्रतिमानो के माथ ही अन्य प्रतिमाए. प्राचीन मन्दिरों के उल्लेखित स्थानो पर तो प्रतिमानो के भी है। अधिकाग प्रतिमा दिगम्बर है। कुछ श्वेताम्बर सुन्दर उदाहरण हैं ही किन्तु कुछ प्रतिमायो के और नमूने प्रतिमाए भी दिखाई देती है। इग सग्रह की सभी प्रतिमाएं मिले है जिनमे घसोई जिला मदसीर, गधावल जिला कही न कहीं से खण्डित है। कई प्रतिमानो के मिर नहीं देवास विशेष रूप से उल्लेखनीय है। घमोई के विषय मे है तो कई के घर नही है। कूट प्रतिमामा के हाथ पर ऐसा कहा जाता है कि वहा पर मूर्तिया इस बाहुल्य के टे है। ये प्रतिमाए यहां अनेक स्थानो से लाकर रखी गई साथ प्राप्त होती है कि खेतो, खलिहानो एव घरो की है। जिनमें से प्रमुख गुना जिला है। कुछ प्रतिमाएँ मुरुदीवालो पर भी इनके उदाहरण देखने को मिल जाते है। जेर, बदनावर तथा रतलाम जिल में भी यहाँ पाई है। गधाबल मे भी घरो, कुप्रो, उद्यानो एव खतो में। अधिकाश प्रतिमानो पर लख उत्कीर्ण है। किन्तु अधिक विग्वरी हुई प्रस्तर प्रतिमाएं है जिनकी सख्या लगभग दो घिम जाने के कारण स्पष्ट रूप में पढ़ने में नही पाते है। सौ है। ये प्रतिमाएं भी परमार युगीन दसवी शताब्दी एक खण्डित प्रतिमा जिसका केवल निम्न भाग ही शेष है, की है । बाबू छोटेलाल जैन' ने अपने एक लेख "उज्जैन पर सवत १२२२ का लग्ख है। इस प्रतिमा पर "स्वस्तिक' के निकट दि० जैन प्राचीन मूर्तियो" मे गधावल के जैन चिन्ह है. जिसके आधार पर हम कह सकते है कि यह पुरातत्व की विशेष चर्चा की है। गधावल के सम्बन्ध में प्रतिमा १०वे तोर्थकर भगवान शोतलनाथ जी की है। एक बात उल्लेखनीय यह है कि यहाँ सभी दिगम्बर जैन भगवान जितनाथ जी की एक प्रतिमा जो कि खडित है प्रतिमाएं है। गुना से प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा पर स० १२३१ का लेख उत्कीर्ण है किन्तु घिम जाने के कारण पढने मे बराबर विशाल प्रतिमाओ की परम्परा मे बडवानी नगर नही पाता है। भगवान पार्श्वनाथ की जितनी प्रतिमाए के समीप चलगिरि पर्वत श्रेणी के तलभाग में उत्कीर्ण ८४ है उनमे सर्पफण अभी भी लगभग पूर्ण है । यहाँ के सग्रहाफीट ऊंची खड्गासन प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है। इसे लय की लगभग सभी प्रतिमाए लाल अथवा भूरे रेतीले बावनगजा के नाम से भी पुकारते है। इसके एक ओर पत्थर की है। कोई कोई प्रतिमा ही काले पत्थर की यक्ष तथा दूसरी ओर यक्षिणी उत्कीर्ण है। दि० जैन दिखाई देती है। डिरेक्टरी के अनुसार चूलगिरि मे २२ मन्दिर है। मदिरो सम्पूर्ण मालवा के जैन पुरातत्त्व के विषय में अन्वेषण १ उज्जयिनी दर्शन पृ० ८४ आवश्यक है जिससे अनेक रहस्य प्रकट होने की सम्भा२ अनेकान्त वर्ष १६।१-२ पृ० १२६ वना है। ३ अनेकान्त वर्ष १२।१० पृ० ३२१-२८ ४ डा० हीरालाल जैन वही पृ० ३५० ५ जन साहित्य और इतिहास पृ० ४४२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय मेघविजय के मेघमहोदय में उल्लिखित : कतिपय अप्राप्त रचनाएँ प्रगरचन्द नाहटा जैन विद्वानों ने प्राचीन साहित्य के मरक्षण और जो अभी तक प्राप्त नही हई है उनके सम्बन्ध मे शोध प्रेमी नवीन साहित्य के सृजन म जैसी तत्परता दिखाई है वैमी विद्वानों का ध्यान प्रापित करना आवश्यक हो जाता अन्यत्र दुर्लभ है । जिस समय मुद्रण की सुविधा नही हुई है। प्रस्तुत लेख में ऐसी ही कुछ रचनाओं की चर्चा की थी उस समय हस्तलिखित प्रतियो को लिखना कितना जा रही है। कष्ट साध्य था इसकी कुछ झाको कतिपय प्रतियों के १८वी शताब्दी के प्रारम्भ मे उपाध्याय मेघविजय लेखको ने लेखन के अन्त में कुछ इलोक दिये है उनमें एक बहुत बड़े विद्वान हो गए है। जिन्होंने कई महाकाव्य मिल जाती है । जैन विद्वान जो भी अच्छा ग्रथ जहा भी प्रबन्ध काव्य लघुकाव्य और विलक्षणकाव्य बनाने के साथजिस किसी के पास देवने उसकी नकल अपने व्यक्तिगत साथ व्याकरण, ज्योतिष, ग्रादि अनेक विषयों के ग्रथ बनाए उपयोग या ज्ञानभन्डारी के लिए कर लिया करते थ। है। इनके बहुत से ग्रथ प्रकाशित भी हो चुके है। कई इसोकारण जैन ही नही जेनतर हजागे-छोटी-बड़ी रचनाये वर्ष पहले मैने इनकी रचनाओं के सबन्ध में एक लेख उनके द्वारा लिखी हुई आज भी प्राप्त है । यद्यपि जितनी नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित किया था। मुनि बड़ी सख्या में हस्तलिखित प्रतिया लिगी गई थी उसका जिन विजयजी सम्पादित सिघी जैन ग्रथमाला में मेघविजय बहन बडा अग नष्ट हो चुका है फिर भी बहुत-सी गमी जी के २-३ ग्रथ प्रकाशित हये है। उनके सम्पादको ने भी जैनेनर रचनाय जैन भन्डागे में है जिनकी अन्य कोई भी मेघविजयजी की रचनामो का विवरण दिया है । खेद है प्रति किसी जनतर मगृहालय में नहीं मिलती। हस्त- जिम महान विद्वान को स्वर्गवामी हा केवल २७५ वर्ष भी लिम्वित प्रतिया प्राचीनतम एव शुद्ध हो जैन भन्डागे में पूरे नहीं हुए उनकी रचनामभी पूर्ण रूप से प्राप्त नही है । अधिक मिलतो है । इतनी तत्परतासे वृद्धि और मरक्षण हमारे संग्रह में उनके चरित्र एक चित्र काव्य विज्ञप्ति लेख करने पर भी आज हजागे जैन रचनाये भी अलभ्य हो है जिमकी पूर्ण प्रति अभी तक कही भी प्राप्त नहीं हुई। गई है। उनमे से कुछ का उद्धरण और कुछ का उल्लेख महोपादयाय बिनयमागर जी ने नेघविजयजी की रचनाओ अन्य ग्रथो में पाया जाता है । जिमसे विदित होता है कि के सम्बन्ध मे एक खोज पूर्ण निबन्ध लिखा है जो शीघ्र ही उस समय तक तो वे रचनाये प्राप्त थी पर आज उनका प्रकाशित होगा । इसमे उनकी कुछ ऐसी रचनायो का भी कही भी पता नही लगता । यद्यपि जैन भन्डार या ग्रथ- उल्लेख किया गया है जो अब तक अज्ञात थी मैंने भी ऐसी मग्रह भारत के कोने-कोने और सैकड़ो स्थानो में है और दो अज्ञात रचनायो की खोज पहले की थी और १-२ लेख सबकी सूची नही बनी है जिनकी सूची बनी हुई है उनकी जैन मत्य प्रकाश आदि में प्रकाशित किये थे। सिधी जैन भी जानकारी प्रकाशित नही हुई है इसीलिए यह सम्भव है ग्रन्धमाला से प्रकाशित की। कि वे अलभ्य मानी जाने वाली रचनाये उन सग्रहालयों में प्रस्तावना में मेघविजयजी की रचनायो की नामाअब भी सुरक्षित हो जिन सग्राहलयोकी सूची एव जानकारी वली दी है। उनमे कुछ की प्रतिया अभी तक हमे देखने अभी तक प्रकाश में नहीं आ पाई । विगत कुछ वर्षों में को नहीं मिली। उनका उल्लेख भी विनयसागर जी के ऐसी अलम्य रचनाये खोज में भी प्राप्त हुई हैं इसीलिए रचित मेघ महोदय-वर्ष प्रबोध नामक महत्वपूर्ण प्रथ में Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त उल्लिखित अन्य विद्वानों की ऐसी रचनाओं का विवरण साधेषु हन्यते वृष्टिनिरभ्र वृष्टिरुत्तमां ॥२२२ दिया जा रहा है जिनका उपयोग मेघविजयजी ने अपने एवं देशनिवेश पुट्ठालजलप्राण्यादि संमूच्र्छनाद । उक्त ग्रन्थ में किया है। पर उनकी पूरी प्रतिया मेरी हेतून प्रागवगम्य सम्यगुदकासारस्य सारस्यदीन् । प्राप्त नही है । जिस किमो मन्जन का व हीरविजयमूरि का तो कही पता नही चलना पर रचनायें कही मिल जाये तो उसकी वे जानकारी मूझे । मेघजी होरजी बम्बई से सन् १९२५ में प्रकाशित 'मेघ सूचित करने या प्रकाशित करने का कष्ट करे । चूकि मेघ- माला' विचार का रचयिता विजयप्रभमूरि बतलाया है। महोदय में मेघ अर्थात वर्षा मवन्धी महत्वपूर्ण विवरण है। तटागि उसके गत तद्यपि उसके अन्त में विजयप्रभरि के रचे जाने की विज इसलिए यह ग्रन्थ बहुत ही महत्वपूर्ण है। और इस ग्रन्थ । प्रशस्ति नहीं है। मे जिन अलम्य रचनायो का उद्धरण व उल्लेख है वे भी श्रीहोर विजयसूरि कृत मेघमालायां प्रोक्तुम् श्रीहोर विजय अवश्य ही महत्व को होगी। मेघ महोदय हिन्दी अनुवाद रज्उच्छवम्मि वामो उत्तरो वहइ धन्ननिष्फत्ती। सहित प. भगवानदास जैन ने मवत् १९८३ मे बीकानेर पुव्वाई नीरबहु नो पच्छिम वाएण करवरयं ।१०४ मे रहते समय प्रकाशित किया था। उनसे भी इन अलम्य दक्खिण वाय दुकालो अहवा बज्जेई वाउ चउदिसो। रचनामो सम्बन्धी पूछा गया तो उत्तर मिला कि ग्रंथ प्रका तह लोय उवद्वष जुज्झइ राया खग्रो लोए ।।१०५ शन को ४० वर्ष हो जाने पर भी इन रचनाया की प्रतिया क्वचित्तु-पूर्ववाते तीइशुका मत्कुणा मूषकादयः । उन्हे कही भी नहीं मिल सकी है बारुणे तु युगन्धर्या निष्पत्तिबहुला भुवि ॥१०६ मेघ महोदय मे 'हीर मेघमाला' नामक ग्रन्थ का ___दूसरे ग्रन्थ दुर्गदेव के मृष्टि मवत्सर के उद्धरण मेधउल्लेख और उद्धरण अनेक स्थानो में मिलता है इस ग्रन्थ महोदय में पाए जाते है। इस ग्रन्थ की भी अन्य कोई के नाम से जैसा कि लगता है कि इसकी रचना नपागच्छ पूरी प्रति जानने में नहो पाई। दुर्गदेव के अन्य कई ग्रन्थ के हीरविजय सूरि ने की और इमका स्पष्ट उल्लेव मघ प्राप्त होते है जिनमे मे रिप्टसमुच्चय' तो प्रकाशित भी महोदय मे है। इस ग्रथ के उद्धरण मेधमहोदय के ४४ हो चुका है। दुर्गदेव ज्योतिष ग्रादि के अच्छे जैन विद्वान् ४१-६२, २३७, २३६, २५३, २५८, २६०, २६४, २८६, मालूम होने है। अत उनका मृष्टि सवत्सर अवश्य ही २६२, ३११, ३१६, ३४०, ३४२, ३५०, ३८५, ४१४, उल्लग्वनीय कृति है जिमकी खोज की जानी चाहिए । ४५१, ४६०, ४६१, ५१२, इन स्थानो मे हुआ है। उद्धृत दुर्गदेव की रचनाये प्राकृत भाषा की प्राप्त है । मेघमहादय गाथाये व श्लोक प्राकृत और सस्कृत दोनो भाषामो के है। के प्रारम्भ में संस्कृत और फिर प्राकृत मूलगाथा दी गई यहा कतिपय उद्धरण दिये जा रहे है ... है। उद्धरण इस प्रकार है :हीर मेघमालायामपि अथ जनमते दुर्गदेवः स्वकृतषष्टि संवत्सरग्रन्थे पुनरेवमाहपरिवेष वाय बद्दल संमारागं च इंदघणु होई। प्रों नमः परमात्मनं वन्दित्वा श्रीजिनेश्वरम् । हिम करइ गज्ज विज्जु घंटा गम्भो भणिएहि ॥२१८ केवलज्ञानमास्थाय दुर्गदेवेन भाष्यते ।१ जीवेम्यः पुट्ठालाः सूत्र पथगेव समीरिताः । पार्थ उवाचतेन केचिदजीवाः स्युर्महावृष्टश्च हेतवः ॥२१६ भगवन् दुर्गदेवेश ! देवानामधिप ! प्रभो ! जलयोनिकजीवादेः सद्भूतिः प्रच्युतियथा । भगवन् कथ्यतां सत्यं संवत्सरफलाफलम् ॥२ विचार्यते देशतस्ते तथा ग्रामे च मण्डले ॥२२० दुर्गदेव उवाचयहिनेऽभ्रादिसम्भूतिमघशास्त्रे निरूपिता। शृणु पार्थ ! यथावृत्तं भविष्यन्ति तथाद्भुतम् । यथा सा वृष्टि हेतुः स्यात् तथाभ्रादेः परिच्युतिः ॥२२१ दुर्भिक्षं च सुभिक्षं च राजपीड़ा भयानि च ॥३ यदुक्तम् एतद् योऽत्र न जानाति तस्य जन्म निरर्थकम् । प्रादौ दश ऋणाक्षि ज्येष्ठ शुक्ले निरीक्षयेत् । तेन सर्व प्रवक्ष्यामि विस्तरेण शुभाशुभम् ॥४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय मेघविजय के मेघमहोदय में उल्लिखित कतिपय प्रप्राप्त रचनाएँ निका प्रभव विभवो शुभौ, शुक्लोऽशुभः, प्रमोद प्रजापती- तथा वर्षाधिपेलोके दीप्तदीपोत्सवः स्मृतः ॥२३ शुभी, अङ्गिरा अशुभ, श्रीमुखभावौ शभौ, युवा विरुद्धः, केवलकीति दिगम्बरोऽप्याहधाता समः, ईश्वर बहुधान्यौ शुभौ, प्रमाथी विरुद्ध., माघस्य शुक्लसप्तम्यां यदाभं जायतेऽभितः । विक्रमवृषभौ शुभो, चित्रभानुविरुद्धः, सुभानुतारणौ शुभौ, तदा वृष्टिर्घना लोके भविष्यति न संशयः ॥११॥ पार्थिवो विरुद्धः, व्ययः सम. ॥इति प्रथमा विशतिका।। स्वातियोग.भणियं दुग्गदेवेण जो जाणइ वियक्खणो। माघे च कृष्णसप्तम्यां स्वातिवोगेऽभ्रजितम् । सो सव्वत्थ वि पुज्जो णिच्छयो लडलच्छोय ॥१ हिमपाते पण्डवाते सर्वधान्यः प्रजासुखम् ॥३१६ डा. गोपाणी के कथनानुसार रिष्ट समुच्चय का तर्थव फाल्गुने चैत्रे वैशाखे स्वाति योगजम् । दूसरा नाम कालज्ञान भी है। अर्थात् मृत्यु के पहले विद्युदभ्रादिकं श्रेष्ट-माषाढ़ेऽपि सुभिक्षाकृत ॥३२० उसका ज्ञान प्राप्त करने का विवरण इम रिष्ट समुच्चय प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ ३२४-३७४ और ४४३ में चातुमें है। प्रत्येक मानव के लिये विशेष अन्तिम पाराधना की सिकुलक और पृ० ३५६ और ४८१ मे तिथिकुलक की तैयारी के लिए मृत्यु ज्ञान की विशेष आवश्यकता है ही। गाथाए उद्धृत है । इनमें से पृ० ३७४ वाली उदृत गाथा रिष्ट समुच्चय अपने ढंग का एक ही ग्रन्थ है । इसके से चातुर्मासकुलक का ऊपर नाम देने पर भी मूलग्रन्थ का तीन सस्करण प्रकाशित हो चुके है। पहला सस्करण नाम अरघकाण्ड सिद्ध होता है। प्राकृत भाषा का यह अध्यापक अमृतलाल गोपाणी ने सस्कृत छाया और अग्रेजी अर्घकाण्ड दुर्गदेव के अर्घकाण्ड से भी भिन्न है। यह अनुवाद सहित प्रकाशित किया। दूसरा सस्करण उन्ही नेमीचन्द्र शास्त्री के उदधृत दुर्गदेब के अर्घकाण्ड के के सम्पादित सिंघी जैन ग्रन्थमाला से विस्तृत रूप मे प्रारम्भिक पद्य से स्पष्ट है। चातुर्मासकुलक पौर प्रकाशित हुआ। तीसरा सस्करण डा. नेमीचन्द्र जैन तिथिकुलक कितने बड़े हैं यह तो उनकी पूरी प्रति प्राप्त ज्योतिषाचार्य का हिन्दी अनुवाद सहित जवरचन्द फूल- होने पर ही विदित हो सकता है। मेघ महोदयमे दिये चन्द गोधा जैन ग्रन्थमाला, इन्दौर से संवत् २००५ मे गए उद्धरण नीचे दिए जा रहे है जिनसे इन ग्रन्थों को निकला । उसमें दुर्गदेव की अन्य रचनाओं मे अरघ काड, खोजने में सुविधा रहेगी। मत्र महोदधि और मरण कण्डिका है। रिप्ट समुच्चय चतुर्मास कुलकेऔर मरण कण्डिका एक ही विषय की लघु-वद्ध रचनाए प्राषाढ़पुन्निमाए पुश्वासाढ़ा हविज्ज दिनराई। है । अरघकान्ड मे तेजी मदी का विवरण १४६ गाथाम्रो मा चत्तारि वि मासा खेम सुभिषां सुवासं च ॥६० म है। मत्र महोदधि ३६ गाथा का छोटा मा ग्रन्थ है ग्रह हेटिमाय पुणिम मूलेणं जाइ पढम बे पुहरा । जिसके अन्तिम उल्लेख से दुर्गदेव दिगम्बर सिद्ध होते है। ता दुन्न वि मासाम्रो दुभिक्खं उवरि सुभिक्खं ॥६१ श्री नेमीचन्द्र शास्त्री ने अरघकाण्ड का परिचय देते ग्रह उवरि वे पुहरा पुव्वासाढा हविज्ज नक्खतं । हा लिखा है कि 'इसमें ६० सवत्सरो के फलाफल का भी ता होइ दुण्णि मासा खेमसुभिक्खं वियाणाहि ॥१२ संक्षेप मे सुन्दर वर्णन है।' अत. सम्भव है मेघविजय मे अहव पविसिऊण मूलं भुजइ चत्तारि पुहर जइ कहवि । उल्लिखित दुर्गदेव का सृष्टि सवत्सर अरघकाण्ड का ही ता चत्तारि वि मासा दुभिक्खं होई रसहाणि ॥६३ अग हो । उक्त ग्रन्थ से यहाँ उद्धृत पाठ मिलाकर निर्णय प्रहवा उत्तरसाढ़ा भुजइ चत्तारि पुहरमवियारं । करना आवश्यक है। ता जाणह दुक्कालं मासा उत्तरह चत्तारि ॥६४ तीसरा अलभ्य ग्रन्थ दिगम्बर केवलकीति के मेघमाला ग्रह भजइवे पुहरा पुवाउम्मि उत्तरासाठा । का उल्लेख एव एक श्लोक इस प्रकार है ता उवरि बेमासा होइ सुभिक्खायो रसहाणि ॥९८ केवलकीति-दिगम्बर कृत मेघमालायां पुनरेव- मह भुजइ बे पुहरा मुलं पुथ्वं हविज्ज नवखतं । प्रागच्छति यया भूपे गेहे गेहे महोत्सवः । उपरि पुरवासादा दुक्खं पच्छा सुहं होई ॥६६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ भनेकान्त नमिऊण तिलोयरवि जगवल्लह जलहरं महावीरं। तो प्रकाशित हो चुका है पर मेघविजय ने इस ग्रन्थ की बुच्छामि प्रग्धक कहियं जिणवरिषेण ॥२०६ प्राकृत गाथानों के भी उद्धरण दिए हैं। भद्रबाहु की रचना कत्तियपूनमदिवसे कत्तियरिक्वं च होइ संपुन्नं । प्राकृत भाषा में होनी चाहिए, अत: इस प्राकृत भद्रबाहु ता चत्तारि वि मासा होइ सुभिक्खं सुहं लोए ॥२०० संहिता की खोज अत्यावश्यक है। यहाँ मेघमहोदय मे सुरगुरु रविसुय घरणिय, जइ एकस्थ मिलति । .... उद्धृत भद्रबाहु संहिता की प्राकृत गाथाएं दी जा रही हैं :भूमिकबाले मंडिया, भारी भीख भमन्ति ॥१४२ जह वक्क परवि सुमो विसाहमहमूलकत्तियारूढो। यदाहः श्रीभद्रबाहु गुरू पादाःअन्नं कुणा महग्धं इक्कं निवई विणासेई" ॥१४२ रेहाहि कित्तियाइ अट्ठावीसं पि ठवह पंतीए । तिथिकुल के विशेषः निप्पाइऊण ताहि सत्तहि नाडीहिं महभोई ॥६० तिम उत्तरा य अद्दा पुणवत्र रोहिणी य जइ कहवि । नाडीह जत्थ चंदो पावो सोमोय तत्थ जइ दोवि । हुति किर पुणिमाए तम्मासे जाण दुम्भिक्खं ॥१२२ तो तहिं जाण बुट्टी इय भासइ भद्दबाहु गुरू ॥६१ फग्गुण पुष्णिमदिवसे पुम्बाफरगुणि हविज्ज णक्खत्तं । एसोवि य पुणचंदो संजुत्तो केवलोव जइ होइ । चत्तारि वि पुहरामो ता चउरो माससुभिक्खं ॥२५३ केवलचन्दो नाडीइ ता नियमा दुद्दिणं कुणइ ॥६२ बे पुहरा अहव महाणक्खत्तं होइ कहवि देववला। एयाणं पि य मजझे अमियाइ तिए जलासयो अहिमो। ता जाणइ दुवे मासा होइ महग्धं ण संदेहो ॥२५४ तुरियाए वायमिस्सो सेसासु समीरणो पहिलो ॥६३ मह पुण्णा तद्दिवसे होइ महारिक्खयं जया कहवि । जइ सव्याण वि जोगो गहाण अमियाइ तिगे अनावुट्ठी। चत्तारि वि मासा खलु ता जाणह विडरं काल ॥२५५ अट्ठार १८ वार छुदुहिण सेसासु फल जहापत्तं (?) ॥६४ बिजला विवाउनाडी देइ जलं सोमखहरबहुजोगा। मह पुणिम दो पुहरा पुग्वाफग्गुणी हविज्ज णक्खतं । उरि उत्तरफग्गुणी दो पुहरा होइ जइ कहवि ।।२५६ जलनाडी तुच्छजलं पावाहिय जोगग्रो देइ ॥६५ ता पढमा दो मासा होइ सुभिक्खं सुहं न संदेहो। जइ वाउनाडीपत्ता सणिभोमा किमवि नहु जलं दिति । वो उरि पुणो मासा सस्सविणासेण दुक्कालो ॥२५७ सोमजुमा तेउ जलं अइसय जोएण परिसंति ॥६६ प्रट्ठ पहरा चउरो महवा जइ होइ उतरा जोगो। विसमपर कुभमीणा सीहो कक्कडय विच्छियतुलामो । सस्साणं ता हाणी रसाण तह तिल्लवम्वाणं ॥२५८ सजलामो रासीमो सेसा मुक्का वियाणाहि ॥६७ रविसणिभोमसुक्का चंदविढप्पो य बुहगुरू सुक्को। तिथिपयन्ना (प्रकीर्णक) नामक एक रचना का उल्लेख एए सजला णिच्चं णायन्वा प्राणुपुटवीए ॥६॥ तो जिनरत्नकोश में प्राप्त होता है। तिथिकुलक उससे -इति भद्रबाहुसहिताया भिन्न है या एक है इसका निर्णय तो तिथिपयन्ना में उपरोक्त गाथाएं प्राप्त है या नहीं यह खोजने पर ही मेघ महोदय के पृ० ३७ मे भद्रबाहु के नामसे निम्नोक्त आधारित है। बात सस्कृत श्लोक मे कही गई हैजैसा कि पहले कहा गया है मेघमहोदय एक बहुत क्रूरसंयुक्तसूर्येन्द्रोग्रहणे नृपतिक्षयः । ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमे अनेको ग्रन्थो का उल्लेख है। राष्ट्रभङ्ग इति प्राहुर्भद्रबाहमुनीश्वराः ॥२०१॥ जैनेतर मेघमाला आदि का भी उपयोग किया गया है। उपलब्ध सस्कृतभाषा की भद्रबाहु सहिता में इस एक विशेष उल्लेखनीय ग्रन्थ की चर्चा भी यहाँ कर देना __ आशय का कथन है या नही, अन्वेषणीय है। आवश्यक है कि भद्रबाहु सहिता नामक ग्रन्थ सस्कृत का मेघमहोदय मे गौतम स्वामी भाषित राशिमडल पृष्ठ १९६ से २०६ में दिया गया है। और पृ० ५०७-५०८ में १ अर्धकाण्ड का चातुर्मासकुलक के नाम से उल्लेखित इति गौतमीय ज्ञानं श्लोक ७९५ तक में दिया है। यह किया जाना विचारणीय है। (शेष पृष्ठ ४८ पर) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान परमानन्द शास्त्रो [अनेकान्त वर्ष २० किरण ५ से आगे] पश्चात् दोनों मित्रों ने संवत् १८९६ मे पाराधना कथा बखतावरमल और रतनलाल ने वर्तमान चौवीसी कोप का पद्यानुवाद सवत १८९६ में पूर्ण किया था। पूजा पाठ सवत् १८९२ मे बनाया था। उस समय उस समय दिल्ली में बहादुरशाह (द्वितीय) का राज्य दिल्ली मे अकबर (द्वितीय)का राज्य था । अकवर द्वितीय था। वह सन् १८३७ (वि० स० १८९४) में तख्त पर पालमशाह द्वितीय के बाद सन् १८०६ (वि० स० बैठा था। कवि ने उसी के राज्य में प्रस्तुत ग्रन्थ को १८६३ ) मे गद्दी पर बैठा था, इसने सभवत १३ वर्ष के रचना की है। यह ग्रन्थ भी पहले प्रकाशित हो चुका है। लगभग राज्य किया। अतएव स० १८९४ तक इसी का इस तरह दिल्ली के इन दोनो विद्वानो ने गृह कार्यों में रत राज्य रहा है। उस समय दिल्ली में राजा सुगनचन्द की रहने हए जो साहित्य सेवा की है वह अनुकरणीय है । शैली का विस्तार था । सुगनचन्द का पुत्र प० गिरधारी ३५वें पं० फतेहचन्द जी है। आप का जन्म अग्रवाल लाल था। जो प्राकृत-सस्कृत और हिन्दी का अच्छा कूल मे हा था । आपके द्वारा लिखी हुई 'जन यात्रा विद्वान था । और अपने प्रपिता (पितामह) द्वारा बनवाए दर्पण' नामकी पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। हुए मन्दिर की शास्त्र सभा मे शास्त्र प्रवचन करता था। ३६३० कवि जगदीशराय है। आप का वंश भी दिल्ली की उस शैली में प० सुगुनचन्द, प० गिरधारीलाल अग्रवाल था । आप हिन्दी और फारसी भाषा के अच्छे म्नेहीलाल, कानजीलाल, जैजैलाल, गुपालराय और साहिब विद्वान थे । आप का जन्म संवत् १६०२ मे हुआ था । मिह आदि सज्जन थे । पचकल्याणक पूजापाठ की रचना आप बाल्य अवस्था से ही जैन सिद्धान्त के रसिक थे। भी इन्होने सं० १८६२वे में की थी। आपने ज्योतिष और रमल में भी अच्छी योग्यता प्राप्त की सहारनपुर के लाला सौदागरमल ने एक पत्र थी। आप के पद बडे सुन्दर और सरल है । आप की एक वग्वतावरमल को, जिनदत्तचरित्र' की भाषा करने के लिये मात्र रचना 'जगदीश विलास' है, जो प्रकाशित हो चुका लिखा था और प्रेरणा की थी कि इसकी भाषा जल्दी वन है आपके पदो मे फारसी भाषा के शब्दो का प्रयोग जाय, तो बड़ी कृपा होगी । इन्होंने अपने मित्र की सलाह जहां-तहां हया है। आपका अवसान ६१ वर्ष की अवस्था से भाषा बनाना स्वीकार कर लिया था। और इसके लिये मे सन् १९६३ में हुआ था। उन्होने प० गिरधारीलालजी से प्रार्थनाकी थी कि पाप हमे ३७वे विद्वान् प० गिरधरलाल जी है, जो राजा मस्कृत का हिन्दी अर्थ बतला दे। तब गिरधारीलालने उन्हे मगनचन्द के पुत्र और राजा हरमुख राय के पौत्र थे । मम्कृत पद्यो का हिन्दी में अर्थ बतलाया और तब उन्होने अपने सम्पन्न परिवार में जन्म लेकर भी प्राकृत-सस्कृत उसकी भाषा बनानेका उपक्रम किया। लाला अानन्दरायने का अच्छा अध्ययन किया था । और जैन सिद्धान्तके अनेक भी प्रेरणा की थी। तब इन्होंने स० १८६४ मे माघ कृष्णा ६४ म माघ कृष्णा ३ सवत् विक्रम नृपति को अट्ठारहम मान । नवमी के दिन उक्त ग्रन्थ का पद्यानुवाद किया था। ताप अधिक चौरानवे, माघ कुष्ण पख जान ।। १ सवत् अष्टादशशत और बाणवे जान । ४ संवत् विक्रम नृपति को वृष अरु ज्ञान मिलाय । फागुन कारी सप्तभी भौमवार पहचान ।। नारायण लेश्यातनी संज्ञा सर्व गिनाय ।। २ संवत् अष्टादश जु कहिये और बाणवे तापर दीन । ग्रीषम ऋतु वंशाख फल पक्ष जान अधियार। भादों की दोयज सुखकारी चन्द्रवार दिन पूरन कीन । सिद्ध जोग शुभपंचमी वृश्चिक शशि गुरुवार । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ग्रन्थों का मनन किया था, जिससे वे उसके रहस्य से लिया। आपने अपने बाबा से पूछा, परन्तु उन्होने इस परिचित हो गए थे। वे धर्मपुरा के नये मन्दिर की शास्त्र कारण कोई उत्तर न दिया, उन्होने सोचा कि यह तार्किक कारण कोई उत्तर न दिया. म सभा में प्रवचन करते थे। और जो जिज्ञासु साधर्मी पाजाते व्यक्ति है। मैं न छोडने की दलीलें दंगा, तो इसे जिद थे उन्हें उसका अर्थ बतला देते थे। अनेक कवियों ने उनसे चढ़ जायगा । अन्त में आपने अपनी पत्नी से सलाह ली, प्राकृत और सस्कृतका अर्थ सीखा था । आपने दिल्लीमे हिसार तो पत्नी ने कहा इसे छोड़ो तो नही, परन्तु यह निश्चय पानीपत अग्रवाल दि. जैन पचायत को कायम किया था। कर लो कि सच्चे मुकदमे ही किया करूँगा, झठे नहीं । उस समयको जनतामे वे बड़े प्रतिष्ठित माने जाते थे । आप आमदनी थोड़ी होगी, तो थोडे मे ही गुजर कर लगी। ने कोई ग्रन्थ रचना नही की। किन्तु रचयिताओं के कार्य यह बात बाबूजीको जॅच गई। उन्होने उक्त निश्चयानुसार मे महयोग अवश्य दिया करते थे। जनमित्रमडल की। वकालत जारी रखी और थोड़े ही दिनों में आपकी सचाई लायब्रेरी में उनका फोटो भी लगा हुआ है। धनी होकर की शोहरत हो गई और उसका हाकिमो पर भी महाप्रभाव विद्वान होना कठिन है। पडा। अडतीसवें विद्वान बाबू मूरजभान जी है, बाबू जी आपका विवाह सन् १८८२ मे ११ वर्ष की अल्प का जन्म नकुड जिला सहारनपुर मे वि० स० १९२५ मे उम्र में हो गया था, परन्तु सन् १८८९ के लगभग पत्नी हुअा था । आप के पितामह लाला नागरमल जी तहसील का वियोग हो गया। पश्चात् सन् १८६० मे दूसरा विवाह दार थे और पिता लाला खुशवतराय जी नहर के हुआ । इससे आपके दो पुत्र है। कुलवत राय और सुखन्नजिलेदार थे। गय । कुलवन्तराय इन्जीनियर, और मुखवन्त राय इलाहासात वर्ष की उम्र के बाद आप जब तक पढते रहे बाद में प्रोवरसियर है। तब तक आप प्राय: अपने चाचा लाला अमृतराय जी के बाबूजी का सारा खानदान उर्दू, फारसी-दाँ था, धर्म साथ रहे, आपके चाचा पेमायश और नक्शाकसी के से किसी को विशेष रुचि नही थी, माथमे अरुचि भी मास्टर थे पहले होशियारपुर में और फिर लाहौर में । नहीं। पर्वो एव त्यौहारो पर लोग मन्दिर जाते थे और होशियारपुर में आपने मिडिल पास किया और लाहौर में उर्दू लिपिमे णमोकार मत्र, पद विनती आदि लिख पद मन् १८८५ (वि० सं० १९४२) मे मैट्रिक । इसके बाद लिया करते थे। किन्तु स्त्रियों प्रति दिन मदिर जाया आप कालेज मे भरती हुए; परन्तु इसी समय पिता जी करती थी। का देहान्त हो जाने से प्रापको नकड़, वापिस आना पड़ा। आपने सबसे पहले होशियारपुर में लगभग बारह वर्ष नकड़ मे घर पर रह कर ही सन् १८८७ मे आपने की उम्र मे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध मुनि आत्माराम लोअर सब प्राडिनेट प्लीडर परीक्षा की तैयारी की और के व्याख्यान सुने जो वहाँ चातुर्मास में आकर रहे थे। सन् १८८७ में पास हो गए । उन दिनों यह परीक्षा लाहौर मे आपके चाचा का मकान जैनमन्दिर के पास इलाहाबाद हाईकोर्ट की तरफ से होती थी। ही था। यह मन्दिर दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनो सप्रदायो का प्लीडर हो जाने पर पहले एक साल तक तो आपने सयुक्त था। आप उसमे रोज दर्शन करने जाते थे और सहारनपुर मे वकालत की, और उसके बाद आप देवबन्द शास्त्र भी सुनते थे। उससे आपको जैनधर्म के जानने की आ गए और वहाँ सन् १९१४ तक वकालत करते रहे। जिज्ञासा उत्पन्न हुई। वकालत का पेशा आपको पसन्द न था, परन्तु परि- उन्ही दिनो फर्रुखनगर से चौधरी जियालाल ने 'जैन स्थितियोंने कुछ ऐसा मजबूर किया कि आपको वकालत प्रकाश' नामका मासिक पत्र निकाला, आपको वह अत्यन्त का कार्य करना ही पडा । परन्तु मन मे उसके प्रति कसक प्रिय लगा. और आपने घर-घर घूम कर उसके अनेक बनी रही। और तीन-चार वर्षके बाद एक दिन तो मन में दिन तो मन में ग्राहक बनाये। वहाँ के प्रायः सभी दिगम्बर घरों में वह ऐसा उद्वेग हा और वकालत छोड़ने का निश्चय कर पत्र प्राने लगा था। जैन समाज में हिन्दी का संभवतः Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जन संस्कृति में योगदान ४५ यह पहला पत्र था। दक्षिण को जैन समाजको जागृत जैन ग्रन्थो के छपने का प्रस्ताव किया था। अतएव १० करनेवाले सेठ हीराचन्द नेमचन्द द्वारा संभवत: उस समय प्यारेलाल जी ने मोचा कि यदि महासभा रही तो जैनग्रथ 'जैन बोधक' भी निकलने लगा था। छपने का बखेडा खडा हो जायगा इससे महासभा को सन् १८८५ के लगभग मुरादाबाद के मुंशी मुकुन्द- समाप्त कर देना ही श्रेयस्कर है। रायजी और प० चुन्नीलालजी ने निश्चय किया कि जैन तब बाबूजी ने महासभा को फिर में पुनरुज्जीवित समाजकी उन्नति के लिए कुछ प्रयत्न किया जाय । मुंशी करने का निश्चय किया, जिसका प० चुन्नीलालजी ने अनुजो संस्कृत, फारसी और अरबी के पडित थे और जमी- मोदन किया। और इटावा जाकर मुशी चम्पतराय जी की दार भी थे और प० चुन्नीलालजी मस्कृतन विद्वान थे भी अनुमति ली, अन्ततोगत्वा मथुराके मेलेमे महासभा को और पाढतका काम करते थे। दोनो विद्वानो ने जगह- पुनरुज्जीवित किया गया। बाबू चम्पतरायजी उसके महाजगह भ्रमण किया, जैन सभाए तथा जैनपाठशालाए मत्री बनाये गये । सभा की ओरसे एक साप्ताहिक पत्र भी स्थापित की। इन्होंने एक 'जैन पत्रिका' भी प्रकाशित की निकालने का निश्चय किया गया और उसका नाम 'जन थी, जिममे उनके भ्रमणका वृत्तान्त रहता था और वह सब गजट' रग्वा गया और उसके मबसे पहले सम्पादक बाबू जगह मुफ्त भेजी जाती थी। मुशी मुकन्दरायजी बडे सभा. मूरजभान जी बनाए गए। यह बात जैन गजट के प्रथम चतुर थे। अपने प्रवास मे उन्होने बड़े कार्य किये-एक सम्पादक, यह घटना मभवतः सन् १६०१-२ की है। तो मथुरा मे जैन महासभा की स्थापना की और राजा बाबजी ने 'जैन गजट' का सम्पादन कार्य डेढ वर्ष के लक्ष्मणदास जी सी० आई० ई० को उमका अध्यक्ष बनाया लगभग किया। उसके अनेक ग्राहक बनाये जिनकी सख्या और दूसरे अलीगढ़ मे १० छेदालालजी की अधीनता में लिजा का प्रधानता म ५०० के हो गई थी। बाबजी ने परिश्रम करके उसका कोई भी एक बढी पाटगाला जैन विद्वान तैयार करने के लिए की। मालन किया उसका प्रचार सब किया। वकालत उक्त दोनो विद्वानों के कार्य का बाबूजी पर बडा हुए निस्वार्थ भाव से सेवा करना बहात ही कठिन कार्य है। प्रभाव पड़ा। बाबू जी उन्हे अपना गुरु मानते थे, और उन्होंने उस समय उनकी वकालत अच्छी चल रही थी। यद्यपि उनके पदचिन्होका अनुसरण भी किया। अब बाबजीने जैन वकालत की अोर उनका प्रान्तरिक भुकाव न था, फिर भी ग्रन्थों के स्वाध्याय में मन लगाया और धीरे-धीरे जैनधर्म उन्हें करना ही पड़ता था। उसे करते हुए भी मामाजिक की यथेष्ट जानकारी प्राप्त कर ली। एव धार्मिक कार्यों में कमी नहीं आने देते थे। जैन गजट देवबन्द में वकालत करते हए मन १८९२ या ३म के जीवन की सबसे उल्लेखनीय घटना यह थी कि बाबजी बाबूजी ने 'जैन हितोपदेशक' नामका मासिक पत्र उर्द में ने उसे दशलक्षण पर्व में दम दिन के लिा दैनिक बना जारी किया। उसमे 'उपदेशक फण्ड' कायम करने की दिया था और ऐमा प्रबन्ध किया था कि प्रत्येक ग्राहक को अपील की गई और वह कायम भी हो गया। उसके मंत्री वह दस दिनो तक पढने को मिलता था। मुशी चम्पनराय जी डिप्टी मजिस्ट्रेट बनाए गए और इधर जैन ग्रन्थों की छपाई के सामाजिक विवाद के ज्योनिपरत्न चौधरी जियालाल ने उक्त फण्ड की ओर से कारण उत्तरोनर विरोध बढ़ता गया, तब मुशी चम्पतदौरा शुरू किया। रायजी की मम्मति मे बाबूजी ने जैनगजट की सम्पादकी दीपावली की छट्रियों मे मरमावा के हकीम उग्रसैन से स्तीफा दे दिया। परन्तू 'जन हितोपदेशक' को बराबर जी के माथ बाबूजी ने भी उक्त फण्ड की ओर से एक लम्बा चालू रखा। महारनपुर के लाला उग्रसैन जी बाबूजी को दौरा किया। इस दौरे में उन्हें मुरादाबाद में मालूम हुआ बहुत चाहते थे, उन्होने बाबूजी को वहाँ जैन सभाका मत्री कि मथुरा में स्थापित महासभा का प० प्यारेलाल जी बनाया था। महासभा के मेले पर जब छापे का सगठित अलीगढ की कृपासे विघटन हो गया है। क्योकि मोलापुर विरोध हुआ तब उग्रसैन जी बोले कि सहारनपुर जिले का के स्व० सेठ हीगचन्द नेमचन्द ने महामभा के जल्से में जुम्मा मै लेता हूँ कि शास्त्र जी नही छप पायेगे । तब बाब Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जीने गरज कर कहा कि शास्त्रों की छपाई का काम तो कुएं में डाल'। सेवा से वे घबराते भी न थे, मुख्तार सा० मबसे पहले सहारनपुर जिले मे ही होगा, देखे कौन की प्रेरणा से वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा मे कितने ही गेकता है। महीने रहे, गोत्र कर्माश्रित ऊँचता-नीचता पर लेख भी __ अनंतर बाबूजी ने नकुड़ के रईस ला० निहालचन्दजी लिखे, भाग्य और पुरुषार्थ नामका लेख लिखा। अनेकान्त की सम्मति से जैन ग्रन्थो के छापने और उनके प्रचार के में उनके कई लेख प्रकाशित हुए, उनसे मुझे लेख लिखने लिए एक संस्था स्थापित की और लगभग एक हजार की प्रेरणा मिली। शोधकार्य में भी उनकी प्रेरणा रही। रुपया इकट्ठा कर ग्रन्थ छापने का कार्य शुरू भी कर दिया। उन्होंने मुझे अपनी जीवनी के कुछ नोट्स कराये थे, पर पहले शायद रत्नकरन्ड श्रावकाचार छपा था। बाबू ज्ञान- उनमे से कुछ नष्ट हो गए, जितने मिले उनके आधार पर चन्दजी इसमे शामिल थे। उन्होने लाहौरसे कई ग्रन्थ ही यह लेख लिखा है। छपवाये थे। इस तरह छापे का जितना विराध हुआ बाबूजी ने कई पुस्तके लिखी है, कई ग्रन्थोके अनुवाद उसके बावजद ग्रन्थो का प्रकाशन बराबर बढता ही चला हिन्दी मे किये है, उनमे द्रव्यसग्रह की टीका अच्छी है। गया । यद्यपि छपानेवालो से महानुभूति रखनवाला का भा जीवन-निर्वाह, जननी और शिश, विधवा कर्त्तव्य, ब्याही समाज ने बहिष्कार किया किन्तु उन्हे सफलता नही बहू, असली नकली धर्मात्मा, तारादेवी, रामदुलारी, सती मिली। जैन हितोपदेशक पत्र भी बन्द हो गया। उसके सतवती, गृहदेवी, मगलादेवी, मनमोहिनी उपन्यास, बाद हिन्दी मे 'ज्ञान प्रकाशक नामका पत्र निकाला। भाग्य और पुरुषार्थ, पार्यमत लीला, ऋग्वेद के बनानेवाले कुछ वर्षों के बाद सन् १९०७ मे महासभा का जल्सा ऋषि, आदिपुराण पद्मपुराण-समीक्षा, द्रव्यसग्रह, षट्पाहुड़, कलकत्ता मे हया और उसमे बाबूजी शामिल हुए। उन परमात्मप्रकाश, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और वसुनन्दि श्रावदिनो जैन गजट की बड़ी दुर्दशा हो रही थी। उसके लिए काचार । ज्ञान सूर्योदय दो भाग, जैनधर्मप्रवेशिका, श्रावियोग्य सम्पादक की आवश्यकता थी। तब बाबूजी ने अपने का धर्मदर्पण, युवकों की दुर्दशा आदि । सहयोगी पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार के सुपुर्द कराया, इन पुस्तको मेसे कुछ मैने पढ़ी है । भाषा अच्छी और और जैन गजट का सम्पादन प्रकाशन देवबन्द (सहारन- सरल है, उसमे दुरूहता नही है। कुछ पुस्तकोका प्रकाशन पर) से होने लगा। देवबन्द मे प्राकर जैन गजट खूब पं० नाथरामजी प्रेमी बम्बई ने किया है। उनके अनेक चमका और उसके १५०० ग्राहक हो गये । प० जुगल- लेख भी जनहितैषी में प्रकाशित हुए है, जिनका सम्पादन किशोर जी ने उसका अच्छा सम्पादन ३ वर्ष तक किया। सीजी ने किया था। उनके समीक्षा-लेखो परति उसमे बाबूजी का पूरा-पूरा सहयोग रहा। उन्ही दिनो चला, प० लालारामजी शास्त्री ने उनका उत्तर लिखा, तो बाबजी ने आर्य समाज के प्रतिवाद मे 'पार्यमत लीला' भी बाबूजी ने उनका कोई प्रत्युनर नही लिखा, उनकी ऋगवेद के बनानेवाले ऋषि आदि महत्त्वपूर्ण लेख लिखे। आलोचना की ओर मैने ध्यान भी दिलाया, तब वे कहने १२ फरवरी सन् १९१४ को बाबूजी ने अपनी चलती लगे कि विवाद मे पड़ना निरर्थक है, मैंने अपने विचार हुई वकालत छोड़ दी। और समाज-सेवा मे अपना जीवन लिखे है, जनता को अच्छे लगे मान लेगी, न लगें नही अर्पण कर दिया। बाबूजी बडे मिलनमार और प्रगतिशील मानेगी, परन्तु सिद्धान्त की बात एक है कि अपनी बात विचारवाले विद्वान थे। समाज-सेवा मे वे अग्रणी रहे, कह देना और चुप हो जाना । कालान्तर मे उसका प्रभाव किन्तु प्रगतिशील विचारो के कारण लोकप्रिय न बन पढ़े बिना नहीं रहता। सके । समाज-सेवा के बदले में उन्होने कभी पुरस्कार नहीं आज बाबूजी यहाँ नही है, वे परलोकवासी हो चुके चाहा, और न नामवरी की इच्छा ही की। उन्होंने यशो- है, किन्तु उनका साहित्य ही उनकी सेवा का मूल्याकन लिप्साकी कभी चाह नहीं की, पर सेवा-कार्य से मुख मोड़ना कराता रहेगा। भी नहीं जानते थे। वे कहा करते थे कि 'नेकी करो और (क्रमशः) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १वावा छोटेलाल जी जैन स्मृति प्रन्थ-प्रकाशक बाबू के पात्र है। इस ग्रन्थ के सम्पादनादि का सब क र्य जैन छोटेलाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ समिति कलकत्ता । प्राकार समाज के प्रसिद्ध विद्वान पं० चैनसुखदास जी जयपुर २०४३० अठपेजी पृष्ठ संख्या ७००, सजिल्द प्रति का और उनके सहयोगियों ने किया है। इसके लिये वे विशेष मूल्य २०) रुपया। धन्यवाद के पात्र हैं ! ग्रन्थ मगाकर प्रत्येक लायब्ररी ___इस ग्रन्थ की सामग्री का सकलन और अभिनन्दन पुस्तकालय में रखना आवश्यक है। ममिति का निर्माण बाबू छोटेलालजी के जीवन काल मे ही २ युगवीर निबन्धावली द्वितीयखण्ड-लेखक जुगलहो गया था किन्तु उक्त बाबू साहब का स्वर्गवास हो किशोर मुख्लार, प्रकादाक प० दरबारीलाल कोठिया मंत्री जाने से अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन स्मृति ग्रन्थ के रूप में वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट २१ दरियागज, दिल्ली । पृष्ठ संख्या करना पड़ा है। फिर भी यह कम सन्तोष की बात नही १००, मूल्य पाठ रुपया । है कि उसका प्रकाशन इतने सुन्दर रूप मे हुअा है। प्रस्तुत ग्रथ, जैन समाज के प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् जब जैन समाज में जीवित समाज सेवियों को कोई नही पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार के द्वारा ममय समय पर पूछता, तब मरने पर तो कहना ही क्या है ? लिखे गये लेखों का सकलन मात्र है, जिससे ग्रथ का नाम ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है हिन्दी विभाग और अंग्रेजी 'युगवीर निबन्धावली' नाम मार्थक है । ग्रन्थ दो खण्डो में विभाग । हिन्दी विभाग ४०० पृष्ठों में, और अंग्रेजी विभाजित है, पहले खण्ड मे ५१ मौनिक निबन्ध दिये हुए विभाग ३०० पृष्ठों मे है। दोनों ही विभागो में लेखों का है। और दूसरे खण्ड में ६५ निबन्ध प्रात्मसात हए है। चयन बहुल मुन्दर हुआ है। भर्ती का कोई भी लेख नही जो उत्तरात्मक, समालोचनात्मक, स्मृति परिचयात्मक, है, हिन्दी विभाग तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम विनोद शिक्षात्मक और प्रकीर्णक रूप में विभक्त हैं। ये ग्वण्ड में सस्मरण और श्रद्धांजलियाँ है दूसरे खण्ड मे सब निबन्ध संवत् १९०७ मे १९६६ तक के है जो जैन इतिहास' पुरातत्त्व-विषयक २६ लेख है, तीसरे खण्ड में हितैषी, जैनगजट, जनजगत और अनेकान्त आदि पत्रो में साहित्य धर्म-दर्शन विषयक १८ लेख है। और अग्रेजी प्रकाशित हो चुके हैं। मुख्तार मा० वयोवृद्ध विद्वान है विभाग में ४३ लेख है । जो जैन विषयों से सम्बद्ध है। उनको लेखनी से प्रायः सभा जन परिचित है। वे जा हिन्दी अग्रेजी मे सभी लेख जैन जैनेतर विशिष्ट विद्वानो लिखते है वह सब सयुक्तिक मार सप्रमाण हाता है । द्वारा लिखे गए है। चूंकि बाबू छोटेलाल जैन पुरातत्त्व के उन्होंने जन माहित्य और जैन समाज की बड़ी मेवा की है, उन्हान जन मा प्रेमी विद्वान थे, अच्छे लेखक और विचारक थे उनकी भारत वे ६२ वर्ष की इम वृद्धावस्था में भी लिख रहे हैं। जैन के पुरातत्वज्ञ विद्वानो से बड़ी मित्रता थी। अग्रेजी में १० समाज उनकी इम अपूर्व देन का गौरव करे। उनकी ११ लेख इस विषय पर है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है, और सेवाग्रो का मूल्य पाके । और उनका सार्वजनिक अभिनन्दन वे पुरातत्त्व के विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा लिखे गए है । जिनमे । करे । ग्रन्थ के मभी निबन्ध महत्त्वपूर्ण है। इसका प्राक्कथन पद्म विभूषित डा० टी० एन० रामचन्द्रन भी है । ग्रन्थ उप- डा० ज्यातिप्रसाद जा लखनऊ ने लिखा है। प्रत्येक पु योगी पठनीय व संग्रहणीय है। इस ग्रन्थका कुल व्यय भार कालय पीर लायबेरियो में इसका मग्रह होना चाहिए। बाबू जुगमन्दिरदास जी कलकत्ता ने वहन किया है। जो ३ वर्णो अध्यात्म पत्रावली-सयोजक श्री वर्णी बाबू छोटेलाल जी के प्रिय मित्र थे । उन्होने अपने साधर्मी स्नातक परिषद् सतना, प्रकायक गणेशवर्णी ग्रन्थमाला कर्तव्यका पूर्ण रूप से पालन किया है, इसके लिये वे धन्यवाद वाराणसी । मूल्य एक रुपया । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनेकान्त प्रस्तुत पुस्तक प्रात. रमरणीय पूज्य माध्यात्मिक सत वाकलीवाल स्मारक समिति जयपुर। पृष्ठ संख्या ४४० । गणेश प्रसाद वर्णी द्वारा समय समय पर विभिन्न व्यत्तियो मूल्य १५ रूपया। को लिखे गये उन माध्यात्मिक पत्रो का सकलन मात्र है, प्रस्तुत ग्रन्थ राजस्थान के प्रसिद्ध सेठ भवरीलाल जी जो आध्यात्मिक, उपदेशिक और सम्बोधक है। वर्णी जी वाकलीवाल की स्मृति में प्रकाशित किया गया है। जिसमे समयसार के रसिया थे । उनका प्रत्येक पत्र अध्यात्म रस उनका जीवन परिचय श्रद्धाजलिया, सस्मरण और विशिष्ट में सराबोर है, उन्हें पढते ही प्रात्मा पर जो प्रभाव अकित लेख है । ग्रन्थ उनके जीवन से सम्बन्धित अनेक चित्र भी होता है वह शब्दो द्वाग व्यक्त नही किया जा सकता। दिये गये है, जिससे उनके कार्यो का और कुटुम्ब का वर्णी स्नातक परिषद् ने इस पुस्तक को बहुत ही सुन्दर अच्छा परिचय मिल जाता है श्रद्धाजलिया और सस्मरणो रूप में प्रस्तुत किया है । छपाई सफाई आकर्षक है। मूल्य मे सेठ जी के प्रति श्रद्धापूर्ण उद्गार प्रकट किये गये है। भी अधिक नहीं है । अध्यात्म के जिज्ञामुत्रो को इसे मगा इससे स्वर्गीय आत्मा का विस्तृत जीवन परिचय मिल कर अवश्य पढ़ना चाहिए। जाता है। विशिष्ट लेखो का चयन सुन्दर बन पड़ा है। ४ श्री भंवरीलाल वाकलीवाल स्मारिका-मम्पादक अनेक लेख ऐतिहासिक शोध-खोज को लिये हुए है । ग्रन्थ प० इन्द्रलाल शास्त्री, प० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, डा० की छपाई सफाई सुन्दर है प० इन्द्रलाल जी शास्त्री को लालबहादुर शास्त्री। प्रकाशिका-भा० शातिवीर दि० इसमें विशेष श्रम करना पड़ा है, जिसके लिये वे धन्यवाद जैन सिद्धान्तसरक्षिणी सभा के अन्तर्गत भंवरीलाल के पात्र है। -परमानन्द शास्त्री (पृ० ४२ का शेषांश) अर्घकाण्ड कई व्यक्तियो के मिलते है। इसलिए यहाँ ग्रन्थ कार को किसके रचित अर्घकाण्ड की मूचना अभीष्ट है, राशिमडल और ज्ञान कोई ग्रन्थरूप में तो गौतम स्वामी कहा नहीं जा सकता। पृष्ठ ४२० मे इत्यगत सहिताया के नाम से ज्ञात नहीं है। पता नही मेघविजय उपाध्याय रोहिणी सकटयोग. लिखा है यह सहिता कौन-सी है? पृष्ठ ने यह कहाँ से लिया है। १५४ में जीर्णग्रन्थ के पाठान्तर दिये है। पर ग्रन्थ और मेघमहोदय मे उपरोक्त रचनायो के अतिरिक्त कई कर्ता का नाम नही दिया। जन पागमो व ग्रन्थो का उद्धरण है। जैनेतर ग्रन्थों में मेघमहोदय में उल्लिखित पर अनुपलब्ध ग्रन्थो मे २ जगनमोहन, गिरधरानन्द, शर्माविनोद, वारासंहिता, नर- सबसे अधिक उल्लेखनीय है। हीरविजय सूरी की हीरपतिजयचर्या, अगस्ति, भृगुमुत, रूद्रीयमेघमाला, रत्नमाला, मेघमाला और दिगम्बर केवलकीति की मेघमाला। इसी सारसग्रह, कश्यप, बालबोध, गार्गीयसहिता प्रादि ग्रन्थो के तरह भद्रबाह सहिता की प्राकृत गाथाये उद्धृत है तो उद्धरण दिये है उनमें से कुछ ग्रन्थ सम्भव है अप्रसिद्ध प्राकृत भाषा को उक्त सहिता कही प्राप्त है ? दुर्गदेव के हों। कही कही पर ग्रन्थ के नाम निर्देश बिना उद्धरण दे षष्टि संवत्सर के नाम से जिन पद्यों को उद्धृत किया है दिये है। कही केवल मेघमाला या मेघमालाकार लिख वे पद्य दुर्गदेव के रचित अर्धकाण्ड में मिलते है, या इस दिया है । पता नही वहाँ किसके रचित कौन सी मेघमाला नाम का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ है? इत्यादि बातों पर विशेषज्ञ की सूचना है। कई जगह अर्घकाण्ड के उद्धरण है। पर और शोध प्रेमी प्रकाश डाले। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित अजितकुमार जी का आकस्मिक वियोग १० अजितकुमार जी शास्त्री पद्मावती पुरवाल जाति के उच्चकोटि के समाजसेवी विद्वान थे। उनका जन्म चावली जिला आगरा मे हुया था । अध्ययन के बाद वे मुलतान चले गय थे । वहा उनका प्रकलक प्रेस था । मुलतान जैन समाज में उनका अच्छा सम्मान था। वे हिन्दुस्थान पाकिस्तान बटवारे के समय अपना प्रेस लेकर पहले महारनपुर याय थे और बाद में देहली। दिल्ली में उनका अभय प्रेम चलता है। शास्त्रीजी बड़े परिश्रमी सुयोग्य लेखक और विचारक थे । आपने ग्रार्य ममाजियो के खडन में पुस्तक नियी थी, नथा वेताम्बर मत समीक्षा, दैनिक जैनधर्मचर्या, विधिका विधान, तात्विक विचार, जैनधर्म परिचय यादि अनेक पुस्तकं भी लिखी है । जैनबधु और जैनदर्शन पत्रों का प्रकाशन भी किया किया। भा० दिगम्बर जैनसघ के वे मदम्य रहे। आर्य समाज से होने वाले शास्त्रार्थों में बगवर योग देते रहे। वर्षो मे वे जैन-गजट के सम्पादक थे। वे प्राचीन पोटो के विद्वान थे। उनकी लेखनी मरल और भाषा मुहावरेदार थी। वे वीग्मेवामन्दिर की कार्यकारिणी के भी सम्मानित मदम्य थे। उनके अकस्मान निधन में जो भार्ग क्षति हुई है उसकी पूति होना मभव नही है। पाप अपने पीछे पत्नी, एक पुत्री और एक पुत्र अविवाहित छोट गा है। उनके वियोग में दि० जन लाल पं० प्रजितकुमार शास्त्री मन्दिर में अनेक मस्थायी---भा० दि० जैन महामभा, दि. जैन परिषद्, वीर मेवामन्दिर, जैनमित्र मण्डल, भारत-जैन महामण्डल, जैन मगठन सभा, गास्त्री परिषद्, मुल्तान जैन समाज, पद्यावती पुग्वाल जैनपचाटन और पाश्वनाथ जैन युवक मण्डल आदि-की ओर से प्रायोजित सभा में जो नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक अक्षय कुमारजी जन की अध्यक्षता में हुई थी, उनके जीवन परिचय और ममाज-सेवा का उल्लेख करते हुए उक्त मम्था मचालको ने अपनी भावभरी श्रद्धाजलि अर्पित की थी, अनेक विद्वानों के माथ वीर सेवामन्दिर के मयक्त मत्री बाबू प्रमचन्द जैन कश्मीर वालो ने भी वीर सेवामन्दिर की ओर से अपनी हादिक श्रद्धाजलि अर्पित की। हम अनेकान्त परिवार को पोर में दिवगत ग्रान्मा के लिए यान्ति की कामना करते हा शोक संतप्त परिवार के प्रति अपनी हार्दिक समवेदना प्रकट करते है। वीरशासन जयन्ती इस वर्ष वीरशासन जयन्ती १० जुलाई बुधवार के दिन मन् १६६८ को अवतरित हुई है। अन्य वर्षों की भाति इस वर्ष भी वीरशासन जयन्ती का महोत्सव १० जुलाई को बीर मेवामन्दिर २१ दरियागजमे प्रात काल मनाया जावेगा । सर्व महानुभाव पधार कर धर्मलाभ ले । -सं० प्रेमचन्द जैन Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (1) पूरातन-चैनवाश्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-चाक्यो की मची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट की भमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५... (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर, विवेचम को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ... (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेपणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण ममन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से प्रलकृत, सजिल्द । ७५ (७) श्रीपूरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ७५ (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (E) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ मंस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलकृत, सजिल्द । (११) ममाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित (१२) अनित्यभावना-प्रा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाबन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीथं । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ '१६ पैसे, (५) समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ पैसे, (६) महावीर पूजा २५ (१६) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (समाप्त) २५ (१७) अध्यात्म रहस्य-प. प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह। '५५ प्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स. ५० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (१६) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-सघ प्रकाशन ५.०० (२०) कसायपाहुड सुत्त-मूलग्रन्थ की रचना अाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १.०० से भी अधिक पृष्ठो मे। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... ... २०.०० (२१) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में मनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृ. पक्को जिल्द ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूमासिक जून १९६८ সুকান। *********************** XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX**** XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX कल्पवृक्ष पर कमलाशीन तीर्थकर राजघाट, वाराणसी Xxxxxxxxxxxxxx********* समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ वीर-सेवा मन्दिर को सहायता २१) ला• केशोचन्द जी जैन डिप्टीगज ने ला. पन्नालाल जी के स्वर्गवास के समय निकाले हुए दान मे से सबन्यवाद प्राप्त हुए। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' अनेकान्त को सहायता विषय-सूची क्रमांक विषय १. चिदात्मवदना-मुनिपयनन्दि २. व्याप्ति अथवा अविनाभाव के मूल स्थान की खोज-५० दरबारीलाल ३. पारस्परिक विभेद मे अभेद की रेखाएं - साध्वी कनककुमारी ४. पागम और त्रिपिटको के संदर्भ में अजातशत्रु कुणिक-मुनि श्री नगगज ५. पडित भगवतीदास कृत ज्योतिषसार-डा. विद्याधर जोहरापुरकर ६. 'टूडे' ग्राम का अज्ञात जैन पुगतत्त्व---प्रो. मागचन्द 'भागेन्दु' एम. ए. ७. मस्कृत से अरुचि क्यो?-4. गोपीलाल 'अमर' एम. ए. ८. देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद १० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री चित्तौड का कीर्तिस्तभ-५० नेमचन्द धन्नूसा जैन महावीर का मार्ग-मोहिनी सिंघवी ११. दिगम्बर परम्परा में आचार्य सिद्धसेन १० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री १२. भ० शुभकीति और शान्तिनाथ चरित्र ५० परमानन्द शास्त्री अग्रवालो का जैन सस्कृति में योगदान परमानन्द शास्त्री १४. साहित्य-समीक्षा--परमानन्द शास्त्री ११) ला० पन्नालाल जी के स्वर्गवास के समय निकाले हुए दान मे से ग्यारह रपया अनेकान्त को फर्म ला० घमण्डीलाल नन्हेंमल जैन कसरे सदर बाजार से सधन्यवाद प्राप्त हुए। व्यवस्थाप 'अनेकान्त' २१ दरियागज, दिल्ली १३. न्याय-दीपिका प्राचार्य अभिनव धर्मभूषण की न्याय-दीपिका का दूसग सम्करण तय्यार हो गया है। इस ग्रन्थ के सपादक और अनुवादक पं. दरबारीलाल जी कोठिया एम. ए. न्यायाचार्य वागणसी है। प्राक्कथन, प्रस्तावना और परिशिष्टादि से अलकृत मूल्य सजिल्द प्रतिका ७) रुपया । ग्रन्थ पौने मूल्य में दिया जाएगा । और विद्यार्थियों को विशेष रूप से ५) रुपये में दिया जाएगा। मगाने की जल्दी करे । डाक खर्च अलग होगा। व्यवस्थापक: वोर सेवामन्दिर २१ बरियागज, दिल्ली। सम्पादक-मण्डल डा०मा० ने० उपाध्ये डा. प्रेमसागर जेन श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पारक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक भनेकान्त अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५५० Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् अहम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष २१ ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६४, वि० सं० २०२५ जून किरण २ - सन् १९६८ चिदात्म वन्दना चिदानन्दैक सद्धावं परमात्मानमव्ययम् । प्रणमामि सदा शान्तं शान्तये सर्वकर्मणाम् ॥१ खादि पञ्चक निमुक्तं कर्माष्टकविवजितम् । चिदात्मकं परं ज्योतिर्वन्दे देवन्द्रपूजितम् ॥२ यदव्यक्तमबोधानां व्यक्तं सद्बोध चक्षुषाम् । सारं यत्सर्ववस्तनां नमस्तस्मै चिदात्मने ॥३ -मुनि श्री पद्मनन्दि अर्थ-जिस परमात्मा के चेतन स्वरूप अनुपम अानन्द का मद्भाव है तथा जो अविनम्बर एव शान्त है उसके लिए मैं (पयनन्दि मुनि) अपने समस्तकों को शान्त करने के लिए मदा नमस्कार करता हूँ ॥१॥ जो आकाश आदि पाच (आकाश, वायु, अग्नि, जन और पृथिवी) द्रव्यो से अर्था। शरीर से तथा ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों से भी रहित हो चुकी है और देवो के इन्द्रो से पूजित है ऐमी उम चैतन्यरूप उत्कृष्ट ज्योति को मै नमस्कार करता हूँ ॥२॥ जो चेतन प्रात्मा अज्ञानी प्राणियो के लिए अम्पष्ट तथा सम्यग्जानियो के लिए स्पष्ट है और मस्त वस्तुमों में श्रेष्ठ है उस चेतन प्रात्मा के लिए नमस्कार हो ॥३॥ -.c: Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याप्ति अथवा अविनाभाव के मूल स्थान की खोज श्री दरबारोलाल कोठिया अनुमान का सबसे अधिक महत्वपूर्ण और अनिवार्य न्यायवात्तिककारको भी न्यायसूत्रकार और न्यायभाष्यकार अङ्ग व्याप्ति है। इसके होने पर ही साधन साध्य का की तरह अविनाभाव और व्याप्ति दोनो अमान्य है। गमक होता है, उसके प्रभावमें नहीं । अतएव इसका दूसरा उल्लेख्य है कि उद्योतकर'-अविनाभाव और व्याप्ति की नाम अविनाभाव भी है। समीक्षा कर तो गये, पर स्वकीय सिद्धान्त की सिद्धि मे __ देखना है कि इन दोनो शब्दो का प्रयोग कबसे उनका उपयोग उन्होने असन्दिग्धरूपमे किया है। उनके आरम्भ हुअा है । अक्षपादके' न्यायसूत्र और वात्स्यायनके' परवर्ती वाचस्पति मिश्रने' अविनाभावको हतके पाँच न्यायभाष्यमे न व्याप्ति शब्द उपलब्ध होता है और न रूपोमे समाप्त कहकर उसके द्वारा ही समस्त हेतुरूपोका अविनाभाव । न्यायभाष्यमें इतना मिलता है कि लिङ्गीमे सग्रह किया है । पर वे भी अपने कथनको परम्परा-विरोधी सम्बन्ध होता है अथवा वे सम्बद्ध होते है । पर वह सम्बद्ध देखकर अविनाभावका परित्याग करके उद्योतकरके अभिव्याप्ति अथवा अविनाभाव है, इसका वहाँ कोई निर्देश प्रायानुसार पक्ष धर्मत्वादि पाँच हेतु रूपोको ही महत्व देते प्राप्त नही होता । गौतमके हेतु लक्षण-प्रदर्शक मूत्रोसे भी है, अविनाभाव को नही । जयन्तभट्टने अविनाभाव को केवल यही ज्ञात होता है कि हेतु वह है जो उदाहरणके स्वीकार करते हुए भी उसे धर्मत्वादि पाँच रूपोम समाप्त साधर्म्य अथवा वैधय॑से साध्यका साधन करे । तात्पर्य यह बतलाया है । और उसे व्याप्ति, नियम तथा प्रतिबन्ध कि हेतु को पक्ष में रहने के अतिरिक्त सपक्षमे विद्यमान कहा है। और विपक्षसे व्यावृत्त होना चाहिए, इतना ही अर्थ हेतु इस प्रकार वाचस्पति और जयन्तभट्ट के द्वारा जब लक्षणसूत्रोसे ध्वनित होता है, हेतु को व्याप्त (व्याप्ति स्पष्टतया अविनाभाव और व्याप्तिका प्रवेश न्यायपरम्परा विशिष्ट या अविनाभावी ) भी होना चाहिए, इसका में हो गया तो उत्तरवर्ती न्यायग्रथकारोंने उन्हे अपना उनसे कोई सकेत नही मिलता । उद्योतकरके न्यायवात्तिक लिया और उनकी व्याख्याएं प्रारम्भ कर दी । यही कारण से अविनाभाव और व्याप्ति दोनो शब्द प्राप्त होते है। है कि बौद्धताकिको द्वारा मुख्यतया प्रयुक्त अनन्तरीयक पर उन्हें उद्योतकरने पर मत के रूप में प्रस्तुत किया है (या नान्तरीयक ) तथा प्रतिबन्ध और जैन तर्कप्रथकागे तथा उनकी मीमासा भी की है। इससे प्रतीत होता है कि के द्वारा प्रधानतया प्रयोगमे आनेवाले अविनाभाव एव १ न्यायमू०१ । १ । ५,३४३५ । २. न्यायभा० १ । १ । ५, ३४, ३५ । ३. लिगलिगिनो. सम्बन्धदर्शन लिगदर्शन चाभिसम्बध्यते लिगलिगिनो सम्बद्धयोर्दर्शनेनलिंगस्मृतिरभिसम्बध्यते । -न्यायभा०१।१ । ५। ४. न्या० मू०१।१३४, ३५ । ५. अविनाभावेन प्रतिपादयतीति चेत् तन्न...। -न्यायवा० ११११५, पृ० ५० तथा ११११५, पृ० ६. न्यायवा० ११११५पृ० ४७, ४६ । ७. यद्यप्यविनाभाव पचसु चतुर्पु वा रूपेषु लिंगस्य समा प्यते इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिगरूपाणि सगृह्यन्ते, तथापीह प्रसिद्धसच्छब्दाभ्यां द्वयोः सग्रहे गोवलीवदन्यायेन तत्परित्यज्य विपक्षव्यतिरेकासत्प्रतिपक्षत्वावाधित विषयत्वानि संगृह्णाति । -न्यायवा० तात्प० ११११५, पृ. १७८ । ८. एतेषु पचलक्षणेष अविनाभावः समाप्यते । -न्यायकलिका पृ०२। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याप्ति अथवा अविनाभाव के मूल स्थान की खोज व्याप्ति जैसे शब्द उद्योतकरके बाद न्यायदर्शनमे समाविष्ट शुद्ध अविनाभाव नही। यही कारण है कि टिप्पणकार हो गये व उन्हें एक-दूसरे का पर्याय माना जाने लगा। ने' अविनाभाव का अर्थ 'व्याप्ति' एवं 'अव्यभिचरित जयन्तभट्टने' अविनाभाव का स्पष्टीकरण करनेके लिए सम्बन्ध' दे करके भी शकर मिश्र द्वारा किये गये अविनाव्याप्ति नियम प्रतिबन्ध साध्याविनाभावित्व इन सबको भाव के खण्डनसे सहमति प्रकट की है और "वस्तुतस्त्व उमीका पर्याय बतलाया है । वाचस्पति' कहते है कि लिग नौपाधिक सम्बन्ध एव व्याप्तिः" इस उदयनोक्त' व्याप्ति का कोई भी सम्बन्ध हो उसे स्वाभाविक एव नियत होना लक्षण को ही मान्य किया है। इससे प्रतीत होता है कि चाहिए और स्वाभाविकका अर्थ वे उपाधिरहित बतलाते अविनाभाव वैशेषिक दर्शन की भी स्वोपज्ञ एव मौलिक है। इस प्रकार का लिंग ( साधन ) ही गमक होता है मान्यता नही है । और दूसरा सम्बन्धी ( लिंगी) गम्य । तात्पर्य यह कि कुमारिलके मीमासा श्लोकवात्तिक' में व्याप्ति मौर उनका अविनाभाव या व्याप्ति शब्दो पर जोर नही है। अविनाभाव दोनो शब्द मिलते है । पर उनके पूर्व न पर उदयन, केशव मिश्र, अन्नम्भट्ट विश्वनाथ' प्रभृति जैमिनिमूत्रमे वे है और न शबरस्वामी के शाबरभाष्यमे । नैयायिकोने तो व्याप्ति शब्दको अपनाकर उसीका विशेष बौद्धतार्किक शकर स्वामीके न्यायप्रवेशमे अविनाभाव व्याख्यान किया है तथा पक्षधर्मताके साथ उसे अनुमानका और व्याप्ति दोनो शब्द नहीं है। पर उनके अर्थ का प्रमुग्य अग बतलाया है। गगेश और उनके अनुवर्ती बोधक नान्तरीयक ( अनन्तरीयक ) शब्द पाया जाता वर्द्धमान उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, वासुदेव मिथ, रघुनाथ है। धर्मकीति 'धर्मोनर, अर्चट,' आदि बौद्ध नैयायिकोने गिगेमणि, मथुरानाथ तर्कवागीश, जगदीश तर्कालकार, इन दोनो शब्दोके अतिरिक्त उक्तार्थ प्रतिबन्ध और नान्त गदाधरभट्टाचार्य प्रादि नव्यनैयायिकोन व्याप्तिपर सर्वाधिक रीयक शब्दो का भी प्रयोग किया है। इनके पश्चात् तो चिन्तन और निबन्धन किया है । गगेशने तत्वचिन्तामणिमे उक्त शब्द बौद्ध तकंग्रथोमे बहुलतया उपलब्ध है। 'तत्र व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मना ज्ञानजन्य ज्ञानमनुमिनि । तब प्रश्न है कि इन (अविनाभाव और व्याप्ति ) तत्करणमनुमानम्" शब्दो द्वारा अनुमान लक्षण प्रस्तुत करके का मूल स्थान क्या है ? अनुसन्धान करने पर ज्ञात होता ध्याप्नि' और पक्षधर्मना" दोनो अनुमानागोका नव्यपद्धति है कि प्रशस्तपाद और कुमारिलसे पूर्ववर्ती जैन ताकिक से असाधारण परिष्कार एव विवेचन किया है। समन्तभद्र द्वारा, जिनका समय विक्रम की २ री, ३ री प्रशस्तपादभाष्यमे" भी अविनाभावका प्रयोग उपलब्ध शनी माना जाता है", अविनाभाव शब्द प्रथम प्रयुक्त हुमा होता है। उममे अविनाभूत लिगको लिगीका गमक बत- है। उन्होने अस्तित्व को नास्तित्व का और नास्तित्व को लाया गया है। पर वह वहाँ त्रिलक्षण रूप ही अभिप्रेत है, १ वही, टिप्प० पृ. १०३ । १. वही १० २। २ वही, टिप० १०३। ३. किरणा० पृ. २. न्यायवा० ता. टी. ११२५, पृ० १६५ । ४ मी० श्लो0 अनु०ख० श्लो० ४,१२,४३ तथा १६१ । ३. किरणा० पृ० २६०, २६४, २६५-३०२। ५. न्यायप्र० पृ० ४, ५। ४. तर्कभा० पृ० ७२, ७८, ८२, ८३, ८८ । ६. प्रमाणवा० १।३, १।३२ तथा न्यायबि० पृ. ३०, ६३; ५. तर्कस० पृ० ५२-५७ । हेतबि० पृ० ५४ । ६. सिद्धान्तमु० का०६८, पृ० ५१-५५ । ७. न्यायवि० टी० पृ. ३० । ७. इनके ग्रन्थोद्धरण विस्तारभय से यहां अप्रस्तुत है। ८. हेतुवि० टी० पृ. ७, ८, १०, ११ आदि । ८. तत्त्वचि० अनु० खण्ड पृ० १३ । & 'स्वामी समन्तभद्र' १९६, श्रीजुगलकिशोर मुख्तार । ६. वही, पृ. ७७-५२,८६-८६, १७१-२०८, २०६-४३२। १० अस्तित्व प्रतिपध्येना विन.भाव्यकर्मिणा । १०. वही, अनु०ख० पृ. ६२३-६३१ । नास्तित्व प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्धामणा। ११-१२. प्र० भा० पृ. १०३ तथा १०० । -प्राप्तमी० का०१७, १८ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अस्तित्वका अविनाभावी बतलाया है। एक दूसरे स्थलपर नन्दि, प्रकलक, माणिक्यनन्दि" प्रभति जैन तर्कप्रथभी उन्होने अविनाभावको स्पष्ट स्वीकार किया है। और कारोंने प्रविनाभाव, व्याप्ति और अन्यथानुपपत्ति या इस प्रकार प्रविनाभावका निर्देश मान्यता के रूपमें सर्व अन्यथानुपपन्नत्व तीनों का व्यवहार पर्याय शब्दोंके रूपमें प्रथम समन्तभद्रने किया प्रतीत होता है। प्रशस्तपादकी किया है । जो ( साधन ) जिस ( साध्य ) के विना न तरह उन्होंने उसे विलक्षण रूप मे स्वीकार नहीं किया। हो या उपन्न न हो उसे अविनाभाव या अन्यथानुपपन्न उनके पश्चात् तो वह जैन परम्परामे हेतुलक्षण रूप मे ही कहा गया है"। असम्भव नही कि शावरभाष्यगत"मर्थाप्रतिष्ठित हो गया और जिसका निर्देश भी स्वय समन्तभद्र पत्युस्थापक 'अन्यथानुपपद्यमान' और प्रभाकर की वृहती 'विरोधतः' शब्द के द्वारा किया है तथा प्रकलङ्क' में" उसके लिए प्रयुक्त 'अन्यथानुपपत्ति' शब्द अर्थापत्ति और विद्यानन्द' जैसे उनके व्याख्याकारोंने उसका और अनुमानको अभिन्न मानने वाले जैन तार्किकोसे अविनाभाव ( अन्यथानुपपन्नत्व) परक व्याख्यान भी अपनाये गये हो, क्योकि ये शब्द जैन न्यायग्रथोमे ही किया है। पूज्यपादने, जिनका अस्तित्व-समय ईसाकी अधिक प्रचलित एवं प्रयुक्त पाये जाते हैं और उद्योतकर," पांचवी शताब्दी है, अविनाभाव और व्याप्ति दोनो शब्दों शान्तरक्षित" आदि प्राचीन तार्किकोने उनका समालोचन का प्रयोग किया है। पात्र स्वामी, सिद्धसेन,' कुमार एवं उद्धरण जैन मतके रूपमे ही किया है. मीमासक आदि के रूपमे नही । अत उनका उद्गम जैन तर्कग्रथोसे ही - - -- प्रतीत होता है। १. धर्मघयविनाभावः सिद्धयत्यन्योन्यवीक्षया । -वही, का० ७५ । ८. प्रमाणप० पु. ७२ पर उद्घत 'मन्यथानुपपत्त्येक २. सधर्मणव साध्यस्य माधादिविरोधत. । लक्षण...' आदि का। -प्राप्तमी० का० १०६ । ६. न्यायवि० २।१८७, ३२३, ३२७, ३२६ । ३. अष्टग प्राप्तमी० १०६ । १०. परीक्षामु० ३।११, १५, १६, ६४, ६५, ६६ । ४. अप्टश प्राप्तमी० १०६ । ११. साधन प्रकृताभावऽनुपपन्न। ५. सर्वार्थसि० ५।१८, १०।४। -न्यायवि० २०६६ तथा प्रमाणस० का० २१ । ., १२ शावरभा० १११५, बृहती पृ. ११० । ६. तत्त्वस० पृ. ४०६ पर उद्धृत 'अन्यथानुपपन्नत्व"" १३ वृहती पृ ११०, १११ । आदि कारिका । १४. न्यायवा० ११२३५, पृ. १३१ तथा १।११५, पृ ५५ । ७. न्यायवा० का० १३, १८, २०, २२ । १५. तत्त्वल० ४०५-४०८ । आशा के दाय प्राशाया ये भवेद्दासाः ते दासाः सर्वलोकस्य । पाशा दासी येषां तेषां वासायते लोकः ॥ आशा के जो दास है, वे सारे लोक के दास है। जिन्होंने अपनी पाशा को दास बना लिया, उनके लिए सारा लोक दास है । हे पात्मन् । यदि तू अविनाशी सुख का पात्र बनना चाहता है तो प्राशा का दास मत बन । उसे विजित करना ही तेरी सफलता का मूल है। इच्छाएँ अनन्त है, उनका कही अन्त दिखाई नहीं देता। मानव के मानस समुद्र में वे उद्वेलित होती रहती है। और मानव को विवेक भ्रष्ट कर अनीति और अत्याचार के मार्ग पर चलने के लिए वाध करती है। उनके पास में फंसा बुद्धिशाली व्यक्ति भी कि कर्तव्य विमूढ हो जाता है। न्याय अन्याय का उसे भान नहीं रहता। प्रत. हे मुमुक्षु, तू सावधान हो। विवेक को जागृत कर, आशा पिशाचिनी का दमन कर । ऐसा होने पर तेरी लोक मे प्रतिष्ठा तो होगी ही, किन्तु तू निश्रेयस का पात्र भी बनेगा। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ग्रन्थों के आधार पर : पारस्परिक विभेद में अभेद को रेखाएं साध्वी कानकुमारी मामयिक परम्परा और विधि-विधान रूढ बनकर विश्लेषण करते हुए कुछ लिखा गया है-प्राचीनकाल मे कितना दुप्परिणाम लाते है, इसका मजाव प्रमाण है जन- साधुप्रो के अनेक गण थे। व्यवस्था की दृष्टि से एक गण मपो का विभक्तिकरण । का साधु दूसरे गण मे नही जा सकता था। उसके कुछ भगवान महावीर ने विशाल संघ की मुविधा और अपवाद भी थे। अपवादिक विधि के अनुसार तीन कारणो मुव्यवस्था के लिए विभक्तिकरण की व्यवस्था दी। उस से भिन्न सामाचारिक गणो मे जाना विहित था। दूसरे समय वह व्यवस्था अत्यन्त प्रावश्यक थी, क्योकि तब गण मे जाने को उपसपदा कहा जाता था। उपसपदा के हजारो साधु-साध्विया एक ही महावीर के धर्म-सघ मे तीन प्रकार है-जानार्थ उपमपदा, दर्शनार्थ उपसपदा प्रवजित थे । वृहत्समुदाय का सुचारुरूप से सचालन करने और चारित्रार्थ उपसपदा। ज्ञानकी वर्तना (पुनरावृत्ति या के लिए अनेक सुयोग्य व्यक्तियो की अपेक्षा होती है । सब गुणन ) सपान (टित ज्ञान को पूर्ण करना ) और एक हो गण मे रहकर एक साथ योग्यता प्राप्तकर सके, ग्रहण के लिए जो उपसपदा स्वीकार की जाती उसे ज्ञानार्थ कम सभव था, इसलिए भगवान महावीर ने अपने वृहत्तर उपमपदा कहा जाता था। इसी प्रकार दर्शन की वर्तना धर्म-सघ को पृथक्-पृथक् गणों में विभक्त कर दिया। (स्थिरीकरण ) मन्धान और दर्शन विषयक शास्त्रो के ग्रहण के लिए जो उपसपदा स्वीकार की जाती, उसे (दर्शधीरे-धीरे विभाजन का विस्तार हुप्रा और समय की नार्य उपसपदा ) कहा जाता था। वैयावृत्य और तपस्या गति के साथ-साथ वह बृहतर सघ अनेक इकाइयो में बट की विशिष्ट साधना के लिए जो उपसपदा स्वीकार की गया, फिर भी एक शृंग्वला मे प्रावद्ध था इसलिए उम सघ जाती उसे ( चारित्रार्थ उपमपदा) कहा जाता था । ज्ञान, के सदस्य पृथक् गणो मे विभक्त होते हुए भी एक-दूसरे से दर्शन और चारित्र की विशेप उपलब्धि के लिए दूमर गण निकट थे। में जाना विहित था। मूल पागम और उनका व्याख्या-साहित्य इस बात का प्रमाण है कि उस समय के धर्म प्रवर्तको के पारस्परिक निशीथभाप्य में पालोचना विषयक विवेचन प्रस्तुत सम्बन्धों में कोई दुगव नहीं था। भावनायो मे सकोणना करते हुए लिखा गया है कि मालोचना तीन प्रकार की पौर विचागे में रूढता नही थी। इसलिए वे प्रसाभौगिक, होती है। बिहार पाल होती है। विहार मालोचना, उपमपदा पालोचना और अमाधामिक और भिन्न सामाचारिक सघों में अपने शिष्या अपराध मालोचना । उपसपदा के तीन प्रकार है-ज्ञान को उपसपदा के लिए भेज देते थे। उपसपदा, दर्शन उसपदा और चारित्रउपसपदा। उपसपदा आवश्यक नियुक्ति में उपसादा समाचारी का १. मावश्यक नियुक्ति गाथा ६९८ : उवसपया ने तिविहा नाणे तह दसणे चरित्तय । यह मान्यता श्वेताम्बर सम्प्रदाय की है। भगवान महावीर ने सघभेद की कोई व्यवस्था नही दी । सघ. दसणनाणे निरिहा दुविहाय चरित्त भट्ठाए। भेद तो महावीर निर्वाण के १७० वर्ष वाद भद्रबाहु २. निशीथ भाप्य ६३१०. पालोयणा तिविहा विहाराश्रुतकेवली के समय हुमा है । -सम्पादक लोयणा, उबसपयालोयणा अवराहालोयणा । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २ हा के लिए एक गण के मुनि दूसरे गण मे जाते थे और वे गण में जाने के लिए संनद्ध होता है, तब सभी साधार्मिक प्रतिच्छक कहलाते थे। वे मुनि दो प्रकार के होते थे' और रत्नाधिक मुनि उसे पूछते है-क्या तुम उपसपदा पंजरभग्न और पजराभिमुख । यतमान मुनियो के पास जो के लिए दूसरे गण में जाना चाहते हो? वह मुनि उनसे मुनि जाता, वह पंजरभग्न कहलाता और परिभवमान पूछे कि मुझे किस गण में और कौन से प्राचार्य से उपयानी पावस्थों के पास से जो मुनि जाता वह पंजराभिमुख सपदा लेनी चाहिए? बहुश्रुत मुनि जिस गण मे और कहलाता था। पजर उस गण का नाम है जो गण प्राचार्य, जिस आचार्य के लिए कहे, वह उस गण मे और उस उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर और गणावच्छेदक से परिगृहीत प्राचार्य के पास जाकर उपसपदा स्वीकार करे । होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में मुनि के लिए दस समाचारी का वृहत्कल्पसूत्र के मूल पाठ मे उपसपदा के लिए प्राने विश्लेषण किया गया है। वहा उपसंपदा समाचारी के वाला मनि किनकी अनुज्ञा से पाए एतद् विषक परिचर्चा विषय में भी चर्चा की गई है। की गई है। प्रस्तुत प्रसंग इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि उस प्राचीन परम्पराग्रो के अनुमार श्रमणसघ-व्यवस्था में समय के धर्म-सघों के प्रवर्तक बहुत उदार होते थे, इसलिए सात पद होते थे-१: प्राचार्य, २. उपाध्याय, ३. स्थविर, अपने शिष्यों को दूसरे गण मे भेजने मे और दूसरे गण के ४. प्रवर्तक, ५. गणी, ६. गणघर, ७. गणावच्छेदक जो शिप्योको अपने गणमे सम्मिलित करनेमे उन्हे कोई आपत्ति मुनि उपसपदा के लिए अपने गण से दूसरे गण में जाता, नही थी। पर अपने गण में सम्मिलित करने वाले आचार्य वह प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर प्रवर्तक गाण गणधर और कौन मुनि किस हेतु से इस गण को स्वीकार करना चाहता गणावच्छेदक की बिना अनुना कही नहीं जा सकता था। है, इस बात की परीक्षा किए बिना उसे अपने गण मे और गीतार्थ ही जा सकता था, अगीतार्थ नहीं जा सम्मिलित होने की अनुज्ञा नही देते थे। निशीथ-भाष्य सकता था। में इसका विस्तृत विवेचन मिलता है। व्यवहार सूत्र मे भी एतद् विषयक प्रसग किया गया समनोज्ञ और असमनोज्ञ दोनो ही प्रकार के मुनि है'। जब एक मुनि अपने गण से उपसंपदा के लिए दूसरे उपसंपदा के लिए जाते थे। समान सामाचारिक मुनि १. निशीथभाष्य ६३४६ : जयमाण परिहवे ते पागमण समनोज्ञ कहलाते और भिन्न सामाचारिक मुनि असमनोज्ञ । तस्य दोहि ठाणेहि । समनोज मुनि उपसादा के लिए जाते उसके दो हेतु होते पजरभग्न अभिमुहे आवासयमादि पायरिए ।। थे-ज्ञान और दर्शन । चारित्र उन दोनो गणों मे एक रूप वृहत्कल्पभाष्य, उ० ४, सूत्र १५ : भिक्खू य गणाय होता था। असमनोज्ञ सविग्न मुनि दूसरे गणों में जाते, वकम्म इच्छेज्जा अन्न गण उपसंपज्जित्ताणं विह- उसके तीन हेतु होने थे। व ज्ञान, दशन के साथ चारित्र रित्तए । नो से कप्पह अणापुच्छित्ता पायरिय वा, का भा विकास चाहत थ । उवज्झाय वा, पविति वा थेर वा, गणिं वा, गणहर समनोज्ञ और असमनोज दोनो ही प्रकार के मुनि वा, गणावच्छेयं वा, अन्न गण उवसपजित्ताणं अन्न गण ज्जित्ताण विहरसि ? जे तत्थ सव्व राइणीए तं । उवसपज्जिताणं विहरित्तए। तेय से वियरंति, एव वएज्जा, ग्रह भते कस्स कप्पाए ? जे तत्थ बहुसुए त से कप्पह अन्न गणं उवसपज्जित्ताण विहरित्तए । वएज्जा। जवा से भगब व क्खइ तस्स प्राणा उबतेय से नो कप्पह अन्न गण उसपज्जित्ताप्प वायणा निद्दे से चिट्ठिस्सामि ।। विहरित्तए। ४. उत्तराध्ययन, अ० २६, गा० ४ : ३. व्यवहारकल्प, उ०४, सू० १८ : भिव्य गणाप्रो ५. व्यवहार भाष्य, ६४ : प्रवकम्म अन्न गण उवसंपज्जिताणं विहरेज्जा, त च समणुण्ण दुगणिमित्त उवसंपज्ज ते होइ एमेव । केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा कं च प्रज्जो उवसपा- अमणुणेणं नरिं विभागतो कारणे माइत्तं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम-ग्रन्थों के आधार पर: पारस्परिक विभेद में प्रभेद की रेखाएं दूसरे गण में जाते तो सबसे पहले उनके पाने का उद्देश्य खाने के लिए विगय नही देते है। मैं भुक्त शेष विगय पूछा जाता था। प्राचार्य की अनुज्ञा से और पवित्र उद्देश्य खाना चाहता हूँ। उसका भी निषेव कर देते है। मेरा से आनेवाला मुनि प्राचार्य की अनुमति मिलने पर उस गण शरीर प्रकृति से दुर्बल है, मैं खाने मे दूध, घी, दही आदि में मिल जाता था। पर जो मुनि निम्नलिखित दस कारणों कुछ भी ले लेता हूँ तभी शरीर से कुछ काम कर सकता को लेकर दूसरे गण में सम्मिलित होना चाहता':- हूँ अन्यथा नही ले सकता। क्योकि मेरा शरीर विगय १. कलह करके प्राता, २. विगय [दूध दही आदि न भावित है । विगय के प्रभाव मे न नवीन ज्ञान प्राप्त कर मिलने पर पाता, ३. योग का उद्वहन करने में असमर्थ सकता हूँ और न पूर्व गृहीत ज्ञान को स्थिर रख सकता होकर पाता, प्रत्यनीक के भय से प्राता, अथवा आने वाला हूँ। क्या मै भी उन वृषभ मुनियों की तरह प्रबजित नहीं मुनि ५. स्तब्ध ६. लुब्ध, ७. उग्र, ८ आलसी, . अनुबन्ध हूँ जो उन्हे तो मनचाही विगय मिल जाती है और मुझे वैर और १०. स्वच्छन्द मति होता तो उसको अस्वीकार नहीं मिलती। कर दिया जाता या । योगवाही' अपनी दुविधा इस प्रकार रखता हैप्रत्येक प्रतिच्छक के आने पर प्राचार्य उसे पूछते तुम हमारे संघ के प्राचार्य योगवाही मुनि को एकान्तर उपवास अपने सघ और प्राचार्य को छोडकर यहा क्यों आए हो? करवाते है अथवा एकान्तर पायबिल करवाते है या निविपूर्वोक्त दशकारणों के आधार पर आने काला मुनि अपने कृतिक आहार देते है। इस प्रकार तप करता हुआ मै गण की जीभर पालोचना करता, क्योकि वह उस गण को योग का वहन नही कर सकता इसलिए मै यहा आपकी छोड़ना चाहता था। अनुशासना मे आया हूँ। अपनी बुराइयोको छिपाने की और दूसरों की भूलो प्रत्यनीक के भय से आने वाला मुनि अपनी दलील को प्रकाशित करने की आदत प्राधुनिक जन-मानस की इस प्रकार देता है, उस सघ में एक मुनि मेरा विरोधी तरह अतीत में भी उस रूप मे थी, क्योकि मानवीय दुर्ब है। हरक्षण वह मेरी भूल देखता है, समाचारी मे कही लता सदा एक रूप मे चली आ रही है । भी मेरी भूल हो जाती है तो वह सबके बीच मे मुझे ___ कलह' करके आने वाला मुनि अपनी स्थिति इस टोकता है, तथा भूल न होने पर भी प्राचार्य को शिकायत प्रकार प्रकट करता-उस सघ के सदस्य बहुत झगड़ालू करता है फिर प्राचार्य मेरी भर्त्सना करते हैं । उस स्थिति प्रकृति के है । बात-बात मे मेरे से झगड़ लेते है । मै शान्त मे मैं वहा समाधिस्थ नहीं रह सकता, इसलिए मै अापके रहने की कोशिश करता हूँ फिर भी शान्त नहीं रहने देते, मघ मे सम्मिलित होना चाहता हूँ। इसलिए मै यहा आया हूँ। झगड़ा गृहस्थों और साधुओं दोनो के साथ हो सकता था। स्तब्ध' मुनि आत्म-विश्लेषण करता हुमा कहता है कि उस संघ की समाचारी के अनुमार प्राचार्य का बहुमान विगय' न मिलने से आने वाला मुनि अपना आत्म करना पड़ता है। प्राचार्य चहलकदमी करते हैं तो उनके निवेदन इस प्रकार करता कि उस सघ के प्राचार्य मुझे साथ इधर-उधर घूमना पडता है व्याख्यान देने के लिए १. निशीथ भाष्य ६३२७ : अहिगरण विगति जोए पडि- जाते है अथवा सज्ञाभूमि के लिए जाते है तो हर समय गीए थद्ध लुद्ध णिद्धम्मे । उठना पड़ता है। मेरी कमर में वायु से बहुत दर्द रहता अल्वसाण बद्धवरो स्वच्छंदमती परिहियब्वे ।। २. निशीथभाष्य ६३२८ : गिहिसजए अहिगरणे। ४. वही, ६३३० : एगतर णिविगतो जोगो। विगति ण देति घेत्तु मोत्तु पूरित्त च गहि तेवि ॥ ५. वही, ६३३० पच्चत्थिको व तहि साहू । चक्क खलि. ३. वही, ६३२६ : णय वज्जियाय देहो पगतीए दुबलो ग्रह तेसु गेण्हति छिढ्डाणि कहेति त गुरूण ॥ भते। ६. वही, ६३३१ : चकमणादोव्व उट्ठण कडि गहणे कामो तब्भावियस्स एविहं ग य गहणं धारणं कत्तो ॥ णत्थि तद्धवं । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त है, इसलिए बार-बार उठना-बैठना मेरे लिए सभव नहीं हुअा कहना है कि- उस संघ में थोडो बहुत माहार-सामग्री होता, न उठने से उस सघ की समाचारी का भग होता है, मिलने पर सब सदस्य कुने आदि प्राणियो की तरह एक उसका भग होने से मुझे कडा दण्ड मिलता है । अत मै दूसरे पर टूट पडने है, अन्तर इतना ही है कि इस प्रकार आपकी शरण में आया हूँ। का आचरण करके फिर मिच्छामि दुक्कड कर लेते है। उन लुब्धमनि' अपनी समस्या इस प्रकार रखता कि भिक्षा भिक्षयो के साथ मेरा मन नही लगता, इसलिए मैं आपकी मे तो कुछ भक्षणीय या अभिलाषणीय पदार्थ लड्डू-जलेवी अनुशासन में पाना चाहता है। आदि मिलते हैं, उन्हे या तो प्राचार्य स्वय खा लेते है या जो मुनि' प्राचार्य के अनुशासन को बन्धन मानकर बाल, वृद्ध, रुग्ण और अतिथि मुनियो को देते है। उस पाता है, वह अपनी दुविधा प्रस्तुत करता हुमा कहता है विषम स्थिति में रहना मेरे लिए सभव नही है, इसलिए कि उस सघ मे वैयक्तिक स्वतत्रता विलकुल नहीं है। मै आपके पास पाया हूँ। सघीय मर्यादा के अनुसार सघाटक के बिना कही भी नहीं णिद्धम (उप्र) मुनि कहता है कि समय पर जा पाना और तो क्या मशाभूमि ( देह चिन्ता से निवृत अावश्यकी नैषिधिकी करने में कभी भूल हो जाती है होने के लिए ) भी अकेला नहीं जा सकता । इतनी अथवा प्रमार्जन ठीक नही होता है तो प्राचार्य अत्यन्त पराधीनता मुझस सही नहीं गई, इसलिए मै यहा पाया उग्र दण्ड देते है । मेरा दिल कोमल है, मैं उग्र प्रायश्चित है। इन सब कारणो से जो सुनि उपसपदा के लिए पाता, वहन करने में असमर्थ हैं, इसलिये मै उस मघ को छोड़कर उसे आचार्य अपने संघ में सम्मिलित होने की स्वीकृति अापकी नित्रा में पाया है। नहीं देत थे। पालसो' मुनि अपने प्राने का उद्देश्य स्पष्ट करता अगर कोई मुनि इन कारणों में अतिरिक्त कारणहुपा कहता है कि उम सघ की भिक्षाचरी बहुत कठिन है। जान, दर्शन और चारित्र की विशेष उपलब्धि के लिए रम सघ के प्राचार्य अपने लिए आहार पर्याप्त होने पर प्राता और अपनी स्थिति इस प्रकार प्रकट करता कि मेरे बाल वृद्ध और रुग्ण मुनियों के लिए बहुत लम्बी गोचरी प्राचार्य के पास जो मूत्रार्थ था उसे तो मैने ग्रहण कर करवाते है । क्षेत्र छोटा होता है तो रोजाना दुसरे ग्रामा लिया है । मै मेरे प्राचार्य की अनुज्ञा से विधिपूर्वक यहा में जाना पड़ता है, फिर भी आहार पर्याप्त नही होता आया है। आप अनुग्रह कर मुझे सूत्रार्थ की विशेष वाचना तो प्राचार्य कहते है-क्या तुम्हारे लिए यहा रसोई दे। ऐसे पवित्र उद्देश्य को लेकर आने वाले मुनि को बनी हुई है, जो इतना सा आहार लेकर पा गए ? वापिस उपसपदा की आज्ञा न दे तो प्राचार्य प्रायश्चित के भागी जामो, घूमो पूरा समय और पूरा श्रम लगाकर पर्याप्त होते है, क्योंकि ऐसे पवित्र उद्देश्य को लेकर आने वाले आहार लेकर पायो इस प्रकार दीर्घ भिक्षाचर्या से ऊबकर मनि की अवहेलना ज्ञान की अवहेलना है। अत प्राचार्य मैं आपके पास आया हूँ। अपने संघ के सदस्यो से परामर्श लेकर उम मुनि को सघ अनुबद्ध' वैर मुनि अपनी स्थिति का चित्रण करता में प्रवेश कराने की अनुना दे देते थे। करने १. निशीथभाष्य, ६३३१ . उक्कोसमय भुजति देतऽण्णोसि परामर्श लेने की विधि बहुत मनोवैज्ञानिक है, क्योकि तु लुद्धेवे। मघ के सदस्यों को बिना पूछे प्राचार्य केवल अपनी ही २. वही, ६३३२ : पावसिय पज्जयणा प्रकरण अतिउग्ग इच्छा से नए सदस्य को सघ मे स्वीकार कर लेते है । तो दण्ड णिद्धम्मे । पाने वाले नए व्यक्ति के प्रति संघ के सदस्यों की सहानु३. वही, ६३३२ : बाला, दट्ठा, दीहा भिक्खालमियो य भूति और सहयोग नहीं रहता। बिना सहानुभूति और उन्भास। सहयोग के कोई समाचारी को स्वीकार करने वाले व्यक्ति ४. वही, ६३३३ : पाण सुणगाहि य भुजति एक्कउ असखडेव मणुवडो। ५. वही, ६३३३ : एकलस्स न लब्भा चलितु पेवतु पाणसुणगाव भुजंति एगत्तो भडि पि प्रणवदो॥ सच्छंदो ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम-प्रन्थों के प्राधार पर : पारस्परिक विभेव में प्रभेद को रेखाएँ का वहां मन नहीं लगता। और सघ के लिए भी यह परीक्षा ली जाती थी। प्राचार्य यह भी देखते थे कि मै स्थिति हितकर नही होती। उपसपदा समाचारी के अनु- अपने संघ के सदस्यो को भूल होने पर उन्हें सावधान सार किसी व्यक्ति के परिहार और स्वीकार मे सघ का करता है, अध्यन और साधना मादि विषयो में प्रेरित परामर्श लेना, होता था। करता है पर प्रतिच्छक के प्रति उदासीन रहता हूँ। इस प्रतिच्छक के पाने की विधि प्रकार के व्यवहार से उसके मानस पर क्या प्रतिक्रिया विधि के अनुसार पाने वाला प्रतिच्छक ही उपसपदा होती है ? के लिए योग्य माना जाता था। जो मुनि अपने प्राचार्य यदि उस उपेक्षाभाव का उसपर कुछ असर होता को अकेला छोडकर या शैक्ष्य मुनियों के भरोसे छोडकर और निवेदन करते-करते उसकी प्राखों से मांसू छलक पाता, वह उपसंपदा के लिए योग्य नही माना जाता है। जाते और गदगद स्वर मे प्रार्थना करता कि गुरुदेव! मुझ जो मुनि वृद्ध प्राचार्य को अथवा सूत्रार्थ मे शकित जैसे निराधार के आधार प्राप ही है, मै भी प्रापकी शरणप्राचार्य को छोडकर आता, उसे भी उपसपदा के योग्य गत हैं। अपने शिष्यो की तरह मुझे भी गलती होने पर नहीं माना जाता था। सावधान रहने की प्रेरणा दे तो उस मुनि को उपसपदा के सघ का कोई सदस्य ग्लान' अथवा बहुरोगी होता, लिए स्वीकार कर लिया जाता था जिम मुनि पर प्राचार्य उनका प्राधार वह एक ही मुनि होता तथा मद धर्मी शिष्य को उदासीनता का कोई असर ही नहीं होता। उस मुनि उसके सिवाय प्राचार्य की भी प्राज्ञा नही मानते, वह मुनि को इन्कार कर दिया जाता था। भी अपने संघ को छोडकर उपसपदा के लिए अन्यत्र नहीं प्रतिच्छक के द्वारा परीक्षाजा सकता था। जिस प्रकार आचार्य प्रतिच्छक मुनि की परीक्षा लेते अनिवार्य परीक्षण वैसे ही वह मुनि भी जिम गण मे जाता, उस गण के उपमपदा के लिए आने वाले मुनि की योग्यता का प्राचार्य की परीक्षा करता। उस गण के सदस्यों में कोई परीक्षण करना भी अनिवार्य था। क्योकि परीक्षण किए भी सदस्य अावश्यक समाचारी में भूल करता तो वह विना नए व्यक्ति को स्वीकार करने से समय पर प्राचार्य प्राचार्य को निवेदन करता। प्राचार्य उस नवागन्तुक के नथा सघ दोनो के लिए चिन्ता का विषय हो सकता है । निवेदन पर उस भूल करने वाले मुनि को प्रायश्चित देते परीक्षाक्रम मे सबसे पहले उसकी दिनचर्या देखी जाती और आगे भूल न करें इस प्रकार प्रेरित करते तो वह थी। अगर वह मुनि अपनी दिनचर्या में सजग रहता, मुनि उस गण और प्राचार्य को स्वीकार करता; अन्यथा अावश्यकी नपिधिकी विधि-पूर्वक करता, प्रतिक्रमण- उपसपदा के लिए अन्यत्र चला जाता था। प्रतिलेखन आदि मौलिक क्रियानो मे अन्तर नहीं प्राने देता उपसंपदा के लिए माने वाला मुनि यदि योग्य नहीं तथा जिस सघ में सम्मिलित हुआ है उस संघ के सदस्यो होता तो गीतार्थ को स्पष्ट मनाह कर देने, क्योकि वह मे घुसमिल जाता, वह मुनि उपसपदा के योग्य माना। स्थिति से अनजान नहीं होता। और यदि वह अगीतार्थ जाता था। होता तो उसे मनोवैज्ञानिक पद्धति से समझा देते थे। परीक्षण की पद्धति एक ही प्रकार की नहीं हाती था प्रतिबंध पतिकिन्तु विविध प्रकार की विधियो से भागन्तुक मुनि की जो मुनि सूत्रार्थ की विशेष वाचना के लिये पाता पर १. निशीथ भाष्य ६३३५ : व्यवहार भाप्य ७४ : अहवा उसके योग्य नहीं होता, उस मुनि से कहा जाता था कि एगे परिणते अप्पाहारे य थेरए। १. निशीथ भाप्य ६३४६ ; व्यवहार भाप्य ८६ . २. वही, ६३३५ : गिलाणे बहुरोगे य मद-धम्मे य जो पुण चोइज्जतो, दळूण तत्तो, नियत्तता ठाणा । पाहुई। मपाति अहं मे चत्तो, चोदेह ममपि सीदतं ।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अनेकान्त तुम जिस सूत्रार्थ को प्राप्त करना चाहते हो,' वह अभी उग्र मुनि का प्रतिषेषमेरे पास नहीं है। यदि वह कहे कि मैंने तो आपके पास हमारे संघ में जो मुनि दिनचर्या में लापरवाह रहता है, ऐसा सुना है और स्वयं भी देखा है। ऐसा कहने वाले है, अथवा प्रमार्जन ठीक नहीं करता, उसे हाडाहड-तत्काल को प्राचार्य कहते, तुम ठीक कहते हो, पहले मैं जो सूत्रार्थ वहन करने योग्य-प्रायश्चित्त मिलता है। देता था पर अब कई स्थल शंकित हो गए है। शंकित योगवाही मनिका प्रतिषेषसूत्रार्थ की वाचना देना आगम निषिद्ध है । अतः तुम उस यहाँ भी जो मुनि योग का वहन करते है, वे मनचाही गण में जाकर वाचना लो, जहाँ प्राचार्य निःशकित होकर विगय नहीं ले सकते । इस विधान के अनुसार इस सघ में वाचना देते है। भी तुम्हे कोई सुविधा नहीं मिलेगी। स्वच्छन्द मुनि का प्रतिषेध' इस प्रकार जो मुनि जिस सुविधा के लिए अपने गण हमारे सघ को समाचारी के अनुसार भी अकेला मुनि को छोड़कर पाता, उसे वैसी कठिनाई दिखाकर प्रतिषेध और कही तो जा ही नहीं सकता, किन्तु संज्ञाभूमि के लिए कर दिया जाता था। भी अकेला नहीं जा सकता, इसलिए इस सघ मे रहना भी उक्त विवेचन से स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस समय तुम्हारे लिए सम्भव नही है। के धर्म-सघो के प्रवर्तकों में परस्पर कोई तनाव के भाव मनुबड वर का प्रतिषेध' नहीं थे, इसलिए शिष्यों के आदान-प्रदान में भी उन्हें किसी प्रकार का सकोच नही होता था, आज धर्म-सघ अपनी ___हमारे सघ की समाचारी भी मंडलाधीन है। खान वैचारिक संकीर्णता और रूढ़ता के कारण एक-दूसरे से पान और अध्यन मण्डलीस्थ करना होता है, इसलिए यहां टूटकर इस प्रकार विलग हो चुके है कि पुन: उनको तुम्हारे लिए कठिनाई है। जोडना कठिन नही, किन्तु असम्भव सा लग रहा है । मालसी मुनि का प्रतिषेष स्थिति यहा तक पहुंच चुकी है कि कोई उदारचेता प्राचार्य हमारे यहाँ स्वस्थ और तरुण ही नही पर बाल, वृद्ध किसी धर्म-सघ के प्राचार्य से चरचा भी कर लेते है तो और रुग्ण मुनि भी दीर्घ भिक्षा के लिए घूमते है तो फिर कट्टर सम्प्रदायवादी लोगों में बहुत बड़ी हलचल मच तुम्हें छूट कैसे मिलेगी? जाती है। उनकी धारणा के अनुसार असाभोगिक, असा घ.मिक और भिन्न सामाचारिक संघों का मिलना ही १. वही, ६३५४ : णत्थेय मे जमिच्छिए सुत्त मए पागम मिथयात्व का प्रतीक है। सकिय त तु। वर्तमान परिस्थिति के सदर्भ में अगर धर्म-सघ इस नय सकिय तु दिज्जइ णिस्मक सुते गवेसाहि ।। प्रकार की धारणा को लेकर एक-दूसरे से टूटते रहे तो २. निशीथ भाष्य ६३५५; व्यवहार भाष्य ६६५ : धर्म और समाज का कोई उद्धार नहीं कर सकेगे। अतः एकल्लेण णलबभा वीयारादी विजयणा सच्छदे प्रत्येक धर्माचार्य अपनी दृष्टियों में सशोधन करे और एकरोग दूसरे से निकट होकर अपनी विच्छिन्न परम्परा को पुनः अति । शृखलाबद्ध करे। ४. वही, ६३५६ : अलस भणति वाहि जीत हिंडसि. अम्ह ५. वही, ६३५६ : पच्छिद हाडाहड प्रावि । एत्थ बालाती। ६. वही, ६३५६ : उवसग्गं तहा विगति । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम और त्रिपिटकों के संदर्भ में अजातशत्र कुणिक मुनि श्री नगराज नाम-भेद अजातशत्रु विशेषगर्दा का द्योतक न होकर उसके शौर्य का जैन और बौद्ध, दोनों परम्परामो मे नाम-भेद है। द्योतक अधिक प्रतीत होता है। जैन परम्परा जहा उसे 'सर्वत्र 'कूणिक' कहती है, वहाँ बौद्ध 'कूणिक' नाम 'कूणि शब्द से बना है । 'कूणि' का अर्थ परम्परा उसे सर्वत्र 'प्रजातशत्रु' कहती है । उपनिषद्' और है-अगुली का घाव'। 'कूणिक' का अर्थ हुा-अंगुली पुराणो' में भी अजातशत्रु नाम व्यवहत हया है । के घाव वाला । वस्तुस्थिति यह है कि कूणिक मूल नाम है और अजातशत्रु प्राचार्य हेमचन्द्र कहते हैउसका एक विशेषण ( epithet ) कभी-कभी मूल नाम रूढवणादि सा तस्य कूणिता भवदगुलि । से भी अधिक उपाधि या विशेषण प्रचलित हो जाते है । तत सपांशुरमणः सोऽभ्यश्चीयत कूणिका ॥ जैसे-वर्धमान मूल नाम है, महावीर विशेषतापरक, पर प्रावश्यक चणि में कुणिक को 'अशोक चन्द्र' भी कहा व्यवहार मे 'महावीर' ही सब कुछ बन गया है। भारतवर्ष गया है । पर यह विरल प्रयोग है। के मामान्य इतिहास मे केवल अजातशत्रु ही नाम प्रचलित है। मथुरा सग्रहालय के एक शिलालेख मे 'अजातशत्रु महाशिला कंटक युद्ध और वज्जी-विजयकृणिक' लिखा गया है। वस्तुतः इसका पूरा नाम यही अजातशत्रु के जीवन का एक ऐतिमाहिक घटना-प्रसंग होना चाहिए । नवीन साहित्य मे 'अजातशत्रु कूणिक' शब्द जैन शब्दों मे 'महाशिला कटक-युद्ध' तथा बौद्ध शब्दों में का ही प्रयोग किया जाये, यह अधिक यथार्थताबोधक 'वज्जी-विजय रहा है । दोनो परम्पराओं में युद्ध के कारण, होगा। युद्ध की प्रक्रिया और युद्ध की निप्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से मिलती है। पर इसका सत्य एक है कि वैशाली 'अजातशत्रु' शब्द के दो अर्थ किये जाते है । न जात: शत्रुर्यस्य अर्थात् "जिसका शत्रु जन्मा ही नही' और गणतन्त्र पर वह मगध की ऐतिसाहिक विजय थी। इस प्रजातोऽपि शत्रु अर्थात् 'जन्म से पूर्व ही ( पिता का ) युद्धकाल मे महावीर और बुद्ध ; दोनो वर्तमान थे। दोनो शत्रु । दूसरा अर्थ प्राचार्य बुद्धघोष का है और वह अपने ने ही युद्ध विषयक प्रश्नो के उत्तर दिये हैं। दोनो ही पाप मे सगत भी है, पर यह युक्ति-पुरस्सर है और पहला परम्परामो का युद्ध विषयक वर्णन बहुत ही लोमहर्षक अर्थ सहज है। कूणिक बहुत ही शौर्यशील और प्रतापी और तात्कालिक राजनैतिक स्थितियो का परिचायक है। नरेण था । अनेकों दुर्जय शत्रुओं को उसने जीता था। प्रतः जंन विवरण, भगवती सूत्र निरयावलिका सूत्र तथा पावश्यक चूणि में मुख्यत उपलब्ध होता है । बौद्ध विवरण १. Dialogues of Buddha, Vol. II, p. 78 बोधनिकाय के महावीरनिव्वाण सुत्त तथा उसकी अट्ठकथा २. वायु पुराण, प्र. ६६, श्लो० ३१९; मत्स्य पुराण, मे मिलता है। अ० २७१, श्लो०६ २. Apte's, Sankrit-English Dictionary, Vol. I, ६. Dr. Journal of Bihar and Orissa Research p. 580. Society, Vol. V, Part IV, pp. 550-51. ३. त्रिषष्टशलाका पुरुष चरिच, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ४. Dialogues of Budha, Vol. II, p. 78. ३०६ । ५. दीघनिकाय अट्ठकथा, १, १... ४. असोगवण... Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त महाशिलाकंटक संग्राम नकारात्मक उत्तर देकर दून को विजित किया । दूत ने चम्पा नगरी में आकर कूणिक ने कालीकुमार आदि । लोकमार प्रादि कूणिक को सारा सबाद कहा। कूणिक उत्तेजित हुआ। अपने दश भाइयों को बुलाया। राज्य, सेना, धन आदि आवेश मे आकर उसके प्रोठ फडकने लगे अखेिं लाल हो ग्यारह भागो मे बाटा और आनन्दपूर्वक वहा राज्य करने गई । ललाट मे त्रिवली बन गई । दूत से कहा--"तीसरी लगा । कूणिक राजा के दो सगे भाई ( चेल्लणा के पुत्र ) बार बार जाना। म तुम्ह लिाखत पत्र दता हू। इसम लिखा हल्ल और विहल्ल थे। राजा श्रेणिक ने अपनी जीवितावस्था है--'हार-हाथी वापिस करो या युद्ध के लिए सज्ज हो में ही अपनी दो विशेष वस्तुएं उन्हे दे दी थी-सेचनक जायो । ' चेटक की राज सभा मे जाकर उसके सिहासन हस्ती और अठारहसरा देवप्रदत्त हार।। पर लात मारो । भाले की प्रणी पर रखकर मेरा यह पत्र प्रतिदिन विहल्ल कुमार सेचनक हस्ती पर सवार हो, उसके हाथो में दो ।" दूत ने वैसा ही किया। चेटक भी अपने अन्तःपुर के साथ जल-क्रीडा के लिए गगा तट पर पत्र पढ़कर और दूत का व्यवहार देखकर उसी प्रकार जाता। उसके आनन्द और भोग को देखकर नगरी मे उत्तेजित हुआ। आवेश मे पाया दूत से कहा -"मै युद्ध चर्चा उठी-"राजश्री का फल तो विहल्लकुमार भोग रहा के लिए सज्ज हूँ। कूणिक शीघ्र आये, मै प्रतीक्षा करता है, कूणिक नहीं।" यह चर्चा कूणिक की रानी पद्मावती तक हूँ।" चेटक के आरक्षकों ने दूत को पकड़ा और र पहुँची। उसे लगा-"यदि सेचनक हाथी मेरे पास नही, भोज नोपानी देकर सभा से बाहर किया। देवप्रदत्त हार मेरे पास नही तो इस राज्य-वैभव से मुझे कूणिक ने दूत से यह सब सुना । कालीकुमार आदि क्या?" कूणिक से उसने यह बार्ता कही। अनेक बार के अपने दश भाइयों को बुलाया व कहा-"अपने-अपने आग्रह से कूणिक हार और हाथी मागने के लिए विवश राज्य मे जाकर समस्त सेना से सज्ज होकर यहा पायो । हुआ । हल्ल और विहल्लकुमार को बुलाया और कहा- चेटक राजा से मैं युद्ध करूगा ।" सब भाई अपने-अपने 'हार और हाथी मुझे सौप दो।" उन्होने उत्तर दिया- राज्यों में गये। अपने अपने तीन सहस्र हाथी, तीन सहस्र "हमे पिता ने पृथक् रूप से दिये है। हम इन्हे कैसे सौप घोडे, तीन सहस्र रथ, और तीन करोड पदातिकों को दे ?" कुणिक इस उत्तर से रुष्ट हुआ। हल्ल और साथ लेकर आये । कूणिक ने भी अपने तीन सहस्र हाथी, विहल्लकुमार अवसर देखकर हार, हाथी और अपना अन्त:- तीन सहस्र अश्व तीन महस्र रथ और तीन करोड़ पदापुर लेकर वैशाली में अपने नाना चेटक के पास चले गये। तिको को सज्ज किया। इस प्रकार तेतीस सहस्र हस्ती, कुणिक को यह पता चला। उसने चेटक राजा के पास तेतीस सहस्र अश्व, तेतीस सहस्र रथ और तेतीस करोड़ अपना दूत भेजा और हार, हाथी तथा हल्ल-विहल्ल को पदातिको की वृहत् सेना को लेकर कूणिक वैशाली पर पुन. चम्पा लौटा देने के लिए कहलाया। चेटक ने कहा- पाया। "हार हाथी हल्ल-विहल्ल के है। वे मेरे शरण आये है। राजा चेटक ने भी अपने मित्र नव मल्लकी, मै उन्हें वापिस नहीं लौटाता । यदि श्रेणिक राजा का पुत्र, नवलिच्छवी, इन अद्वारह काशी कोशल के राजाप्रो को चेल्लणा का पात्मज, मेग नातृक ( दोहिता ) कूणिक एकत्रित किया। उनसे परामर्श मागा--"श्रेणिक राजा हल्ल-विहल्ल को आधा राज्य दे तो मैं हार-हाथी उसे की चेलणा रानी का पुत्र, मेरा नतृक ( दोहिता ) दिलवाऊ । '' उसने पुन दूत भेजा और कहलाया--- "हल्ल कूणिक हार और हाथी के लिए युद्ध करने पाया है। हम और विहल्ल मेरी अनुज्ञा के बिना हार हाथी ले गये है। सब को युद्ध करना है या उसके सामने समर्पित होना है ?" ये दोनो वस्तुएं हमारे राज्य मगध की है।" चेटक ने पुन.. सब राजामो ने कहा-" युद्ध करना है, समर्पित नही १. कहा जाता है-सेचनक हस्ती और देवप्रदत्त हार का होना है।' यह निर्णय कर सब राजा अपने-अपने देश में मूल्य श्रेणिक के पूरे राज्य के बराबर था। गये और अपने-अपने तीन सहस्र हाथी, तीन सहस्र अश्व, (आवश्यक चुणि, उत्तरार्घ, पत्र १६७) तीन सहस्त्र रथ और तीन करोड़ पदातिकों को लेकर Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम और त्रिपिटकों के संदर्म में प्रजातशत्र कुणिक आये इतनी ही सेना से चेटक स्वय तैयार हुआ। ५७ नवलिच्छवी, ऐमे अट्ठारह काशी-कोशल के गण राजामो सहस्त्र हाथी, ५७ सहस प्रश्व, ५७ सहस्त रथ और ५७ की पराजय हुई, कूणिक की विजय हुई।' करोड़ पदातिकों की सेना लिए चेटक मी सग्राम भूमि में + वंशाली प्राकार भंगया इटा। गजा चेटक भगवान महावीर का उपासक था। पराजित चेटक राजा अपनी नगरी में चला गया। उपासक के १२ व्रत उसने स्वीकार किये थे। उसका प्राकार के द्वार बन्द कर लिये । कूणिक प्राकार को तोडने अपना एक विशेष अभिग्रह था-"मै एक दिन में एक से मे असफल रहा। बहुत समय तक वैशाली को घेरे वह अधिक बाण नही चलाऊगा।" उसका बाण अमोध था वही पड़ा रहा, एक दिन प्राकाशवाणी हुई-"श्रमण अर्थात् निष्फल नही जाता। पहले दिन अजातशत्र की कूलबालक' जब म गधिका। वेश्या में अनुरक्त होगा, तब ओर से कालीकुमार मेनापति होकर सामने आया । उमने राजा अशोकचन्द्र ( कुणिक ) वैशाली नगरी का अधिगरुड व्यूह की रचना की। राजा चेटक ने शकट व्यूह ग्रहण करेगा।" कूणिक ने कूलबालक का पता लगाया । की। भयकर युद्ध हुआ। गजा चेटक ने अपने अमोघ मागधिका को बुलाया। मागधिका ने कपट श्राविका वन बाण का प्रयोग किया। कालीकुमार घराशायी हुमा । कूल बालक को अपने आप में अनुरक्त किया । कूल बालक इसी प्रकार एक-एक कर अन्य नव भाई एक-एक दिन नैमित्तिक वेप बना जैमे-तमे वैशाली नगरी में पहुंचा। सेनापति होकर पाये और राजा चेटक के अमोघ बाण से उमने जाना कि मुनिमुव्रत स्वामी स्तूप के प्रभाव से यह मारे गये। महावीर उस समय चम्पा नगरी में वर्तमान नगरी बच रही है। लोकों ने शत्रु सकट का उपचार पूछा, थे । कालीकुमार आदि राजकुमारी की माताएँ काली तब उसने कहा-यह स्तूर टूटेगा, तभी शत्रु यहा से प्रादि दश र.नियों ने युद्ध-विषयक प्रश्न महावीर से पूछे । हटेगा । लोको ने स्तूप को नोडना प्रारम्भ किया। एक महावीर ने कालीकुमार आदि की मृत्यु का सार वृन्तात बार कूणिक की सेना पीछे हटी, क्योकि ऐसा समझा कर उन्हें बताया। उन रानियों ने महावीर के पास दीक्षा प्राया था। ज्यों ही सारा स्तूर टूटा, कूणिक ने कलबालक के कहे अनुसार एका एक आक्रमण कर वैशाली प्राकार ग्रहण की। भग किया। इन्द्र की सहायताकूणिक ने तीन दिनो का तप किया। केन्द्र और हल्ल-विहल्ल हार और हाथी को शत्रु से बचाने के चमरेन्द्र की आराधना की। वे प्रकट हुए। उनके योग लिये भगे । प्राकार की खाई में प्रच्छन्न आग थी। हाथी से प्रथम दिन महाशिलाकंटक सग्राम की योजना हुई। सेचनक इसे अपने विभङ्ग-जान से जान चुका था। वह कगिक शक्रेन्द्र द्वारा निर्मित वचप्रतिरूप कषच से सुरक्षित २. भगवती सूत्र, ७, उद्देशक, मूत्र ३०१, होकर युद्ध मे पाया ताकि चेटक का अमोघ बाण भी उस ३. 'कूलवालक' नदी के कुल के समीप पातापना करता मार न सके । घमासान युद्ध हुमा । कूणिक की सेना द्वारा था। उमके तपः प्रभाव से नदी का प्रभाव थोडा डाला गया ककर तृण व पत्र भी चेटक की सेना पर मुड गया। उमसे उसका नाम, 'कुलवालक' हुमा । महाशिला जैसा प्रहार करता था। एक दिन के सग्राम में (उत्तराध्ययन मूत्र लक्ष्मीवल्लभकृत वृत्ति (गुजराती ८४ लाख मनुष्य मरे। दूसरे दिन रथमूसल सग्राम की अनुवाद सहित) अहमदाबाद, १९३५, प्रथम खण्ड, विकूर्वणा हुई। चमरेन्द्र देव-निर्मित स्वय चालित रथ पव ८ । चला। अपने चारों ओर से मूसल की मार करता हुआ । समण जह कूलवालए, मागहिन गणि रमिस्मए । सारे दिन वह शत्रु की सेना में घूमता रहा। एक दिन में राया प्र प्रसोगचदए देमालि नयरी गहिस्सए । ६६ लाख मनुष्यो का सहार हुमा । चेटक और नवमल्लवी, -वही, पत्र १० १. निरयावलिका सूत्र (सटीक), पा ६-१ ५. वही, पत्र ११ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनेकान्त मागे नहीं बढ़ा। बलात् बढ़ाया गया तो उसने हल्ल- २. वज्जी एकमत से परिषद मे बैठते है, एकमत से विहल्ल को नीचे उतार दिया और स्वय अग्नि में प्रवेश उत्थान करते है, एक ही करणीय कर्म करते है । वे सन्निकर गया। मर कर अपने शत्रु अध्यवसायो के कारण पात भेरी के सुनते ही खाते हुए, प्राभूषण पहनते हुए या प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुआ । देवप्रदत्त हार देवतामो ने वस्त्र पहनते हुए भी ज्यो के त्यों एकत्रित हो जाते हैं । उठा लिया। हल्ल-विहल्ल को शासनदेवी ने भगवान ३. वज्जी अप्रज्ञप्त (अवैधानिक) को प्रज्ञात नही महावीर के पास पहुँचा दिया वहा वे निग्गठ-पर्याय में करते। प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते । दीक्षित हो गये। ४. वज्जी महल्लको का (वृद्धों का) सत्कार करते राजा चेटक ने प्रच्छन्न स्थान मे आमरण अनशन है, गुरुकार करते है। उन्हे मानते है, पूजते है । किया व अपने शत्रु अध्यवसायो से सद्गति प्राप्त की। ५. वज्जी कुल-स्त्रियो और कुल कुमारियों के साथ बौद्ध परम्परा-वज्जियों से शत्रता : बलात् विवाह नहीं करते। गगा के एक पत्तन के पास पर्वत में रत्नो की खान ६. वज्जी अपने नगर के बाहर और भीतर के चैत्यो थी । अजातशत्रु और लिच्छवियो मे प्राधे-आधे रत्न बाट का अादर करते है। उनकी मर्यादापो का लघन नहीं लेने का समझौता था। अजातशत्रु-"अाज जाऊँ, कल करते। जाऊँ" करते ही रह जाता। लिच्छवी एक मत हो, सब ७. वज्जी अहतों की धार्मिक सुरक्षा रखते है, इसरत्न ले जाते । अजातशत्रु को खाली हाथो लौटना पड़ता। लिा कि भविष्य में उनके यहाँ अर्हत आते रहे और जो अनेको बार ऐसा हुआ । अजातशत्रु क्रुद्ध हो सोचने लगा । । है, वे सुख से विहार करते रहे। - "गण के साथ युद्ध कठिन है, उनका एक भी प्रहार जब तक ये सात अपरिहानीय-नियम उनमे चलते निष्फल नही जाता', पर कुछ भी हो, मैं महद्धिक वज्जियो रहेगे, तब तक उनकी अभिवृद्धि ही है, अभिहानि नहीं। को उच्छिन्न करूंगा, उनका विनाश करूंगा।" अपने वज्जियों में भेद :महामत्री वस्सकार ब्राह्मण को बुलाया और कहा वस्सकार पुन, अजातशत्रु के पास आया और बोला"जहाँ भगवान् बुद्ध है, वहाँ जामो मेरी यह भावना उनसे __"बुद्ध के कथनानुसार तो वज्जी अजेय है, पर उपलापन कहो । जो उनका प्रत्युत्तर हो, मुझे बतायो।" (रिश्वत) और भेद से उन्हे जीता जा सकता है।" उस समय भगवान् बुद्ध राजगृह मे गृध्रकूट पर्वत पर राजा ने पूछा-"भेद कैसे डाले?" विहार करते थे । वस्सकार वहाँ पाया। अजातशत्रु की वस्सकार ने कहा-"कल ही राजसभा में प्राप ओर से सुख-प्रश्न पूछा और उसके मन की बात कही। ताजियों की चर्चा करे। मै उनके पक्ष में कुछ बोलगा। क सात अपरिहानीय नियम पाप मेरा तिरस्कार करे । कल ही मै वज्जियों के लिए बतलाये एक भेंट भेज़गा। उस दोषारोपण में मेरा शर मुडवा कर १. सन्निपात-बहुल है अर्थात् उनके अधिवेशन मे मुझे नगर से निकाल देना। मै कहता जाऊँगा-"मैंने पूर्ण उपस्थिति रहती है। तेरे प्राकार, परिखा आदि बनवाये है। मैं दुर्बल स्थानो १. भरतेश्वर बाहुबलीवृत्ति, पत्र १००-१०१ को जानता हूँ। शीघ्र ही मै तुम्हे सीधा न कर दूं, तो २. बुद्ध चर्या के अनुसार पर्वत के पास बहुमूल्य सुगन्ध ___ मेरा नाम वस्सकार नहीं है।" वाला माल उतरता था। पृ. ४८४ । अगले दिन यही सब घटित हुआ। बात वज्जिनों तक ३. दीघनिकाय अट्ठकथा, सुमंगलविलासिनी, खण्ड २, पृ. भी पहुंच गई। कुछ लोगों ने कहा-"यह ठगी है। इसे भा पहु ५२६; विमलचरण ला, बुद्धघोष, १११; हिन्दू गंगा पार मत प्राने दो।" पर अधिक लोगो ने कहा गगा पार मत । सभ्यता, पृ. १८७ । "यह घटना बहुत ही अपने पक्ष मे घटित हुई है। वस्स४. दीघनिकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २:३(१६) १. वही। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम और त्रिपिटकों के संदर्भ में प्रजातशत्र कुणिक कार का उपयोग अजातशत्रु करता था। यह बुद्धिमान है, लडेगे ?" खुल्ले ही द्वार अजातशत्रु नगरी में प्रविष्ट हुग्रा, इसका उपयोग हम ही क्यो न करे? वह शत्रु का शत्रु वैशाली का सर्वनाश कर चला गया। है; अतः पादरणीय है।" इस धारणा पर उन्होने वस्स- महापरिनिव्वान मुत्त के अनुसार-प्रजातशत्रु के दो कार को अपने यहाँ अमात्य बना दिया। महामात्य सुनीध और वस्सकार मे वज्जियों से सुरक्षित _ थोड ही दिनो मे उसने वहाँ अपना प्रभाव जमा रहने के लिए गगा के तट पर ही पाटलिपुत्र नगर बसाया। लिया। अब उसने बज्जियों में भेद डालने की बात शुरू जब वह बसाया जा रहा था, सयोगवश बुद्ध भी वहाँ पाये, की। बहुत सारे लिच्छवी एकत्रित होते, वह किसी एक से सुनीध और वस्सकार के प्रामन्त्रण पर भोजन किया। एकान्त होकर पूछता-"खेत जोतते हो?" चर्चा चलने पर पाटलिपुत्र की प्रशसा की और उसके तीन "हाँ, जीतते है।" अन्तराय बताये-पाग, पानी और पारस्परिक भेद । बुद्ध "दो बैल जोत कर?" के कथनानुसार प्रर्यास्त्रग-देवों के साथ मन्त्रणा करके "हा, दो बैल जोतकर ।" सुनीघ और वस्सकार ने यह नगर बमाया था। दूसरा लिच्छवी उस लिच्छवी को एकान्त मे जाकर समीक्षा पूछता- 'महामात्य ने क्या कहा ?" वह सारी बात उसे दोनों ही परम्पराएँ अपने-अपने ढंग मगध-विजय और कह देता; पर उसे विश्वास नहीं होता कि महामात्य ने वैशाली-भंग का पूरा-पूग व्योरा देती हैं । बुद्ध का निमित्त ऐसी साधारण बात की होगी।" "मेरे पर तुम्हे विश्वास युद्ध का प्रकार प्रादि दोनो परम्परामो के सर्वथा भिन्न नहीं है। सही नही बतला रहे हो।" यह कह सदा के है। जैन परम्परा चेटक को लिच्छवी-नायक के रूप मे लिए वह उससे टूट जाता। कभी किसी लिच्छवी को व्यक्त करती है। बौद्ध परम्परा प्रतिपक्ष के रूप में केवल वस्सकार कहता-"आज तुम्हारे घर मे क्या शाक बनाया वज्जीसघ (लिच्छवी-सघ) को ही प्रस्तुत करती है। था?" वही बात फिर घटित होती। किसी एक लिच्छवी जैन परम्परा के कुछ उल्लेख, जैसे-कूणिक व चेटक की को एकान्त मे ले जाकर कहता-"तुम बड़े गरीब हो।" क्रमशः ३३ करोड़ व ५७ करोड़ की सेना, शक्र और किसी को कहता-"तुम बड़े कायर हो।" 'किसने कहा?' असुरेन्द्र का सहयोग, दो ही दिनो मे १ करोड ५० लाख पूछे जाने पर उत्तर देता-"अमुक लिच्छवी ने, अमुक मनुष्यो का वध होना, कूल बालक के सम्बन्ध से आकाशअमुक लिच्छवी ने।" वाणी का सहयोग होना, स्तूपमात्र के टुट जाने से लिच्छ__ कुछ ही दिनों मे लिच्छवियों मे परस्पर इतना प्रवि- वियो की पराजय हा जाना प्रादि बाते पालकारिक जैसी श्वास और मनोमालिन्य हो गया कि एक रास्ते से भी लगती है। बौद्ध परम्परा का वर्णन अधिक सहज और दो लिच्छवी नही निकलते । एक दिन वस्सकार ने सन्नि- स्वाभाविक लगता है। युद्ध के निमित्त मे एक मोर रत्नपात भेरी बजवाई। एक भी लिच्छवी नही पाया तब उसे राशि का उल्लेख है, तो एक और महाध्य देव-प्रदत्त हार निश्चय हो गया कि अब वज्जियो को जीतना बहत का। भावनात्मक समानता अवश्य है। चेटक के बाण को प्रासान है। अजातशत्र को प्राक्रमण के लिए उसने जैन परम्परा मे अमोघ बताया गया है। बौद्ध परम्परा प्रच्छन्न रूप से कहला दिया। अजातशत्रु ससैन्य चल का यह उल्लेख-"उन (वज्जिगण) का एक भी प्रहार पड़ा। वैशाली में भेरी बजी-"पायो चले, शत्रु को गगा निष्फल नहीं जाता", उसी प्रकार का सकेत देता है। पार न होने दे।" कोई नही पाया। दूसरी भेरी बजी- जैन परम्परा स्तूप के प्रभाव से नगरी की सुरक्षा "प्रामो चलें, नगर में न घुसने दे। द्वार बन्द करके रहे।" बताती है, बुद्ध कहते हैं-"जब तक वज्जी नगर के बाहर कोई नही पाया। भेरी सुनकर सब यही बोलते-"हम व भीतर के चैत्यो (स्तूपों) का प्रादर करेंगे, तब तक तो गरीब हैं, हम क्या लड़ेंगे?"; हम तो कायर है, हम । क्या लड़ेंगे ?"; "जो श्रीमन्त हैं और शौर्यवन्त हैं, वे १. दीघनिकाय अट्ठकथा, खण्ड २, पृ. ५२३ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त युद्ध के पात्रों का व्यवस्थित व्योरा जितना जैन एक असंगति माती है । बौद्ध परम्परा के अनुसार उदायीपरम्पग देती है, उतना बौद्ध परम्परा नही। चेटक तथा भद्र का जन्म उसी दिन हुआ, जिस दिन श्रेणिक का ६ मल्ल की, : लिच्छवी, अदारह गणराजाओं का यत्कि- शरीरान्त हुआ', जबकि वजिरा का विवाह भी श्रेणिक की चित् विवरण भी बौद्ध परम्परा नहीं देती। मृत्यु के पश्चात् हुआ। वैशाली-विजय में छद्म-भाव का प्रयोग दोनों ही मत्यपरम्पग ने माना है । जैन परम्परा के अनुसार युद्ध के दो कूणिक (अजातशत्र) की मृत्यु दोनो परम्परामो मे भाग हो जाते है : विभिन्न रूप से बताई गई है। १. पखवाडे का प्रत्यक्ष युद्ध और २. प्रकार-भंग। जैन परपरा मानती है-कूणिक ने महावीर से पूछा चक्रवर्ती मर कर कहाँ जाते है ? उत्तर मिला-चक्रवर्ती इन दोनो के बीच बहुत समय बीत जाता है । डा० पद पर मरने वाला सप्तम नरक में जाता है। गधाकुमुद मुखर्जी की धारणा के अनुसार यह अवधि कम-मे-कम १६ वर्षों की हो सकती है। बौद्ध परम्परा "मै मर कर कहाँ जाऊँगा?" के अनुसार वस्सकार लगभग तीन वर्ष वैशाली में रहता "तुम छठे नरक में जानोगे।" है और लिच्छवियों में भेद डालता है। इस सबमे यह "क्या मै चक्रवर्ती नही हु ?" प्रतीत होता है कि बौद्ध परम्परा का उपलब्ध वर्णन "नही हो।" केवल युद्ध का उत्तरार्घ मात्र है । इस पर उसे चक्रवर्ती बनने की धुन लगी। कृत्रिम रानियां और पुत्र चोदह रत्न बनाये । पखण्ड विजय के लिए निकला। तिमिस्र गुफा मे देवता ने रोका और कहा-"चक्रवर्ती ही जैन परम्परा में कणिक की तीन रानियो के नाम इम गुफा को पार कर सकता है और चक्रवर्ती बारह हो मुख्यतया आते है-पद्यावती', चारिणी' और मुभद्रा । पावश्यक चूणि के अनुमार कणिक ने ८ राजकन्यानो के चुके है।" कृणिक ने कहा-"मै तेरहवा चक्रवर्ती हूँ।" माथ विवाह किया था, पर वहा उनका कोई विशेष परि इस अनहोनी बात पर देव कुपित हुआ और उसने उसे वही भस्म कर दिया। चय नहीं है। बौद्ध परम्परा मे कणिक को गनी का नाम वजिरा बौद्ध पररपरा बताती है कि उदायीभद्र ने राज्यपाता है । वह कोशल के प्रसेनजित् राजा की पुत्री थी। लोभ से उसकी हत्या की। कुणिक के पुत्र का नाम जैन परम्परा मे उदायी और इस विषय में दोनो परपरामों की समान बात यही है बौद्ध परम्परा मे उदायीभद्र आता है। जैन परम्परा के कि कूणिक मर कर नरक मे गया। जैन परम्परा जहाँ अनुसार यह पद्मावती का पुत्र था और बौद्ध परम्परा के तमः प्रभा का उल्लेख करती है, वहाँ बौद्ध परम्परा लोहअनुमार वह वजिरा का पुत्र था। वजिरा का होने में कुम्भीय नरक का उल्लेख करती है" । कुल नरक जनो के १. हिन्दू सभ्यता, पृ. १८६ ६. प्राचार्य बुद्धघोप, सुमगलविलासिनी, खण्ड १, पृ १६७ २. "तस्स ण कृणियम्स रन्नो पजमावई नामं देवी......" ७. जातक अट्ठकथा, खण्ड ४, पृ. ३४६; Encyclo -निरयावलिक मूत्र, (पी. एल. वैद्य सपादित), पृ. ४ paedia Buddhism, 317. ३. "तस्स ण कणियस्म रण्णो धारिणी नाम देवी ......" ८ स्थानाग मूत्र वृत्ति, स्था. ४, तथा उ० ३ तथा प्राव -औरानिक मूत्र (सटीक), सूत्र ७, पत्र २२ श्यक चूणि, उत्तरार्ध, पत्र १६७-७७ । ४. वही, सूत्र ३३, पत्र १४४ ९. महावंश ४-१ ५. आवश्यक पूणि, उत्तरार्ध, पत्र १६७ १०. दीघनिकाय अट्ठकथा, खण्ड १, पृ. २६७.३८ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित भगवतीदास कृत ज्योतिषसार डा० विद्याधर जोहरापुरकर पण्डित भगवतीदास के वैद्यविनोद का परिचय हमने गच्छ के भ० गुणचन्द्र के शिष्य भ० सकलचन्द्र के शिष्य अनेकान्त में प्रकाशित कराया है। इस लेख में इन्ही की भ० महेन्द्रसेन के शिष्य थे। प्रशस्ति के मूल पद्य इस दूसरी रचना ज्योतिषसार का परिचय दिया जा रहा है। प्रकार हैमन्तिम प्रशस्ति ( जो अशुद्ध सस्कृत तथा हिन्दी मे वर्षे षोडशसत्चतुवतिमिते श्रीविक्रमादित्यके है ) के अनुसार इस प्रथ की रचना स० १६६४ मे पूरी पंचम्या दिवसे विशुद्धतरके मासास्वने निर्मले । हुई थी। इसकी रचना के लिए मेघराज के पुत्र बिहारीदास पक्षे स्वातिनक्षत्रयोगशुक्ले वारे बध सस्थिते साधना के पुत्र उदयचंद मुनि की प्रेरणा कारण हुई थी। राजत्साहिसहावदीन भवने साहिजहां कथ्यते ।। ग्रंथकर्ता भगवतीदास अग्रोतक अन्वय (अग्रवाल जाति ) श्रीभट्टारकपद्मनंदिसुधियो देवा बभूवुर्भुवि के वंशल गोत्र में उत्पन्न हुए थे तथा काष्ठासघ माथर- काष्ठासघसिरोमणीभ्युदयदे ख्याती गणे पुष्करे। अनुसार सात है', बौद्धों के अनुसार पाठ है। बौद्ध परं- पूर्व भव - अनुसार अजातशत्रु अनक भवा के पश्चात् विदित कणिक के पूर्वभवों की चर्चा भी दोनो पर परायो में विशेष अथवा विजितावी नामक प्रत्येक बुद्ध होकर निर्वाण मिलती है। घटनात्मक दृष्टि से दोनो चनाएं भिन्न है, प्राप्त करेगा। पर तत्व माप से वे एक ही मानी जा सकती है । दानो का हार्द है-श्रेणिक के जीव ने कणिक के जीव का किमी १. रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, एक जन्म मे वध किया था। तमः प्रभा, महातमः प्रभा. (तरतमाप्रभा)। भगवती सूत्र, शतक १, उद्देशक ५। उल्लेख है। (उदाहरणार्थ देवे, भगवती गूत्र, शतक २. संजीव, कालसुत्त, संघात, जालौरव, धूमरौरव, महा- ६, उद्देशक ७) बौद्ध साहित्य में अन्यत्र ५ नरको प्रवीचि, तपन, पतापन । (जातकट्ठकथा, खण्ड ५, पृ की सूची भी मिलती है। (मज्झिमनिकाय, देवदूत २६६, २७१) दिव्यावदान में ये ही नाम है, केवल सुत्त) तथा जातको में म्फुट रुप से दूसरे नामों का जालौरव के स्थान पर रौरव और धूमरौरव के उल्लेख भी है। 'लोहकुम्भी निग्य' का उल्लेख भी स्थान पर महारौरव मिलता है । (दिव्यावदान, ६७), स्फुट नामो में है (जातकट्ठकथा, खण्ड ६, पृ. २२, सयुत्त निकाय, अंगुत्तर निकाय तथा सुत्तनिपात मे १० खण्ड ५, पृ. २६६; सुननिपात अट्टकथा, खण्ड १, नरको के नाम पाये हैं-प्रवुद, निरन्बद, प्रबब, पृ. ५६ ।) अटट, अहह, कुमुद, सोगन्धिक, उप्पल, पूण्डरीक, ३. Dictionary of Pali Proper Names, Vol 1, पदुम । (स० नि० ६-१-१०; अ. नि. (PTS), P. 35. खण्ड ५, पृ. १७३; सुत्तनिपात महावग्ग, कोकलिय ४. जैन वर्णन-निरयावलिका सूत्र, घासीलालजी महाराज सुत्त, ३।३६) अट्ठकथाकार के अनुसार ये नरकों के कृत सुन्दर बोषिनी टीका, पृ. १२६.१३३; नाम नहीं, पर नरक में रहने की अवधियों के नाम बौद्ध वर्णन-जातकट्ठकथा, सकिच्चजातक, जातक हैं। भागमों में भी इसी प्रकार के काल-मानों का संख्या ५३०। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त गच्छे माथुरनाम्नि जोजतिवरा कीतियश: तत्पदात् ता वाइस्सइ वाऊ बरसणकालेण जिम्भंतो ॥६६ इस काण्ड के अन्तिम भाग में आधारभूत ग्रंथकर्ता के तत्पट्ट गुणचंद्रदेवणिनस्तत्पट्टपूर्वाचले रूप में लेखक ने भडुली का नाम दिया हैसूर्याभा सकलाविचंद्रगरवस्तत्पदृशोभाकराः पुवायरियहि जो भणिउ भलि भासिउ मासि। संजाता हि महेन्द्रसेनविपुला विद्यागुणालंकृता ते सब जोडि मिलाइया कविसु भगोतोदासि ।।१३८ नानाशास्त्रसमूहपद्धतिधरा दुर्वादिविच्छेदकाः॥ दूसरे काण्ड का नाम नक्षत्रसार अर्घदीपक है तथा तसिष्यं बुधसेवको हि सततं प्रग्रोतका अन्वये इसमें १०७ पद्य हैं । इसके उदाहरणवंशलगोत्रपवित्र साधुमुनयः चरणांबुजे षट्पदः । पदा सूर्यसुतो पूर्वाफाल्गुनीसंस्थिता ध्रवं। भगवदासभिधान तेन लिखितं ग्रंथमिदं ज्योतिष चितावस्था भवे राजा संसारं भयवारणं ॥१ष सर्व दुःकृतकर्मना क्षयकरं जीयात् तदेतच्चिरं । महमूलकत्तियासु रूढो वकं धरह परणिसुवो। वर्धमान के देहुरई नौतन कोट हिसार । धान्नु करेइ महग्धं गरवइ-छत्तं विणासेइ ॥८३ दास भगोती ने भन्यो सो पुणु परोपकार । तीसरे काण्ड में ३०१ पद्य है । इसका नाम लेखक ने प्रतिविस्तर सब छोडके सारु लिया मथि सोइ । नहीं दिया है। इसमे बारह राशियों मे ग्रहो के शुभाशुभ बुधि जन सबै संवारयह हीन अधिक तहं होइ । फल, ग्रहण के फल, १०८ केतूदय के फल, ग्रहो के मिलने मेघराज सुतु साधना नाउ बिहारीदासु । तथा वक्र होने का फल और वर्षा के भविष्य आदि का ताको सुत गुरुभक्तियुत उदचंदु मुणि तासु ॥ वर्णन है । इसके उदाहरणतिसु उपदेश लिख्यो कछुक ज्योतिषसारु बनाइ । मिथुने भास्करे जातः कसं कंदमूलकं । पढहि गुणहि परवीण नर तिन घरि कमला थाइ । सर्वपा तिलतलं च मह जायते ध्रु ॥ सोलहसइ चौराणुवइ अस्वन सुदि बुधवारि । चंती पून्यो निम्मली भली भणिज्जइ लोइ । शुक्लयोग सुभ दिन तिहां स्वाति नक्षत्र विचारि ।। प्रह मंडलु ससि ग्रहनु मुणि उलकापातु जुहोई॥ तादिन लिखि पूरण भया समुझाइ चतुर सुजाण । ऊपर के वर्णन तथा उदाहरणों से स्पष्ट होगा कि पचगोठि हईसार कहु क्षेम कुसल कल्याण ॥ लेखक ने इस ग्रथ में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश तथा हिन्दी वाजहि तूर अनंद के घरि घरि मंगलचारु। इन चारों भाषामों के पद्यो का उपयोग किया है। उन्होंने कवि सु भगोती इज लवह सदाजु हर्ष विथार॥ ये पद्य अन्य ग्रंथों से संकलित किये हैं ऐसा निम्न कथन से इस ग्रथ में तीन काण्ड है-प्रथम द्वादशमासफल- प्रतीत होता हैशुभ कथन काण्ड मे १४३ पद्य है। इसके कुछ उदाहरण सुगम श्लोक जे लखे मइमा गुरु दिये ललाइ । इस प्रकार है बहु ते ग्रंथनि दूंसकह लिखे ठकाणी साइ॥ पाखि अंधारइ चतकई वृद्धि होई तिथि कोइ । इसी कारण ग्रंथ के विषय प्रतिपादन में सुसूत्रता नही पाखि चांदणे फिरि घटइ अन्न घणेरा होई॥ आ सकी है । ये पद्य मूलतः काफी अशुद्ध भी है । बरसइ पून्यो साढको मास एक सुरभिक्ष । यह ज्योतिषसार प्रथ भी उसी हस्तलिखित में मिला पाछै होइ महर्घता समा सुभिक्ष दुभिक्ष ॥२३ है जिसमे से वैद्यविनोद का परिचय पहले दिया गया है । दोज तीज सुदि माह की शुक्र शनीचर मेलु । हस्तलिखित के पत्र ५८ से ७६ तक यह रथ है । यह खांडा वाजइ देसहि रुहिर मही महि रेलु ॥४४ हस्तलिखित संवत् १८१० से १८१६ तक लिखा गया है सनि प्राइचिहि मगलिहि जेइ कक्कह सकति । ऐसा इसको पुष्पिकानों से स्पष्ट होता है। इसका लेखन अन्न महग्या तुच्छ जल के नर वे जुमंति ॥५६ बुरहानपुर में लाड झाति के नेमासा भीखासा के लिए चित्तस्य सेयपक्खे पडिबइ जइ सूखासरो होई। प्रेमलाभ ने पूर्ण किया था। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हूँड़े" ग्राम का अज्ञात जैन पुरातत्त्व प्रो० भागचन्द्र जैन "भागेन्दु", एम. ए., शास्त्रो भारतीय इतिहास, संस्कृति, कला और पुरातत्त्व को संस्कृति का अत्यन्त समृद्ध केन्द्र रहा प्रतीत होता है। समृद्ध बनाने में मध्य प्रदेश का योगदान अत्यधिक महत्त्व- ग्राम के पूर्व में 'संन्यासियों का मठ' तथा तालाब, पश्चिम पूर्ण है। मध्यप्रदेश में वैदिक, जैन और बौद्ध सस्कृतियाँ में "सिद्धों का मठ" एव दक्षिण मे 'सुरई' (शिवरयुक्त) प्राचीन काल से ही पल्लवित, पुष्पित और विकसित हुई, नामक बावडी और उसी के निकट एक कलापूर्ण शिवउनमें से अनेक स्थानों का सर्वेक्षण, अन्वेषण और अनु- मन्दिर विद्यमान है। शोलन समय-समय पर विभिन्न मान्य विद्वानों और पूरा- प्रस्तुत निबन्ध मे विशेषरूप से इस ग्राम के प्राचीन तत्त्व प्रेमियों द्वारा किया कराया जा चुका है। किन्तु जैन पुरातत्त्व का अनुशीलन किया जा रहा है .स्थानों की दूरवर्तिता' अगम्यता, दुरूहता, मार्गों और १. तालाब-इसके उत्तरीय बाध पर वटवृक्ष के आवागमन के साधनो के अभाव, वन्य पशुओं और दस्युरो नीचे एक चबूतरे पर कुछ अजैन और जैन मूर्तियों के आदि के उपद्रवो तथा आतंकों के कारण बहुत से स्थानो अवशेष रखे है । अजैन परम्परा मे शिवलिग, नादी हनका सर्वेक्षण, अनुशीलन और अध्ययन अभी भी शेष है। मान के धड से ऊपर का भाग, तथा कुछ अन्य देवियो के सुरक्षा के प्रभाव, काल के क्रूर-प्रहार और स्थानीय जनता खडित अथ रखे है। जैन परम्परा में आदिनाथ और की अनभिज्ञता तथा उदासीनताके कारण ऐसे ही महत्त्व के पाश्वना पर पार्श्वनाथ है :-- बहुतसे स्थान नष्ट हो गये है एव होते जा रहे है । ऐसे स्थानो (म) प्रादिनाथ-पद्यामन में, ध्यानमुद्रा से ऊपर के सर्वेक्षण, अध्ययन और अनुशीलन से भारतीय इतिहास, का अंश खण्डित । ऊंचाई दस इच, चौड़ाई एक फुट संस्कृति, कला और पुरातत्त्व के क्षेत्र मे अनेक नवीन दस इच । कमलासन पर आसीन । इस मूर्तिखण्ड के पादउन्मेष होंगे। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में टुंडा" ग्राम पीठ में (दाये) गोमुख यक्ष' तथा बा चक्रेश्वरी यक्षी' भी ऐसा ही स्थान है, जो अब तक पुरातत्त्वज्ञो की दृष्टि १. "सव्येतरोलकरदीप्रपरश्वधाक्षसे प्रोझल है, किन्तु अपने समृद्ध और गौरवपूर्ण अतीत के सूत्र तथा-घरकराकफलेप्टदान । लिए उल्लेखनीय है। प्राग्गोमुख बृषमुख वृपग वृषाक भक्त यजे कनकभ वृषचऋशीर्षम् । ढूंसा-यह ग्राम वर्तमान मध्य प्रदेश के पन्ना जिले -प० प्राशाघर प्रतिष्ठासारोद्धार, बम्बई, वि० स० में स्थित है। इस ग्राम के निकट से ही जबलपुर जिले १६७४, प्र० ३ पद्य १२६ । की सीमाएँ प्रारम्भ होती है। यहा पहुँचने के लिए मध्य २. "भर्माभाद्य करद्वयालकुलिशा चक्राकहस्ताष्टका, रेलवे के कटनी-बीना लाइन के रीठी स्टेशन उतरना सव्यासव्यशयोल्लसत्फलवरा यन्मूर्ति रास्ते बुजे । चाहिए। वहाँ से यह स्थान लगभग पाठ मील दूर है। ताक्ष्ये वा सह चक्रयुग्मरुचकत्यागश्चतुभिः कर., कटनी से सलया जाने वाली पक्की सड़क पर पटोहा और पचेष्वास शतोन्नतप्रभुनता चक्रेश्वरी ता यजे ॥" रीठी से भी यहां पहुंचने के लिए रास्ते है। वहाँ से यह -प० पाशाघर, वही अ० ३, ५० १५६ । क्रमशः पांच और माठ मील उत्तर में है। यहाँ जीप, इस यक्षी के लक्षणों के लिए और भी देखियेसाइकल और बैलगाड़ी से पहुंचा जा सकता है। यहाँ की (i) यतिवृषभः तिलोय पण्णत्ति, ४-६३७ जनसंख्या लगभग १५०० है यह पाम जैन और वैदिक (ii) नेमिचन्द्रदेवः प्रतिष्ठा तिलक, ७-१ प्रादि । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का लघ प्राकृतियों में सुन्दर अंकन है स्तम्भ कृतियो के हमा। ग्रामवासियों की श्रद्धा-भावना के कारण ही यह मध्य शार्दूल दिखाये गये हैं। पादपीठ में भक्तिविभोर मठ जिस किसी रूप में सुरक्षित रहा प्रतीत होता है। श्रावक-श्राविका भी दर्शनीय है। यद्यपि इसका अधिकांश धराशायी हो चुका है किन्तु (ब) पाश्र्वनाथ-कायोत्सर्गासन में, ऊँचाई दो फीट इसका मण्डप, प्रवेशद्वार तथा महामण्डप के कुछ खम्भे चार इच, चौडाई ६ इव । यद्यपि पापाण मे दरार पड़ और दीवारों के कुछ प्रश अब भी अपने मूलरूप में मौजूद जाने से इस मूर्ति का अग्रभाग गिर गया है तथापि फणा- हैं। यह सपाट छत (Flat rooted) का जैन मन्दिर वली से स्पष्ट है कि यह मूर्ति पार्श्वनाथ की थी। इस था, इसकी स्थिति तथा सामग्री के आधार पर स्पष्ट कहा मूर्ति के दोनो पावों में भक्तिमग्न श्रावकयुगल चवर जा सकता है। मठ के पिछले हिस्से के गिर जाने से दुरा रहे है। यद्यपि अनेक मूर्तियाँ खडित हो गई हैं। बहुत सी पास(स) पार्श्वनाथ-इस प्रतिमा का केवल ग्रीवा से स पास के खेतों तथा झाडियों में जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी है। प ऊपर का भाग शेप है। ऊंचाई ६ इच, चौड़ाई एक फुट मठ के शिखर का प्रामलक या अन्य कोई चिन्ह दो इच । फणावली के अतिरिक्त तीर्थकर का मूख और यहाँ किसी भी रूप में नहीं है तथा मूर्तियों की कला के बायी पोर उडान भरता हमा मालाधारी विद्याधर तथा याधार पर इसे ईमा की सातवी-आठवी शती की कृति मध्य मे छत्रा कृतिया ही शेष है। शेष अग खण्डित हो माना जाना चाहिए । अग्रिम पक्तियों में इसी मठ तथा चुका है। यहाँ की उन मूर्तियों का सर्वेक्षण तथा अनुशीलन किया जा रहा है, जो जमीन मे नही दबी है। पास पास के २. सिद्धों का मठ खेतो में फैली हुई जैन-मूर्तियो तथा मठ की सामग्री में ग्राम के पश्चिम मे मौजुद यह मठ अब भी "सिद्धो का मडहा" कहा जाता है। इसके नाम, स्थापत्य एव दबी हुई या जमीन में दबी हुई जैन मूर्तियो का अनुशीलन नही किया जा सका है। शिल्प-सामग्री से स्पष्ट है कि यह प्राचीन जैन मन्दिर है। यद्यपि अब इस ग्राम में एक भी जैन धर्मानुयायी नही है, सबक्षण : तथापि इस मठ के आस-पास की जमीन अभी भी खेती सिखों का मठ (उत्तराभिमुख) मापके काम मे नही लायी जाती और ग्रामवासी विभिन्न अवसरों पर इसे बडी श्रद्धा के साथ पूजते हैं। इसके अधिष्ठानआसपास के भूभाग के विभिन्न नाम भी हमें इस स्थान पूर्व-पश्चिम-चौंतीस फीट । के वैभव तथा प्राचीनता आदि की अोर सोचने को बाध्य उत्तर-दक्षिण-पड़तीस फीट छह इच । करते है। जैसे-इसके पूर्व के एक बड़े खेत को अब भी प्रथम अधिष्ठान पर से द्वितीय अधिष्ठान की ऊँचाई एक फुट । 'तलैया' कहते है । तथा दक्षिण के बहुत बड़े भूभाग को मण्डपअब भी 'बाजार' कहा जाता है । इमसे सप्ट है कि पहले इम स्थान के अासपास अत्यन्त समृद्ध बस्ती थी। आसपास द्वितीय अधिष्ठान पर से मण्डप की ऊंचाई-सात के खडहगे से उसकी स्थिति अब भी अनुमित हो सकती फीट नौ इंच। __ मण्डप की चौड़ाई-सात फीट तीन इच । मण्डप मे इस मठ का सर्वेक्षण अभी तक नही हया और न ही मागे के मध्यवर्ती केवल दो स्तम्भ शेष है, जबकि पार्श्व इसकी शिल्प सामग्री की सुरक्षा का ही कोई प्रबन्ध के एक+एक-दो स्तभ टूट गये है किन्तु उनके स्थान अब भी मूल रूप में मौजूद है। परवर्ती चारो स्तभ सुरक्षित ३. मडहा, सस्कृत के 'मठ' शब्द का अपम्रश रूप है। हैं और दीवार के साथ सटे हुए है। इस मडप पर माज बुन्देलखण्ड मे आज भी 'मड़ा' शब्द बहुत प्रचलित है। भी सपाट छत अच्छी हालत में मौजूद है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ट" ग्राम का अज्ञात जैन पुरातत्व ६६ प्रवेश-द्वार : तीर्थकर मूर्तियाँ तथा शासन देवों की मूर्तियां टिकी हुई ऊंचाई-छह फीट। है। मेरी राय मे इस मठ के घराशायी होने मे एक चौडाई-चार फीट डेढ इच । कारण यह विशाल वृक्ष भी है। इसी वृक्ष के बगल से सिरदल के मध्य मे १३"xs" के कोष्ठक में एक गर्भगृह की दीवार होने का आभास होता है। इस वृक्ष पद्मासन तीर्थकर उत्कीर्ण है। तीर्थकर की हथेलियों, के नीचे दो पद्मासन और एक कायोत्सर्गासन तीर्थकर घटने तथा मुग्व का कुछ भाग खडिन हो गया है। इनके तथा एक धरणेन्द्र (यक्ष) की मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय पाव मे (दोनो ओर) त्रिभग-मुद्रा के एक-एक इन्द्र तथा है। उनका परिचय निम्न प्रकार है :उनके ऊपर मालाधारी विद्याधर (उडान भरते हुए) १. प्रादिनाथ :दशित है। तीर्थकर के मस्तक पर तीन छत्र और उनके । भी ऊपर उद्घोषक का मुम्पष्ट ग्रकन हुआ है छत्रो के तीन फुट पाठ इ च ऊँचे, दो फुट छह इ च चौडे तथा दोनो ओर पद्मासन में ट्रेड-डेढ इच को दो-दो तीर्थकर एक फुट छह इच मोटे शिलाफलक पर पद्मासन में यह प्राकृतियाँ भी प्रालिखित है। मूर्ति अत्यन्त सुन्दरता और भव्यता के साथ निर्मित है। महामंडप और गर्भगृह : पादपीठ मे आदिनाथ के यक्ष-यक्षी क्रमशः गोमुख (११"x ६") तथा चक्रेश्वरी (१"४६") बहुत मोहक मुद्रा में प्रवेशद्वार मे आगे बढ़ने पर पाठ फीट तीन इच के उत्कीर्ण है। पादपीठ में ही, शार्दूलो के अग्रभाग में अन्तर पर महामडप के खम्भो की प्रथम पक्ति प्रारभर विनयावनत श्रावक-श्राविका अपनी भव्य वेश भूषा मे होती है। उनम से प्रवेश द्वार के सामने का केवल एक निदर्शित है। प्रादिनाथ कमलाकृति प्रासन पर विराजस्तभ खडा हुआ है, जिस पर छत के 'वंडे' (Lintel) मान है । यद्यपि उनके दोनों हाथ खण्डित है किन्तु सौम्य तथा अन्य पत्थर मौजूद है। शप सभा धराशाया है। और ध्यानस्थ मुख मुद्रा दर्शक को प्रभावित किये ग्रामवासियों का कहना है कि कुछ वर्षों पूर्व तक महा- बिना नहीं रहती। कन्धो पर केशराशि छिटकी हुई है। मण्डप मच्छी स्थिति में था। बात सत्य प्रतीत होता है। श्रीवत्स अत्यन्त लघु आकार में दर्शाया गया है। सभी सामग्री यथास्थान विद्यमान है। परिकर तथा अन्य सज्जातत्त्वों का प्रभाव, श्रीवत्स यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इस मन्दिर की लघुता तथा अन्य विशेषताएं--इसे लगभग सातवी में गर्भगृह की योजना पृथक से थी अथवा इमी महामडप शताब्दी की कृति सिद्ध करते है । इस मूर्ति के दोनों पाश्वों मे । किन्तु महामडप के पीछे का अधिष्ठान वाला कुछ मे एक-एक कायोत्सर्ग तीर्थकरो की स्थिति का अनुमान भाग पागे के हिस्से की अपेक्षा काफी सकीर्ण है। उस पर । खडित होने से बच रहे उनके भामडल और पैरों से ही दीवार होने का भी आभाम होता है। मेरा अनुमान है कर सकते है। कि महामडप से जुड़ा हुआ यह भाग गर्भगृह रहा । होगा। वर्तमान में मूर्तियाँ भी इमी भाग में रखी हुई २. प्रादिनाथ : । है और इसके आसपास के भाग में जमीन मे दबी हुई है। चार फुट ऊँचे, एक फुट छह इच चौड़े तथा एक फुट खुदाई होने पर इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश पडने की ___ मोटे शिलापट्ट पर कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रालिखित यह मूर्ति सम्भावना है। भी प्रादिनाथ की है। इसके हाथ ग्वडित हो चुके है। वर्तमान में मठ से लगा हुआ एक प्राचीन इमली का यद्यपि चक्रेश्वरी (यक्षी) नष्ट हो चुकी है, किन्तु गोमुख वृक्ष है, इमी के नीचे अनेक, पद्मामन और कायोत्सर्गासन (यक्ष) अभी भी अपने मूलरूप में उपस्थित है। प्रासन ४. तीर्थकर की वाणी को दुन्दुभि पीट कर त्रिलोक मे के शार्दूलो के पावों में श्रद्धावनत श्रावक-श्राविका के उपर गुंजा देने वाला। एक-एक कायोत्सर्ग तीर्थकर तथा उनके ऊपर (दोनों पोर) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनेकान्त क्रमश: एक-एक गजमुख, व्यालमुख और मकरमुख शार्दूल चौडे और नौ इंच मोटे शिलापट्र पर धरणेन्द्र' की खडी बहुत सुन्दरता से निदर्शित है। उनके भी ऊपर (दोनों हुई मूर्ति है। इस मूर्ति के घुटनों से नीचे का हिस्सा पोर ) एक-एक कायोत्सर्ग किन्तु अब शिरविहीन तीर्थकर खडित हो चुका है। इसमे सर्पो की फणावलि मस्तक के दर्शाये गये है । सुन्दर मुखाकृति मुस्कराती सी प्रतीत होती पीछे तो दिखायी ही गयी है, दो सर्प मालाकार होकर है । मस्तक पर के तीनों छत्र अब भी मौजूद है, किन्तु वक्ष पर्यन्त लटक भी रहे है। फणावलि के ऊपर लघु उद्घोषक टूट गया है। आकार मे पद्मासन मे तीर्थकर पार्श्वनाथ आलिखित है। गजमुम्ब, सिंहमुख और मकरमुख शार्दूलों की सज्जा भी ३-प्राविनाथ: दर्शनीय है। इसके दोनों ओर चार-चार हाथ है। ऊपर अत्यन्त सौम्य और प्रभावशील मुखमुद्रा वाली प्रादि- दोनों ओर विद्यावर युगल उडते हुए अंकित किये गये है। नाथ की यह प्रतिमा तीन फुट ऊँचे, दो फुट चौडे एव एक इस यक्ष के झीने वस्त्राभूषण भी बडे आकर्षक है। फुट मोटे शिलाफलक पर पद्मासन मे उत्कीर्ण की गयी है । इसके हाथ और पैर प्रायः खडित हो चुके है । जटाए अन्तिम-टूडे ग्राम के इस जैन स्मारक और मूर्तियों कन्धो पर लहरा कर प्रादिनाथ की दीर्घकालीन तपस्या के अध्ययन से अनेक नये तथ्य सामने आते है। पहला यह का स्मरण दिलाती हैं। इसके पादपीठ में (बायें) गोमुख कि इस प्रदेश मे ईमा की सातवी शती मे जैनधर्म का यक्ष के ऊपर एक इन्द्र शेष है, जबकि दायी पोर का इन्द्र व्यापक प्रभाव था और ग्रादिनाथ तथा पार्श्वनाथ की बहुत खडित हो गया है, मात्र उसके नीचे की चक्रेश्वरी (यक्षी) अधिक उपासना होती थी। दूसरा यह कि शिखरविहीन शेष है। सपाट-छत (Flat Yooted) के मन्दिर बनते थे। इस मन्दिर के सपाट छत आदि के कारण इसका निर्माण काल ४. परणेन्द्र (यक्ष): छठी शती ई० तक भी पहुँच सकता है। तीसरा यह कि तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के यक्ष धरणेन्द्र का यह मूलनायक की अपेक्षा शासन-देव-देवियों की मूर्तियाँ अपेक्षाअकेली मूर्ति, इस श्रेणी की बिरली प्रतिमानो मे गिनी कृत काफी छोटी बनती थी, किन्तु उनकी स्वतन्त्र मूर्तियाँ जायगी। धरणेन्द्र का अंकन प्रायः पद्मावती के साथ भी बनने लगी थी। निर्माण कार्य में स्थानीय लाल और मिलता है। किन्तु यहाँ की कला में, उसको स्वतन्त्र भरे बल्या पत्थर का उपयोग होता था। यदि शासकीय मूर्ति भी बनी, यह एक उल्लेखनीय तथ्य है। यद्यपि इस स्तर पर या अन्य किसी ढग से उत्खनन कार्य कराया मठ मे जमीन के ऊपर मौजूद मूर्तियो मे पाश्र्वनाथ की जाय तो और भी बहुत सी सामग्री प्रकाश में आकर इस मूर्ति नहीं दिखायी पडी, तालाब पर भी पार्श्वनाथ की क्षेत्र के इतिहास पर नया-प्रकाश डालेगी। जो खंडित मूर्तियाँ मौजूद है वे भी प्राकार-प्रकार तथा कला मादि की दृष्टि से इससे नितान्त भिन्न है। इससे यह अनुमान सहज ही होता है कि जमीन मे दबी हुई ५. "ऊर्ध्वद्विहस्तधृतवामुकिरुद्भटाधः सव्यान्यपाणिफणिपाशवरप्रणता । मूर्तियों में पार्श्वनाथ की तथा यक्षी पद्मावती की भी होना श्रीनागराजककुद धरणोभ्रनीलः चाहिए। कूर्मश्रितो भजतु वासुकिमौलिरिज्याम् ॥" वर्तमान मे दो फुट एक इंच ऊँचे, दो फुट एक इंच -पं. प्राशाधर : प्र. सा., अ. ३ पद्य १५१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत से अरुचि क्यों श्री गोपोलाल 'प्रमर' एम. ए. सस्कृत भाषा के वाङ्मय की-सी विविधता और था लेकिन इसके अनेक कारण माइए,उन कारणों पर विपुलता ससार की किसी भी भाषा में कदाचित् ही होगी। हम कुछ विचार करेसस्कृत का महानथ अहग्वेद ससार की प्राचीनतम पुस्तको मे प्रथम है । प्रादिकवि बाल्मीकि और महाकवि कालिदास भारत के भूतपूर्व शासकों द्वारा विरोष : का स्थान विश्वप्रसिद्ध कतिपय महाकवियो में सर्वोपरि है। प्राचीनकाल से हो भारत अनेक प्राकर्षणो का केन्द्र सस्कृत के व्याकरण की कोई जोड नही । मानव-जीवन के रहा है। कदाचित् इसोलिए विदेशी शासको ने इस देश प्रत्येक पहलू पर सस्कृत ने प्रकाश डाला है। सस्कृत में पर मनचाहा शासन किया। उनके शासन तक तो फिर भी जहाँ सहस्राब्दियो पूर्व की सभ्यता के दर्शन होते है सहस्रा कुशल थी पर उसे स्थाई बनाए रखने के लिए यहा की ब्दियो के पश्चात् आने वाली सभ्यता की भविष्यवाणी भी सस्कृति को भी उन्होने क्षत-विक्षत करने की चेष्टाए की। है । सस्कृत वह भापा है जिसमे दर्शन, विज्ञान और जीवन सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति प्रायः सस्कृत विद्या मे ही केन्द्रित का अद्वितीय समन्वय मिलता है। संस्कृत साहित्य ही से थी। अतः उन्होने उसी पर अनेक घातक प्रहार किए, विश्व के लिए शान्तिमय सन्देश प्रसारित होता है । सस्कृत के विद्वानों और काव्यकारो को प्राश्रयहीन किया, मठ और गुरुकुल ध्वस्त किए, ग्रन्थो को अग्निसात् या परन्तु उसी सस्कृत को आज की स्थिति में देखकर जलमग्न किया और अन्ततोगत्वा उसे 'मृत भाषा' बनाकर हमे उस सरस्वती का स्मरण पाता है जिसे ब्रह्मलोक त्याग ही छोडा। कर मर्त्यलोक पाना पड़ा था। सरस्वती तो फिर भी अमृत कहलाती रही परन्तु सस्कृत को 'मृत' तक कह डाला गया। सस्कृत की: वर्तमान स्थिति के लिए ये विदेशी शासक अाज यह स्थिति है कि सस्कृत परम्परागत पजारी कहलाते बहुत कुछ उत्तरदायी हैं। कुछ विद्या-प्रेमी उदार-हदय वाले हमी लोग उससे अरुचि करने लगे है, उसके अध्ययन- शास शासको की चर्चा हम नही कर रहे हैं । मनन को अपनी गौरव हानि समझने लगे है। यही नही, पाश्चात्य सभ्यता के प्रति मोह: संस्कृत से हमारी अरुचि उत्तरोत्तर बढ़ रही है जिसके अग्रेजी शासनकाल में भारतीयो का मोह पाश्चात्य उदाहरण है वे शतश: विद्यालय और पाठशालाएं जो छात्रा सभ्यता के प्रति तीव्र वेग से बढा । यह परम्परा प्राज भाव के कारण अन्तिम सांसें ले रही है, वे दिग्गज सस्कृत विद्वान् जो इस लिए हमारे सम्मान के पात्र नही रहे भी बहुत अंशो मे कायम है। सूट-बूट से सजे आज के कि वे केवल सस्कृतज्ञ है और वे हम और हमारे विविध अप-टू डेट नौजवान को मस्कृत विद्या मे 'पण्डिताऊपन' की नेता जिन्हे, सस्कृत विद्या का प्रचार-प्रसार तो दूर रहे, झलक मिलती है, उसका अध्ययन-मनन कोरा 'पुराणपथ' प्रतीत होता है । पाश्चात्य विद्वानों ने तो सस्कृत का श्रेष्ठ उसे यथा स्थिति कायम रखना भी दुष्कर है । अध्ययन किया है लेकिन पाश्चात्य सभ्यता से मोहित इन कारण तथाकथित भारतीय विद्वानों और नेतामों को सस्कृत में हाँ ब्रह्मलोक त्यागकर मर्त्यलोक मे सरस्वती को तो साहित्यिक और प्राध्यात्मिक तत्त्व नजर नहीं पाते । उसमें दुर्वासा के शाप से पाना पड़ा था, लेकिन सस्कृत को उस उन्हे मनोविज्ञान और मानव-जीवन के विश्लेषक तत्त्वों की स्थिति में क्यो पाना पड़ा? उसका तो एक ही कारण कमी खटकती है । ये भ्रान्त धारणाएं पाश्चात्य सभ्यता Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अनेकान्त के प्रति मोह से जन्मी है । और सस्कृति के प्रति अरुचि कुप्रभावित होकर सम्कृत के प्रति गलत धारणा बना को जन्म दे रही है। लगा। अध्यापन शैली के दोष : संस्कृत के विद्वानों और विद्यालयों को शोचनीय स्थिति : विश्वविद्यालयो, कालिजो और कुछ स्कूलो मे सस्कृत प्राज सस्कृत के विद्वान और विद्यालय, दानों की की शिक्षा मनोवैज्ञानिक तथा परिष्कृत शैली में दी जाने आर्थिक स्थिति अत्यन्त शीचनीय है । अधिकाश विद्यालयो लगी है। परन्तु प्राचीन पद्धति की पाठशालाप्रो और चट- का सचालन विभिन्न समाजो और व्यक्तियों द्वारा किया गालो मे जो अध्यापन शैली प्रचलित है वह अत्यन्त दोप- जाता है। उनकी प्राय के स्रोत भी उनके सचालको तक पूर्ण हो गई है। इनके अध्यापक मनोविज्ञान से प्राय: । ही मीमित रहते है । शासकीय अनुदान उन्हे प्राय नही अपरिचित होते है। इनमे और बहुत-सी कमिया हुअा। मिलता । ये विद्यालय संस्कृत विद्या के प्रचार के लोभ मे करती है। कालिदास और भवभूति के नाटको का दमो चनाये तो जाते है पर धनाभाव के कारण उनमे न तो बार अध्यापन कर चुकने वाले भी अध्यापक कदाचिन् शिक्षा के पर्याप्त और उपर्ययत साधन होते है और न वहा उन नाटको का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने में हिच- के अध्यापकों को पर्याप्त वेतन ही दिया जाता है। बहुत केगे। इन पाठशालागो और चटशालो में ऐसे भी कोई सो विद्यालय ममाज गे चन्दा उगाहने के लिए प्रचारक रखें अध्यापक मिलेगे जिन्होने दसो बार मेघदूत का अध्यापन रहते है। ये प्रचारक प्राय अल्पशिक्षित और अप्रामाणिक किया होगा, पर वे उसमे उल्लिखित स्थानों पर भौगोलिक होते है - इनवे माध्यम से भी जनमाधारण की श्रद्धा और टिप्पणिया न लिख सकेंगे। वे अध्यापक भी मिल सकते है मचि मस्कृत मे हट जाती है। उबर वेतन अपर्याप्त मिलने जिनकी जिह्वा पर नाचती होगी वेद-चतुष्टय की ऋचाये से अध्यापक उदास रहते है और उमी उदामी में वे छात्रा लेकिन उनमें से अधिकांश ने इस युग के प्रथम वेद सस्का को शिक्षा देते है उिमगे छात्र परिपक्व नही होने पाने । रक मेक्समूलर और बेवर के नाम भी न सुने होगे। मै बारह वर्ष तक तन, मन अोर वन में जुट कर अवार्य बने, एक ऐसे अध्यापक को जानता हूं जिन्हे कई सस्कृत ग्रंथ अन्त में उगे हम ग्राममान छने वाली महगाई के युग में अक्षरश: मुखाग्र है, पर वे यह नहीं बता सकते कि उन भी सौ या उसगे भी कम रुपये मिले, इमगे बढकर सस्कृत ग्रन्थो मे आये हुये उद्धरण किन ग्रथों से लिये गये है। की अप्रतिष्ठा और क्या हो सकती है ? पाश्चर्य नही जो इन पाठशालाओ और चटशालो में ऐसे अध्यापक भी मिल जाय जिन्हे अपने वर्षों से मुखाग्र किये संस्कृत व्याकरण के आधुनिक संस्करण का प्रभाव ग्रन्थो के ग्रन्थकारो का भी नाम ज्ञात न हो, उनके व्यक्ति सम्बन का व्याकरण अपनी सुव्यवस्था और वैज्ञागत और साहित्यिक परिचय की तो बात ही क्या ! निकता के लिये जगप्रसिद्ध है । पाणिनि और पनजलि अध्यापन करते समय ये अध्यापक वर्षों के रटे-रटाये ग्रादि के व्याकरणो के सस्करण भी प्रामाणिक रूप में विषय को ही टेप- रिकार्डर की भाति छात्रो के सामने रख प्रकाशित हये है। पर बात कछ और है । युग की माग देते है, पार्कषण और मनोविज्ञान के तत्त्व तो उस विषय उस व्याकरण की तो है लेकिन उसके वर्तमान सस्करण मे पहले से ही नही रहते । छात्रों के अहोभाग्य जो वे के रूप मै नही । आवश्यकता ऐमो सस्करण की है जिसमें उसमें से कुछ सीख निकलते है। सम्पूर्ण व्याकरण को उसका एक भी शब्द परिवर्तित किये ___इन अध्यापको और पंडितो द्वारा प्रत्यक्ष मे भले ही बिना ही एक नये सिरे से, नयी शैली में लिखा गया हो । संस्कृत के प्रति अरुचि उत्पन्न न की जाती हो, परन्तु इस प्रकार का सराहनीय प्रयत्न हुअा है कोप ग्रन्थो के परोक्ष मे तो ये उसके मूल कारण ही है। इनमें अध्ययन विषय मे । सस्कृत के प्राचीन कोप ग्रन्थो से शब्दावली करने वाला प्राज का विज्ञान प्रेमी छात्र निश्चय ही इनसे लेकर उसे आज की 'डिक्शनरियो' मे संजोया गया है जो Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत से प्रति क्यों ७३ न केवल अधिकतर वैज्ञानिक बन पडा है बल्कि सुविधा- मे लाने का सर्वोत्तम माध्यम है समालोचना । सस्कृत में जनक भी हो गया है। व्याकरण के ऐसे सस्करण का इने-गिने ग्रन्थो की ही अभी समालोचना प्रस्तुत की जा प्रभाव भी सस्कृत के प्रति प्रावश्यक रुचि नही उत्पन्न सकी है । सस्कृत ग्रन्थो के तुलनात्मक अध्ययनकी भी बड़ी होने देता। कमी है। इसी तरह विश्लेषण, व्याख्या, टीका, अनुवाद आदि बहुत मात्रा में उपलब्ध नहीं है। संस्कृत ग्रन्थों के माधुनिक शैली में प्रकाशन का प्रभाव : इन सब कमियो और अभावो की पूर्ति किये बिना प्रथम तो संस्कृत के सम्पूर्ण ग्रन्थ ही प्रकाश में नही । सम्पूण ग्रन्थ हो प्रकाश में नहा सस्कृत के प्रति समुचित रुचि जाग्रत नहीं हो सकती। पाए है और जो पा भी गये है, उनमे बहुत ही कम ऐसे है जिन्हे आधुनिक शैली मे सम्पादित और प्रकाशित किया नवीन साहित्य-सर्जना की कमी : गया है। विशेषत सस्कृत ग्रन्थो के प्रकाशन मे अर्थोपार्जन किसी भी उन्नत भाषा का यह प्रधान लक्षण है कि का चक्कर बहुत बड़ा अभिशाप बनकर सामने आया है। उसमे साहित्य सर्जना निरन्तर होती रहे । इस दृष्टि से जिनके प्रकाशन देश-देशान्तरो मे बिकते हों उन प्रकाशको वर्तमान युग में संस्कृत भाषा को उन्नत नहीं कहा जा से भी अपने ग्रन्थों को अत्यन्त हीन दशा मे प्रकाशित पाकर सकता। स्व० पण्डिन अम्बिकादत्त व्यास, डा० के० एस० सस्कृत निश्चय ही अपना भाग्य कोसती होगी। सैकर्डी नागराजन और पण्डित क्षमाराव प्रादि ने कुछ साहित्य उदाहरणो में से हम एक हितोपदेश जैसे शिक्षाप्रद और लिखा है और है भी वह उच्चकोटि का, परन्तु मात्रा की विश्वप्रिय अन्थ को ले । एक जगत्प्रसिद्ध प्रकाशक ने इस दृष्टि से वह सब नगण्य है। ग्रन्थ का एक छात्रोपयोगी सस्करण निकाला था जिसकी लाखो प्रतिया बिक चुकी होगी और बिक रही होगी। विश्वविद्यालयों द्वारा अपर्याप्त सहयोग : इस सस्करण का कागज, जिल्द, छपाई, गेट अप आदि तो अधिकाश विश्वविद्यालयो मे सस्कृत के पठन-पाठन अत्यन्त निम्न कोटि के है ही, प्रफ की अगणित प्रशद्धिया, की समुचित व्यवस्था है। संस्कृत के प्रचार-प्रसार मे सम्पादन की अवैज्ञानिकता, साथ मे संजोई गई टीका की उनका यह सहयोग सराहनीय है, पर पर्याप्त नहीं । आज क्लिष्टता, हिन्दी अनुवाद का पुरानापन और शिक्षा मनो- सस्कृत की अनेक शिक्षा-सस्थाएं और परीक्षालय चल रहे विज्ञान के अनुसार आवश्यक भूमिका, प्रश्नावली, परिशिष्ट है। उनमे से कुछ अत्यन्त उच्चकोटि के है और कुछ स्वय आदि का प्रभाव इत्यादि भी शोचनीय है। कुछ ग्रन्थ ऐसे शासन द्वारा संचालित होते है। पर इन्हें भी ये विश्वभी प्रकाशित किये गये और किये जा रहे है जो किसी भी विद्यालय मान्यता नहीं देते। और तो और, एक शासन गहनवन से कम नहीं होते। उनमें विराम चिह्नों, अन- द्वारा संचालित विश्वविद्यालय भी है। जिसकी प्राचार्य च्छेदो, शीर्षकों और खण्ड- उपखण्डो प्रादि की योजना पराक्षा का बा० ए० क तो होती ही नहीं, यह भी हूँढे नही मिलता कि अध्याय ही विश्वविद्यालय है । फलस्वरूप बी० ए० और एम० ए० या परिच्छेद कहाँ बदल गये है। के माध्यम से पल्लवग्राही सस्कृतज्ञ तो बहूत तैयार हो रहे यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नही कि ऐसे प्रका है, पर शास्त्री और प्राचार्य के माध्यम से तैयार होने शनों से संस्कृत के प्रसार मे कितनी बाधा पहुँच पाती है। वाले ठोस और पारगामी संस्कृतज्ञ, दिनों-दिन कम होने यह भी स्पष्ट है कि उत्तम प्रकाशनों के अभाव मे लाखो जा रह है। विद्या प्रेमियों को सस्कृत ग्रन्थो के अध्ययन से वचित रह हिन्दी के प्रति विरोध: जाना पड़ता होगा। कुछ अग्रेजी प्रेमी विद्वान् और नेता हिन्दी का विरोध समालोचना और तुलनात्मक अध्ययन की कमी करने पर तुले हुए हैं। हिन्दी के प्रति अपने विरोध को प्राज का युग समालोचना का है। वाङ्मय को प्रकाश पुष्टतर करने के लिए वे यदा-कदा संस्कृत पर भी टूट Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनेकान्त पड़ते है। वैसे भी हिन्दी के प्रति विरोध से संस्कृत के प्रति मानों द्वारा भारत मे तो संस्कृत विद्या का प्रचार किसी विरोध स्वयमेव हो जाता है क्योकि भाषा विज्ञान, शब्दा- मात्रा मे हो भी रहा है। पर विदेशों में किसी भी मात्रा वली, व्याकरण और सामान्य लक्षणों की दृष्टि से सस्कृत मे नही । गीता, पञ्चतन्त्र प्रौर शकुन्तला मादि की भांति हिन्दी का प्राण है। हिन्दी के प्रति विरोध मे सस्कृत का और भी सैकड़ों ग्रन्थ, विदेशी भाषाओं में अनूदित होने और सस्कृत के प्रति विरोध में हिन्दी का जीवन स्थिर योग्य है । संस्कृत साहित्य का इतिहास जर्मन और अंग्रेजी नही रह सकता। हिन्दी की उन्नति के लिए सस्कृत की भाषाप्रो के अतिरिक्त किसी विदेशी भाषा में नहीं लिखा और सस्कृत की उन्नति के लिए हिन्दी की उन्नति अनि- गया है । समालोचना पौर कोष-ग्रन्थ केवल अग्रेजी में ही वार्य है। सुलभ है। संस्कृत के विद्वानों, ग्रन्थों और पत्र-पत्रिकाओं की विदेशो में प्रचारार्थ भेजने की व्यवस्था भी अभी क्षेत्रीय भाषाओं के योगदान का प्रभाव : नगण्य है। क्षेत्रीय भाषाग्रो से सस्कृत के प्रचार और प्रसार में योगदान प्राप्त नहीं होता। सस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद शासकीय सहयोग को अपर्याप्तता : क्षेत्रीय भाषामो मे नही के बराबर हुआ है। इन भाषाओं केन्द्रीय और राज्य शासनों का ध्यान सस्कृतकी ओर मे ऐसे भी ग्रन्थ नहीं लिखे गये है जिनमे संस्कृत ग्रन्थो की गया है। परन्तु संस्कृत की पाठशालाप्रो और विद्यालयो ममालोचना, व्याख्या और विश्लेषण ग्रादि हो। सस्कृत को या तो मान्यता ही न देना या प्राथमिक शालाप्रो के और क्षेत्रीय भाषाप्रो के शब्दकोष जैसे सस्कृत-बगाली, समकक्ष ही मानना, उन्हे पर्याप्त और सविशेष अनुदान न सस्कृत-गुजराती और सस्कृत-मराटी आदि भी कदाचित् देना, सस्कृत संस्थाओं का स्वतः अत्यल्प मात्रा मे सचालन ही बने होगे। क्षेत्रीय भाषामो के माध्यम से सस्कृत के करना, सस्कृत और संस्कृतज्ञों के हितों का सर्वोपरि ध्यान अध्यापन की व्यवस्था भी आवश्यक है। न रखना प्रादि अनेक ऐसी कमियाँ है जिनके कारण शासन पत्र-पत्रिकाओं के सहयोग की कमी: का सहयोग पर्याप्त नही कहा जा सकता। कुछ पत्र-पत्रिकाएँ सस्कृत भाषा मे भी प्रकाशित होती Rana शिक्षा का अर्थप्रधान उद्देश्य : है । इनसे सस्कृत के प्रति रुचि का वर्धन होना स्वाभाविक है पर वह पर्याप्त नही। सस्कृतेतर पत्र-पत्रिकायो से, सस्कृत का उद्देश्य 'स्वान्ता सुखाय' है, जबकि आज उनकी अपनी समस्याग्रो को दृष्टिगत रखते हुए जो प्रोत्सा- का शिक्षा का उद्दश्य प्रधानतः प्रथापाजन हा गया है। हन सस्कृत को मिलना चाहिए वह नही मिल रहा है। एक का उद्देश्य आध्यात्मिक है और दूसरी का भोतिक । हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएँ तो सस्कृत को यदा-कदा छ भी यह भी एक कारण है जिससे जन-साधारणकी रुचि संस्कृत लेती है, पर अग्रेजी और अन्य भाषाओ की पत्रिकाएँ यह । विद्या के प्रति उत्पन्न नही होने पाती। भी नही करती। लेखको, कवियो, समालोचको इतिहासज्ञो उपसंहार : और पुरातत्त्वज्ञो आदि की कलमे तो सस्कृत का पुनीत सस्कृत विद्या के प्रति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई यह स्पर्श ही नही कर पाती, सम्पादकीय लेख भी कालिदास अरुचि गम्भीर चिन्ता का विषय है। यह केवल एक भाषा जयन्ती आदि जैसे महत्त्वपूर्ण अवसरो पर भी नही देखे या विद्या का ही नही प्रत्युत भारतीय संस्कृति के जीवनगये है। मरण का प्रश्न है। अतएव देश, समाज, सस्कृति और विदेशों में प्रचार का प्रभाव : साहित्य के कर्णधारों का ध्यान इस ओर अविलम्ब आना शासन, विभिन्न संस्थानों और कुछ विद्या-प्रेमी श्री- चाहिए। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्रा प्राचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र के स्वरूप का प्रत्यय नही होता तब तक स्थिर श्रद्धा नही हो जिस मंगल-श्लोक में प्राप्त के असाधारण स्वरूप का सकती। इसी अभिप्राय से वे स्वय परीक्षाप्रधानी' बनकर निर्देश किया गया है उस प्राप्त की मीमांसा-समीक्षा प्राप्त की मीमासा मे-'याप्तमीमांसा अपर नाम प्रस्तुत -रूप प्रस्तुत देवागमस्तोत्र स्वामी समन्तभद्राचार्य के देवागम की रचना मे-प्रवृत्त हुए है। द्वारा रचा गया है। यह शब्द-शरीर से कृश होते हुए प्रस्तुत देवागम मे ११४ श्लोक-दार्शनिक सूत्रात्मक भी गम्भीर अर्थरूप प्रात्मा से बलिष्ठ है । इसमें स्याद्वादका कारिकाएँ-है । प्रारम्भ मे (१-५) उन्होंने देवागमनादि आश्रय लेकर गम्भीर दार्शनिक तत्त्वो का विवेचन किया रूप बाह्य वैभव, निःस्वेदता आदि रूप शारीरिक अतिशय गया है। स्वामी समन्तभद्र ददश्रद्धानी जिनभक्त थे। आगमप्रणयन को महत्व न देकर- इन्हें अव्यभिवरित उनकी जो भी कृतियां उपलब्ध है वे सब ही प्रायः-रत्न- आप्त का स्वरूप न मानकर—अज्ञानादि दोषों (भावकर्मो) करण्डश्रावकाचार को छोड़कर स्तुतिपरक है। यह स्तुति और आवरणो (ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मो) के प्रभावस्वभी उनकी कोरी स्तुति-मात्र गुणगाथा-न होकर गम्भीर रूप वीतरागता, मोक्षमार्गप्रणेतृत्व और सर्वज्ञता को महत्त्व दार्शनिक तथ्यों से परिपूर्ण है। वे तर्कणाशील होते हुए भी दिया है तथा अकाटय अनुमान प्रमाण के द्वारा इस सर्वअतिशय विवेकी थे। प्रस्तुत देवागम अल्पमति भव्य जीवों ज्ञता को सिद्ध किया है । तत्पश्चात् यथार्थवक्तृत्व की हेतुके हितार्थ रचा गया है। उनका एक यही अभिप्राय रहा भूत इस निर्दोपता-वीतरागता-को भगवान् अर्हत में है कि प्रात्महितैषी जन स्याद्वादरूप समीचीन दृष्टि से सिद्ध करते हुए उन्हें प्राप्त मान अन्य एकान्तवादियों में प्राप्त को देखकर-उसके स्वरूप का निर्णय कर-उसके वताप्तेन श्रेयोमार्गमात्महितमिच्छता सम्यग्मिथ्योपदेशार्थद्वारा उपदिष्ट तत्त्वो को यथार्थ समझते हुए तदनुसार विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाप्तमीमासां विदधानाः श्रद्धा-गुणज्ञसन्मार्ग में प्रवृत्त हों। कारण यह कि जब तक यथार्थ वस्तु ताभ्या प्रयुक्तमनम. 'कस्माद् देवागमादिविभूतितोऽह १. मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तारं कर्म-भूभृताम् । महान् नाभिष्टुतः' इति स्फुट पृष्टा इव स्वामि-समन्तज्ञातार विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।। भद्राचार्याः प्राहु२. सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचन चापि ते, (अप्टसहस्री पृ. ३) हस्तावजलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि सप्रेक्षते । ४ ........" इति तद्वत्तया भगवन् नोऽस्माक परीक्षासुस्तुत्या व्यसनं शिरोनतिपरं सेवेदृशी येन ते, प्रधानानां महान् न स्तुत्योऽसि । आज्ञाप्रधाना हि त्रिदशातेजस्वी सुजानोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥११४ दिक [त्रिदशागमादिक] परमेष्ठिन. परमात्मचिह्न प्रति पद्यरेन, नास्मदादयस्तादृशो मायाविष्वपि भावात् । (अष्ट३. इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् । सहस्री पृ. ३) सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥ ५. ......."इत्यावरणस्य द्रव्यकर्मणो दोषस्य च भाव (देवागम ११४) कर्मणो भूभृत इव महतोऽत्यन्तनिवृत्तिसिद्धेः कर्मभूभृता भेत्ता सदेवं निःश्रेयसशास्त्रस्यादौ तन्निबन्धनतया मङ्ग- मोक्षमार्गस्य प्रणेता स्तोतव्यः समदतिष्ठते विश्वतत्त्वाना लार्थतया च मुनिभिः संस्तुतेन निरतिशयगुणेन भग- ज्ञाता च । (अष्टसहस्री पृ. ५५) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सदोषता के कारण उस प्राप्तता का निषेध व्यक्त किया यदि सर्वथा प्रवक्तव्य-नहीं कहा जा सकने योग्यहै (६-७)। माना जाय तो वैसी स्थिति में 'तत्त्व प्रवक्तव्य है' इस भाव-प्रभाव, एक-अनेक, भेद-प्रभेद और नित्यत्व- प्रकार कहना भी प्रयुक्त होगा (१३)। अनित्यत्वादि परस्पर विरोधी दिखनेवाले तत्त्वों में से इस प्रकार भाव और प्रभाव के दुराग्रह को दूर करते किसी एक ही तत्त्व को अथवा परस्पर निरपेक्ष दोनो को का हुए पूर्व मे (६) अविरुद्ध वक्तृत्व की सिद्धि में जो यह भी मानने वाले उन एकान्तवादियो के यहाँ चूकि पुण्य कहा गया था कि 'पापका अभीष्ट तत्त्व किसी प्रमाण के पाप और इहलोक-परलोक आदि की व्यवस्था सम्भव नहीं टारा खपिरत नही होता' ही माता के स्पीकरण है, अतएव वे न केवल परवचक है, अपि तु प्रात्मवचक स्वरूप स्याद्वाद का प्राश्रय लेकर कचित् भावाभावादि भी है-स्वय अपना भी अहित करने वाले है। इसीलिए रूप-स्यादस्ति, स्यान्नास्ति इत्यादि-सात भगो की ऐसे दुराग्रहियों को नो स्व-परशत्रु हो समझना चाहिए योजना नयविधि के अनुसार की गई है और वहाँ (२०) (८) । इस प्रकार प्रारम्भ मे स्थिर भूमिका को वाधकर कहा गया है कि हे भगवन् इस प्रकार स्याद्वाद की भित्ति आगे के ग्रन्थ में ऐसे ही कुछ एकान्तवादों का विवेचन पर खड़ा होने से अापके शासन मे-अभीष्ट तत्त्व मेंकिया गया है किसी प्रकार का विरोध सम्भव नही है। वस्तु की अर्थभाव-प्रभाव एकान्त क्रिया-प्रवृत्ति-निवृत्ति की साधनता-भी तभी बन इनमें प्रथमतः भावैकान्त का विवेचन करत हुए कहा सकती है जब कि उसे भाव ( विधि ) अथवा प्रभाव गया है कि वस्तु को यदि सर्वथा सद्भावरूप ही स्वीकार (निषेध) स्वरूप से निर्धारित न किया जाय । यह कर प्रभाव का-अन्योन्याभाव, प्रागभाव, प्रध्वसाभाव अवश्य है कि अनन्तधर्मात्मक वस्तु के उन धर्मों में प्रत्येक और अत्यन्तताभाव इन प्रभावो का-सर्वथा प्रतिषेध प्रतिषध अपने पृथक-पृथक प्रयोजन को लिए हए है । अतः प्रयोजन किया जाता है तो इन प्रभावो के अभाव में क्रम से सबके के अनसार उन विविध धर्मों में जब किसी एक धर्म की सर्वरूपता, अनादिता, अनन्तता पौर निःस्वरूपता का-जीव विवक्षा की जाती है तब वह मुख्य व इतर मब गौण हो की चेतनता और अजीव की जड़ता जैसे नियत वस्तु स्व. जाते है, पर उनका कुछ लोप नहीं हो जाता-पावश्यरूप के अभाव का-प्रसग अनिवार्य प्राप्त होगा (६-११)। कतानुसार उनमे से प्रत्येक को प्रमुखता प्राप्त हुमा करती इसके विपरीत भाव को न मानकर केवल प्रभाव को है। प्रकरण के अन्त में यह भी निर्देश कर दिया है कि -सकल शून्यता को ही माना जाता है तो सद्भाव स्वरूप इसी प्रकार से इस सप्तभंगी की योजना एक-अनेक व वस्तुमात्र के अभाव मे बोध-विवक्षित अभीप्ट तत्त्व की नित्य-अनित्य आदि इतर परस्पर विरोधी दिखाने वाले सिद्धि और अनिष्ट वस्तुस्वरूप को दूषित करने रूप ज्ञान धर्मों के विषय मे भी करना चाहिए (१४-२३) । (स्वार्थानुमान)-और वाक्य-अन्य को समझा सकने योग्य वचन (परार्थानुमान)-का भी विलोप अवश्यभावी प्रत-वैत एकान्त है । तब वैसी दशा में वस्तुस्वरूप को स्वय कैसे समझा जा इस प्रकरण में प्रथमतः अद्वैत एकान्त पर विचार करते सकता है तथा अन्य को समझाया भी कैसे जा सकता है हुए कहा गया है कि यदि सर्वथा अद्वैत-एकमात्र परब्रह्म वंसी दशा मे (ज्ञान और शब्द के अभाव में) स्वय को विज्ञान, शब्द अथवा चित्ररूपता प्रादि-को मानकर इतर अभीष्ट उस प्रभावकान्त को भी सिद्ध नहीं किया जा सभी पदार्थों का प्रतिषेध किया जाता है तो वैसी अवस्था सकता है (१२)। में कर्ता आदि कारको और अवस्थिति व गमनादि क्रियाओं परस्पर निरपेक्ष-स्यावाद सरणि के बिना-भाव में जो प्रत्यक्षतः भेद देखा जा रहा है वह विरोध को व प्रभाव दोनों के मानने मे विरोध का प्रसग दुनिवार प्राप्त होगा। इस पर कहा जाता है कि वह कारकभेद होगा। इसके अतिरिक्त तत्त्व को भाव व अभावरूप से और क्रियाभेद तो एक मे भी सम्भव है, वह भला विरोध Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद को क्यों प्राप्त होगा? उदाहरणार्थ वृक्ष के एक होते हुये मानने में भी द्वैत का प्रसंग अनिवार्य रहेगा, क्योकि अद्वत भी उसमे कर्ता आदि कारको का भेद इस प्रकार देखा के अतिरिक्त प्रागम को भी मानना पडता है। और यदि जाता है-वृक्ष वन में स्थित हो रहा है (कर्ता), वृक्ष को हेतु व मागम दोनों के बिना ही उस प्रत की सिद्धि की बेले लिपट रही है (कर्म), वृक्ष के द्वारा गिरता हुया जाती है तो फिर वचन मात्र से द्वैत की भी सिद्धि क्यों न हो हाथी मारा गया (करण', वृक्ष के लिए जल देना चाहिए जायगी ? अभिप्राय यह है कि कहने मात्र से कभी किसी (सम्प्रदान), इत्यादि । इसी प्रकार अग्नि के एक होते तत्त्व की सिद्धि नहीं होती। उसके लिये युक्ति आदि का हुए भी उसम जलाने और पकाने आदि जैसा क्रियाभेद पाश्रय लेना ही पड़ता है । इसके साथ यह भी एक अटल देखा ही जाता है। परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि नियम है कि निषेध्य वस्तु का निषध उसकी विधिपूर्वक ही यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि अद्वैत में वह भेद हुमा करता है । उदाहरणार्थ गाय-भैस प्रादि इतर पशुओं सम्भव है तो यह बताया जाय कि उक्त भेद नित्य है या मे जब सीग उपलब्ध होते है तभी घोडा व गधे मादि के अनित्य ? नित्य तो वह हो नहीं सकता, क्योंकि, जब तब उनका निषेध किया जाता है, अन्यथा उनके निषेध की ही वह देखा जाता हे--मर्वदा नही देखा जाता। तब यदि कल्पना ही नही हो सकती थी। तदनुसार दंत के बिना उसे अनित्य माना जाता है तो पन. यह प्रश्न उपस्थित उसका निषध-प्रत-भी सम्भव नही है (२५-२७ ) । होता है कि अनित्य होने पर वह उत्पन्न कहाँ से हमा? इसके विपरीत जो वैशेषिक, नैयायिक और बौद्ध ग्रादि उत्तर में यदि यह कहा जाय कि उसी परब्रह्म से (अथवा विविध द्रव्य-गुणादि पदार्थो को परस्पर मे सर्वथा पृथक ही विज्ञान आदि से) तो ऐसी अवस्था में अद्वैत कान्त का वि- स्वीकार करते है-परस्पर में किसी भी अपेक्षा से अभेद घातक कारण-कार्य का भेद आकर उपस्थित होता है, नही मानते है-उनके इस अभिमत को अयुक्तिसगत बतक्योकि, अपने आपमे कभी किसी की उत्पत्ति सम्भव नहीं लाते हुए प्रथमतः वैशेषिका को लक्ष्य करके कहा गया है है (२४)। कि जिस पृथक्त्व गुण के प्राथय से द्रव्य और गुण आदि उपयुक्त अद्वैत की कल्पना मे पुण्य-पाप, उनका फल- पदार्थों में सर्वथा पार्थक्य स्वीकार किया जाता है वह सुख-दुख, इहलोक-परलोक, ज्ञान-अज्ञान और बन्ध-मोक्ष पृथक्त्व गुण उन द्रव्य और गुण प्रादि से अपृथक् है या की भी जो द्विविधता प्रमाणसिद्ध दिख रही है वह असम्भव पृथक् ? अपृथक् तो उसे माना नही जा सकता, क्योकि, वैसा हो जावेगी। इसके अतिरिक्त इन अद्वैतवादियों से पूछा जा मानने पर अभीष्ट पृथक्त्वैकान्त का विरोष, होता हैसकता है कि प्रत्यक्ष के अगोचर उस अद्वैत की सिद्धि गुण और गुणी प्रादि पदार्थों में जो वैशेषिकों के द्वारा पाप क्या किसी हेतु (युक्ति) से करते है या बिना ही हेतु सर्वथा पृथक्ता स्वीकार की गई है वह बाघा को प्राप्त के ? यदि उसकी सिद्धि किसी हेतु से की जाती है तो वह होती है। तब यदि उसे उक्त द्रव्य और गुण से पृथक् ही हेत और साध्यभूत अद्वैत ये दो पदार्थ उस अद्वैत के वि- माना जाता माना जाता है तो फिर उसके उनसे सर्वथा पृथक् रहने पर घातक स्वय सिद्ध हो जाते है । ऐसी अवस्था में वह सर्वथा तत्कृत पृथक्ता उनमे नही रहती-इम प्रकार से तो उक्त अद्वैत कहा रहा? इसके विपरीत यदि यह कहा जाय कि द्रव्य-गुण अपृथक् ही ठहरते है । कारण यह कि कथचित् उसकी सिद्धि हेतु के बिना आगम से की जाती है तो ऐसा तादात्म्यके बिना जैसे घट और पट सर्वथा भिन्न है वैसे ही १. वृक्षस्तिष्ठति कानने कुमुमिते वृक्ष लताः सथिताः उस पृथक्त्व गुण के भी उनसे सर्वथा भिन्न रहने के कारण वृक्षणाभिहतो गजो निपतितो वृक्षाय देय जलम् । 'उनका यह गुण है' यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योकि वृक्षादानय मञ्जरी कुसुमिता वृक्षस्य शाखोन्नता वैशेषिक मतानुसार वह किसी एक पृथक्त्ववान् मे नही वृक्षे नीडमिद कृतं शकुनिना हे वृक्ष कि कम्पसे ।। रहता-अनेक मे युगपत् उसका अवस्थान माना गया है, दूसरा उदाहरण 'धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म जो असगत है (२८) । बुधाश्चिन्वते' आदि भी है। बौद्ध सम्प्रदाय में एकत्व (प्रभेव)को किसी प्रकार से Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त भी स्वीकार न कर विवक्षित सन्तान व इतर सन्तान गत (पृथक्त्व-अपृथक्त्व) के मानने में विरोध और अवाच्य भिन्न भिन्न क्षणक्षयी विशेषों को ही माना गया है। इसे बतलाने में उसकी भी अशक्यता को पूर्व के समान (१३) • लक्ष्य में रखकर यहां कहा गया है कि एकत्व के अपलाप प्रगट करके यह सिद्ध किया गया है कि जिस प्रकार ऐक्य मे सन्तान, समुदाय, साधर्म और परलोक गमन-जो से निरपेक्ष होने के कारण पृथक्त्व अवस्तु है उस तथा निर्बाध सिद्ध है-नही बनता । यथा-सन्तान की व्यवस्था पृथक्त्व से निरपेक्ष होने के कारण ऐक्य भी अवस्तु है उस तब तक नहीं बन सकती जब तक विविध सन्तामों में- प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार एक दूसरे की अपेक्षा देवदत्त चित्तक्षणों और जिन दत्त चित्तक्षणों मे-अन्वय- रखने से वे दोनो अवस्तुभूत नहीं है, किन्तु वस्तुभूत व रूप से रहने वाली पृथक् पृथक् एक प्रात्मा को स्वीकार अविरुद्ध हो है। जैसे साधन-विपक्षाद् व्यावृत्ति से किया जाय । इन सन्तान क्षणो मे परस्पर और इतर निरपेक्ष सपक्षसत्व और सपक्ष सत्व से निरपेक्ष विपक्षाद् मन्तान क्षणो से सर्वथा पार्थक्य के होने पर यह अमुक व्यावृत्ति मै साधन असाधन होता है, पर विपक्षाद् व्यासन्तान है, यह व्यवस्था बन ही नही सकती है। इसी प्रकार वृत्ति से सापेक्ष सपक्ष सत्व और सपक्ष सत्व सापेक्ष विपक्षाद् एक स्कन्ध के अवयवो मे रहने वाला समुदाय भी तभी व्यावृत्ति के मानने पर वह साधन साधन ही होता है, बन सकता है जब उनमे देश की समनन्तरतारूप एकता असाधन नही । इसी को स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया को स्वीकार कर लिया जाय । अन्यथा, अन्य स्कन्ध के है कि सत्मामान्य की अपेक्षा सभी जीवादि पदार्थो मे अवयवों के समान विवक्षित स्कन्ध के अवयवो मे भी एकता (अभेद) और है क्योकि द्रव्यभी सत् है, गुण भी सत् सर्वथा भेद के रहने पर विवक्षित समुदाय की भी व्यवस्था है, इस प्रकार निधि एकत्व की प्रतीति उन सब मे देखी कसे बन सकती है ? इसी प्रकार सदृशता रूप एकता के जाती है। साथ ही यह द्रव्य है, गुण नही है, यह गुण बिना साधर्म और एक अन्वित प्रात्मा के बिना परलोक है, द्रव्य नहीं है। इस प्रकार चुकि पृथवात्व की प्रतीति भी की भी व्यवस्था असम्भव होगी दूसरे, ज्ञान को यदि सत्- उनमे अस्वलित देखी जाती है, अतएव वे पृथक पृथक भी स्वरूप से भी ज्ञेय से पृथक माना जाता है तो ऐसी हैं । इस प्रकार भेद और प्रभेद की विवक्षा में उन दोनो अवस्था में ज्ञान असत् ही ठहरता है। और जब ज्ञान ही के एकत्र रहने में कोई विरोध नही है। जैसे असाधारण असत् हो गया तब उसके बिना ज्ञेय की सत्ता सतरा हेतु-पक्षधर्मत्व, सपक्षमत्व और विपक्षाद् व्यावृत्ति आदि समाप्त हो जाती है। इस प्रकार से इस मान्यता में बाह्य भेद की विवक्षा मे उसमे पृथक्ता है---केवलान्वयी व और अभ्यन्तर दोनो ही तत्त्वो कालोप हो जाता है (२६- केवल व्यतिरेकी आदि का भेद है । साथ ही हेतुत्व ३०) । सामान्य प्राविनाभावित्व की अपेक्षा उसमे एकता भी है। इसके अतिरिक्त बौद्धमतानुसार सकेत की शक्यता न अनन्त धर्म विशेष पदार्थ मे अभीष्ट धर्म के अभिलाषियो अनन्त धर्म विशप पर होने से शब्दो द्वारा विशेषो का कथन नही होता-वे द्वारा जो विशेषण की विवक्षा और अविवक्षा की जाती अवाच्य है । शब्दो का अभिधेय सामान्य है । परन्तु उन्ही है सा सत् विशषण-उक्त एकत्व आा है सो सत् विशेषण- उक्त एकत्व प्रादि-की ही की को मान्यता के अनुसार सामान्य अवस्तुभूत है, अतः जाती है, न कि असत् की । इस प्रकार प्रमाण सिद्ध होने उसका वस्तुतः प्रभाव ही समझना चाहिये । इस प्रकार से वे भेद और अभेद परमार्थ सत ही है काल्पनिक नहीं शब्दों का अभिधेय जब प्रवस्तु है-वस्तुभूत नही है है । गौणता और प्रमुखता की अपेक्षा उन दोनो के एक तव वैसी अवस्था मे सकेतग्रहण और शब्दों के उच्चारण पदार्थ मे युगपत् रहने में कुछ भी विरोध नहीं है। से क्या लाभ है-वह निरर्थक ही सिद्ध होता है । इस (३२-३६) प्रकार से उनकी उक्त मान्यता के अनुसार समस्त वचन इसी क्रम से आगे नित्यत्व-अनित्यत्व (३७-०), , असत्य ठहरते है (३१)। कार्य-कारण आदि की भिन्नता व अभिन्नता (६१-७२) आगे जाकर परस्पर को अपेक्षा से राहत उन दोनों अपेक्षा-अनपेक्षा (७३-७५), हेतु सिद्ध-पहेतु (मागम) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद सिद्ध (७६-७८), अन्तरग-बहिरंग (७६-८७), देव-पौरुष सर्वथा अशुद्ध ही। किन्तु वे शुद्धि-प्रभव्यत्व शक्ति(८८-६१), अन्य को दुख और स्वको सुख के उत्पादन में और अशुद्धि-प्रभव्य शक्ति-से संयुक्त दो प्रकार के पाप तथा अन्य को सुख और स्व को दुख के उत्पादन मे माने गए हैं। जैसे-उड़द के अधिकांश कण पाक्य पुण्य (६२-६५), तथा अज्ञान से बन्ध व अल्पज्ञान से शक्ति-पकने की योग्यता-से संयुक्त होते हैं, पर मोक्ष (६६-१००), इन अन्य एकान्त वादो का भी उनमें ऐसे भी कुछ दाने होते है जो उस पाक्य शक्ति से निराकरण करने हा अनेकान्त वाद के आश्रय से उपर्युक्त रहित होते है । यह प्रत्यक्ष मे देखा गया है। उनमें शुद्धि उभय धर्मों के अस्तित्व को अविरुद्ध सिद्ध किया गया है। शक्ति की अभिव्यक्ति सादि है, क्योकि, उसके अभि प्रस गवश यहा कर्मबन्ध के प्रकरण मे (३८-१००) व्यजक जो सम्यग्दर्शन आदि है वे सादि हैं । पर अशुद्धि बतलाया गया है कर्मबन्ध (स्थिति-अनुभागरुप) अज्ञान शक्ति-की अभिव्यक्ति अनादि है, क्योंकि, उसके अभिसे-क्रोधादि कपायों के साथ रहने वाले मिथ्या ज्ञान व्यजक जो मिथ्यादर्शनादि है वे प्रवाह स्वरूप से अनादि से-हुअा करता है, कषाय रहित प्रज्ञान-छदमस्थ के है। ये शुद्धि-अशुद्धि शक्तिया चूकि स्वाभाविक है, अतः अल्पज्ञान-से नही । तथा मोक्ष प्ररहत अवस्थारुप जीवन ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न के लिए यहा कोई स्थान नही मुक्ति-उस अल्पज्ञान से होतो है जो क्षीण कपाय गुण है (६८-१००)। स्थान के अन्तिम समय में होता है, न कि सूक्ष्म साम्पराय प्रमाण व उसका फल पर्यन्त रहने वाले मोह युक्त अल्पज्ञान से । काम-क्रोधादिरूप कार्य-भवससार-- इस कर्मबन्ध के अनुसार हुआ अब उपेय तत्त्व जो सर्वज्ञता ब वीतरागता आदि है करता है । यहा यह कहा जा सकता है कि काम-क्रोधादि- तथा उपाय तत्व जो हेतुबाद व काल लब्धियादि है रूप कार्य महेश्वर के निमित्त से होता है। इस प्राशका उनका ज्ञान चूकि प्रमाण और नयके प्राश्रय से होता है, का निराकरण करते हुए यह कहा गया है कि वह र कहा गया है कि वह अतः उनमे प्रथमतः प्रमाण का विवेचन करते हुए कहा अतः उनम प्रर कामादि-राग द्वेषादि की उत्पत्ति रूप-कार्य चकि अनेक गया है कि जो तत्व ज्ञान है-सशयादि से रहित यथार्थ प्रकार का है, अतः उसका कारण भी अनेक स्वभाव वाला ज्ञान है-उसे प्रमाण कही जाता है। वह दो प्रकार का होना चाहिये, न कि नित्य व एक ही स्वभाव से सदा है-एक तो युगपत् सर्व पदार्थों के प्रतिभासन रूप केवल अवस्थित रहने वाला महेश्वर । सो वह कारण अनेक ज्ञान और दूसरा क्रम से होने वाला-मति, श्रन, अवधि विधि कर्म का-ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों का-बन्ध और मनः पर्ययस्वरूप क्षायोपशमिक-ज्ञान । स्यावाद ही हो सकता है। जिसके अनुरूप वह कामादि कार्य व नय से संस्कृत वह तत्त्व, ज्ञान कथचित-समस्त पदार्थों घटित होता है और वह कारणों के अनसार राग देष के प्रतिभास की अपेक्षा-प्रक्रम है, कथचित्-कुछ निय. एव मोह आदि के अनुरूप-बन्ध करता है। इस पर मित विषयों के ग्रहण की अपेक्षा-क्रमभावी हैं, इत्यादि पुनः यह पाशका होती है कि यदि कामादि रूप वह प्रकार से उक्त तत्त्वज्ञान के विषय मे सप्तभगी की कार्य-भाव ससार-कर्मबन्ध के अनुसार हा करता है योजना की सूचना की गई है (१०१)। तो बस कर्मबन्ध के समान रहते हुए किन्ही जीवों के मुक्ति उनमें प्रथम प्रमाण का व्यवहित ( पारम्परित ) फल और किन्ही के ससार की व्यवस्था घटित नही होती । इस उपेक्षा है, क्योंकि, केवलज्ञान के प्रगट हो जाने पर कृत प्राशका का निरसन करते हुए कहा गया है कि शुद्धि- कृत्य हो जाने से राग द्वेष के प्रभाव मे किसी भी पदार्थ के भव्यत्व-पौर अशुद्धि-अभव्यता के अधार से प्राणियों ग्रहण और छोडने की आवश्कता नही रहती। शेष मत्याके मुक्ति और ससार की व्यवस्था में किसी प्रकार का दिरूप प्रमाण का वह फल उपेक्षा के साथ ग्रहण और त्याग विरोध नहीं है । कारण यह कि वे जीव न तो साख्यों के के विवेक को उत्पन्न करना भी है । साक्षात् फल दोनों का समान सर्वथा शुद्ध माने गये है और मीमांसको के समान ही अपने विषय मे अज्ञान की निवृत्ति है ( १०२)। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्यावाद का विचार हेतुवाव में नय व हेतु का स्वरूप वह तत्त्वज्ञान स्याद्वादनय से किसी प्रकार सस्कृत है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए आगे कहा गया है कि हे पूर्व में प्रमाणभूत तत्त्वज्ञान को स्याद्वाद और नय भगवन् । पापको तथा अन्य केवलियो-को वाक्यों में से सस्कृन बतलाया जा चुका है। उनमे स्याद्वाद से जहाँ मत्-असन् और नित्य-अनित्य प्रादि रूप सर्वथा एकान्त के परमागम अभिप्रेत है वहाँ नय से हेतुवाद अभिप्रेत इसीविरोधी ऐसे अनेकान्त को प्रकाशित करने वाला तथा लिये प्रसगानुसार यहा हेतु का निरूपण करते हुए कहा गम्य-ध्वनित होने वाले प्रतिपक्षभूत-प्रर्थ के प्रति विशेषण गया है कि साध्य का-साध्य के आधारभूत धर्मी का कप 'स्यात्' शब्द ( निपात ) ( विधि-निमत्रण प्रादि का ( जैसे अग्नि के अनुमान मे पर्वत )-सधर्मा-समान द्योतक-जैसा कि जैनेन्द्र व्या० २।३ । १५२ मे निर्दिष्ट धर्म वाले दृष्टान्न धर्मी ( उक्त अनुमान मे जैसे महानस ) है-'अम् धातु के विर्षािलग के रूपभूत 'स्यात्' क्रियापद के ही माथ-न कि विपक्ष के साथ ( विपक्ष के साथ तो नही ) प्रभीष्ट है । कारण यह कि उसके बिना सम्बद्ध उमका वधर्म्य है )-साधर्म्य ( समानता ) होने से जो अर्थ का बोध सम्भव नही है । अभिप्राय यह है कि सम्बद्ध विरोध से रहित-अन्यथानुपपत्तिक स्वरूप होने से प्रसिद्ध अर्थ को व्यक्त करने के लिये, स्यात् जीवः, स्यात् घट.' -विरुद्धादि हेतु दोपो से रहित-स्याद्वाद के द्वारा प्रविभक्त जैसे 'स्यात्' शब्द से युक्त वाक्यो का उपयोग करना अनेकान्तात्मक अर्थ के विशेप को-नित्यत्व आदि को चाहिए । यहाँ प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक -प्रगट करता है उसे नय-नय के साथ हेतु भी कहा होकर गम्य मान अजीव और अघट रूप अर्थ का सूचक जाता है। अभिप्राय यह है कि जो स्याद्वाद से प्ररूपित भी है । इस विशेषता को प्रगट करने के कारण उसे गम्य अनेकान्तात्मक अर्थ के विविध प्रगो का प्रतिपादक है उस अर्थ के प्रति विशेषण कहा गया है। (१०३) और अनुमान के विषयभूत साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति रूप होने से जो साधक होता है उसे हेतु कहते है । 'नीयने प्रागे इस 'स्यात' शब्द के पर्यायस्वरूप 'कथचित्' । अनेन इति नय' इस निरुक्ति के अनुसार जो गम्य अर्थ को शब्द के निर्देश पूर्वक स्याद्वाद के स्वरूप को प्रगट करते। सिद्ध करता है उसे नय हेतु कहा जाता है। ( १०६ ) हुए कहा गया है कि सर्वथा एकान्त को-नित्यत्व या अनित्यत्व प्रादि किसी एक ही धर्म की मान्यता रूप दुराग्रह स्याद्वाद और केवलज्ञान का जो विषय नही है वह को छोडकर जो कि-वृत्त-चिद्विधि-'किम्' शब्द से उत्पन्न अवस्तु है, यह कह पाये है । तव फिर वस्तु क्या है, इसका चिद्विधि-अर्थात् कथचित् आदि रूप विधान है-अपेक्षा स्पप्टीकरण करते हुए यह बतलाया है कि द्रव्य और पर्याय बाद है, इसका नाम स्यावाद है । वह स्यावाद सात भगो को विषय करने वाले नय और उसकी शाख-प्रशाखाभूत पौर अनेक भेद-प्रभेदरूप द्रव्यार्मिक व पर्यायार्थिक नयो की उपनयो के जो तीनो कालो सम्बन्धी एकान्त हैं-विपक्ष अपेक्षा रखता हुमा हेय और उपादेय की विशेषता को का निराकरण न करके उसकी उपेक्षा रूप विषय ( पर्याय प्रगट करने वाला है। उसके बिना हेय-उपादेय की व्यवस्था विशेष) है उनके कथचि तादात्म्य रूप समुदायक को बन नही सकती। वह स्याद्वाद रूप श्रुत वस्तुतः केवल- बस्तु या द्रव्य कहते है, जो एक अनेकादि स्वरूप से अनेक ज्ञान के ही समान द्रव्य पर्याय स्वरूप समस्त तत्त्वो का प्रकार है। इस पर यदि यह कहा जाय कि एकान्तों को प्रकाशक है । भेद यदि उन दोनो मे है तो केवल यही है जब मिथ्या कहा जाता है तब उनका समुदाय भी मिथ्या कि केवलज्ञान जहाँ उन सब तत्त्वो को प्रत्यक्ष रूप से क्यो न होगा; इस आशका का परिहार करते हुए यह भी ग्रहण करता है वहाँ यह स्यावाद परमागम उन्हे परोक्ष कहा गया है कि यदि वे नय निरपेक्ष है-विरुद्ध धर्म का रूप से ग्रहण करता है-अन्य भेद उनमे कुछ भी नही निराकरण करने वाले है-तो उनका समुदाय भी मिथ्या ग्रहण किया जाता उसे अन्यतम-तृतीय पक्ष के रूप मे होगा ही। परन्तु यदि वे सापेक्ष है-विरुद्ध धर्मकर निरा-प्रवस्तु ही समझना चाहिये। (१०४-५) करण न करके प्रयोजन के प्रभाव में केवल उनकी अपेक्षा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद करने वाले हैं -तो हे भगवन ! वे आपके यहा सुनय वाचक है-तो शब्द का अर्थ जब कोई सद्भावरूप पदार्थ है-मिथ्या नही है, अतः उनका समूह अर्थ क्रिया कारी नही है तब वैसी अवस्था में वह ( वचन ) असत्य ही होने से वस्तु ही है। इस प्रकार उनका समूह मिथ्या ही ठहरता है । कारण यह है कि शब्द का अर्थ जब अन्यापोह हो. ऐसा हमारे यहाँ एकान्त नही है । ( १०७-८) -अन्यव्यावृत्ति-माना जाता है तो गायको लामों' ऐसा कहने पर अगोव्यावृत्तिरूप कोई पदार्थ नहीं है, जिसके लाने वाक्यार्य विषयक विचार मे श्रोता प्रवृत्त हो सके । इसीलिए मत्यता का चिन्ह यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि जब वस्तु अने म्यात्कार-स्याद्वाद-ही है, क्योकि, स्याद्वाद के आश्रित कान्तात्मक है तब वाक्य के द्वारा उसका नियमन कैसे किया वचन के बोलने में अभीष्ट पदार्थ की प्राप्ति होती है। जा सकता है, जिससे कि प्रतिनियत विषय में लोगो की तदनुसार 'गाय को लागो' ऐसा कहने पर श्रोता स्वरूप प्रवृत्ति हो मके ? इसके उत्तर स्वरूप यहाँ यह कहा गया से सत् और पर ( अश्व प्रादि ) रूप से असत् गाय के है कि विधिरूप अथवा निषेधरूप वाक्य के द्वारा अने लाने में प्रवृत्त होता है । अतः स्याद्वाद के पाश्रित वचन कान्तात्मक वस्ततत्व उसी प्रकार में विधिरूप से अथवा मत्य और इतर असत्य है, यह सिद्ध ही है। जो प्रतिषेध्य निषेवरूप से-अवश्य नियमित किया जाता है । कारण -नास्तित्व आदि-का अविरोधी--अविनाभावी-होकर यह कि इसके बिना-यदि वह उक्त प्रकार से नियमित अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति का कारण होता है वही विधेय है, नही किया जाता है तो प्रतिषेध से रहित विधि के और क्योकि, अभिप्राय-पूर्वक जिसका विधान किया जाता है विधि से रहित प्रतिषेध के विशेषणता के घटित न होने स वही बिधेय कहलाता है। तथा प्रादेय और हेय की व्यवस्था विशेषण के बिना वह विशेष्य ही न ठहरेगा। (१०६) भी उसी प्रकार से-परस्पर के अविनाभाव से ही-बनती प्रत्यक्षादि प्रमाण की विषयभूत वस्तु तत्-अतत स्वरूप है। कारण यह कि विधेय के एकान मे जिस प्रकार किसी है-विरुद्ध धर्म से अधिकृत है। तब यह तत्स्वरूप- को हेयता नही बनती है उसी प्रकार प्रतिषेध्य के एकान्त विविरूप-ही है, इस प्रकार उसे एकान्त स्वरूप से कहने मे कोई भी अभीष्ट पदार्थ प्रादेय नहीं बनता । इससे बाला वचन सत्य नहीं हो सकता । ऐसी दशा में तत्त्वार्थ उपयुक्त स्याद्वाद की सिद्धि होती ही है। (११०-१३) का-जीव जीवादि पदार्थों का यथार्थ उपदेश कैसे दिया। अन्त मे ग्रन्थकार प्राचार्य समन्तभद्र इस प्राप्तमीमाजा सकता है-ऐसे असत्य वचनो के द्वारा दिया जाने __ सा-सर्वज्ञ विशेष की परीक्षा-की रचना विषयक अभिवाला उपदेश यथार्थ न होने से ग्राह्य नही हो सकता है। प्राय को व्यक्त करते हए कहते हैं कि जो भव्य जाव वचन का यह स्वभाव है कि वह इतर वचनों के अर्थ के के आत्महित के--मुक्ति के इच्छुक है वे समीचीन-सम्यनिषेध में स्वतत्र होकर अपने अर्थसामान्य का प्रतिपादन रदर्शनादि स्वरूप मोक्षमार्ग विषयक-और मिथ्याकरता है- अपने अर्थसामान्य के प्रतिपादन के बिना ससार परिभ्रमण के कारण भूत मिथ्यादर्शनाविषयकवह केवल इतर वचनो के अर्थ का कथन नहीं करता। उपदेश को सत्यता और असत्यता का निर्णय कर सके, कारण यह कि अपने अर्थसामान्य का प्रतिपादन और इसी अभिप्राय से यह प्राप्तकी मीमांसा की गई है (११४) इतर का निषेध इन दोनों में से किसी एक के बिना वचन का वोलना न बोलने के ही समान है-उसका उच्चारण हिन्दी अनुवाद करना निरर्थक ही है इसका भी कारण यह है कि वैसी प्रस्तुत ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रसिद्ध ऐतिहासिक अवस्था मे उसका विषयभूत अर्थ 'इस प्रकार से है और विद्वान व समन्तभद्र-भारती के अनन्य उपासक श्रद्धेय प० इस प्रकार से नही है' ऐसी प्रतीति आकाश कुसुम के जुगल किशोर जी मुख्तार के द्वारा किया गया है, जो वीरसमान असम्भव है । इसके अतिरिक्त 'अस्ति' इत्यादि सवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन की ओर से अभी कुछ समय सामान्य वचन यदि विशेष में वर्तमान है-अन्यापोह का पूर्व (जून १६६७) ही प्रकाशित हुआ है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त इसके पूर्व इसका अनुवाद श्री ५० जयचन्द्र जी ऐसे ही गम्भीर अध्येता-विशेषकर प्रा. समन्तभद्र का छावड़ा के द्वारा भी किया जा चुका है और वह अनन्त- कृतियो के मर्मज्ञ विद्वान् है । इससे पूर्व उक्त कृतियों में से कीति ग्रन्थमाला से प्रकाशित भी हो चुका । पं० जयचन्द स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन और रत्नकरण्डक (समीचीन जी जैसे ख्याति नामा विद्वान थे, तदनुरूप ही यह उनका धर्मशास्त्र) के अनुवाद भी उनके द्वारा सम्पन्न हो चुके हैं। अनुवाद है । उन्होंने अधिकतर कारिकागत पदो के प्राश्रय से कारिकामो के अर्थ को स्पष्ट किया है, साथ ही अष्ट प्रकृत अनुवाद मे ग्रन्थ के हार्द को सरल व सुबोध भाषा मे व्यक्त किया गया है । यह अनुवाद मूलानुगामी सहस्री के आधार से जहा तहां कुछ विशेष अभिप्राय भी होकर अन्तस्तत्त्व का भी प्रकाशक है। साधारण सस्कृत व्यक्त किया है । पर यह सब ढूढारी भाषा मे उनकी का ज्ञाता भी यदि रुचिपूर्वक संलग्नता के साथ इस अनुवाद अपनी शैली का है। इससे सर्वसाधारण उससे अधिक लाभ को पढ़े तो वह ग्रन्थगत कारिकाप्रो के शब्दार्थ और भावार्थ नहीं ले पाते थे, इसके लिए शुद्ध हिन्दी मे उसके अनुवाद को समझ सकता है। प्रकृत अनुवाद में प्रथमत: कारिकाकी विशेष आवश्यकता थी। प्रसन्नता की बात है कि गत पद या वाक्य के अर्थ को काले टाइप में व्यक्त करके इसकी पूर्ति उपर्युक्त १० जुगल किशोर जी मुख्तार के तत्पश्चात् उसका स्पष्टीकरण मफेद टाइप मे दो डेस(--) अनुभवपूर्ण अनुवाद से हो जाती है। चिह्नो के मध्य में बड़ी खूबी के साथ किया गया है । इसके ग्रन्थ के सम्बन्ध मे जो पूर्व में कुछ थोड़ा सा परिच- पश्चात् आवश्यकतानुसार यत्र तत्र विशेष व्याख्यात्मक अर्थ यात्मक विवेचन किया गया है उसे देखकर पाठक यह भी लिखा गया है। अनुमान लगा सकते है कि केवल ११४ श्लोको में रचित कारिका ३१ का अर्थ-विशेषकर कोष्ठकगत सदर्भ वह छोटा सा दिखने वाला ग्रन्थ कितने गम्भीर अर्थ को ठीक से मुझे समझने में नही आया, सम्भव है मुद्रणदोष लिए हए है। यही कारण है जो उसके ऊपर प्राचार्य भट्ट कूछ रहा हो। इसी प्रकार कारिका १०६ का अर्थ भी, अकलकदेवके द्वारा आठ सौ श्लोक प्रमाण 'अष्टशती जसो जिस रूप में मुद्रित हा है, कुछ अव्यवस्थित सा दिखा है। टीका लिखी गई। पर वह भी इतनी गम्भीर रही है कि इस अनवाद के साथ श्री प० दरबारी लाल जी न्यायासाधारण जन की बात तो क्या, विशेष विद्वान् भी उसके चार्य एम० ए० के द्वारा लिखी गई जो महत्वपूर्ण प्रस्तासमझने में कठिनाई का अनुभव कर सकते थे। इसीलिए वना सम्बद्ध है वह भी ग्रन्थ परिचय के साथ अनेक तथ्यों प्रा. विद्यानन्द ने उक्त अष्टशती से गभित अष्टसहस्री नाम पर प्रकाश डालने वाली है। इससे ग्रन्थ की महत्ता और की आठ हजार श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका लिखी। अत: भी बढ़ गई है। ऐसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद करना मुख्तार थी जो इस वृद्धावस्था में इस प्रकार की सरल नही है-साधारण विद्वान् के वश का यह कार्य नही पाश्चर्यजनक साहित्य सेवा कर रहे है है। ऐसे अर्थगम्भीर ग्रन्थो का प्रामाणिक अनुवाद उनका है। वे दीर्घ जीवी होकर से साहित्य का सृजन करते रहे महान अध्येता ही कर सकता है। आदरणीय मुख्तार सा. यह हार्दिक कामना है। आत्म-संबोधन ! के ग्रात्मन ! अपने चैतन्य स्वरूप को जानो। उसका काम देखना जानना है। इसके अतिरिक्त जो भी काम होगा वह पर सम्बन्ध से होगा और उस पर को अपना मानना ही सर्व प्रापदाओ का मूल है। पर अपना न हया, न है, न होगा। फिर उसको अपना मानना ही अनन्त ससार का कारण है। यदि इस अनन्त ससार से वचना चाहते हो तो शीघ्र ही इससे सम्बन्ध छोड़ दो। -वर्णों वाणी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ श्री पं० नेमचन्द धन्नूसा जन श्री जैन मन्दिर के आगे मानस्तंभ की रचना एक (१) खण्डहरों का वैभव पृष्ठ ८३-"चित्तौड़ का विशेष गौरवास्पद है। क्योंकि वह मान कषाय का हरण कीर्तिस्तंभ-१९वीं शताब्दी की कला का भव्य प्रतीक है। उसमें करनेवाला होता है, इसीलिए मानस्तंभ को जैन मदिर का जैन मूर्तियों का खुदाव आकर्षक बन पड़ा है। इसका शिल्प पर्याय से निज मन्दिर का दर्शक कहा है। मानस्तंभ का भास्कर्य प्रेक्षणीय है। इस स्तंभ के सूक्ष्मतम अलंकरणों अस्तित्व सभी सातिशय क्षेत्रों में दिखाई देता ही है। को शब्द के द्वारा व्यक्त करना तो सर्वथा असंभव ही है। प्रायः दिगंबर जैन सप्रदाय में ही यह प्रथा प्रचलित है। इतना कहना उचित होगा कि संपूर्ण स्तभ का एक भाग समवशरण में चार दिशा के द्वार के सामने एक-एक मान- भी ऐसा नहीं, जिसपर सफलतापूर्वक सुललित अकन न स्तंभ होने की सूचना शास्त्रों मे मिलती ही है । यद्यपि किया गया हो। सचमुच मे यह श्रमण सस्कृति का एक इसके उद्देश्य के बारे में विवाद है, तथापि अस्तित्व निवि- गौरव स्तभ है। वाद ही है। मानस्तंभ का ही स्थान आगे कई जगह कीति- "इसकी ऊचाई ७५॥ फुट है। ३२ फुट का व्यास है। स्तभों ने ले लिया है । मानस्तभ का सुधारा हुआ रूप अभी तक लोग यह मानते आए है कि इसका निर्माण १२वी यानी कीर्ति स्तभ ऐसा कहा जाय तो अनुचित नही होगा। सदी या इसके उत्तरवर्ती काल मे बघेरवाल वंशीय शाह यहां पर मै सिर्फ चित्तौड के कीर्तिस्तंभ के काल के जीजा ने करवाया था और कुमारपाल ने इसका जीर्णोद्धार कराया। एक मत ऐसा भी है कि यह वि. स. ८६५ मे बारे में चर्चा करूंगा । बहुत अच्छा होता कि इस लेख के लिखने के पहले मै उस स्थान को गौरव से देख लेता। 'वना। मेरे ख्याल से उपयुक्त दोनों मत भ्रामक है । लेकिन तब तक इस विषय को वाजू भी न रख सका। आश्चर्य होता है निर्णायको पर कि उन्होने इसकी निर्माण इसके उल्लेख मैने तीन जगह देखे। (१) मुनि काति शैली को तनिक भी समझने की चेष्टा नही की । अस्तु । सागरकृत-खंडहरों का वैभव मे (२) डा. जोहरापूरकर. "इस गौरव स्तभ के निर्माता मध्यप्रदेशातर्गत कारंजा कृत-भट्टारक संप्रदाय मे, तथा (३) डॉ. ज्योतिप्रसाद (प्रभी महाराष्ट्र में है) निवासी पुनसिंह है और १४वी जैनकृत- भारतीय इतिहास : एक दृष्टि में । शताब्दी में उसने इसे बनवाया था। जैसा कि नादगाव के मन्दिर की एक धातु प्रतिमा के लेख से ज्ञात होता है । लेख तीनो के ही कर्तृत्व व काल के विषय पर एक मत है इस प्रकार है-"स्वस्ति श्री सवत १५४१ वर्षे शाके १४६१ और वह यह कि, बघेरवाल बशी शाह जीजा के पुत्र शाह (१४०६)प्रवर्तमाने क्रोधिता(न) संवत्सरे उत्तर गणे[ज्येष्ठ] पुनसिंह ने जिसने कारंजामे सवत १५४१ मे प्रतिष्ठा की मासे शुक्ल पक्षे ६ दिने शुक्रवासरे स्वाति नक्षत्र योगे थी-यह कीर्तिस्तभ स्थापित किया। इस नये विचार को र कणे मि. लग्ने श्रीवराट् (इ) देश कारजा नगरे श्री बदलने वाला प्रभाव प्राप्त हुआ है । मै इस विचार को सुपार्श्वनाथ चैत्यालये श्रीमूलसघे सेनगणे पुष्करगच्छे श्रीमत नया इस लिए कहता हूँ कि पहले इसका काल १२वी सदी । वृषभसेन-गणधराचार्ये पारपरागत श्रीदेववीर भट्टाचार्याः। या उसके पहले का बताया जाता था। लेकिन मुनि काति सागर के लेख के बाद इस मत मे नया पन आया। वह तेषा पट्ट श्रीमद्रायराज गुरुवसुधराचार्य महावाद वादीकैसा? इसलिए दोनों के मत प्रागे देकर बाद में अपने (१) प्राचीन जैन स्मारक । को प्राप्त मूर्ति लेख का उल्लेख करूंगा। (२) जैन सत्य प्रकाश वर्ष ६, पृष्ठ १६६ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अनेकान्त श्वर रायवादि पिवामहा? सकल विद्वज्जन सार्व भौम सा. विषय मे चर्चा की है ऐसा पता चला है, मगर मेरे सामने भिमान वादीभ सिंहाभिनय-त्रै :- [विय] विश्व सोमसेन वह अक नहीं है । लेकिन उनके लिखाव से इतना तो स्पष्ट भट्टारकाणामुपदेशात् श्री बघेरवाल जाति खटणाड गोत्र है कि उनको जो अपूर्ण लेख मिला, उमसे उनकी जो गलत अष्टोत्तर शत महोतुगशिखरबद्धप्रसादसमुद्धरणधीर त्रिलोक धारणा हुई, वह उनके पूर्व अनुश्रुतियो से एकदम उलटी श्री जिनबिबोद्धारक अष्टोत्तर शत श्री जिन महा थी। और उनके लिखाव को ही छाप उत्तरवर्ती लेखको प्रतिष्ठा कारक अष्टादस स्थाने अष्टादस कोटि श्रुतभडार के लिखाव पर पड़ी। संस्थापक, सवालक्षबदी मोक्ष कारक, मेदपाट देशे चित्रकूट मुनि श्री के हो शब्दो में मै यही कहूंगा कि बास्तु व नगरे श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र चैत्यालय स्थाने निज भुजो शिल्पक शिल्प की दृष्टि से आपने उसका काल कैसा निश्चित पार्जितवित्तबलेन श्री कीर्तिस्तभ प्रारोपक शाह जिजा किया? या उस लेख से ही वह अनुमानित किया ? लेख सूत साह पुनसिंहस्य 'साहदेउ तस्य भार्या पुई तुकार । से निर्माण शैली पर प्रकाश पडना शिल्प शास्त्रज्ञो के लिए तयोः पुत्रः चत्वारः । तेषु प्रथम पुत्र साह लखमण....." प्रधानुकरण होगा । तो भी, जिस लेख से इसके इतिहास चैत्यालयोद्धरण धीरेण निजभुजोपाजितवित्तानुसारेण महा पर प्रकाश पड़ता है वह लेख और भी प्रकाश में आया है। यात्रा प्रतिष्ठा तीर्थ क्षेत्र......। यह नया मिला हुआ लेख पीतलके नन्दीश्वर ५२ चैत्यालय "दुर्भाग्य से यह लेख इतना ही प्राप्त हुआ है । कारण की प्रतिमा पर का है, जो अकोला शहरके सेनगण दिगबर की आगे का भाग प्रयत्न करने पर भी मैं न पन सका। जैन मन्दिर में सुरक्षित है । लेख इस प्रकार है-'स्वस्ति घिस सा गया है। फिर भी उपलब्ध ग्रन्थ से एक चलती श्री सवत १५४१ वर्षे शाके १४०६ प्रबर्तमाने मंत्रि...... हुई भ्रामक परपरा को प्रकाश मिला। सवत्सरे जेष्टमासे शुक्ल पक्षे ११ दिने भानुवासरे..... (२) भट्टारक संप्रदाय पृष्ठ ३१- देवसेन के पट्ट (स्वाति) नक्षत्रे पहिरवाद्या योगे, गरकरने मत गरौ वह्नाड पर सोमसेन अधिष्ठित हुए । विदर्भ स्थित कारजा शहर में देश कारजा नगरे श्री पार्श्वनाथ चैत्यालये श्री मूलसघे इनके शिष्य बघेरवाल जातीय पूना जी खटोड में रहते थे। (इसके आगे सवालक्ष बदी मोक्षदायक तक मजमून एक ही आपने १०८ मन्दिर बनवाए थे। और १: स्थानो पर है।)...चित्रकूट नगरे श्री कीर्तिस्तभस्यारोपक सा. जिजा शास्त्र भडार स्थापित किए थे । चित्तौड किले पर चद्रप्रभ मूत सा. पूनसिहस्य अनाये सा. देकु (३) भार्या तुकाई मन्दिर के सामने आपने एक कीर्तिस्तभ स्थापित किया तयो पुत्राश्चत्वारः । तेषा मध्ये प्रथम पुत्र साह लखमन था। आपका यह वृत्तान्त जिस लेख से मिलता है उसमे भार्या-बाई ज सुभाई सुत संघवी हसराज भार्या हिराई । १४६१ क अक है जा गलत है। द्विनीय पुत्र साह निमा। तृतीय पुत्र सघवी वीरु भार्या क्योकि इन दोनो मे उक्त क्रोधिन सवत्सर नही पाता है। सघवीनी गौराई । चतुर्थ पुत्र सहदेव भार्या सहबाई ।' यह विषय अनुसंधान की अपेक्षा रखता है। यात्रा प्रतिष्ठा तीर्थ क्षेत्र...... रक्षा शालिनः ।..... सघा(३) भारतीय इतिहास : एक दृष्टि पृष्ठ ४४३-१४वी धिपति वीरु.... परमाभ्युदय बिंबोदित""जिनालय प्रतिशती के उत्तरार्ध मे मेवाड के बघेरवाल जैनी साह जीजा ष्ठाप्य प्रणमन्ति।" ने चित्तौड मे प्राचीन चद्रप्रभु चैत्यालय के निकट एक इस मूर्ति लेख से इतना तो स्पष्ट हुमा कि भ० सोमसतखना उत्तुग एव अत्यन्त कलापूर्ण कीर्तिस्तभ या मान• सेन साह जीजाके गुरु नही थे, किंतु वे सधाधिपति बीर के । कहा जाता है इस धमात्मा सेठ ने गुरु थे। क्योंकि यह प्रतिष्ठा संघवी वीरु ने की थी। वे १०८ प्राचीन मन्दिरो का जीर्णोद्धार, उतने ही नवीन साह लखमन के तृतीय पुत्र थे । और लखमन साह पुनसिंह मन्दिरो का निर्माण एवं प्रतिष्ठा की थी। उसके सुरु के ग्राम्नाय वाले वंश मे उत्पन्न हुए थे। पाम्नाय शब्द से दिगबराचार्य सोमसेन भट्टारक थे। स्पष्ट होता है कि साह जीज़ा सुत पुनसिंह का सिर्फ कीर्ति मुनि कांतिसागर ने अनेकान्त वर्ष ८ पृष्ठ १४२ में इस व नाम ज्ञात था। और साक्षात् सम्बन्ध बताने जैसी परं Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबोर का मार्ग परा व काल ज्ञात न था। साथ ही साह जीजा चित्तौड़ 'खटवड' शब्द पाया जाता है। अतः इस गोत्र के साहु के रहिबासी थे तो ये कारंजा यानी मूल स्थान से सैकड़ो. पुरुषो का इतिहास अन्वेषनीय हुमा है। बहुत जगह नहीं हजारों मील दूरी पर मा बसे थे। मतलब उनको इन्होने कई प्रतिष्ठाएँ की है। उन सबका सकलन करने निजी पूर्वजो की कोति याद थी। बस उसका ही उन्होंने से उनके जीवन पर तथा कार्य पर अच्छा प्रकाश पड़ सिर्फ उल्लेख किया । एक विस्मृत इतिहास को जगाया; सकता है । न कि निर्माण किया। प्रत. लेख का सवत् १५४१ यह बहुत कुछ यह भी सभव है कि वघेरवाल जाति के काल श्री सोमसेन का तो है लेकिन कीर्तिस्तभ के निर्माता भाट होते है, उनके पास हजारो साल की वशावती मिलती साह जीजा या उनके पुत्र का नहीं। वे कितने पूर्व हुए है। उनको प्राप्त कर सशोधन करने से यह कार्य पूरा हो यह विषय सच्चे शिल्पकाल मर्मज्ञो से ठहरा जा सकता है सकता है। माशा है कोटा जिले के विद्वान इसके लिए तथा उनके अन्य कार्यक्षेत्र मे सशोधन कर उनके कर्तृत्व मागे मायेगे या पूरा सहयोग देगे। इस कार्य से और भी व काल पर प्रकाश पड़ सकता है। मौलिक इतिहास पर प्रकाश पड़ेगा। अतः जिस दिन इस शिरपुर के प्राचीन हेमाडपंथी श्री अतरिक्ष पार्श्वनाथ कार्य का प्रारंभ होगा वह हमारे लिए सुदिन ठहरेगा। के मन्दिर पर जो शके १३३८ का शिलालेख है उसमे अस्तु । महावीर का मार्ग मोहिनो सिंघवी महावीर। चले चल ! कि बढ़े चल यह सत्पथ है जिस परतू चल रहा है पही महावीर मार्ग है यही विजेता का पथ है इस पर पवाटिका, यह देख सामने घोल शिखर प्रपती प्रटल असा लिए हुए सदा तूफानों के साथ झूमता हुमा अडिग बहा है। प्रो साधक। पीछे मुख न मोड़ बह देख कल कल करती सरिता कंकरीले, पथरीले पथ को परवाह न करती हुई बहती चली जा रही है, कहती चली जा रही 'पोछे न मई यही श्रेय है यही प्रेय है यही निभेय है चले चल बढ़े चल Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा में आचार्य सिद्धसेन श्री कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री प्राचार्य सिद्धसेन जैन परम्परा के प्रख्यात ताकिक रचयिता थे और दूसरे थे महापुराण (प्रादिपुराण) के और ग्रन्थकार थे। जैन परम्परा दोनों ही शाखाओं में रचयिता । दोनों ने ही अपने-अपने पुराणों के प्रारम्भ में उन्हें समान आदर प्राप्त था। किन्तु आज उनकी कृतियों अपने पूर्वज प्राचार्यों का स्मरण करते हुए सिद्धसेन का भी का जो समादर श्वेताम्बर परम्परा में है वैसा दिगम्बर स्मरण किया है। परम्परा में नहीं है। किन्तु पूर्वकाल मे ऐसी बात नही हरिवंशपुराण मे स्मृत प्राचार्यों को नामावली इस थी। यही दिखाना इस लेख का मुख्य उद्देश्य है। प्रकार है । समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दि, वज्रसूरि, महानामोल्लेख: सेन, रविषेण, जटासिहनन्दि, शान्त, विशेषवादि, कुमारउपलब्ध दि. जैन साहित्य में सिद्धसेन का सर्वप्रथम मेनगुरु और वीरसेनगुरु और जिनसेन स्वामी । नामोल्लेख अकलकदेव के तत्त्वार्थवार्तिक मे पाया जाता आदिपुराण में स्मृत प्राचार्यों की तालिका इस प्रकार है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के तेरहवे सूत्र में प्रागत है : सिद्धसेन, समन्तभद्र, श्रीदत्त, प्रभाचन्द्र, शिवकोटि, 'इति' शब्द के अनेक अर्थों का प्रतिपादन करते हुए अक जटाचार्य, काणभिक्षु, देव (देवनन्दि), भट्टाकलक, श्रीपाल, लकदेव ने एक अर्थ 'शब्दप्रादुर्भाव' किया है। और उसके पात्रकेसरी, वादिसिह, वीरसेन, जयसेन, कवि परमेश्वर । उदाहरण मे श्रीदत्त और सिद्धसेन का नामोल्लेख किया प्रायः सभी स्मत आचार्य दिगम्बर परम्परा के है। है। यथा उन्हीमे सर्वोपरि सिद्धसेन को भी स्थान दिया गया है जो 'क्वचिच्छब्दप्रादुर्भावे वर्तते-इति, श्रीदत्तमिति सिद्धसेनमिति' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। (त० वा. पृ०५७) हरिवंश पुराणकारने सिद्धसेन का स्मरण इस प्रकार किया हैश्रीदत्त दिगम्वर परम्परा मे एक महान् प्राचार्य हो जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । गये है । प्राचार्य विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थ' श्लोकवार्तिक बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥३०॥ में उन्हे त्रेसठ वादियो का जेता तथा 'जल्पनिर्णय' नामक जिनका ज्ञान जगत मे सर्वत्र प्रसिद्ध है उन सिद्धसेन ग्रन्थ का कर्ता बतलाया है। अतः उनके पश्चात् निर्दिष्ट की निर्मल सूक्तियाँ ऋषभदेव जिनेन्द्र की सूक्तियो के सिद्धसेन प्रसिद्ध सिद्धसेन ही होना चाहिए । अकलकदेव समान सज्जनों की बुद्धि को प्रबुद्ध करती है । की कृतियो पर उनके प्रभाव की चर्चा हम आगे करेगे । अतः अकलकदेव ने श्रीदन के साथ उन्ही का स्मरण किया, इसके पूर्व समन्तभद्र के वचनों को वीर भगवान के यही विशेष सभव प्रतीत होता है। वचनतुल्य बतलाया है। और फिर सिद्धसेन की सूक्तियो को भगवान ऋषभदेव के तुल्य बतला कर उनके प्रति एक गुणस्मरण: तरह से समन्तभद्र से भी अधिक आदर व्यक्त किया है । विक्रम की नवी शताब्दी में दिगम्बर परम्परा मे दो यहाँ सूक्तियो से सिद्धसेन की किसी रचनाविशेष की पोर जिनसेनाचार्य हुए है। उनमे से एक हरिवशपुराण के सकेत प्रतीत नही होता। किन्तु महापुराण मे तो अवश्य १. द्विप्रकार जगौ जल्पं तस्वप्राति भगोचरम् । ही उनके सन्मतिसूत्र के प्रति सकेत किया गया है। यथात्रिषष्टेवादिना जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ।।४।। प्रवादिकरियूथाना केसरी नयकेसरः । -त० श्लो० वा० पृ० २८० । सिरसेनकविर्जीयाद्विकल्पनखराङ्कुरः ॥४२॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा में प्राचार्य सिद्धसेन सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादीरूपी हाथियो के ने अपने विशेषावश्यक भाष्य मे उसकी कठोर पालोचना झुण्ड के लिए सिह के समान है तथा नय जिसके केसर की, वैसे ही सन्मतिसूत्र को प्रागमप्रमाण के रूपमे मान्य (गर्दन पर के वाल) हैं और विकल्प पैने नाखून है। करके भी वीरसेन स्वामी ने उसमे प्रतिपादित अभेदवाद __ सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र मे प्रधान रूप में यद्यपि अने- को मान्य नही किया और मीठे शब्दों में उसकी चर्चा कान्त की चर्चा है, तथापि प्रथम काण्डमे अनेकान्तवाद की करके उसे अमान्य कर दिया। देन नय और सप्तभगी की मुख्य चर्चा है। तथा दूसरे यह एक उल्लेखनीय वैशिष्ट्य है कि एक ग्रन्थ को काण्ड में दर्शन और ज्ञान की चर्चा है, जो अनेकान्त की प्रमाणकोटि मे रखकर भी उसके अमुक मतको अमान्य ही अगभूत है। इस चर्चा में आगम का अवलम्बन होते कर दिया जाता है अथवा अमुक मत के अमान्य होने पर हए भी तर्क की प्रधानता है। और तर्कवाद में विकल्प- भी उस मत के प्रतिपादक ग्रन्थ को सर्वथा अमान्य नहीं जाल की मुख्यता होती है जिसमें फंसाकर प्रतिवादी को किया जाता और उसके रचयिता का सादर सस्मरण परास्त किया जाता है। अतः जहाँ सन्मतिसूत्रके प्रथम किया जाता है। काण्ड सिद्धसेनरूपी सिंह के नयकसरत्व का परिचायक है, अकलंकदेव पर प्रभाव : वहाँ दूसरा काण्ड उनके विकल्परूपी पैने नखों का अनुभव आचार्य अकलकदेव प्राचार्य समन्तभद्र की वाणीरूपी कराता है। दर्शन और ज्ञान का केवली मे अभेद सिद्ध गगा और सिद्धसेन की वाणीरूपी यमुना के मगमस्थल है। करने के लिए जो तर्क उपस्थित किये गये है, प्रतिपक्षी दोनों महान् प्राचार्यो की वाग्धाराए उनमें सम्मिलित भी उनका लोहा माने बिना नही रह सकते । अत: जिन- होकर एकाकार हो गई है । समन्तभद्र के 'प्राप्तमीमासा' सेनाचार्य ने अवश्य ही सन्मतिमूत्र का अध्ययन करके पर तो अकलकदेव ने अष्टगती नामक भाष्य रचा है, सिद्धसेनरूपी सिहके उस रूपका साक्षात्परिचय प्राप्त किया किन्त सिद्धसन के द्वारा ताकिक पद्धति से स्थापित तथ्यों था, जिसका चित्रण उन्होंने अपने महापुगणके सम्मग्ण मे को भी अपनी अन्य रचनाओ में स्वीकार किया है । उसका किया है। स्पष्टीकरण इस प्रकार हैसन्मतिसूत्र की प्रागमप्रमाणरूप में मान्यता : नयो की पुरानी परम्परा सप्तनयवाद की है। दिगम्बर यह जिनसेन वीरसेन स्वामीक शिष्य थे और वीरसेन- तथा श्वेताम्बर परम्पराए इस विषय मे एकमत है । किन्तु स्वामी ने अपनी धवला और जयधवला टीका मे नयो का सिद्धसेन दिवाकर नैगम को पृथक् नय नहीं मानते। निरूपण करते हए सिद्धसेन के सन्मतिमूत्र की गाथाओ को शायद इसी से वह पड्नयवादी कहे जाते है। अकलकदेव सादर प्रमाण रूप से उद्धृत किया है। दोनों टीकामो मे ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक' में चतुर्थ अध्याय के अन्तिम सत्र निक्षेपो मे नयो की योजना करते हा वीरसेन स्वामी ने के व्याख्थान के अन्तर्गत नयसातभगी का विवेचन करते हए अपने कथन का सन्मतिसूत्र के साथ अक्रोिध बतलाते हुए द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयो को सग्रहाद्यात्मक बतलाया है सन्मतिसूत्र को प्रागमप्रमाण के रूप में मान्य किया है। तथा छ ही नयो का पाश्रय लेकर मप्तभगी का विवेचन किन्तु सन्मतिसूत्र के दूसरे काण्ड मे केवजान और केवल किया है । तथा लघीयस्त्रय में यद्यपि नंगमनय को लिया दर्शन का अभेद स्थापित किया गया है और यह अभेदवाद है तथापि कारिका ६७ की स्वोपज्ञ वृत्ति मे सन्मति की जहा क्रमवादी श्वेताम्बर परम्परा के विरुद्ध पहना है वहाँ गाथा १-३ की शब्दशः सस्कृत छाया को अपनाया है। युगपद्वादी दिगम्बर परम्परा के भी विरुद्ध पडता है। यथाअत: सिद्धसेन के इस अभेदवादी मत को जैसे श्वेताम्बर तत्थयर वयण संगहविसेसपत्थारमलवागरणी। परम्परा ने मान्य नही किया और जिनभदगणि क्षमाश्रमण दवठियो य पज्जवणयो य सेसा वियप्पासि ।। सन्मति । १. कसायपाहुड, भा० १, पृ० २६१ । खटखण्डागम पु० २. कसायपाहुड, भा० १ पृ. ३५७ । १, पृ० १५ । पु०६ पृ. २४४ । पु०१३, पृ. ३५४। ३. पृ०२६१ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त तथा तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तावमूलव्याकरिणौ होकर तत्त्वार्थमूत्र पर तत्वार्थ श्लोकवार्तिक की रचना की द्रव्यायिकपर्यायाथिको निश्चेतव्यो। ल० स्वो० थी। इस तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक मे प्रथम अध्याय के प्रतिम सिद्धसेन ने सन्मति में एक नई स्थापना और भी की सूत्र पर नयों का सुन्दर सक्षिात विवेचन है । इस विवेचन है । और वह है पर्याय और गुण मे अभेद की। अर्थात् के अन्त मे ग्रन्थकार ने लिखा है कि विस्तार से नयों का पर्याय से गुण भिन्न नही है। यह चर्चा तीसरे काण्ड मे स्वरूप जानने के लिए नयचक्र को देखना चाहिए; यह गाथा ८ से प्रारम्भ होती है। इस चर्चा का उपसहार नयचक सभवतया मल्लवादीकृत नयचक्र होना चाहिए: करते हुए प्राचार्य सिद्धसेन ने उसका प्रयोजन शिष्यो की क्योंकि उपलब्ध देवसेनकृत लघुनयचक्र और माइल्ल धवल बुद्धि का विकास बतलाया है, क्योकि जिनोपदेश मे न तो कृत नयचक्र प्रथम तो सक्षिप्त ही है, विस्तृत नहीं है, एकान्त से भेदभाव मान्य है और न एकान्त से प्रभेदवाद, इनसे तो विद्यानन्द ने ही नयो का स्वरूप अधिक स्पष्ट प्रतः उक्त चर्चा के लिए अवकाश नही है। लिखा है, दूसरे, उक्त दोनो ही ग्रन्थकार विद्यानन्द के (सन्मति ३-२५, २३) पीछे हुए है। अतः विद्यानन्द उनकी कृतियों को देखने अकलकदेव ने भी तत्त्वार्थवातिक मे पाचवें अध्याय के का उल्लेख नहीं कर सकते थे, अस्तु । इस नयचर्चा मे 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥३७॥' सूत्र के व्याख्यान मे उक्त विद्यानन्द ने सिद्धसेन के पड्नयवाद को स्वीकार नही चर्चा को उठाकर उसका समाधान तीन प्रकार से किया किया, बल्कि उसका विरोध किया है। उनका कहना है है। प्रथम तो पागम प्रमाण देकर गुण की सत्ता सिद्ध की कि नंगमनय का अन्तर्भाव न तो संग्रह मे होता है, न है, "फिर गुण एव पर्यायः' समास करके गुण को व्यवहार में और न ऋजुमूत्रादि मे। अत: परीक्षको को पर्याय से अभिन्न बतलाया है। यही प्राचार्य सिद्धसेन की संग्रह प्रादि छ नय ही है' ऐसा नही कहना चाहिए। मान्यता है। इस पर से यह शका की गई है कि यदि संग्रहे व्यवहारे वा नान्तर्भावः समीक्ष्यते । गुण ही पर्याय है तो केवल गुणवत् द्रव्य या पर्यायवत् नंगमस्य तयोरेकवस्त्वंशप्रवणत्वतः ॥२४॥ द्रव्य कहना चाहिए था-'गुण पर्याय वद् द्रव्य' क्यो नर्जुसूत्रादिषु प्रोक्तहेतबो वेति षण्नया. । कहा? तो उत्तर दिया गया कि जनतर मत में गुणो को संग्रहादय एवेह न वाच्याः प्रपरीक्षकः ॥२५॥ द्रव्य से भिन्न माना गया है । अतः उसकी निवृत्ति के लिए -त० श्लो० वा. ६,२६६ । दोनों का ग्रहण करके यह बतलाया है कि द्रव्य के परि- यहा 'प्रपरीक्षक' शब्द सभवतया सिद्धसेन के लिए ही वर्तन को पर्याय कहते है । उसी के भेद गुण है, गुण भिन्न आया है, क्योकि परीक्षा के आधार पर उन्होंने ही षड्जातीय नहीं है। इस प्रकार इस चर्चा मे भी अकलकदेव नयवाद की स्थापना की थी। परीक्षक के साथ प्रकर्षत्व ने सिद्धसेन के मत को मान्य किया है। मतः अकलकदेव के सूचक 'प्र' उपसर्ग से भी इस बात की पुष्टि होती है, पर सिद्धसेन का प्रभाव स्पष्ट है। क्योकि सिद्धसेन साधारण परीक्षक नही थे। प्राचार्य विद्यानन्द और सिद्धसेन : इसी तरह विद्यानन्द ने पांचवे अध्याय के 'गुणपर्याय___ प्राचार्य विद्यानन्द एक तरह से अकलंक के अनुयायी वद् द्रव्यम्' इस सूत्र की व्याख्या मे गुण और पर्याय मे और टीकाकार थे। उन्होंने समन्तभद्र के प्राप्तमीमासा अभेद मानकर भी सिद्धसेनानुगामी अकलक का अनुकरण और उस पर अकलंकदेव के अष्टशती भाष्य को प्रावेष्टित नही किया, किन्तु गुण और पर्याय दोनो के ग्रहण के करके अष्टसहस्री नामक महान् ग्रन्थ की रचना की थी। प्राघार पर एक ऐसा तथ्य फलित किया जो अनेकान्ततथा जैसे न्यायदर्शन के सूत्रो पर उद्योतकर की न्यायवा- दर्शन के इतिहास में उल्लेखनीय है । उन्होंने लिखा हैतिक से प्रभावित होकर अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र पर १. संक्षेपेण नयास्तावद् व्याख्यातास्त्र सूचिताः। तत्त्वार्थवार्तिक की रचना की थी, वैसे ही विद्यानन्द ने तद्विशेषाः प्रपञ्चेन सचिन्त्या नयचक्रतः ॥१०२॥ मीमासक कुमारिल के मीमांसा श्लोकवार्तिक से प्रभावित त. श्लो० वा. पृ० २७६ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा में प्राचार्य सिद्धसेन ८९ गुणवद्रयमित्युक्तं सहानेकान्तसिबये। तिको विवृत किया अर्थात् सन्मतिकी वृत्ति या टीका रची। तथा पर्यायवाव्यं कमानेकान्तवित्तये ॥२॥ ___ यह सन्मति सिद्धसेनकृत ही होना चाहिए । नमः -त० श्लो० वा० पृ. ४३८ सन्मतये' में 'सन्मति' नाम सुमति के लिये ही पाया है। सहानेकान्त की सिद्धि के लिए 'गुणवद् द्रव्यम्' कहा है। दोनों का शब्दार्थ एक ही है। किन्तु सन्मति के साथ तथा क्रमानेकान्त के बोध के लिए 'पर्यायवद् द्रव्यम्' । सन्मति का शब्दालंकार होने से काव्यसाहित्य में सुमति के स्थान मे सन्मति का प्रयोग किया गया है। अर्थात् अनेकान्त के दो प्रकार है : सहानेकान्त और जैन ग्रन्थो मे तो सुमतिदेव का कोई उल्लेख नहीं क्रमानेकान्त । पस्स्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों मिलता, किन्तु बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने अपने तत्त्वक बस्तु में स्वीकार अनेकान्त है । उनमें से कुछ धम सग्रहके स्याद्वादपरीक्षा और बहिरर्थपरीक्षा नामक प्रकरणों ऐसे होते हैं जो कालक्रम से एक वस्तु मे रहते है, जैसे में समति नामक र जता और असर्वज्ञता, मुक्तत्व अोर ससारित्व । गुण यह सुमति सन्मति टाका के कर्ता ही होने चाहिये । संभसहभावी होते है और पर्याय क्रमभावी होती है अतः एक वतया उसी मे चर्चित मत की समीक्षा शान्तरक्षितने की र से सहानेकान्त प्रतिफलित होता है तो दूसरे से क्रमानेकान्त। है। वैसे मल्लिोणप्रशस्ति मे उनके सुमति सप्तक नामक इस तरह विद्यानन्द ने सिद्धसेन के मतो को अमान्य ग्रन्थ का भी उल्लेख है। यथाया प्रकारान्तर से मान्य करते हुए भी तत्त्वार्थ श्लोकवा- सुमतिदेवमम स्तुत येन वः सुमतिसप्तकमाप्ततया कृतम् । तिक के प्रारम्भ में ही हेतुवाद और पागमवाद की चर्चा परिहतापथतपणाशित के प्रसंग से समन्तभद्र के प्राप्तमीमासा के 'वक्तर्यना'ते' अस्तु, जो कुछ हो, किन्तु इतना निश्चित है कि दिगम्बराइत्यादि कारिका के पश्चात् ही प्रमाणरूप स सिद्धसन के चार्य सुमति ने, जो सम्भवतया विक्रमकी सातवीं शताब्दी सन्मति से भी 'जो हेतुवादपरकम्मि आदि गाथा उद्धृत से बादके विद्वान नही थे, सिद्धसेन के सन्मति पर टीका करके सिद्धसेन के प्रति भी अपना प्रादरभाव व्यक्त किया रची थी। इस तरह सिद्धसेन का सन्मतितर्क सातवीं है, यह स्पष्ट है। शताब्दी से नौवी शताब्दी तक दिगम्बर परम्परा में प्रागटोकाकार सुमतिदेव: मिक ग्रन्थ के रूप में मान्य रहा । संभवतया सुमतिदेव की विद्यानन्द से पहले और सभवतया प्रकलकदेव से भी टीका के लुप्त हो जाने पर पौर श्वेताम्बराचा मभयदेव पर्व दिगम्बर परम्परा में सुमतिदेव नाम के प्राचार्य हो की टीका के निर्माण के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में श्रबण बेलगोला की मल्लिषेणप्रशस्ति में कुन्द- उसको मान्यता लुप्त हो गई और श्वेताम्बर परम्परा का कुन्द, सिंहनन्दि, वक्रग्रीव, वचनन्दि और पात्र केसरी की ही ग्रन्थ माना जाने लगा । किन्तु वह एक ऐसा अनमोल के बाद सुमतिदेव की स्तुति की गई है और उनके बाद ग्रन्थ है कि जैनदर्शन के अभ्यासी को उसका पारायण कुमारसेन, वर्द्धदेव और अकलकदेव की। इससे सुमतिदेव करना ही चाहिए। सन्मतितर्क के सिवाय, जो प्राकृतप्राचीन प्राचार्य मालूम होते है। गाथाबद्ध है, संस्कृत की कुछ बत्तीसियाँ भी सिद्धसेनकृत पार्श्वनाथचरित (वि० स० १०८२)के कर्ता वादि है। उनमें से एक बत्तीसी का एक चरण पूज्यपाद देवने राज ने प्राचीन ग्रन्थकारों का स्मरण करते हुए लिखा सर्वार्थसिद्धिटीका के सप्तम प्रध्याय के १३वें सूत्र की व्या ख्या मे उद्धृत किया हैनमः तन्मतये तस्मै भवकूपनिपातिमाम् । वियोजयति वायुभिनंब वषेन संयज्यते' सन्मतिविवृता येन सुलवामप्रवेशिनी ॥२२॥ प्रकलकदेव ने भी अपने तत्त्वार्थवातिक में उक्त सूत्र अर्थात् उस सन्मति को नमस्कार ही जिनने भवकूप में की व्याख्या में उसे उद्धत किया है । और वीरसेन स्वामी पड़े हुए लोगों के लिए सुखधाम में पहुँचानेवाली सन्म (शेष पृष्ठ ६६) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० शुभकीति और शान्तिनाथ चरित्र पं० परमानन्द शास्त्री शुभकीर्ति नाम के अनेक विद्वान हो गये है। उनमे दीक्षा ले तपश्चरणरूप समाधिचक्र से महादुर्जय मोहकर्म एक शुभकीर्ति बादीन्द्र विशालकीर्ति के पट्टधर थे। इनकी का विनाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया पौर अन्त मे बुद्धि पंचाचार के पालन से पवित्र । एकान्तर मादि अघाति कर्म का नाश कर अचल अविनाशी सिद्ध पद प्राप्त उग्रतपों के करने वाले तथा सन्मार्ग के विधिविधान मे किया। कवि ने इस प्रन्थ को महाकाव्य के रूप मे बनाने ब्रह्मा के तुल्य थे, मुनियों में श्रेष्ठ प्रौर शुभप्रदाता थे। का प्रयत्न किया है । काव्य-कला की दृष्टि में भले ही वह इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी है। दूसरे शुभकीति महाकाव्य न माना जाय । परन्तु ग्रन्थकर्ता की दृष्टि इस कुन्दकुन्दान्वयी प्रभावशाली रामचन्द्र के शिष्य थे। और महाकाव्य बनाने की रही है । कवि ने लिखा है कि शान्तितीसरे शुभकीर्ति प्रस्तुत शान्तिनाथ चरित अपभ्रश के रच- नाथ का यह चरित वीर जिनेश्वर ने गौतम को कहा, उसे यिता है। कवि ने अपनी गुरु परम्परा और जीवन ही जिनमेन और पुष्पदन्त ने कहा, वही मैंने कहा है। घटना के सम्बन्ध मे कोई प्रकाश नही डाला। ग्रन्थ की जं प्रत्यं जिणराजदेव कहियं जै गोयमेणं सुव, पुष्पिका वाक्य मे 'उहयभासाचक्कवट्टि मुकित्तिदेव विर- मं सत्थे जिणसेणदेव रइयं जं पुष्फवंतादिही । इये' पद दिया है। जिससे वे अपम्रश और सस्कृत भाषामे तं प्रत्थ सुहकित्तिणा वि भणियं सं रूपचदत्थिय, निष्णात विद्वान थे । कवि ने ग्रन्थ के अन्त मे देवकीति का सपणीणं दुज्जण सहावपरम पीए हिए सगद ॥१०वी सघि उल्लेख किया है। एक देवकीति काष्ठासघ माथुरान्वय के कवि ने ग्रन्थनिर्माण म प्रेरक रूपचन्द का परिचय विद्वान थे. उनके द्वारा सं० १४६४ प्रापाढ बदी २ क देते हए कहा है कि वे इक्ष्वाकुवशी (जैसवाल वश में) दिन प्रतिष्ठित एक धातु मूर्ति यागरा के कचौडा बाजार प्रागाधर हए, जो ठक्कुर नाम से प्रसिद्ध थे और जिन के मन्दिर में विराजमान है'। हो सकता है कि प्रस्तुत शासन के भक्त थे। इनके 'धनवउ' टक्कुर नामका एक पुत्र शभकीति देवकीति के समकालीन हों, या कोई अन्य देव- हुग्रा, उसकी पत्नी का नाम लोनावती था, जिसका शरीर कीति के समकालीन, यह विचारणीय है। सम्यक्त्व से विभूषित था, उससे रूपचन्द नाम का पुत्र प्रस्तुत शान्तिनाथ चरित्र १६ सन्धियो में पूर्ण हुआ हुआ जिसने उक्त शान्तिनाथ चरित्र का निर्माण कराया है है । इसकी एकमात्र कृति नागौर के शास्त्रभडार मे सुर. कवि ने प्रत्येक संधि के अन्त मे रूपचन्द की प्रशसा क्षित है। जो सवत् १५५१ की लिखी हुई है। इस ग्रन्थ सूचक पाशीर्वादात्मक अनेक पद्य दिये है। उसका एक पद्य में जैनियों के १६वें तीर्थकर भगवान शान्तिनाथ पचम पाठको की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है :चक्रवर्ती थे, उन्होंने षट्खण्डों को जीत कर चक्रवर्ती पद इक्वाकूणां विशुद्धो जिनवर विभवाम्नाय वंशे समांशे, प्राप्त किया था। फिर उसका परित्याग कर दिगम्बर तस्मादाशापरीया बहुजनमहिमा जात साल वंशे । १. ............... तपो महात्मा शुभकीतिदेव । लोलालंकार सारोद्भव विभव गणासार सत्कार लुः । एकान्तराद्युग्रतपोविघानाडातेव सन्मार्गविविधाने। शुद्धि सिद्धार्थसारा परियणगुणी रूपचन्दः सुचन्द्रः ।। -पट्टावली शुभचन्द्रः कवि ने अन्त मे ग्रन्थ का रचनाकाल स० १४३६ तत्प? जनि विख्यातः पंचाचार पवित्रधीः । दिया है जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है :शुभकीतिमुनिश्रेष्ठः शुभकीर्ति शुभप्रद. ॥ प्रासोद्विकमभूपतेः कलियुगे शांतोतरे संगते, -पुदर्शन चरित्र सत्यं क्रोषननामधेय विपुले संवच्छरे संमते । २. श्री कुंदकुदस्य वभूब वशे श्री रामचन्द्रः प्रथतः प्रभाव: दत्ते तत्र चतुर्वशे तु परमो षट्त्रिंशके स्वशिके। शिप्यस्तदीयः शुभकीर्तिनामा तपोगना वक्षसि हारभूतः ।।७।। मासे फाल्गुणि पूर्वपक्षक वृषे सम्यक् तृतीयां तियो । प्रद्योतते सम्प्रति तस्य पट्ट विद्याप्रभावेण विशालकीतिः । शिष्यैरनेक रुपसेव्यमानएकान्त वादादिविनाशवजम् ।। इससे स्पष्ट है कवि शुभकीर्ति १५वी शताब्दी के -धर्मशर्माभ्युदय लिपि प्र० विद्वान है। अन्य ग्रन्थभंडारों मे शान्तिनाथ चरित्र की ३. सं० १४९४ पाषाढ़ वदि २ काष्ठासंघे माथ रान्वय इस प्रति का अन्वेषण प्रावश्यक है। अन्यथा एक ही प्रति श्रीदेवकीर्ति प्रतिष्ठिता। पर से उसका प्रकाशन किथा जाय । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान परमानन्द शास्त्री उनतालीसवे विद्वान बाबू दयाचन्द जी गोयलीय है। साहित्य-सेवा-पापने साहित्य सेवा के लिये स्वार्य इनका जन्म गढी अबदुल्लाखा जिला मुजफ्फरनगर में त्याग किया था। प्राप के द्वारा लिखित बाल बोष जैनधर्म लाला ज्ञानचन्द्र जी अग्रवाल के यहा स० १९४५ मार्गशीर्ष ४ भाग पाठशालामो मे पाठय पुस्तकों में अब तक निहित पूर्णिमा के दिन हुअा था। आपने सन् १९०७ मे देहरादून है। आपने सदाचार, मितव्ययता, सादगी, चारित्रगठन, से प्रथम श्रेणी म मैट्रिक क्वीन्स कालेज बनारस से एफ० देशसेवा, पिता के उपदेश, शान्ति वैभव, सुख की प्राप्ति ए. और महागजा कालेज जयपुर से बी० ए० की का मार्ग, मुक्तिमार्ग, मुख सफलता और उसके मूल परीक्षाएं अच्छे नम्बरो से पास की थी। पाप की विद्यार्थी सिद्धान्त सदाचारी गलक, विद्यार्थी जीवन का उद्देश, अवस्था में देहरादून में ही सभा सोसाइटियो को देखकर अच्छी प्रादते डालने की शिक्षा आदि अनेक उत्तम पुस्तकें समाज सेवा के भाव पैदा हो गए थे । और आपने स्कूल में लिखी है। इनमे अधिकाश पुस्तके प० नाथूराम जी बम्बई एक जैन सभा स्थापित की थी। इन्ही दिनो पाप देहरादून ने प्रकाशित की है। के लाला चिरजीलाल जी सस्थापक जैन अनाथाश्रम के वे निर्भीक लेखक, जोशीले वक्ता, सुयोग्य शिक्षक सम्पर्क में आये, और उर्दू जैन प्रचारक मे लेख लिखने और निश्वार्थ-समाज-सेवो थे । खेद है कि प्रापका ३० वर्ष लगे। बनारस और जयपुर के वातावरण से आप मे की अल्पायु में ही अक्टूबर सन् १९१६ युद्ध ज्वर में स्वर्गजैनधर्म के अध्ययन करने की रुचि हो गई। पोर समाज- वास हो गया । आपकी साधना, दृढ निश्चय कर्मठ कार्यसेवा के भाव भी सुदृढ हुए। कर्ता, बहुत परिश्रम ,और अपार मनोबल से संयुक्त थे । आपने ललितपुर जिला झासी मे सैकण्ड मास्टर का आपकी महान सेवाए कभी भुलाई नही जा सकती। पापका कार्य किया, वे वहा की अभिनन्दन जैन पाठशाला के मत्री साहित्य प्राप की कीर्ति का उन्नायक है। थे, । उन्होने अपने मत्रित्व काल मे पाठशाला की खूब चालीसवे विद्वान ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी है, जो उन्नति की । वह समय मापके अर्थ सकट का था। आपने लखनऊ के निवासी थे। उनके पिता का नाम लाला वकालत करने का विचार किया किन्तु प० नाथूराम प्रेमी मक्खनलाल और माता का नाम श्रीमती नारायणी देवी प्रादि मित्रों के निषेध करने पर उसका विचार छोड था। आपका जन्म काला महल मे सन् १८७६ मे हुमा दिया । पश्चात् वे लखनऊ हाईस्कूल मे आ गए, और था । अापने १८ वर्ष की अवस्था मे मैट्रिक्युलेशन की उनका अर्थसकट भी दूर हो गया। परीक्षा प्रथम श्रेणी मे पास की। तथा ४ वर्ष बाद रूडकी आप ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर की प्रबन्ध- इजीनियरिग कालेज से अकाउन्टेन्ट शिप की परीक्षा पास कारिणी के सदस्य भी रहे थे । और आश्रम के वार्षिक की। परीक्षा पास करने के बाद गवर्नमेन्ट सर्विस मिल उत्सवों पर चन्दे की अपील द्वारा प्राश्रम को अर्थ प्राप्ति गई। यह स्वभाव से ही चचल, कार्य करने मे पट, कराते थे । भारत जैन महामण्डल के जीवदया विभाग के उदीयमान विचारक और लेखक थे। उनके विचारों का पाप मत्री थे, पापने जीवदया पर अनेक उपयोगी ट्रैक्ट पता सन् १८६६ के २४ मई के हिन्दी 'जन-गजट' में लिखे थे । जैन हितपी में आपके अनेक लेख छपे है । उनमे प्रकाशित प्रथम लेख के निम्न अंश से चलता है-"ए कुछ अग्रेजीके अनुवाद रूपमे भी है । जाति प्रबोधक नामका जैनी पडितो | यह जनधर्म प्राप ही के प्राधीन है। इसकी पत्रभी आपने निकाला था। और उसे तीन वर्ष तक चलाया। रक्षा के लिये द्योती (ज्योति) फैलाइये, सोतो को Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जगाइये, और तन मन धन परोपकार और शुद्धविचार लाने प्रारम्भ किया, साथ ही समाज-सेवा में भी योग देने लगे। की कोशिश कीजिये । जिससे पाप का यह लोक परलोक स्व. सेठ माणिकचन्द बीजेपी बम्बई के साथदोनों सुधरें। सन् १९०५ के दिसम्बर मे भा० दि० जैन महासभा प्रापका विवाह कलकत्ता के वैष्णव अग्रवाल छेदी का अधिवेशन सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) मे हा था। लाल जी की सुपुत्री से हुमा था। प्रापने अपनी पत्नी के इस अधिवेशन के अध्यक्ष बम्बई के सेठ माणिकचन्द हीरा. धार्मिक संस्कारों को प्रादर्श बनाया था। कुछ समय बाद चन्द जे पी. थे। इसी समय ब्रह्मचारी जी का सेठ जी से सन् १९०४ मे महामारी (प्लेग) से १३ फरवरी को परिचय हुआ था। मेठ जी कार्यकर्तामों के पारखी थे। पापकी पली का वियोग हो गया और नो मार्च को ___ आपने जिनधर्म भक्त, समाज-सेवी ब्रह्मचारी जी को अपने र जननी तथा अनुज पन्नालाल का भी देहान्त हो गया। यहाँ बम्बई मे रहने के लिए अनुरोध किया और क. जी दुर्दैव की इस घटना से शीतलप्रसाद जी के चित्त को बडा सेठ जी के साथ बम्बई चले गये। ब्रह्मचारी जी ने वहा प्राघात पहुंचा। पर सत्सगति और स्वाध्याय से विचलित रहकर सेठजी को धर्म एव समाज-सेवा के लिए उकसाया, नही हुए, भुक्त भोगी इस घटना जन्य वेदना को स्वय । प्रेरित किया और अपना सहयोग दिया। सेठजी ने बम्बई समझ सकते है। उस समय महामारी ने देश में त्राहि सागली, आगरा, अहमदाबाद, शोलापुर, कोल्हापुर और त्राहि मचादी थी। इससे प्रायः सारे भारत मे तहलका लाहौर आदि स्थानो में जैन बोडिग हाउस स्थापित किये। मचा हुआ था। अनेक परिवार एकाध व्यक्ति को छोड इन सस्थाग्रो में विद्यार्थियो के लिए पढ़ने-लिखने और कर समाप्त हो गए थे। रहन-सहन की मुविधा के साथ जैनधर्म के ग्रन्थो के पढ़ने अग्नि परीक्षा-स्नेही जनों के प्राकस्मिक वियोग से और उसके महत्व को समझने से उनके सस्कार सुसस्कृत उनके जीवन पर बड़ा प्रभाव पडा। यद्यपि वे निरन्तर एव सरल हो गये। स्वाध्याय और सामयिक सेवायो के कारण पर्याप्त बल ब्रह्मचारी जी मे सात्विक शुद्ध सस्कार और चारित्र प्राप्त कर चुके थे। एक ओर सरकारी नौकरी में पदो- पालन का भाव बाल्य अवस्था से ही था क्योकि आपके न्नति और वेतन वृद्धि की बलवती राशि, प्रौढावस्था की पितामह ला० मगलसनजी अपना अधिकाश समय गोम्मटउमड़ती हुई हिलोरे । कौटुम्बिक सहयोगियो का पुन: सार और समयसारादि ग्रन्थो के स्वाध्याय, तत्वचर्चा में गृहस्थी बसाने का आग्रह, कन्याओ का सोन्दर्य और व्यतीत करते थे। ब्रह्मचारी जी को धार्मिक संस्कार, योग्यता और उनके अभिभावको द्वारा सम्बन्ध स्वीकार चारित्र पालन, कर्तव्य निष्ठा का उदात्त भाव अपने पूर्वजो करने की प्रार्थना और दूसरी ओर समाज-सेवा की उत्कट से विरासित में मिला था, और स्वाध्याय द्वारा जैनधर्मका लगन, स्वाध्याय द्वारा आत्मस्वरूप को प्राप्त करने तथा मर्म ब्रह्मचारी जी के घट मे घर कर गया था। वह उन्हे समझाने का यत्न । शीतलप्रसाद जी इस अग्नि परीक्षा में बाह्य प्रलोभनो से बचने में सहायक हुआ। अतएव प्रापने खरे उतरे, उन्हे सासारिक विषय-सुखेच्छा विचलित न ३२ वर्ष की भरी जवानी मे सन् १९११ ई० के मगशिर कर सकी, वे अपने लक्ष्य की सिद्धि मे निष्ठा से लगने का महीने मे ऐलक पन्नालाल जी के समक्ष शोलापुर मे विधियत्न करने लगे। जैन ग्रन्थो के स्वाध्याय ने उनके हृदय पूर्वक ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की । ब्रह्मचारी जी प्राचारमें विषयों से विरक्ति और समाज सेवा के लिए मनको विचार और शुद्ध पाहार के पक्षपाती थे। वे त्रिकाल बलिष्ठ एव सक्षम बना दिया था। अतः उन्होंने ब्रह्मचारी सामायिक, स्वाध्याय, जिनवंदन प्रादि दैनिकचर्या में कभी रहकर समाज-सेवा मे संलग्न रहकर जीवन बिताना कमी नही माने देते थे। अच्छा समझा। इसी से उन्होंने सन् १९०५ मे सरकारी जैन साहित्य-सेवानौकरी से त्यागपत्र दे दिया। और जैनधर्म के रहस्य का सन् १९०२ मे ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी के निमन्त्रण परिचय पाने के लिए स्वाध्याय में विशेष योग देना मे महासभा के मुख पत्र 'जन-गजट' का प्रकाशन दो वर्ष Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जन संस्कृति में योगदान तक लखनऊ से हमा। उन्होंने अथक परिश्रम से उसकी अच्छा होता था और 'जनता में उसका समादर होता था। विशेष उन्नति की, जिससे उसकी काया ही पलट गई वह उनकी यह महत्वपूर्ण सेवा भुलाई नही जा सकती। उन पाक्षिक से साप्ताहिक हो गया। जनमित्र का संस्थापन जैसी लगन का काम करने वाला प्राज एक भी ब्रह्मचारी श्रद्धेय प० गोपालदास जी वरया ने किया था, और उन्ही विद्वान नही है, जो प्राजके समय मे जैन सस्कृति का प्रचार के सम्पादकत्व में बह सन् १९०८ तक बम्बई से पाक्षिक ___ एवं प्रसार कर सके। रूप में निकलता रहा । किन्तु सन् १९०६ में ही ब्रह्मचारी इकतालीसवें विद्वान वैरिस्टर चम्पतराय जी हैं। जी जैन मित्र के सम्पादक नियुक्त हुए। तब से सन् जिनका दिल्ली के कूचा परमानन्द मे लाला चैनसुखदास १९२६ तक ब्रह्मचारी जी ने उसका सम्पादन योग्यता और ही की हवेली में माता पार्वती के उदर से जन्म हुआ था। निर्भयता के साथ किया । आपके सम्पादन काल मे समाज इनके पितामह का नाम निहालचन्द और पिता का नाम सुधार, ऐतिहासिक खोज, जैनधर्म प्रचार, सामाजिक संग लाला चन्द्रामल था, जो अपने पिता के समान ही नित्य ठन और शिक्षा प्रसार आदि विषयो पर अनेक लेख लिखे देवदर्शन, जिनपूजन और स्वाध्याय आदि धार्मिक क्रियानों गये । सभी लेख अच्छे और जनसाधारण के लिए उपयोगी मे तन्मय रहते थे। आपका पत्नी पार्वतीदेवी भी गृहस्थोहोते थे। उनका सबसे बडा कार्य अग्रेजी पढ़-लिखे चित धार्मिक क्रियानो का पालन तत्परता से करती थी, विद्वानों मे जैनधर्म का प्रचार था। बहुत से अग्रेजी भाषा और प्रतिज्ञा पालन में मदढ थी। चम्पतराय का बडे लाडके विद्वान जैनधर्म के श्रद्धालु, जैन ग्रन्थो के स्वाध्यायी एव प्यार से पालन हुआ। यह बाल्यकाल से ही तीक्ष्ण बुद्धि जिनदर्शन करने वाले व्यक्तियो से मालूम हुआ कि वे उक्त थे. पढने-लिखने मे चतुर थे। कौन जानता था कि यह ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी के उपदेश से ही जैनधर्म के बालक भविष्य मे अच्छा विद्वान और जैन सस्कृति की श्रद्धालु बने है । और आज वे जैनधर्म के अच्छे ज्ञाता है। सेवा करेगा। छह वर्ष की अवस्था मे माता का वियोग हो उनकी सन्तान भी जैनधर्म का पालन करती है। ऐसा गया। अतएव वे जननी के वियोग से वचित हो गये। महत्वपूर्ण कार्य अन्य किसी ने नहीं किया। वे जैनधर्म का लाला चन्द्रामल के वशज सोहनलाल और बाकेलाल भी प्रचार करने के लिए भारत मे यत्र-तत्र घूमा करते थे और थे। ये दोनो सहोदर भाई दिल्ली के प्रसिद्ध धनिको मे सभामो, उत्सवी आदि में पहुंच कर अपने उपदेशो द्वारा थे किन्तु कोई सन्तान न होने से चिन्तित रहते थे। बालक उन्हे जैनधर्म का प्रेमी बनाने का यत्न करते थे। फिर भी चम्पतराय पर उनका स्नेह जन्म से था। लाला चन्द्रामल वे अपनी चर्या में सावधान रहते थे। वे लका भी गए ने उन्हे पुत्र की चाह में दुखी देखकर कहा भाई जैसा और वहाँ बौद्ध ग्रन्थो का अध्ययन कर जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान चम्पत मेरा वैसा ही तुम्हारा है तुम्ही इसे अपने पास नाम की पुस्तके भी लिखी थी। रखो, मै तुम्हारे मुख में सुखी रहूँगा । इनके पिता के भाई जैन पुरातत्त्व के सम्बन्ध मे भी उन्होने अग्रेजी रिपोर्टो मिट्ठनलाल और गुलाबसिंह के भी कोई पुत्र न था। अतः एपीग्राफिया इण्डिका, एव कर्नाटिका, इण्डियन एण्टीक्वरी चम्पतराय ७ वर्ष की अवस्था मे उनकी गोद चले गये। दि ग्रन्थो मे जैन पुरातत्त्व विषयक सामग्री का आकलन इसके बाद उनके रहन-सहन और बेष-भूषा में भी प्राचीन जैन स्मारकों द्वारा किया। यह कार्य भी कम परिवर्तन हो गया। और १३ वर्ष की अवस्था में इनका महत्व का नही है। अापने जैन साहित्य की महान् सेवा विवाह दिल्ली के रईस स्व. लाला प्यारेलाल जी (M. की है । मापके लिखे हुए २६ ग्रन्थ तो मौलिक है, २४-२५ L.A. Central) की पुत्री के साथ हो गया। मेट्रीक्यूट्रैक्ट है । और २१ टीका ग्रन्थ है । मास्टर बिहारील ल लेशन की परीक्षा चम्पतराय ने फर्स्ट डिवीजन मे पास जी चतन्य के वृहत् जैन शब्दार्णव नामक कोष का सम्पादन की। बाद को देहली के प्रसिद्ध सेट स्टीफिन कालेज मे किया है। वे प्रत्येक चतुर्मास मे एक पुस्तक तय्यार कर एफ. ए. तक अध्ययन किया। वे कुशाग्र बुद्धि तो थे ही। देते थे। और बहुत जल्दी लिखते थे। उनका भाषण प्रतः सन् १८९२ में अध्ययन के लिए इगलेण्ड चले गये । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और सन १८९७ में वैरिस्टर होकर आ गये। केशों के मुल्जिमों को फांसी के तस्ते पर चढ़ने नही दिया। विचार परिवर्तन प्रापकी इस सफलता के कारण कानूनी जान, भारी परिबिलायत से विद्या अध्ययन करके लौटने पर उन्मुक्त श्रम मे केशो को तैयार करना आदि थे। साथ मे जनियर वातावरण ने इनमें अजीव परिवर्तन ला दिया। शिक्षा वकीलों के साथ सद्व्यवहार भी शामिल है। इस कारण सहवास और वेष भूषा आदि के साथ चम्पतराय के लोग उन्हे श्रद्धावश 'अकिल जैन' के नाम से पुकारे विचारोमे ऐसा विचित्र परिवर्तन हुआ जिससे बाल्यकालमे इससे उन्हे व्यवसाय मे अच्छी सफलता मिली। प्राप्त धामिक शिक्षा के प्रभाव ने भी विलायत मे विदाई प्राकस्मिक परिवर्तन ले ली। वहाँ पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव उनके हृदय पटल पर गहरा अकित हो गया था और वे ईसाइयत की जहाँ धन-जन-सपर्क, पद एव प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई वहाँ रहन-सहन रीति-रिवाज और व्यवहार में भी वृद्धि ओर झुकते से नजर आये। खान-पान, प्राचार-विचार हुई। यह स्वप्न मे भी किसी का ख्याल न था कि वैरिस्टर सभी पाश्चात्य सभ्यता मे ढल गया। उनकी जीवन-धारा का बहाव विपरीत दिशा की ओर हो गया । लोक-परलोक साहब के जीवन मे छोटी मी घटना भी विरक्ति का कारण आदि के सम्बन्ध में भी उनका विचार बदल गया। उनके बन जायगी। वैरिस्टर साहब का गाढ स्नेह लाला रगीइस विचार परिवर्तन से धार्मिक जनता मे उथल-पुथल मच लाल जी से था, जो उनके ससुर बाबू प्यारेलाल जी गई। कुछ को उनकी विचारधारा से आश्चर्य और खेद वकील के लघु भ्राता थे। उनकी प्राकस्मिक मृत्यु से हुया। उनके इस अमाधारण परिवर्तन का परिणाम यह वैरिस्टर साहब के हृदय पटल पर भारी प्रतिक्रिया हुई । उनका मन, इन्द्रियो के सुख और गार्हस्थ से हट कर हा कि उनके कुटुम्बी और दिल्ली जैन समाज ने उन्हे नास्तिक समझ कर उनसे बातचीत करना भी छोड दिया। अशान्ति की ओर गया। पाश्चात्य शिक्षा और साहित्य कुछ को उनके इस परिवर्तन से बड़ी निराशा हई, वे भी उनकी इस प्रशान्ति को दूर न कर मके। अत. आपने चाहते थे कि चम्पत किसी तरह से सन्मार्ग में लग जाय, स्वामि रामतीर्थ के अग्रेजी में लिखे वेदान्त के ग्रन्थ पढे, किन्तु इस प्राकाक्षा की पूर्ति होना सुलभ नही था। इस उनसे पाप का मन कुछ प्रभावित नो हृया पर पूर्ण सन्तोष सम्बन्ध मे जो प्रयत्न हुए वे प्राशाजनक नही थे। वैरिस्टर न मिला । हाँ अन्य सम्प्रदायो के ग्रन्थो की जिज्ञासा जरूर हई । परिणाम स्वरूप विविध धर्मो के ग्रन्थ पड़े, तर्क ने साहब का ध्यान जहा ईसायियत की अोर भुकता, वहा वे २ भी कुछ सहयोग दिया, कुछ मित्रो का अनुरोध भी था। उन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते थे, पर तर्कणा के कारण बुद्धि मद्विवेक की ओर अग्रसर नहीं हो पाती थी। इधर किन्तु तर्क से जो शकाएँ उठती थीं उनका सन्तोषजनक समाधान न मिलता था। देहली, मुरादाबाद, अमृतसर आदि स्थानो में वैरिस्टरी का व्यवसाय किया परन्तु वह विशेष लाभप्रद न हुअा। सनू १९१३ मे सौभाग्य से आपका सपर्क बाब देवेन्द्रअन्त मे आप स्थायीरूप से हरदोई मे पहुँच गये। वहाँ पर कुमार जी आरा से हुआ। बाबू देवेन्द्र कुमार जी बड़े आपने अपनी प्रतिभा, श्रम एव सुन्दर व्यवहार के कारण उत्साही और लगनशील कार्यकर्ता थे। उन्होंने वैरिस्टर साधारण और अपरिचित वैरिस्टर से हरदोई के प्रमुख साहब को अन्य धर्म ग्रन्थों के समान ही जैनधर्म के कुछ वैरिस्टर बन गये । इतना ही नही किन्तु वार एशोसिएशन ग्रन्थो को पढने के लिए प्रेरित किया। तब आपने जैन के सभापति तथा अन्त मे अवध चीफ कोर्ट के फौजदारी सिद्धान्त के ग्रन्थों को पढना शुरू किया। उनके अध्ययन के प्रमुख वैरिस्टर हो गये। उस प्रान्त की जनता में यह से चित्त की वह अशान्ति दूर हुई, शंकाओं का सन्तोषधारणा घर कर गई कि-"फासी की सजा से अगर जनक उत्तर भी मिला तब उन्हे स्वयं अपनी भूल का परिकिसी अपराधी को बचाना है तो जैन वैरिस्टर का सहारा ज्ञान हुा । और जैनधर्म की सत्यता पर दृढ़ प्रास्था हुई। लें"। इस प्रसिद्धि से उनके पास जितने केश आये उन (क्रमशः) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन-लेखक डा० परिवारिक जीवन और विवाह खान-पान विषयक सामना, गोकुलचन्द जैन । प्रकाशक सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक रोग और उनकी परिचर्या, वस्त्र और वेषभूषा, पाभूषण समिति अमृतसर । प्रतिस्थान पाश्वनाथ विद्याश्रम शोध प्रसाधन सामग्री, शिक्षा और साहित्य,कृषि-वाणिज्य और सस्थान जैनाश्रम हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी-५, शस्त्रास्त्र इन सभी सास्कृतिक विषयो पर महत्व पूर्ण पृष्ठसख्या ४०४ मूल्य २० रुपया । प्रकाश डाला गया है, सास्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से यह प्रस्तुत ग्रन्थ एक शोध प्रबन्ध है जो हिन्दू विश्वविद्या- अध्ययन प्रत्यन्त उपयोगी है। तीसरा अध्ययन ललितकला लय से पी. एच. डी. की उपाधि के लिए अभी स्वीकृत और शिल्प विज्ञान से सम्बद्ध है। इसमे तत्कालीन गीत हुमा है विक्रम की १०वी ११वी शताब्दी के महान वाद्य नृत्य, चित्र कला और वास्तु शिल्पादि का विवेचन प्राचार्य सोमदेव का यशतिलक चम्पू भारतीय संस्कृत है। चौथे परिच्छेद मे १० वी ११ वी शताब्दी के वाङ्मय का एक अमूल्य रत्न है । सबसे पहले डा०हिन्द तत्कालीन भूगोल का चित्रण करते हुए यशस्तिलक मे की ने उस पर 'यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कलचर' नामक प्रागत जनपदो ( नगरो ) ग्रामो, बन पर्वत और नदियो विद्वत्ता पूर्ण प्रथ लिखा था जो जीवराज प्रथमाला प्रादि के स्थानादि का निदेश किया है। शोलापुर से प्रकाशित हो चुका है । इस प्रथ मे यशस्तिलक पाचवे अध्याय मे यशस्तिलक मे प्रागत प्राचीन, की धार्मिक और दार्शनिक दृष्टियो का मार्मिक विवेचन प्रसिद्ध और अप्रचलित ७९१ शब्दों की सूची प्रकारादि किया गया था। इस शोध प्रबन्ध मे सांस्कृतिक तत्त्वो का क्रम से स्थल निर्देश पूर्वक हिन्दी अर्थ के साथ दी गई है। बडो गहराई के माथ चिन्तन किया गया है इसके अध्ययन इस सूची से प्रथ की उपयोगिता अधिक बढ़ गई है। करने से पता लगता है कि इस प्रथ में भारतीय संस्कृति की यशस्तिलक के इस शब्द कोष का उपयोग भाषा को समृद्ध महत्व पूर्ण सामग्री भरी पड़ी है। जिसे विद्वान् लेखक ने बनाने में उपयुक्त हो सकता है। पश्चात् ६ चित्रफलकों उसकी गहराई में पैठकर उसे खोजा है और उसे बडी मे पुरातत्व से प्राप्त सामग्री के माधार पर उस काल मे सुन्दरता के साथ संजोकर महा निबन्ध के रूप में उपस्थित प्रचलित वस्त्रो, ग्राभूषणों, और वाद्यो आदि के चित्र दिये किया है । इस अध्ययन के पाच अध्याय है और एक-एक गये है जिनसे उनका रूप अधिक स्पष्ट हो गया है । अन्त अध्याय मे अनेक प्रवान्तर परिच्छेद भी हैं। पहला मे सहायक ग्रथसूची और शब्दानुक्रमणी भी दी है। इस अध्याय है, यशस्तिलक परिशीलन की पृष्ठ भूमि इसके तरह डा० गोकुलचन्द जी का यह महा निबन्ध यशस्तिलक अर्न्तगत तीन परिच्छेद है, एक मे यशस्तिलक का रचना के सास्कृतिक अध्ययन के लिये अत्यन्त उपयोगी है। काल यशस्तिलक का साहित्यिक और सांस्कृतिक स्वरूप प्राशा है विद्वानो मे इसका समादर होगा, डाक्टर साहब और यशस्तिलक पर अब तक हुए कार्य का लेखा-जोखा। इसके लिये वधाई के पात्र है। समाज को उनसे महत्व पूर्ण सोमदेव के जीवन और साहित्य पर प्रकाश डालते हुए कार्यों की बड़ी प्राशाएं हैं। •प्रशोघर की कथा वस्तु तथा यशोघर के लोक प्रिय चरित छपाई गैटप् और कागज वगैरह प्रथ के अनुरूप है। प्राधार पर रचे गए ग्रथो की तालिका दी गई है जिससे नका दी गई है जिससे लाइब्रेरियों और पुस्तकालयों में इस ग्रन्थ को मंगाकर ज्ञात होता है कि यशोधर की कथा ने कवियों को कितना अवश्य पढना चाहिये । अधिक भाकृष्ट किया है। जैन साहित्य का वृहद इतिहास भाग ३-लेखक डा. दूसरे अध्याय में यशस्तिलक कालीन सामाजिक जीवन. मोहनलाल मेहता अध्यक्ष पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसस्थान, की चर्चा है, इसके अन्र्तगत १२ परिच्छेद है, जिनमें हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, प्रकाशक-उक्त शोध तत्कालीन वर्ण व्यवस्था, समाज गठन, पाश्रम व्यवस्था संस्थान । मूल्य पन्द्रह रुपया। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त यह श्वेताम्बर जैन साहित्य के वृहद इतिहास का प्रस्तुत पुस्तक पूज्यपाद क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी तीसरा भाग है। इसमें प्रागमिक व्याख्या ग्रन्थों का इति के ईसरी (पार्श्व नाथ) मे नवम चातुर्मास के अवसर पर वृत्त दिया गया है । श्वेताम्बरीय प्रागम ग्रन्थो पर दिए गये मधुर प्रवचनों का सकलन है। वर्णी जी क्या थे नियुक्ति, भाष्य,णि और उनके टीका ग्रन्थ उपलब्ध और उनकी वाणी मे क्या रस था यह तो उनके सपर्क में हैं-मावश्यकादि दश नियुक्तियां, ६ भाष्य ग्रन्थ है। पाने वाले सभी जन जानते हैं । उनका एक-एक वाक्य और १२ चुणियां उपलब्ध हैं और इन पर प्राचार्य अंतर्भावना से प्रोत-प्रोत था। उनकी प्रात्मा प्रात्मरस से हरिभद्र, शीलांक, अभयदेव और मलयगिरि प्रादि की छलक रही थी। सब जीवों के प्रति उनकी कल्याण भावना विस्तृत टीकाएं हैं। इस सब विशाल साहित्य का सामूहिक कितनी उच्च थी, यह सब उनके पत्रोंके अवलोकनसे ज्ञात होती परिचय पृथक-पृथक प्रध्यायोंमें कराया गया है साधु और है। भाई कपूरचन्द जी ने वर्णीजी के मधुर भाषणो का सकसाध्वी सम्बन्धी भाषार-विचार का वर्णन विताम्बरीय लन कर उसे प्रकाशित कर वर्णीजी के प्रति अपनी कृतज्ञता साहित्य में विस्तार से मिलता है । साधु और साध्वीय व्यक्त की है। अन्त समय मे वर्णी जी ने कपूरचन्द जी को कल्प प्रकल्प का कथन विस्तार से बतलाया है, यद्यपि जो पत्र लिखा, जिसमे पर सम्बन्ध को त्यागने और अपनी उसमें वस्त्र और पात्र का समर्थन है फिर भी साध्वी, परिणनिको मध्यस्थ रखने को कहा गया है कितना मार्मिक साध्वाचार की प्रत्येक क्रिया के विधि-निषेध पर पर्याप्त है। मुमुक्षुत्रों को मगाकर इसे अवश्य पढना चाहिए। प्रकाश डाला है । डा० मेहता ने इस विशाल साहित्य ४. वीरवाणी स्मारिका-पं० चैन सुखदास जी डा० के परिचय को ५४८ पृष्ठो मे सक्षिप्त एव पाकर्षक शैली मे कस्तूरचन्द वख्शी ताराचन्द और पं. भवरलाल जी, सुन्दर कग से कराया है। उक्त साहित्य का परिचय प्राप्त न्याययोर्थ मणिहागे का रास्ता जयपुर। करने के लिये यह भाग बहुत ही उपयोगी है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन का व्यय एक ही परिवार ने वहन किया प्रस्तुत ग्रन्थ स्व० वख्शी केशरमान जी की स्मृति मे प्रकाशित किया गया है । जो वख्शी जी सम्बन्धी लेखों है । स्वर्गीय श्रीमुनिलाल जी के सुपुत्रो का यह साहित्यानुराग अनुकरणीय है ग्रन्थ की भाषा परिमाबित और सरल और उनके सस्मरणो से परिपूर्ण है। समय-समय पर हैं । इसके लिये लेखक महानुभाव धन्यवाद के पात्र है। लिए गये उनके चित्र भी प्रकट किये गये है जिनसे ज्ञात होता है कि वख्शी जी बडे कर्मठ व्यक्ति थे। उनकी ३. सुख की मलक-सकलयिता और प्रकाशक कपूर- भावना और सेवा कार्य महान था और वे अपनी धुन पौर चन वरैया एम० ए० लश्कर (ग्वालियर) मूल्य एक रुपया लगन के पक्के थे। उनकी स्मृति में स्मारिका का प्रका पचास पैसा। शन समुचित ही है। -परमानन्द शास्त्री (शेष पृ० ८६ का) ने तो जयघवला टीका भा० १, पृ० १०८) उक्त उसके नाम के अनुरूप जैन परम्परा में न्याय का प्रथम चरण से सम्बद्ध पूरा श्लोक ही उद्धृत किया था ग्रन्थ माना जाता है। किन्तु उसमें अनेक विप्रतिपत्तियां हैं। प्रकलंक देव ने तत्त्वार्थवातिक में आठवें मध्यावमि और वे अभी तक निर्मुल नहीं हुई है । अत: तत्सम्बन्धी सूत्र की व्याख्या में भी एक पद्य उद्धृत किया है * विवाद को न उठाकर इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं द्वात्रिंशतिका का तीसवां पद्य है । इस तरह सिजनी कि उसकी दिगम्बर परम्परा में कोई मान्यवानगीं मिलती। कुछ द्वाविंशति का भी छठी शताब्दी से ही विनम्बर इस तरह दिगमार परम्परा में पायसेन अपनी परम्परा में मान्य रही हैं। इन्हीं द्वात्रिंशतिकामों में न्याया- प्रख्यात दार्शनिक कृति सन्मति सूत्र पातितके द्वारा बतार भी है और सिद्धसेनकृत माना जाने के कारण उसे विशेष रूप से समावृत हुए हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सज्जनों को असमय में वियोग बाबू धूपचन्द जी का स्वर्गवास कानपुर निवासी लाला कपूरचन्द जी एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति है। उनके एकमात्र पुत्र बाबू घूर का हृदय गति रुक जाने से आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। बाबू धूपचन्द जी सरल स्वभावी और सेवाम थे। अब तो उन्होंने घर के कार्यों से प्राय मुक्ति सी लेकर सामाजिक और धार्मिक कार्यों में समय लगाना मक कर दिया था। किन्तु विधि को यह मजूर नही था, और कपूरचन्द जी की इस वृद्धावस्था में पिता पु। का विलगाव हो गया। घूपचन्द जैसा पुत्र बड़े भाग्य से मिलता है । उसका असमय मे वियोग दुर्भाग्य का ही मूचक है । इससे इनके हृदय को कितनी गहरी चोट पहुंची, इसका अनुमान करना कठिन है। लाला जी वीर सेवामन्दिर का कार्यकारिणी के सदस्य थे । हम लाला जी के तथा उनके परिवार के इस महान् दुःख मे अपनी समवेदना प्रकट करते हुए वीर प्रभु से प्रार्थना करते है कि लाला कपूरचन्दजी को इस वियोग जन्य दु.ख को सहन करने की क्षमता प्राप्त हो। ला० पन्नालाल जी का स्वर्गवास डिप्टीगज सदर बाजार के निवासी स्वर्गीय ला० नन्हे मल जी कसेरे के भ्राता लाला पन्नालाल जी का आकस्मिक वियोग हो गया। उनके निधन से जैन समाज की बडी क्षति हुई है। हम उनके परिवार के वेदना व्यक्त करते हुए दिवगत आत्मा के लिए सुख-शान्ति की कामना करते है। वीरसेवामन्दिर कार्यकारिणी के पदाधिकारियों __ और सदस्यों का चुनाव १६ अगस्त को रात्रि के साढ़े सात बजे वीर सेवामन्दिर की जनरल मीटिग श्रीमान साह शान्तिप्रसाद जी की अध्यक्षता में कार्यकारिणी के सदस्यो और पदाधिकारियो का चुनाव निम्न प्रकार हमा।। पदाधिकारी : १०. ला० मक्खनलाल जी ठेकेदार ११. साहू शान्तिप्रसाद जी अध्यक्ष ११. ला० प्रेमचन्द जी जनावाच १२. ला० श्यामलाल जी ठेकेदार उपाध्यक्ष १२. बा. देवकुमार जी २३. ला० प्रेमचन्द जी कश्मीर वाले प्र. मंत्री १३ ल० महेन्द्रसेन जी। • ४. ला० भगतराम जी सं० मंत्री १४. ला० शान्तिप्रसाद जी जैन बुक एजेन्सी . ५. ला० नन्हेमल जी कोषाध्यक्ष १५. श्री एस. पी. जैन ६. बा. नरेन्द्रनाय जी प्राडीटर १६. पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार कार्यकारिणी के सदस्य : १७. डा. ए. एन. उपाध्ये ७. बाबू नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १८. ला० पन्नालाल जी अग्रवाल ८. राय सा० उल्फतराय जी १६. श्री यशपाल जी ९. ला. पारसदास जी मोटरवाले २०. श्री मती जयवन्ती देवी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १त. वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से मलकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए.नि. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोंके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५.०० (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सून्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २-०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १-५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हना था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... ७५ (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (8) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द। ... ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह. उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४.०० (१२) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्यास्या से घुक्त। ... २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ '१६ पैसे, (१६) समन्तभद्र विचार-दीपिका १९ पैसे, (१७) महावीर पूजा २५ (१८) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (समाप्त) (१६) अध्यात्म रहस्य-पं० प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० (२०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा० २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । "५५ ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.५० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (२१) न्याय-दीपिका-प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु० ७.०० (२२) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन ५-०० (२३) कसायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परेशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।। ... ... २००० (२४) Reality मा. पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३००१. पक्की जिल्द ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित। २५ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात द्वै मासिक जून १९६८ अनेकान्त *******kkkkkkkkkkkkkkkkkkk *********XXXXXXXXXXXXX*** P खण्डगिरी पर विराजमान प्रादि जिन को प्रशान्त मूर्ति समन्तभद्राश्रम (वोर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय विषय-सूची वीर-सेवा मन्दिर को सहायता क्रमांक १. स्वयंभू स्तुति-मुनि पद्मनन्दि दानवीर-थावक शिरोमणी श्रीमान् साहू शान्तिप्रसाद २. दर्शन और विज्ञान के परिपेक्ष्य मे स्याद्वाद | जी ने इस वर्ष पर्युपण पर्व दिल्ली मे मनाया । जिन पूजन, और सापेक्षवाद-मुनि श्री नगगज स्वाध्याय और तत्त्वचर्चा मे अपना समय व्यतीत किया। ३ अपनत्व-मुनि कन्हैयालाल साह जी जहां उद्योगपति है वहाँ वे दानी और विवेकी भी ४. मथुरा के सेट लक्ष्मीचन्द सम्बन्धी विशेष है। वर्तमान जैन समाज में उनके समान विचारक, विवेकजानकारी-अगरचन्द नाहटा ११० शील और ममदार व्यक्ति अन्य नही दिखाई देता। वे ५. जैन ग्रन्थों में राष्ट्रकूटो का इतिहास तीर्थभक्त है, जैन तीर्थों के सरक्षण और सवर्द्धन मे क्रिया. गमवल्लभ सोमाणी शील है। उनकी पत्नी श्रीमती रमागनी भी धार्मिक और दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक सामाजिक कार्यों में बराबर भाग लेती रहती है। माहजी अध्ययन–१० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री ११६ ने दिल्ली की प्रत्येक जैन संस्थानों की एक हजार एक और दिल्ली के सभी जैन मन्दिरों को एक सौ एक रुपया कवि छीहल-प० परमानन्द शास्त्री १२६ प्रदान किये है। बीरसेवामन्दिर को भी एक हजार एक ८. कुलपाक के माणिक स्वामी-प.के. भुजबली सधन्यवाद प्राप्त हुआ है । साहू साहष वीरसेवामन्दिर के शास्त्री स्थायी अध्यक्ष है। आशा है वीर सेवामन्दिर पर उनका १. कवि टेकचन्द रचित श्रेणिक चरित और यह वरद हस्त बराबर बना रहेगा। जिससे सस्था अपने पुण्याश्रव कथाकोप--श्री अगरचन्द नाहटा १३४ उद्देश्यो की पूर्ति करने में समर्थ हो सके । १०. महावीर वाणी-कवि दौलतराम व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर' ११. सीया चरिउ : एक अध्ययन-परमानन्द २१ दरियागंज, दिल्ली शास्त्री १३७ १२. साहित्य-सगोष्ठी विवरण १४४ सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा०प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री अनेकान्त के ग्राहकों से अनेकान्त के जिन ग्राहको का वार्षिक मूल्य अभी तक भी प्राप्त नही हया। वे कृपा कर अपना मूल्य ६) रुपया मनीआर्डर से भेज देवें। अन्यथा अगला अक वी. पी. से भेजा जावेगा छुडाकर अनुगृहीत करे। व्यवस्थापक : 'अनेकान्त' २१, दरियागंज, दिल्ली। अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पारक भण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त | अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् प्रहम् अनकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २१ किरण ३ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६४, वि० सं० २०२५ । अगस्त सन् १९६८ स्वयंभूस्तुति स्वयंभुवायेन समुद्धृतं जगज्जडत्वकूपे पतितं प्रमादतः । परात्मतत्त्वप्रतिपादनोल्लसद्वचोगुणरादिजिनः स सेव्यताम् ॥१॥ भवारिरेको न परोऽस्ति देहिना सहन रत्नत्रयमेक एव हि। स दुर्जयो येन जितस्तदाश्रयात्ततोऽजितान्मे जिनतोऽस्तु सत्सुखम् ॥२॥ -मुनि श्री पचनन्दि प्रर्थ-स्वयम्भू अर्थात् स्वयं ही प्रबोध को प्राप्त हुए जिस आदि ( ऋषभ ) जिनेन्द्र ने प्रमाद के वश होकर अज्ञानता रूप कुए में गिरे हुए जगत् के प्राणियों का पर-तत्त्व और आत्मतत्त्व (अथवा उत्कृष्ट आत्मतत्त्व) के उपदेशो में शोभायमान वचनरूप गुणो से उद्धार किया है उस आदि जिनेन्द्र की आराधना करना चाहिए । भावार्थ-उक्त श्लोक में प्रयुक्त 'गुण' शब्द के दो अर्थ है-हितकारकत्व आदि गुण तथा रस्सी । उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि प्रमावधानी से कुएँ में गिर जाता है तो इतर दयालु मनुष्य कुएं में रस्सियों को डाल कर उनके सहारे से उसे बाहर निकाल लेने है। इसी प्रकार भगवान् प्रादि जिनेन्द्र जो बहुत से प्राणी अज्ञानता के वश होकर धर्म के मार्ग से विमुख होते हुए कष्ट भोग रहे थे उनका हितोपदेश के द्वारा उद्धार किया था-उन्हे मोक्षमार्ग में लगाया था। उन्होने उनको ऐसे वचनों द्वारा पदार्थ का स्वरूप समझाया था जो हितकारक होते हुए उन्हे मनोहर भी प्रतीत होते थे । 'हित मनोहारि च दुर्लभ वचः' इस उक्ति के अनुसार यह सर्वसाधारण को सुलभ नही है ॥१॥ प्राणियो का संसार ही एक उत्कृष्ट शत्रु तथा रत्नत्रय ही एक उत्कृष्ट मित्र है, इनके सिवाय दूसरा कोई शत्रु अथवा मित्र नहीं है । जिसने उस रत्नत्रयरूप मित्र के अवलम्बन से उस दुर्जय ससाररूप शत्रु को जीत लिया है उस अजित जिनेन्द्र से मुझे समीचीन सुख प्राप्त होवे ।।२।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान के परिपेक्ष्य में : स्याद्वाद और सापेक्षवाद अणुव्रत परामर्शक मुनि श्री नगराज स्यावाद भारतीय दर्शनो को एक सयोजक कडी और बाल ही बच पाया व देश काल की धारणाओं ने भी एक जैन दर्शन का हृदय है। इसके बीज प्राज से सहस्रों वर्ष नया रूप ग्रहण किया। अस्तु; बहुत सारे विरोधो के पूर्व सभापित जैन आगमो में उत्पाद्, व्यय, ध्रौव्य, स्या- पश्चात् अपनी गणित सिद्धता के कारण आज वह अपेक्षादस्ति स्यान्नास्ति, द्रव्य, गुण, पर्याय, सप्त-नय आदि वाद निविवादतया एक नया आविष्कार मान लिया गया विविध रूपो मे बिखरे पड़े है। सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि है। इस प्रकार दार्शनिक क्षेत्र में समुद्भूत स्यावाद और जैन दार्शनिको ने सप्तभगी आदि के रूप में ताकिक वैज्ञानिक जगत् मे नवोदित सापेक्षवाद का तुलनात्मक पद्धति से स्याद्वाद को एक व्यवस्थित रूप दिया। तद- विवेचन प्रस्तुत निबन्ध का विषय है। नन्तर अनेकों प्राचार्यों ने इस पर अगाध वाङ्मय रचा नाम साम्य: जो आज भी उसके गौरव का परिचय देता है विगत १५०० वर्षों मे स्याद्वाद दार्शनिक जगत् का एक सजीव स्याद् और वाद दो शब्द मिलकर स्याद्वाद की संघपहलू रहा और आज भी है। टना हुई है। स्यात् कथचित् का पर्यायवाची संस्कृत भाषा सापेक्षवाद वैज्ञानिक जगत् मे बोसवी सदी की एक का एक अव्यय है। इसका अर्थ है "किसी प्रकार से महान् देन समझा जाता है। इसके आविष्कर्ता सुप्रसिद्ध किसी अपेक्षा से' । वस्तु तत्त्व निर्णय मे जो वाद अपेक्षा वैज्ञानिक प्रो० अलबर्त आईस्टीन हैं जो पाश्चात्य देशों में की प्रधानता पर आधारित है, वह स्याद्वाद है । यह इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति है। सर्वसम्मति से संसार के सबसे अधिक दिमागी पुरुष माने गये है। सन १९०५ में आईस्टीन ने 'सीमित सापेक्षता' सापेक्षवाद (Theory of Relativity) का हिन्दी शीर्षक एक निबन्ध लिखा जो 'भौतिक शास्त्र का वर्ष पत्र' अनुवाद है । वैसे यदि हम इसका अक्षरश. अनुवाद करते नामक जर्मनी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इस निबन्ध ने है तो वह होता है 'अपेक्षा का सिद्धान्त' पर विश्व की वैज्ञानिक जगत् में अजीब हलचल मचा दी थी। सन् रूपरेखा, विज्ञान हस्तामलक प्रभति हिन्दी ग्रन्थों में इसे १९१६ के बाद उन्होंने अपने सिद्धान्त को व्यापक रूप में सापेक्षतावाद या सापेक्षवाद ही कहा गया है। तत्त्वतः. दिया, जिसका नाम था-'असीम सापेक्षता' । सन् १९२१ सापेक्षवाद का भी वही शाब्दिक अर्थ है जो स्याद्वाद का। मे उन्हे इसी खोज के उपलक्ष मे भौतिक विज्ञान का 'प्रपेक्षतया सहित सापेक्ष' अर्थात् अपेक्षा करके सहित जो 'नोबेल' पुरस्कार मिला। सचमुच ही प्राईस्टीन का है वह सापेक्ष है । अतः वह अपेक्षा सहित वाद सापेक्षवाद अपेक्षावाद विज्ञान के शान्त समुद्र मे एक ज्वर था। है। इस प्रकार यदि स्याद्वाद को सापेक्षवाद व सापेक्षवाद उसने विज्ञान की बहुत सी बद्धमूल धारणाओं पर प्रहार को स्याद्वाद कहा जाय तो शाब्दिक दृष्टि से कोई आपत्ति कर एक नया मानदण्ड स्थापित किया। अपेक्षावाद के नहीं उठती। यही तो कारण है कि हिन्दी लेखको ने जैसे मान्यता में आते ही न्यूटन के काल से धाक जमाकर बैठे थियोरी ग्राफ रिलेटिविटी का अनुवाद सापेक्षवाद (स्याहए गुरुत्वाकर्षण (Law of Gravitation) का सिहासन द्वाद) किया वैसे ही सर राधाकृष्णन् प्रभति अंग्रेजी लेखकों डोल उठा । 'ईथर' (Ether) नाम शेष होने से बाल- ने अपने ग्रन्थों में स्याद्वाद का अनुवाद (Theory of Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्याद्वाद और सापेक्षवाद ६९ Relativity)' किया। इस प्रकार दो विभिन्न क्षेत्रों से तोड़ रहा है। दूसरे को हर्ष हुमा कि यह मुकुट तैयार प्रारम्भ हुए दो सिद्धान्तों का तथा प्रकार का नाम-साम्य कर रहा है। तीसरा व्यक्ति मध्यस्थ भावना मे रहा; एक महान् कुतूहल तथा जिज्ञासा का विषय है। क्योंकि उसे तो सोने से काम था। तात्पर्य यह हुआ एक ही स्वर्ण मे उसी समय एक विनाश देख रहा है, सहज भी, कठिन भी: एक उत्पत्ति देख रहा है और एक ध्रुवता देख रहा है। दोनों ही सिद्धान्त अपने-अपने क्षेत्र में सहज भी माने इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से त्रिगुणात्मक गये हैं और कठिन भी। स्याद्वाद को ही लें-इसकी है।" प्राचार्यों ने और अधिक सरल करते हुए कहा-- जटिलता विश्व-प्रसिद्ध है। जहाँ जैनेतर दिग्गज विद्वानों "वही गोरस दूध रूप से नष्ट हुआ, दधि रूप मे उत्पन्न ने इसकी समालोचना के लिए कलम उठाई वहाँ उनकी हमा, गोरस रूप में स्थिर रहा। जो पयोव्रती है वह समालोचनाएं स्वयं बोल पडी हैं-उन्होंने स्याद्वाद को दधि को नही खाता, दधि व्रती पय नही पीता और गोरस समझा ही नहीं है। प्रयाग विश्वविद्यालय के उपकुलपति त्यागी दोनो को नही खाता. पीता'।" ये विरुद्ध धर्मों की महामहोपाध्याय डा. गंगानाथझा एम० ए०, डी० लिट्, सकारण स्थितियाँ है। इसलिए वस्तु मे नाना अपेक्षामो एल० एल० डी० लिखते है-"जब से मैंने शकराचार्य से नाना विरोधी धर्म रहते ही है। इसी प्रकार जब कभी द्वारा किया गया सिद्धान्त का खण्डन पढा है तब से मुझे राह चलते आदमी ने भी पूछ लिया कि आपका स्याद्वाद विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे क्या है तो प्राचार्यों ने कनिष्ठा व अनामिका सामने करते वेदान्त के प्राचार्यों ने नही समझा है । और जो कुछ अब हुए पूछा'-दोनो मे बड़ी कौन-सी है ? उत्तर मिलातक मैं जैनधर्म को जान सका हूँ, उससे मुझे यह दृढ अनामिका बड़ी है । कनिष्ठा को समेट कर और मध्यमा विश्वास हुआ है कि यदि वे (शंकराचार्य) जैनधर्म को फैला कर पूछा-दोनो अगुलियों में छोटी कौन सी है ? उसके असली ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हे उत्तर मिला-अनामिका । आचार्यों ने कहा-यही हमारा जैनधर्म का विरोध करने को कोई बात नही मिलती।" स्याद्वाद है जो तुम एक ही अगुली को बडी भी कहते हो __ स्याद्वाद के विषय मे उसकी जटिलता के कारण और छोटी भी। यह स्यादाद की सहजगम्यता है। ऐसे विवेचनो की बहुलता यत्र तत्र दीख पड़ती है। इस सापेक्षवाद की भी इस दिशा मे ठीक यही गति है। जटिलता को भी प्राचार्यों ने कही-कही इतना सहज बना कठिन तो वह इतना है कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी इसको दिया है कि जिससे सर्वसाधारण भी स्याद्वाद के हृदय तक पूर्णतया समझने व समझाने में चक्कर खा जाते है । कहा पहुँच सकते है। जब प्राचार्यों के सामने यह प्रश्न पाया जाता है कि यह सिद्धान्त गणित की गुत्थियों से इतना कि एक ही वस्तु मे उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता जैसे भरा है कि इसे अब तक ससार भर मे कुछ सौ प्रादमी परस्पर विरोधी धर्म कैसे ठहर सकते है तो स्यावादी १. घटमौलि सुवणार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् । प्राचार्यों ने कहा- “एक स्वर्णकार स्वर्ण-कलश तोडकर । शोक प्रमोद माध्यस्थ जनो याति सहेतुकम् ॥ स्वर्ण-मुकुट बना रहा था, उसके पास तीन ग्राहक आये । -शास्त्र वार्ता समुच्चय एक को स्वर्ण-घट चाहिए था, दूसरे को स्वर्ण-मुकुट और २. उत्पन्न दधिभावेन नष्ट दुग्धतया पयः । तीसरे को केवल सोना । स्वर्णकार की प्रवृत्ति को गोरसत्वात् स्थिर जानन् स्याद्वादद्विड् जनोऽपिक. ॥१॥ देखकर पहले को दुःख हा कि यह स्वर्ण-कलश को पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः । १. इण्डियन फिलोसोफी, पृ० ३०५ । अगोरसवतो नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ॥२॥ २. जैन-दर्शन, १६ सितम्बर १९३४ । ३. यथा अनामिकायाः कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घत्वं, ३. उत्पाद् व्यय प्रौव्य युक्त सत् । मध्यमा मधिकृत्य हृस्वत्वम् । -श्रीभिक्षु न्याय कणिका -प्रज्ञासूत्र वृत्तिः पद भाषा ११ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनेकान्त ही पर्याप्त रूप से जान पाये है। सापेक्षवाद की जटिलता बतख । उमने कहा-बतख क्या होता है ? मैने कहाके बहुत से उदाहरणो मे एक उदाहरण यह भी है जो एक पक्षी जिसकी गईन मोडदार होती है। उसने कहासाधारणतया बुद्धिगम्य भी नही हो रहा है कि यदि दो मोड क्या होती है ? मैंने अपनी बांह को मोड़ कर इस मनुष्यों की भेट हो तो उन दोनो के बीच का अन्तर एक प्रकार से टेढी करके दिखाया-मोडदार इसे कहते है। ही (समान ही) होना चाहिए-यह एक दृष्टिकोण मे तब उमने कहा-अच्छा अब मै समझ गया दूध क्या है ? सत्य है, एक से नहीं। यह मब इस बात पर निर्भर करता इस कहानी को मुन लेने के बाद उस भद्र महिला ने है कि वे दोनों घर पर ही रहे हों या उनमे से कोई एक कहा-मुझे सापेक्षवाद क्या है अब यह जानने की कोई विश्व के किमी दूर भाग की यात्रा करके इमी बीच में दिलचस्पी नही रही है।" प्राया हो। सापेक्षवाद की कठिनता के इन कुछ उदाहरणो की सापेक्षवाद की जटिलता को प्रो० मैक्सवोर्न ने अत्यन्त नगह सरलता के उदाहरणों की भी कमी नही है पर यहाँ विनोदपूर्ण ढंग से समभाया है। वे लिखते है-"मेग मात्र एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। सापेक्षवाद के एक मित्र एक बार किसी डिनर पार्टी में गया। उसके आचार्य प्रो. अलबर्ट माईस्टीन से उनकी पत्नी ने कहापास बैठी एक महिला ने कहा-प्राध्यापक महोदय ' "मैं मापेक्षवाद कमा है कैमे बनलाऊँ ?" माईस्टीन ने क्या आप मुझे थोडे शब्दो मे बताने का कष्ट करेगे कि एक दृष्टान्न में जवाब दिया-'जब एक मनुष्य एक वास्तव मे मापेक्षवाद है क्या ? उसने विस्मृत मुद्रा मे मन्दर लडकी से बात करता है तो उसे एक घण्टा एक उत्तर दिया-क्या तुम यह चाहोगी उससे पूर्व मैं तुम्हे मिनट जैमा लगता है । उसे ही एक गर्म चूल्हे पर बैठने एक कहानी सुना हूँ। मैं एक बार अपने फासीसी मित्र दोनो उमे एक मिनट एक घण्टे के बराबर लगने लगेगा के साथ सैर के लिए गया। चलते-चलते हम दोनो प्यासे -यही मापेक्षवाद है।" इसीलिए कहा गया है कि स्याहो गये । इतने मे हम एक खेत पर पाये। मैंने अपने हाद और सापेक्षवाद कठिन भी है और सहज भी। मित्र से कहा-यहाँ हमे कुछ दूध खरीद लेना चाहिए। व्यावहारिक सत्य व तात्त्विक सत्य उमने कहा-दूध क्या होता है ? मैने कहा-तुम नही म्याद्वाद मे नयो की बहुमुखी विवक्षा है, पर यहाँ जानते, पतला और धोला धोला...."। उसने कहा केवल व्यवहारनय व निश्चय-नय को ही लेते है। इनकी घोला क्या होता है ? मैने कहा-धोला होता है जैसे व्याख्या करते हुए प्राचार्यों ने कहा है'-"निश्चय-नय "It is so mathematical that only a few वस्तु के तात्त्विक (वास्तविक) अर्थ का प्रतिपादन करता hundred men in the world are competent है और व्यवहार-नय केवल लोक-व्यवहार का।" एक बार to discuss it." गौतम स्वामी ने भगवान् श्री महावीर से पूछा-"भग-Cosmology Old and New, p 127. वन् ! फणित-प्रवाही गुण मे कितने वर्ण, गन्ध, रस व २. If two people meet tuice they must have lived the some time between the two 3. Cosmology Old and New, p. 197. meetings' is true from one point of view ४. तत्त्वार्थ निश्चयो वक्ति व्यवहारश्च जनोदितम् । and not from another. It all depends -द्रव्यानुयोगतर्कणा घ२३ । upon whether both of them have been ५. फाणियगुलेण भन्ते ! कइ वण्णे कइ गन्धे, कइ रसे, stey.at-home or one has travelled tea कई फामे पण्णत्ते ? गोयमा ! एत्यण दो नया भवन्ति distant part of the Universal and them त निच्छइएणएय। वावहारियणयस्स । वावहारियणस्स came back in the interim. गोड्डे फाणियगुले, निच्छइयणयस्स पंचवण्णे, दुगन्धे, -Cosmology Old and New, p. 206. पचरसे, प्रठ फासे। -भगवती, १८-६ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्याहाद और सापेक्षवाद १०१ म्पर्श होते हैं ?" भगवान् महावीर ने कहा-"मैं इन सत्य को समझाया गया है उसी प्रकार प्राईस्टीन ने भी प्रश्नों का उत्तर दो नयों मे देता है। व्यवहार-नय की अपने सापेक्षवाद में ऐसे उदाहरणो का प्रयोग किया है। अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है पर निश्चय-नय की यहाँ बताया गया है-जिस किमी घटना के बारे में हम अपेक्षा से उसमे ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रम व ८ स्पर्श है।" कहते है कि यह घटना पाज या प्रभी हुई; हो सकता है अगला प्रश्न गौतम म्वामी ने किया-"प्रभो । भ्रमर मे कि वह घटना सहस्रो वर्ष पूर्व हुई हो। जैसे-क-दूसरे कितने वर्ण है ?" उत्तर मिला-"ध्यवहार-नय मे तो से लाखो प्रकाश वर्ष की दूरी पर दो चक्करदार निहारिभ्रमर काला है अर्थात् एक वर्ण वाला है पर निश्चय-नय कामो (क, ख) में बिस्फोट हुए और वहाँ दो नये तारे की अपेक्षा से उसमे श्वेत, कृष्ण, नील आदि पाच वणं उत्पन्न हुए। इन निहारिकामों में उपस्थित दर्शकों के है।" इसी प्रकार राख' और शुक-पिच्छि' के लिए भग- लिए अपने यहाँ की घटना तुरन्त हुई मालूम होगी, किन्त वान महावीर ने कहा-"व्यवहार-नय की अपेक्षा से यह दोनो के बीच लाखों प्रकाश वर्षों की दूरी होने से 'क' का और नील है पर निश्चय-नय की अपेक्षा से पाच वणं, दर्शक 'ख' की घटना को एक लाख वर्ष बाद घटित हुई दो गध, पाच रम व आठ स्पर्श वाले है।” तात्पर्य यह कहेगा जब कि दूमग दर्शक अपनी घटनामो को तुरन्त हुमा कि वस्तु का इन्द्रिय ग्राह्य स्वरूप कुछ और होता है और 'क' की घटना को एक लाख वर्ष बाद घटित होने और वास्तविक स्वरूप कुछ और। हम बाह्य स्वरूप को वाली बतायेगा। इस प्रकार विस्फोट का परमार्थ काल देखते है जो इन्द्रिय ग्राह्य है। सर्वज्ञ बाह्य ओर प्रान्तरिक नही, मापेक्षकान ही बताया जा सकता है।" (नैश्चयिक) दोनो स्वरूपो को यथावत् जानते है व देखते उदाहरण को पुष्ट करने के लिए तत्सम्बन्धी वैज्ञाहै । सापेक्षवाद के अधिष्ठाता प्रो० अलबर्ट आइंस्टीन भी। निक मान्यता को स्पष्ट करना होगा। माधुनिक विज्ञान यही कहते है-"We can only know the relative के मतानुमार प्रकाश एक संकिण्ड में १,८६,००० मील truth, the Absolute truth is known only to गति करता है। उसी गति से जितनी दूर वह एक वर्ष the Universal observer."" में जाता है, उस दूरी को एक प्रकाश वर्ष कहते है। ___ "हम केवल प्रापेक्षिक मन्य को ही जान सकते है, ब्रह्माण्ड में एक दूसरे से लाखो प्रकाश वर्ष दूरी पर मम्पूर्ण सत्य तो मर्वज्ञ के द्वारा ही जान है।" अनेको तारिका पुज है। एक निहारिका में होने वाला स्यादाद मे जिस प्रकार गुड, भ्रमर, राख, शुक प्रकाशात्मक विस्फोट एक लाग्य प्रकाश वर्ष दूर स्थित पिच्छि आदि के उदाहरणो से परमार्थ सत्य व व्यवहार अन्य निहारिकामो मे या हमारी पृथ्वी पर यदि हम १. भमरेण भन्ने । कइवण्णे पुच्छा? गोयमा । एत्थण उमसे उतनी ही दूर है तो एक लाख वर्ष बाद मे दीखेगा; दो नया भवति तजहा-णिच्छइयणएय, वावहारि क्योकि प्रकाश को हम तक पहुंचने मे १ लाख वर्ष यणयस्स कालए भमरे, णिच्छइयणयस्म पचवणे जाव लगंगे । किन्तु हमे ऐसे लगेगा कि यह घटना अभी ही हो प्रठ फासे । -भगवती, १८-६ रही है जिसे हम देख रहे है। मागश यह हुआ कि २. छारियाण भन्ने । पुच्छा ? गौयमा। एस्थण दी मनुप्य बहुत अशो में व्यावहारिक मत्य को ही अपनाकर नया भवन्ति नजहा-णिच्छवयणाय, वावहारियण चलता है। यदि उस निहारिका का कोई प्राणी हमसे एय। वावहारियणयम्स लुक्खा छाग्यिा, णच्छइयस्स मिले व उस घटना के बारे में हमसे बात करे तो हमारा पंचवण्णे जाव अठफासे पण्णत्ते। -भगवती १८-६ और उमका निर्णय एक-दूसरे से उल्टा होगा; पर अपने३. मुयपिक्छेण भन्ते ! कइवणे पण्णते? एव चेव णवरं अपने क्षेत्र की अपेक्षा से दोनो निर्णय सही होंगे। बावहारियणयस्स णीलए मृअपिच्छे, णंच्छइयस्स स्याद्वाद-शास्त्र की मप्त भगी भी प्रत्येक वस्तु को णयस्स से सन्त चेव। -भगवती १८-६ . 8. Cosmology Old and New, p. 201. ३. विश्व की रूपरेखा, अध्याय १, पृ०६२-६३ प्र०स. । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ मनकान्त स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षासे 'अस्ति'(है)स्वीकार (Hidden reserves) की दृष्टि से जितनी अधिक सच्ची करती है और परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नास्ति नहीं है। कम्पनी होगी, वह उतना ही अधिक होगा।" स्वीकार करती है । जैसे हम एक घट के विषय मे कहते स्याद्वाद के क्षेत्र मे भगवान् महावीर ने सैकड़ों प्रश्नों हैं कि यह मिट्टी का घड़ा है, यह राजस्थान का बना है, का उत्तर अपेक्षामो के माधार पर विभिन्न प्रकार से यह ग्रीष्म ऋतु मे बना हुआ है, यह गौर वर्ण अमुक नाम दिया । सृष्टि के मूलभूत सिद्धान्तों को भी उन्होंने सापेक्ष का है। उसी समय उस घट के विषय में दूसरा व्यक्ति बताया। परमाणु नित्य (शास्वत) है या अनित्य-इस कहता है-यह स्वर्ण का घट नही है, यह विदर्भ प्रान्त प्रश्न पर उन्होंने बताया-"वह' नित्य भी है और अनित्य का घट नहीं है, यह हेमन्तकाल का घट नही है, यह भी। द्रव्यत्व की अपेक्षा से वह नित्य है। वर्ण पर्याय श्याम वर्ण व अमुक प्रकार का घट नहीं है। यहाँ 'है' (बाह्य स्वरूप) आदि की अपेक्षा से अनित्य है, प्रतिक्षण व 'नहीं है देश-काल सापेक्ष है । स्याद्वाद की तरह सापेक्ष- परिवर्तनशील है।" यही उत्तर भगवान् महावीर ने बाद मे भी तथाप्रकार के सापेक्ष उदाहरणो की बहुलता आत्मा के विषय मे दिया। प्राकृतिक स्थितियो के विषय है जो नयवाद व सप्त भगी द्वारा समर्थन पाते है। प्रो० मे आईस्टीन भी अपेक्षा-प्रधान बात कहते है । सापेक्षवाद एडिंगटन दिशा की सापेक्ष स्थितियो पर प्रकाश डालते के पहले सूत्र में उन्होने यह कहा-"प्रकृति ऐसी है कि हुये लिखते हैं-"सापेक्ष स्थिति को समझने के लिये किसी भी प्रयोग के द्वारा चाहे वह कैसा भी क्यो न हो, सबसे सहज उदाहरण किसी पदार्थ की दिशा का है। वास्तविक गति का निर्णय असम्भव ही है।" ऐसा क्यो? एडिनवर्ग की अपेक्षा से केम्ब्रिज की एक दिशा है और इसका उत्तर सर जेम्स जीन्स के शब्दो मे पढिये-"गति लन्दन की अपेक्षा से एक अन्य दिशा है। इसी तरह और और स्थिति प्रापेक्षिक धर्म है। एक जहाज जो स्थिर है और अपेक्षामों से । हम यह कभी नही सोचते कि उसकी बह पृथ्वी की अपेक्षा से ही स्थिर है लेकिन पृथ्वी सूर्य वास्तविक दिश) क्या है ?" उसी पुस्तक में प्रागे वे सत्य की अपेक्षा से गति में है और जहाज भी इसके साथ । और वासविक सत्य को सुस्पष्ट करते हुये लिखते है- यदि पृथ्वी भी सूर्य के चारो ओर घूमने से रुक जाय तो "तुम किसी कम्पनी के आय-व्यय का चिट्ठा लो जो गणि- जहाज सूर्य की अपेक्षा स्थिर हो जायेगा। किन्तु दोनो तज्ञ के द्वारा परीक्षित है। तुम कहोगे यह सत्य है पर - १. परमाणु पोग्गलेण भन्ने ! सासए, प्रसासए? गोयमा । वह वास्तव मे सत्य क्या है ? मै यह किसी धूर्त कम्पनी सिय सासए सिय प्रसासए । से कण ठेण भन्ते ! के लिये नही कह रहा हूँ पर सच्ची कम्पनी के चिट्ठ मे एव बुच्चइ मिय सासए, सिय असासए ? गोयमा । भी वस्तुओं की उस क्षण की कीमत और उसकी अकित दम्बठयाए सासए वण्ण पचमेहि जाव फासवज्जवेहि कीमत मे महान् अन्तर होगा; अत: हीडन रिजर्व प्रसासए से तेण ठेण जाब सिय सासए । 8. A more familiar example of a relative -भगवती शतक १४-३४ quantity is direction' of an object. There २. जीवाण भन्ने । कि सासया प्रसासया ? गोयमा ! is a direction of Cambridge relative to जीव सिय सासया सिय प्रसासया । से केण ठेण Edinburgh and another direction relative भने । एव बुच्चइ जीवा सिय सासया सिय प्रसto London, and so on It never occurs मया । गोयमा? दबठयाए सासया भावठयाए to us to think of this as discrepancy or प्रसासवा। -भगतवी श० ७, उ०२ to suppose that there must be some di- Nature is such that it is impossible to rection of Cambridge (at present undis- determine absolute motion by any expericoverable) which is obsolute. ment whatever. The Nature of physical World, p. 27. ---Mysterious Univers, p. 78 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्यावाद मौर सापेक्षवाद १०३ तब भी इर्द-गिर्द के तारों की अपेक्षा गति करते रहेगे। बात सापेक्षवाद में भी पद पद पर मिलती है। जिस सूर्य भी यदि गति-शून्य हो जाये तो भी ग्रह दूरस्थ निहा- पदार्थ के विषय मे साधारणतया हम कहते है कि यह रिकाओं की अपेक्षा से गतिशील ही मिलेगे। आकाश में १५४ पौण्ड का है। सापेक्षवाद कहता है यह है भी और इस प्रकार यदि हम आगे से आगे जायेगे तो हमें पूर्ण नही भी । क्योकि भूमध्य रेखा पर यह १५४ पोण्ड है पर स्थिति जैसी कोई वस्तु नहीं मिलेगी।" तात्पर्य यह हुआ दक्षिणी या उत्तरी ध्रुव पर यह १५५ पौण्ड है। गति कि सापेक्षवाद के अनुसार प्रत्येक ग्रह व प्रत्येक पदार्थ तथा स्थिति को लेकर वह और भी बदलता रहता है। चर भी है और स्थिर भी है। स्याद्वादी कहते है-पर- इसी तरह गुरुत्वाकर्षण के विषय मे आईस्टीन ने एक माणु नित्य भी है और अनित्य भी; ससार शाश्वत भी प्रयोग के द्वारा बताया---एक आदमी लिफ्ट में है। है और प्रशाश्वत भी। यहाँ यह देखने की आवश्यकता उसके हाथ मे सेम है। ज्यो ही लिफ्ट नीचे गिरना शुरू नहीं कि स्याद्वाद के निर्णय सापेक्षवाद को व सापेक्षवाद होता, वह आदमी सेम को गिराने के लिए हथेली को के निर्णय स्यावाद को मान्य है या नही किन्तु देखना यह पौधा कर देता है। स्थिति यह होगी-क्योकि लिफ्ट के है कि वस्तुतथ्य को परखने की पद्धति कितनी समान है साथ गिरने वाले मनुष्य की नीचे जाने की गति सेम से और दोनो ही वाद कितने अपेक्षानिष्ठ है । भी अधिक है, अत. मनुष्य को लगेगा कि सेम मेरी हथेली 'अस्ति', नास्ति, की बात जैसे स्याद्वाद में पद-पद पर से चिपक रही है तथा मेरे हाथ पर उसका दबाव भी मिलती है वैसे ही है और नही' (अम्ति, नास्ति) की पड़ रहा है। परिणाम यह होगा कि पृथ्वी पर खड़े मनुष्य की अपेक्षा से तो सेम गुरुत्वाकर्षण से नीचे प्रा १. Rest and motion are merely relative रही है, किन्तु लिफ्ट मे रहे मनुष्य को अपेक्षा से गुरुत्वा terms. A ship which is becalmed is at कर्षण कोई वस्तु नही है। इसीलिए वह है भी और नहीं rest only in a relative sense-relative to भी । यहाँ आईस्टीन ने गुरुत्वाकर्षण को केवल उदाहरण the earth; but the earth is in motion के लिए ही माना है। वैसे उसने वैज्ञानिक जगत् से relative to the sun, and the ship with it. उसका अस्तित्व ही मिटा दिया है। If the earth which stayed in its course ___स्याद्वाद बताता है-“वस्तु अनन्त धर्मात्मक है।" round the sun. The ship would become अर्थात् वस्तु अनन्त गुण व विशेषताओं को धारण करने at rest relative to the sun, but both वाली है। जब हम किसी वस्तु के विषय मे कुछ भी कहते would still be moving through the surro है तो एक धर्म को प्रमुख व अन्य धर्म को गौण कर देते unding stars. Check the sun's motion है। हमाग वह सत्य केवल आपेक्षिक होता है। अन्य through the stars and there still remains the motion of the whole galactic system अपेक्षामों से वही वस्तु अन्य प्रकार की भी होती है। निम्बू के सामने नारगी को बडी कहते है किन्तु पदार्थ of stars relative to the remote-nebula. And these remote-nebula move towards धर्म की अपेक्षा से नारगी में जैसे बड़ा पन है, वैसे ही or away from one another with speeds छोटापन भी। किन्तु वह प्रकट तब होता है जब खरबूजे के माथ उसकी तुलना करते है। गुरुत्व व लघुत्व जो of hundreds miles a second or more; by going futher into space we nof only find हमारे व्यवहार में आते हैं वे मात्र व्यावहारिक या प्रापेstandard of obsolute rest, but encounter क्षिक है। वास्तविक (अन्य) गुरुत्व तो लोकव्यापी महाgreat and greater speed of motion. Cosmology Old and New, p. 205. -The Mysterious unixerse by sir . Cosmology Old and New, p. 197. James Jeens, p. 79. ४. अनन्त धर्मात्मकं सत् । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनेकान्त स्कन्ध में है और अन्त्य लघत्व परिमाणु मे'। अब इसके अनायास गंगा जमुना की तरह एकीभूत होकर बहते है। साथ सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक के वक्तव्य की भी तुलना करे। अन्तर केवल इतना ही है कि स्याद्वाद के क्षेत्र में वे प्राज वे लिखते है- "मैं सोचता है हम बहुँधा सत्य व वास्त- से सहस्रो वर्ष पूर्व एक व्यवस्थित विधि मे रख दिये गये विक सत्य के बीच एक रेखा खीचते है। एक वक्तव्य जो है और सापेक्षवाद के क्षेत्र मे वे आज चिन्तन की स्थिति कि केवल पदार्थ के बाह्य स्वरूप से हो सम्बन्ध रखता है, पर ऋमिक विकास पा रहे है। उदाहरणार्थ-सत्यासत्य कहा जा सकता है कि वह सत्य है। एक वक्तव्य जो कि की मीमासा करते हुए रेखागणित व माप-तोल के विषय केवल बाह्य स्वरूप को ही व्यक्त नहीं करता, परन्तु में सापेक्षवाद के अनुसार माना गया है-"रेखागणित के उमकी सतह में रही सच्चाई को भी प्रकट करता है वह अनुसार रेखा वह है जिसमे लम्बाई हो पर चौड़ाई या वास्तविक सत्य है।" स्याद्वाद व सापेक्षवाद की तथा मुटाई न हो । बिन्दु मे मुटाई भी नही होती। दुनिया मे प्रकार की विस्मयोत्पादक समता को देखकर यह तो मान ऐसी रेखा नहीं देखी गई जिसमें चौडाई या मुटाई न हो। लेना पडता है कि स्याद्वाद कोई अधूरे तथ्यो का संग्रह वह उपेक्षणीय या नगण्य दोख सकती है, पर वह है ही नही, अपितु वस्तु तथ्य को पाने का एक यथार्थ मार्ग है नही, नही कह सकते । धरातल की भी यही बात है। जो आज से सहस्रो वर्ष पूर्व जैन दार्शनिकों ने खोज भले ही हमारे दिमाग सिर्फ लम्बाई-चौड़ाई को ही ध्यान निकाला था। उसके तथ्य जितने दार्शनिक है उतने ही मे लाये सिर्फ उन्ही दो परिणामों वाली किसी चीज को वैज्ञानिक भी। वह केवल कल्पनामो का पुलिन्दा नहीं तो प्रकृति ने नही बनाया है। सरल रेखा कागज पर किन्तु जीवन का व्यावहारिक मार्ग है। इसीलिए तो खीची देख कर हम समझ लेते है कि इसकी सरलता प्राचार्यों ने कहा है-"उस जगद्गुरु स्याद्वाद महासिद्धान्त बिल्कुल स्वाभाविक बात है। सरल से सरल रेखा को भी को नमस्कार हो, जिसके बिना लोक व्यवहार भी नही यदि अधिक बारीक पैमाने से जाँचा जाये तो वह पूरी चल सकता।" सरल नही उतर सकती। सहस्रों वर्ष पूर्व और आज : नाप का भी यही हाल है । लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई स्याद्वाद और सापेक्षवाद के कुछ प्रमग ऐसे है जो के द्वारा हम जिस विन्दु रेखा, धरातल आदि की व्याख्या १. सोक्षम्य द्विविध अन्त्यमापेक्षिकञ्च । तत्र अन्त्य पर- करते है। उन्हे हम उनकी वास्तविक सापेक्ष स्थिति मे न माणोः; सापेक्षिक यथा नालिकेरापेक्षया ग्रामस्य । लेकर एक पादश मान के लेकर एक आदर्श मान के रूप मे लेते है। लम्बाई नापने स्थौल्यमपि द्विविध, तत्र अन्त्य प्रदोष लोकव्यापि- के लिए कोई स्थिर पादर्श मानदण्ड नही मिल सकता। महास्कन्धस्य, यापेक्षिक यथा प्रामापेक्षया नालिके- ठोस से ठोस धातु का ठीक से नापा हा मानदण्ड लोहे रम्य । -श्रीजैन सिद्धान्त दीपिका, प्रकादा १. या पीतल का तार या छह भी एक दिशा से दूसरी दिशा मूत्र १२ । घूमने मात्र से अपनी लम्बाई का करोडबा हिम्सा घट या २ I think we often draw a distinction bet- बढ़ जाता है। एक ही जमीन की भिन्न-भिन्न समय मे ween what is truc and what is really true. या भिन्न-भिन्न आदमियों द्वारा की गई जितनी नापिया A Statement which does not profess to होती है वे सूक्ष्मता मे जाने पर एक सी नहीं उतरती। dcal with any thing except appearances शीशे या प्लाटिनम का खुब सावधानी से निशान लगाया may be true: a statement which is not जाये, जरीब से नापा जाये, तो भी नापियो में कुछ न only true but deals with the realities be- कुछ अन्तर रह ही जाता है, फिर दिशा बदलने से लम्बाई neath the appearances is really true. का फर्क होता है, यह अभी कह चुके है। साथ ही ताप३. जेण विणावि लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वडइ।। मान के परिवर्तन से धातुओं का फैलना-सिकुडना लाजमी तस्स भुवर्णक्क गुरुं णमो अणेगन्तवायस्स ।। है और समयान्तर में भीतरी परमाणुषों की स्थिति में जो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्यावाव और सापेक्षवाद लगातार अन्तर पड रहा है, वह भी मान मे अन्तर डालता से एक-दूसरे के विपरीत अर्थवाची हो जाते है-जैसे है। खुद नापी जाने वाली जमीन के बारे मे तो यह बात साधारणतया पिता को 'बापू' कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों और भी सच है क्योकि वह प्लाटिनम जैसी दृढता नहीं मे छोटे बच्चे को उसका पिता व अन्य 'बापू' कहते है, रखती और नापने वाला तो यदि अपने औजारो की बात पर वे जनपद सत्य के अन्तर्गत मा जाने से असत्य नहीं को न माने तो "मुण्डे मुण्डे मतिभिन्ना" कहावत के अनु- कहे जाते । सार हर एक नापने वाला अपना-अपना अलग ही परिणाम २. सम्मत-सत्य-जन-व्यवहार से जो शब्द मान्य बतलायेगा। किसी नापी (मानदण्ड) को सच्चा मानने के हो गया है । जर्म-पंक से पैदा होने के कारण कमल को वक्त हम उसे परमार्थ को कसौटी पर नही कसने लगते; पकज कहा जाता है पर मेढक को नहीं; हालाकि वह भी क्योकि यह कसौटी मनुप्य की कल्पना के सिवाय और पक से पैदा होने वाला है। अतः इस विषय में कोई तर्क कही है ही नही । यह नापी के परिणाम को बिल्कुल झूट नही चल सकता कि उसे भी पकज क्यो नहीं कहा जाये । कह कर उसे व्यवहार से बहिष्कृत नही कर सकते है। ३. नाम-सत्य-किसी का नाम विद्यासागर है और हमारा सच्चा मान वह है जो कि भिन्न-भिन्न नापियो का वह जानता क, ख, ग भी नही। लोग उसे विद्यासागर माध्यम (औसत) है। सावधानी के साथ जितनी अधिक कहते है तो भी असत्यवादी नहीं कहे जाते, क्योकि उनका नापिया की जायेंगी, माध्यम उतना ही ठीक होगा और कहना नाम-सापेक्ष सत्य है । नाम केवल व्यक्ति के पहचान जो नापी इस माध्यम के समीप होगी वहीं सत्य होगी। की कल्पना है। अतः यह नही देखा जाता कि उसके इन बातों से या तो पता लग गया कि ताकिको ने वास्त- जीवन के साथ वह कितना यथार्थ है। विकता की अच्छी तरह छानबीन किये बिना जो सिर्फ ४. स्थापना-सत्य-किसी वस्तु के विषय में कल्पना तकं से किसी बात को स्वय मिद्ध कर डाला है, वह उन्ही कर लेना । जैम १२ इच का एक फीट, ३ फीट का १ के शब्दो मे मान लेने लायक नहीं है। हमारी उक्त परि- गज । इतने तोलो का सेर है या इतने मेरो का मन है। भापाए ठीक हो सकती है यदि उन्हें परमार्थ-मत्य मानने यह स्थापना देश, काल की दृष्टि से भिन्न-भिन्न होती है, की जगह हम मापेक्ष-सत्य कहे। अधिक वक्र की अपेक्षा पर अपनी-अपनी अपेक्षा से जब तक व्यवहार्य है तब तक कोई रेखा सरल हो सकती है। अधिक मोटे बिन्दुनो या सब सत्य है। मत्य के इस भेद में अपेक्षावाद के उक्त अत्यन्त क्षद्र रेखायो की अपेक्षा किसी बिन्दु को लम्बाई माप, तोन गणित आदि के सारे विचार समा जाते है। चौडाई को हम नगण्य समझ सकते है । हमारे सभी माप- वे सब सापेक्ष-मत्य है। एक मानदण्ड में सूक्ष्म दृष्टि से नोन सापेक्ष है।" म्याद्वाद भी उक्त प्रकार की अपेक्षा चाहे प्रनिक्षण किराना ही अन्तर पडता हो, पर जब तक त्मक समीक्षामो से भरा पडा है । जैन पागम श्रीपन्नवणा- पवहार्य है तब तक वह सत्य ही माना जायेगा। वास्त. सूत्र में सत्य के भी दश भेद कर दिये गये है। जहाँ विक दष्टि में सापेक्षवाद के अनुसार जिस प्रकार मानदण्ड मापेक्षवादी व्यावहारिक माप तोल आदि को कुछ डरने प्रादि में प्रतिक्षण परिवर्तन माना है, स्याद्वाद शास्त्र में हा-से सत्य में समाविष्ट करने लगते है, वहाँ लगभग सभी उम परिवर्तन का विवेचन और गभीर व व्यापक मिलता प्रकार का आपक्षिक सत्य दस भागों में विभक्त कर दिया है। स्याद्वाद के अनुसार वस्तु ही वह है, जिसमे प्रतिक्षण गया है । दश भाग इस प्रकार है नये स्वरूप की उत्पति, प्राचीन स्वरूप का नाश और १. जनपद-सत्य (देश सापेक्ष सत्य)-भिन्न-भिन्न मौलिक स्वरूप की निश्चलना हो । प्रतिक्षण परिवर्तन के देशो की भिन्न भिन्न भाषाएँ होती है। प्रत. प्रत्येक पदार्थ विषय मे दोनों वादा का एक-सा सिद्धान्त एक-दूसरे की के भिन्न-भिन्न नाम हो जाते है पर वे सब अपने देश की सत्यता का पोषक है। अपेक्षा से सत्य है । कुछ शब्द ऐसे भी होते है जो क्षेत्र-भेद ५. रूप-सत्य-केवल रूप मापेक्ष कथन रूप-सत्य है। १. विश्व की रूपरेखा, अध्याय १, सापेक्षवाद । जैसे-नाट्यशाला मे नाट्यकारो के लिए दर्शक कहा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त करते है-यह हरिश्चन्द्र है, यह रोहताश्व है। रामलीला मानने की प्रेरणा देता है।" यह एक धारणा जो राधामे कहा करते है-यह राम है, यह मीता है। कृष्णन् जसे मनीषी की बनी, लगता है सापेक्षवाद उन्हे ६. प्रतीति-सत्य-जैसे प्रतीति हो। दूसरे शब्दो मे स्याद्वाद सम्बन्धी उक्त निर्णय पर पुनः सोचने को प्रेरित इसे हम सापेक्ष-सत्य भी कह सकते है। पाम्रफल की करेगा। अपेक्षा प्रामलक छोटा है, ऐसी प्रतीति होती है, और जहाँ इनकी धारणा है निरपेक्ष सत्य को माने बिना गुजा की अपेक्षा वह बडा है, यह भी प्रतीति होती है। काम नहीं चल सकता वहाँ सापेक्षवाद बताता हैसापेक्षवाद का एक बड़ा विभाग इसी एक भेद में समा "परमार्थ मन की कल्पना मात्र है । परमार्थ को प्राकृतिक वस्तुओं और नियमो पर जब हम लादने की कोशिश जाता है। ७. व्यवहार-सत्य-लोक भाषा मे सम्मत वाक्य करते है तो यही नहीं कि हम वस्तु सत्य को छोड आकाश व्यवहार सत्य है। जैसे बहुत बार पूछा जाता है, यह मे उडने लगते है, बल्की उल्टी धारणाप्रो के शिकार हो सड़क कहाँ जाती है ? कोई उत्तर दे सकता है कि महा हो जाते है। लेकिन वस्तुप्रो और उनके गुणो की सापे क्षता का मतलब यह नहीं है कि हम उनकी सत्ता से शय यह तो कही नही जाती यही पडी रहती है। बटोही इन्कार कर दें। सापेक्षता परमार्थ नामधारी किसी भी थका-मादा गाँव के पास पहुँचता है और कहता है"अब तो गाँव पा गया है।" पर कोई यह नही पूछता पदार्थ को सिद्ध नहीं होने देती, किन्तु सापेक्षता द्वारा कि "तम पाये हो या गाँव चलकर पाया है।" तात्पय १. The theory of relativity cann t be logiयही है कि लोक व्यवहार से यह कहना प्रसिद्ध नहीं है। cally sustained without the hypothesis of अतः यह सत्य का ही एक भेद है। an absolute......The Jains admit that ८. भाव-सत्य-यथावस्थित इन्द्रिय सापेक्ष कथन । things are one in their universal aspect जैसे-हम घोला है, कज्जल काला है। पर यह यथाव- (Jati or Karana) and many in their parti. स्थित कथन भी स्थूल दृष्टि की अपेक्षा से है । सूठम दृष्टि cular aspect aspect (Vyakti or Karya), वहाँ भी उपेक्षित है। उसके अनुसार तो हस और कज्जल Both these, according to them are partial में पांच वर्ण है। points of view. A plurality of reals is ___E. योग-सत्य-दो या दो से अधिक वस्तुओं के योग admittedly a relative truth. We must से जो सज्ञा बनी हो। तत्पश्चात् उस योग के अभाव में rise to the complete point of view and भी उस सज्ञा का प्रयोग योग-सत्य है। जैसे-दण्डी, छत्री, look at the whole with all the wealth of स्वर्णकार, चर्मकार आदि । its attributes. If Jainism stops short with pluratily, which is at best a relative and १०. उपमा-सत्य-उपमा अलकार प्रादि सारी partial truth, and does not ask whether साहित्यिक कल्पनाएं इस सत्य मे अन्तनिहित है, इसके there is any higher truth painting to a चार विकल्प हैं-उपमा सद् उपमेय असद्, उपमा असद् One wluch particularises itself in the obउपमेय सद्, दोनों सद् और दोनो असद् । jects of the world, connected with one निरपेक्ष व सम्पूर्ण सत्य : another vitally essentially and immanently, भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विचारक सर राधाकृष्णन् ने it throws over board, its one logic and स्थाद्वाद के विषय में लिखा है "स्याद्वाद निरपेक्ष या exalts a relative truth into an obsulute सम्पूर्ण सत्य की कल्पना किये विना तर्क के धरातल पर नही ठहर सकता...'। वह अपेक्षिक सत्यो को पूर्ण सत्य --Indian Philosophy Vol. 1, pp. 305, 306. one. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शन पौर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्यावाद और सापेक्षवाब सत्ता से इन्कार करवाना तो उनकी सीमा से बाहर जाना विषय लोक-व्यवहार ही नही अपितु द्रव्य मात्र है। इसी है। सापेक्षता पाखिर माननी क्यों पड़ती है ? इसलिए लिए तो प्राचार्यों ने कहा है-"द्वीप से लेकर व्योम तक तो कि वस्तु सत्ता हमें ऐसा मानने के लिए मजबूर करती वस्तुमात्र स्याद्वाद की मुद्रासे प्रकित है।" केवली (सर्वज्ञ) है।" इस प्रकार सापेक्षवाद स्याद्वाद की अपेक्षावादिता व निश्चय नय द्वारा बताया गता तत्त्व भी कहने भर को को पूर्णतया पुष्ट करता है। निरपेक्ष है क्योकि 'स्यादस्ति स्यान्नास्ति से परे वह भी स्याद्वाद स्वयं भी अपने प्राप मे इतना पुष्ट है कि नही है। अतः स्याद्वाद का यह डिडिमनाद कि सत्यमात्र डा. राधाकृष्णन् का तर्क उसे हतप्रभ नही कर सकता। सापेक्ष है व पूर्ण सत्य व वास्तविक सत्य उससे परे कुछ स्याद्वाद भी तो यह मानकर चलता है कि निरपेक्ष सत्य नही; वह स्वयं सिद्ध है और तर्क की कसौटी पर माधुविश्व मे कुछ है ही नहीं तो हमारे मन में उसका मोह निक सापेक्षवाद द्वारा समर्थित है। क्यों उठता है ? धर्मकीर्ति ने कहा है-"यदि पदार्थों को समालोचना के क्षेत्र में: स्वयं यह अभीष्ट हो तो हम उन्हे निरपेक्ष बताने वाले स्याद्वाद व सापेक्षवाद दोनो ही सिद्धान्तो को अपनेकौन होते है ?" सापेक्ष सत्य के विषय मे जो सन्देह दह- अपने क्षेत्र में विरोधी समालोचकों के भरपूर माक्षेप सहन शीलता विचारो को लगती है उसका एक कारण यह है करने पड़े है। प्राक्षेपो के कारण भी दोनों के लगभग कि सापेक्ष सत्य को पूर्ण सत्य व वास्तविक सत्य से परे समान है। दोनो की ही विचारो की जटिलता को न पकड़ सोच लिया जाता है, किन्तु वस्तुतः सापेक्ष सत्य उनसे सकने के कारण धुरघर विद्वानो द्वारा समालोचनाए हुई भिन्न नही है । हर एक व्यक्ति सरलता से समझ सकता है। किन्तु दोनो ही वादो मे तथा प्रकार की पालोचनाए है कि नारगी छोटी है या बड़ी। यहाँ वास्तविक और तत्त्व-वेत्तानो के सामने उपहासास्पद व अज्ञता मूलक पूर्ण सत्य यही है कि वह छोटी भी है और बड़ी भी, सिद्ध हुई है। उदाहरणार्थ शकराचार्य जैसे विद्वानो ने अपने बड़े व छोटे पदार्थो की अपेक्षा से । यहाँ कोई यह स्याद्वाद के हाई को न पकड़ते हुए लिख मारा--"जब कहे कि यह तो प्रापेक्षिक व अधरा सत्य है तो वह स्वय ज्ञान के साधन, ज्ञान का विषय, ज्ञान की क्रिया सब बताये कि यहाँ निरपेक्ष या पूर्ण सत्य क्या है ? पनिश्चित है तो किस प्रकार तीर्थकर अधिकृत रूप से कुछ एक जैन विचारको ने डा. राधाकृष्णन् की किसी को भी उपदेश दे सकते है। और स्वय पाचरण समालोचना के साथ सगति बैठाने के लिए स्याद्वाद को कर सकते है, क्योंकि स्यावाद के अनुसार ज्ञानमात्र ही केवल लोक-व्यवहार तक सीमित माना है और जैन दर्शन अनिश्चित है।" इसी प्रकार प्रो० एस० के० वेलबालकर में प्रतिपादित निश्चय नय को पूर्ण सत्य (absolute एक प्रसग मे लिखते है. -"जैन-दर्शन का प्रमाण सम्बन्धी truth) बताने का प्रयत्न किया है। किन्तु यह यथार्थ भाग अनमेल व अमगत है अगर वह स्याद्वाद के प्राधार नही कि स्याद्वाद केवल लोक-व्यवहार मात्र है, क्योकि पर लिया जाये । S (एस) हो सकता है, S (एस) नही 'स्थादस्त्येव सर्वमिति' और 'स्यानास्त्येव सर्वमिति अर्थात् हो सकता दोनो हो सकते है; P (पी) नहीं हो सकता, 'स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से सब कुछ है ही इस प्रकार का निषेधात्मक और अज्ञेयवादी (एग्नोप्टिक) और 'परद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा सब कुछ नही है वक्तव्य कोई सिद्धान्त नही हो सकता ।" इसी प्रकार कुछ ही' यह जो स्यावाद का हृदय सप्तभगी तत्त्व है, उसका लोगो ने कहा-'यह अजीब बात है कि स्याद्वाद दही और १ विश्व की रूपरेखा, सापेक्षवाद, पृ० ५७-५८. भम को भी परस्पर एक मानता है। पर वे दही तो खाते २. यदिद स्वयमर्थाना रोचते तत्र के वयम् ? है, भैस नही खाते, इसीलिए स्याद्वाद गलत है।' स्याद्वाद पा . वेत्ताअोके सामने ये सारी पालोचनाए बचपनकी सूचक थी। ३. स्याद्वाद मजरी, जगदीशचन्द्र एम० ए० द्वारा अनू- ४. आदीपमाव्योम समस्वभाव स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । दित, पृ० २५। -अन्ययोग व्यवच्छेदिका लो० ५ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० भनेकान्त शकराचार्य ने स्याद्वाद को सशयवाद या अनिश्चित- दही खाने का पदार्थ है दधित्व की अपेक्षा से, न कि द्रव्य वाद कहा । सम्भवतः उन्होंने 'स्यादस्ति' का अर्थ 'शायद होने के मात्र से; इसलिए दही के साथ भैस की बात है' ऐसा समझ लिया हो पर स्याद्वाद सशयवाद नहीं है। जोडना मूर्खता है । इसके अनुसार वस्तु अनन्त धर्मवाली है। हम वस्तु के सापेक्षवाद की मालोचना का भी लम्बा इतिहास बन विषय में निर्णय देते किसी एक ही धर्म (गुण) की अपेक्षा चुका है। यह सत्य है कि सापेक्षवाद माज वैज्ञानिक जगन् करते है किन्तु उस समय वस्तु के अन्य गुणी भी उसी मे गणितसिद्ध सर्वसम्मत सिद्धान्त बन गया है और यह वस्त में ठहरते है इसलिए 'स्यादस्ति' अर्थात् 'अपक्षा माना जाने लगा है कि इस सदी का वह एक महान् विशेष स हैं का विकल्प यथार्थ ठहरता है। वहाँ अनि- अाविष्कार और मानव मस्तिष्क की सबसे ऊंची पहुच श्चितता और सन्देहशीलता इसलिए नहीं है कि स्यादास्त है। पर इसकी जटिलता को हृदयगम न कर सकने के के साथ 'एव' शब्द का प्रयोग और होता है। इसका कारण प्रारम्भ में मालोचकों का क्या रुख रहा, यह एक तात्पर्य म्याद्वादी किसी भी वस्तु के विषय म निणय दत दिलचस्प विषय है। एक सुप्रसिद्ध व अनुभव इजीनियर ए कहेगा अमुक अपेक्षा से ही ऐसा है। प्रश्न उठता है सिडने TO रवि ने कहा है-"ग्राईस्टीन का सिद्धान्त कि 'अमक अपेक्षा म' ऐमा क्यों कहा जाय ' इसका उत्तर निरी ऊटपटाग बकवास है" दार्शनिक गगन हेमर ने होगा इसके बिना व्यवहार ही नहीं चलेगा। अमुक रखा लिग्वा है-"प्राईस्टीन ने तर्क शास्त्र में एक मूर्खतापूर्ण रेखा छोटी है या बड़ी यह प्रश्न ही नही पैदा होगा। जब मौलिक भूल की है।" इस प्रकार म्याद्वाद की तरह तक कि हमारे मस्तिष्क में दूसरी रेखा की कोई कल्पना . __ सापेक्षवाद की भी विचित्र समालोचनाए हुई, पर आज न होगी। इस स्थिति मे अनिश्चितता नही किन्तु यथार्थता कर वह वैज्ञानिक जगत मे बीसवी सदी का एक महान् प्रावियह होगी कि रेखा बड़ी या छोटी है भी, नही भी। यह कार मममततया मान लिया गया। तर्क एस. के. बेलवालकर के तर्क पर लागू होता है। (एस) हो सकता है, नही हो सकता है आदि विकल्पी __ उपसंहार को समझने के लिए क्या यह सर्वमान्य तथ्य नही होगा कुछ एक विचारको का मत है कि स्याद्वाद और कि रेखा बडी भी है छोटी की अपेक्षा से। छोटी बड़ी सापक्षवाद में कोई तुलना नही बैठ सकती; क्योकि स्यादोनों ही नही है मम रेखा की अपेक्षा से । तथा प्रकार से द्वाद एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है और सापेक्षवाद मौलिक है अग्रेजी भाषा की अपेक्षासे, एस लुप्न प्रकार का वस्तुस्थिति यह है कि दोनो ही वाद निर्णय को पद्धतियां चिह्न है सस्कृत भाषा की दृष्टि से दोनो है भाषाओं की है, अतः कोई भी आध्यात्मिकता या भौतिकता तक अक्षा से, दोनों नही है अन्य भाषामो की अपेक्षा से। मीमित नहीं है । यह एक गलत दृष्टिकोण है कि स्याद्वाद . आध्यात्मिकता तक सीमित है। वह तो अपने स्वभाव से स्याद्वाद कोई कल्पना की आकाशी उडान नही बल्कि जीवन-व्यवहार का एक बुाद्धगम्य मिद्धान्त हा लागा न १. Relativity is probably the forthest reach 'है और नही भी' के रहस्य को न पकड कर उस सन्देह that the human mind has made into वाद या सगयवाद कह डाला, किन्त चिन्तन की यथार्थ "Unkaun." दिशा मे पाने के पश्चात् वह इतना सत्य लगता है जैसे -Exploring the Universe, p. 197. दो और दो चार । अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल व गुण (मान) २ 'Einstein theory is arrant non-sense.' की अपेक्षा में प्रत्येक पदार्थ है और पर द्रव्य क्षेत्र आदि -Cosmology Old and New, p. 197. की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ नही है, यही 'स्यादस्ति' और ३. Einstein has made a very silly basic errar 'स्यान्नास्ति' का हार्द्र है। दही व भैस एक है द्रव्यत्व की in logic. अपेक्षा से, एक नही हैं दधित्व व महिषत्व की अपेक्षा से। -Cosmology Old and New p. 197. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्यावाद और मापेक्षवाव जितना प्रात्मा से सम्बन्धित है, उतना पुदगल (भूत) से अधिक चौडी होती जा रही थी, इस प्रकार से यदि भी। जब वह समानतया दोनों के ही विषय में यथार्थ चिन्तन समान धारा से बहने लगेगा, तो सम्भव है कि निर्णय देता है, तो इस अर्थ में अपने पाप सिद्ध हो जाता भविष्य के किन्हीं क्षणो में वह खाई पट सकेगी। है कि जितना वह प्राध्यात्मिक है उतना ही वह भौतिक स्याद्वाद को सशयवाद के रूप में समझने की जो एक भी। यद्यपि वैज्ञानिको का बिपय भौतिक विद्या ही है, भूल चली आ रही थी, लगता है, सापेक्षवाद के द्वारा यत मापेक्षवाद का लक्ष्य उसमे पागे नहीं बढ़ पाया, समथित उसकी वैज्ञानिकता उमको नामशेष ही कर इसलिए वह भौतिक पद्धति ही मान जाता है। पर वास्तव देगी। में यह भी म्याद्वाद की तरह वस्तु को परखने की एक दर्शन से पगड्मुख व विज्ञान के प्रति श्रद्धालु व्यक्तियों प्रणाली है। इसे प्राध्यात्मिक या भौतिक कुछ भी कहे को स्याद्वाद व सापेक्षवाद को पूर्वोक्त समानता यह सोचने यह अधिक यथार्थ नही है। फिर भी इस यदि भौतिक का अवसर देगी कि दर्शन जैसा कि वे समझते है एक पद्धति भी माने तो भी परमाणु से ब्रह्माण्ड तक के भौतिक भझबझागरी कल्पना नही बल्कि चिन्तन की एक प्रगति(पौद्गलिक) पदार्थ तो स्यावाद व मापेक्षवाद दोनो के शील धारा है, जिसकी दिशा में विज्ञान प्राज आगे बढ़ने विषय होते। इमलिए म्याद्वाद और सापेक्षवाद के मम को प्रयत्नशील है। दोनो वादो की ममानता मे हर एक प्रशो की तुलना अपना एक महत्व रखती है। तटस्थ विचारक को यह तो लगेगा ही कि स्यावाद ने म्याद्वाद और सापेक्षवाद की प्राश्चर्योत्पादक ममता दर्शन के क्षेत्र में विजय पाकर अब वैज्ञानिक जगत् में से हमारे चिन्तन के बहुत मारे पहल उभर आते है । माज विजय पाने के लिए मापेक्षवाद के म्प में जन्म तक जो दर्शन और विज्ञान के बीच की खाई अधिक से लिया है। अपनत्व एक दिन कवि बगीच मे जा पहुंचा। वृक्षो व लताम्रो की शीतल छाया मे उसका मानम अतिशय प्रीणित होने लगा। इधर-उधर पर्यटन करते हुए सहसा उमकी दृष्टि माली पर पडी। वह मविम्मय मुस्कगया और चिन्तन के उन्मुक्त अन्तरिक्ष मे विहरण करने लगा। माली ने भी उसे निहारा उसकी भाव-भंगिमा देखकर उमसे मौन नही रहा गया। उसने पूछा-विज्ञवर ! मुस्कराहट किम पर प्रकृति के ये वग्द पुष्प अापके मन में गदगुदी उत्पन्न कर रहे है या मेरे कार्य को देख कर कवि-माली । मेरी हंसी का निमित्त अन्य कोई नही, तू ही है, जहाँ एक पोर तू कुछ एक पौधों की काट-छाट कर रहा है.-निर्दय बनकर कैची का प्रयोग कर रहा है, वहाँ दूसरी और कुछ पौधे लगा भी रहा है । उनमे पानी सीच रहा है, सार सभाल कर उन्हे पुष्ट कर रहा है। यह नेग कसा व्यवहार । इस भेदबुद्धि के पीछे क्या रहस्य है ' नेरी दृष्टि मे मब वृक्ष समान है। फिर भी एक पर अपनत्व, अन्य पर परत्व, एक को पुचकाग्ना और एक को ललकारना । तेरे जैसे सरक्षक के व्यवहार में इम अन्नर का क्या कारण है? माली-कविवर | मेरे पूर्वजों ने मुझे यही भली भाति प्रशिक्षण दिया था कि मनुप्य को अपने कर्तव्य पर अटल रहना चाहिए । मेरा प्रति कदम उसी तत्त्व को परिपुष्ट करने के निमित्त उठना है; क्योकि मुझे उद्यान की मुन्दरता को सुरक्षित रखना है। इसका प्रतिदिन विकास करना मेरा परम धर्म है। अत में जो कुछ कर रहा हूँ वह भेदबुद्धि से नही, अपितु ममबुद्धि से कर रहा है। यह मेरा पक्षपात नही, माम्य है। केवल बहिरंग को ही न देखकर अन्तरग की परतों को भी खोलना चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो पापको स्पष्ट ज्ञान होगा कि मेरी इस प्रवृत्ति के पीछे प्रत्येक पौधे के साथ मेरा कितना अटूट एवं निश्छल अपनत्व है। -मनि कन्हैयालाल Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा के सेठ लक्षमीचन्द सम्बन्धी विशेष जानकारी श्री अगरचन्द नाहटा 'सन्मति सदेश' जनवरी '६६ के अक मे "दो जनो के सध, चौरासी मथुरा के विद्वान से उपलब्ध की जा सकती वैष्णव हो जाने के उल्लेख" शीर्षक मेरा लेख छपा है। है।" उसमे यमुनावल्लभ रचित रसिक भक्तमाल का एक पद्य । - वास्तव मे श्रीरगजी का मदिर बनवाने के कारण ही उद्धृत किया गया था जिसमें सेठ श्री लक्ष्मीचन्द के सबध रसिक भक्तमाल मे उनको वैष्णव अनुरागी होना लिख मे यह लिखा गया था कि "जैन धर्म क त्यागि, भये वैष्णव दिया है। उ-होने जैन धर्म का त्याग नही किया था। अनुरागी" इस पंक्ति के सबध मे मैने यह लिखा कि 'सेठ । रसिक भक्तमाल के पद्य के अन्तिम चरण मे श्री लक्ष्मीचन्द लक्ष्मीचन्द के वंशज अभी भी विद्यमान होंगे। ये किसी के साथ राधाकिसन और गोविन्ददास का उल्लेख है वे कारण से, कब जैन धर्म को छोडकर वैष्णव बने इसकी हा रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये थे। इस बात जानकारी मथुरा, वृन्दावन के जैन बधु प्रकाशित कर सके। का स्पष्ट उल्लेख श्री प्रभुदयाल जी मीतल के हाल ही तो अच्छा हो' । खेद है कि मेरे उस निवेदन पर मथुरा, म में प्रकासित ग्रन्थ मे हुया है जिसमे श्री रग जी के मदिर वृन्दावन के किसी भी जैन बधु ने कुछ भी प्रकाश नही को सेठ लक्ष्मीचन्द से छिपाकर सेठ राधाकिसन व गोविन्दडाला । पर दिल्ली के श्री कुन्दनलाल जैन ने तारीख दास ने संवत् १९०२ मे बनाना प्रारम्भ किया ६१-६६ के पत्र मे मेरे उक्त लेख को पढ़कर लिखा कि किन्तु धन की यथेष्ट व्यवस्था न होने से उसका निर्माण कार्य रोक देना पडा । जब सेठ लक्ष्मीचन्द को इस बात "मथुरा के सेट लक्ष्मीचन्द जी का वैष्णव हो जाने का की जानकारी हुई तो उन्होने इसे पूरा करा दिया। इस उल्लेख सर्वथा भ्रमपूर्ण है । वे जैन थे और अन्त तक जैन प्रकार ४५ लाख रुपये की लागत का यह मन्दिर सवत् रहे। यह बात दूसरी है कि उनका वैष्णव सम्प्रदाय की १९०८ मे पूग हुमा। पोर झुकाव केवल अपना व्यक्तित्व स्थिर रखने के लिए चौरासी के जन मन्दिर के सबध मे श्री प्रभुदयालजी हो गया था । मथुरा चौरासी का विशाल जैन मदिर सेठ मीतल ने लिखा है कि 'मथुरा चौरासी नामक प्राचीन लल्मीचन्द जी का ही बनाया हया है। जब वे यह जैन सिद्ध क्षेत्र मे मनीराम द्वारा निर्मित यह एक दिगम्बर मदिर बनवा चुके तो वैष्णवो का आग्रह हुआ कि अापके मन्दिर है। इसमे पहले श्रीचन्द्रप्रभ की व बाद में द्रव्य का सदुपयोग श्री रग जी के लिये भी होना चाहिये। श्री अजितनाथ की प्रतिमा, प्रतिष्ठित की गई थी। ब्रज उन्होंने अपनी उदारता प्रकट करने के लिये वह मदिर भी मण्डल जैनधर्म का यह सबसे प्रसिद्ध केन्द्र है। बनवा दिया। वे नगर के सेठ थे। सभी लोग उनसे दिगम्बर जैन मन्दिर चौरासी के विद्वानो को बहा पाशाएँ रखते थे अत उन्हें सभी को सन्तुष्ट रखना पड़ता के शिलालेख और कागजातो से सही और विस्तृत जानथा। उनकी औरस सन्तान तो कोई न थी पर गोद की कारी प्रकाश में लानी चाहिए। जिभा चल रहा है । वहा सल भगवानदास उसा उपयूक्त श्री प्रभुदयाल मीतल का 'बज का सास्कृवश की गोद मे पाये है। द्वारिकाधीश के मदिर के सामने तिक इतिहास' प्रथम भाग राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली उनकी बड़ी विशाल अतुल सम्पत्ति है । मै मथुग ५ वर्ष से प्रकाशित व प्रसारित हुआ है उसके पृष्ठ ५४६ से ५५० ( १९४६-५१ ) तक रहा हूँ सो मुझे इतनी जानकारी मे सेठ मनीराम और लक्ष्मीचन्द तथा उनके वशजो के उपलब्ध हो सकी थी। विशेष जानकारी दिगम्बर जैन सम्बन्ध मे महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रकाशित हुई है। 'बज Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा के सेठ लक्मीचन्द सम्बन्धी विशेष जानकारी संस्कृति के सहायक महानुभाव' शीर्षक के अन्तर्गत 'मथुरा मनीराम अत्यन्त विश्वास पात्र.और चतुर मुनीम था और का सेठ घराना' उपशीर्षक मे सेठ मनीराम, सेठ लक्ष्मी- उसका उत्तराधिकारी समझा जाता था। गोकुलदास चन्द और उसके उत्तराधिकारी का विवरण दिया गया है पारिख मनीराम आदि के साथ सवत् १८७० मे नागामो व अन्त मे मेठ घराने का वश-वृक्ष भी दे दिया गया है। की सम्पति को लेकर ब्रज मे आ गया। मथुरा में श्री सबसे पहले भूमिका के रूप में यह लिखा गया है कि द्वारिकाधीशजी का मदिर सवन् १८७१ मे बनाया और "अग्रेजो के शासनकाल मे ब्रज की बिगड़ी हुई धार्मिक सेवा-पूजा मे मनीराम मनीम का बड़ा सहयोग रहा । और सास्कृतिक स्थिति को यथासम्भव सुधारने के कार्य मनीराम खण्डेलवाल वैश्य और श्रावको जैन था। उसके मे जिन महानुभावो ने अपना योग दिया था उनमे मथुरा ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मीचन्द को पारिख जी ने उत्तराधिकारी के सेटो का स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने व्रज सस्कृति के घोषित किया और निमा. घोपित किया और लिखा-पढी कर समस्त सम्पत्ति मनीराम विविध क्षेत्रो मे अपने अपार वैभव का विनियोग करते को सौप दी। सवत् १८८३ मे पारिख जी का देहान्त हो हए बडी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की। उनके द्वारा गया। पारिख जी के वृतान्त का सक्षिप्तसार देने के निर्मित मथरा का श्री द्वारिकाधीश का मन्दिर पोर वृन्दा- बाद मनीराम, लक्ष्मीचन्द प्रादि का पूरा विवरण नीचे वन का थीरगजी का मन्दिर ब्रज की धार्मिक और दिया जा रहा हैसास्कृतिक प्रवृत्तियो के केन्द्र रहे है। सेठ घराने के प्रमुख सेठ मनीरामः-- व्यक्तियो का सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - वह जयपुर राज्यातर्गत मालपुरा ग्राम का निवासी गोकुलदास पारिख-ग्वालियर मे गोकुलदास पारिख एक जैनी खण्डेलवाल वैश्य था। घर की दरिद्रताके कारण एक गजराती वैश्य था। वह पहले एक सामान्य कर्मचारी बर अपने जन्म-स्थान को छोड़कर ग्वालियर पा गया था। था किन्तु अपनी प्रतिभा और कर्तव्य परायणता से सिधिया और वहा गोकुलदास, पारिख जी की मवा में रहने लगा और बटा नरेश का विश्वास पात्र पदाधिकारी और राज्य का था। अपनी योग्यता तथा चतुरता के कारण उसकी उन्नति खजाची हो गया था। उस काल में उज्जैन के नागा भी होती गयी थी। जब पारिख जी ने पाकर ब्रज मे मन्यासियो ने बडा उपद्रव कर रखा था । अन्त में दौलत निवाम किया, तब वह भी उसके साथ वहा पा गया था । राव सिंधिया ने नागाग्रो का दमन करने के लिये पारिख उसके तीन पुत्र थे। (१) लक्ष्मीचन्द (२) गधाकृष्ण जी को राजकीय संनिको के साथ उज्जैन भेजा था। और ( ३ ) गोविददास । पारिख जी के चातुर्य और रण कौशल से नागापो की पूरी जैसा पहिले लिखा गया है पारिख जी ने अपनी मृत्यु तरह पराजय हो गई । नागा साधुग्रो द्वारा अनेक वर्षों से से पहले लक्ष्मीचन्द को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर सचित करोडों की धनराशि पर पारिख जी का अधिकार अपनी समस्त सम्पत्ति मनीगम को सौप दी थी। पारिख हो गया। वह उस सचित सम्पति को लेकर ग्वालियर जी की मत्य होने पर उसके भाई-भतीजो ने अपने वापस पा गया। राजकीय प्रतिष्ठा के साथ ही पारिख अधिकार के लिए मनीराम-लक्ष्मीचन्द के विरुद्ध मुकदमा जी का धन-वैभव भी बढ़ गया। जिस स्थान पर वह दायर किया था। वह मुकदमा कई वर्ष तक चलता रहा रहता था वह पारिख जी बाडा लश्कर में आज भी प्रसिद्ध था। अत मे उसका निर्णय मनीराम-लक्ष्मीचन्द के पक्ष में है। पारिख जी वल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था। ही या था । उसने अपने निवास स्थान पर श्री द्वारिकाधीशजी का एक मनीराम ने पारिख जी की विपूल सपत्ति को धर्मादे मदिर बनवाया था। उसके अधीनस्थ कर्मचारियों मे दो में लगाने के साथ ही साथ कारवार में भी लगाया थ मुनीम भी थे-(१)मनीराम और ( २ ) चम्पाराम'। उसने मनीराम लक्ष्मीचन्दके नामसे एक व्यापारिक प्रतिष्ठान १. देखो मेरा वन्दावन के दीवान चम्पाराम की कृतिया की स्थापना कर उसके द्वारा लेन-देन का कारबार प्रारभ जैनशोधांक २२ किया जिससे वह संपत्ति दिन-रात बढने लगी। उसके Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनेकान्त प्रतिष्ठान की बड़ी भारी साख थी और वह इस क्षेत्र का वह अपने कार-बार को देखने लगा था और उसने सबसे अधिक धनी माना जाता था। ग्वालियर नरेश अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान की बडी उन्नति की थी। दौलतराव सिधिया के देहावसान के पश्चात् रानी बायजा- मनीगम के पश्चात् उसके कार-बार, धन-वैभव और यश बाई ने सेठ मनीराम को ग्वालियर राज्य का खजाची की इतनी वृद्धि हुई कि उसका नाम समस्त उत्तर भारत नियुक्त किया था। वहां के सरकारी कागजो से ज्ञात मे प्रसिद्ध हो गया था। वह 'नगर सेठ' कहलाता था। होता है कि उस काल मनीराम का ग्वालियर राज्य में और उसके प्रतिष्ठान 'मनीराम लक्ष्मीचन्द की व्यापारिक बड़ा प्रभाव था। साख उस काल में सर्वत्र व्याप्त थी उसके विषय मे श्री उसके धार्मिक कार्यों में उसके द्वारा निर्मित चौरासी ग्राउस ने लिखा है-- का जैन मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उमका "पिछले अनेक वर्षों तक मथुरा जिले का सर्वाधिक देहान्त स० १९६३ में हया था। मनीराम और गोकुलदास प्रभावशाला पुरुष 'मनारा पारिख की सुन्दर छतरियाँ मथुरा के 'यमुना बाग' में बनी मुखिया रहा है। इस गद्दीकी व्यापक और प्रचुर प्रतिष्ठा हुई थी। इस प्रान्त के किसी अन्य व्यापारिक संस्थान से अधिक ही चौरासी का जैन मन्दिर : नही है वरन् समस्त भारत में भी उसके समान शायद ही मथुरा के चौरामी नामक प्राचीन सिद्धक्षेत्र में मनी. कोई दूगरी गद्दी हो। इसकी शाखाएँ दिल्ली, कलकत्ता, राम द्वारा निमित यह एक दिगबर जैन मन्दिर है। इसम बम्बई के साथ ही साथ अन्य बड़े व्यापारिक केन्द्रों में भी पहिले श्रीचन्द प्रभु की और बाद में श्री अजितनाथ की है। जहाँ सर्वत्र उनकी प्रसिद्धि है। हिमालय से कन्याप्रतिमाएं प्रतिष्ठित की गई थी। ब्रज मण्डल में जैनधर्म कुमारी तक कही भी मथुरा के सेठो की कितनी ही बड़ी मा का यह सबसे प्रसिद्ध केन्द्र है। हंडी का भुगतान वैसी ही साख से होता है जैसा इगलैण्ड सेठ लक्ष्मी चन्द : के बैंक नोट का लदन या पेरिस में किया जाता है।" वह मनीराम का ज्येष्ठ पुत्र और पारिख जी सांस्कृतिक और जनोपयोगी कार्य :का उत्तराधिकारी था । उसने भाग्यवश अपनी सेठ नक्ष्मीचन्द ने अपने यश-वैभव की वृद्धि करने के बाल्यावस्था में पारिख जी की विपुल सम्पत्ति साथ ही साथ व्रज के जनोपयोगी और मास्कृतिक कार्यों प्राप्त की थी। मनीराम के जीवन-काल में ही की प्रगनि में बड़ा योग दिया था। उस काल में यहाँ इम १ रानी बायजाबाई मिधिया के सरकारी कागज-पत्र म प्रकार के जिनने कार्य किये गये, उनमे प्रमुख प्रेरणा सेठ ६६ का प्रश इस प्रकार है-"मिविया दरबार के मुन्य लक्ष्मीचन्द की थी। क्या धार्मिक, क्या मास्कृतिक क्या खजाची गोकुल पारिख थे। जब वे ( दौलतगव ) सन् राजनैतिक मभी क्षेत्रो मे उसकी उदारता की धूम थी। १८२७ ई० ( सवत १८८४ ) मे मर गये। तब उसकी श्री रंगजी का मन्दिर :-- जगह पर बायजाबाई ने जयपुर निवासी मनीराम सेठ सेठ लक्ष्मीचन्द के दो छोटे भाई गधाकृष्ण और को खजाची नियत किया पहिले यह बहत गरीब थे. परत गोबिद दाम थे। वैष्णव धर्म के रामानुज सम्प्रदाय के प्रागे वे बड़े धनाढ्य हो गये । मिधिया दरबार में उम अनुयायी हो गये थे। उन दिनों ब्रज में रामानुज सम्प्रदाय ममय ये अव्वल दर्जे के मालदार गिने जाते थे। इनका की प्रधान गढ़ी गोवर्धन में थी, जिसमें अध्यक्ष श्रीरगाचार्य उरा समय इतना प्रभाव था कि उनकी मलाह लिये बिना नामक एक विद्वान और तपस्वी धर्माचार्य थे। सेठ गधाकोई मरकार को एक पैसा तक कर्ज नही देना था। उनकी कृष्ण और मेठ गोबिददाम ने अपने ज्येष्ठ भ्राता लक्ष्मीदुकान का नाम 'मनीचन्द' करके मशहर था।" काकगेली चन्द स छिपाकर वृन्दावन मे रामानुज मप्रदाय का एक का इतिहास पृ० ३३ । २ मथुग-ए-डिस्ट्रिक्ट मेमोअर (तृतीय संस्करण) पृ. १४ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा के सेठ लक्मीचन्द सम्बन्धी विशेष जानकारी विशाल मन्दिर निर्माण करने की योजना बनायी थी। किया था, तब उसने स्थानीय कलक्टर मि० थोहिल पहले उन्होंने वहाँ पर श्री लक्ष्मीनारायण जी का मन्दिर तथा उसके साथियों को कई दिनों तक अपने मकान मे बनवा कर उसे रंगाचार्य जी को भेंट कर दिया। छिपाये रखा था। उसने सरकारी खजाने की रक्षा की बाद मे स० १९०१ मे उन्होंने श्री रंगजी का विशाल थी और नगर को क्षति से बचा लिया था। जब तक मन्दिर बनवाना प्रारभ किया, किन्तु धन की यथेष्ट विद्रोह ज्ञात नहीं हुआ, तब तक दीन-दुखियों और जरूरत व्यवस्था न होने से उसका निर्माण कार्य रोक देना पड़ा। मन्दों को उसकी पोर से सब प्रकार की सहायता मिलती जब सेठ लक्ष्मीचन्द को उसका ज्ञान हुआ, तब उसने स्वय रही थी। इसमें उसका प्रचुर धन व्यय हुआ था। उसके उसे पूरा किया था। इस प्रकार यह मन्दिर ४५ लाख उपलक्ष में अंगरेजो ने उसे 'रायबहादुर' की पदवी तथा रुपये की लागत से सं० १९०८ मे बनकर पूरा हुआ था। खिलअत और माफी की भूमि प्रदान की थी। यह ब्रज का सबसे विशाल एव सर्वाधिक वैभव सम्पन्न उसने अकाल पीडित लोगो की सहायता करने तथा देव स्थान है और रामानुज संप्रदाय का सबसे बड़ा केन्द्र शिक्षालय बनाने के लिए भी प्रचुर धन दिया था। जब है। इसमें चैत्र के महीने मे 'ब्रह्मोत्सव' का बडा धार्मिक मथुरा से हाथरस तक रेले बनाने का प्रश्न उठा, तब रेल समारोह होता है, जो दस दिनों तक चलता है। इसकी कम्पनी ने उसे इस शर्त पर बनाना स्वीकार किया कि संपत्ति एक करोड से भी अधिक की मानी जाती है। उसके निर्माण-व्यय का कुछ भाग मथुग के निवासी भी हवेली और उद्यान : उठावें । तब सेठों ने प्राय. डेढ लाख के शेयर लिए थे। सेठ लक्ष्मीचन्द के निर्माण कार्यों में उसकी हवेली और पुल बनवाने का समस्त व्यय-भार भी उठाया था। और सुरम्य उद्यान भी उल्लेखनीय है। हवेली मथुरा के यहाँ तक कि उन्होने मदर के ईसाई गिर्जाघर के निर्माप्रसिकुडा बाजार मे श्री द्वारिकाधीश जी के मन्दिर के णार्थ भी ११००) प्रदान किये थे। सामने बनी हुई है और 'सेठ जी की हवेली' कहलाती है। लक्ष्मी चन्द के उत्तराधिकारी :इसका विस्तार असिकडा घाट से लेकर विश्राम घाट तक सेठ लक्ष्मी चन्द की मृत्यु सं० १९२३ मे हुई थी। है। यह हवेली स० १६०२ मे बनी थी और इसके उससे पहले उसके अनुज सेठ राधाकृष्ण का देहान्त सं. निर्माण में उस समय प्रायः एक लाख रुपये की लागत १६१६ में हो चुका था। सोठ लक्ष्मीचन्द का एकमात्र पाई थी। उसका उद्यान मथुरा के सदर बाजार के समीप पुत्र रघुनाथ दास विशेष प्रतिभाशाली नही था। और यमुना के किनारे बना हुआ है और 'यमुना बाग' कह राधाकृष्ण का पुत्र लक्ष्मणदास छोटा बालक था । प्रतः लाता है । इसमे दुर्लभ जाति के पेड-पौधे, सुन्दर इमारते सेठों का समस्त कारबार सेठ गोबिंददास की देख-रेख मे और रमणीक कुज है। इसकी विशेष उन्नति लक्ष्मीचन्द चलता रहा । उस समय भी सेठो की प्रतिष्ठा खूब बढ़ी के वंशज राजा लक्ष्मणदास के काल में हुई थी। हुई थी। ब्रिटिश शासन में सेठ गोबिंददास को स० विविध कार्य : १९३४ (१ जनवरी, सन् १८७७) में C.S.I. का खिताब स० १६१४ मे जब अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जन- दिया था। उसकी मृत्यु स० १६३५ मे हुई थी। मृत्यु से विद्रोह हुप्रा था, तब मथुरा नगर मे भी उपद्रव होने की पहिले उसने श्री द्वारिकाधीश जी के मन्दिर को स० प्राशका हो गयी थी। उस समय सेठ लक्ष्मीचन्द ने अपने १९३० मे कांकरौली के गोस्वामी गिरधरलाल जी को प्रभाव से यहाँ शाति और व्यवस्था कायम करने में बड़ा भेट कर दिया था। सेठ गोविददास के कोई सन्तान काम किया था। एक ओर उसने विद्रोहियो को मार्थिक नही थी। सेठ लक्ष्मी चन्द के पुत्र रघुनाथ दास के भी सहायता से सन्तुष्ट कर नगर की रक्षा की थी तो दूसरी कोई संतान नही हुई थी। इसलिए सेठ राधाकृष्ण का पोर उसने अंगरेजो की भी बडी सहायता की थी। जब पुत्र लक्ष्मणदास सोठों की गद्दी, जायदाद और सम्पत्ति का विद्रोहियों ने छावनी को जलाकर अंगरेजो पर हमला एक मात्र स्वत्वाधिकारी हुपा था। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थों में राष्ट्रकूटों का इतिहास श्री रामवल्लभ सौमारणी दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट राजानो के गौरवपूर्ण जैन दर्शन के महान् विद्वान भट्ट अकलक इसके समय में शासनकाल मे जैनधर्म की अभूतपूर्व उन्नति हई। कई हुए थे। इनके द्वारा विरचित ग्रन्थों में लघीयस्त्रय, प्राचार्यों ने उस समय कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो की सरचना तत्त्वार्थ राजवात्तिक, अष्टशती, सिद्धिविनिश्चय और की जिसमे समसामयिक भारतके इतिहास के लिए उल्लेख- प्रमाण-सग्रह आदि बड़े प्रसिद्ध है। इन ग्रन्थो में यद्यपि नीय सामग्री मिलती है। सम सामयिक गजात्रों का उल्लेख नहीं है किन्तु कथाराष्ट्रफूट राज्य की नीव गोविदराज प्रथम ने चालुक्य कोश नामक ग्रन्थ में इनकी सक्षेप में जीवनी है । इसमे राजाओं को जीतकर डाली थी। इसका पुत्र दतिदुर्ग बडा । इनके पिता का नाम पुरुषोत्तम बतलाया है जिन्हे राजा उल्लेखनीय हुआ है। इसका उपनाम साहसतुग भी था। शुभतुग का मत्री वणित किया है। यह राजा शुभतुग निस्सदेह कृष्णराज प्रथम है और इसी आधार पर श्री के. इसके बाद राजा लक्ष्मणदास इमके वशज का विव- बी. पाठक ने इनको कृष्णराज प्रथम का सम सामयिक रण देकर फिर मुनीम मागीलाल (मथुरा का माहेश्वरी माना है। इसके विपरीत श्रवण बेल्गोला की मल्लिषेण वैश्य और सेठ लक्ष्मीचन्द का प्रधान मुनोम) उसके पुत्र प्रशस्ति मे इन्होंने राजा माहमतुग की सभा मे बड़े गौरव लाला नारायणदास, लाला श्रीनिवासदास का विवरण के साथ यह कहा था कि हे राजन् ! पृथ्वी पर तेरे समान दिया गया है उसे नीचे दिया जा रहा है तो प्रतापी राजा नही है और मेरे समान बुद्धिमान भी गोकुलदास पारिख (मृत्यु स० १८८३) नही है। 'अकलक स्तोत्र; नामक एक अन्य ग्रन्थ मे कुछ मनीराम मुनीम (मृत्यु स० १८९३) पद ऐसे भी है जिन्हे किसी राजा की सभा में कहा जाना वणित है लेकिन इसमें कई स्थलो पर "देवोऽकलङ्का कली" पद पाया है। अतएव प्रतीत होता है कि ग्रन्थ किसी सेठ लक्ष्मीचन्द सेठ राधाकृष्ण सेठ गोविन्दास अन्य के द्वारा लिखा हमा' है। मल्लिषेण प्रशस्ति के (मृ०सं० १९२३) (मृ०स० १६१६) (मृ०स० १६३५) उक्त इलोक सम्भवत जन श्रुति के आधार पर लिखे गये है जो सही प्रतीत होते है। श्री पीर सेनाचार्य भी प्रसिद्ध दर्शन शास्त्री थे। ये सेठ द्वारकादास सेठ दामोदरदास १ जनरल बम्बई ब्राच रायल एशियाटिक सोसाइटी भा० सेठ गोपालदास (गोद) सेठ मथुरादास (गोद) १८ पृ० २२६, कथाकोष मे इस प्रकार उल्लेख है:सेट भगवानदास (गोद) (विद्यमान) २ गजन् साहसतुग सति बहवः श्वेतात पत्रा नृपाः । चौरासी के दि० मन्दिर मूर्तियों के शिलालेख व पुराने किन्तु त्वत्सदृशारणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभाः । कागजात प्राप्त है, प्रकाश मे लाना चाहिए। मैं मथुरा- तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीम्बरा. वाग्मिनो। दासादि पर विशेष जानकारी प्राप्त नहीं कर सका दि० नाना शास्त्रविचार चारुचातुरधियाः काले कलीमद्विधः ।। जैन मन्दिर मूर्तियों के लेख ध्यानपूर्वक संग्रह कर प्रकाश -जन लेख स० भा० २ लेख २९० में लाना चाहिए। ३ न्यायकुमुदचन्द्र की भूमिका पृ० ५५ । (दिवंगत) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन अन्धों में राष्ट्रकूटों का इतिहास ११५ अमोघ वर्ष के शासनकाल तक जीवित थे। इनके द्वारा उल्लेख है । अतएव यह घटना शक सवत ७०५ के पश्चात् विरचित ग्रन्थों मे धवला और जयघवला टीकाएं बड़ी ही हुई है। प्रसिद्ध है। धवला टीका के हिन्दी सम्पादक डा० हीरा- जयघवला के अन्त में लम्बी प्रशस्ति दी हुई है। लाल जी ने इसे कार्तिक शुक्ला १३ शक संवत् ७३८ में इससे ज्ञात होता है कि बीरसेनाचार्य को इस प्रपूर्ण कृति पूर्ण होना वणित किया है और लिखा है कि जिस समय को जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया था। यह टीका शक संवत् राष्ट्रकूट राजा जगतग राज्य त्याग चुके थे और राजा- ७५६ मे महाराजा अमोघ वर्ष के शासनकाल में पूर्ण की धिराज बोहण राय शासक थे इसे पूर्ण किया' श्री ज्योति गई थी। प्रसाद जी जैन ने इसे अस्वीकृत करके लिखा है कि बहुचचित हरिवशपुराण की प्रशस्ति के अनुसार शक प्रशस्ति में स्पष्टत "विक्कम रायम्हि" पाठ है अतएव । सं० ७०५ मे जब दक्षिण मे राजा वल्लभ, उत्तरदिशा में यह विक्रम संवत् होना चाहिए। अतव उन्होंने यह तिथि इन्द्रायुध, पूर्व मे वत्सराज और सौरमडल मे जयवराह ८३८ विक्रम दी है। भाग्य से ज्योतिष के अनुसार दोनो राज्य करते थे तब बडवाण नामक ग्राम मे उक्त ग्रन्थ ही तिथियो की गणना लगभग एकसी है। लेकिन राज पूर्ण हुमा था। शक स० ७०५ की राजनैतिक स्थिति नैतिक स्थिति पर विचार करे। तो प्रकट होगा कि यह बडो उल्लेखनीय है। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा का जो विक्रमी के स्थान पर शक सवत् ही होना चाहिए । इसका उल्लेख है वह सभवतः ध्रुव निरुपम है। गोविन्द द्वितीय मुख्य आधार यह है कि विक्रमी सवत का प्रचलन इतना । की उपाधि भी 'वल्लभराज' थी इसी प्रकार श्रवण वेल्गोला प्राचीन नही है । इसके पूर्व इस सवत का नाम कृत और के लेख न० २४ मे स्तम्भ के पिता ध्रुव निरुपम की भी मालव सवत मिलता है। विक्रमी सवत का सबसे प्राचीन उपाधि वल्लभराज है। गोविन्दराज का शासनकाल अल्पतम लेख १८ का धोलापुर से चण्ड महासेन का मिला कालीन है और शक स० ७०१ के धूलिया के दान पत्र के है। लेकिन इसका प्रचलन उत्तरी भारत मे अधिक रहा पश्चात् उसका कोई लेख नहीं मिला है अतएव यह ध्रुव है। गुजरात और दक्षिणी भारत में उस समय लिसे ताम्र नि निरुपम के लिए ठीक है। उत्तर में इन्द्रायुध का उल्लेख केलि है। उन पत्रों में शक संवत या वल्लभी संबत मिलता है। इसमें है। यह भण्डी वशी राजा इन्द्रायुध है। फ्लीट, भण्डारउल्लिखित जगतुग नि सन्देह राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज कर प्रभति विद्वानो ने भी इसे ठीक माना है। कुछ इसे तृतीय है और बोद्दणराय अमोघवर्ष । अगर विक्रमी संवत् गोविन्दराज (तृतीय) के भाई इन्द्रसेन मानते है जो उस ८३८ मानते है तो यह तिथि ७८१ ई० ही पाती है। समय राष्ट्रकूटो की अोर से गुजरात में प्रशासक था। उस समय गोविन्दराज का पिता ध्रुव निरुपम भी शासक स्वतन्त्र" राजा नही। प्रशस्ति में तो स्पष्टतः इन्द्रायुध नही हुआ था। इसके अतिरिक्त हरिवशपुराण में वार- पाठ है अतएव इस प्रकार के तोड मोड करने के स्थान सेनाचार्य का उल्लेख है लेकिन उनकी इस धवला टीका का पर इसे इन्द्रायुध ही माना जाना ठीक है। पूर्व मे वत्सउल्लेख नही है। स्मरण रहे कि इस प्रथ में समन्तभद्र, - - ७. शाकेष्वन्द शतेषु सत्यमुदिश पञ्चोत्तरेषूत्तरा, देवनन्दि, महासेन प्रादि प्राचार्यों के ग्रंथो का स्पष्टतः पातीन्द्रायुध नाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणा ४ अडतीसम्हि सतसए विक्कमरायं कि एसु सगणामे । पूर्वा श्रीमदन्तिभूभृतिनपे वत्सादिराजेऽपरा, वासे सुतेरसीय भाणु-विलग्गे धवल-पक्खे ।। सौराणामधि मडल जययुते वीरे वराहेऽवति ।। जगतुगदेवरज्जे रियम्हि कुभम्हि राहुणा कोणे । -हरिवशपुराण ६६-५२ । मूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ।। ८ अल्तेकर-राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टालम्स पृ० ५२-५३ धवला० १,१,१ प्रस्तावना ४४-४५। ६ Epigraphica-Indica- Vol. IV P. 196-195 ५ अनेकान्त वर्ष ७ पृ० २०७-२१२ : १० डा. गुलाबचन्द चोधरी-हिस्ट्री माफ नोर्दन इण्डिया ६. भारतीय प्राचीन लिपिमाला पृ०१६६ । फोम जैन सोर्सेज । पृ० ३३ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त राज का उल्लेख है। शक स० ७०० मे लिखी गई अन्य दान पत्रो मे इसका स्पष्टतः उल्लेख है। प्रश्नोत्तर कुवलयामाला मे इस राजा को जालोर का शासक माना रत्नमाला में अन्तिम दिनों में उसका राज्य से विरक्त है । अवन्ति प्रतिहार राजापो के शासन मे सभवत' दति- होना" वर्णित है। अगर अमोघवर्ष जैनधर्म की पोर दुर्ग के शासनकाल से ही थी। आकृष्ट नहीं होता तो निस्सन्देह जिनसेनाचार्य उसकी प्राचार्य जिनसेन" जो प्रादिपराण के कर्ता थे अमोघ प्रशसा में सुन्दर पद नहीं लिखते"। वर्ष के गुरु के नाम से विख्यात है। उत्तर पुराण की उसमे लिखा है कि उसके प्रागे गुप्त राजाओं की प्रशस्ति मे स्पष्टतः वणित है कि वह जिनसेनाचार्य के कीर्ति भी फीकी पड़ गई थी। सजान के दानपत्र मे भी चरण कमलों मे मस्तक रखकर अपने को पवित्र मानता इसी प्रकार का उल्लेख है। उत्तरपुराण की प्रशस्ति मे था" । इसकी बनाई हुई प्रश्नोत्तर रत्नमाला नामक एक अमोघवर्ष के उत्तराधिकारी राजा कृष्ण (द्वितीय) की" छोटी सी पुस्तक मिली है। इसके प्रारम्भ मे "प्रणिपत्य प्रशंसा की है। किन्तु यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा वर्द्धमान" शब्द हैं । यद्यपि यह विवादास्पद है कि अमोघ सकता है कि यह राजा जैन था अथवा नही। किन्तु वर्ष जैनधर्म का पूर्ण अनुयायी था अथवा नही किन्तु यह इसका सामन्त लोकादित्य जो वनवास देश का राजा था सत्य है कि वह जैनधर्म की पोर बहुत आकृष्ट था। इसी अवश्यमेव जैन था। इसकी राजधानी बकापुर थी। यह जैनधर्म का बडा भक्त था । के शासनकाल मे लिखा गया महावीर प्राचार्य का गणितसार सग्रह नामक ग्रन्थ मे अमोघवर्ष के सम्बन्ध मे लिखा शिलालेखों और ताम्रपत्रो में भी गोविन्दराज और है कि उसने समस्त प्राणियो को प्रसन्न करने के लिये अमोघवर्ष का वर्णन मिलता है। गगवशी सामन्त चाकिबहत५काम किया था, जिसकी चित्तवृत्ति रूप अग्नि मे राज की प्रार्थना पर शक स० ७३५ में गोविन्दराज पापकर्म भस्म हो गया था। अतएव ज्ञात होता है कि (तृतीय) ने जालमंगल नामक ग्राम यापनीय सघ को वह बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का था । इसमे स्पष्टतः जैन- दिया था। यह लेख गोविन्दराज (तृतीय) के शासनधर्मावलम्बी वणित किया है। राष्ट्रकूट शिलालेखों से काल का अन्तिम लेख है। उत्तर पुराण में वणित ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष कई बार राज्य छोड़कर दित्य के पिता बाकेय के कहने पर अमोघवर्ष ने जैनमन्दिर एकान्त का जीवन व्यतीत करता था और राज्य युवराज के लिये भूमिदान में दी थी ऐसा एक दानपत्र से प्रकट को सोंप देता था। सजान के दानपत्र के श्लोक ४७व होता है। महाकवि पुष्पदन्द और सोमदेव उस युग के महान् ११ सगकाले बोलीणे बरिसाण सएहि सत्तहिं गएहि । एगदिणेणूणेहिं रइया अवरोह वेलाए॥ १६ अल्तेकर राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स पृ० ८६-६० परभड भिउडी भंगो पणईयण रोहिणीकलाचदो। १७ गुर्जर नरेन्द्रकोतरन्तः पतिता शशाडूशुभ्रायाः । सिरिवच्छराय णामो णरहत्थी पत्थिवो जइया ।। गुप्तव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीतिः ।। -कुवलयमाला १८ हत्वा भ्रातरमेव राज्य महरत् देवी च दीनस्तथा, १२ मल्ते कर-राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स पृ० ४०।। लक्षकोटिमलेखयत् किलकिलो दाता सगुप्तान्वयः । १३ "इत्यमोघवर्ष परमेश्वर परमगुरु श्री जिनसेनाचार्य येनात्याजि तनु स्वराज मसकुत बाह्यार्थः कः काकथा, विरचित मेघदूत वेप्टिते पाश्र्वाभ्युदये............" हस्तिस्योन्नति राष्ट्रकूट तिलक दातेति कीामपि ।।४८ (पार्वाभ्युदय के सर्गों के अन्त की पुष्पिका) -[E. 1 Vol. 18 P. 235] १४ यस्य प्रांशुनखांशु जालविसरद्धारान्तराविर्भव- १६ उत्तर पुराण की प्रशस्ति श्लोक २६-२७ त्पादाम्भोज रजः पिशङ्ग मुकुट प्रत्यग्ररत्नधुतिः । २० उकर पुराण की प्रशस्ति श्लोक २६ और ३० १५ नाथराम प्रेमी-जैन साहित्य का इतिहास पृ० १५२ २१ जन लेख संग्रह भा० ३ की भूमिका पृ० १५ से १७ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थों में राष्ट्रकटों का इतिहास विद्वान् थे । पुष्पदन्त का एक नाम खड भी था। ये महा- हो"। महाकवि धनपाल की पाइप लच्छी नाममाला" मात्य भरत और उनके पुत्र नन्न के ग्राश्रित रहे थे। ये के अनुसार यह घटना १०२६ वि० में घटित हुई थी। दानी राष्ट्रकूट राजा कृष्णराजके लिये "तडिग" "बल्लभ- राष्ट्रकूट राजा खोट्टिग के बाद कर्कराज हुमा। परमार नरेन्द्र" और "कण्हराय" शब्द भी प्रयुक्त किये है२ : आक्रमण के बाद राष्ट्रकूट राज्य का अधः पतन प्रारम्भ तिरुक्कलुरुकनरम् के शिलालेख मे 'कण्हरदेय' शब्द इस हो गया और शीघ्र ही चालुक्यो ने वापिस हस्तगत कर राजा के लिये प्रयुक्त किया गया है। यह राजा जब लिया। मेलपाटी के सैनिकशिविर मे था तब सोमदेव ने यशस्तिलक सस्कृत और प्राकृत के साथ साथ कन्नड भाषा मे भी चम्पू ग्रन्थ को पूर्ण किया था। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से कई दानपत्र और ग्रन्थ लिखे गये। इनमें सबसे उल्लेखज्ञात होता है कि अरिकेशरी के पुत्र वद्दिग की राजधानी नीय महाकवि पम्प है। इसके द्वारा विरचित आदिपुराण गगधारा में यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ था। इसमे स्पष्टतः वणित चम्पू और विक्रमार्जुन विजय ग्रन्थ प्रसिद्ध है पिछले ग्रन्थ है कि कृष्णराज ने पाण्ड्य, सिंहल, चोल, चेर आदि में अरिकेशरी की जो चालुक्यवशीय था और जा सोमदेव राजापो को जीता था। इस बात की पुष्टि सम साम- के यशस्तिलक चम्पू मे भी वणित है, वशावली दी गई यिक पत्रो से भी होती है । पुष्पदन्त के प्रादिपुराण में है। विकृमार्जुन विजय ऐतिहासिक ग्रन्य है । इसमे राष्ट्रमान्यखेटपुर को मालवे के राजा द्वारा विनष्ट करने का कूट राजा गोविन्द (तृतीय) के विरुद्ध उसके सामन्त उल्लेख है"। यशोघर चरित की प्रशस्ति से ज्ञात होता राजारों के आक्रमण करने और राज्य को बहिगराज को है कि जिस समय सारा जनपद नीरस हो गया था, चारो मोपने का उल्लेख है। वद्दिग अमोघवर्ष (द्वितीय) का ही ओर दुसह दुःख व्याप्त हो रहा था, जगह जगह मनुष्यो उपनाम प्रतीत होता है। की खोपडिया मौर ककाल विखर रहे थे, सर्वत्र करक ही शासन व्यवस्था करक दिखाई दे रहा था उस समय महात्मा नन्न ने मुझे राष्ट्रकूट राजारों के राजनैतिक इतिहास के साथसरस भोजन और सुन्दर वस्त्र दिये अतएव वह चिरायु साथ समसामयिक राज्य व्यवस्था का भी जैन ग्रन्थो में सविस्तार वर्णन मिलता है। प्रादिपुराण और नीतिवाक्या२२ सिरिकण्हरायकरयलणिहिमप्रसिजलवाहिणि दुग्गयरि । मृत में इसका स्पष्ट चित्र खीचा गया है। राजा मोर -प्रादिपुराण अ० ३ की भूमिका पृ० १६ मत्रियो को उस समय वश परम्परागत अधिकार प्राप्त २३ E.I. VOL 3 P. 282 एवं साउथ इडियन इसक्रिपसन भा० १ पृ० ७६. २६ जणवय नीरसि दुरियमलीमसि, २४ 'पाण्डय सिंहल - चोल-चेरम - प्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य कइणिदायरि दुसहे दुइयरि। मेलपाटी प्रवर्द्धमानराज्यप्रभावे श्री कृष्णराजदेवे'... पडियकवालइणरककालइ, बहुरकालइ अइ दुक्कालइ । एवं ८८० शक के दान पत्र मे "तं दीण दिण्ण धण पपरागारि सरसाहारि, ण्हि चेलि वरतबोलि । कणयपया महिपरिभमतु मेलाडिणयरु" उल्लेखित महु उवयारिउ पुण्णि परिउ, गुणभत्तिल्लउ णण्णु महल्लउ । २५ दीनानाथ धन सदा बहुजन प्रोत्फुल्ल वल्लीवनं । होउ चिराउस............" मान्याखेटपुरं पुरदर पुरी लीलाहरं सुन्दरम् । -यशोधर चरित ४।३१ पृ० १०० धारानाथ नरेन्द्रकोप शिखिना दग्घ विदग्धं प्रिये। २७ विक्कम कालस्स गए अउणतीसुत्तरे सहस्सम्मि । क्वेदानी बसति करिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः ॥ मालवरिदघाडीए नूडिए मन्नखेडम्मि । -यह पद सदिग्ध और क्षेपक है) महापुराण ५०वी -पाइअलच्छी नाममाला पृ०४५ सधि। २८ अल्तेकर राष्ट्रकूटाज पृ० १०७-१०८ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त थे। मत्रियो की संख्या सीमित रखने का उल्लेख सोम- उल्लेख शिलालेखों में भी मिलता है। अन्तःपुर की व्यवदेव ने किया है। मंत्रिमण्डल मे मंत्रियों के अतिरिक्त स्था का भी उल्लेख मिलता है। इसकी रक्षा के लिए अमात्य (रेवेन्यू मिनिस्टर) सेनापति, पुरोहित, दण्डनायक वृद्ध कचुकी गण नियुक्त थे। राजाओं द्वारा जलक्रीडाएं अादि भी होते थे। गाँवों के मुखियों का उल्लेख प्रादि और कई प्रकार की गोष्ठियां किये जाने का भी वर्णन पुराण मे है। तलार जो नगर अधिकारी था का उल्लेख मिलता है। आदिपुराण, नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलक चम्पू मे भी है । अप्टादश श्रेणिगण प्रधानो का भी उल्लेख यत्र तत्र सांस्कृतिक सामग्री : मिलता है। नीतिवाक्यामत मे कई प्रकार के गुप्तचरी का उस समय सांस्कृतिक गतिविधियो के अध्ययन के उल्लेख है। राज्य कर जो प्राय धन के रूप मे लिया लिए जन सामग्री बहुत ही महत्वपूर्ण है। वर्णव्यवस्था जाता था यह उपज का एक भाग था। इनके अतिरिक्त वर्णाश्रमधर्म", सामाजिक सस्कार", वेश्यावृत्ति, भोजन शुल्क मंडपिकाओं द्वारा भी संगृहीत किया जाता था। व्यवस्था", शिक्षा", चित्रकला, सगीत", आभूषण": राजानों के ऐश्वर्य का सविस्तार वर्णन है। इनके राज्या सौन्दर्य प्रसाधन", चिकित्सा साधन, खेतो की व्यवस्था" भिषेक के समय किये जाने वाले उत्सवो का भी प्रादि का इनमे सागोपाग वर्णन मिलता है । समसामयिक पुराण मे वर्णन है। राजानो का अभिषेक भी एक के वास्तुशिल्प का भी सविस्तार वर्णन मिलता है। मादर विशिष्ट पद्धति द्वारा कराया जाता था। राज्याभिषेक के महल आदि के वर्णनों में इस प्रकार की सामग्री उल्लेखसमय “पट्टबधन" होता था। यह पट्टबधन युवराज पद पर नीय है। श्री अल्तेकर जी ने अपने ग्रन्थ राष्ट्रकूटाज एण्ड नियुक्त करते समय भी बाधा जाता था। पट्टबधन" का देयर टाइम्स में इस सामग्री का अधिक उपयोग नही २६ सन्तान क्रमतोगताऽपि हि रम्या कृष्टा प्रभोः सेवया' किया है। इस सामग्री का अध्ययन वांछनीय है। महामंत्री भरत ने वा परपरागत पद को जो कुछ दिनों के लिए चला गया था पुनः प्राप्त किया। ____३२ प्रादिपुराण १६, १८१-१८८, २४२-२४६, १४७, - महापुराण भा० ३ पृ० १३ ।। २६-१४२। ३० "बहवो मत्रिण: परस्पर स्वमतीरुत्कर्षयन्ति । १०-७३ ' ३३ ३८-४५-४८ और ४२वा पर्व । ३१ पट्टबन्धापदेशेन तस्मिन् प्राध्व कृतेव सा। - आदि ०११-४२ ३४ ४० और ३६वा पर्व । राजपट्ट बबन्धास्य ज्यायासमवधीरयत्। -प्रादि पु० ५-२०७ ३६६-१८६-१८८, २०३, १६-७३ । "मणे' के शक सं०७१६ के लेख मे--राष्ट्रकुट ३७ १४-- [१६०, १६१], १६८ [१०५---१२८ । पल्लवान्वयतिलकाभ्या मूर्धाभषिक्त गोविन्दराज १८ [१७०-१६१।। नन्दि वर्मामिधेयाभ्या समुनिष्ठित - राज्याभिषेकाभ्या ३९ १४ |१०-१५०] १२ [२०६-२०६। निजकर घटित पट्ट विभूषित ललाट-पट्टो विख्यात ।" ४० १६ /४४-७१] १६ [८१-८४] । इसी प्रकार पट्टबन्धो जगबन्धो. ललाटे विनिवेशित । ४१ १२ (१७४] ११ | १३१] ६ (३०-३२] । प्रा० पु. १६-२३३ का उल्लेख है। पुष्पदन्त ने ४२ ११-५६, ११, ५८, ११, ६६, ११-७४-७६, गजानों के अभिषेक और चमरो का उल्लेख व्यंग के २८ J३८,४०] । साथ किया है । "चमराणिल उड्डाविय , अट्टि- ४३ २६ [११२-११५] २६ [४०] २६ [१२३-१२७] सेय धोय सुमणत्तणाई॥ २८ [३२-३६] १६ [११७] । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री "उपयोगो लक्षणम्' इस मूत्र के अनुसार जीव का उपयोग का नाम दर्शन है। जो उपयोग कर्मता और लक्षण उपयोग माना गया है । इस उपयोग के लक्षण का कर्तृता (उभय) रूप प्राकार से युक्त होता है उसे साकार निर्देश करते हए सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक मे कहा तथा जो इस प्रकार से रहित होता है उसे अनाकार कहा गया है कि बाह्य और अन्तरग निमित्त से चेतनता का जाता है। यह कथन अात्मविषयक उपयोग को दर्शन अनुसरण करने वाला जो परिणाम उत्पन्न होता है उसका और बहिरविषयक उपयोग को ज्ञान मानने पर घटित नाम उपयोग है। होता है। तदनुसार 'मै घट को जानता हूँ" इम ज्ञान में हरिभद्र मूरि ने उपलब्धि या जान-दर्शन की समाधि- जिस प्रकार कर्ता और कर्म दोनो प्रतिभासित होते है उस सम्यक् अर्थात् अपने विषय की मीमा का उल्लघन न करके प्रकार घटज्ञानोत्पादक प्रयत्न से सम्बद्ध प्रात्मा के वेदनरूप धारणको उपयोग कहा है। प्राचार्य मलयगिरि के अभि. दर्शन मे वे दोनो प्रतिभासित नही होने-केवल कर्ता व प्रात्मा मनानमार वस्तु के जानने के प्रति जो जीव का व्यापार का ही प्रतिभास उसमें होता है, न कि कम का। होता है उमे, अथवा जिसके पाश्रय से वस्तु का परिच्छेदन यहा यह शका हो सकती है कि प्रात्मविषयक उपहोता है उसे उपयोग कहा जाता है'। योग को दर्शन मानने पर उसका जं सामण्णग्गहणं भावाणं णेव कट्टमायारं । उपयोग के दो भेद व उनका स्वरूप प्रविसेसिदूण प्रत्थे दसणमिदि भण्णदे समए । वह उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का इस परमागम प्ररूपित मामान्यग्रहण स्वरूप दर्शन के है। उनमे साकार उपयोग का नाम ज्ञान और अनाकार साथ क्यो न विरोध होगा? पर इस शका के लिए ४ स. सि. २-६; त. वा. २,९,१, धवला पु. १३, उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चतन्यानुविधायी परि पृ. २०७; स उपयोगो द्विविध: साकारोऽनाकारच, णाम उपयोगः । स. सि. २.८; बाह्याभ्यन्तरहेतु ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेत्यर्थः । त. भा. २.६. द्वयसन्निधाने यथासम्भवमुपलब्धुश्चतन्यानुविधायी को प्रणागारुवजोगो णाम मागारुवजोगादो अण्णो। परिणाम उपयोगः । त. वा. २,८,१. कम्म-कत्तारभावो पागागे, तेण प्रागारेण सह वट्टउपयोजनमुपयोगः उपलम्भः, ज्ञान-दर्शनसमाधिः । त. माणो उवजोगो मागागे ति। धवला पु १३,पृ. २०७. भा हरि. वृत्ति २-८; उपयोग उपलम्भः, ज्ञान-दर्शन म्वस्माद् भिन्नवस्तुपरिच्छेदक ज्ञानम्, स्वतोऽभिन्नसमाधिः-ज्ञान-दर्शनयोः सम्यक् स्वविषयसीमानुल्ल वस्तुपरिच्छेदक दर्शनम् । धवला पु. १, पृ ३८३-८४, घनेन वारण समाधिरुच्यते। त.भा.सिद्ध. वृत्ति २-८. अप्पविसनो उवजोगो दसण । ण णाणमेद, तस्स उपयोजनमुपयोग., भावे घञ्, यद्वा उपयुज्यते वस्तु- बज्झट्टविसयत्तादो । धवला पु ६, पृ. ६, किं परिच्छेद प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः, 'पुनाम्नि दर्शनम् ? जानोत्पादकप्रयलानुविद्धस्वसवेदो दर्शनम्, घ' इति करणे घ-प्रत्यय , बोवरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो आत्मविषयोपयोग इत्यर्थ । वही पृ. ३२-३३; व्यापारः प्रजप्तः प्रतिपादितः। प्रज्ञापना म. वृत्ति बाह्यार्थपरिच्छेदिका शक्तिर्ज्ञानम् । धवला पु. १३, २९-३१२. पृ. २०६. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० भनेकान्त कोई स्थान नही है। कारण कि उक्त गाथासूत्र में प्रयुक्त जो जानता है उसका नाम ज्ञान है और वह विशेष'सामान्य' शब्द आत्मा का ही वाचक है। जीव चूकि बिना ग्रहणस्वरूप या साकार है। जो देखता है उसका नाम किसी प्रकार के नियम (विशेषता) के ही तीनों काल- दर्शन है और वह सामान्यग्रहणस्वरूप या अनाकार है। विषयक अनन्त अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्यायों से युक्त हरिभद्र सूरि के मतानुसार घट-पटादि विशेषों का बाह्य व अन्तरग पदार्थों को विषय करता है, अतएव उसके जो निविशेष-विशेषरूपता का परित्याग कर सामान्य 'सामान्य' मानने में कुछ बाधा उपस्थित नही होती। आकार से-ग्रहण होता है, इसका नाम दर्शन है। आत्मविषयक उपयोग के दर्शन मानने में दूसरी शंका तथा उन्ही का जो सविशेष-सामान्य आकार को छोडकर यह भी हो सकती है कि दर्शन के विषयभूत आत्मा मे कुछ विशेष रूप से-ग्रहण होता है वह ज्ञान कहलाता है। भेद न होने से चक्षुदर्शन आदि चारों ही दर्शनों में कुछ साकारता व अनाकारता का स्वरूप भेद नहीं रहेगा ? इसका उत्तर यह है कि जो स्वरूप- कर्मता व कर्तृता का नाम प्राकार है, इस प्रकार के सवेदन जिस ज्ञान का उत्पादक होता है उसका वह दर्शन साथ वर्तमान उपयोग को माकार और उससे भिन्न को माना जाता है। इससे उस दर्शन की चतुर्विधता में कोई अनाकार कहा जाता है । बाधा नही पहुँचती । जैसे-चक्षरिन्द्रियावरण के क्षयोप आकार, विकल्प और अर्थग्रहणपरिणाम, ये समानार्थक शम से उत्पन्न होने वाले ज्ञान के विषयभूत जितने भी है। इस प्रकार के प्रकार से सहित साकार और उसस पदार्थ सम्भव है उतने ही तत्-तत् नाम वाले आत्मस्थित ४ जाणइ त्ति नाणं, त च ज विसेसग्गहण तं णाण, साक्षयोपशम भी होंगे। अतः उनके प्राथय से प्रात्मा भी गारमित्यर्थः । पासति ति दसण, तं च ज सामण्णग्गउतने ही प्रकारका होगा। इस प्रकार भिन्न-भिन्न शक्ति हणं तं दसणं, अणागारमित्यर्थः । नन्दी. चूणि २७, से युक्त प्रात्मा के वेदन के दर्शन मानने में दर्शन की पृ २०. विविधता अक्षुण्ण बनी रहती है। ५ ज एत्थ णिव्विसेस गहो विसेसाण दंसण होति । जो यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रकाशक अथवा तत्त्वार्थ का उपलम्भक है उसका नाम ज्ञान तथा प्रकाशवृत्तिका नाम सविसेस पुण णाण ता सयलत्थे तो दो वि ।। दर्शन है, इस प्रकार भी उक्त ज्ञान-दर्शन का लक्षण अन्यत्र जं सामण्णपहाण गहण इतरोवसज्जण चेव । अत्थस्स दसण त विवरीय होइ णाण तु ॥ उपलब्ध होता है। धर्मसग्रहणी १३६४ व १३६८. ....... अप्पत्थम्मि पउत्त-सामण्ण-सद्दग्गहणादो। ण दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमादिज सामान्यमात्रग्रहण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्ध, णियमेण विणा विसयी दर्शनमिति । उक्तं च-जं सामण्णग्गहण भावाण कयत्तिकालगोयराणतत्थ- वेजणपज्जग्रोवचियबज्झतर कट्ट नेय प्रागार । अविसेसिऊण अत्थ दसणमिति गाण तत्थ सामण्णत्ताविरोहादो । धवला पु ७, वुच्चए समए । अनुयो. हरि. वृत्ति पृ. १०३. पृ १००, धवला पु.१, पृ. ३८०; पु. १३, पृ ३५४, विशेषग्राहि ज्ञानम्, सामान्यग्राहि दर्शनम् । ३५५ और जयघवला १, पृ. ३६० भी द्रष्टव्य है । पंचास्तिकाय अमृत. वृत्ति ४०; सविकल्प ज्ञानम्, २ अात्मविषयोपयोगस्य दर्शनत्वेऽङ्गीक्रियमाणे आत्मनो विविकल्प दर्शनम् । (जयसेन वृत्ति) विशेषाभावाच्चतुर्णामपि दर्शनानामविशेष स्यादिति को अणागारुवजोगो णाम ? सागारुवजोगादो अण्णो। चेन्नैष दोपः, यद्यस्य ज्ञानस्योत्पादक स्वरूपसवेदन तम्य तदर्शनव्यपदेशान्न दर्शनस्य चातुर्विध्यनियमः । कम्म-कत्तारभावो पागारो, तेण प्रागारेण सह वट्टयावन्तश्चक्षुरिन्द्रियक्षयोपशम......."। धवला पु १, माणो उवजोगो सागारो ति। धवला पु. १३, पृ. पृ. ३८१-८२. २०७; आयारो कम्मकारय सयलत्थसत्पादो पुध भूतार्थप्रकाशकं ज्ञान तत्त्वार्थोपलम्भक वा ।....... काऊण बुद्धिगोयरमुवणीयं, तेण पायारेणं सह वट्टमाण प्रकाशवृत्तिदर्शनम् । धवला पु. ७, पृ. ७. सायारं। तविवरीयमणायारं । जयधवला १, पृ. ३३८. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन १२१ विपरीत अनाकार कहा जाता है। नाम प्रचक्षुदर्शन है। परमाणु को आदि लेकर अन्तिम अन्यत्र प्रतिनियत अर्थग्रहण परिणाम को आकार कह। स्कन्ध पर्यन्त मूर्तिक द्रव्यो को जो प्रत्यक्ष (साक्षात्) देखता गया है । जो उपयोग इस प्रकार के साथ रहता है वह है वह अवघिदर्शन कहलाता है। जो लोक व अलोक को साकार कहलाता है। अभिप्राय यह है कि सचेतन अथवा तिमिर से रहित करता है- उन्हे प्रकाशित करता हैअचेतन वस्तु के विषय में उपयोग को लगाने वाला यात्मा उसे केवलदर्शन कहते है। जब पर्याय (विशेष) सहित ही वस्तु को ग्रहण करता है धवला में इनके लक्षण इस प्रकार देखे जाते हैतब वह उपयोग साकार कहलाता है। इस प्रकार से चाक्षुष ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से सम्बद्ध आत्मा के संवेदन रहित उपयोग को अनाकार कहा जाता है। अभिप्राय यह मे 'मै रूप के दर्शन में समर्थ हैं' इस प्रकार की सम्भावना है कि जिस प्रकार हाथी, घोड़ा एव पादचारी प्रादि भेद का जो हेतु है उसे चक्षुदर्शन कहते है। शेष इन्द्रियो और से रहित सामान्य सेना को स्कन्धावार कहा जाता है मन के दर्शन को अचक्षुदर्शन कहा जाता है। अवधिज्ञान उसी प्रकार जो वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है के दर्शन का नाम अबधिदर्शन और केवल-प्रतिपक्ष से उसे अनाकार उपयोग समझना चाहिये। रहित-दर्शन का नाम केवलदर्शन है। दर्शनोपयोग के भेद अनुयोगद्वार सूत्र में दर्शनचतुष्टय के स्वरूप की मूचना इस प्रकार की गई है-चक्षु इन्द्रिय के द्वारा चक्षउपर्युक्त दोनो उपयोगो मे से दर्शनोपयोग चार प्रकार दर्शनी जीव के जो घट, पट, चटाई और रथ आदि द्रव्य का है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवल. दर्शन। ३ धवला पु७ ( पृ १०० ) मे 'सेसिदियप्पयासो चक्षो को जो प्रकाशित होता है अथवा दिखता है, णादवो सो अचक्खू त्ति' के स्थान में 'दिट्ठस्स य ज उसका नाम चक्षुदर्शन और शेष इन्द्रियो के प्रकाश का सरण णायव्व त अचक्ख ती' पाठ है। तदनुमार १ प्राकारो विकल्पोऽर्थग्रहणपरिणाम इत्यनर्थान्तरम् । प्रचक्षदर्शन का लक्षण 'देखे हुए पदार्थ का स्मरण' ठहरता है। सहाकारण साकार, तद्विपरीतोऽनाकारः। त भा४ पचसग्रह १,१३६-४१, गो. जी. ४८३-८५. प्रकृत हरि. वृत्ति २.६; आकारो विकल्पः, सह प्राकारण गाथाय धबला पु. १, पृ. ३८२ पर उद्धृत पायी साकारः, अनाकारस्तद्विपरीत., निर्विकल्प इत्यर्थः । जाती है। पूर्व की दो गाथायें धवला पु ७, पृ. १०० त. भा. सिद्ध. वृत्ति २-६; साकार सविकल्पकम्, पर भी उद्धृत है। वहाँ उनका विशेष अर्थ भी ज्ञानमित्यर्थः । अनाकार निर्विकल्पकम्, दर्शनमित्यर्थ । द्रप्टव्य है जो वीरसेन स्वामी के द्वारा किया गया है। त. सुखबोधा वृत्ति २-६. ५ तत्र चक्षुर्ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वस वेदने रूपदर्शनप्राकार. प्रतिनियतोऽर्थग्रहणपरिणामः, 'पागारी अ क्षमोऽहमिति सम्भावनाहेतुश्चक्षुर्दर्शनम् । .......... विसे सो' इति वचनात् । सह प्राकारेण वर्तते इति शेषेन्द्रिय-मनसा दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् ।............ माकार, स चामावपयोगश्च साकारोपयोग । कि- अवधेर्दर्शनम् अवधिदर्शनम् । ......... केवलमसमुक्तं भवति? सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुजान पत्नम्, केवल च तद् दर्शन च केवलदर्शनम् । धवला प्रात्मा यदा सपर्यायमेव वस्तु परिछिनत्ति तदा स पु ६, पृ. ३३, चवखुविण्णाणुप्पायणकारण सगसवेउपयोग साकार उच्यते । स कालत: छपस्थानामन्त यण चक्खुदमण णाम ।........सोद-घाण-जिन्भामहर्तकालः, केवलिनामेकसामयिकः । तथा न विद्यते फास-मणेहितो समुप्पज्जमाणणाणकारणसगसवेयणमयथोक्तरूप आकारो यत्र सोऽनाकारः। स चासावुप- चक्खुदसण णाम ।........ परमाणुअादिमहक्खधंतयोगश्च अनाकारोपयोगः, यस्तु वस्तुनः सामान्यरूप- पोग्गलदवविसयमोहिणाणकारणसगसवेयण प्रोहिदसण तया परिच्छेदः सो अनाकारोपयोगः स्कन्धावारोप ......... केवलणाणुप्पत्तिकारणसगसवेयण केवलदसणं योगवदित्यर्थः । प्रज्ञापना मलय. वृत्ति २६.३१२. णाम । धवला पु १३, पृ. ३५५. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनेकान्त विषयक दर्शन होता है वह चक्षुदर्शन कहलाता है। शेष नेत्रोपलब्धि के समान चक्षु इन्द्रिय के द्वारा जो उपलब्धि इन्द्रियो के द्वारा अचक्षुदर्शनी जीव के उक्त घट-पटादि ~सामान्य अर्थ का ग्रहण-होता है उसे चक्षुदर्शन कहते द्रव्यों का जीव के साथ सम्बन्ध होने पर जो उनका दर्शन हैं। शेष श्रोत्रादि इन्द्रियो के द्वारा होने वाले सामान्यहोता है उसे अचक्षुदर्शन कहते है । (यहाँ अचक्षुदर्शन के ग्रहण का नाम प्रचक्षुदर्शन है । अवधिदर्शनावरण के क्षयोलक्षण मे जीव के साथ सम्बन्ध का निर्देश करके शेष पगम में विशेषग्रहण से विमुख अवधिदर्शन कहा जाता इन्द्रियों की प्राप्यकारिता को सूचित किया गया है।) है। इसका स्वामी नियम से सम्यग्दृष्टि ही होता है। अवधिदर्शनी जीव के जो समस्त रूपी द्रव्यो और उनकी प्रात्मा स्वभावत. समस्त प्रात्मप्रदेशों में व्याप्त रहने कुछ पर्यायो का दर्शन होता है उसे अवधिदर्शन कहा वाले विशुद्ध अनन्तदर्शन सामान्य स्वरूप है, पर उसके जाता है। केवल दर्शनी जीव के जो समस्त द्रव्यो और वे प्रदेश अनादि काल से दर्शनावरण कर्म के द्वारा पाच्छा समस्त पर्यायों का दर्शन होता है उसका नाम केवल- दिन हो रहे है। वही आत्मा चक्षदर्शनावरण के क्षयोपशम दर्शन है। और चक्षु इन्द्रिय के पालम्बन से मूर्त द्रव्य को जो कुछ श्री चन्द्रमहर्षि अपने पसग्रह की स्वो. व्याख्या मे अश में सामान्य से जानता है उसका नाम चक्षुदर्शन है। नेत्रों के द्वारा होने वाले दर्शन को नयन (चक्षु) दर्शन अचक्षदर्शनावरण के क्षयोपशम और चक्षु को छोड़कर और शेष इन्द्रियों से होने वाले दर्शन को अनयन (अचक्षु) इतर चार इन्द्रियो व मन के पालम्बन से जो मूर्त व दर्शन कहते है। अमूर्त द्रव्यों का कुछ अश में सामान्य से अवबोध होता है, तत्त्वार्थभाप्य की वृत्ति में कहा गया है कि स्कन्धावार वह अचक्षुदर्शन कहलाता है। अवधिदर्शनावरण के क्षयोके उपयोग के समान अथवा उसी दिन उत्पन्न हुए शिशुकी पशम मे मूर्त द्रव्य का जो कुछ अंश मे सामान्य से अवबोध १ चक्खुदसण चक्खुदसणिस्स घड-पड-कड-रहाइएसु होता है उसे अवधिदर्शन कहा जाता है। समस्त दर्शनादब्वेसु, अचक्षुदसण अचक्खुदसणिस्स प्रायभावे, वरण के अत्यन्त क्षय से जो अन्य किसी की भी सहायता मोहिदसण सव्वरूविदब्बेसु न पुण सव्वपज्जवेसु, केवल- के बिना समस्त मूत पार अमूत द्रव्यों का सामान्य से अवदसण केवलदसणिस्म सव्वदव्वेसु अ सव्वपज्जवसु । बोध होता है, यह स्वाभाविक केवलदर्शन का लक्षण है। अनुयोग. मूत्र १४४, पृ. २१६-२०.। दर्शन-ज्ञान को क्रमाक्रमवृत्तिता इसकी टीका मे हरिभद्र सूरि (हरि वृत्ति पृ. १०३) उक्त दोनो उपयोगो मे मति आदि चार ज्ञान और और मल. हेमचन्द्र सूरि (अनु. वृत्ति पृ. २१६-२०)ने चक्षदर्शनादि तीन दर्शन क्षायोपशमिक है, जो छद्मस्थ के चक्षुदर्शन और प्रचक्षुदर्शन में इतनी विशेषता मूचित पाये जाते है। तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो की है कि ये दोनों दर्शन विवक्षित इन्द्रियावरण के । क्षायिक उपयोग है और वे केवली पाये जाते है। छयस्थ क्षयोपशम और द्रव्येन्द्रिय के अनुपात में होते है। साथ ही यह भी एक विशेषता प्रगट कर दी है कि ३ त. भा. मिद्ध. वृत्ति २.५. दर्शन का विषय सामान्य ही है, प्रकृत मे जो घट- ४ पचास्तिकाय अमृ. वृत्ति ४२; प्रा मलयगिरि के पटादि विशेष द्रव्यो का निर्देश किया गया है उससे द्वारा इनके लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैंउनसे (विशेषोंसे) अनन्तभूत-कचित् अभिन्न- चक्षुषा दर्शन चक्षुर्दर्शनम् ।......."अचक्षुषा-चक्षुमामान्य को ग्रहण करना चाहिए। वशेषेन्द्रिय-मनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् ।........... नयनाभ्या दर्शन नयनदर्शनम् ।.... शेषेन्द्रियदर्शन अवधिरेव दर्शनमवधिदर्शनम् । ..... केवलमेव दर्शन अनयनदर्शनम् । पचस. स्वो. व्याख्या ३-१२२, केवलदर्शनम् । प्रज्ञापना मलय. वृत्ति २३-२६३ व २६.३१२ तथा पंचसग्रह वृत्ति २.४, पृ. ११०. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन १२३ के पूर्व मे दर्शन और तत्पश्चात् ज्ञान हुआ करता है। इस केवली के केवलज्ञानावरण का क्षय हो जाने पर जिस प्रकार छद्मस्थ के दोनों उपयोगों में क्रमवृत्तिता है। परन्तु प्रकार केवलज्ञान प्रादुर्भूत होता है उसी प्रकार केवलकेवली के ये दोनों उपयोग क्रम से होते है या युगपत्, दर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शन भी उनके होना ही इसमें कुछ मतभिन्नता है जो इस प्रकार है चाहिए। कितने ही प्राचार्य इन दोनों उपयोगों का अस्तित्व सूत्र में केवलज्ञान और केवलदर्शन को सादि-अनन्त केवली के युगपत् मानते है। इसके लिए वे निम्न युक्तिया कहा गया है । यदि उक्त दोनो उपयोगो को साथ न माना देते है जाय-एकान्तरित माना जाता है- तो उनकी यह सूत्रोक्त अनन्तता समाप्त हो जाती है। १ दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवयोगा। जुगवं जम्हा..........॥ द्रव्यसंग्रह ४४. न तु अन्य । नियमात्-नियमन । नन्दी. हरि. वृत्ति मणपज्जवणाणतो णाणस्स दरिसणस विसेसो । पृ ४० (ई० १९६६). समतितर्क २।३. परन्तु जयधवलाकारके अभिप्रायको देखते हुए ऐसा ...... 'ज्ञान-दर्शनोपयोगी क्रमेण भवत इति प्रतीत होता है कि वे सिद्धसेन सूरि को केवलज्ञान यावत् । तथाहि-चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि चधर और केवलदर्शन की एकता (अभेद) के पक्षपाती चक्षुरवधिदर्शनेभ्य. पृथक्कालानि, छद्मस्थोपयोगा मानते है। उन्होंने जयधवला (१, पृ. ३५७) में त्मकज्ञानत्वात् श्रुत-मन पर्यायज्ञानवत् । समतितर्क 'जण केवलणाण स-परपयासय, तेण केवलदसणं णत्थि अभय. वृत्ति २।३ त्ति के वि भणनि' यह सूचित करके आगे 'एत्थुवजुगव वट्टइ णाण केवलणाणिस्म दमण च तहा। उज्जतीग्रो गाहापो' लिवकर समतितककी 'मणपज्जवदिणयम्पयास-ताव जह बट्टइ तह मुणयन्त्र । णाणंतो' इत्यादि गाथा (२।३) को उद्धृत कर -नियमसार १६०. 'पद पि ण घडदे' प्रादि सदर्भ के द्वारा निरसन किया ___ण च दोण्हमुवजोगाणमकमेण वृत्ती विरुद्धा, है। यहा विचारणीय यह है कि गाथा उन्होने केवल कम्मकयस्स कमस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ एक ही उद्धृत की है, पर पत्थुवउज्जतीनो गाहाम्रो' मतविरोहादो । जयध. १, पृ ३५६ ५७ लिख कर सूचना उन्होने अनेक गाथानो के उद्धृत . . . . . . . . केवलिणाहे तु ते दो वि ।। द्रव्यसग्रह ४४. करने की की है । यह कुछ विसगतिसी दिखती है । अभयदेव मुरि के अनुमार समतितर्क के कर्ता नन्दी. चणि (पृ२८-- ई० १६६६) और उक्त हरि. सिद्धसेन मूरि भी केवली के केवलज्ञान और केवल वृत्ति में प्रकृत गाथा के आगे उन दोनो उपयोगो के दर्शन को युगपत् स्वीकार करते है। यथा-केवल अभेद की सूचक 'अण्णे ण नेव वीसु दसणमिच्छति ज्ञान पुन. केवलाख्यो बोध. दर्शनमिति वा ज्ञान जिणग्दिस्स । ज चिय केवलणाण त चिय से दसण मिति वा यत् केवल तत् समानम्-समानकालम्, वेति ॥' यह एक अन्य गाथा भी उपलब्ध होती है। द्वयमपि युगपदेवेति भावः । समति अभय. वृत्ति २।३. सभव है लेखक के प्रमादवश यह गाथा जयधवला में __ अभयदेव के समान हरिभद्र सूरि भी उन्हे उक्त लिखने से रह गई हो। यह गाथा हरिभद्र की धर्मदोनो उपयोगो को युगपत् स्वीकार करने वाले प्रगट। सग्रहणी में भी प्रकृत गाथा के आगे १३३७ न० पर पायी जाती है। करते है। वे नन्दीसूत्र की अपनी वृत्ति में उद्धृत समति २।५, ज्ञान-दर्शनयोरक्रमेण प्रवृत्ति, कि न "केई भणंति जुगव जाणइ पासइ य केवली णियमा।" स्यादिति चेत् किमिति न भवति ? भवत्येव, क्षीणाइस गाथा का अर्थ इस प्रकार करते है-'केचन' वरणे द्वयोरक्रमण प्रवृत्त्युपलम्भात् । धवला पु. १, सिद्धसेनाचार्यादयः 'भणति'। किम् ? 'युगपद' एक पृ. ३८४. स्मिन्नेव काले 'जानाति पश्यति च' । क. ? केवली, ४ समति. २, ७-८; धर्मसग्रहणी १३३८. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनेकान्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनों के एक माथ क्षय करते हैको प्राप्त हो जाने पर भी यदि केवली के वे दोनों उपयोग पूर्वोक्त आदि-निधनता के प्रसग का निरसन करते एक काल मे नही रहते है तो केवलज्ञानकाल मे केवल- हए कहा गया है कि आगम मे मति आदि तीन ज्ञानो के दर्शन के प्रभाव से जैसे दर्शनावरण का क्षय निरर्थक क्षयोपशम का काल छयासठ सागरोपम कहा गया है। ठहरता है वैसे ही केवलदर्शन के काल में केवलज्ञान के ल म कंवलज्ञान के परन्तु उपयोग की अपेक्षा उन क्षायोपशमिक तीन ज्ञानो मे बिना ज्ञानावरणका क्षय भी निरर्थक सिद्ध होता है । लाक एक ही कोई सम्भव है और वह भी अन्तमहतं काल तक । में भी देखा जाता है कि जिन दो दीपको का प्रावरण हटा फिर भी लब्धि की अपेक्षा जिस प्रकार उनके इस क्षयोपशमलिया गया है वे दोनो युगपत् ही घट-पटादि पदार्थों को काल (६६ सा.) मे कोई बाधा नही पाती उसी प्रकार प्रकाशित करते है-ऐसा नहीं है कि दोनों के निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन की सादि-अनिधनता में भी कोई होने पर भी उनमे जब एक पदार्थो को प्रकाशित करता है तब बाधा उपस्थित नहीं होती-उपयोग की अपेक्षा इन दोनो दूमग न करता हो। अथवा, उन दोनो (केवलज्ञान व दर्शन) में से किसी एक के होने पर भी लब्धि की अपेक्षा उन दोनो के परस्पर आच्छादकता का प्रसग अनिवार्य हो जाता है । की सादि-अनन्तता बनी रहती है। इस पर यदि यह कहा अथवा, आवरण के क्षीण हो जाने पर भी यदि उन दोनो जाय कि क्षायिक ज्ञान-दर्शन के लिए क्षायोपशमिक ज्ञान मे एक का अभाव रहता है तो अन्वय-व्यतिरेक के का दृष्टान्त देना उचित नहीं है, तो इसके लिए दूसरा अभाव में प्रावरण की कारणता समाप्त हो जाती है। तब दृष्टान्त यह दिया जाता है कि अरहत के पाच प्रकारके वैमी अवस्था मे एक किमी उपयोग का या तो सदा सद्भाव अन्तराय का क्षय हो जाने पर भी वे निरन्तर न दान देत रहेगा या अभाव ही रहेगा। है, न लाभ लेते है, न भोगते है और न उपयोग वस्तु का इसके अतिरिक्त दोनो उपयोगो के एक साथ न मानने अनुभव भी करते है। फिर भी उनके अन्तरायक्षय के कार्यपर केवली के कंवलदर्शन के काल में असर्वज्ञता का तथा भूत इन दानादि की जिम प्रकार सम्भावना की जाती है केवलज्ञान के काल में असर्वशित्व का प्रसग भी कैसे टाला जा मकता है ? उसी प्रकार ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षय के कार्यदोनों उपयोगों की क्रमवृत्तिता भून केवलज्ञान और केवलदर्शन निरन्तर नही रहते, किन्तु जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण' प्रादि कितने ही प्राचार्य एक काल मे उन दोनो मे में एक ही कोई रहता है। फिर उक्त दोनो उपयोगो को अयुगपत्ति -क्रमवर्ती-मानते भी उक्त क्षायिक दानादि के समान इन दोनो उपयोगों है । वे युगपद्वाद में दी गई युक्तियो का खण्डन इस प्रकार का भी अस्तित्व उनके ममझना चाहिए। जिस प्रकार १ नन्दी. च. (उ. ४), पृ. २८; ध. स. १३३६ अन्तराय के क्षय का यह प्रभाव है कि केवली में दानादि २ नन्दी. चू. (उ. ५ व ११)पृ. २८, २६, ध.स.१३४०. के एक माथ न रहने पर भी यदि वे देने आदि मे प्रवृत्त होते है तो उसमे कोई विघ्न उपस्थित नही हो सकता है, ३ अन्ये-जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः- एकान्तरित जानाति पश्यति चेत्येवमिच्छन्ति श्रुतोपदेशेन - यथा इसी प्रकार केवली के ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त होने पर श्रतागमानुसारेणेत्यर्थः । नन्दी. हरि. वृत्ति (उ १), आवरण के क्षय का यह प्रभाव है कि उनके उसमे बाधा प. ४०, अत्र च जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यानाम होना सम्भव नहीं है। युगपदभाव्यूपयागद्वयमभिमतम् । मल्लवादिनस्तु युग- y परेणाने सति प्रागमवादी जिनभद्रगणिक्षमापभावि तद्वयमिति । समति अभय वृत्ति २११०. धरण आह-धर्मस ग्रहणी मलय. वृत्ति १३४१. नाणम्मि दसणम्मि य एत्तो एगतग्यम्मि उव उत्ता।। सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो नत्थि उवयोगा (नि) विशे. भा. ३७४०-४१, नन्दी. च. (उ. ६) पृ२८; विशे. भा. ३७३६ (ई. १६३७); नन्दी. चणि (उ. ध. म. १३४१. २२), पृ. ३०; ७ नन्दी. च. (उ. ७-१०) पृ. २६; घ. स. १३४२-४५. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन १२५ असर्वज्ञता और असर्वदगित्व के प्रसग के विषय में भी यह कहा है कि जिस समय जिन भगवान् अणु प्रादिक यह कहा जाता है कि मत्यादि चार ज्ञान वाला जीव उन को तथा रत्नप्रभादिक को जानते है उस ममय व उन्हे चारो ज्ञानो के द्वारा युगपत् न जानते हुए भी जिस प्रकार देखते नहीं है । इससे मिद्ध होता है कि केवलज्ञान और चतर्जानी माना गया है उसी प्रकार दोनो उपयोगो के दर्शन दोनो उपयोग एक माथ नही होते-क्रम से ही वे एकान्तरित होने पर भी अरहत को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। स्वीकार करना चाहिए। इसके अतिरिक्त पागम मे जो माकार व अनाकार दोनो उपयोगो को युगपत् न मानने पर यहा एक प्रश्न उपयोगी जीवो का अल्पबहुत्व बतलाया गया है वह यह भी उपस्थित हो सकता है कि जब ज्ञानावरण और पृथक-पृथक् दोनों का ही बतलाया गया है। यदि केवली दर्शनावरण दोनो का ही युगपत् क्षय होता है तब दोनो के दोनो उपयोग युगपत् सम्भव होते तो उभयोपयोगियो उपयोगो के क्रमवर्ती मानने पर उन दोनो में प्रथमत कौन- का भी अलग से अल्पबहुत्व कहा जाना चाहिये था-सो सा उपयोग उत्पन्न होता है--ज्ञान या दर्शन ? यदि ज्ञान वह नहीं कहा गया है। को पहले उत्पन्न हुआ माना जाय तो दर्शनावरण के भी केवल शान-दर्शन का प्रभेद क्षय के होते हुए दर्शन को पहिले उत्पन्न हुअा क्यो न उक्त दोनो उपयोगो के विषय में एक (नीसरा) पक्ष माना जाय? और यदि दर्शन को पहिले माना जाता है यह भी है कि ज्ञानावरण के क्षय को प्राप्त हो जाने पर तो ज्ञान को पहिले क्यो न माना जाय, यह भी प्रश्न बना जिस प्रकार केवली के देशज्ञानों की-मति-श्रुतादि रहता है। इसके समाधान में प्रकृत में यह कहा गया है कि की-सम्भावना नही रहनी उसी प्रकार केवलज्ञानावरण दोनों उपयोगो के एक साथ उत्पन्न होने पर भी यह कोई और केवलदर्शनावरण इन दोनो प्रावरणों के क्षीण हो नियम नहीं है कि उपयोग रूप में भी उन दोनों को साथ जाने पर केवली के केवल दर्शन की भी सम्भावना नहीं हो होना चाहिए-उपयोग कप में नो व क्रम से ही होते रहती-दोनों में एक मात्र केवलज्ञान ही उनके है। उदाहरण स्वरूप मम्यक्त्व, मतिज्ञान, तज्ञान और रहता है। अवधिज्ञान; ये एक माथ उत्पन्न होते है, पर उपयोग उन इम मत का निराकरण करने हग कहा जाता है कि मबमे युगपत् नही होता। ठीक इसी प्रकार केवलीके शक्ति जिस प्रकार केवली के मनि ग्रादि दशज्ञान का प्रभाव की अपेक्षा केवल ज्ञान और केबलदर्शन दोनों के साथ हो जाने पर केवलज्ञान की उत्पत्ति स्वभावत. कही गई उत्पन्न होने पर भी उन दोनो के विषय में उपयोग एक है उसी प्रकार चक्षुदर्शनादि देगदर्शन के अभाव में साथ नही होता-वह तो क्रम से ही होता है। केवलदर्शन भी उनक म्वरूपत. पृथक् होना चाहिए। प्रकृत क्रमवाद के समर्थन में ग्रागम का प्राश्रय लेने फिर भी यदि दंगज्ञान और दगदर्शन दानों के भी हुए यह भी कहा गया है कि प्रप्नि और प्रज्ञापना'पादिम अभाव म यदि एक मात्र कंवलज्ञान ही अभीष्ट है और १ त. मू. १-३०. ममय पाति, ज ममय पा० नो त ममयं जा० ? २ नन्दी . च. (उ. १२) पृ. २६, ध स. १६४७. गो० सागारे से णाणे भात पणागारे से दसणे ३ नन्दी. च.(उ १३-१५) पृ. २६,ध. स १३४०-५० भवति, से तेणट्टण जाव णो त ममय जाणाति केवली ण. भने इम रयणप्पभ पुढवि प्रागारेहि हेतूहि एव जाव ग्रह सत्तम । ........ 'प्रज्ञापना ३०-३१४, उवमाहि दिट्ट तेहि वह सठाह पमाहि पडो. यारेहि ज समय जाणति त समय पासइ, ज समय ५ विशेषा भा. ३७५२, नन्दी च. (उ.१६) पृ. २६, पासइ त समय जाणइ ? गो० नो तिण? मम?। च स १३५१. मे केण?ण भते एव बुच्चति केबली ण इम रय- ६ नन्दी. च. (उ. २ व १७) पृ. २६ व ३०, . स. णप्पभ पुढवि आगारेहि० ज ममय जाणति नो त १३३७३१३५२. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनेकान्त केवलदर्शन अभीष्ट नही है तो इसे युक्तिविहीन इच्छा रसादिक में परस्पर कथचित् भेद-अभेद के होने पर भी मात्र ही कहा जायगा। दूसरे, सूत्र मे अवधिज्ञानी-के उन्हे किमी एक ही इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण नहीं किया लिये कहा गया है कि वह जानता है और देखता है, फिर जाता, किन्तु रूप को चक्ष मे व रसादि को जिह्वा प्रादि भी जैसे अवधिज्ञान और अवधिदर्शन में अभेद नही माना भिन्न इन्द्रियो से ही ग्रहण किया जाता है। तदनुसार गया वैसे ही केवलज्ञान और केवलदर्शन में भी अभेद जैसे विशेष का ग्राहक केवली के केवलज्ञान है उसी प्रकार नहीं होना चाहिये। सामान्य का ग्राहक केवलदर्शन भी उनके पृथक् होना अन्त में कहा गया है कि भगवतीसूत्र के पच्चीसवें चाहिए । और तब वैसी अवस्था मे सर्वज्ञता और सर्वगत (अध्ययन) सम्बन्धी छठे उद्देश मे स्नातक (केवली) दर्शिता का प्रभाव अनिवार्य प्रसक्त होगा ही। के विशेष रूप से एकतर उपयोग बतलाया गया है । इस क्रमिकबाद में इसके उत्तर में कहा गया है कि प्रकार प्रागम से भी इन दोनो उपयोगो में क्रमवत्तिता के सामान्य वही कहा जाता है जो विशेषो से गभित होता है, साथ पृथक्ता भी सिद्ध होती है। इसी प्रकार विशेष भी वे कहलाते है जो सामान्य से क्रमदतित्व के विरुद्ध यहाँ यह कहा जा सकता है कि गभित होते है। इस प्रकार दोनो के परस्पर सापेक्ष मानने दशन जव सामान्य को विषय करता है और ज्ञान विशेष पर हा सामान्य-विशेषात्मक वस्तु की व्यवस्था बनता ह, को विषय करता है तब उन दोनो के केवली में क्रमवर्ती अन्यथा नही । इम न्याय से वस्तु मात्र के सामान्य-विशेमानने पर न्यायानमार वलीको नाम षात्मक सिद्ध होने पर विशेषो का जो निविशेष-सामान्य और ज्ञानकाल मे सर्वदर्शी नही माना जा सकता है। रूप से-ग्रहण होता है, इसका नाम दर्शन और इस गमस्त पदार्थ स्वरूपतः सामान्य विशेषात्मक है ।। सामान्य रूप को गीण कर जो उनका विशेष रूप से ग्रहण उनमे परस्पर कथचित् भेद-अभेद के होने पर भी किसी हमा करता है, इसका नाम ज्ञान है। इस प्रकार से ज्ञान एक (ज्ञान या दर्शन) के द्वारा समृदित रूप में उभय-- और दर्शन दोनो ही जब समस्त पदार्थों के ग्राहक सम्भव सामान्य विशेष स्वरूप-को नही ग्रहण किया जा सकता है तब केवली के सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता का प्रभाव कैसे है, यह न्याय की प्रेरणा है। उदाहरण के रूप में रूप हो सकता है ? नहीं हो सकता। १ नन्दी च (उ १८-२०)पृ ३०, घ स १३५३, ___ तात्पर्य यह कि सामान्य और विशेष धर्मों में कथचित भेदाभेद के होने पर उनका परस्पर निरपेक्ष ग्रहण नही १३५४-५५. उवनोगो गयरो पणुवीमइमे सा सिणायस्स । होता-परस्पर सापेक्ष ही उनका ग्रहण होता है। इससे भणियो वियडत्थो च्चिय छठु मे विसेमे उ ।। दर्शन वही कहा जाता है जो विगंपो को गौण कर विशेषा. भा. ३७६०, नन्दी च (उ. २३) पू ३०, सामान्य की मुख्यता से वस्तु को विषय करता है, इसी ध स १३५६ प्रकार ज्ञान भी वही कहा जाता है जो सामान्य धर्म (भगवती मूत्र के शतक २५, उ. ६ में हमने इस को गोण कर विशेष की मुम्यता मे वस्तु को ग्रहण करता के खोजने का प्रयत्न किया, पर इस रूप में वहाँ हमे है । दर्शन न तो केवल सामान्य धर्म से विशिष्ट ही वस्तू उपलब्ध नही हया । वहाँ "पूलाए ण भने कि सागा- को बिपय करता है और न ज्ञान विशेष धर्म विशिष्ट ही रोव उत्तं होज्जा प्रणागागंव उत्ते वा होज्जा । एव वस्तु को विपय करता है । अत विवक्षा के अनुसार एक जाव सिणाए।" [भगवती भा ४, २५, उ ६ की प्रमुखता और दूसरे को गौणता से वस्तु का ग्रहण होने सू ८५-वि. स १९८८] यहाँ 'वा' शब्द का पर उपयुक्त दोष सम्भव नहीं हैं। विकल्प अर्थ यदि किया जाय तो दोनों उपयोगो मे ३ घ. स. १३६०-६१. 'एकतर' उपयोग की सम्भावना की जा सकती है। ४ वही १३६२-६४. पर प्रकृत मे 'वा' का अर्थ 'और' प्रतीत होता है।) ५ घ. स. १३६५-६८. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन १२७ प्रा. बोरसेन कुन्दकुन्दाचार्य के मत से सहमत नहीं आगे फिर कहा गया है कि केवली भगवान् प्रात्मप्राचार्य कुन्दकुन्द विरचित नियमसार एक प्राध्या म्वरूप को देखते है लोक-अलोक को वे नहीं देखते है, त्मिक ग्रन्थ है। उसके शुद्धोपयोगाधिकार में केवली के इस प्रकार यदि कोई कहता है तो उसे क्या दूषण हो ज्ञान व दर्शन उपयोगो के विषय में अच्छा विचार किया सकता है । इसके उनर में यह कहा है कि मूर्त-अमूत द्रव्य गया है। वहा सर्वप्रथम यह कहा गया है कि केवली तथा चेतन व अचेतन म्व एव अन्य सभी को देखने वाले भगवान् व्यवहार नय से सब को जानते देखते है और कवली का ज्ञान प्रत्यक्ष व अतीन्द्रिय है, यह वस्तुस्थिति केवलज्ञानी नियम से---निश्चय से-आत्मा को जानते देखते है। इसके विपरीत जो नाना गुणों और पर्यायों से सयुक्त है। इसका अभिप्राय यही है कि जिस प्रकार केवली का पूर्वाक्त समस्त द्रव्य को यथार्थ नही देखता है उसकी दष्टि ज्ञान व्यवहार नय से समस्त पदार्थों को विषय करता है (दर्शन ) का परोक्षता का प्रसग प्राप्त होगा। उसी प्रकार उनका दर्शन भी व्यवहार नय से समस्त इसी प्रकार जो यह कहना है कि केवली भगवान् पदार्थो को विषय करता है तथा निश्चय से जैसे उनका लोक-अलोक को जानते है, आत्मा का नही जानते है, ज्ञान आत्मा को जानता है वैसे ही उनका दर्शन भी उसी उसके इस कथन को दूषित करते हए कहा गया है कि आत्मा को देखता है। ज्ञान जीवका स्वरूप है, टमनिये प्रात्मा अपने को जानता इसको स्पष्ट करते हुए आगे और भी शका-समाधान है। यदि ज्ञानमय प्रात्मा अपने को नहीं जानता है तो के रूप में कहा गया है कि ज्ञान परप्रकाशक और दर्शन वह ज्ञान प्रात्मा से भिन्न ठहरेगा। इमलिये नि मन्देह आत्मप्रकाशक ही है। इस प्रकार प्रात्मा स्व-परप्रकाशक मात्मा को ज्ञान और ज्ञान को प्रात्मा समझना चाहिये । है, ऐसा यदि कोई मानता है तो क्या हानि हो सकती इस प्रकार रन पर प्रकाशक जैसे ज्ञान है वैसे ही दर्शन भी है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि यदि ज्ञान को पर- स्व-परप्रकाशक है। प्रकाशक माना जाता है तो ज्ञान से दर्शन को भिन्न मानना पडेगा, जिसका अभिप्राय होगा कि दर्शन परद्रव्यगत नहीं अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दसण भिण्ण । है.-प्रात्मगत ही है। तब ऐसी अवस्था म प्रात्मा के ज्ञान ण हवदि परदव्वगो दमणमिदि वण्णिद तम्हा ।। से रहित हो जाने का प्रमग प्राप्त होता है। इसी प्रकार णाण परप्पयाम ववहारणएण दमण तम्हा । आत्मा के परप्रकाशक मानने में भी यही आपत्ति बनी ग्रापा परप्पयासो ववहारणएण दसण नम्हा ॥ रहेगी। इससे वस्तुस्थिति यह ममझना चाहिये कि ज्ञान णाण अप्पपयास णिच्छयणएण दसण तम्हा। और प्रात्मा जो परप्रकाशक है वे व्यहार नय से हैं । इसी अप्पा अप्पपयामो णिच्छयणएण दसण तम्हा ।। लिये दर्शन को भी व्यवहार नय से परप्रकाशक जानना नि. सा. १६०-६४. चाहिये । वही ज्ञान और प्रात्मा दोनो निश्चय नय से अपसम्व पच्छदि लोयालोप ण केवली भगव । प्रात्मप्रकाशक है, इसीलिये दर्शन भी आत्मप्रकाशक है। जइ कोइ भणइ एव तस्स य कि दूसण होइ ।। १ जाणदि पम्सदि मध्व ववहारणएण केवली भयव । मुनममुत्त दव्व चेयणमियर सग च सव्व च । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाण ।। पच्छतम्स दुणाण पच्चक्खर्माणदिय होइ ।। नि. मा १५८ पुव्वत्तसयलदव्व णाणागुण-पज्नएण मजुनं । णाण परप्पयाम दिट्टी अप्पप्पयामया चेव ।। जो ण य पच्छइ मम्म परोक्वदिट्टी हवे तम्स ।। अप्पा म-परपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ॥ नि. सा. १६५-६७. णाण परप्पयासं तइया णाणेण दसण भिण्ण । ४ लोयालोय जाणइ अप्पाण व केवली भगव । ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिद तम्हा ॥ जइ कोइ भणइ एव तस्स य कि दूसण होइ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनेकान्त जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है (पृ. ११६-२०) स्वरूप जैसा कुन्दकुन्दाचार्य को अभीष्ट रहा है वैसा वह प्राचार्य वीरसेन प्रात्मविषयक उपयोग को दर्शन और प्राचार्य वीरसेन स्वामी को अभीष्ट नही रहा । बाह्यार्थविषयक उपयोग को जान मानते है। विभिन्न उपसंहार लक्षणो के द्वारा वे इसी बात को पुष्ट करते है । जैसे- पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है। उसके ये दोनों धर्म सामान्य विशेषात्मक बाह्य अर्थ के ग्रहण का नाम ज्ञान और । कथचित् तादात्म्यस्वरूप है-वे न तो सर्वथा भिन्न ही है तदात्मक-सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप ( प्रात्मरूप ) और न सर्वथा अभिन्न ही है । उनमें सामान्य धर्म को ग्रहण के ग्रहण का नाम दर्शन है'। अथवा, पालोकनवृत्तिका करने वाला दर्शन और विशेष धर्म को ग्रहण करने वाला नाम दर्शन है । 'पालोकते इति आलोकनम्' इम निरुक्ति ज्ञान है। के अनुसार पालोकन का अर्थ वे प्रात्मा करते है,तदनुसार दर्शन निगकार ( निर्विकल्पक ) और ज्ञान साकार पालोकन की वृत्ति (व्यापार) को-स्व के सवेदन (सविकल्पक ) है। को-दर्शन जानना चाहिये। अथवा, प्रकाशवृत्तिका __छद्मस्थ के पूर्व मे दर्शन और तत्पश्चात् ज्ञान होता नाम दर्शन है। यहा वे प्रकाश का अर्थ ज्ञान लेते हैं, है-बिना दर्शन के उसके ज्ञान नही होता । परन्तु केवली इस प्रकाश के लिये जो प्रात्मा की प्रवृत्ति होती है वह के वे दोनों सूर्य के प्रकाश और प्रातप के समान एक साथ दर्शन कहलाता है । अभिप्राय यह है कि विषय (रसादि)। होते है । इसका कारण यह है कि केवली के ज्ञान का और विषयी (इन्द्रियो) के सपात-ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वा- प्रतिवन्धक ज्ञानावरण और दर्शन का प्रतिबन्धक दर्शनावरण वस्था-को दर्शन कहा जाता है (घवला पु०१३, पृ० दोनों युगपत क्षयको प्राप्त हो चुके है एवं भविष्य में २१६ )। उनके उदय की सम्भावना भी नहीं रही। इस प्रकार वीरमेनाचार्य ने धवला मे अनेक स्थानों केवली सबको जानते देखते है, यह व्यवहार है। पर दर्शन के विषय में विचार किया है तथा आवश्यकता वास्तव में तो वे प्रात्मा को ही जानते देखते है। नुमार समतितर्क प्रादि पूर्व ग्रन्थो के वाक्यो को भी उद्धृत यथार्थ मे प्रात्मा है सो ज्ञान है और ज्ञान है सो किया है। पर आश्चर्य की बात यह है कि उपर्युक्त नियमसार के उनके समक्ष रहते हुए भी उन्होने न तो उसकी आत्मा है-दोनो मे कोई भेद नही है । अत: जिस प्रकार किसी गाथा को उद्धृत किया है और न वहा प्ररूपित ज्ञान स्व-परप्रकाशक है उमी प्रकार उससे कथचित् अभिन्न दर्शन को भी स्व-परप्रकाशक समझना चाहिये । दर्शन के सम्बन्ध में भी कुछ विचार प्रगट किया है । इससे __दर्शन के लिये दीपक और ज्ञान के लिये दर्पण का यही समझा जा सकता है कि दर्शन का स्व-परप्रकाशकत्व दृष्टान्त घटित हो सकता है-दीपक पदार्थ के प्राकार स्वरूप ( १७० ), अथवा व्यवहार नय से परप्रकाशकन्व और निश्चय नय से प्रात्मप्रकाशकत्व (१६३-६४ ) को न ग्रहण कर सामान्य रूप से सीमित प्रदेश में स्थित मभी पदार्थों को प्रकाशित करता है, पर दर्पण सामने णाण जीवसरूप तम्हा जाणेद अप्पग अप्पा । स्थित पदार्थ के आकार को ग्रहण कर विशेष रूप से उसे अप्पाण ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरिन ।। प्रकाशित करता है। अपाण विणु णाण णाण विणु अप्पगो ण सदेहो। हम चलते-फिरने व उठते-बैठते अनेक वस्तुप्रो को तम्हा स-परपयास णाण तह दमण होदि ।। देखते है, पर प्रयोजन न होने से उनकी विशेषता का नि. सा. १६८-७०. अनुभव नहीं करते, प्रयोजन के वश उनकी विशेषता को सामान्य-विशेषात्मकबाह्यार्थग्रहण ज्ञानम्, तदात्मक. भी पृथक्-पृथक जानते है । इसी प्रकार निर्विकल्प सामान्य स्वरूपग्रहणं दर्शनम् । धवला पु १, पृ १४७. प्रतिभास को दर्शन और विशेष प्रतिभास को ज्ञान जानना २ धवला पु. १, पृ. १४८-४६ चाहिये। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि छीहल परमानन्द शास्त्रो नाल्हिग वश के विद्वान कवि छीहल का जन्म अग्र- मक्खियो का एक छत्ता लगा हुआ था। हाथों ने उसे वाल कुल में हुआ था। आपके पिता का नाम शाह नाथू हिला दिया, जिससे अगणित मधु-मक्खिया उड़ने लगी, या नाथूराम था। कवि ने अपनी गुरु परम्परा और और मधु को एक-एक विन्दु उस पथिक के मुह में पड़ने जीवन घटनाओं का कोई उल्लेख नही किया इसलिये उनके लगी। इसमे कूप संसार है, पथी जीव है, सर्प गति है, सम्बन्ध मे यहा लिखना कुछ शक्य नहीं है । आप की इस अजगर निगोद है, हाथी अज्ञान है और मधु विन्दु विषयसमय तक ५ पाच रचनाएँ प्रकाश मे पाई है-पच सहेली सुख है। कवि कहता है कि-'यह संसार का व्यवहार गीत, पन्थीगीत, उदरगीत, पचेन्द्रिय वेलि और बावनी है। अतः हे गवार | त चेत, जो मोह निद्रा में सोते है पादि है । पंच सहेलीगीत एक शृगार परक रचना है जो वे अधिक असावधान है। इन्द्रिय रस मे मग्न हो परमस० १५७५ मे फाल्गुन सुदि १५ के दिन रची गई थी। ब्रह्म को भला दिया है, इस कारण नेरा नर जन्म व्यर्थ रचना मे पच सहेलियों का वर्णन है । वर्णन सहज और है। कबि छीहल कहते है कि हे पात्मन् ! अब तू जिनेद्र स्वाभाविक है। पच सहेलियो का प्रश्नोत्तररूप में अच्छा प्रतिपादित धर्म का अवलम्बन कर कर्म बन्धन से छूट सकलन हुअा है। सकता है---जैसा कि उक्तगीत के निम्नपद्य से प्रकट है: पन्थीगीत-मसारिक दुख का एक पौगणिका उदा संसार को यह विवहारो चित चेतहुरे गवारो हरण है। इसे रूपक काव्य कहा जा सकता है। यह मोह निद्रा में जे जन सूता ते प्राणी प्रति बे गूता पौराणिक दृष्टान्त महाभारत और जैन ग्रथो में पाया प्राणी बे गुता बहुत ते जिन परमब्रह्म विसारियो जाता है वहा इसे ससार वृक्ष के नाम से उल्लेखित किया भ्रम भूलि इन्द्रिय तनौ रस नर जनम वृथा गवांइयो गया है.-- बहुत काल नाना दुःख दोरघ सहया छोहल कहे करि धर्म एक पथिक चलते-चलते रास्ता भूल गया और सिहो जिन भाषित जगतिस्यौं त्यों मक्ति पद लो के वन मे पहुंच गया। वहा रास्ता भूल जाने से वह इधरउधर भटकने लगा। उसी समय उसे सामने एक मदोन्मत पचेन्द्रियवेलि-यह चार पद्यो की एक लधु रचना है. हाथी प्राता हुआ दिखाई दिया, उसका रूप अत्यन्त गद्र जिसमे अत्म सम्बोधन का उपदेश निहित है। अपने था और वह क्रोधवश अपने भुजदण्ड को हिलाता हुआ पा प्राराध्यदेव को घट में स्थापित करने के लिये हदय की रहा था। पथिक उसे देख भयभीत होकर भागने लगा। पवित्रता आवश्यकता है, यदि घट अपवित्र है, तो जप, तप और हाथी उसके पीछे पीछे चला, वहा घास-फम से ढका तीर्थयात्रादि मब व्यर्थ है अत घट की प्रान्तरिक शुद्धि को हुअा एक अन्धा कुया था। पन्थी को वह न दिखा, और लक्ष्य में रखकर भव -ममुद्र के तिग जा सकता है । वह उसमे गिर गया, उमने वृक्ष की एक टहनी पकड ली और उसके सहारे लटकता हया दुःख भोगने लगा । उस चाथा कृात बावना है । यह पगल चौथी कृति बाबनी है। यह पिगल भाषा की एक कुए के किनारे पर हाथी खड़ा था, उस कुवे में चारो छोटी सी रचना है जो अब तक अप्रकाशित है । इसमे दिशाग्रो मे चार सर्प और बीच में एक अजगर मुहवाए ५३ कवित्त या छप्यय है। कवि ने अन्तिम पद्य मे अपना पडा था । उस कुए के पास एक वट वक्ष था, उसमे मधु परिचय दिया है। और बावनी का रचना काल वि० स० Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १५८४ कार्तिक शुक्ला अष्टमी गुरुवार बतलाया है। यह छोहल्ल द्विरद तेही समय सर सपत्ती दईव वसि । नीति विषयक एक मुक्तक रचना है । इसका प्रत्येक छन्द अलि कमल पत्र पर इन सहित निमिष मध्य सो गयौ प्रसि ॥ काव्य की दृष्टि से उत्तम कोटि का है। रचना भावपूर्ण -बावनी और सुन्दर है। इस प्रकार की नीति-परक रचना बहुत निम्न सस्कृत सुभाषित पद्य का अनुवाद उक्तपद्य में कवि कम देखने में आती है। रचना चूकि १६वी शताब्दी के हर ने किस सफलता के साथ करने का उपक्रम किया है। अन्तिम चरण की है प्रथगत नीति पद्य बड़े ही मार्मिक रात्रि गमिष्यति भविष्यति सुप्रभात और दृष्टान्तके साथ वस्तुतत्त्व का ज्ञापन कराते है । रचना भावमिकी पर संस्कृत साहित्य के सुभाषतो का प्राधार रहा है । कवि इत्थं विचिन्तयति कोष गते द्विरेफे। ने सस्कृत के अनेक नीति-तथा सुभाषित-विषयक पद्यो का हा हन्त-हन्त नलिनी गज उज्जहार ॥ -सुभाषित पद्य सार लेकर उनका भाव अकित किया होगा। प्रायः प्राचीन भारतीय रचनाओं में पूर्वाधार का होना उनकी प्रामाणि इम पद्य का अनुवाद और भी अनेक कवियों ने किया कता का सबूत है। रचना के दो ऐसे उदाहरण दिये जाते है जो संस्कृत के पद्यो के आधार को प्रामाणित करते है। २३ वे पद्य मे कवि ने बतलाया है कि राज द्वार पर घड़ी-घडी में घटियाल बजती है, वह पुकार-पुकार कर चंत्रमास वनराइ फल फुल्ले तरुवर सह तो क्या दोष वसंत पत्र हो करीर नहें। मानवो से मानो कह रही है कि यह प्रायु क्षण-क्षण में दिवस उलूक जुधेष तनो रवि को कोऊ अवगुन । छीजती जा रही है सपत्ति श्वास और शरीरके समान अनिचातक नीर न ग्रहै नत्थि दूषन वरषा घन ॥ श्चल है-विनष्ट होने वाली है। वह वृक्ष के पत्तो पर दु.ख सुख दईव जो निमयो लिपिललाट सोई लहै पडी प्रोस के विन्दु के समान चचल है । ऐसा जान कर वकवाद न करि रे मूढ नर कर्म दोष छोहल कहै ॥२५ मूढ मानव तू चित्त में चेत, कवि छीहल कहता है कि इस पद्य का भाव भर्तृहरि की नीति शतक के इस उच्च हाथो से दान दीजिये अन्यथा वह विनष्ट हो जायगी। पद्य में लक्षित है: यथा-धरी-घरी नृप द्वार एह धरियावल बज्ज पत्रं नव यदा करीर विटपे दोषो वसन्तस्य कि कहे पुकारि-पुकारि पाउ खन ही खन छिज्ज। नो लूको प्यबलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् । संपति स्वांस शरीर सदा नर नाही निसचल धारा नव पतन्ति चातक मुखे मेघस्य किं दूषण पर इनि पत्र पतंत बूंद जल लव जिम चंचल ॥ यत्पूर्व विधिना ललाट लिखितं तन्माजितुंकः क्षमः । यह जानि जगत जातो सकल चित चेतौ रे मूट नर । -नीति शतक ......सो इव छोहल कहि दिज्ज दानहि उच्च कर ॥२३ अमर इक्कि निसि समय परपी पंकज के संपुटि एक दूसरे पद्य में कवि कहता है-किमन मई मं प्रास रयान खिन मध्य जाइ घटि । ज्ञानवन्त कुलीन पुरुष यद्यपि धन से हीन है फिर भी करि हैं जलज विकास सूर परभात उदय जब वह विषमावस्था मे भी कभी हीन बचन नही कहता । मधुकर मन चितवं मुकत ह्व है बंधन तब ।। दुःख के अधिक सताने पर भी वह नीच कर्म नही करता। १ चौरासी अग्गला सय जु पनरह संवच्छा। वह मरना पसन्द करता है किन्तु अपनी नाक नीची नही सुकल पच्छ प्रष्टमी मास कातिग गुरु वासर । करता कवि छीहल कहते हैं कि दम्पति (सिंह ) सदा हृदय बुद्धिउ धनी नाम श्री गुरु को लीनौ मृग मांस खाता है किन्तु बहुत दिनों तक लंघन करने पर सारव तने पसाय कवित संपूरन कोनो ॥ भी कभी घास नहीं खाता। नातिग बंस नायू सुतन अगरवाल कुल प्रगट रवि ज्ञानवंत सुकुलीन पुरुष जो है धन होना बावनी बसुषा विस्तरी कहि सेवग छोहल कवि ॥५३ विषम अवस्था पर वयन नहि भाषे रीना। वह Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपाक के माणिक स्वामी पं० के० भुजबलो शास्त्री, सिद्धान्ताचार्य 'अनेकान्त' वर्ष २१ किरण १(अप्रैल, १९६८) मे कुल- कारजा के भट्टारक जिनसेन का 'मान्यता विवरण' इन पाक के माणिक स्वामी' शीर्षक से डा. विद्याधर जोहरा- कृतियो के आधार पर कुलपाक के माणिक स्वामी पर पुरकर का एक लेख प्रकाशित हुआ है। उस लेख में मान्य प्रकाश डाला है। लेखक ने अनुमानित तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् उदयकीति विद्याधर जी का कहना है कि इस समय क्षेत्र पूर्णत: की अपभ्रंश रचना 'तीर्थ वंदना,' चौदहवी शताब्दी के नाम पदाधिकार में है। पर उपर्यक्त कतियों लेखक जिनप्रभसूरिका 'विविध तीर्थ कल्प, पंद्रह्वीं शताब्दी के वर्णनों से स्पष्ट है कि मध्य युगमे दिगम्बर भी यात्रा को के मराठा लेखक गुणकीति का 'धर्मामृत,' पंद्रहवी या यहा पर बराबर जाते रहे है । जहाँ के मंदिर के सभागृह सोलहवी शताब्दी के लेखक सिंहनन्दि का 'माणिक स्वामी में मुख्य मूर्ति माणिक स्वामी के अतिरिक्त, अन्य बारह बिनती,' सोलहवी शताब्दी के गुजराती लेखक सुमतिसागर भव्य अर्ध पद्मासन मूर्तियां भी है और उनकी शिल्प शैली की 'तीर्थजयमाला,' सत्रहवी शताब्दी के लेखक शीलविजय दक्षिणी भारत के श्रवण बेलगोल कारकल, मूडबिद्री प्रादि की 'तीर्थमाला, सत्रहवी शताब्दी के गुजराती लेखक सुमति स्थानों की मूर्तियो के समान ही है। साथ ही साथ लेखक सागर की 'तीर्थ जयमाला,' सत्रहवी शताब्दी के गुजराती यह भी कहते है कि मूर्तियो के पाद पीठो पर प्रतिष्ठा लेखक ज्ञानसागर की 'तीर्थ वदना,' सत्रहवी शताब्दी के सम्बन्धी लेख अवश्य ही रहे होगे। पर इनके पैरों तक ही जयसागर की 'तीर्थ जयमाला' और उसी शताब्दी के सीमेन्ट प्लास्टर किये जाने के कारण आज पाद पीठ नष्ट निद्य कर्म नहि कर रोर जो अधिक सतावै । प्राय. हो गये है। वर मदिवो अंगव निमिष सो नाक न नावं ॥ अब कुलपाकक माणिक स्वामी के सम्बन्ध में मुझे भी छीहल्ल कहै मृगपति सदा मृग प्रामिष भक्खन करें। कुछ कहना है । वह निम्न प्रकार है : कुलपाक या कोल्लि. जो बहुत दिवसलंघन पर तऊ न केहरि तण चर ।।२४ पाक से सम्बन्ध रखने वाली एक रचना कन्नड भाषा मे ३५ वें पद्य में बताया है कि हे मूढ नर । थोड़े-थोडे भी है । इसके रचयिता जैन कवि नागव है । इनका समय समय कुछ सुकृत ( पुण्य ) भी करना चाहिये और जब ई० सन् १७०० वी शताब्दी है। कवि नागव की इस रचना तक शरीर मे जोस है विनय सहित सारे दिन अपने हाथ का नाम 'माणिकचरिते है । इस कथा का सम्बन्ध रामायण से धन को देना चाहिये । मरने के बाद लक्ष्मी साथ नही से जोडा गया है। बहुत कुछ सभव है रामायण और जाती। कवि छीहल कहते है कि देखो राजा बीसल ने महाभारत जनप्रिय महाकाव्य होने के कारण ऐसा किया उन्नीस करोड द्रव्य सचित किया, किन्तु भोग कर उसका गया हो। वस्तुत यह एक ऐतिहासिक घटना है । कथा लाभ नही उठाया । अन्त में वह उसे छोड कर चला गया। का मार इस प्रकार है । इस तरह यह रचना बडी ही सुन्दर और भावपूर्ण है। एक दिन देवेन्द्र रजतगिरि के रत्न खचित जिन मदिरों और प्रकाशित करने के योग्य है। का दर्शन कर पुष्पक विमान पर लौट रहा था । अकस्मात् पांचवीं रचना सामने न होने से उसका परिचय यहा पुप्पक विमान वीच में रुक गया । तब देवेन्द्र ने नीचे देखा। नही दिया जा सका । कवि की अन्य रचनामों का अन्वेषण नीचे लंकाधीश रावण की पत्नी मंदोदरी लका नगर के होना चाहिए। बाहर, शातीश्वर के मदिर मे बड़ी भक्ति से पूजा कर रही Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनेकान्त थी। देवेन्द्र उसे देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। तत्क्षण वह उन सुवर्ण मुद्राओं को लेकर वह अपनी स्वामिनी के पास विमान से उतर कर पूर्वोक्त जिन मदिर मे गया। मंदिर पहुंचा। मुनादी की बातों को सुनाकर वह गुणवती से के दर्शन करने के उपरात देवेन्द्र ने मंदोदरी से कहा कि मैं कहने लगा कि इस महत्वपूर्ण धर्म कार्य के लिये आप ही तुम्हारी भक्तिसे बहुत खुश हैं। इसलिये तुम कोई अभीष्ट सर्वथा योग्य है । क्योकि मै आपकी पातिव्रत्य की महिमा वस्तु मागो। मदोदरी ने उसका उत्तर दिया कि मुझे को कई बार देख चुका हूँ। बाद नौकराना के प्राग्रह से किसी भी चीज की कमी नहीं है । हा स्वर्ग मे आपके द्वारा गुणवतीको उस बहुमानको स्वीकार करना पडा । राजाज्ञा पंजी जाने वाली जिन प्रतिमा को प्राप मुझे दे दें तो बड़ी के अनुसार दूसरे दिन प्रातःकाल गुणवती स्नान आदि से कृपा होगी। तब देवेन्द्र ने मदोदरी को सानद मरकत रत्न शुचिभूत होकर सुवर्ण थाल में पूजा द्रव्य लेकर अपने पूज्य निर्मित अपनी जिन प्रतिमा को दे दिया। इस जिन प्रतिमा पति तथा नौकराना के साथ राजमहल में पहची। वहा को मंदोदरी बडी भक्ति से बराबर पूजती रही। राम- से राजा शकर गड अपनी रानियो, मत्री, सेनानायक, सेना रावण के युद्ध काल मे डर कर मदोदरी ने इस प्रतिमा हाथी, घोड़ा, बाजा आदि के साथ बर्ड घम-धाम से निकला को समुद्र में डाल दिया। इसके बाद की कथा सुनिये। और ठीक समय पर समुद्र तीर में पहुंचा। उसी समय सती एक दिन एक भील ने राजा शकर गड से निवेदन गुणवती सकेत पाकर अपने पातिव्रत्य के बलसे पानी के ] ऊपर पैदल ही जिन प्रतिमा के पास पहची। वहा पर किया कि प्रातःकाल मध्यान्ह और सायंकाल तीनों काल बड़ी भक्ति से भगवान की पूजा कर स्तुति-स्तोत्र पूर्वक समुद्र में हाव-भाव के माथ दर्शन देने वाली और डूबने उक्न प्रतिमा को भक्ति से शिर पर उठा लायी । तीर में वाली जिन प्रतिमा का एक बार आप अवश्य दर्शन करे । पहचते ही एक नवीन विशिष्ट गाडी पर मूर्ति को विराजइस बात को सुनकर दूसरे दिन शकर गड अपने मत्री एव पहु मान कर सभी नगर की ओर बढ़े। चलते-चलते नगर जब पुरवासियों के साथ ममुद्र तीर में जाकर वहा से नाव के ८-१० माल पर रह गया था, तब अकस्मात वह गाडी रुक द्वारा प्रतिमा स्थित स्थान पर पहंचा वहा पर भील की गयी। उस समय पूर्व के स्वप्न की सूचना को भूल कर बात यथार्थ निकली। बाद सूर्यास्त के समय पर राजा शकर गड ने मुड कर पीछे देखा । फल स्वरूप वह माणिक शकर गड अपने महल मे लौट आया। पर उसके मन मे ___स्वामीकी प्रतिमा वही पर स्थिर हो गयी। उस स्थान का उक्त प्रतिमा को लाकर पूजा करने को बलवती अभिलापा नाम कुलपाक या कोलिपाक था । निरुपाय हो उसी स्थान सताने लगी। उसी दिन रात को निद्राधीन शकर गइ से पर राजा के द्वारा पूर्वोक्त प्रतिमा को स्थापित करना यक्षी ने प्राकर कहा कि तुम्हारे राज्य की किसी सुशीला, पड़ा। यही सक्षेप में पूर्वोक्त रचना का सार है। अब इस पतिव्रता स्त्री की सहायता से सागर स्थित वह प्रतिमा कथा को ऐतिहासिक दृष्टि से देखना है। महल में लाई जा सकती है। पर लाते समय उक्त प्रतिमा को तुम मुडकर मत देखना । अगर देखोगे तो प्रतिमा उसी उक्त कुलपाक एक जमानेमे कर्णाटकमे शामिल रहा। स्थान पर स्थिर हो जायगी अर्थात् प्रागे नही जावेगी। पूर्वान कथामे प्रतिपादित राजा शकर गड दशवी शताब्दीके दूसरे दिन राजा शकर गडने अपने प्रास्थान मे गत रातकी उत्तरार्ध मे राज्य करने वाला एक ऐतिहासिक व्यक्ति था। घटना को कह सुनाया। तब मत्रियों ने राजा से निवेदन वह राष्ट्रकूट चक्रवर्ती तृतीय कृष्ण का महासामताधिपति किया कि अपने नगर में किसी पतिव्रता स्त्री का पता । होकर बनवा सिमे शासन करता रहा । उसी समय उपर्युक्त लगाना चाहिये । इसके लिये सुवर्ण मुद्राओं के साथ मुनादी कृष्ण के प्रास्थान-महाकवि पोन्न को 'उभय भाषा कवि करना ही सबसे उत्तम उपाय है । इसी प्रकार किया गया। चक्रवती की उपाधि एवं उसी कृष्ण मांडलिक परिकेसरी के प्रास्थान में सेनानायक तथा कवि के रूप में विराजने - इस मुनादी को धनदत्त श्रेष्ठी की पत्नी गुणवती के वाले महाकवि पंप को कविता गुणार्णव की उपाधि दी गयी नौकरानाने सुना और उसने राज दूतों से बहुमान स्वरूप थी। थोड़े ही समय के बाद चालुक्य चक्रवर्ती तलपदेवने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपाक के माणिक स्वामी महाकवि रन्नको अपने प्रास्थान में बुलाकर, 'कविचक्रवर्ती' रहा है। यद्यपि इधर श्वेताम्बर भाइयो ने मदिर पोर की उपाधि से समलकृत किया था। महाकवि इस रन्न ने मूर्तियों में विशेष परिवर्तन कर लिया है। फिर भी मदिर अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्य ‘अजितनाथपुराण' मे, अपनी के शिखर पर माज भी अनेक मूर्तियां दिगम्बर मुद्रा में पोषिका अत्तिमब्वे को स्मरण करने वाले पद्य में ही इन ही दृष्टि गोचर होती है। भूगर्भ से प्राप्त मूर्तियां भी महाकवियों के समय में ही वर्तमान शकर गड को भी एक दिगम्बर मुद्रा में ही वर्तमान है । जिनालय में विराजमान प्रतिष्ठित धार्मिक व्यक्ति के रूप में स्मरण किया है। अन्यान्य विशालकाय मनोज्ञ मूर्तिया दक्षिण भारत के शकर गड और अत्तिमब्वे के वजोमान मे अन्तर होने पर अन्यान्य मदिरो मे अधिक परिमाण मे उपलब्ध होने वाली भी ये दोनो समकाली न रहे । पूर्वोक्त कथा में एक व्या- दिगम्बर सप्रदाय की मूर्तियो की तरह अर्धपद्मासन में ही पारी की पत्नी के रूप में प्रतिपादित सती गुणवती सभवतः विद्यमान है। विद्याधर जी का कहना यथार्थ है कि इस 'गुणदककीति' उपाधि प्राप्त दानचितामणि अत्तिमब्बे ही समय मतियों भलेख जिलकल नजर नही पाते है। पर्व हो सकता है । क्योंकि उपर्युक्त कथा एक व्यापारी के द्वारा मे मूर्तियों में लेख अवश्य रहे होगे। आज भी मदिर में जनश्रति के आधार पर ७.. वर्षों के बाद लिखी गयी है। अर्धपद्मासनस्थ नीलरग वाली ऋषभ भगवान् की मूर्ति घारवार जिले के लक्कुडि के शासन में अन्यान्य अतिशयो विराजमान है । मूर्ति बहुत मनोज है। के साथ-साथ अत्तिमब्वे के द्वारा नदी से एक जिन प्रतिमा को उठा लाने का उल्लेख भी पाया जाता है । १२ वीं मैं कुलपाक के मदिर को देखने के बाद हैदराबाद में शताब्दी के श्रवण बेल्गोल के शिलालेख मे भी अत्तिमब्बे मे स्थित प्राध्र प्रदेशीय पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष डा० पी० श्री निवासाचार्य मे मिला था। आप सुयोग्य विद्वान् है । सम्बन्ध रखने वाली इन बातों का उल्लेख विस्तार से वे बहुत प्रेम से मिले । अन्यान्य बात-चीत के सिलसिले में मिलता है। पूर्वोक्त समुद्र तीर गोदावरी जहा बगाल मैने उनमे कुलपाक क्षेत्र के मम्बन्ध में भी चर्चा की। उस समुद्र में जा मिलता है वही स्थान हो सकता है । क्योकि पर उन्होंने यो कहा कि कुलपाक मूल में दिगम्बर सप्रदाय कवि नागव ने शकर गड को पोरगल निवासी बतलाया के अधिकार में ही रहा। यह वस्तुतः दिगम्बर सप्रदाय है । पोरगल्लु और कुलपाक ये दोनो गोदावरी के ही पास की ही तीर्थ है। इस बात को समर्थन करने वाले अनेक है। इसीलिये इस क्षेत्र का नाम कुलपाक की अपेक्षा कोल्लि कन्नड गिलालेख मिले है। वे शिलालेख पुरातत्त्व विभाग पाक अधिक सुसगत जचता है। क्योकि कोल्लि शब्द का की ग्रोर से गीध्र ही प्रकाशित होने वाले है। प्रकाशित अर्थ है खाडी। होने के बाद उन शिलालेखा को आप के पास भेज दूगा । अस्तु, सितम्बर १९५८ में हैदराबाद से ४५ मील दूर । पर बाद में यह बात मेरे दिमाग से एकदम उतर गयी। पर स्थित, कुलपाक को स्वयं गया है। वहा के जिनालय 'अनेकान्त' के इस लेख को देखने के बाद ही पूर्वोक्त बात प्राचीन मूर्तिया भूगर्भ से उपलब्ध अन्यान्य स्मारक इन सब याद आयो । ग्वैर इस समय कुलपाक के सम्बन्ध में इतना वस्तुओं के देखने से मुझे भी विश्वास हुआ कि यह क्षेत्र हो कहना है । पूर्वोक्त कन्नड शिलालेखों को प्राप्त करने श्वेताम्बरों के अधिकार में आने के पूर्व दिगम्बर क्षेत्र ही के उपरॉन फिर मै लिम्वगा। * सुभाषित स जीवति यशो यश्य कोतिर्यस्य सजीवति । प्रयशोऽकोतिसंपन्नो जीवन्नपि मृतोपमः ॥ साषोः प्रकोपितस्यापि मनो ना याति विक्रियाम् । नहि तापयितु शक्यं सागराम्भस्तणोल्कया । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि टेकचंद रचित श्रेणिक चरित और पुन्याश्रव कथाकोष श्री नगरचन्द नाहटा 'सन्मति सदेश' के सितम्बर ६८ के अक में श्री चंपालाल सिई का एक लेख 'विदिशाकं कवि टेकचद' नामका प्रकाशित हुआ है। जिसमे उन्होंने कवि के 'बुद्धि प्रकाश' ग्रन्थ का विवरण दिया है। साथ ही कतिपय पूजा ग्रथो का भी उल्लेख किया है। कवि के बुद्धि प्रकाश की २ प्रतिया हमारे सग्रह मे है जिनमे से एक सवत् १६२८ की लिम्बी हुई है अर्थात् ग्रंथ रचना के दो वर्ष बाद की ही प्रति है कवि टेकचंद की दूसरी एक रचना जिसका उल्लेख श्री चम्पालाल सिवई ने नहीं किया है हमारे सग्रह मे है । यह ग्रन्थ भी काफी बडा और महत्व पूर्ण है । और रचना के समय की ही लिखी हुई प्रति हमारे सग्रह मे है। पेद है कि इस महत्वपूर्ण और तत्कालीन लिखित प्रति के प्राथमिक ग्यारह पत्र प्राप्त नहीं है। और १२ वे १६ वे पत्राक तक में भी उदई लग जाने से काव्य का कुछ नष्ट हो गया है। प्रथमे ११ सन्धिया है जिनमे से पहली सन्धी तो इस प्रति मे है ही नहीं, दूसरी सन्धि के भी २६१ नही है । ग्रन्थ की प्रतिम प्रशस्ति इस प्रकार है। श्रेणिक चरित बखानि पूरण कियो महा मुनि प्रांनि । मांगे नर पर्मी भया, तार्न सहसकिरत ते लया ॥८१॥ गुजराती भाषा में सार, नाना छंद ढ़ाल मय धार । सो अब अल्प बुद्धि के जोग, समझें नहीं इम भाषा लोग ।। ८२ हम भी तुच्छ ज्ञांन पर भाय, ढ़ाल छंद का मग नहीं पाय । भाषा देस तनी समझेय, और ढ़ाल इन भेद न लेय ॥ ८३ रथ तणों भ्रम पायो जाय, पं नहि चाल ढाल को प्राय । तब मोसे लघु बुद्धी और रोचिक धर्म - पुन्य कों दौर ॥६४ तिन मिल कही नेह उपजाय, श्रेणिक चरित महा सुख दाय। रथ भलो धर्महित करा, पे इसभाषा समझि न परा ॥ ८५ तात देस भाषा में होय, तो समझे वाचे सब कोय । इमसुनि हम मनहरषत भयो, यह शुभकाज इन्होंनें चयो ॥ ८६ जो यह ग्रंथ बेस छंद में होय, तो वह वाचे पुन्यले सोध । फिरिछंद करते मनवच काय, एक ठामधर्म मंगलगवाया प्रारति रूद्र ध्यान मिटि जाय, धर्म-ध्यान मय परिणत ठाय । ऐसी जानि सरल छंद लेय, रचना करि धर्म धरि जय ॥८८ जो या ग्रन्थ में कथन समानि, सो अन्य ग्रन्थसुं यामें श्रानि । पाय पिरोजन कियविशेष साविधि मार्ग जिन पनि ले॥८६ भूल चूक जो छंद में होय, तथा अर्थ नहीं भाष्यो कोय । तो बुबिजनस क्षमि सुध करो, यह विनती हृदयमें परो ॥१० ॥ दोहा ॥ देस मालवा के विसं, 'रायसेनगढ़ जोय । तहां थान जिन गेह में कथा रची सुख होय ॥ ६१ संवत् भ्रष्टादस दस सही, ऊपरि गिनि तेतोस । मिति प्रासोन सुवितीय, सोमवार निशि ईस ॥१२ ऐसे ग्रंथ पूरण कियो, मगल कारन एक । मनवच तन शुभ जोग धनि, सीस नमावत टेक ॥ ६३ इति श्री महा मंडलेसुर राजा श्रेणिक चरित्रे सामान्य । षट्काल रचना वर्णनो नाम १६ वीं संधि ॥ । इति श्री श्रेणिक चरित्र संपूर्ण शुभ भवतु मंगल । सवत् १८३३ मिति कुवार सुदि १० लिखावत साधर्मी भाई टेकचन्द || लेखक किसनचद ब्राह्मण ॥ ने प्रशस्ति से स्पष्ट है कि इस श्रेणिकचरित्र की रचना सन् १८६२ के आसोज मुदि सोमवार को रायसेनगढ़ मे पूर्ण हुई। प्राप्त प्रति रचना के दिन बाद स्वय टेकने लिखा और किसनचद ब्राह्मण लिखी। मालूम होता है कवि ज्यों-ज्यों ग्रन्थ रचता गया, किसनचद ब्राह्मण उसकी नकल करता गया, अन्यथा ८ दिन मे तो इतना बडा ग्रंथ लिखा जाना सम्भव नही है । प्रति की पत्रसख्या १४२ है । प्रति पृष्ठ १२ पक्तियाँ प्रति पक्ति प्रक्षर ५०५२ के करीब है । इस तरह इस ग्रन्थ का परिमाण ५५०० करीब श्लोकों का बैठता है। इसकी दूसरी प्रति मालवा के भण्डारों में मिलनी चाहिये खोज की पावश्कता है। I Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि टेकचन्द रचित श्रेणिक चरित और पुन्याश्रव कथाकोष १३५ नागरी प्रचारिणी सभा काशी के प्रकाशित हस्त मन वच वृषभजिनंद के, बो निस दिन पाय ॥ लिग्वित हिन्दी ग्रंथो का सक्षिप्त विवरण नामक ग्रथमान तात निति मंगल रहै सब उगल जाय ॥१॥ के पृष्ठ ३७६ मे टेकचदकी दो रचनामो का विवरण दिया वदो प्रजितनाथ सभव, अभिनंदन के पूज़ पाय॥ है-टेकत्रद प्राचार्य शाहीपुर के राजा उम्मेदसिंह के प्रणा, सुमति पदम जिन बदु , फिर सुपाचं प्याउ मनल्याय आक्षित । सवत् १८२२ के लगभग वर्तमान। सेऊ चन्द्रप्रभ जिन स्वामी, पुष्पदन्त पूजू सुखवाय ॥ वत कथा कोष (पद्य) १७-१९३ । टेकचंद (जन)-(१) शीतल वदो श्रेयान्स जिन, प्रणम् वासु पूज्य सिरनाय ।। पच परमेष्ठी की पूजा (पद्य) ३२-२१५ विमलनाथ प्रणमु प्रनन जिन धर्मनाथ सबक सषदानी ॥ इससे एक नवीन और महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है शांतिनाथ फिर कुथ जिनेश्वर अरहन से मल्लि गण स्वामी कि कवि टेकचदने बुद्धि प्रकाशसे पहले एक और बड़े ग्रन्थ मुनि सुव्रतमै नभू नमि नेमि मनाय पारस हित ठानी। की रचना मेवाड़ के शाहपुर में रहते हुये नृप उम्मेद के वर्द्धमान प्रादिक चोवीसो, बंदू मगलदासुरांनी ॥३॥ राज्य में की थी। यह पूण्यास्रव कथा कोप जिसका नाम इन प्रतिसय जुत देव ज्यो, सुरग सूति मुखदाय । प्रति के प्रारम्भ में 'ब्रत कथा कोश दिया। है १२३२० तिन अतिशय के नाम प्रब, सुनौ भविक मन लाय॥ श्लोक परिमित वृहतग्रथ पूर्ण हुआ। इसकी ३५२ पत्रो || चौपाई॥ की प्रति सरस्वती भण्डार जैन मदिर खुर्जा के स ग्रह में तन पसेव मल तन में नांही, संसथान सम चतुर कहाही॥ बतलाई गई है १२३२० श्लोक की सध्या तो विवरण मे संहनन बन वृषभनाराच, काय सुगध मधुर जिनवाच ॥५ लिखी गई है। ग्रथकार ने तो ग्रथ सख्या १४००० से । महारूप लच्छित सुभ जानि, रुधिर सुपेद प्रनत बल मानि ॥ भी अधिक बतलायी है । इस तरह टेकचंद एक बहुत बडा ये दस जनमत जिन के होय, सो भगवंत और नहि कोय ॥६ और अक्छा कवि मिद्ध होता है जिसने सवत् १८२२ मे शाहपुर ने १८२६ मे माडल नगर-विदिशा में और सवत् ॥ पद्धडी छद ।। १९३३ गयसेन गढ में तीन बडे अथ पद्य में बनाये । जो सम्यक कथा सुनै अनुप ॥ सो जाने दय धर्म सरूप ॥ नागरी प्रचारिणी सभा की बैवापिक खोज रिपोर्ट इत्यादिक सब धर्म अंग ज.नि, (मन् १९१७-१६ नक की) गय बहादुर हीरालाल सम्पा तातं सिव सुरसुख होय आनि ॥४०॥ दित गवर्नमेंट प्रेस इलाहाबाद से १९८० में छपी थी । दोहा-यह पुन्याश्रव प्रन्थ जो, सुने पड़े मन लाय॥ वह अब प्रायः नही हैं। अतः उसमें छपे हुए 'ब्रत कथा सो जिय पुण्य सग्रह करे, पूरव पाप नसाय ॥४६॥ कोश' का प्रकाशित विवरण नीचे दिया है। शाहिपुरा शुभ थान मै भलो सहारो पाय॥ धर्म लियो जिन देव को, सु नरभव सफल कराय ॥५०॥ No. 193 Brata Katha Kosa by Teka नृप उमेद तापुर विष, कर राज बलवान ॥ Chand Substance-country made paper. Lines -352. Size 121"X8". Lines per page--14. तिन अपने भुजबल थकी, प्ररी सिर कीन्हें पानि ॥५१॥ Extent-12,320 Slokas. Appearance-new ताके राज सुराज में ईति भीति नहीं जांनि ।। charactor-Nagari. Date of Composition- अब भूपुर में सूष याको, तिष्ठ हरष जानि ॥५२॥ Samvat 1822 or A. D.1765. Date - f Manus करी कथा इस ग्रंथ को, छंद बंधपुर माहि॥ cripts-Samvat 1956 or 1899. A.D. Place of प्रन्थ करन कुछ बीच में, मा कुल उपजी नांहि ॥५॥ deposit Sarswati Bhandara, Jain Mandir, साहि नगर साह मे भयो, पायो शभ अवकास ।। Khurja. पूरन पंथ सूख ते कियो, पुण्याश्रव पुण वास ॥५४॥ ॐनमः सिडेन्यः ।। श्री परमात्मने नमः ॥ प्रथ ॥चौपाई॥ श्री व्रत कथा कोष भाषा लिख्यते सवत् अष्टादस सत जांनि, अपर बीस दोय फिरि प्रामि। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त फागन सुदि ग्यारसि निस माहि, पूरन पुन्याश्रव कियो, पूरब ले मनुवार । कियो समापत उरटुल साहि ॥५॥ जिन प्राग्यायु लखे बचन सेव, तो अन्य निरषार ॥६॥ दोहा-विसपतवार सुहावनी, हरष करन कूपाय ॥ छंद मात्र प्रक्षर कर, सोधि लेहबुषिवान ॥ ता दिन प्रेम पूरन भयो, सो सुषको वरनाय ॥५६॥ जो लेषक चुक्यो कह विष्ट पड़े को थान ॥६१॥ मानूं तेरह पथ कू, फल में पहुत जाय ।। शुद्ध करे ते परमाद कछ कीजे नाहि समान ।। सुगम पथ प्राग भलो, पायो अति सुणदाय ॥५७॥ ताते बुद्धि ते बीनही लिपि देषि शुष ठानि ॥२॥ देव धर्म गुरु वदितै. सब हो मंगल पाय ।। इति श्री कथाकोप भाषा चौपाई छंद दोहा टेकचद सुख ते ग्रन्थ पूरन भयो, जै जै जै जिनराय ॥५॥ कृत संपूर्णः ।। समाप्त ॥ मिती भादों वदी ॥१संवत् ग्रन्थ सख्या इम जानि, भव्य सहस्र चतुर्दश मानि ।। १९५६ शाके १९२१ ॥श्री। ॥श्री। श्री। इह कथा कोष अपरि पचीस से जानिये, यह संस्था उर प्रानि ॥५६॥ पंचायती बडे मदिर जी के है | भा पत्र ३५२ ।।* ' महावीर वाणी . नित पीजी धीधारी, जिनवानि सुधासम जानके ॥टेक।। वीर मुखाविद ते प्रगटी जन्म-जरा-गद धारी। गौतमादि गुरु उरघट व्यापी, परम सुरुचि करतारी ॥१ सलिल समान कलिलमल गंजन, बुधमनरंजनहारी। भजन विभ्रम धलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी ॥२ कल्यानक तरु उपवन धरिनी, तरनी भव जल तारी । बंध विदारन पैनी छैनी, मुक्ति नसैनी सारी ॥३ स्व-पर-स्वरूप प्रकाशन को यह, भानुकला अविकारी। मनि-मन-कुमदिनि-मोदन शशिभा, शमसख सुमन सुवारी ॥४ जाको सेवत वेवत निजपद, नसत अविद्या सारी। तीन लोक पति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी ॥५ कोटि जीभ सों महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी। दौल अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारनहारी ।।६ जिनवाणी को अमृत के समान जानकर विद्वानों को उसका निरन्तर पान (श्रवण) करना चाहिए। भगवान् महावीर के मुखारविन्द मे प्रगट हुई वह जिनवाणो जन्म-जग (बुढापा) रूपी रोग का विनाश करने वाली है। गौतमादि मुनीन्द्र के हृदयम्प घट में व्याप्त होने से वह अतिशय कचि को उ पन्न करने वाली है। जल के समान पागरूपी मल को नाम करने वाली होने से वृधजनो के मन को अनुरजायमान करने वाली है। वह जिनवाणी अज्ञानरूपी धल उड़ाने के लिए वायु के समान और मिथ्यात्वरूप मेघों की विनाशक है। पच कल्यानकरूपी वृक्षो के लिए उपवन घारिणी है --उद्यानभूमि है। भवसमुद्र से तारने के लिए नौका है। कर्मम्पी बध की विनायकः पनी छनी है । और मुक्ति पी महल की नसनी-सीढी है। स्व-पर के स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए उत्तम मूर्य किरण है । और मुनियों की मनरूपी कुमुदिनी को प्रफुल्लित करने के लिए चन्द्रमा की चाँदनी है। समता-मुम्वरूपी पुप्पो की अच्छी वाटिका है। जो उसकी मेवा (मनन ) करना है वह निज पद का अनुभव करता है और उसका सब अजान नष्ट हो जाता है। तीनों लोको की हितकारी जानकर उसकी तीन भवन के राजा इन्द्र, धरणेन्द्र व चक्रवर्ती पूजा करते है। वनधारी इन्द्र करोड जिहानो से भी उमकी महिमा को नहीं गा सकता है। कविवर दौलताम जी कहते है कि मैं अल्प बुद्धि उसकी महिमा कैसे कह सकता हूं, वह तो अधमजनो का उद्धार करने वाली है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोयाचरिउ : एक अध्ययन श्री परमानन्द शास्त्रो भारतीय साहित्य में राम, सीता, कृष्ण, पाण्डव, गर्भवती सीताको रामचन्द्र लोकापवाद के भयसे कृतान्तकौरवादि के विषय मे प्रचुर साहित्य लिखा गया है। यदि वक्त्र सेनापति द्वारा भीषण एवं हिसक जन्तुषों से व्याप्त उस साहित्य को साहित्य-सूची से पृथक कर दिया जाय कानन में छुडवा देते है । उस वन की भयानकता सीता तो भारतीय साहित्य निष्प्रभ हो जायगा । केवल राम और की कोमलता और गर्भ-भार की विषमता को देखकर सेनासीता पर विविध भाषामो मे जो विपुल साहित्य रचा गया पति का मानस भी रो देता है। जब सीता को सेनापति है उससे उसकी लोकप्रियता का स्पष्ट भान हो जाता है। से ज्ञात होता है कि रामचन्द्र ने लोकापवाद के भय से सीता के सम्बन्ध मे लिने गये कुछ ग्रन्यो का सक्षिप्त उल्लेख मेग परित्याग किया है, तब वह सेनापति से कहती हैकरते हुए अब तक अप्रकाशित एव अज्ञात ग्रंथ प्राकृत के "हे भाई, तुम स्वामी से मेरा यह सन्देश कह देना कि जिस "सीयाचरिउ' का परिचय प्रस्तुत करना ही इस लेख का प्रकार लोकापवाद के भय से मेरा परित्याग किया है, उसी प्रमुख उद्देश्य है। तरह अपने धर्म का परित्याग न कर देना। पाठक देखें भारतीय नारियो में सीता का चरित्र अत्यन्त पावन सीता के इस सद्विवेक को, जिसकी वजह से वह लोकऔर समुज्ज्वल रहा है। वह नारी जीवन के प्रादर्श के पूजित हुई है। इसी कारण सीता की पावन जीवन-गाथा पर विविध भाषायो में जो साहित्य रचा गया है वह उसकी साथ धैर्य और विवेक की गरिमाको भी उद्भामित करता प्रादर्श जीवनी का दिग्दर्शन मात्र है, इसीसे हजारो वर्ष है। इतना ही नहीं, अनेक विषम एव दुःखद प्रसगो पर व्यतीत हो जाने पर भी सीता की लोकप्रियता कम नहीं हुई। सीता अपने विवेक के सन्तुलन को कायम रखती हुई किसी को अपराधी नहीं ठहराती, प्रत्युत अपने पुराकृत अशुभ जैन साहित्य में सीता के सम्बन्ध में जो साहित्य रचा कर्म को ही दोषी मानती है। उस अवस्था में भी सीता गया है. उसमे से यहा कुछ ग्रन्थो का दिग्दर्शनमात्र कराया का वह विवेक उसे सुदृष्टि प्रदान करता है । इस कारण वह जाता हैममागत प्रापदामों से रंचमात्र भी नहीं घबराती, घेय और "सीताचरित"-प्राचार्य भवनतुग की कृति है, समभाव से उन्हें सहती है। यही सब घटनाएं उसकी लोक जिसे उन्होने प्राकृत गाथानो में निबद्ध किया है । कृति में में प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा की द्योतक है। उसका रचनाकाल दिया हुआ है। अतः उसके रचनाकाल रावण सीता का अपहरण करके ले जाता है, और का निर्णय करना कठिन है। ग्रन्थका ग्रादि-अन्त भाग निम्न उसे देव-रमण उद्यान मे रखता है, उसे प्रसन्न करने के प्रकार है-- लियेविविध उपाय किये जाते है। बंभव का नजारा दिखाया ग्रादि-जस्स पय-पउम नहचद जहजलजालिखालियमलोह। जाता है, समझाया, डराया-धमकाया भी जाता है । किन्तु ति जगंपि सुईजायं तं मुणिसुव्वयजिणं नमिउ । इन सब का उसके अन्तर्मानस पर कोई प्रभाव अकित नही अन्त-सीलगुणसवण संभयर परमाणंदकारणारय । हुमा । उसकी आत्मनिर्भयता, महान् शक्तिशाली शत्रु के चरिय सिरि भुवणतुंग पयसाहणं होउ ॥४२॥ यहा अक्षुण्ण बनी रही। यही उसके सतीत्व की गरिमा का प्रतीक है। इससे पाठक सीता के सतीत्व की महत्ता का २. “सीताचरित"-महाकाव्य सर्ग ४, गाथा ६५, अंदाज लगा सकते है। EE, १५३, और २०६ है । कर्ता का नाम ज्ञात नहीं हुआ। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनेकान्त यह कृति म० १३३६ के द्वितीय कार्तिक में लिम्बे गए जो समजणहार तिसहि सिख दीजिये। गुच्छक में मौजूद है, जो पाटन के भण्डार मे मुरक्षित है। जाणत होइ प्रयाणु तिसहि क्या कीजिये। ३. "रामलक्षण सोयाचरित"-नामकी है, यह कृति शुक-नासिक मृग-दृग पिक-वइनी, भी अज्ञात कर्ताको है इसमे २०८ गाथागो मे उक्त चरित जानुक वचन लवइ सुखि रइनी। दिया हुपा है प्रथ का प्रादि-अन्त भाग निम्न प्रकार है अपना पिउ पय अमृत जानि, पादि-भणियं सोयाचरियं पुश्वभवविवागस्यगं किंचि । प्रवर पुरिस रवि-दुग्ध-समानी ॥ मह रामक्लखणाण त लवमित्त पकित्तमि ॥ पिय चितवन चितु रहइ मनन्दा, मन्त-रामो वि केवली विहरिऊण महिमडलमि सयलमि। पिय गुन सरत बढ़त जसकन्दा । पडिबोहियभध्वजणो पत्तो सिवसपय विउल॥२०८ प्रोतम प्रेम रहइ मन पूरी, हिन्दी भाषा मे सीता के चरित्र का अच्छा चित्रण तिनि बालिम संग नाहीं दूरी। जिनि पर पुरिष तियारति मानी हमा है । कुछ कृतियो का उल्लेख नीचे किया जाता है लखे न सो प्रादि विकानो? ॥ कविवर भगवतीदास अग्रवाल ने सवत् १६८७ में करत कुशील बढ़त बहु पापू, चंत्र शुक्ला चतुर्थी-चद्रवार के भरणी नक्षत्र मे 'सिहरदि' नरकि जाइ तिउ हइ संतापू । नगर में "लघुसीता सतु" को रचना की है। रचना सुन्दर जिउ मधु बिन्दु तन सुख लहिये, और भावपूर्ण है। ग्रथ मे बारहमासो के मदोदरी-सीता शोल बिना दुरगति दुख सहिये । प्रश्नोत्तर के रूप में कविने रावण और मदोदरी की चित्त कुशल न हुइ पर पिय रसबेली, वृत्तिका चित्रण करते हुए सीता के सतीत्व का कथन किया जिउ सिसु मरइ उरग-सिउ खेली। है। वह बड़ा ही सुन्दर और मनमोहक है। अतः ग्रथ सर्वसाधारण के लिये बहुत उपयोगी और शिक्षाप्रद है। दोहा-सुख चाहइ ते बावरी पर पति संग रति मानि । पाठको की जानकारी के लिए प्राषाढ मास का प्रश्नोत्तर जिउ कपि शीत विथा मरइ तापत गुंजा प्रानि ॥ नीचे दिया जाता है सोरठ-तष्णा तो न बुझाइ जल जब खारी पीजिये । तब बोलइ मन्दोदरी रानो, रति अषाढ़ घन घट घहरानी। मिरगु मरइ पपि धाइ जल घोखद थलि रेतकह। पीय गये ते फिर घर पावा, पामरनर नित मन्दिर छावा। पर पिय सिउ करि नेह सुजनमु गमावना । लवहि पपीहे दादुर मोरा, हियरा उमग घरत नहि मोरा । बीपगि अरइ पतंग सु पेखि सुहावना । बावर उमहि रहे चौपासा, तियपिय विनु लिहि उसन उसासा पर रमणी रस रंग कवणु नरु सुह लहा। नन्हीं बन्द भरत सरलावा, पावस नभ मागम बरसावा । जब कब पूरी हानि सहित सिंह प्रहि रहा। रामिनिदमकत निशि प्रन्धियारी, विरहनि कामवान उरिमारी दूसरी रचना "सीताचरित" है जो हिन्दी का एक भगवहि भोगु सुनहि सिख मोरी, जानत काहे भई मति बोरी महत्वपूर्ण काव्य है जिसे कवि रायचन्द्र ने स. १७१३ मदन रसायन हा जगसारु, सजमु नेम कथन विवहार।। में बनाकर समाप्त किया है। रचना पधबद्ध भौर मध्यम दोहा-जब लग हंस शरीरमहि, तब लग कोजह भोग। दर्जे की है। परन्तु रचना में गतिशीलता (प्रवाह ) है। राज तजहि भिक्षा भमहि इउ भूला सबु लोग। पद्यों की संख्या अढाई हजार से ऊपर है । ग्रंथ में सीता सोरठा-सुख विलसहिं परवीन, दुख देखहि ते बाबरे। के जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। जिउ जल छांडे मीन तड़फि मरहि थलि रेत का। तीसरी रचना "सीताचउपई" है, जो ३२७ पद्यों की यह जग जीवन लाहुन मन तरसाइए। लघुकाय कृति है । इसके कर्ता खरतरगच्छ शाखाके समयतिय पिय सम संबोगि परम सुहु पाइए । ध्वज हैं। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोयाचरित : एक अध्ययन १३९ चौथी रचना "सीताप्रबन्ध" है, जो ३४६ पद्यों में ही हिरणी जमीन पर घडाम से गिरी और गिरते हो रचा गया है, रचनाकाल स. १६२८ है । उसके पेटसे तड़फड़ाता हुआ एक बच्चा निकला । वजकर्ण पांचवी रचना "सीताविरहलेख" है जिममे ८१ पद्यों इस भ्रूणहत्या के महापाप से प्रत्यन्त व्यथित हमा' और द्वारा कवि अमरचद ने सीता के विरह पर अच्छा प्रकाश विचारने लगा कि इस महापाप से कैसे बच सकता है। डाला है। रचना सवत् १६७१ के द्वितीय प्राषाढ के दिन ऐसा विचार कर वह इधर-उधर घूम रहा था कि उसकी पूर्ण हुई है। सहसा दृष्टि एक शिला पर बैठे हुए ध्यानस्थ मुनि पर पड़ी। छठी रचना "सीतारामचीपई" है, जिसे कवि समय बचकर्ण ने उन्हें नमस्कार करके पूछा-'भगवन् ! पाप सुन्दर ने स० १६७३ में अपने जन्म स्थान साचौर में बना इस जगलमें क्या करते है ?' मुनि ने कहा...'मैं प्रात्महित कर समाप्त की है। करता है।' बजकर्ण ने कहा-'भख, प्यास, सर्दी, गर्मी सातवी रचना "मीता चउपई" है, जिसे तपागच्छीय की परीषह सहते हुए वन में अकेले कैसे प्रात्महित होता कवि चेतनविजय ने संवत् १८५१ के वैशाख सुदी १३ को है ?' तब मुनि ने उसे गृहस्थ और मुनिधर्म का स्वरूप बंगाल के अजीमगंज में रचा है। समझाया, जिससे राजा को प्रतिबोध हमा। उसने मद्य. इनके अतिरिक्त और भी अनेक रचनाएँ शास्त्रभडागे मासादि के त्याग के साथ सम्यग्दर्शन और श्रावकधर्म को में विद्यमान होगी जिन पर फिर कभी प्रकाश डाला ग्रहण किया पोर यह प्रतिज्ञा की कि जिनेन्द्रदेव और जावेगा। जिनगुरु को छोड़कर अन्य किसी को नमस्कार नहीं सीयाचरिउ' प्राकृत भाषा का गद्य-पद्यमय एक चम् करूगा। काव्य है । भाषा मरल और मुहावरेदार है। अनुमानत: प्रस्तुत काव्य मे सीता का चरित्र पूर्व परम्परानुसार इसमें ३००० गाथाएँ और कुछ गद्य भाग है। अथ की ही चित्रित किया है । यद्यपि कवि ने उसे विस्तृत रूप मे अनेक प्रतियाँ श्वेताम्बरीय शास्त्रभडागे मे उपलब्ध होती। लिखने का प्रयत्न किया है किन्तु यहा इस छोटे से परिचय है । अथ अभी तक अप्रकाशित है। इसकी प्रति श्री अगर. लेख में उसका संक्षिप्त सार ही दिया जाता है । ग्रन्थ मे चदजी नाहटा के सौजन्य से कलकत्ता के नाहर भण्डार से काव्यगत वैशिष्ट्य का अभाव, खटकता है। भाषा सरल प्राप्त हुई है जिनकी मैने कापी की है और बाद में दूसरी है। कही-कही कुछ सुभाषित एव नीतिपरक पद्य उपलब्ध प्रति से मिलान भी किया है । इतने बड़े ग्रथ में कही सधि होते है जिससे पाठक ऊबता नहीं। जहाँ सती सीता सर्ग या प्रकरण वगैरह नही है, इसलिए कथानकका सम्बन्ध सुशीला और मिष्ठभाषिणी है वहां कप्टसहप्णि, पतिभक्ता, भी लम्बा और दुरूह हो गया है । पाठक को उसके जानने विवेकनी, कर्तव्यपरायणा आज्ञाकारिणी और स्वदोष में बडी कठिनाई होती है। प्रथ में कितनी ही गाथाएँ प्रैक्षिणी भी है। विमलसूरी के 'पउमचरिउ' से समानता रखती है । कितने वह मिथला के गजा जनक और विदेहा की पुत्री है। ही विषयोमे समानता दृष्टिगोचर होती है, कही कुछ पाट वह युगलरूप मे उत्पन्न हुई थी, किन्तु भाई के अपहृत हो भेद मिलता है। प्रथ में काव्य का विशप आडम्बरु नही १. ज तस्य पिया अहिय पारद्धी धम्मबुद्धि-रहियस्स । है. नगर, देश, नदी, ग्राम, बन आदि का सामान्य वर्णन वच्चइ तेण अरणे ममाइ धायस्थ अणुदियह ।। या नामोल्लेख मात्र किया है । युद्ध का वर्णन भी पूर्वग्रन्थ- अन्नामि दिणे पहया हरिणी वाणेण तेण गम्भवई। परम्परानुसार ही है । हां, कही किमी कथानक में विशेषता पडियो य तीए गम्भो दरीय कुच्छीअ सहसत्ति । लाने का उपक्रम अवश्य किया है। उदाहरणस्वरूप वज्रकर्ण- दठ्ठण तडफडत मयसावं (सो) विसायमावण्णो । कथानक में कहा गया है कि वह धर्म रहित और शिकारी चिंतइ महापाव मए कयं भूणधाएण ।। था। एक दिन वह वन में शिकार खेलने गया और बहाँ -सीयाचरिउ, का०पृ० २८ उसने गर्भवती हिरणी को बाण से मार दिया। बाण लगते २. सीयाचरिउ प० २६ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अनेकान्त जाने के कारण उसका अकेले ही लालन-पालन और शिक्षा रावण वो बडा दुख हया। उसका शरीर मदनानल से हुई थी। अयोध्या के राजा के पुत्र रामचन्द्र के साथ झुलम जो रहा था । यह देख मदोदरी रावण से कहती है उनका विवाह हया । केकई के वर के कारण जब राम- -'तुम उसका बलात् सेवन क्यों नही करते ?" तव रावण लक्ष्मण वन को जाने लगे तब सीता भी साथ में गई । ___ कहता है-'मैने मुनिपुगव अनन्त-वीर्य के सम्मुख यह सीता अपने पति राम और लक्ष्मण के साथ वन-वन घूमती नियम लिया था कि जो स्त्री मुझे न चाहेगी मै उसकी हई क्रमशः दण्डक वन मे पहुची। वहाँ कुछ समय सुख से इच्छा न करूगा।" निवास करती है । वन में होने वाले कष्टो से वह न कभी रोती हुई सीता को देखकर विभीषण ने पूछा-"यह खेद-खिन्न हुई और न समागत प्रापदानो से घबराई। उसे । किसकी पुत्री और किसकी भार्या है ?" सुनकर सीता स्वकीय कर्म का विपाक समझ कर सन्तुष्ट रहती थी। ने कहा-"मै जनक की पुत्री, भामंडल की बहिन तथा कुछ समय बाद रावण कपट से उसे हरण कर ले जाता राम देव की प्रथम पत्नी हूँ, यह पापी (रावण) मुझे है। वह पुष्पक विमान मे रोती-चिल्लाती, ऑसू बहाती अपहरण कर ले पाया हैतथा प्राभूषणो को यत्र तत्र बिखेरती हुई जाती है। रावण पुच्छइ विभोसणो तं रूपमाणि कस्स त दुहिया । लका में पहुचकर उसे किसी उद्यान में ठहरा कर और कस्स वि भज्जा सा वि साहेइ जुहट्ठिय सम्व ॥ रक्षको की व्यवस्था कर अन्तःपुर म चला जाता ह'साता अविय-जणयस्स ग्रह तणया भगिणी भामंडलस्य गणनिहिणो। राम का अनुचिन्तन करती हुई अपने प्रशभोदय का विचार रामस्स पढम घरिणी प्रवहरियाणेण पावेण ॥ करती है और प्रतिज्ञा करती है कि जब तक राम और --मीयाचरिउ पृ० ६७-६८ लक्ष्मण का कुशल समाचार नही मिलेगा तब तक मैं अन्न विभीषण सीता को प्राश्वासन देकर चला गया, वह जल, स्नान और गधमाल्यादि का ग्रहण नही करूगी। वह मधुर वचनो से रावण से कहता है- "तुम पर-रमणी को कभी मन मे पच परमेष्ठी का स्मरण करती है, कभी राम क्यों लाए ? परनारी अग्नि-शिखा के समान है, विषलता, लक्ष्मण का चितन करती है और कभी अपने अशुभोदय नागिन, और कुपित व्याघ्री के समान सताप, विनाश और की निन्दा करती है। सीता रावण के वैभव को तृण के दुःख का कारण है, कुल का कलक है, यश का घातक है, समान तुच्छ गिनती है। यद्यपि रावण ने सीता को प्रसन्न मतएव तुम परनारी को छोडो, दुर्गति मे मत पडो।" तब करने के लिए अनेक प्रयत्न किये किन्तु उसे किचित् भी रावण ने कहा- "संपूर्ण पृथ्वी मेरी है। इसमे किंचित् भी सफलता नही मिली। रावण की परिचारिकाएँ रावण से वस्तु परकीय नहीं है, तब उसके परित्याग का प्रश्न ही कहती है कि सीता जब भोजन की भी इच्छा नहीं करती, तब वह अापकी कसे इच्छा कर सकती है ? यह सुन । नही उठता।" प्रासासिऊण सीयं महुरगिरेहि विभोसणो भणइ । १. तह विन इच्छइ सिणाण न भोयण गंधमल्लाइ । दहवयण कीस तुमए पररमणी प्राणिया इहयं ? ॥ अच्छइ एगग्गमणा झायंती राहव णिच्च ।। इयवहसिहिव्व, विसकन्दलिम्व, भुय गिव्व, कुविय भणइ भोयणविसए न जावदइयस्स बंधुसहियस्स । वग्धिव्व परणारी होइ सताव-विणास-दुहहेउ। मा प्राणेसु लद्धा कुसलपउत्ती भु जामि य भोयण ताव ।। -सीयाचरिउ पृ. ३८ ३. कि पुण बला वि अबला तीए अलिगणं विहेऊण । २. सीयावइयरमावेइऊण रमणीहि रावणो भणइ । पूरेसि तुम नियए मणोरहे नाह साहेहि । जा मुत्तं पि न इच्छइ सा इत्थिइच्छइ कहे णु तुमए । एव पुच्छिनो पणिो दहवयणोसोऊण इमं वयणो मयणानलेण डज्झमाणसव्वंगो। अस्थिमए पडिवन्नो अभिग्गहो अणंतविरियपयमूले। पडियो वसणसमुढे दहवयणो दुक्खियो अहियं ॥ जह भोत्तव्वाजुवई प्रणिच्छमाणा न कइयावि ।। -सीयाचरिउ पृ०८ -सीयाचरिउ पृ० ६६ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयाचरिउ : एक अध्यय कलंक कुलस्स नासेसुमा जस निययं, मा पडसु दोग्गईए, राम ने रावण के पास दूत भेजा और कहलाया कि मुचसु एय परं पुरधि । तुम सीता को वापिस पहुंचानो अन्यथा युद्ध के लिए तैयार --सीयाचरिउ पृ०६८ हो जायो। रावण अभिमानी था, उमने सीता को वापिस इघर राम जब अपने निवास स्थान पर प्राय और न कर युद्ध किया जिसका नतीजा उम भोगना पडा । सीता को वहाँ न देवा, तब बहुत खेदखिन्न और दु.खी। राम-गवण का युद्ध प्रसिद्ध ही है। उसकी भीषणता का हुए। इतने में लक्ष्मण भी खरदूपण को मारकर पा गया। वर्णन परम्पगनुसार चरितकार ने किया है। अन्त में दानो भाइयो ने सीता को इधर-उधर खोज की परन्तु कही लक्ष्मण के हाथ रावण माग गया। राम लक्ष्मण ने नका में प्रविष्ट होकर सीता को प्राप्त किया। लका में कुछ पता न चला। ममय राज्य कर और विभीषण को लका का राज्य देकर मीता का पता लगाने के लिए चागोर लाग दोडाए राम सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्या को चले । अयोध्या और मुग्रीव स्वयं भी पता लगाने के लिए गया। तब पता में राम सीता और लक्ष्मण का भव्य स्वागत हुमा । भरत चला कि गवण मीता को हर कर ले गया है. इसे सुनकर ने जिन दीक्षा ले ली। और राम लक्ष्मण का राज्याभिषेक विद्याधर भय से कॉपने लगे। किन्तु राम लक्ष्मण ने समझा हा। दोनो भाई वहा मूख में राज्य करने लगे। कर उनका भय दूर किया। गम ने हनुमान को अपनी मृद्रिका और सब समाचार देकर कहा-तुम जानो सीता प्रशुभोदय में विवेक : मे मिलकर उसका चड़ामणि लेते पाना, तथा वहाँ का सब कुछ समय के बाद अयोध्या में मीता के सम्बन्ध में समाचार भी लाना, जिसमे मुझे सीता के सम्बन्ध मे प्रत्यय लोकोपवाद की वार्ता सामने आई, गम ने उस कलक से हो सके। बचने के लिए मीता के परित्याग का निश्चय किया। हनुमान ने नका मे पहुँच कर प्रच्छन्न हो गम की यद्यपि लक्ष्मण ने बहुत ममझाया पर राम अपने निश्चय मुद्रिका सीता के अग के वस्त्र पर छोड़ी, उमे देव मीता पर दृढ रहे और कृतान्तवक्त्र सेनापति को बुला कर यह कहने लगी-"राम की यह मुद्रिका यहाँ कैसे प्राई ? जो आदेश दिया कि मीना को वियाबान जगल मे छोड प्रायो। कोई इस मुद्रिकाको यहाँ लाया हो वह प्रकट हो जाय। मेनापति मीता को रथ में बैठाकर ले चला और अयोध्या तब हनुमान ने प्रकट होकर, अपने नाम, स्थान एव कुलादि से बहुत दूर एक भयानक वन में ग्थ को रोककर सीता से का परिचय देते हुए राम का सब समाचार सुनाया। सीता बोला- पाप उतर जाएँ। को विश्वास हो गया कि राम और लक्ष्मण सकुशल है। जब सीता हिसक जन्तुओं से भरे उस विकट वन में वे जल्दी ही यहाँ आयेगे। इससे सीता को प्रसन्ता हुई। उतरी तो भय से काँपने लगी। सेनापति ने रोते हए सीता नमान ने सीता से कहा-अब आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो से कहा- मुझे पाप क्षमा करें, मैने तो केवल स्वमी के गई, भोजन-पान ग्रहण करो। तब सीता ने ग्यारहवे दिन आदेश का पालन किया है। सेनापति सीता की खिन्नमुद्रा, पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण कर भोजन किया। तत्पश्चात् वन की भीषणता, नीरवता तथा गर्भ के भार की पीडा इनमान ने सीता से कहा--मेरे कधे पर बैठ जाइए मै को देख कर अत्यन्त द्रवित हो गया। उसने जगल में राम के पास पहुँचा दूं। सीता बोली-पति की ऐसी छोडने का कारण लोकोपवाद बतलाया। तब सीता ने जो प्राज्ञा नही और न इस प्रकार जाना उपयुक्त ही है । सीता कहा उसका उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं। सेनापति ने अपना चुडामणि उतार कर हनुमान को दिया और सीता के विवेक और धैर्य से अत्यन्त प्रभावित होता है, अपनी उन जीवन घटनाओं का वृत्तान्त भी कहा जिसे सुन अपने कृत्य पर पश्चाताप करता है और कहता है-यह कर राम को विश्वास हो गया कि सीता जीवित है और सब कार्य मुझे पराधीनतावश करना पड़ा है। देवी, मेरा वह मेरे वियोग से पीड़ित है। यह अपराध क्षमा करो। कवि के वे वाक्य इस प्रकार है: Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सेवावित्ती पुरिसो पहवयणा विसइ जलणंमि। सम्मान के साथ पालकी में लाया, और वहाँ उसके साथ जणणीए कीस जामो सो पुरिसो जो करेइ परसेवं ॥ भगिनी के योग्य व्यवहार किया। सीता ने वहाँ युगल सेच्छाए जेण को न लहइ सो किंचि करणिज्ज ॥ पुत्री को जन्म दिया जिनका नाम 'लव' और 'अंकुश' तो खमियम्बो सामिणि मह प्रवराहो इमो अहन्नस्स।। रक्खा गया। दोनो पुत्रो का वही लालन-पालन, शिक्षण एगागिणी प्ररणे जं परिचता मए समिह । मोर विवाह हुआ। उन्होने द्विग्विजय की। पश्चात् तनो बाहुल्ललोयणाए भणिय सीयाए, कहेहि केण पुण अयोध्या पाकर रामचन्द्र से युद्ध कर अपनी वीरता का कारण एसो प्रम्ह भीसणमेक चडो दडो कागविग्रो राह परिचय दिया और पादर के माथ अयोध्या में प्रवेश किया। वेण? नेण भणियं-देवि, सम्म न जाणामि । किन्तु मा वि मुओ जणप्पवाओ, जहा लकाहिवइणा अवग्यि जीए अग्नि परीक्षा और प्रायिका की दीक्षा : सीलवर रयणं सा सीया णियभवेण कह प्राणिया राहवेण । कुछ दिनो के पश्चात् गम की स्वीकृति पाकर विभीइयय सकल काउमन्ने भोएण पउमनाहेण । षण, हनुमान, मुग्रीव और भामडल प्रादि राजा गण सीता सुयण तुमं परिचत्ता णो अण्णो कोई प्रवराहो ।। को लेने के लिए पुडरीकणी नगरी गये, और सीता को ले मह वा न तुज्झ दोसो दोसा महचेव पुज्य पावस्स । पाये । किन्तु जब मीना गम के सम्मुख आई, तब राम ने उसे कहा-देवि, मै तुम्हारे शील को जानता हूँ, किन्तु जह नाह ग्रह तुमए परिचत्ता प्राणइ प्रभावेउ। किसी कर्मोदयवश जो जनापवाद रूप कलक हुमा उसे तह मा मुंचसु सामिण जिणवयण पिसुणवयहि ॥ धोने के लिए अग्नि में प्रवेश कर पात्म-शद्धि करो। मुक्कस्स मए पच्छा अवगणतस्स विगविलियस्स । तो राहवेण पगलंतप्रंसुसलिलेण जंपियं दइए। इह चेव भवे तिक्ख होही पिप्रयम महादुक्ख ॥ जं मणसि तुमं सच्चं सव्व पि नत्थि सन्देहो । चितामणिसारिच्छो जिणवरधम्मे मए विमक्क । जाणामि तुम सोल प्रणन्नसरिसं कुलीणयं लज्ज। नाणाविहदुक्खाणं भवे भवे भायणं होसि ॥ न कित्तिमं च पेम्म जह तुह तह कस्स भवर्णमि । -मीयारिउ का० पृ. १३५ तहबिहु जणावबानो केणइ कम्मेण उच्छलियो। मनापति के जाते ही मोता रोती और बिलखती है और अपनी निन्दा करती है, परन्तु वहां उमका कौन है, पाविहिसि जसं धवलं लहिसि पसिद्धो जणं मि सयलंमि। जो उसे उम दुःस्व में मान्त्वना दे, ढाढम बघावे। वह ता अलणपवेसेणं करेसु तं अत्तणो सुद्धि ॥ कभी जिनदेव का स्मरण करती है, कभी अपने माता-पिता हेमस्स ब जेण मलो अयसकलको समुत्तरह। और लक्ष्मण को याद करती है, कभी अपने भाई भामडल एसो सिग्घं चिय तह सुन्दरि जाणइ मणनिम्वुइ अम्हं ॥ को याद करती है। और कभी अत्यन्त करण विलाप सोयाचरिउ का० पृ० १६० करती है। मीता ने भी वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए उमके इस करण विलाप को सुनकर बचजघ की सेना अपनी स्वीकृति दी। रुक गई । वज्रजघ ने मीता के शब्द मुने । उमने पाम अग्निकुण्ड तयार कराया गया और जब वह प्रज्विलित प्राकर जब सीता में उसका परिचय पूछा, तब सीता न हो उठा मीता ने पचनमस्कामत्र का स्मरण कर सभा म अपना परिचय दिया और बनवास का कारण बतलाया। तलाया। बैठे लोगो से कहा~यदि मैने इस जीवन में अपने पति वजय ने अपना परिचय देते हुए कहा-धर्मविधि रामचन्द्र को छोडकर अन्य पुरुष का स्वप्न में भी स्मरण से तुम मेरी बडी बहिन हो । मीता उसे अपना भाई मान- किया हो तो मेरा यह शरीर इस अग्नि में जल जाये और कर उसके साथ नगर में चली गई। ववजय सीता को न किया हो तो न जले, तत्पश्चात् सीता ने अग्नि में प्रवेश Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयाचरिउ : एक अध्ययन १४३ किया । लोग हाय-हाय करने लगे, किन्तु जब सीता अपने भणियं च-- शीलव्रत-माहात्म्य से न जली तब सबने उसके शील की समणो गावो विप्पा इत्थीमो बालबुद्धहोगत्ता । प्रशंसा की। कुण्ड से निकलने पर सीता ने ससार की एए नह हन्तव्वा कयावराहा वि, धीरेहि ॥ अनित्यता और प्रशरणता का अनुभव कर प्रात्मकल्याण --मयाचरिउ कापी पृ० ३८ करने का निश्चय किया । रामचन्द्र ने घर चलने का प्रा.ग्रह समणा य बम्भणा विय, गोपसु इत्थीय बालया बुढा । किया और यह भी कहा कि मैं तुझे सोलह हजार रानियों जह वि कुणन्ति दोस, तह वि य एए न हन्तव्वा ॥ की पटरानी बनाऊँगा, किन्तु सीता ने अपने केशो को लुचन -पउमचरिउ३५.५१ कर सर्वगुप्त मुनि के निकट प्रायिका की दीक्षा ले ली और विधिपूर्वक तपश्चरण द्वारा प्रात्मशुद्धि की। इस ग्रथ का रचयिता कौन है और ग्रंथ कहाँ रचा सीयाचरिउ मे सीता के पवित्र जीवन की जो झाकी गया, इसके जानने का कोई पुष्ट साधन अभी तक उपलब्ध दी गई है, उसका यह सक्षिप्त सार है, चरित ग्रंथ मुन्दर नहीं है । ग्रन्थ में रचनाकाल और गुरुपरपरा का भी कोई व प्रकाशन के योग्य है। उल्लेख नही है । किन्तु ग्रन्थ के अन्त में एक गाथा निम्न प्रकार से उपलब्ध है। ग्रथ का कथानक दिगबर परपरा को लिए ये है। उसमे ऐसी कोई बात नही है जिससे उसके विषय में संशय एय सीया_रय बुच्चरिय सेणियस्स नरवइणो। को अवकाश मिले । प्रस्तुत ग्रथ का तुलनात्मक अध्ययन जह गोयम तह महसूरिहि निवेदय किचि ॥ करने से स्पष्ट ज्ञात होता है, कि कर्ताने विमलसूरिके पउम- इसमें बतलाया है कि मीताचरित को गौतम ने जैसा गजा श्रेणिक से कहा वैसा ही महमूरि ने कुछ निवेदन अकित है। अथ के कितने ही पद्य ज्यो के त्यो साधारण किया। इस गाथा मे "मह" शब्द अपूर्ण जान पड़ता है पाठ-भेद के साथ पउमचरिउ मे उपलब्ध होते है। कुछ। और वह अन्य शब्द 'मेन" की अपेक्षा रखता है। पूरा नाम पद्य "अन्न च", "भणियं' तथा 'उक्त च' कह कर दिये गये महसेन मूरि होना चाहिए। इतिहास में महसेन और महाहै । वे उससे उडत किये गये जान पड़ते है। उदाहरणार्थ- सन नाम के विद्वाना का उल्लख मिलता है। बहत सभव है कि इस ग्रन्थ के रचयिता कोई महसेन या महासेन अन्नं च नामक विद्वान हो। महिला सहावचवला प्रदोहपेही सहाइ माइल्ला । वघेरा के निम्न मूर्तिलेख मे प्राचार्य महसेन का तं मे खमाहि पुत्तय जं पडिकलं कयं तुम्ह ॥१६६॥ उल्लेख स.प्ट है, यह लेख सफेद पाषाण की खड़गासन तो भणइ पढमणाहो अम्मो कि खत्तिया अलियवाई। हुँति महाकुलजाया तम्हा भरहो कुणाउ रज्जं॥ स० १२१५ वैशाख सुदी ७ श्री माथुरसंघे प्राचार्य मीयाचरिउ १६७ श्री महसेनेन दीक्षिता प्रायिका ब्रह्मदेवी श्री चन्द्रप्रभु महिला सहावचवला प्रदोहपेही सहावमाइल्ला। प्रणमिति ।" तं में खमाहि पुत्तय जं पडिकूलं कय तुम ॥३२-५१॥ कुछ विद्वान् “मह" का अर्थ मुझ बतलाते है पर वह सो भणह पउमणाहो मम्मो कि खसिया अलियवाई। यहा सगत नही जान पड़ता। होसि महाकुलजाया, तम्हा भरहो कुणउ रज्ज ।। इस ग्रथ की अनेक प्रतियाँ उपलब्ध है, संभव है उनमें -पउमचरिउ ३२-५२ से किसी पुरातन प्रति मे कर्ता का उल्लेख मिल जाय । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-संगोष्ठो विवरण १२ अक्टूबर से १४ अक्टूबर तक वाराणसी में होने के ग्रन्थ भडारों की सूची का कार्य किया उससे साहित्यिक वाले प्राच्यविद्या सम्मेलन के अवसर पर भारतीय ज्ञान विद्वानों को शोध करने में सहायता मिली। अब ग्रन्थमूची पीठ द्वाग ११ अक्टूबर को साहित्य संगोष्ठी का आयोजन का पाचवा भाग प्रकाशित होकर पापकी सेवामें पहुंचेगा। किया गया था । ज्ञानपीठ के सस्थापक साहू शान्तिप्रसाद डा. विमलप्रकाश जी ने डा. हीरालाल जी के सुझावों को जी ने गोष्ठी का प्रारभ किया और डा. ए. एन. र डा. ए. एन. महत्त्वपूर्ण बतलाते हुए कहा कि डा. साहिब ने उन सुझावों उपाध्ये ने अध्यक्षता की। डा० साहब के अग्रेजी भाषण मे अपने जीवन के अनुभवोंका निचोड उपस्थित किया है। के बाद डा. हीरालालजी के द्वारा भेजे गये सुझाव उन पर अमल करनेसे विक्रीकी समस्याभी हल हो जायगी। सुनाए गये । सुझाव महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है । समागत इस तरह उक्त सभी विद्वानो ने डा. हीरालाल जी सभी विद्वानो ने उन्हें पसन्द किया। इतना ही नहीं किन्तु समसानो को मान्य किया। मैने भी उनकी मगहना सभी विद्वानो ने अपने भाषणो में उनकी अनुमोदना की। करते हुए बतलाया कि अब तक तक दि. जैन साहित्य की सूझाव अभी अप्रकाशित है । जिन विद्वानो ने भाषण दिया कोई मुकम्मिल सूची नही है । दि. जैन भण्डागे में प्रकाउनके नाम निम्न प्रकार है :-५० कैलाशचन्द जी सि० शित अप्रकाशित-ग्रन्थो की संख्या दश हजार से कम नही शास्त्री, डा. देवेन्द्रकुमारजी, डा० नेमचन्द जी शास्त्री, डा० राजाराम जी, ५० वशीधरजी एम ए, डा० नथमल है । किसी-किसी कविकी तो छोटी बडी ६० साठ रचनाए टाटिया, डा. हरीन्द्रभूषण जी, डा. मोहनलाल जी मेहता, तक है। उनकी सूची बनने पर शोधक विद्वानों को अनुडा. विमलप्रकाश जी जबलपुर, डा० दरबारीलाल जी १० सन्धान करने मे सुविधा हो सकती है। गोपीलाल 'अमर', प्रो० भागचन्दजी इटारसी, डा. कस्तूर दूसरे, जैन मन्दिर प्रौर मूर्ति लेखा का प्रामाणिक संकलन, अप्रकाशित तया प्रकाशित ग्रन्थो की पाद्यन्त चन्द कासलीवाल, प. हीरालालजी मि. शा. श्री नीरजजी प्रशस्तियो का सकलन, प्रकाशन और जैन कलाविषयक डा० भागचन्दजी नागपुर और परमानन्द शास्त्री आदि। १० कैलाशचन्द जी सि० शास्त्री ने अपने भाषण में प्रामाणिक पुस्तक का निर्माण तथा माधुनिक पटनक्रम की डा. हीरालाल जी के मुझावो का स्वागत करते हुए यह पुस्तक का भी निर्माण किया जाय । कहा कि इस पीढी के वरिष्ठ विद्वान डा. हीरालाल जी साहु शान्तिप्रसादजी ने अपने भाषणमे महत्वपूर्ण विचार और डा० ए एन उपाध्ये जी अब वृद्ध हो चले है । अत. उपस्थित किये । भारतीय ज्ञानपीठ ने साहित्य-सगोष्ठीका एव नई पीढी के विद्वानों को उनके द्वारा की गई महान् केवल प्रायोजनही नही किया प्रस्तुत उसकी समुचित व्यवस्था साहित्यिक सेवायो को ध्यान में रखते हए आगे बढ़ने का भी की। साह दम्पति उममे स्वय शामिल हुए, और भोजप्रयत्न करना चाहिये । ५० वशीधर जी ने डा. हीरालाल नादि की सुन्दर व्यवस्था की। विद्वानो के भापणी के जी के सुझावो की सराहना की, और ग्रन्थो की विक्री । अनन्तर डा. ए. एन. उपाध्ये ने भाषणो और योजना पर आदि सम्बन्ध में होने वाली अमुविधा का उल्लेख करते अपने विचार अंग्रेजीमे व्यक्त किये । इसके लिये एक कमेटी हुए कहा कि ज्ञानपीट के माध्यम से विक्री का प्रबन्ध का निर्माणभी किया गया, जो ग्रन्थोके प्रकाशन और विक्री सुचारुरूप से हो सकता है। प्रो. कुलभूषण जी ने अपने के सम्बन्धमे योजनाको कार्यान्वित करनेका सुझाव देगी। भाषण में विक्री की समस्या को अत्यन्त जटिल बनलाते भारतीय ज्ञानपीठ के ब्वयस्थापक डा गोकुलचन्दजी इम हुये कहा कि जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर में दो लाख कार्यम अत्यन्त व्यस्त दिखाई देते थे। इस योजनाको सम्पन्न रुपये की पुस्तके विक्रीके लिए पड़ी हुई है। मैने इसके लिये करने में उन्होंने जो अथक श्रम किया उसीका परिणाम है बहुन प्रयत्न किया, किन्नु तक प्रभी उसमें पूरी सफलता कि गोष्ठी का काय अच्छ कि गोष्ठी का कार्य अच्छी तरह से सम्पन्न हो सका। नही मिली, यदि सारी पुस्तक बिक जाय तो अन्य साहित्य साहित्य संगोष्ठी का यह कार्य अत्यन्त सराहनीय रहा है। के प्रकाशन में सुविधा हो सकती है। डा. कस्तुरचन्द जी प्राशा है भारतीय ज्ञानपीठ प्रागे होने वाले प्राच्य विद्या कासलीवाल ने डा. हीरालाल जी के सुझावों को मान्य सम्मेलनो के समय इसी तरह साहित्य संगोष्ठी को सफल करते हुए कहा कि मैने महावीरक्षेत्र की प्रोर से राजस्थान बनाने का प्रयत्न करती रहेगी। -परमानन्द शास्त्री Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रगतिशील पं० दरबारीलाल जी कोठिया जैन समाज के वरिष्ठ विद्वान न्यायाचार्य १० दरबारीलाल जी कोठिया एम. ए. ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से "जैन तर्कशास्त्र में अनुमान पर विचार : ऐतिहासिक एवं समीक्षात्मक अध्ययन" विषय पर शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर पी एच. डी. को सम्मानित उपाधि प्राप्त की है । कोठिया जी न्याय शास्त्र के मूर्धन्य विद्वान है। उनके इस निबन्ध से जैन न्याय के क्षत्र में कार्य करने वाले विद्वानो को दिशाबोध के साथ जैन न्याय के सम्बन्ध मे प्रस्तुत किये गये विशेष चिन्तन को विशेषतानो का भी परिज्ञान होगा। डा. कोठिया जी ने भारतीय अनुमानके चिन्तन में एक नई दृष्टि प्रदान की है। **************** **************** डा० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य एम. ए. पी-एच. डी. कोठिया जी अध्ययनशील, कर्मठ एव प्रतिभाशाली विद्वान है । आप ग्रन्थ-शोधन, सम्पादन तथा तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन में लगे रहते है। उनके द्वारा सम्पादित अनुवादित न्यायशास्त्र के दो ग्रन्थ (न्यायदीपिका और प्राप्तपरीक्षा) वीरसेवा मन्दिर से प्रकाशित हो चुके है। जैन न्याय के क्षेत्र मे उनको यह शोधात्मक पहली कृति है । डा. कोठिया जी के इस उत्कर्ष के लिए वीर सेवामन्दिर और अनेकान्त परिवार अभिनन्दन करता है। श्री कोठिया जी ने जो अष्टसहस्री और श्लोकवातिक ग्रन्थों के सम्पादन कार्य को हाथ मे लिया है वह स्तुत्य है । आशा है आधुनिक पद्धति से सुसम्पादित होकर दोनो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ शीघ्र ही प्रकाश मे मा जायेगे। वर्तमान मे ये दोनों ग्रन्थ अलभ्य भी हो चुके है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो में उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानो के लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, सजिल्द १५०० (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक मुन्दर, विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभदभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २-०० (४) स्तुतिविद्या--स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकर चना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हना था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... '७५ (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र —ानायं विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्थिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शतानी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (E) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगल किशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक, सजिल्द । ... ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा० १ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व सग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलकृत, सजिल्द । ४-०० (११) समाधितन्त्र और इप्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४.०० (१२) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थमूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुनाद तथा व्याख्या से युक्त। ... २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ १६ पैसे, (१६) समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ पैसे, (१७) महावीर पूजा २५ (१८) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (समाप्त) (१६) अध्यात्म रहस्य--प० पाशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (२०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण म ग्रह । '५५ ग्रन्थकागे के ऐतिहामिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टो महित । स. प० परमान्द शास्त्री । मजिल्द १२.०० (२१) न्याय-दीपिका-या अभिनव धर्मभूपण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वाग स० अनु० ७-०० (२२) जैन साहित्य और इतिहाम पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर शासन-मघ प्रकाशन ५.०० (२३) कमायपाहड सुत्त-- मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिमूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परेशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बडे साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... ... २०.०० (२४) Reality प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बहे प्राकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्टूबर १९६८ ************************** HALA - সুনীকান। बघेरवाल वंशी शाह जीजा द्वारा निर्मापित दिगम्बर जैन कोतिस्तम्भ समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र IPUR XXXX*********************** द्वैमासिक Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषय-सूची निवेदन क्रमांक विषय १. स्वयंभू स्तुति-मुनि पद्मनन्दि वीर-सेवा-मन्दिर एक शोध-सख्या है। इसमें जैन १४५ २. चित्तौड़ के जैन कौतिस्तम्भ का निर्माणकाल साहित्य और इतिहास की शोध-खोज होती है, और अने-श्री नीरज जैन १४६ कान्त पत्र द्वारा उसे प्रकाशित किया जाता है । अनेक ३. पिण्डशुद्धि के अन्तर्गत उद्दिष्ट आहार पर विद्वान रिसर्च के लिए वीर-सेवमन्दिर के ग्रन्यागार से विचार-५० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री १५५ पुस्तकें ले जाते है। और अपना कार्य कर वापिस करते ४. श्रीपुर क्षेत्र के निर्माता राजा श्रीपाल है। समाज के श्रीमानो का कर्तव्य है कि वे वीर-सेवा-नेमचन्द्र धन्नसा जैन मन्दिरको लायब्रेरी को और अधिक उपयोगी बनानेके लिए ५. शुभचन्द्र का प्राकृत लक्षण : एक विश्लेषण प्रकाशित अप्रकाशित साहित्य प्रदान करे । जिससे अन्वेषक -डा० नेमचन्द्र शास्त्री एम. ए. डी. लिट् १६४ विद्वान उससे पूरा लाभ उठा सके । और प्रकाशित सस्थाएं विहारी सतसई की एक अज्ञात जैन भाषा अपने अपने प्रकाशित ग्रन्थों की एक एक प्रति अवश्य टीका-श्री अगरचन्द नाहटा १६८ भिजवाये । प्राशा है जैन साहित्य और इतिहास के प्रेमी ७. ज्ञानसागर की स्फुट रचनाएँ-डा० विद्या सज्जन इस ओर ध्यान देगे। घर जोहरापुरकर मण्डला व्यवस्थापक 'बोरसेवामन्दिर' अध्यातम बत्तीसी-अगरचन्द नाहटा १७२ २१ दरियागंज, दिल्ली ६. अछूता, समृद्ध जैन साहित्य-रिषभदास राका चित्तौड का दिगम्बर जैन कीर्तिस्तम्भपरमानन्द शास्त्री अनेकान्त के ग्राहकों से ११. महावीर कल्याण केन्द्र-चिमनलाल अनेकान्त के प्रेमी पाठकों से निवेदन है कि वे अपना चकुभाई शाह वापिक मूल्य शीघ्र भेज दे । जिन ग्राहकों ने अभी तक १२. अग्रवालो का जैन सस्कृति में योगदान अपना वार्षिक मुल्य नहीं भेजा है। और न पत्र का उत्तर परमानन्द शास्त्री हो दिया है । उनसे सानुरोध प्रार्थना है कि वे अपना वार्षिक १३. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री तथा मूल्य ६) रु० शीघ्र भेजकर अनुग्रहीत करें । अनेकान्त बालचन्द्र शास्त्री जैन समाज का ख्याति प्राप्त एक शोध पत्र है, जिसमें धार्मिक लेखों के शोध-खोज के महत्वपूर्ण लेख रहते है । जो पठनीय तथा सग्रहणीय होते है। मूल्य प्राप्त सम्पादक-मण्डल न होने पर अगला अक वी० पी० से भेजा जावेगा। डा० प्रा० ने० उपाध्य व्यवस्थापक : 'अनेकान्त' डा० प्रेमसागर जेन वोरसेवामन्दिर २१, दरियागज, दिल्ली। श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री १७४ १०. १७६ १८३ १८५ १६० अनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम्पाटक गडल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त अनेकान्त का वाषिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मल्य १ रुपया २५ पंसा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महंम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २१ किरण ४ । ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६५, वि० सं० २०२५ । अक्टूबर सन् १९६८ स्वयंभूस्तुति पुनातु नः संभवतीर्थकृज्जिनः पुनः पुनः संभवदुःखदुःखिताः। ततिनाशाय विमुक्तिवर्त्मनः प्रकाशकं यं शरणं प्रपेदिरे ॥३ निजगुणैरप्रतिमर्महाजनो न तु त्रिलोकीजनतार्चनेन यः । यतो हि विश्वं लघु तं विमुक्तये नमामि साक्षादभिनन्दनं जिनम् ॥४ नय-प्रमाणादिविधानसद्धटं प्रकाशितं तत्त्वमतीव निर्मलम् । यतस्त्वया तत्सुमतेऽत्र तावकं तदन्वयं नाम नमोऽस्तुते जिन ॥५ - मुनि श्री पचनन्दि अर्थ-बार-बार जन्म-मरण रूप ससार के दुख से पीडित प्राणी उस पीड़ा को दूर करने के लिए मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाले जिस सम्भवनाथ तीर्थकर की शरण में प्राप्त हुए थे वह सम्भव जिनेन्द्र हमको पवित्र करे ॥३॥ जन्म-मरण से रहित जो अभिनन्दन जिनेन्द्र अपने अनुपम गुणो से महिमा को प्राप्त हुए है, न कि तीन लोक में स्थित जनता की पूजा से; तथा जिनके आगे विश्व तुच्छ है-जो अपने अनन्त ज्ञान के द्वारा समस्त विश्व को जानते देखते है, उन अभिनन्दन जिनके लिए मै मुक्ति के प्राप्त्यर्थ नमस्कार करता हूँ ॥४॥ हे सुमति जिनेन्द्र ! चूकि आपने नय एवं प्रमाण प्रादि की विधि से सगत तत्त्व (वस्तु स्वरूप) को अतिशय निर्दोष रीति से प्रकाशित किया था, अतएव प्रापका सुमति (मु शोभना मतिर्यस्यासो सुमति =उत्तम बुद्धि वाला) यह नाम सार्थक है । हे जिन ! पापको नमस्कार हो ।।५।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़ के जैन कीर्तिस्तम्भ का निर्माण काल श्री नीरज जैन चित्तौड़ के किले में निर्मित जैन कीर्तिस्तम्भ अनेक प्रागे करूँगा। इधर पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से कतिपय दृष्टियो से हमारा एक महत्त्वपूर्ण, ऐतिहासिक और प्रभा- शोधक विद्वानो ने उपरोक्त मान्यता की अवहेलना करके वना जनक धर्मायतन है। इसका महत्त्व तब और बढ यह तथ्य स्थापित करने का प्रयास किया है कि इस स्तम्भ जाता है जब हमें ज्ञात होता है कि इसी किले में निर्मित का रचना काल बारहवी शताब्दी न होकर पद्रहवी या राणा कुम्भा का बहु प्रसिद्ध नौ मंजिला विजय स्तम्भ, सोलहवी शताब्दी ईस्वी है। यद्यपि इस नवीन स्थापना इसी जैन कीर्ति स्तभ से प्रेरणा लेकर, इसके निर्माण के का समर्थन साहित्य या कला क्षेत्र के किसी भी कोने से बहत समय बाद बनाया गया। राणा कुम्भा ने इस स्तम्भ नहीं हो पा रहा है परन्तु फिर भी प्रस्तुत किये उक्त की अपेक्षा अपने स्तम्भ में कुछ परिष्कार करने का भी स्थापनाओं के साथ आधार भी प्रस्तुत किये गये है अतः इसी के आधार पर प्रयास किया। वास्तविकता की कसौटी पर उनका परीक्षण प्रावश्यक है। जैन मन्दिरों के सामने मानस्तम्भ बनाने की परम्परा अनेकान्त वर्ष २१ के जून ६८ के प्रक मे पृष्ठ ८३ बहुत प्राचीन है। तीर्थकरो के समवशरण के सामने पर श्रीमान् प० नेमचन्द धन्नूसा जैन का एक लेख इस वणित मानस्तम्भ से यह परम्परा चली है। जैन मान कीर्तिस्तम्भ के निर्माण काल के सम्बन्ध में प्रकाशित हा स्तम्भो की शृखला मे कालक्रम से चित्तौड़ का यह स्तम्भ है। इस लेख मे लेखक ने एक महत्त्वपूर्ण प्रतिमा लेख का भले ही प्राचीनतम न ठहरे और स्थापत्य के कलागत उद्धरण देकर श्री मुनि कातिसागर के एक लेखाश (अनेमूल्यांकन मे भी चाहे इसे सर्वोत्तम न माना जाय परन्तु कान्त वर्ष ८ पृ० १४२) का परिष्कार करने का उद्यम अपनी अद्वितीय और आकाश-विलासिनी ऊंचाई के कारण किया है तथा इस स्तम्भ की शैली आदि के प्राधार पर निर्माण योजना के सौष्ठव और अनुपात की विशिष्टता के भी इसके निर्माण काल की ईसा की बारहवी शताब्दी के कारण तथा समस्त समकालीन स्थापत्य के बीच अपनी पासपास की मान्यता को ही समर्थन देना चाहा है। विविधता के कारण यह स्तम्भ देश के प्रायः सभी उप लेखक ने स्पष्टता पूर्वक स्वीकार किया है कि उन्हे स्तम्भ लब्ध जैन मान-स्तम्भों में विशिष्ट, श्रेष्ठ और महत्त्व के निरीक्षण का अवसर प्राप्त नही हुआ है और मुनि जी पूर्ण है। के लेखवाला अनेकान्त का उक्त प्रक भी उनके सामने भारतीय पुरा विद्या और पुरातत्त्व के प्रायः सभी . नहीं है। निष्पक्ष ज्ञाताओं ने इस स्तम्भ को बारहवी शताब्दी ईस्वी ___ यह मात्र प्रसग की बात है कि अपने गत राजस्थान या उसके पूर्व की रचना माना है। स्तम्भ की निर्माण प्रवास मे इसी सितम्बर मास मे मुझे चित्तौड़ की यात्रा शैली और उस पर अकित कला के आधार से तथा अन्य का सौभाग्य मिला था। अनेकान्त के सभी पिछले अक भी अनेक उद्धरणों और प्राधारों से इन विद्वानों ने अपने इन मेरे सग्रह मे है और इस विषय की कुछ और सामग्री भी अनुमानों की पुष्टि यथा स्थान की है जिसका उल्लेख मै मेरे पास उपलब्ध है, इसलिए मैं श्री पं० नेमचन्द धन्नूसा १. श्री अगरचन्द नाहटा, अनेकान्त वर्ष ८ पृ० १४०. की आकाक्षा के अनुरूप इस सम्बन्ध में यह लेख लिखने "चित्तौड़ के जैन कीर्तिस्तम्भ का निर्माण काल एवं का साहस कर रहा हूँ। निर्माता" मैं समझता हूँ कि पहिले हम एक दृष्टि में इस बात Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़ के जंन कोतिस्तम्भ का निर्माण काल १४७ का संक्षिप्त परिचय प्राप्त कर लें कि इस स्तम्भ के सम्बन्ध में अपनी मान्यता इन शब्दों में व्यक्त की हैनिर्माण काल के विषय में पुरातत्त्व के पारखी किन “यहाँ सबसे प्राचीन मकान जैन कीर्तिस्तम्भ है जो विद्वानों ने क्या-क्या अनुमान लगाये है। यह जानकारी ८० फुट ऊँचा है, जिसको बघेरवाल महाजन जीजा ने प्राप्त करने के उपरान्त मैं अपनी मान्यता और उसके १२वी या १३वी शताब्दी मे जैनियो के प्रथम तीर्थंकर आधार प्रस्तुत करने का उपक्रम करूँगा। श्री आदिनाथ की प्रतिष्ठा में बनवाया"। ... शासकीय प्रकाशन' जनरल ए. कनिघम ने राणा कुम्भा के जय स्तम्भ के नीचे जो पुराना मदिर उल्लेख किया है कि यह कीर्तिस्तम्भ ७५।।। फुट ऊंचा ३२ है उसके लेख से प्रगट है कि गुजरात के सोलकी राजा फुट व्यास का नीचे वा १५ फुट ऊपर है। यह बहुत कुमारपाल ने इस पर्वत के दर्शन किये थे। प्राचीन है। इसके नीचे एक पाषाण खण्ड मिला था। । यदि इस कीर्तिस्तम्भ का सम्बन्ध मूल में किसी जिसमें लेख था-"श्री आदिनाथ व २४ जिनेश्वर, पुण्ड- मन्दिर से होगा तो यह मन्दिर शायद उस स्थान पर रीक, गणेश सूर्य और नवग्रह तुम्हारी रक्षा करं। सं० होगा जहाँ वर्तमान में पूर्व की ओर अब पाषाण का ढेर १५२ वैशाख सुदी गुरुवार'। है"। जो श्वेताम्बर मन्दिर अब इस स्तम्भ के पास पार्यालॉजिकल सर्वे की ही रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पूर्व में है, उसका सम्बन्ध इस स्तम्भ से नहीं है "जैन कीर्तिस्तम्भ बहुत पुरानी इमारत है जो शायद सन् क्योंकि वह ३५० वर्ष पीछे बना। ११०० के करीब बनी थी। इस रिपोर्ट में यह भी अनु- डा० जी० आर० भण्डारकर के कथनानुसार दक्षिण मान लगाया गया है कि राजा कुमारपाल के राज्यकाल कालेज लाइब्रेरी में एक प्रशस्ति है जिसको-"श्री चित्र(बारहवी शताब्दी के मध्य) मे इस पहाड़ पर बहुत से कूट दुर्ग महावीर प्रसाद प्रशस्ति” कहते हैं। यह प्रशस्ति दिगम्बर जैनियो का निवास रहा होगा। कहती है कि यह कीति स्तम्भ मूल में सन् ११०० के इस कीति-स्तम्भ के निर्माता का उल्लेख भी शाम अनुमान रचा गया था, किन्तु राणा कुम्भा के समय में कीय अभिलेखों में कई प्रकार से मिलता है। एक लेख के सन् १४५० के आसपास इसका जीर्णोद्धार हुआ। अनुसार राजा कुमारपाल ने इसका निर्माण कराया था। ___ यह प्रशस्ति प्राचीन है जिसको चारित्रगणि ने वि० जब कि दूसरे दो अभिलेखों में इसे एक बघेरवाल महा स. १४६५ में सकलित किया तथा वि० स० १५०८ मे जन जीजा या जीजक द्वारा निर्मित कहा गया है। इसकी नकल की गई। प्रशस्ति लेख में किसी शिलालेख २.श्री ब० शीतल प्रसाद जो : ब्रह्मचारी जी ने इस की नकल है जो श्री महावीर स्वामी के जैन मन्दिर में २. ये उद्धरण ब्र० शीतल प्रसाद द्वारा सपादित- मौजूद था तथा कीर्तिस्तम्भ उसके सामने खड़ा था । यही "मध्यप्रान्त, मध्यभारत और राजपूताना के प्राचीन न्त, मव्यभारत पार राजपूताना के प्राचान लेख यह भी कहता है कि धर्मात्मा कुमारपाल ने यह जैन स्मारक" नामक पुस्तक से लिए गये है। ऊँची इमारत कीर्तिस्तम्भ नाम की बनवाई। ३. प्रार्यालॉजिकल सर्वे आफ इडिया रिपोर्ट, जिल्द २३, जो मूर्तियां इस कीर्तिस्तम्भ पर बनी हैं वे सब पृ० १०८. दिगंबर जैन हैं । यदि कुमार पाल ने इसे बनवाया हो तो ४. प्रायोलॉजिकल सर्वे ग्राफ इंडिया, फार १९०५-६, पृष्ठ ४३. यह मानना पडेगा कि कुमारपाल या तो दिगम्बर जैन होगा या दिगम्बर जैन धर्म का प्रेमी होगा। ५. It belongs to the Digamber Jains, many of whom seem to have been upon the६. मध्यप्रान्त, मध्यभारत और राजपूताना के प्राचीन hill in Kumarpals' time. जैन स्मारक, पृष्ठ १३४ ६. इम्पीरियल गजेटियर ग्राफ इडिया (राजपूताना)१९०८ १०. वही पृष्ठ १३५ ७. प्रार्यालॉजिकल सर्वे आफ इडिया १९०५-६ पृ. ४६. ११. वही पृष्ठ १३६ ८. A.P.R. of W. India 1906. १२. वही पृष्ठ १३७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनेकान्त ३. श्री परसी ब्राउन : ने अपने ग्रन्थ में इस स्तम्भ इसका काल बारहवीं शताब्दी ईस्वी बताया गया है। का उल्लेख जिन शब्दों में किया है, उनका प्राशय इस ६. भारत सरकार के टूरिज्म विभाग ने राजस्थान प्रकार है-"विशाल स्तम्भों में सोलंकी काल का यह के दर्शनीय स्थलो की एक परिचय पुस्तिका निकाली है। सुनियोजित और असाधारण स्तम्भ बारहवी शताब्दी मे इसमे चित्तौड का उल्लेख करते हुए लिखा है-"किले निर्मित हुआ । यह स्तम्भ चित्तोड का प्राचीन स्तम्भ है। की मुख्य इमारते दो स्तम्भ हैं। ये कीर्ति स्तम्भ और (दूसरा स्तम्भ भी वही पर है जिसका निर्माण पन्द्रहवी जयस्तम्भ कहलाते है । इनमे कीर्तिस्तभ प्राचीन है । इसका शताब्दी में हुआ था)। मूलत. यह स्तम्भ एक मन्दिर के निर्माण एक जैन व्यापारी द्वारा बारहवी शताब्दी मे हुमा सामने बनाया गया कीर्तिस्तम्भ (Piller of Name) था, था। यह प्रथम तीर्थकर आदिनाथ को समर्पित है। यह पर वह मन्दिर अब पूर्णतः नष्ट हो गया है। इस स्तम्भ स्तम्भ नीचे से ऊपर तक विविध सुन्दर प्रतीकों के अकन के पास अब जो मन्दिर दिखाई देता है वह सभवतः उसी से तथा नग्न तीर्थकर मूर्तियो से सजाया गया है जो इस प्राचीन मन्दिर के अवशेषों पर चौदहवी शताब्दी मे बात का प्रतीक है कि यह स्तम्भ दिगबर जैनो का है। बनाया गया। यह पाठ मजिला स्तम्भ अस्सी फुट ऊँचा है । इसकी ८. श्री विजयशंकर श्रीवास्तव ने चित्तौडगढ़ महावीर सयोजना के समस्त जीवत अभिप्राय यह सिद्ध करते है जिनालय प्रशस्ति के उद्धरण पूर्वक स० १४६५ मे उक्त मन्दिर के जीर्णोद्धार की पुष्टि की है। इन्होने इस प्रशस्ति कि यहाँ के कलाकार केवल मन्दिर शैली के ही दास नही का प्रकाशन सदर्भ देते हुए इसकी भण्डारकर सूची का थे। वरन अावश्यकता पड़ने पर वे वैसे ही सुन्दर अन्य क्रमाक ७८१ तथा रायल एमियाटिक सोसाइटी जनरल अभिप्राय के प्रासाद निर्माण भी उतनी ही योग्यता से कर (बम्बई ब्रान्च) भाग २३ के पृष्ठ ४६ पर इसे प्रकाशित सकते थे। स्तम्भ की प्रत्येक मजिल को छज्जेदार बातायनों, प्रकोप्ठों, सुन्दर छतों और प्रासाद विधा के अन्य बताया है"। यह मन्दिर कीर्तिस्तम्भ के समीप स्थित कहा अनेक सशक्त अभिप्रायो से सजाया गया है। यह स्तम्भ गया है। सौन्दर्य और सुदृढ़ता का ज्वलत उदाहरण है। श्रीवास्तव जी ने इस घटना की पुष्टि करते हुए ४. श्री प्रानन्द के० कुमार स्वामी ने चित्तौड के अन्यत्र अपने लेख मे लिखा है-"चित्तौड़ दुर्ग स्थित जैन प्रसंग मे राणा कुम्भा द्वारा सन् १४४०-४८ मे निर्मित स्तम्भ के निकट वाले महावीर स्वामी के मन्दिर का बडे स्तम्भ की चर्चा करके लिखा है-" ऐसा ही किन्तु जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा के समय में वि. स. १४६५ मे इससे कुछ छोटा जन स्तम्भ भी चित्तौड में है जो बारहवी भोसवाल महाजन गुणराज ने कराया"।" शताब्दी का निर्मित है। ८. श्री जी० एस० प्राचार्य, राजस्थान परिचय ग्रथ५. माधुरी देसाई द्वारा भूला भाई मेमोरियल इस्टी- माला के प्रथम पुप्प मे इसी मान्यता का पोषण करते हैट्यूट बम्बई से प्रकाशित पुरातत्त्व सबन्धी चार्ट मे तो "सूरज पोल से उत्तर जैन कीर्तिस्तम्भ पाता है। इस चित्तौड से केवल एक ही चित्र प्रकाशित किया गया है। सात मजिले, ७५ फुट ऊंचे स्मारक का निर्माण दिगंबर उक्त चार्ट मे चित्तौड़ का प्रतिनिधित्व करने वाला यह सःप्रदाय के बधेरवाल महाजन सानाय के पुत्र जीजा ने चित्र इसी जैन कीर्तिस्तम्भ का है । सूची में इसे श्रीप्रल्लट १५. माधुरी देसाई, प्राचिटेक्चुरल एन्ड स्कल्पचरल मानू अथवा तन-रानी-स्तम्भ के नाम से उल्लिखित करके मेन्टस ग्राफ इंडिया, १९५४, सूची क्र. ३०. १३. पारमी ब्राउन, इडियन, आचिटेक्चर (बुद्धिस्ट एण्ड १६. इडिया (राजस्थान) फरवरी १६६२, पृ० ४६. हिन्दू) पृष्ठ १५०-१५१. १७. राजस्थान-भारती ( महाराणा कुम्भा विशेषांक) १४. हिस्ट्री आफ इडियन एड इन्डोनेशियन आर्ट, बाई मार्च १६६३ अंक १-२, पृ० १४६. आनन्द के. कुमार स्वामी, पृष्ठ १११. १८. वही पृ० ५६. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़ के जैन कीतिस्तम्भ का निर्माण काल १४६ कराया था। इसका निर्माण बारहवी शताब्दी का माना “निर्माण को शैली की दृष्टि में रखते हुए यह कालानुमान जाता है । यह कीर्तिस्तम्भ आदिनाथ का स्मारक है। इसके बहुत प्राचीन ज्ञात होता है। संभावना यह है कि यह चारों पार्श्व पर पाँच-पांच फुट ऊँची आदिनाथ की दिगबर स्तंभ बारहवी शताब्दी का निर्मित होना चाहिए। कहा मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। जैन कीर्तिस्तम्भ के पास ही महावीर जाता है कि यह प्रथम जैन तीर्थकर आदिनाथ को समस्वामी का जैन मन्दिर है। इसका जीर्णोद्धार महाराणा पित किया गया था। इस पर सैकड़ो नग्न तीर्थंकर प्रतिकुम्भा के समय सन् १४२८ ई० मे प्रोसवाल महाजन गण माएं अकित है जिससे यह दिगबर जैन स्तभ ठहरता है। राज ने कराया था। इसके समीप ही दक्षिण की ओर जो मन्दिर बना है वह ६. श्री ई० वी० हाबल : ने भी चित्तौड के केवल इस स्तभ से बहुत पीछे की रचना है और एक अन्य दोनो स्तम्भी का ही उल्लेख किया है। उन्होदे जैन कीति- विलुप्त मन्दिर के अवशेषो पर निर्मित है।" स्तम्भ को नवमी शताब्दी की हो रचना माना है १२. डा० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह की मान्यता है शिल्प और मित्र कला के क्षेत्र में भी इन गौरव कि इस कीर्तिस्तभ का निर्माण सन् ११०० ईस्वी के पास शाली जन कलाकारो ने स्वयं को उत्कृष्ट सिद्ध किया पास हुआ तथा सन् १४५० मे इसका जीर्णोद्धार कराया वे निर्माता अद्भुत थे और उनकी निर्माण शैली के कारण गया। उनका अनुमान है कि मूलतः यह एक मन्दिर के विश्व मे अद्वितीत है। सामने का मान-स्तम्भ था और इसमें ऊपर एक सर्वती १०. श्री फर्ग्युसन : चित्तौड के जैन कीर्तिस्तम्भ को भद्रिका (चतुर्म ख) जिन प्रतिमा स्थापित थी। 'कीतिममकालीन स्थापत्य मे एक उत्कृष्ट निर्माण मानते है । स्तभ' नाम से इसकी ख्याति बाद में हुई। इसकी समानता "चित्तौड में अल्लट का स्तम्भ बहुत सुन्दर है। स्तम्भ के करने वाला दूसरा कोई स्तंभ देखने में नहीं आता। १३. बाबू कामता प्रसाद जी के अनुसार-“कीतिसमीप कुछ समय पूर्व तक स्थित एक शिलालेख के अनु स्तभ को स० ६५२ मे बघेरवाल जाति के जीजा या मार इस स्तम्भ का निर्माण सन् ८८६ ईस्वी में हुआ। जीजक ने बनवाया था-उसका लेख कर्नल टॉड को निर्माण शैली से भी इसके नवमी शताब्दी में निर्मित होने मिला था। प्रार्यालॉजिकल रिपोर्ट आफ वेस्टर्न इडिया में कोई सन्देह नहीं रह जाता। यह स्तम्भ प्रथम तीर्थकर १६०६ मे २२०५ से २३०६ तक चित्तौड के शिलालेख आदिनाथ को समर्पित किया गया था। इस पर सैकडो है, उनमें बघेरवाल के बनवाने का उल्लेख है।" तीर्थकर प्रतिमानो का अंकन हुआ है। यह लगभग ८० बाबू जी ने ही दूसरे स्थान पर इसको "दिगबर जैन फीट ऊँचा है और नीचे से ऊपर तक विविध कलात्मक बघेरवाल महाजन जीजा ने १२-१३वी शताब्दी मे प्रथम अकनो और मूर्तियो से सजा हुआ है। इस स्तम्भ को तीर्थकर श्री आदिनाथ की प्रतिष्ठा मे बनवाने का उल्लेख कला का एक अति सुन्दर उदाहरण कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है"।" १४. श्री गौरीशकर होराचन्द प्रोझा अपने ग्रन्थ११. डाक्टर सत्यप्रकाश : राजस्थान पुरातत्त्व विभाग "उदयपुर के राज्य का इतिहास" मे लिखते है :के निर्देशक है। उन्होने फग्र्युसन साहब की उपरोक्त -"जैन कोतिस्तभ प्राता है, जिसको दिगबर सम्प्रमान्यता से अपनी असहमति प्रकट करते हुए लिखा है-- दाय के बघेरवाल महाजन सानाय के पुत्र जीजा ने विक्रम १६. जी० एस० आचार्य, चित्तौड़ दुर्ग, पृ० ६५. सवत् की चौदहवीं शताब्दीके उत्तराद्धं में बनवाया था।" (शिव प्रकाशन बीकानेर) २२. एज स्टोन स्पीक इन राजस्थान, पृ० ५. (चित्तौड़) २०. ई-बी० हावल, दि पार्ट हैरिटेज आफ इडिया, नवीन २३. स्टडीज इन जैन आर्ट, पृष्ठ २३. सस्करण, पृ० १७३. २४. अनेकान्त वर्ष ८, पृष्ठ १४१ २१. श्री फर्ग्युसन हिस्ट्री आफ इडियन एड ईस्टन-प्राचि- २५. जैन तीर्थ और उनकी यात्रा, पृष्ठ ८७ टेक्चर, पृ० २५१. २६. अनेकान्त वर्ष ८, पृष्ठ १४१ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अनेकान्त १५. मुनि ज्ञान विजय जो इस स्तंभ को धर्म प्रेमी श्री गौरीशंकर हीराचन्द पोझा तथा मुनि कांति सागर ये अल्लट राजा द्वारा वि० संवत् ८६५ मे बनवाया हुआ दो ही विद्वान ऐसे है जो इस स्तंभ का निर्माण काल मानते हैं । मुनि जी का यह भी कथन है कि “जब दिगंबर चौदहवी शताब्दी या उसके बाद का मानते हैं। इनमें भी और श्वेताम्बरों में प्रतिमा भेद प्रारम्भ नही हुआ था तब यह अन्तर ध्यान देने योग्य है कि प्रोझा जी अपनी की यह एक श्वेताम्बर कृति है।" मान्यता का कोई आधार प्रस्तुत नही करते तथा उनका १६. डा. कैलाशचन्द जैन : अनेकान्त वर्ष ८ पृष्ठ काल-अनुमान चौदहवी शताब्दी ईस्वी नहीं वरन्, १३६ के संदर्भ में इसे पन्द्रहवी शताब्दी की रचना मानते "विक्रम संवत का चौदहवी शताब्दी" है। इस प्रकार ईस्वी सन में उनका कालानुमान जानने के लिए इसमे से १७. मनि कांतिसागर जी नान्द गाँव के एक प्रतिमा छह दशक और घटाकर इसे देखना होगा जो तेरहवीं लेख के आधार पर सन १९५२ तक इस स्तंभ को पंद्रहवी शताब्दी का अन्त या चौदहवी का केवल प्रारम्भ बैठेगा। शताब्दी का निर्माण मानते थे" । सन् १९५३ मे उन्होने मुनि कांति सागर जी के कालानुमान का आधार इस स्तभ की आयु मे से गत सौ वर्ष और घटाकर इसे नान्द गाँव की एक प्रतिमा पर अकित लेख है जिस पर सोलहवी शताब्दी का निर्मित लिखा" । उनका काल मागे विचार किया जायेगा। स्तभ को बारहवी शताब्दी निर्णय जिस प्रतिमालेख पर आधारित है वह मुनि जी की का निर्माण मानने वाले विद्वानो की बुद्धि पर मुनि जी ने दोनो पुस्तको मे एक सा ही प्रकाशित है। यह लेख अने- व्यंग तो किया है पर अनुमान को सिद्ध करने के लिए कान्त मे भी दो बार प्रकाशित हो चुका है"। स्तभ की कला पर कोई विचार उन्होने अपने लेख मे १८. श्री अगरचन्द नाहटा ने अपने लेख का उप- नही किया । संहार करते हुए उनकी दृष्टि मे आये प्रमाणो पर सक्षिप्त इन दो विद्वानों के अतिरिक्त शेष सोलह विद्वानो की विचार करके अपना अनिश्चित सा मत दिया है कि नान्द मान्यता में इस स्तभ का निर्माण काल नवमी शताब्दी से गाँव का प्रतिमा लेख १५४१ सवत का है अतः कीति- बारहवी शताब्दी ईस्वी के बीच निर्धारित होता है। इन स्तभ सभवतः सवत् १५०० के आस पास ही बना मान्यताओं का सविस्तार उल्लेख ऊपर किया जा चुका है होगा। फिर भी हम इनमे से मोटे रूप से जो सर्वमान्य तथ्य इस प्रकार इस कीर्तिस्तंभ के निर्माणकाल के सबन्ध निकालना चाहते है वे इस प्रकार हैमे मुझे जो उल्लेख प्राप्त हो सके उन्हे मैने यथावत ऊपर १. स्तंभ के निर्माण का नवमी शताब्दी का अनुमान की पंक्तियो में प्रस्तुत कर दिया है। अब हम इन सभी सर्व श्री फर्ग्युसन और बाबू कामता प्रसाद जी ने वहाँ उद्धरणो पर तथा कीर्तिस्तभ की कलागत विशेषताओं पर किसी समय देखे गये एक शिलालेख के आधार पर चित्तौड़ तथा आस-पास के जैन पुरातत्त्व पर और नान्द लगाया है। यह प्राधार बहुत विश्वस्त नहीं लगता। गांव के प्रतिमा लेख पर क्रमशः विचार करेगे । सभवतः इसीलिए बाबू कामताप्रसाद जी ने एक अन्य विद्वानों की मान्यतायें: स्थान पर इसे १२-१३वी शताब्दी की रचना स्वीकार ऊपर दिये गये उद्धरणो से हमे पता चलता है कि किया है। २७. अनेकान्त वर्ष ८, पृष्ठ १४१ २. मुनि ज्ञान विजय जी इसे प्राचीन भी मानना २८. जैनिज्म इन राजस्थान, पृष्ठ ३० चाहते है और संभवतः श्वेतांबर कृति भो सिद्ध करना २६. श्रमण सस्कृति और कला, पृष्ठ ७२ चाहते है, अतः केवल इसी कारण वे इसका निर्माण काल ३०. खण्डहरों का वैभव, पृष्ठ १२१ विक्रम सं० ८६५ तक खींच कर यह दिखाना चाहते है ३१. अनेकान्त वर्ष ८, पृष्ठ १४२; व वर्ष २१ पृ. ८४ कि “जब दिगबर और श्वेताम्बरों में प्रतिमा भेद प्रारभ ३२. अनेकान्त वर्ष ८, पृष्ठ १४३ नहीं हुअा था तव की यह एक श्वेतांबर कृति है।" मुनि Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़ के जंन कोतिस्तम्भ का निर्माण काल १५१ जी का यह अनुमान पक्ष मोह से प्रेरित है, प्रत्यक्ष बाधित देखने से भी यह बात भली प्रकार समझी जा सकती है। है और सही नही है। श्री अगरचन्द नाहटा ने भी इस जब राणा कुभा के विजय स्तंभ का निर्माण काल (स. मान्यता को अमान्य किया है"। १५०५ विक्रम) सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट और सर्व३. श्री अगरचन्द नाहटा अपने एक ही लेख में एक मान्य है तब जैन कीर्तिस्तभ की प्राचीनता सिद्ध करने के जगह इस स्तभ को राणा कुंभा के विजय-स्तभ से बहुत लिए हमें उसकी तुलना बहुत अधिक शिल्पावशेषों से पूर्व का बना सिद्ध करते है" और दूसरी जगह अनुमान करने की प्रावश्यकता नही पडेगी। केवल विजय स्तंभ लगाते है कि यह स्तंभ संवत १५०० के पास पास बना की कला से अपने स्तंभ की कला को तौल कर ही हमें होगा। राणा कुंभा का विजय स्तभ स० १४६७ मे निश्चय हो जाता है कि इन दोनों के निर्माणकाल मे लगप्रारंभ होकर स० १५०५ में बन कर पूर्ण हया और भग दो सौ वर्षों का अन्तर अवश्य है। उसकी औपचारिक प्रतिष्ठा भी उसी वर्ष माघ कृष्णा प्रसगवश मै यहाँ दोनों स्तभों के निर्माण के सबन्ध दशमी को हुई"। इस तथ्य से नाहटा जी का अन्तिम मे यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि दोनों ही स्तभ देव अनुमान उनके पूर्वानुमान का विरोधी तथा वस्तुत: गलत प्रासादों के सामने कीति स्तंभो की तरह स्थापित किये सिद्ध होता है। गये थे। जैन स्थापत्य में जिस प्रकार जिनालय के समक्ष ४. शेष विद्वानों और कला पारखियों के मतानुसार-- मानस्तभ बनाने की परम्परा है उसी प्रकार वैष्णव अ-इस स्तभ का निर्माण ग्यारहवी-बारहवीं परम्परा मैं भी मन्दिरो के सामने विष्णुध्वज आदि के शताब्दी ईस्वी में हुआ। नाम से कीर्तिस्तंभ बनाने की परपरा मिलती है। राणा ब-इसके समीप एक जिनालय था जो कालान्तर कु भा का विजयस्तभ भी वस्तुतः उनके कुभ स्वामी मे नष्ट हो गया तथा सभवतः उसी के अव- मन्दिर के सामने बनवाया गया विष्णु स्तभ ही है। भ्रम शेषों पर वर्तमान मन्दिर का निर्माण हुआ। वश लोग इस स्तभ का निर्माण मालवा के सुल्तान महमूद स-विक्रम सं० १४६५ के आसपास इस स्तभ का खिलजी तथा गुजरात के सुलतान कुतुबुद्दीन की संयुक्त जीर्णोद्धार संपन्न हुआ। उसी समय समी- सेना पर महाराणा कु भा की विजय की स्मृति स्वरूप पस्थ जिनालय का भी जीर्णोद्धार हुआ। मानने लगे है। वस्तुस्थिति तो यह है कि उक्त विजय जीर्णोद्धार का यह कार्य महाराणा कु भा के विक्रम स० १५१४ मे हई थी। अतः नौ वर्ष पूर्व ही राज्यकाल में सन् १४२८ ई० में प्रोसवाल उस विजय की स्मृति स्वरूप विजय स्तभ का निर्माण कसे महाजन गुणराज ने कराया था यह निवि- हो सकता है ? वाद है। ___महाराणा कुंभा के राज्यकाल (१४३३-१४६८ ई.) कोतिस्तम्भ की कला तथा प्रासपास का पुरातत्त्व : मे जैन मन्दिरों का निर्माण और मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी ऊपर हम भली भांति देख चुके है कि कला की बहतायत से हई है। प्रायः इस समस्त निर्माण का इतिकसौटी पर प्रायः सभी विद्वानों ने इस स्तभ को राणा हास भी उपलब्ध है। यदि जैन कीर्तिस्तभ का निर्माण कुभा के विजय स्तभ से श्रेष्ठ, प्राचीन और महत्त्वपूर्ण इस काल में हा होता तो उसका भी उल्लेख इनके बीच माना है। स्तभ की संयोजना तथा उस पर उत्कीणित अवश्य होता। इससे भी ज्ञात होता है कीर्तिस्तंभ इसके सैकड़ो जैन प्रतिमाओं के शारीरिक अनुपात आदि को बहत पूर्व बन चुका था और जब इन अनेक मन्दिरों का ३३. अनेकान्त वर्ष ८, पृष्ठ १४१ निर्माण हो रहा था तब तक कीतिस्तंभ और उसके समी३४. वही पृष्ठ १४० पस्थ जिनालय का जीर्णोद्धार होने लगा था। ३५. वही पृष्ठ १४३ ३७. विजयशकर श्रीवास्तव, राजस्थान भारती, महाराणा ३६. कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति श्लोक १८६ कुम्भा विशेषांक मार्च १९६३ पष्ठ ४६. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अनेकान्त महाराणा कुभा का राज्यकाल विक्रम संवत १४६० नान्द गांव की एक प्रतिमा पर इसे पढ़ा था । पहिली बात से १५२५ तक रहा । जैन मन्दिरों के निर्माण की दृष्टि तो यह है कि इस लेख को और मुनि जी द्वारा कल्पित से भी यह काल महत्त्वपूर्ण है। राणकपुर और शृगार उसके संदर्भित अर्थ को यदि एक दम सही मान लें तो चौरी जैसे कलापूर्ण जिनालय इसी काल में बने । महा- स० १५४१ का यह लेख कीर्तिस्तभ के निर्माता शाह राणा कुंभा के प्रीति पात्र शाह गुणराज ने अजारी, पिड जीजा की तीसरी या चौथी पीढी में अंकित हुआ। यह वाडा (सिरोही तथा सालेरा (उदयपुर) मे नवीन जिना- लेख स्वयं ही पन्द्रहवी शताब्दी ईस्वी (सन् १४८४) में लय बनवाये तथा कई पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार लिखा गया। इस प्रतिमा लेख के अनुसार भी इस तिथि कराया। बसन्तपुर और भूला मे भी जैन मन्दिर बने। मे से चार पीढियों का समय घटाना पड़ेगा। इसके बावनागदा की 6 फुट ऊंची शातिनाथ प्रतिमा तथा देलवाडा जद भी मूनि जी ने इस स्तंभ को सोलहवी शताब्दी की को अनगिनती प्रतिमायें, पाबू, बसन्तपुर तथा अचलगढ़ कृति माना है" । मुझे लगता है यह भूल या तो मुनि जी की सैकडो प्रतिमाये इसी काल की कृति है । मूर्ति स्थापन की सामग्री की प्रेस कापी करने वाले के प्रमाद का फल के अतिरिक्त जैन मन्दिरो के जीर्णोद्धारका कार्य भी हुअा। है या फिर प्रेस के भूतो की कृपा । जो हो, मगर इस भूल चित्तौड दुर्ग स्थित जैन स्तभ के निकट वाले महावीर के कारण अनेक लोग दिग्भ्रमित हुए इसमें सन्देह नहीं । स्वामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार महाराणा कुभा के समय वास्तव में यह लेख अस्पष्ट है और प्रवरा ही पढा में ही वि० सं० १४६५ मे प्रोसवाल महाजन गुणराज ने जा सका है। स्वय मुनि जी ने ही यह बात स्वीकार की कराया था। है। इस लेख का अभिप्रेत भाग इस प्रकार हैइस प्रकार हम देखते है पन्द्रहवी शताब्दी ईस्वी मे xxx मेद पाट देशे चित्रकूट नगरे श्री चन्द्रप्रभ जिस जैन स्थापत्य का निर्माण हया उसके बीच इस कीति जिनेन्द्र चैत्यालय स्थाने निज भुजोपाजितवित्तबलेन श्री स्तंभ का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, उल्टे उस काल में कीर्तिस्तभ पारोपक शाह जिजा सुत शाह पुनसिंहस्य...... इस स्तंभ का तथा इसके समीपस्थ जिनालय का जीर्णोद्धार ...... साहदेउ तस्य भार्या पुई तुकार ।xxx" हुआ ऐसा वर्णन प्राप्त होता है। ऐसे प्रशस्त स्तभ को यहाँ शाह जीजा के पुत्र साह पुनसिह के नाम के आगे जीर्णोद्धार की अवस्था तक पहुँचाने मे स्वाभाविक ही एक शब्द या तो मिट गया प्रतीत होता है या प्रमादवश कम से कम दो ढाई सौ साल तो लगे ही होगे। उपरोक्त लिखने से छूट गया लगता है। अधिक सभावना इसी की अनेको मन्दिरो तथा सैकडो मतियों की शैली, परिकर, है कि यह शब्द मिट गया या अस्पष्ट हो गया है और सज्जा प्रादि से इस स्तभ की गली, परिकर सज्जा अादि मुनि जी के पढने में नहीं पाया। इस शब्द का स्थान का मिलान करने पर भी निर्माण काल का यह अन्तर शायद इसीलिए मुनि जी ने इस लेख को उद्धरित करते परिलक्षित होता है। समय तीगो जगह, “श्रमण सस्कृति और कला" मे, खण्डहरो का वैभव" में तथा अनेकान्त वर्ष ८ मे खाली नांद गाँव का प्रतिमा लेख : छोडकर....इस प्रकार के डाट रखकर इस शब्द का अब हम इतिहास के उस इकलौते तथ्य पर विचार सकेत निर्देश किया है । यह शब्द क्या रहा होगा इसका करेगे जिसका उद्घाटन भारतीय पुरातत्त्वके महान शोधक धक यदि अनुमान किया जा सके तो हम लेख का अधिक सी विद्वान मूनि काति सागर ने किया और जिसके एकमात्र निर्दोष अर्थ प्राप्त कर सकते है। अाधार पर उन्होंने चित्तौड के इस स्तंभ के निर्माण काल मेरे विचार से यहाँ पर "ग्राम्नाये" या "वश" जैसा विषयक, पूर्व मान्यता प्राप्त धारणा को बदलने का प्रयास लन का प्रयास कोई शब्द होना चाहिए। इस शब्द के साथ पढने पर किया । यह लेख सवन् १५४१ का है और मुनि जी ने सिद्ध होगा कि कीर्तिस्तभ के संस्थापक शाह जीजा के पुत्र ३८. वही पृष्ठ ५६ ३६. खण्डहरो का वैभव पृष्ठ १२१ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़के कीतिस्तम्भ का निर्माण काल पुनसिंह के वंश में उत्पन्न शाह देउ ने सं० १५४१ मे यह स्मरण से ही किया है। यह मूर्तिलेख इस प्रकार हैलेख पकित कराया। ऐसा पढने पर यह लेख इतिहास ॐनमो वीतरागाय सम्मत भी हो जायगा तथा लेखों की परंपरा के अनुसार प्रहपति वश सरोरुह सहन रश्मिः सहन कूटं यः । भी इसकी संगति अधिक ठीक बैठ जायगी। अपनी इस बाणपुरे व्यषितासीत् श्रीमानिह देवपाल कृति ॥ धारणा की पुष्टि में मैं तीन प्रमाण विद्वानों के विचारार्थ श्री रत्नपाल इति तत्तनयो वरेण्यः। यहाँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ। पुण्यक मूर्तिरभवद् वसु हाटिकायांम् ॥ १. अकोला के सेनगण दिगंबर जैन मन्दिर में पीतल कोतिर्जगत्रयपरिभ्रमणश्रमार्ता । की नन्दीश्वरी बावन चैत्यालय प्रतिमा पर इसी संवत् यस्य स्थिराजनि जिनायतनच्छलेन ॥ १५४१ का इन्हीं सज्जनों द्वारा अंकित कराया ठीक ऐसा ही एक महत्त्वपूर्ण प्रतिमा लेख प्राप्त हुआ है। यह लेख श्रीमान् पं० नेमचन्द धन्नूसा ने अपने लेख मे प्रकाशित किया है । अन्तर केवल इतना है कि नान्द गाँव का लेख सोऽय धेष्ठि वरिष्ठ गल्हण कृति, धीरल्हणल्यादि भूत" सं० १५४१ के ज्येष्ठ शुक्ला ६ शुक्रवार का है और यह तस्मादजायत कुलाम्बर पूर्णचन्द्रः। लेख ज्येष्ठ शुक्ला ११ भानुवार (रविवार) का है। वैसे श्री जाहडस्तनुजोदयचन्द्रनामा ॥" जब छटमी शुक्रवार को पडेगी तो एकादशी किसी भी इस लेख मे स्पष्ट हो कहा गया है कि सहस्रकूट के प्रकारभानुवार को नहीं हो सकती अतः यह भानुवारभौमवार की जगह प्रमाद से लिखा गया प्रतीत होता है, निर्माता देवपाल रत्नपाल आदि पूर्वजों के श्रेष्ठि गल्हण रल्हण आदि वंशज हुए। मर्तिकला की दृष्टि से भी पर यह एक अलग विषय है। अहार की मूर्ति और वाणपुर के मन्दिर के निर्मातामों में इस लेख का प्रयोजनीय भाग बहुत स्पष्ट है छह सात पीढियों का अन्तर सहज ही निर्धारित किया "xxxचित्रकूट नगरे श्री कीर्तिस्तंभस्यारोपक जाता है। सा. जिजा सुत साह पुन सिंहस्य माम्नाये सा. देउ भार्या ३. खजुराहो के जगत प्रख्यात पारसनाथ मन्दिर का तुकाई तयोः पुत्राश्चत्वारः IXxx" निर्माण संवत् १०११ में पाहिल नामक श्रेष्ठि द्वारा हुआ अकोला के इस प्रतिमा लेख के उल्लेख के बाद इस । था। इस मन्दिर के शिलालेख का प्रारम्भ इस प्रकार संबन्ध में विशेष कुछ कहने को नहीं रह जाता। होता है - २. बाणपुर (जिला टीकमगढ़, म० प्र०) मे दसवी ॐ सवत् १०११ समये। निजकुल अवलोयग्यारहवी शताब्दी का एक सुन्दर, चतुर्मुख, सहस्रकूट, दिव्य मूर्तिः स्वशील, सम दम गुण युक्त-सर्व शिखर बंद मन्दिर बना हुआ है। मैने एक प्रथक् लेख में सत्वानुकम्पी। स्वजन जनित तोषो धग राज्येन इस मन्दिर का सचित्र वर्णन प्रकाशित किया है"। मान्यः । प्रणमति जिन नाथोय भव्य पाहिल इसी मन्दिर के निर्मातायो के वंशधरों ने प्रागे चल नामा"। कर स० १२३७ में अहार (टीकमगढ़, म०प्र०) की इस लेख से पाहिल द्वारा संवत् १०११ मे इस जिनासुप्रसिद्ध और १८ फुट उत्तुग शातिनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा लय के निर्माण की स्पष्ट पुष्टि होती है। खजुराहो के ही कराई। इस प्रतिमा के मतिलेख का प्रारभ निर्माताओं ने ४२. नीरज जैन, अतिशय क्षेत्र प्रहार, अनेकान्त अक्टूबर अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित बाणपूर सहस्रकूट चैत्यालय के १९६५, पृष्ट १७८. ४०. अनेकान्त वर्ष २१, पृष्ठ ८४ ४३. नीरज जैन एवं दशरथ जैन, जैन मानुमेन्ट्स एट ४१. अनेकान्त वर्ष १६ पृष्ठ ५१ खजुराहो-पृष्ठ ३३. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त मन्दिर नं० २७ में संवत् १२१५ की प्रतिष्ठित एक काले इस प्रकार शिलालेखों, मूर्तिलेखोंकी परपरासे भी सिद्ध पाषाण की सभवनाथ की प्रतिमा स्थापित है । इस प्रतिमा होता है कि नाद गाँव व (अकोला) के सवत् १५४१ के मूर्तिलेख में भी पाहिल का उल्लेख हुआ है। यथा- के मूर्तिलेख चित्तोड़ में कीर्तिस्तभ के निर्माता शाह जीजा के पुत्र पुनसिंह की आम्नाय में या वश परपरा में उत्पन्न ॐ संवत् १२१५ माघ सुदि ५ श्रीमान मदनवर्म साह देउ नामक ग्रहस्थ द्वारा अकित कराये गये। कीर्ति देव प्रवर्षमानविजयराज्ये । गहपति वंशे घेष्ठि देदू स्तंभ के निर्माण काल की शोध में हमें इससे इतनी ही तत्पुत्र पाहिल्लः । पाहिलांग रुह साधु साल्हेनेदं प्रतिमा सहायता मिलेगी कि उस महान् निर्माता शाह जीजा की कारतेति........... अविच्छिन्न वश परंपरा और उसके वशजों की धार्मिक अब इन दोनों शिलालेखों के सन्दर्भ में यदि हम सं० निष्ठा स० १५४१ तक सूरक्षित और प्रवर्तमान थी। १०११ में प्रवर्तमान पाहिल के पुत्र के रूप में साधु साल्हे कीति स्तंभ के निर्माण काल की जानकारी करने के पादि को स्वीकार करें, जिन्होने २०४ वर्ष उपरान्त स० लिए हमें या तो उसकी निर्माण शैली पर से अनुमान १२१५ मे यह मूर्ति पधराई; तो बड़ी गड़बड़ हो जायगी। लगाना पडेगा या भारतीय पुरा विद्या के विशेषज्ञों की यहाँ भी हमें पाहिलांग रह साधु साल्हेन शब्दों का यही अयं करना पड़ेगा कि-"पाहिल के वश मे उत्पन्न साधु बात माननी पडेगी, और इस लेख में मेने यह सिद्ध करने साल्हे द्वारा यह प्रतिमा पधराई गई। पाहिल का यह का प्रयास किया है कि ये दोनो ही तथ्य बहुत स्पष्ट रूप वंशज कितने काल पश्चात् हुआ यह निर्णय हम प्रतिमा में और बड़ी दृढता से यह घोषित करते हैं कि दिगबर लेख के सवत से करेंगे, पाहिल के नामोल्लेख से नही। जैन स्थापत्य कला का यह अदभत प्रतीक ईसाकी बारहवी शताब्दी मे या उसके कुछ वर्ष पूर्व ही निर्मित हुअा था, ४४. वही पृष्ठ ५१ पश्चात् नहीं। परिशिष्ट नांद गांव को मूर्ति का लेखस्वस्ति श्री संवत् १५४१ वर्षे शाके (१४०६) प्रवर्तमाने कोधीता संवत्सरे उत्तरगणे [ज्येष्ठ] मासे शुक्ल पक्षे ६ दिने शुक्रवासरे स्वाति नक्षत्रे......योगेर कणे मि० लग्ने श्री वराट् (1) वेशे कारंजा नगरे श्री सुपाश्र्व नाथ चैत्यालये श्री (? मलस सेनगणे पुष्करगच्छ श्रीमत-वृषसेन [वषभसेन] गणघराचार्ये पारंपर्योद्गत श्रीदेववार भट्टाचार्याः ? तेषां पट्ट श्रीमद् भाय[राय] राजगुरु वसुन्धराचार्य महावाद वादीश्वर रायवादपिर्वा [पिता] महा [मह] सकल विद्वज्जन सार्घ (ई) भौम साभिमान वादीभसिंहाभिनय [व] विश्व [विद्य] सोमसेन भट्टारकाणामुपदेशात् श्री वघेरवालजाति खडवाड गोत्रे प्रष्टोत्तर शतमहोत्तुंग शिखरबद्ध प्रासाद समुद्धरण धीर त्रिलोक श्री जिन महाबिम्बोद्धारक-प्रष्टोत्तर-शत् श्री जिन महाप्रतिष्ठा कारक अष्टादशस्थाने अष्टादशकोटि श्रुतभण्डार संस्थापक, सवालक्षबन्दो मोक्षकारक, मेदपाटदेशे चित्रकूट नगरे श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र चैत्यालयस्थाने निजभुजोपाजित वित्तबलेन श्रीकोतिस्तम्भ पारोपक साह जिजा सुत सा० पुनसिंहस्य [माम्नाये] सा० देउ तस्यभार्या पुई तुकार तयोः पुत्रा. वचत्वारः तेषु प्रथम पुत्र साह लखमण..............."चैत्यालयोद्धरणधीरेणनिजभुजोपाजित वित्तानुसारे महायात्रा प्रतिष्ठा तीर्थक्षेत्र..........। (अपूर्ण) -खण्डहरों का वैभव पृ० १२५ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डशुद्धिके अन्तर्गत उद्दिष्ट आहार पर विचार बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री श्री १०८ पूज्य प्रा० शिवसागर जी व उनके संघस्थ के अन्तर्गत हैं । ये उत्पादन दोष भी १६ ही कहे गये हैं। मुनि श्रुतसागर जी महाराज की अनुमति से श्री ब्र० प्यारे- ३ प्रशन दोष-ये भोजनविषयक दोष परोसने वाले लाल जी बड़जात्या के द्वारा पत्रों में प्रकाशित 'उद्दिष्ट आदि से सबन्ध रखते है । ये संख्या मे दस है। आहार पर विचार' शीर्षक में ज्ञातव्य विषय उद्दिष्ट ४ संयोजना दोष-शीत-उष्ण या सचित्त-अचित्त अन्नमाहार को अपेक्षित देखकर उसके विषय मे पागमानुसार पान का सयोग करना, यह संयोजना दोष कहलाता है। कुछ लिखना अभीष्ट प्रतीत हुअा। इस विषय का विशेष ५ प्रमाण दोष-अत्यधिक प्राहार के करने पर विवरण मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में उपलब्ध प्रमाण दोष उत्पन्न होता है। होता है। वहां भोजनशुद्धि के विषय मे यह गाथा कही अत्यधिक पाहार का स्पष्टीकरण करते हुए प. प्राशाघर जी ने कहा है कि उदर के चार भागो में से दो उग्गम उप्पादण एसणं च सजोजण पमाणं च । भागों को व्यंजन (दाल-शाक आदि) के साथ भोजन से इगाल धूम कारण प्रविहा पिंडसुद्धी दु' ॥२॥ तथा एक भाग को पानी आदि से पूर्ण करके शेष एक भाग उद्गम दोष (१६), उत्पादन दोष (१६), अशन को वायुसंचरण आदि के लिये रिक्त रखना चाहिए । इसका दोष (१०), संयोजना दोष, प्रमाण दोष, अंगार दोष, घूम अतिक्रमण करने से अतिक्रम नाम का दोष होता है।' दोष और कारण; इस प्रकार पिण्डशुद्धि आठ प्रकारकी। २ यरभिप्रायात-पात्रगौराहारादिस्ते उद्गमोत्पादनकही गई है। १ उद्गम दोष-दाता जिन मार्गविरोधी प्रवृत्तियों दोषाः आहारार्थानुष्ठानविशेषाः । मूला. वसु. वृत्ति ६-२ से भोजन को उत्पन्न करता है उन प्रवृत्तियों को उद्गम दातुः प्रयोगा यत्यर्थे भक्तादी षोडशोद्गमाः । पौशिकाद्या धान्याद्या: षोडशोत्पादना यतेः ।। दोष के नाम से कहा जाता है। ये उद्गम दोष १६ कहे भक्ताद्युद्गच्छत्यपध्ययर्यरुत्पाद्यते च ते । गये हैं। २ उत्पादन दोष-पात्रस्वरूप साधु जिन मार्गविरोधी दातृ-यत्योः क्रियाभेदा उद्गमोत्पादनाः क्रमात् ॥ अन. घ. ५-२ व ४. अभिप्रायो से भोजन को प्राप्त करता है वे उत्पादन दाषा ३ अश्यते भज्यते येभ्यः पारिवेषिकेभ्यस्तेषामशुद्धयो१ पिंडे उग्गम उप्पायणेसणा[सं] जोयणा पमाण च। ऽशनदोषाः । मूला. वृत्ति ६-२. इंगाल धूम कारण अट्ठविहा पिडनिज्जुत्ती ॥ पि. नि.१ " र ४ सजोयणा य दोसो जो संजोएदि भत्त-पाण च । भगवती-आराधनामे इन दोषों का उपयोग पाहार मूला. ६-५७ पू.; अन. घ. ५-३७. ५ अदिमत्तो पाहारो पमाणदोसो हवदि एसो । के साथ शय्या-वसतिका-और उपधि के विषय मे मला. ६-५७ उ. भी किया गया है । यथा प्रद्धमसणस्स सविजणस्स उदरस्स तदियमुदयेण । उगम-उप्पादण-एसणाविसुद्धाए अकिरियाए दु। वाऊसचरण? चउत्थमवसेसये भिक्खू ॥ मूला. ६-७२ वसदि प्रसंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेज्जाए ॥२३०॥ सव्यञ्जनाशनेन द्वौ पानेनैकमशमुदरस्य । उग्गम-उप्पायण-एसणाहि पिंडमुवधि सेज्ज च । भूत्वाऽभूतस्तुरीयो मात्रा तदतिक्रमः प्रमाणमलः ।। सोधितस्स य मुणिणो विसुज्झए एसणासमिदी॥११६७ मन. प.५-३८. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पूति बलि बलि प्राकृतिक आहार का प्रमाण पुरुष का ३२ ग्रास और १आतंक-रुग्णावस्था, २ मुनिधर्म का विघातक महिला का २८ ग्रास है। एक ग्रास का प्रमाण एक देव-मनुष्यादिकृत उपद्रव, ३ ब्रह्मचर्यका सरक्षण, ४ प्राणिहजार (१०००) चावल मात्र है। दया-बहुधात का परिहार, ५ तप के निमित्त और ६ ६ बंगार दोष-मूछित होकर-पासक्तिपूर्वक- शरीरपरिहार-समाधिमरण; इन कारणों से धर्म के आहार करने से अगार दोष होता है। संरक्षणार्थ भोजन का परित्याग करना आवश्यक है। ७ घूम दोष-भोजन को प्रतिकूल जानकर निन्दा उपर्युक्त उद्गमादि दोषो को विविध ग्रन्थो के आधार का भाव रखते हुए पाहार करने पर धूम दोष उत्पन्न से निम्न तालिकाओं द्वारा ज्ञात कीजिएहोता है। ८ कारण-आहार ग्रहण के छह कारण है, जिनके १६ उद्गम दोष प्राश्रय से धर्म का आचरण हो सकता है। तथा छह ही मलाचार आचारसार अन. घ. पिण्डनियुक्ति कारण ऐसे है जिनके आश्रय से आहार ग्रहण करने पर (६,३-४) (८,१६-२०) (५,५-६) (६२-६३) धर्म से विमुख रह सकता है, अतः वे परित्याज्य है। ये १ प्रोद्देशिक उद्दिष्ट उद्दिष्ट आधाकर्म दोनो प्रकारके कारण इस प्रकार है २ अध्यधि अध्यवधि साधिक प्रौद्देशिक १ क्षुधा की वेदना, २ वैयावृत्त्य, ३ आवश्यक ३ पूति पूति पूतिकर्म क्रियानो का परिपालन, ४ सयमका परिपालन, ५ प्राणों ४ मिश्र मिश्र मिश्र मिश्रजात की स्थिति और ६ धर्मचिन्ता; इन कारणो से भोजन ५ स्थापित स्थापित प्राभूतक स्थापना लेना धर्म का साधक होने से आवश्यक है। बलि प्राभृतिका ७ प्रावर्तित प्राभृत न्यस्त प्रादुष्करण १ बत्तीस किर कवला पाहारो कुक्खिपूरणो होइ। (पाहुडिह) पुरुसस्स महिलियाए अट्ठावीस हवे कवला ॥ ८ प्रादुष्कार प्रावि.कृत प्रादुष्कृत क्रीत भ. आ. २११, मूला. ५-१५३; पि. नि. ६४२. ६ क्रीत क्रीत क्रीत अपमित्य ('कुक्खिपूरणो होइ' के स्थान में यहाँ 'कुच्छिपूरओ (पामिच्चे) भणियो' पाठ है)। १० प्रामृष्य प्रामुष्य प्रामित्य परिवर्तित २ ग्रासोऽश्रावि सहस्रतदुलमितो........। भ. प्रा. (पामिच्छ) मूलाराधना टीका २११ मे उद्धत । ११ परिवर्तक परिवृत परिवर्तित अभिहृत ३ त होदि सयगाल ज पाहारेदि मुच्छिदो संतो। १२ अभिघट अभिहत निषिद्ध उद्भिन्न मूला. ६-५८ पू.; पि. नि. ६५५ पू. (अभिहड) ४ तं पुण होदि सघूम ज पाहारेदि दिदो। १३ उद्भिन्न उद्भिन्न अभिहत मालापहृत मूला. ६-५८ उ.पि. नि. ६५५ उ. (णिदिदो-निदंतो) छहि कारणेहि असण पाहारंतो वि पायरदि धम्म । वेयण-वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । छाह चेव कारणेहि दु णिज्जुहवंतो वि आचरदि । तह पाणवत्तियाए छट्ठपुण धमचिताए॥पि.नि. ६६२ मूला. ६.५६. (आगे की गा. ६६३-६४) द्वारा इन छह कारणों छहि कारणेहिं साधू आहारितो वि पायरइ धम्म । का यहाँ स्पष्टीकरण भी किया गया है।) हि चेव कारणेहि णिज्जूहितोऽवि पायरइ ॥ ७ आदके उवसग्गे तिर-[तिति- क्खणे बभचेरगुत्तीयो। पि. नि. ६६१. पाणिदया-तवहेऊ सरीरपरिहार वोच्छेदो ॥ मूला.६-६१ वेयण-वेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमझाए । आर्यके उवसग्गे तितिक्खया बभचेरगुत्तीसु । तघ पाण-धम्मचिंता कुज्जा एदेहि प्राहारं ।। मूला.६-६० पाणिदया तवहेउ सरीरवोच्छेयणट्ठाए । पि. नि. ६६६ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डशक्षिके अन्तर्गत उद्दिष्ट माहार पर विचार १४ मालारोहण मालिकारोहण उद्भिन्न आच्छेद्य ८ अपरिणत मिश्र दायक अपरिणत १५ माच्छेद्य प्राच्छेद्य आच्छेद्य अनिसृष्ट लिप्त अपक्व लिप्त लिप्त १६ अनिसृष्ट अनिसृष्ट पारोह अध्यवपूरक १० त्यक्त लिप्त विमिश्र छदित (प्रणिसिट्ठ) (छड्डिय) १६ उत्पादन दोष ४ इतर दोष मूलाचार प्रा. सा. अन. घ. (पि. नि.४०३ मूला. प्रा. सा. अन. घ. पि नि. (६.२६-२७) (८,३५-३६) (५-१६) व ४०८-६) (६,५७-५८) (८,५४-५७) (५, ३७.३८) १ धात्री धात्री घात्री धात्री १ सयोजना संयोजन प्रगार संयोजना २ दूत (६२६-४१) ३ निमित्त भिषग्वृत्ति निमित्त निमित्त २ प्रमाण प्रमाण घूम प्रमाण ६४२ ४ प्राजीव निमित्त वनीपक प्राजीव ३ अंगार अंगार सयोजना अंगार ६५६-५७ ५ वनीपक इच्छाविभाषण आजीव वनीपक ४ चम धूम प्रमाण धूम ६५८-५९ ६ चिकित्सा पूर्वस्तुति क्रोध चिकित्सा ७ क्रोधी पश्चात्स्तुति मान क्रोध अषःकर्म ८ मानी क्रोध माया मान सोलह उद्गम दोषो मे पहिला अघःकर्म और दूसरा ६ मायी मान लोभ माया प्रौद्देशिक है। १० लोभी माया प्राग्नुति लोभ पृथिवीकायिकादि छह जीवनिकायो की विराधना ११ पूर्वस्तुति लोभ अनुनुति पूर्वसस्तव और उपद्रवण-जीवों को उपद्रवित (पीडित) करना'१२ पश्चात्स्तुति वश्यकर्म वैद्यक पश्चात्सस्तव आदिसे जो सिद्ध हो, वह चाहे स्वय किया गया हो या १३ विद्या स्वगुणस्तवन विद्या विद्या १ मूलाचार मे इन उद्गम दोषोका नामनिर्देश गा. ६, १४ मत्र विद्या मत्र ३-४ द्वारा किया गया है। तदनुसार ये दोष १७ १५ चूर्णयोग मत्र चूर्ण चूर्णयोग होते है । पर अन्त में 'उग्गमदोसा दु सोलसिमे' कह१६ मूलकर्म चूर्णोपजीवन वश कर उनकी संख्या १६ ही निर्दिष्ट की गई है। इसकी वृत्ति में प्रा. वसुनन्दी ने प्रकृत अधःकर्म १० प्रशनदोष को पिण्डशुद्धि के बाह्य महादोष कहा है। यथामूलाचार प्रा. सा. अन. घ. पिंडनियुक्ति गृहस्थाश्रितं पचमूनासमेत तावन् सामान्यभूतमष्टवि(६-४३) (८-४५) (५.२८) (५१४-१५,५२०) घा पिण्डशुद्धि बाह्य [विपिण्डशुद्धिबाह्य] महा१ शकित शकित शकित शकित दोषरूपमधःकर्म कथ्यते । २ म्रक्षित म्रक्षित पिहित प्रक्षिप्त पं. आशाधर जी इस यःकर्म को स्पष्टय छया (मक्खिय) लीस दोषो से बाह्य मानते है । यथा-- ३ निक्षिप्त निक्षिप्त म्रक्षित निक्षिप्त षट्चत्वारिंशता दोषः पिण्डोऽध:कर्मणा मलैः । ४ पिहित पिहित निक्षिप्त पिहित द्विसप्तश्चोभितोऽविघ्न योज्यस्त्याज्यस्तथार्थतः ।। ५ संव्यवहरण उज्झित छोटित सहृत अन. घ. ५.१ ६ दायक व्यवहार अपरिणत दायक २ जीवस्य उपद्रवण प्रोद्दावण णाम । धवला पु. १३, ७ उन्मिश्र दातृ साधारण उन्मिश्र पृ. ४६. मत्र मूलकर्म Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अनेकान्त दूसरे से कराया गया हो, अधःकर्म कहलाता है। माशाधरजी का उदाहरण यहाँ है ही, पर वह इस प्रकार इस अधःकर्म से परिणत-अपने लिए किया गया है, से है-जिस प्रकार मछलियों को लक्ष्य कर जलमें प्रक्षिप्त इस प्रकार मानने वाला'-साधु प्रासुक द्रव्य के ग्रहण मादक चूर्ण प्रादि से मादक हए जलके सम्बन्ध से मछलियाँ करने पर भी बन्धक कहा गया है और इसके विपरीत ही विहल होती है, मैंढक नही; इसी प्रकार पर के लिए जो शद्ध-अधःकर्म से विशुद्ध-ग्राहार को खोज रहा है (अपने लिए नही) किए गए पाहार के ग्रहण में साधु वह प्रधःकर्म के होने पर भी शुद्ध माना गया है। विशा-निर्दोष-रखता है। अभिप्राय यह है कि यहां पं. पाशाघर जी ने इसे कुछ विकसित कर यह कह जो उक्त दष्टान्त पात्रके लिए दिया गया है उनका उपयोग दिया है कि प्रध.कर्म करने वाला गृहस्थ ही पापका भागी मनगारधर्मामृत मे दाता के लिए किया गया है। होता है, साधु नही। जैसे-जलाशय मे मछलियो को पिण्डनियुक्ति मे इस अधःकर्म या पाषाकर्म की निमूछित करनेवाले चूर्ण आदि के डालने पर मछलियाँ ही कृष्टता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो साधु विह्वल होती है, मेढक नहीं। प्राधाकर्म दोष से दूषित भोजन को खाता है उसके इस मूलाचार मे आगे यह स्पष्टतापूर्वक निर्देश कर दिया दोष की शुद्धि प्रतिक्रमणसे सम्भव नहीं है। वह बोडगया है कि प्रासुक होने पर भी यदि वह अपने लिए किया मुण्डित-मस्तक-इस प्रकार लोक मे परिभ्रमण करता है गया है तो वह अशुद्ध--अग्राह्य-ही है। उपर्युक्त प.. जिस प्रकार कि लुचित-विलुचित- सर्वथा बालों से रहित १ त अोद्दावण-विद्दावण - परिदावण-प्रारंभकदणिप्फण्ण कबूतर इधर-उघर फिरता है। तात्पर्य यह कि अधःकर्मत सव्व प्राधाकम्म णाम । ष.ख. ५,४,२२ (पु. १३, भोजीकी लोच आदि अन्य क्रियाये सब निरर्थक है। पृ. ४६). छज्जीवणिकायाणं विराहणोद्दावणादिणिप्पण्णं । प्रौद्देशिक दोष आघाकम्म णेय सय-परकदमादसंपण्णं ।।मूला. ६-५. दूसरा उद्गम दोष प्रौद्देशिक है । उसका स्वरूप इस पोरालसरीराणं उद्दवण तिवायण च जस्सट्रा। प्रकार हैमणमाहिता कीरइ पाहाकम्म तयं बेति ।। पि नि. ६७ देवद-पासंडत्थं किविणटुं चावि जंतु उद्दिसियं । आघानम् प्राधा, 'उपसर्गादातः' इत्यङ प्रत्ययः- कदमण्ण समुद्देसं चदुम्विहं वा समासेण ॥ मूला. ६-६. सानिमित्त चेतसा प्रणिधानम्, यथा अमुकस्य साधो: अर्थात् नागयक्षादि देवताओं के लिए, पाखण्डियोंकारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति, आधया कर्म जैनदर्शन बाह्य वेषधारी साधुओं के लिए और कृपण पाकादिक्रिया प्राधाकर्म, तद्योगाद् भक्ताद्यप्याधाकर्म । ....... यद्वा प्राधाय-साधु चेतसि प्रणिधाय (दीन) जनों के लिए जो भोजन तैयार किया गया है वह पोहोशिक-उद्देश से निर्मित–कहलाता है । अथवा, वह यत् क्रियते भक्तादि तदाघाकर्म । पिं. नि. मलय. संक्षेप से चार प्रकार का हैवृत्ति ६२.. २ प्रासुके द्रव्ये सति यद्यधःकर्मपरिणतो भवति साघुः ५ पगदा असो जम्हा तम्हादो दव्वदो ति तं दव्व । -यद्यात्मार्थ कृत मन्यते गौरवेण-तदासी बन्धको पासुगमिदि सिद्ध वि य अप्पटुकदं असुद्ध तु ।। भणित:-कर्म बध्नाति । मूला. वृत्ति ६-६८. जह मच्छयाण पयदे मदणुदये मच्छया हि मज्जति । ३ प्राधाकम्मपरिणदो पासुगदव्वे वि बघनो भणियो। ण हि मंडूगा एव परमट्ठकदे जदि विशुद्धो॥ सूद्ध गर्वसमाणो प्राधाकम्मे वि सो सुद्धो।। मूला. ६-६८ मूला. ६, ६६.६७. ४ योक्ताधःकर्मिको दुष्येन्नात्र भोक्ता विपर्ययात् । ६ पाहाकम्मं भुजइ न पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स । मत्स्या हि मत्स्यमदने जले माद्यन्ति न प्लवाः ।। एमेव अडइ बोडो लुक्क-विलुक्को जह कवोडो । मन.ध. ५-६८. पि. नि. २१७. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डशुद्धिके अन्तर्गत उद्दिष्ट माहार पर विचार १५६ जावदियं उद्द सो पासंडो ति य हवे समुद्देसो। आदि को मिलाकर भोजन बनाया जाता है वह प्रोष समणो ति य मादेसो णिग्गंयो त्ति य हवे समावेसो ॥ प्रौद्देशिक कहलाता है और अपने स्वामित्व को हटाकर मूला. ६-७. भिक्षा देनेके लिए जो कुछ मात्रामें भोजन सामग्रीको पृथक उपर्युक्त प्रौद्देशिक भोजन चार प्रकारका है- कर दिया जाता है वह विभाग प्रौद्देशिक माना जाता है। उद्देश, समुद्देश, प्रादेश और समादेश । १. जो भी कोई कभी दुष्काल आदि के पड़ने पर उसमें जीवित बचा आवेगे उन सभी के लिए भोजन दूंगा, इस उद्देश से निर्मित भोजन को उद्देश प्रौद्दे शिक कहा जाता है। रहा गृहस्थ विचार करता है कि मैं इस भीषण दुभिक्षमें २. जो भी पाखण्डी पावेंगे उन सबको भोजन दूंगा, इस जीवित बच गया हूँ, अतएव प्रतिदिन कुछ भिक्षा दूंगा। प्रकार के उद्देश से जो भोजन बनाया जाता है उसे समु कारण कि पूर्व में दिया है सो अब भोगनेमें आ रहा है, अब इस समय यदि कुछ पुण्य कार्य न किया जाय तो पर. देश प्रौद्देशिक कहते है । ३. आजीवक और तापस प्रादि लोकमें फल कहाँसे प्राप्त हो सकता है। अत: भिक्षा जितने भी श्रमण-वेषधारी साधु-भोजन के लिए दानादि पुण्य कार्य करना उचित है। ऐसा विचार होने आवेगे उन सभी को आहार दूगा, इस प्रकार श्रमणो के पर गृहिणी विना किसी प्रकारके विभागके जितना भोजन उद्देश से निर्मित भोजन का नाम आदेश प्रौद्देशिक है। प्रतिदिन बनाया जाता है उसमे पाखण्डियों या गृहस्थों ४. जो भी निर्ग्रन्थ साधु आवेगे उन सबके लिए आहार को भिक्षा दानार्थ कुछ और भी चावल आदिको डालकर दूगा, इस प्रकार जैन साघुओं को लक्ष्य कर बनाया गया भोजन बनाती है । यह ओघ प्रौद्देशिक है। भोजन समादेश प्रौद्देशिक कहलाता है। यह चारो प्रकारका भोजन उद्देश से निर्मित होने के कारण प्रौद्देशिक यहा यह शका उद्भावित की गई है कि साधु तो छद्मस्थ है-केवल ज्ञानी तो नही है; तब वैसी अवस्था दोष से दूषित होता है, अतः शुद्धि का विघातक होने से मे वह यह किस प्रकार जान सकता है कि अमुक भोजन साधु के लिए वह अग्राह्य होता है । पिण्डनियुक्ति प्ररूपित प्रौद्देशिक उपर्युक्त उद्देशपूर्वक बनाया गया है और अमुक बिना पिण्डनियुक्ति यह श्वेताम्बर सम्प्रदायका मान्य किसी प्रकारके उद्देशके बनाया गया है ? ग्रन्थ है । यद्यपि दिगम्बर साधु और श्वेताम्बर साधुग्रोकी इसके उत्तर में कहा गया है कि साधु यदि उपयुक्त है गोचरीमे भेद है, फिर भी जैसा कि ऊपरकी तालिकामों से रका तालिकामा से --सावधान है-तो वह गृहस्थकी शब्दादि चेष्टामोसे उसे स्पष्ट है, दोनों सम्प्रदायगत इन दोषों में बहुत कुछ समा- ज्ञात कर सकता है। जैसे-यदि भिक्षाके सकल्पसे नियनता भी है। इसीलिए तुलनात्मक विचार की दृष्टि से मित बनाये जाने वाले भोजनमे कुछ अधिक चावल आदि यहाँ पिण्डनियुक्ति में जिस प्रकार इस दोषकी प्ररूपणा को का प्रक्षेप किया गया है तो वहुधा गृहस्थकी चेष्टा इस गई है उसे भी दे देना उपयोगी प्रतीत होता है। प्रकार हुआ करती है-यदि गृह पर भिक्षार्थ कोई साधु यहाँ प्रौद्द शिकके दो भेद निर्दिष्ट किये गये है- पहुँचता है तो गृहपति गृहिणीसे भिक्षा देनेके लिए कहता प्रोष पौशिक और विभाग प्रौद्देशिक । पोषका अर्थ है। तब वह कहती है कि पाच भिक्षाये प्रतिदिन दी सामान्य होता है, अतः सामान्यसे-स्व प्रौर पर के जाती है सो वे इतर साधूनों को दी जा चुकी हैं । अथवा विभाग से रहित-जो प्रतिदिन बनाये जाने वाले निय- कभी-कभी गृहिणी इन भिक्षामोंकी गणनाके लिए भित्ति मित भोजनमें भिक्षा देने के विचारसे कुछ और चावल आदि पर रेखाये बनाती जाती है, अथवा पहिली व दूसरी १ उद्देसिय समुद्दे सियं च पाएसियं च समाएसं । पादि गिनती हुई भिक्षा देती है। कभी-कभी प्रमुख एवं कडे य कम्मे एक्केक्कि चउक्कमो भेषो । गृहिणी बहू आदिसे यह कहती हुई देखी जाती है कि इस जावंतियमुद्देसं पासडीणं भवे समुद्दे सं। पात्रमें से भिक्षा देना-इसमे से नही देना। तथा साधु समणाणं पाएसं निम्गंथाणं समाएसं ।। जब किसी विवक्षित घर पर पहुँचता है तो कोई स्त्री पि.नि. २२६-२३० किसी दूसरीसे कहती है कि भिक्षादानार्थ इतनी भोज्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनेकान्त सामग्री पृथक कर लो। इत्यादि चेष्टाओं को देख-सुन -मन, वचन, काय, व कृत, कारित, अनुमोदना-से कर साधु उद्दिष्ट भोजनका अनुमान कर सकता है। विशुद्ध हो, ब्यालीस दोषों (उद्गम १६+ उत्पादन १६+ विभाग भौशिक उद्दिष्ट, कृत और कर्म के भेद से प्रशन १०४२) व संयोजनासे विहीन हो, प्रमाणसे युक्त तीन प्रकार का है। विवाहादि महोत्सवके समय प्रचुर -परिमित-हो, विधिपूर्वक-नवधा भक्तिसे-दिया भात व व्यजन आदिको देखकर गृहस्थ किसी कुटुम्वाजन गया हो, अंगार व घूम दोषोंसे विरहित हो, पूर्वोक्त छह से पुण्य सम्पादनार्थ भिक्षुको के लिए भिक्षा देनेको कहता कारणोंसे संयुक्त हो, विपरीत क्रमसे रहित हो, और है। तब यदि जैसा है उसी प्रकार से देता है तो इसे केवल यात्राका-प्राणधारण अथवा मोक्ष प्राप्तिकाउद्दिष्ट कहा जाता है। यदि भिक्षा देने के लिए पूर्व भोज्य दिन क लिए पूर्व भाज्य साधन हो। उक्त भोजन नख, रोम, जन्तु, अस्थि, कण सामग्रास कुछ और करम्ब (दध्यादन) आदि नवान वस्तु (गेहूँ आदिका बाह्य अवयव), कुण्ड (धान आदि भीतरी या जाता है ता वह कृत कहलाता ह । तथा याद ला सूक्ष्म अवयव), पीव, चमडा, रुधिर, मास, बीज, फल अादिका चूर्ण रखा हुअाहो और फिरसे चाशनी आदि बनाकर (जामुन, आम व पावला), कन्द और मूल; इन चौदह लड्डू प्रादि बनाये जाते है तो उसका नाम कर्म होता है। मलों से वजित भी होना चाहिए। उक्त तीनो विभाग प्रौद्देशिकोमेसे प्रत्येक प्रौद्देशिक, इसके अतिरिक्त उस भोजनका जैसे प्रासुक-'प्रगता समूह शिक, प्रादेशिक और समादेशके भेदसे चार-चार प्रसव. यस्मात् तत् प्रासुकम्' इस निरुक्तिके अनुसार प्रकारका है। इस प्रकार विभाग प्रौद्द शिकके सब भेद प्राणिविहीन-होना अभीष्ट है वैसे ही अपने लिए न बारह हो जाते हैं । इन उद्दिष्ट अोद्द शिक प्रादिके छिन्न- किया जाना—अनहिष्ट होना भी अनिवार्य है । अस्छिन्न आदि और भी कितते ही अवान्तर भेदोका यहा (देखिये पीछे ए १५८)। निर्देश किया गया है। निष्कर्ष भोजन का उद्देश व उसको विशुद्धि सबका फलितार्थ यह है कि साधुका मार्ग अतिशय साधु जन जो भोजन करते है वह ज्ञान, संयम और कण्टकाकीर्ण है। उस परसे साधारण पथिकका जाना ध्यानकी सिद्धि के लिए करते है। वे इसलिए भोजन नही सम्भव नही है। उस पर से तो वे ही पथिक चल सकते किया करते है कि उससे शरीर बलिष्ठ हो, आयु वृद्धिंगत है जो परावलम्बन को छोड़कर स्वावलम्बी बन गये है, हो, शरीरका उपचय (पुष्टि) हो और वह दीप्तिमान् जो इन्द्रियोंका दमन कर शरीरसे भी निर्मम हो चुके है, हो । रसना इन्द्रियके विजेता व अनासक्त होनेसे वे स्वाद जिन्हें इस लोक व परलोक के वैभव की चाह नहीं रही के लिए भी भोजन नहीं किया करते। है, जिनके लिए शत्रु भी मित्र प्रतीत होने लगे है, जो भोजन भी वे ऐसा ही ग्रहण करते है जो नौ कोटियों संसारसे विरक्त हो एक मात्र मुक्तिसुखकी प्राप्तिके लिए रत्नत्रयाराधनामे निरत है, जो निन्दा व प्रशसामें समताछउमत्थोघुद्देस कहं वियाणाइ चोइए भणइ । भावको प्राप्त होकर न निन्दासे विषण्ण होते है और न उवउत्तो गुरु एवं गिहत्थसद्दाइचिट्ठाए । प्रशंसा से हर्षित भी होते है, तथा जिनका सभी अनुष्ठान दिन्नाउ ताउ पंचवि रेहाउ करेइ देइ व गणति । लोकानुरजनके लिए न होकर केवल प्रात्मकल्याण के देहि इम्रो मा य इमो अवणेह य एत्तिया भिक्खा ॥ लिए ही है। प्राचार्य गुणभद्र ऐसे ही साधु महात्मामो को पिं. नि. २२२-२३. २ पि. नि. मलय. वृत्ति २१६ व २२८. महस्व देते हुए कहते है३ पि. नि. २२६ (देखिये पीछे पृ. १५६) आशारूप बेलि उन्हीं तपस्वियों की तरुण-हरी भरी ४ वही २३१-३३. -रहती है, जिनका मनरूप मूल (जड़) ममत्वरूप जलसे ५ ण बलाउ-साउट्ठ ण सरीरस्सुवचय? तेजट्ट। ६ मूला. ६.६५; अन. ध ५-३६. णाणट्ठ संजमट्ठ भाणटुं चेव भुंजेज्जो ॥ मूला. ६.६२ ७ मूला. ६-६६. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डशुद्धिके अन्तर्गत उद्दिष्ट पाहार पर विचार तर रहता है । यही सोचकर विवेकशील मनस्वी साधु इस करते हुए उसे सहन करना चाहिए कि वह सच ही तो चिरपरिचित शरीरमें भी निःस्पृह होकर निरन्तर कष्टप्रद कह रहा है, इसमें उसका क्या दोष है ? और यदि इसके प्रारम्भों-पातापनयोग प्रादि-के साथ काल-यापन विपरीत दोषों के न रहते हुए भी कोई शाप देता है करते हैं। तो वह मिथ्या कह रहा है-उससे उसी की हानि हो जो एकाकीपन को साम्राज्य के समान, शरीरकी सकती है, मेरी कुछ हानि होने वाली नही है-ऐसा च्युति (मृत्यु) को अभीष्ट प्राप्तिके सदृश, दुष्ट कर्मोस विचार करते हुए उसको सह लेना चाहिए। निर्मित दुरवस्था को दुख, सांसारिक सुखके परित्याग को अब रही उद्दिष्ट भोजन की बात, सो इस विषयमें सुख और प्राण निर्गमनको सब कुछ देकर किये जाने वाले मेरा अभिमत यह है कि जैसा कि माप ऊपर प्रागमिक महान् उत्सव जैसा समझते हैं। ऐसे महामना महर्षियोंके कथन को देख चुके हैं तदनुसार वर्तमानमें भाहार तो लिए अनुकूल-प्रतिकूल सभी कुछ सुखरूप ही प्रतिभासित प्रायः उद्दिष्ट ही प्राप्त हो रहा है, इससे पानाकानी नही होता है-दुखरूप कुछ भी प्रतीत नहीं होता। इसीलिए की जा सकती है। इसके लिए मुमुक्षु भव्य जीवको सर्ववे सदा सुखी रहते है। प्रथम तो देश-काल और गृहस्थों की वर्तमान परिस्थिति जिन्हें शरीरगत धूलि (मैल) भूषण के समान प्रतीत का विचार करना चाहिए । तत्पश्चात् अन्तःकरण से यदि होती है, स्थान जिनका शिलातल हैं, शय्या जिनकी कफ मुनिधर्म के निर्वाह की प्रेरणा मिलती है तो इस दुबर रीली भूमि है, सिंहों की गुफा जिनका सुन्दर घर है, व्रतको स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा गृहस्थ रहकर भी तथा सब प्रकार के मानसिक सकल्प-विकल्पों से निर्गत यथासम्भव प्रतिमानों का परिपालन करते । धार्मिक होनेसे जिनकी प्रज्ञानरूप गांठ खुल चुकी है; वे मुक्तिसुख जीवन बिताया जा सकता है। धर्मका सम्बन्ध बाप के वांछक विवेकी निःस्पृह साधु हमारे मनको पवित्र करे। नियों की रोषा यामी परिणामों में अधिक है। ___ इससे निश्चित है कि साधुचर्या कष्टप्रद तो है ही, यही कारण है जो प्राचार्य समन्तभद्र मोही मुनिकी अपेक्षा पर जिन्होंने घर-द्वार व स्त्री-पुत्रादि से नाता तोड़कर निर्मोह गृहस्थको अधिक महत्त्व देते हैं। स्वेच्छा से इस प्रसिधारावत को धारण किया है उन्हें वह परन्तु जो इस धर्मको स्वीकार कर चुके है उन्हे कष्टकर प्रतीत नहीं होना चाहिए । अन्तःकरण की साक्षी- परिस्थितिजन्य उस कमीका अनुभव करते हुए अन्तःकरण पूर्वक उसका यथोचित परिपालन करने पर भी यदि कोई से उस पर पश्चात्ताप करते रहना चाहिए। यह सोचना उनकी निन्दा करता है तो उससे उन्हे क्षुब्ध नहीं होना उचित नहीं होगा कि वर्तमान में जैसे श्रावक अपने धर्म चाहिए, और यदि कोई प्रशसा भी करता है तो उससे का परिपालन नहीं कर रहे वैसेही यदि साधुभी अपने धर्म सन्तुष्ट भी नही होना चाहिए। कारण कि यह निन्दा से कुछ च्युत होते है तो इसमे अनहोनी बात क्या है ? स्तुति तो कदाचित् स्वभावसे और कदाचित् किसी स्वार्थ कारण कि दूसरों की भ्रष्टता से स्वयं भ्रष्ट होना, यह विशेष की सिद्धि के लिए भी की जा सकती है। हां यह बुद्धिमत्ता की बात नहीं होगी। अवश्य है कि यदि उस निन्दा मे कुछ तथ्य है तो उस पर ध्यान देकर निन्दकके मनोगत भावको न देखते हुए अपनी ४ दोषेषु सत्सु यदि कोऽपि ददाति शापं उस कमी की पूर्तिके लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये तथा सत्य ब्रवीत्ययमिति प्रविचिन्त्य सह्यम् । उसके लिए निन्दकका मनःपूर्वक आभारही मानना चाहिए। दोषेष्वसत्सु यदि कोऽपि ददाति शापं प्राचार्य अमितगति की यह उक्ति कितनी महत्त्वपूर्ण है मिथ्या ब्रवीत्ययमिति प्रविचिन्त्य सह्यम् ॥ सुभाषित. २-३१. दोषों के रहते हुए यदि कोई उनके कारण शाप ५ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । देता है-निन्दा व अपमानित करता है तो यह विचार अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ।। १ अात्मानुशासन २५२. २ वही २५६. ३ वही २५६. र. क. श्रा. ३३ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुर क्षेत्र के निर्माता राजा श्रीपाल नेमचन्द धन्नूसा जैन गत साल कारणवश नागपुर को ३-४ दफे जाने का लेखों से यह स्पष्ट है कि, उसके कर्ता निःसंशय दिगंबर योग प्राया । तब वहाँ के इतिहासज्ञ डा० य० खु देशपाडे जैन ही थे । क्योंकि ऊपर लेख मे मूलसंघ तथा बलात्कार की भी मुलाकात होती थी। सयोगश उनके यहाँ प्रो० गण का उल्लेख है और नीचे के लेख में खटवड गोत्र का मघकर वावगांवकर तथा प्रो० ब्रह्मानन्द देशपाडे की पह- उल्लेख है । ये बाते दिगबर आम्नाय की ही द्योतक हैं। चान हई । सनान विषय होने से परिचय होने में देर न इन लेखो पर से आगे का इतिहास निश्चित होता लगी। शिरपुर के प्राचीन मन्दिर पर अप्रकाशित दो है-पहले लेख का अर्थ-दशक ९०९ या सवत् १०४४ शिलालेख हैं, ऐसा बताने पर वे दोनों वहाँ जाने को के प्राषाढ माह के शुक्ल पंचमी या पच दशमी तिथी को उतारू हुए। और समय पाकर उन्होंने उस शिलालेख के मूलसघ और बलात्कारगण के भट्टारक श्रीजिन..... के तथा कुछ मूर्तिलेख, स्तभलेख प्रादि के छाप भी लाये। उपदेश से रानी राजमति तथा राजा श्रीपाल ने श्रीपार्श्व उसमे से एक छाप उन्होने मुझे दिया, उससे मैं नाथ बिंब की राष्ट्रकूट राजा इद्रराज (चतुर्थ) की मृत्यु संतोषित तो नहीं हुआ। लेकिन कमरों से उसके फोटो होने के बाद श्रीजिन प्रतिष्ठा पूर्वक इस श्रीपुरायतन की निकालने की योजना बनाकर मैं शिरपुर गया। उनका प्रतिष्ठा की। जो वाचन मैं कर सका वह नीचे दिया है । इस वाचन में यह एक स्वतत्र अनुसंधान का विषय है कि आषाढ जो स्पष्ट शब्द दिखाई दिये वह देकर जो मस्पष्ट है या से कार्तिक तक पच कल्याणक प्रतिष्ठा नही होती। अतः होना चाहिये ऐसा लगा वे शब्द कस मे दिये है। ऊपर यह तिथी सिर्फ मन्दिर या वेदी प्रतिष्ठाकी होनी चाहिये । के पट्टी पर का लेख ४ पंक्ति में है । वह इस प्रकार है यानी उस समय विराजमान होने वाली मूर्ति पूर्व प्रतिपंक्ति (१) शाक ६०६ (प्राषाढ़ शुक्ल) पंच".... ष्ठित होगी। मूल संघे..... (बलात्कार गने) भट्टारक श्री जि (२) शिरपुर क्षेत्र में प्राषाढी पूनम तथा कात्तिक पूनमको न......रा)जी) रा(जा) मति...''श्रीपाल भूप..." ऐसे दो दफे यात्रा भरती है। कातिक पूनम वार्षिक उत्सव श्री पार्श्वनाथ बि (३) (ब) ...." (राष्ट्रकूट संघ)'' के रूप में मनाया जाता है। अगर आषाढी पूनम को यह श्रीजिन (प्रतिष्ठित) महो (त्सवे इन्द्र) राज हते श्रीपाल प्राचीन हेमाडपंथी मन्दिर की वर्षपांठ महोत्सव के रूप में इह श्रीपुरायतनं (४) संप्रतिष्ठापितम् ॥ स्वीकार किया जाय तो एक इतिहास की पुष्टि बन जाती नीचेकी पट्टी पर का लेख तीन पक्ति में है वह इस है। जो इतिहास संवत् १०४४ से प्राज यानी सवत् प्रकार है २०२८ तक कायम रहा । (१) "सके १३३८ वैशाख सुदि ८ (गुरो) श्रीमाल- तथा इसमे उल्लेखनीय श्रीपाल राजा राष्ट्रकट संघ यस्थ सेठ रामल पौत्र ठ० भोज पु (२)त्र अमर (कुल) का था यानी राष्ट्रकूटों का सामत था । और स० १०४४ समुत्पन्न सघपति ४० श्री जगसीहेन प्रतरिक्ष श्री पाव से पूर्व ही स० १०३६ में अन्तिम राष्ट्रकूट राजा इन्द्रराज नाथ (३) निजकुल (उद्धारक) खटवा वंश....."राज। 'राज॥ (चतुर्थ) की मृत्यु हो गई यी। उसके बाद राष्ट्रकूटों का इन दोनों शिलालेखों से दोनों लेख भिन्न काल के राजा कोई न होने से उसका निर्देश इसमे न हुआ । साथ तथा भिन्न कर्तृत्व के जान पड़ते है। तथा इन दोनों में यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि सं० १०४४ में Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुर क्षेत्र के निर्माता राजा भोपाल बुध हरिषेण चित्तौड़ से अचलपुर पाये थे। और वहां उनके कल्पित काल झूठा है यह सिद्ध करने की इस शिलालेख द्वारा 'धर्मपरीक्षा' नाम का ग्रंथ समाप्त करने का उल्लेख से अन्य प्रमाण की मावश्यकता नहीं रहती। किया जाता है । ग्रंथकी प्रशस्ति में हरिषेण लिखते है दूसरा जो लेख है वह तो स्पष्ट ही है। तथा 'अंत"सिरि चित्तउडु चइवि प्रबलउर हो, गयउ नियकज्जे रिक्ष श्री पार्श्वनाथ निजकुल' का अर्थ गर्भगृह ऐसा करें ज जिमहरपउरहो। तहि छंदालंकार-पसाहिय, धम्मपरीक्ख तो अमरकुल मे उत्पन्न सेठ जगसिंह ने इस मन्दिर का एह ते साहिय ॥" सके १३२७ (ई० स० १४०६) में इसका जीर्णोद्धार इससे इतना तो निर्विवाद है कि 'धम्मपरीक्षा' को कराया था। इनका वंश खटवड था। रचना अचलपुर में हुई थी। लेकिन उसकी प्रशस्ति किसी गत साल के उत्खनन में एक स्तंभ मिला था, उसके और जगह लिखो गयी है क्योकि 'गयउ', 'हि' ये शब्द ऊपर सं० १८११ माघ सुदि १०मी को मन्दिर का उद्धार अचल पुर में बैठ कर लिखे नही जाते । प्रशस्ति के प्रारंभ किसी संतवाल ने किया है ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। मतलब में ही हरिषेण लिखते हैं-'इह मेवाड-देसि'-जन संकुलि' ......... ' इसमें 'इह' शब्द पर मेरा ध्यान जाता है यह है कि आज तक इस मन्दिर के कितने समय उद्धार कार्य हुये होंगे तो भी वह सब अधूरे हैं। स० १८६८ का और मैं इस मान्यता में हूँ कि हरिषेण, प्रशस्ति लिखते समय वापिस मेवाड मे ही होंगे । अगर मेरा यह अनुमान वयस्क आदमी भी यही कहता था कि 'मन्दिर उस समय सफल रहा तो बुध हरिषेण सिर्फ कुछ काल के लिये ही तक कभी भी पूरा नही हुआ।' अचलपुर आये थे ऐसा मानना उचित होगा। और वह आज भी वैसी ही स्थिति है। मन्दिर पर पांच जगह काल अगर इस प्राचीन पवली मन्दिर के प्रतिष्ठा का शिखर बनाने की योजना होने पर भी एक जगह भी होगा तो वह चौमासा हरिषेण ने अचलपुर में बिताया शिखर नही बन पाया। सिर्फ गर्भागार के ऊपर ईंटों का होगा और वहां धर्म परीक्षा की रचना करके चौमासा के बनाना चाल था तो वह भी ३ फीट के ऊँचाई में अधूरा बाद फिर अपने क्षेत्र चले गये और वहां प्रशस्ति जोड़ के छोड़ा गया। ग्रय की समाप्ति की, ऐसा लगता है; क्योकि सिरपुर या खैर अभी सारे जैन समाज का ध्यान इधर है, मंदिर मुक्तागिरि का वार्षिक मेला कार्तिक सुदी पूनम को ही की माल की तथा ताबा अपना ही है और कोर्ट से भी भरता है। साथ में मुझे तो ऐसा लगता है कि शिलालेख इस मान्यता को पुष्टी मिली और इस मन्दिर की इर्दमे उल्लेखित जो भट्टारक है उनका भी चौमाता शिरपुर गिर्द जमीन दिगबरों के हाथ पाने का फैसला हाल ही या प्रचलपुर में ही हुआ होगा। और भट्रारक श्रीका अकोला कोर्ट से मिला है। गमन होने पर हरिषेण भी अपने स्थान को चले गये १६ साल बाद इस मन्दिर को एक सहस्र साल पूरे होंगे। होंगे। तब एक सहस्री अच्छे उत्साह के साथ मनाने की इस शिलालेख से इस प्राचीन मन्दिर तथा उसके योजना चली है । तब तक इस मन्दिर पर शिखर बनना, निर्माता राजा श्रीपाल का काल निश्चित हो गया। जो धर्मशाला का निर्माण होना आदि कार्य पूरे होने चाहिए। हमारे भूत लेखों में वर्णित काल से अभिन्न ही है। श्वे. इसके लिये एक लाख रुपये का बजट होना चाहिए। ताम्बर लोग इस मन्दिर के निर्माण का काल स० ११४२ समाज का ध्यान तथा हमारे अगुये का लक्ष इस सस्थान मानते है । यह मान्यता सौ साल बाद की और निश्चित की ओर है तो यह कार्य निश्चित ही पूरा होगा ऐसी गलत है। सिर्फ अभयदेव सूरि जैसे महान् तपस्वी आचार्य शुभ कामना के अलावा अभी मै कुछ भी नहीं लिख के साथ श्रीपाल राजा का सम्बन्ध बिठाने के लिए स्व- सकता। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभचन्द्र का प्राकृत लक्षण : एक विश्लेषण डा० नमिचन्द्र शास्त्री एम. ए. डी. लिट्, पारा चण्डकृत प्राकृत तक्षण के अतिरिक्त शुभचन्द्रभट्टारक प्राकृत लक्षण मे रचनाकाल का अकन नहीं किया का चिन्तामणि नामक स्वोपज्ञवृत्ति सहित एक प्राकृत गया है, पर पाण्डव पुराण की प्रशस्ति मे उसका रचनालक्षण नाम का प्राकृत व्याकरण उपलब्ध है। इस व्याक- काल उल्लिखित है तथा उक्त चिन्तामणि व्याकरण का रण ग्रन्थ के आदि और अन्त मे ग्रन्थ का नामकरण अकित भी निर्देश पाया है, अत: इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि० है। तथा सं० १६०८ से पूर्व है। श्री ज्ञानभूषणं देवं परमात्मानमव्यम् । अगपण्णत्ती मे त्रैवेद्य और उभय भाषा परिवेदी कहा प्रणम्य बालसन्दुख्य वक्ष्ये प्राकृतलक्षणम् ॥ गया है। अत. ज्ञात होता है कि शुभचन्द्र सस्कृत और ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति मे प्राकृत इन दोनों ही भापायों के विद्वान् थे। इनका यह शुभचन्द्रमुनीन्द्र ण लक्षणाधि विगाह्य वै। व्याकरण सरल और प्राशुबोध गम्य है । प्राकृतं लक्षणं चक्रे शब्दचिन्तामणिस्फुटम् ॥५॥ प्रस्तुत व्याकरण में त्रिविक्रम के व्याकरण के समान शब्दचिन्तामणिधीमान् योऽध्येति धृतिसिद्धये । तीन अध्याय में चार-चार पाद है। प्रथम अध्याय के प्राकृतानां सुशब्दानां पारं याति सुनिश्चितम् ॥६॥ प्रथमपाद मे ५६ मूत्र, द्वितीयपाद मे १३० मूत्र, तृतीयपाद प्राकृतं लक्षणं रम्यं शुभचन्द्रण भाषितम् । मे १४७ मूत्र और चतुर्थपाद मे १२८ सूत्र है । तृतीय योऽध्येति वै सुशब्दार्थधनराजो भवेन्नरः ॥७॥- माध्यम के प्रथमपाद मे १७२ सूत्र, द्वितीयपाद मे ४०, अतिम प्रशस्ति तृतीयपाद मे ४३ और चतुर्थपाद मे १४७ मूत्र है । इस उपर्यक्त पद्यो से स्पष्ट है कि प्रस्तुत व्याकरण का प्रकार समस्त द्वादशपादों में कुल १२१५ सूत्र है। सूत्रों नाम प्राकृत लक्षण और वृत्ति का चिन्तामणि है। पर ग्रन्थकर्ता की स्वविरचित चिन्तामणि नामक वृत्ति है, रचयिता शुभचन्द्रने अपनी पट्टावली भी इस ग्रन्थ के चन्द्रनाया: कथा येन दृब्धा नान्दीश्वरी तथा । अन्त मे अकित की है। बताया है कि भुवनकीर्ति के शिष्य पाशाधरकृताचारवृत्तिः सदवृत्तिशालिनी । ज्ञान भूषण हुए, ज्ञानभूषण के शिष्य विजयकीत्ति और सशयवदनविदारणमपशब्द सुखण्डनं परतर्क । विजयकीर्ति के शिष्य शुभचन्द्र थे। इन्होने काव्य, पुराण, सत्तत्त्वनिर्णय वरस्वरूपसम्बोधिनी वृत्ति । चरित, दर्शन, अध्यात्म, व्रतविधान एव व्याकरण विषयक अध्यात्मपद्यवृत्ति सर्वार्थापूर्वसर्वतोभद्रम् । रचनाएँ लिखी है। इनके षड्भाषा कविचक्रवर्ती एवं योऽकृत सद्व्याकरण चिन्तामणिनामधेय च ॥ वेद्य विद्याधर प्रादि विशेषण प्रसिद्ध है। इनके द्वारा २ श्रीमद्विक्रमभूपतेद्विकहते स्पष्टाष्टसंख्ये शते, रचित चन्द्रप्रभचरित, जीवन्धर चरित, करकण्डुचरित, रम्येष्टाधिकवत्सरे सुखकरे भाद्रे द्वितीयातिथौ । श्रेणिक चरित, संशयवदनविदारण, षट्दर्शन प्रमाणप्रेम ....श्रीशाकवाटेपुरे विरचित पुराण चिरम् । यानुप्रवेश, अंगपण्णत्ती, पाण्डवपुराण आदि अड़तालीस -पाण्डवपुराण, ७२, ७३, ७७, ७८, तथा ८६ ग्रन्थ है।' ३ तप्पयसेवणसत्तो तेवेज्जो उहयभासपरिवेई । चन्द्रनाथचरित चरितार्थ पदमनाभचरितं शुभचन्द्रम् । सुहचदो तेण इणं रइयं सत्थ समासेण ॥ मन्मथस्य महिमानमतन्द्रो जीवकस्य चरितं चकार । -सिद्धान्तसारादिसंग्रह के अन्तर्गत Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभचन्द्र का प्राकृत लक्षण : एक विश्लेषण १६५ जिसमें सूत्रों के अर्थस्पष्टीकरण के साथ प्राकृत शब्दों के शेषेऽव्यवः शश२२-युक्तस्य हलोलोपे योऽवशिउदाहरण हैं। व्यतेऽच् स दोष तस्मिन् शेषे स्वरे परे मचः सन्धिर्न ___ वररुचि ने द्वादशाध्यायी प्राकृत व्याकरण लिखा था, भवति । यथा-कुम्भ पारो। उसी के अनुकरण पर त्रिविक्रम ने द्वादशपदी लिखा और शुभचन्द्र ने उक्त नियम के सम्बन्ध में लिखा हैत्रिविक्रम के व्याकरण का अनुकरण कर शुभचन्द्र ने शेषे स्वरस्य १।१०२३-व्यञ्जने लुप्ते य स्वरोऽव द्वादशपादों में उक्त प्राकृत लक्षण नाम का व्याकरण लिखा शिष्यते स शेषः तस्मिन् शेषे स्वरे परे स्वरस्य सन्धिन है । सूत्र संख्या और प्रयुक्त उदाहरणों की दृष्टि से यह भवति । यथा-गयणेच्चिऊ गन्धउडि कुणन्ति । व्याकरण ग्रन्थ अबतक के उपलब्ध समस्त प्राकृत व्याक- उक्त तीनों शब्दानुशासकों के नियमो की तुलना से रणो में बृहत्तर है। हेमचन्द्र ने सिद्ध हेम शब्दानुशासन यह स्पष्ट है कि शुभचन्द्र की प्रतिपादन प्रक्रिया सरल के प्राकृत भाग में १११६ सूत्र और त्रिविक्रम ने कुल और स्पष्ट है । शुभचन्द्र ने सूत्रों को स्पष्ट रूप में लिखने १०३६ सूत्र रचे हैं। शब्दानुशासन की दृष्टि से प्राकृत का पूरा प्रयत्न किया है। भाषा को अवगत करने के लिए यह व्याकरण बहुत ही इस व्याकरण मे वर्गों का व्यत्यय सम्बन्धो अनुशासन मुबोध है । इस व्याकरण में प्राकृत भाषा के स्वरूप गठन अन्य प्राकृत व्याकरणो की अपेक्षा स्पष्ट और विस्तृत है। के सम्बन्ध मे अच्छा विचार किया है। प्रथम अध्याय के यहा उदाहरणार्थ करेणु, वाराणसी, मरहट्ठ, प्राणाल, प्रथमपाद मे पन्द्रह सज्ञा मूत्रो के अनन्तर 'प्राकृतम्' सूत्र अचलपुर, णलाड, दहो, गुटह, हलियारो, हलुओ, दवीपरो, का अधिकार प्रारम्भ कर "देश्य तवं तत्सममार्षञ्च" णिहवो आदिको उपस्थित किया जा सकता है। उक्त शब्द १।१।१६-तत्प्राकृतं क्वचिदेशेभव, क्वचित्सस्कृतभव क्व- वर्णव्यत्यय से सिद्ध किये गये है। शुभचन्द्र ने इस सन्दर्भ चित् सस्कृतसमान क्वचित् ऋषिप्रोक्तमिति बहुधा स्यात् । म लगभग १५ सुत्रो की रचना कर उक्त विकरण का तद्यथास्थान दर्शयिष्यामः । अर्थात् प्राकृत भाषा के कुछ अनुबन्धन किया है। शब्द देशज है, कुछ सस्कृतसे उत्पन्न है, कुछ सस्कृत समान पल्लिङ्ग शब्दो से स्त्रीलिंग रूप बनाने की विधि का है और कुछ शब्द आर्ष है। इन शब्दोका यथा स्थान निरूपण करते हुए लिखा हैविवेचन किया जायगा। "नुरजातेरीर्वा" ।।२६-प्रजातिवाचिनः पुलिङ्गात् इस प्रकार प्राकृत भाषा का स्वरूप निर्धारण कर स्त्रिया वर्तमानात् ई प्रत्ययो बा भवति । यथा-हसमाणी, प्राकृत शब्दों के रूपों को 'बहुल' कहा है अर्थात् प्राकृत हसमाणा, सप्पणही, सुप्पणहा, सोली, सीला, काली, काला, शब्दों के रूप विकल्प से निष्पन्न होते है। नीली, नीला, आदि। इस प्राकृत लक्षण की प्रमुख विशेषता स्पष्ट रूप में इस प्रसग मे गोरी, कुमारी प्रभृति शब्दो का रूप शब्दानुशासन की है। यहां उदाहरणार्थ दो-एक सूत्र उद्धृत सस्कृत रूपो के समान प्रतिपादित कर "प्रत्यये" २।२।३७ कर उक्त तथ्य की पुष्टि की जायगी। व्यञ्जन के लोप सूत्र द्वारा अण् प्रत्ययान्त पुल्लिङ्ग शब्दों को स्त्रीलिंग होने पर जो स्वर शेष रह जाता है, उस स्वर की सन्धि बनाने के लिए 'ई' प्रत्यय का विधान किया है। यथानहीं होती। इस नियम का प्रतिपादन प्राचार्य हेमचन्द्र ने साहणी, साहणा, कुरुचरी, कुरुचरा प्रादि । इस प्रसग मे "स्वरस्योद्वत्ते" शश-व्यञ्जनसपृक्तः स्वरो व्यञ्जने सस्कृत व्याकरण मे प्रतिपादित नियमों के अतिरिक्त लुप्ते योऽवशिष्यते स उद्वत्त इहोच्यते । स्वरस्य उद्त्ते स्वरे प्राकृत के देशज और संस्कृतोद्भव शब्दो के स्त्रीलिंग मे परे सन्धिर्न भवति । यथा-निसा-अरो। निबन्धित रूपों का भी प्रतिपादन हुआ है। साधारणतः हेम के उक्त नियमानुसार उत्त स्वर की सन्धि नहीं यह अनुशासन अन्य सभी प्राकृत व्याकरणों में पाया जाता होती। इसी नियम का प्रतिपादन त्रिविक्रम व्याकरण में है, पर यहां विस्तार के साथ स्पष्टता भी वर्तमान है । निम्न प्रकार हुमा है प्राकृत के देशज शब्दों को गणों में विभक्त कर प्रद Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त शित किया है। गोणाद्या, अहियांबा, तृनांबा, पुपायाद्यावा है, जिनकी पावश्यकता थी। इन पुराने उदाहरणों के प्रति गणों में देशी शब्द परिगणित किये है। निपातन अतिरिक्त कुछ नये उदाहरण शब्द भी उपस्थित किये से सिद्ध होने वाले देशी शब्दों का प्रयोग किस-किस अर्थ गये हैं। में होता है, यह सूत्र-वृत्ति सहित निरूपित है । विभक्ति- अपभ्रंश अनुशासन का प्रारंभ "प्रायोऽपभ्रशे स्वराणां अर्थ का विचार पर्याप्त विस्तार पूर्वक किया है। द्वितीय स्वराः" ३।४।१ सूत्र से किया है। यह सूत्र भाव की दृष्टि अध्याय के तृतीय पाद के ३६वें सूत्र से ५१वे सूत्र तक से त्रिविक्रम के समान और शब्दविन्यास की दृष्टि से हेम विचार किया है। अन्य प्राकृत व्याकरणो की अपेक्षा कति- के तुल्य है। इस सूत्र के स्पष्टीकरण के लिए दिये गये पय नये नियम और उदाहरण भी आये हैं। उदाहरणो में हेम और त्रिविक्रम दोनो की ही अपेक्षा मा, तृतीय अध्याय के प्रथम पाद मे क्रियारूपोंका विस्तार रेखा, कच्छ, कच्छा शब्द अधिक पाये हैं । अपभ्रंश भाषा पूर्वक निरूपण किया है। कृदन्त और तद्धित प्रत्ययों का के अनुशासन को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा कथन भी इस व्याकरण में सोदाहरण पाया है। इन उदा- सकता हैहरण रूपों में देशज और आर्ष शब्दों की एक लम्बी १ अपभ्रंश में संज्ञा शब्दों के अन्तिम स्वर विभक्ति तालिका है। लगने के पूर्व कभी ह्रस्व और कभी दीर्घ हो जाते हैं। प्रस्तुत व्याकरण में शुभचन्द्र ने सामान्य प्राकृत, यथा-ढोल्ल-ढोल्ला, सामल सामला, स्वर्णरेखा-सुवण्णशौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिक पैशाची और अपभ्रश रेख। इन छ: प्राकृत भाषाओं का अनुशासन निबद्ध किया है। २ अपभ्रश मे किसी शब्द का अन्तिम प्र कर्ता और सामान्य प्राकृत का नियमन नौ पादों में और दशवे पाद कर्म के एक वचन मे उ के रूप में परिवर्तित हो जाता के ३६ सूत्रों तक पाया है। शौरसेनी प्राकृत का नियमन करते हुए अन्त मे "प्राकृतवच्छेषं" ३१२१४० कह कर , है। यथा-दहमुह, भयकरु, चउमुहु, भयकद । सामान्य प्राकृत के नियमानुसार शौरसेनी के नियमो को ३ अपभ्रश में पुलिङ्ग सज्ञा शब्दों का अन्तिम अ अवगत करने की योर सकेत किया। इसी प्रकारची कर्ताकारक एकवचन मे प्रायः प्रो में परिवर्तित हो के अनुशासन सम्बन्धी प्रमुख नियमो को बतला कर 'शेष जाता है। प्राकृतवत्' जान लेने का सकेत किया है। तृतीय अध्याय ४ अपम्रश मे सज्ञामो का अन्तिम प्र करणकारक के तृतीय पाद के अन्त में निम्नलिखित पांच भाषामो के एकवचन मे इ या ए; अधिकरण कारक एकवचन मे भी नियमन की चर्चा की गई है। यथा इ या ए में परिवर्तित होता है। इन्ही संज्ञाओं के करण भाषापंचक सद्व्याख्या शुभचन्द्रण सूरिणा। कारक बहुवचन में विकल्प से 'अ' के स्थान पर ए होता शब्द चिन्तामणौ नून विहिता बुद्धिसिद्धये ॥ है। अकारान्त शब्दोमे अपादान एकवचनमे हे या हु विभक्ति तृतीय अध्याय के चतुर्थ पाद मे १५८ सूत्रो मे अप- अपादान बहुवचन मे हुँ विभक्ति; सम्बन्धकारक एकवचन भ्रंश भाषा के स्वरूप-गठन का निरूपण किया है। इस में सु और होस्सु विभक्तियो एव सम्बन्धकारक बहुअनुशासन में अन्य प्राकृत व्याकरणो की अपेक्षा उदाहरणों वचन में हें विभक्तियां जोड़ी जाती है। को विशेषता है। हेमचन्द्र और त्रिविक्रमने अपभ्रंश शब्दों ५ इकारान्त और उकारान्त शब्दों के परे षष्ठी के उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए अपभ्रश के पुराने दोहे विभक्ति के बहुवचन 'आम्' प्रत्यय के स्थान पर हैं और उपस्थित किये है, जिससे उदाहरणों की संख्या उतनी है, पञ्चमी एकवचन मे हे; बहुवचनमे हैं; सप्तमी एकनहीं पा सकती है, जितनी होनी चाहिए थी। शुभचन्द्र ने वचन मे हि तथा तृतीय विभक्ति एकवचन में हैं और सूत्रों के नियमो की चरितार्थता दिखलाने के लिए दोहों ण विभक्ति चिन्हो का प्रयोग होता है। मे से केवल उन शब्दों को ही उदाहरण के रूप मे रखा ६ अपभ्रश भाषा में कर्ता और कर्म के एकवचन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभचन्द्र का प्राकृत लक्षण : एक विश्लेषण १६७ मौर बहुवचन की विभक्तियों का तथा सम्बन्ध कारक की किया है। यथा-लह+इ-लहिः कर+इउ-करिउ; विभक्तियों का प्रायः लोप होता है। ___ कर+इवि-करिवि ; कर+प्रवि-करवि; कर+एप्पि-करेप्पि; ७ सम्बोधन कारक के बहुवचन में हो अव्यय का कर+एविणु-करेविणु; कर+एविकरेवि । प्रयोग और अधिकरण कारक के बहुवचन में हि विभक्ति १६ क्रियार्थक या हेत्वर्थ कुदन्त के लिए एव, अण का प्रयोग होता है। प्रणइ, सप्प, एप्पिणु, एवि प्रत्यय जोड़े जाते हैं । यथा८ स्त्रीलिङ्गी शब्दों में कर्ता और कर्म के बहुवचन देवं, करण, भुजणह, करेप्पि, करेप्पिणु, करेवि, करेविणु में उ और प्रो; करण कारक के एकवचन में ए; अपादान आदि । और सम्बन्धकारक के एकवचन में हे, हु तथा सप्तमी १७ विध्यर्थक कृदन्त पदों के लिए इएव्वउ, एव्वलं, विभक्ति एकवचन मे हि प्रत्यय का प्रयोग होता है। एवं एवा प्रत्यय लगते है। यथा-किरएव्वउ, करेव्वउ, ___ नपुंसकलिंग में कर्ता और कर्मकारकों में ई विभ • करेवा प्रादि। क्ति जुड़ती है। १८ शीलधर्म बतलाने के लिए अणम प्रत्यय लगता १० धातुरूपों के प्रसंग में बतलाया है कि ति प्रादि है। यथा-हसणग्र, हसणउ, करण, करणउ । में जो प्राद्य त्रय है, उनमें बहुवचन में विकल्प से "हि किया विशेष निमिन टिल आदेश; मध्यत्रय में से एकवचन के स्थान मे हि प्रादेश, कोड, ढक्करि, विट्टालु, अप्पणु, सड्ढलु, खण्ण एवं बढ बहवचन मेड प्रादेश तथा अन्य त्रय में एकवचन मे से प्राटि का प्रयोग होता और बहुवचन में हैं आदेश होता है। प्रस्तुत व्याकरण में अपभ्रंश के ६५ अव्यय पद भी ११ अनज्ञा मे संस्कृत के ही और स्व के स्थान पर परिगणित है।शभचन्द्र ने वत्ति मे अव्ययों के अर्थ का इ, उ और ह ये तीन आदेश होते है। भविष्यत्काल में स्पष्टीकरण भी किया है। स्य के स्थान पर विकल्प से सो होता है। स्वार्थिक प्रत्ययो मे अ, अउ और उल्ल प्रत्यय की १२ भू धातु के स्थान पर हुँच्च, ब्रू के स्थान पर गणना की गयी है यथा-दोसडा, कुडल्ली, गोरडी आदि । बुव, व्रज के स्थान पर वन और तप के स्थान पर घोल्ल अपभ्रश नियमन प्रसंग में इव अर्थ मे छ: प्रत्ययों का आदेश होता है। दश् के स्थान पर पस्स, गृह के स्थान प्रयोग बतलाया है। यथा-"वार्थे नाइ नावह नई नं पर गण्ह, गर्ज के स्थान पर धुडक्क एव कीञ् के स्थान जाणि जाणुः" ३।४।२४-इवार्थे षडादेशा भवन्ति । नाइ पर कीसु प्रादेश होता है। साहु; नावइ गुरु; नइ सूरु; न चदो; जाणि चपय; जणु १३ वर्तमानकालिक कृदन्त के रूप अंत और माण कणय। प्रत्यय जोड़कर बनाये जाने का नियमन किया है। यथा भाव अर्थक त्व और त प्रत्ययोंके स्थान पर अपभ्रंश कर+प्रत-करत; उग्गम+अंत-उग्गमंत; वज्ज+प्रत= मे तणु और प्पणु प्रत्ययों का विधान किया है। यथावज्जत । बट्ट+माण वट्टमाण; हुँच्च+माण हुँच्चमाण । "तृणप्पणीतत्त्वयोः" ३।४।१६-भावेऽर्थे विहितयोस्तत्त्व१४ भतकालिक कृदन्त रूपो के लिए अहम भोर प्रत्ययो त्तणप्पणौ स्याताम् । बडत्तणु, वडप्पणु । इय प्रत्यय जोड़ने का विधान किया है। यथा-हु+प्र= निस्सन्देह प्राकृत के सभी अंगो को समझने के लिए हुअ, ग+प्रगगाल+इअगालिन, मक्ख+इ= यह व्याकरण उपादेय है । छहो भाषाओं का सम्यक् परिमक्खिय। कह+इ=कहिय; छड्ड+इप्र-छड्डिप्र ।। ज्ञान इस अकेले व्याकरण से हो सकता है। अपभ्रश मे १५ पूर्वकालिक क्रिया का अर्थ व्यक्त करने के लिए समाहित झाड, गोप्पी, गोंजी, प्रसारा, मोरत्तो, मोहंस, सम्बन्ध कृदन्त के रूपों के लिए इ, इउ, इवि, अवि, एप्पि, प्राडोरो, सिणी, मंतक्खरं, खंदजी, बहुराणो, पादुग्गो, प्पिणु, एविणु एवं एवि प्रत्ययों के जोड़ने का नियमन सइदिट्ठ, झडी, चेडो, खहंगो, कुतो प्रभृति देशल शब्दों Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त. का भी कथन किया है । त्रिविक्रम ने 'झडादि' के अन्तर्गत जिन देशज शब्दों की गणना की है, वे प्रस्तुत व्याकरण में किसी एक गण में पठित नहीं है। इनका उल्लेख यत्रतत्र फुटकर रूप में हुआ है। शुभचन्द्र ने उदाहरणों में 'महुरव्व पाडलिपुत्ते पासाया' (२०१११२), पाणिनीया-पाणिनेः इमे शिष्याः (२।१।१६), मइ अयरेका-मदीयपक्षः (२११११६), गणहुतं (२।१।१६), पियहुत्त पस्सइ (२।१।१६), अवरिल्लो (२।१।२१), मयल्लिपुत्ती (२।१।२६), तिस्सा मुहस्स भरिमो (२।२२३६), पिउहर माउसिया माउमडलं (१२२।८६), माहिवाप्रो (१।२।१२१); पयागजल (१।३।२); गुडो, गुलो (१।६।१६); टगरो (शृगरहितोवृषभः), दूबरो (श्मश्रुरहित पुरुषोवा १-३१३३), मट्ट (स्वीकरण), थाणू (त्यक्तवृत्त १।४।५), सप्फ (वालतृण) प्रभृति ऐसे पद है, जिनमे सस्कृत का इतिहास निहित है। संक्षेप में इस ब्यारण में निम्नलिखित विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं : १ अनुशासन में लाघव प्रक्रिया का प्रयोग । २ प्रायः सूत्रों द्वारा ही नियमों का स्पष्टीकरण । ३ संस्कृत के पूरे-पूरे शब्दों के स्थान पर प्राकृत के पूरे शब्दों के प्रादेश का नियमन । ४ कृत और तद्धित प्रत्ययों का विस्तारपूर्वक निर्देश। ५ प्रवर्णान्त, इवर्णान्त, उवर्णान्त, ऋवर्णान्त और व्यञ्जनान्त शब्दों की रूपावलि का विस्तारपूर्वक उल्लेख। ६ सामान्य प्राकृत का विस्तारपूर्वक निरूपण । ७ देशज शब्दों का यथास्थान निर्देश । ८ मागधी, पैशाची और चूलिका पैशाची की शब्दावलि का कथन । वर्णविकार का सोदाहरण निरूपण । १० वर्ण व्यत्यय, प्रादेश, लोप, द्वित्व प्रभृतिका कथन । ११ अन्य वैयाकरण के समान य श्रुति का निरूपण । -:०: बिहारी सतसई की एक अज्ञात जैन भाषा टीका श्री प्रगरचन्द नाहटा प्राकृत और सस्कृत सप्तशती की परपरा हिन्दी, विजयगच्छीय कवि मानसिंह ने हिन्दी गद्य में टीका लिख । गजस्थानी, गुजराती में सतसई के रूप में खूब विकसित और नागोरी लोंकागच्छ के वीरचन्द्र शिष्य परमानन्द ने हुई । सस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी गुजराती चारो भाषामो सवत् १८६० बीकानेर में संस्कृत में टीका बनाई। इस को प्राप्त सतसइयों की खोज इधर ५-७ वर्षों में मैने टीका का विवरण मैने अपने सम्पादित 'राजस्थान में विशेष प्रयत्नपूर्वक की और प्राप्त जानकारी सप्तसिध्, हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज द्वितीय भाग' मे गजस्थान भारती आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित की जा सन १९४७ में प्रकाशित कर दिया था। अभी रूपनगर चुकी है। दिल्लो के श्रीवल्लभ स्मारक प्राच्य जन ग्रंथ भडार मे एक हिन्दी सतसइयों में सर्वाधिक प्रसिद्धि विहारी सतसई और जैन टीका प्राप्त हुई है। जिसका संक्षिप्त विवरण को मिली। इस सतसई पर संस्कृत और हिन्दी गद्य-पद्य इस लेख में दिया जा रहा है। में जितनी टीकायें लिखी गई हैं उतनी और किसी भी बिहारी सतसई की यह टीका पडित भोजसागर ने सतसई की नही, हिन्दी के किसी भी काव्य पर नही संवत् १७६३ मे बनाई है। जिसकी एकमात्र प्रति सवत् लिखी गई है । इन टीकामो मे अब तक दो जैन विद्वानों १८७८ की लिखी हुई उक्त प्रथ भडार में प्राप्त हुई है । को टीकायें ही प्राप्त थी जिनमे से १८वी शताब्दी के ४६ पत्रों की इस प्रति में मूल बिहारी सतसई मोटे अक्षरों Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहारी सतसई की एक अज्ञात जैन भाषा टीका १६६ में लिखी हुई है। मूल पाठ के ऊपर संक्षिप्त अर्थ रूप बडल नम्बर ५४७, ग्रन्थ नम्बर x/६१, पत्र ४६, टब्बा लिखा गया है। प्रति अंचनगच्छ के खुस्यालसागर प्रति पृष्ठ पक्ति १४, पत्रों का साईज ११४४।।। इंच । विवुधसागर की लिखी हुई है। टीकाकार भोजसागर ने अन्त-यह बिहारीदास कृत भाषा को अर्थ कछुक अपने गच्छ, गुरू परम्परा आदि का परिचय नही दिया अपनी मति करी बनायो पडित भोजसागर ने । सुसक नर पर सम्भव है अचलगच्छ का ही हो। सवत् १७६३ के रसिक जन के प्राणंद के हेतू हवी। स० १७६३ काती कार्तिक सुदि शनिवार को सूरत बदर में अल्पमति सुदी ८ शनीवार के दिन पूरो भयो। ५० श्री रूपविजय मनुष्यों के समझने के लिए यह बनाई है। जैन विद्वानों जी के कहये ते कह्यो हई। श्री अचलगच्छे । प० मया ने साहित्य निर्माण और सरक्षण मे सदा उदार बुद्धि सागर जी शि० ॥ वेलसागर जी शि० ॥ रत्नसागर रखी है। इसी का परिणाम है कि जैन ग्रन्थ भडारो मे जी शि० खस्याल सागरे लखितं । ऽवधि विवुधेऽर्थः ।। विविध विषयक हजारो जनेतर रचनाये सुरक्षित है। सकवि बिहारीदास को वचन अगाधि प्ररथ । इतना ही नही उन्होने जैनेतर ग्रन्थो का स्वय गम्भीर अलपमति नर समुझव कौन भांति समरथ ।। अध्ययन किया और दूसरो की सुविधा के लिए उन ग्रन्थों तब विचार ऐसो कियो भोज पयोनिधि जान । पर सस्कृत एव लोक भाषा मे टीकाएँ बनाई। अब से मंद मति उपकार हित, कछु इक करघो वखान ॥२॥ ३०-३५ वर्ष पहले मैने जनेतर ग्रन्थो की जैन टीकाग्रो सत्रह से तेरानवे, सुदि कातिक शनिवार । सम्बन्धी काफी खोज की थी और उनका विवरण भारतीय सुरती बदर में कियो, रूप भूप उपगार ॥३॥ विद्या नामक शोध पत्रिका के २-३ अको में प्रकाशित ऊंच पने मन्दिर अधिक, तेज तरुनि भुवि धीर । कराया था। सुकवि विहारी उदधि गुरु, साहस विक्रमवीर ॥४॥ अब भोजसागर रचित बिहारी सतसई की टीका का मूल प्रति के लिपिकार मुनि बिबुध सागर ने लिपि सक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है। इसकी और किसी की है और अर्थ की लिपि मुनि खस्यालसागर ने की है। भडार में कोई प्रति प्राप्त नहीं हुई। इसलिए उपरोक्त इति श्री बिहारीदास कृत सतसई सपूर्ण । श्री अंचल ज्ञान भडार के व्यवस्थापक प. हीरालाल दुगड़ से सक्षिप्त गच्छे मुनी कपूर सागर जी तत् सीस्य वीबूध सागरेण विवरण मगाकर नीचे दिया जा रहा है लिखित । आत्मार्थ ।। --- ०: संसार की स्थिति कविवर भूधरदास वे कोई प्रजब तमासा, देख्या बीच जहान । वे जोर तमासा सुपने का सा ॥टेक।। एकों के घर मगल गावें, पूगी मन की प्राशा । एक वियोग भरे बहु रोवै, भरि भरि नैन निरासा ।। वे कोई० ॥१ तेज तुरगनि पर चढ़ि चलते, पहिरें मलमल खासा। रक भए नागे अति डोलं, ना कोई देय दिलासा ॥ वे कोई०२ तरके राज तखत पर बैठा, था खुश वक्त खलासा । ठीक दुपहरी मुद्दत पाई, जगल कोना वासा ॥ वे कोई० ॥३ तन धन अधिर निहायत जग में, पानी मांहि पतासा । भूधर इनका गरब कर जे, फिट तिनका जनमासा ॥ वे कोई० ॥४॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसागर की स्फुट रचनाएँ डा० विद्याधर जोहरापुरकर, मण्डला ब्रह्म ज्ञानसागर काष्ठासंघ-नन्दीतटगच्छ के भट्टारक दाता जगमें बहु कह्या कविजन गुण वर्णन करे। श्रीभूषण के शिष्य थे। सं० १६३५ से १६७६ तक श्री इह भव पर भव सफल तस ब्रह्म शान इम उच्चरे ॥११ भूषण का समय ज्ञात है। यही ज्ञानसागर का कार्यकाल इनमें पहले छप्पय से पूज्यपाद प्राचार्य के बारे में यह था । ज्ञानसागर की कई रचनाओं का परिचय अनेकान्त कथा ज्ञात होती है कि वे बारह वर्ष एकान्तर (एक दिन मे समय-समय पर प्रकाशित हुआ है। यहां हम शक उपवास और दूसरे दिन आहार का निरतर क्रम) तपस्या १६९१ (=संवत् १८३६) में लिखे गये एक हस्तलिखित कर अध्ययन करते रहे थे तथा उन्हे इस अवधि मे लक्ष्मीगुच्छक में प्राप्त कुछ स्फुट रचनायो का परिचय दे रहे हैं। मती नामक श्राविका ने पाहार दान दिया था। दूसरे १. समवशरण कवित्त-इसमें ग्यारह छप्पय हैं तथा छापय में गुजरात व राजस्थान के प्रसिद्ध दानी महानुभरत चक्रवर्ती द्वारा प्रादि तीर्थकर के समवसरण के दर्शन भावों के नाम गिनाये है। वस्तुपाल, समरासाह जैसे का वर्णन है । इसका अन्तिम छन्द यह है श्वेतांबर दानशील पुरुषों का कवि द्वारा उल्लेख होना योजना बार प्रमाण समवसरण वृषभेश्वर । साप्रदायिक सौमनस्य का अच्छा उदाहरण है। मन वच काया शुस ववे भरत नरेश्वर ॥ ३. नाराचबंघ चउवीसी-नाराच छद के २६ पद्यो पूजा प्रष्ट प्रकार स्तवन करि घरह प्राइया । में चौबीस तीर्थंकरो का स्तवन है तथा उनके जन्मनगर, वो जयजयकार सुरवरने मन भाइया ॥ मात पिता आदि का यथासभव उल्लेख किया है। एक पाले दया पूजा करे वत पाले निज घर रहे। उदाहरण प्रस्तुत हैधावक मार्ग नित अनुसरे ब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥ वानारसी नामे पूर अश्व (विश्व) सेन नुप सूर मेघश्याम २. दानोपरि छप्पय-ये १२ छप्पय है । चार प्रकार काय नूर पावजी प्रसिद्ध है । कमठ गुमान हारि भव्यजीव के दान की प्रशंसा का इनमे वर्णन है। इस रचना के दो हितकारी सदा बालब्रह्मचारी व्रतभार लिद्धहै। विदेश छंद पठनीय है कियो विहार सुजन उतारे पार प्रखंड सुख दातार ज्ञानदान लक्ष्मीमति गुणवंत प्रति दुर्बल धनहीनी। दिखहै । काठासंघको शृगार श्रीभूषण गुरु सार ब्रह्मज्ञान पूज्यपाद मुनि प्राय प्रार्थना ताहि सु कोनी ॥ के विचार पाश्वदेव किडहै ॥२३ जो तू दे मुन्न पाहार तो मुझ पढणो थाये। ४. गुरुदेव कवित्त-इसमे २२ छप्पय है। गुरु की प्रगटे ज्ञान भंडार मूर्खपणा सवि जाये ॥ कृपा का महत्त्व तथा गुरुहीन की तुच्छता का इसमे वर्णन एकांतर निश्चय करी वरस बार स्वामी रह्या। है। अन्तिम छन्द में प्रसिद्ध जैन गुरुओं के कुछ नाम ज्ञान प्राहार तप दानये शास्त्रमाहि तस गुण का दिये हैवस्तुपाल जगसाह दाता सरस कहायो । गौतम जंबूस्वामि समतभद्र प्रकलंकह । सारंग समरोसाह दानयी जग जस पायो॥ प्रभाचर जिनसेन रामसेन मुनिचदह ।। दाता भैरवदास बंध चित्तोड छुड़ायो। लोहाचार्य मुनींद्र रविषेणह व्रतधारी । दाता श्रीषनपाल जैन गुणदान ठरायो॥ नेमिसेन गुणवत धर्मसेन सुखकारी । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानसागर को स्फुट रचनाएँ विश्वसेन संयम सहित विद्याभूषण गच्छपति । छः अंग तथा कुछ पुरानी पहेलियां शीर्षक लेखों में प्रका. श्रीभूषण नित बंदिये कहत ज्ञानसागर यति ॥ शित कराई हैं। गुरु जिन्हें नहीं मिल सके उनकी तुच्छता कवि ने इन स्फुट रचनामों के समान छोटी-छोटी बहुत सी इन शब्दों में की हैनिगुराजेनर होय ते नर नंष समानह । रचनाएँ हिन्दी जैन साहित्य में पाई जाती हैं। एक-एक निगुरा जे नर होय तेह मिथ्यामति जाणह ॥ कवि की ऐसी रचनाओं के संग्रह के नाम विलासान्त रखे निगुरा जे नर होय धर्म भेद नहि जाणे । गये हैं। महाकवि बनारसीदास का बनारसी विलास निगरा जे नर होय सोहि पाखंड बखाणे । (जिसमे ६२ रचनायें हैं) शायद इस तरह का सबसे पहला संग्रह है-विक्रम की सत्रहवीं सदी का उत्तरार्ष निगुरा जे संसार में ते नर भव-भव दुख लहे। इनका कार्यकाल था। ज्ञानसागर इनके ज्येष्ठ समकालीन तिस कारण नित सेविये ब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥१३ थे, किन्तु इनकी रचनामों को अभी प्रकाशन का सौभाग्य इनके अतिरिक्त कुछ परंपरागत विषयो पर कवि ने नही मिला है । इस प्रकार के दूसरे संग्रह है-द्यानतराय नही मिला है। इस प्रकार के टमरे मंगट जो छंद लिखे है उनकी सख्या इस प्रकार है का धर्मविलास (विक्रम की अठारह्वी सदी का उत्तरार्घ), षोडशकारण भावना १७, दशलक्षण धर्म १२, जिन- भगवतीदास का ब्रह्मविलास (विक्रम की अठारहवी सदी पंचकल्याणक ६, पचपरमेष्ठि ६, सप्तव्यसन फल ८, का मध्य), वृन्दावन का वृन्दावन विलास (विक्रम की पचेंद्रिय मोहफल ६, जिनपूजा (अष्टद्रव्य) ६, जिनपूजा- उन्नीसवी सदी का उत्तरार्ध), बुधजन का बुधजनविलास फल (मष्ट द्रव्यपूजा फल की पाठ कथाओं का सक्षिप्त (विक्रम की उन्नीसवी सदी का उत्तरार्ध), (दौलतराम उल्लेख) ६, पथिक कवित्त (ससार स्वरूप के मधुबिन्दु दौलतविलास तथा देवीदास का परमानन्दविलास इस का वर्णन) ५, नमस्कार मंत्र माहात्म्य ११, सम्यग्दर्शन प्रकार के अन्य अप्रकाशित ग्रन्थ है ।) जैन ग्रन्थ रत्नाकर के अग तथा माहात्म्य १६, सम्यग्ज्ञान स्वरूप तथा माहा- कार्यालय, बम्बई द्वारा प० पन्नालाल जी बाकलीवाल तथा त्म्य १७, सम्यक् चारित्र के तेरह अग और माहात्म्य २६, पं० नाथूरामजी प्रेमी ने इन विलास संज्ञक ग्रन्थों को इस जिनदर्शन ६, कर्मफल ६, धर्ममाहात्म्य १२, पापफल १२, शताब्दी के पहले चरण में प्रकाशित किया था हिन्दी जैन द्वादशानुप्रेक्षा १३ । इनके अतिरिक्त सघाप्टक और हरि- साहित्य के प्रकाशन की वह परपरा यदि पुनर्जीवित की पाली कवित्त ये रचनाये हमने अनेकान्त मे जैन संघ के जा सके तो बहुत अच्छा होगा। अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इस लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जन श्रुत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यातम बत्तीसी श्री प्रगरचन्द नाहटा भगवान महावीर से लेकर अब तक हजारों आचार्यों, आदि कवियों की रचनायो के संग्रह ग्रन्थ प्रकाशित किये मुनियो, श्रावको आदि ने छोटी-बडी लक्षाधिक रचनाएँ है। की। पर उनमें से बहुत-सी तो मौखिक रूप में रहने के १७वी शताब्दी के दिगबर कवि राजमल्ल उल्लेखनीय कारण विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गयी। क्योकि वीर ग्रन्थकार है। अभी मुझे एक गुटके मे राजमल्ल की निर्वाण के ६८० वर्ष तक तो लेखन की परपरा प्राय: अध्यातम बत्तीसी मिली है। सम्भव है वह प्रसिद्ध राजनही रही। लिखे जाने के बाद भी बहुत-सी प्रतियाँ ताड़ मल्ल की ही रचना हो। १८वी शताब्दी के स्वताबर पत्र, कागज, स्याही प्रादि टिकाऊ न होने के कारण नष्ट कवि लक्ष्मीवल्लभ जिनका उपनाम राजकवि भी था, हो गयी । इसीलिए १०वी-११वी शताब्दी के पहले की उनके रचित उपदेश बत्तीसी प्राप्त है, जिसके बहुत से पद्य एक भी जन हस्तलिखित प्रति दिगबर, श्वेताबर किसी भी राजमल्ल की अध्यातम बत्तीसी से मिलते-जुलते है । अतः भडार में प्राप्त नही है। उसके बाद भी हजारों लाखों गजमल्ल की अध्यातम बत्तीसी की अन्य प्राचीन प्रति की प्रतियो को उदइ प्रादि जन्तुप्रो ने खा डाला। बहुत-सी खोज आवश्यक है। प्राप्त प्रति १९वी शताब्दी की है और वर्षा एव सर्दी के कारण चिपक कर नष्ट हो गयी। कुछ पाठ भी अशुद्ध है। पर राजमल्ल के नाम से प्राप्त होने को अनुपयोगी समझ कूट्ट के काम ले ली गयी। इसी से इसे यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। अन्तिम पद्य में तरह हजारों प्रतियों जलशरण भी कर दी गयी। इघर ध्यान बत्तीमी भी नाम पाता है। कवि बनारसीदास की कुछ वर्षों में कौडियो के मोल बिकी और पसारियो, कदो- ध्यान बनीसी और अध्यात्म बत्तीसी प्रकाशित है पर वे ईयो आदि ने उनके पन्ने फाद-फाड़कर अपने काम मे ले इससे भिन्न है । अब अध्यात्मिक बत्तीसी राजमल्ल कत ली। छोटी-छोटी प्रतियों और फूटकर पत्र तो आज जैन नाच दी जा रही हैभडारो में हजारों की संख्या में अज्ञात अवस्था में पड़े है। किसकी माई किसका भाई, किसकी लोग लुगाई जी। गूटकादि संग्रह प्रतियो की सूची भी प्रायः बनाई नही पातम राम सयाना, जूठे भरम भूलाना ॥१ जाती। इसीलिए हजारो छोटी-छोटी रचनाएँ अज्ञात बोलत डोलत तन पांजर बीच, चेतन सेन बतावें जी। अवस्था में पड़ी है। जू बाजीगर काच पूतलियां, नाना रूप नचावें ॥२ बडे-जडे विद्वानो और अच्छे कवियोके भी कुछ प्रसिद्ध पगड़ी खूब जराव दुपट्टा, जामा जरकसी वागाजी। और बड़े-बडे ग्रन्थो की ही जानकारी प्रकाश में आई है। ' एते सबही छोड चलेगो, धागावन नहीं नागाजी ॥३ उन्होंने और भी बहुत-सी रचनाएँ अवश्य की होगी पर चूमा चंदन तेल फूलेला, करता था खसबोई जी। उनका संग्रह नही हो पाया। १७वी शताब्दी से बनारसी हंस उडकर जम घर जायगा, तन बदगाई होई जी॥४ विलास की तरह एक-एक कवि की छोटी-छोटी रचनाओ सहस भी जोडो लख भी जोडी, अरब खरब पर धायाजी। का सग्रह ग्रन्थ तैयार करने का प्रयत्न चालू हुआ। इसमें तृष्णा लोभ पलिता लागा, फिर फिर ढुंढे माया जो ॥५ बहुत सी छोटी रचनाएँ भी सम्मिलित होकर सुरक्षित हो भेडी मन्दर मेहेल चणाया, गोख बिंध झरुखाजी। गयो । पर ऐसे राग्रह व्रन्थो का प्रकाशन भी बहुत ही कम जगल जाई पाय पसारया, ने धरणा कुस धौखाजी ॥६ हया है। हमने बरसो प्रयत्न करके समयसुन्दर, जिनहर्ष, चार दिन का मेला सबही, नाही कोई सखाई जी। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यातम बत्तीसी ज्यं दुतियां हटवा मिलकर, ज्यु पावें ज्यु जावेजी ॥७ तेरा है सो को नहीं जावें, तु अपणा यं खोवेबी। कोई लाभ गुणाचो बांधी, कोडी मूल गमा जी। वगडा था सो गया पुरानो, तू मूरख क्या रोजी ॥२३ ज्यु चेतन दुनियां हटवा, नफां जानें करावें जी ॥ तन पंजर बीच जीव पंखेरू, उडता उडता पापाजी। पासरा संसार बन्या घर, लख चौरासी माइं जी। पावत जावत कछु न देख्या, इसका खोज न पायाजी ॥२४ नाम करतो सब ही लागा, जीव बटाउ वासी जी ॥ ए ससार वाडि बिनसे, काल सरूपो मालोजी। लोही मांस का गारा बनाया, पत्थर हाड लगाया जी। काचा पाका ए सही तोडे, ज्यों दरखत को डालोजी ॥२५ उपर सावर चमरी साई नवे द्वार बसाया जी ॥१०।। ज्यौ सकरीजे प्रावे जावें, अंगरी दोर लपटावेजी। आयु करम ले घर का भाडा, दिन दिन मांगे लेखा जी। सहत लाख जोधा भुजबल, करते जंगी एकेलाजी। मोहत पाया फलक न रक्खे, एसा बड़ा अदेखा जो ॥११ ब्रह्मा विष्णु महेसर दान, काल सबक सरीखाजी ॥२७ सांझ सवेर अवेर न जाणे, न जाणे धूप वराषा जी।। तन धन जोवन मतवाला, गणत किसकी नाईजी। नाही नेह मुलाजा किसका, काल सबी कुं सरीखा जी ॥१२ जीव अविनासी फिर फिर प्रावें, करम सुजाई सगीजी। सजी तरपति भुपति काल प्रहें सबनाइजी ॥२८ जमी पर घर बनाया, प्रीत लगाई सगी जो ॥१३ तण पाटण बसे चेतन राजा, मन कोटवाल बैठायाजी। पाच गंगा सं एका करके, तण पाटण मुहायाजी ॥२६ इस घर मांहि प्राय बसे हो, सो घर नांहि तेरा जी। में करता मे कोनी केसी, प्रबजो कहो करोगाजी। ममा पाछे गाउँ जालें, अथवा नीर बहावे जी ॥१४ इस घर अंदर पाप बडेरा, सो घर नाहीं तेरा जी। मेरे मोत लगासा पोछ, न जण जीव नुगराजी ॥३० भली बरी तो जो कुछ करता, सोंही तमही कॅ वेगाजी। इसा इसा घर बहोत बनाया, राय चलवा डेराजी ॥१५ राह चलंतां रोगी समर, सोई साथ चलेगाजी ॥३१ जाया सो तो सबही जायगा, जगत जगत जीव बासीजी।। पावत जावत सास उसासा, करता गण अभ्यासाजी। अपनी खूब कमाई ना वरथी, जीव जावत संगत जासीजी।१६ जावत का कुछ अचरज नाही, जीवत का तमासाजी ॥३२ जैसे प्रागर नोबत बाजे, भिर बाजें सीजनाजो। इस पाया का लाहा लीजे, कोगे सुक्रत कमाईजी। असवारी सारी धूज चालें, सो नर कांहि समानाजी ॥१७ राजमल्ल कहें ध्यान बत्तीसी, सीध का सुमरण कोजेजी।३३ जीव अविनासी मरे न जावे, मर मर जाये सरीराजी। इसका धोखा कछू न करणा, अपना धरम सुधाराजी ॥१८ इति अध्यातम 'बत्तीसी सपूर्ण मरख कर कर मेरी मेरी, परसगत दुख पायाजी। परका संगत छोडे सुख पाया, जब समता पर पायाजी।१६ यह बत्तीसी पंचाध्यायी के कर्ता राजमल्ल कृति है पवन रूपो किया अंदर, हस रहया सब वासीजी। इसका लेखक ने कोई प्रमाण नहीं दिया, यह रचना घटिया पल पल मांहि प्रायु घटे सें, पाणी सीस पतासी जी ॥२० दर्जे की बहत साधारण है। यह उन प्रसिद्ध राजमल्ल नाती गोती सगा संबधी, सब स्वारथ में बूडाजी। की कृति नही है । किसी अन्य आधुनिक राजमल्ल की कृति स्वारथ बिनु सूके तरुवर ज्यों, पखी सब हो उडाजी ॥२१ होगी। कविता का भाषा साहित्य भी उस काल का नही नवा नबा तो जामा पेहणा, नव नवा घाट घडायाजी। है। और न भाषा में लालित्य है अतएव उन विद्वान राजतीन काल की तीन अवस्था, सोधे धूप फटायाजी ॥२२ मल्ल पाडे की कृति नहीं हो सकती। -सम्पादक जणा साधारण लोगों के सामने सच्चरित्रता का नमूना पेश करना शिक्षित लोगों का कर्तव्य है। वह मौखिक व्याख्यानों द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए उनको स्वय सच्चरित्र होना होगा और अपने जीवन द्वारा दूसरों को शिक्षा देनी होगी। -~-डा. राजेन्द्रप्रसाद Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ को जैन संस्कृति और परमानन्द जी बरया प्रो० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' एम. ए., शास्त्री देवगढ़ उत्तर प्रदेश में झांसी जिले की ललितपुर तह- रामदयाल पुजारी, पं० परमेष्ठीदास जी, बाबू हरिप्रसाद सोल में २४.३२ उत्तरी अक्षाश और ७८.१५ पूर्वी देशाश वकील, साह शान्तिप्रसाद जी, सिं० शिखरचन्द्र (वर्तमान पर स्थित जैनियों का एक महत्वपूर्ण तीर्थक्षेत्र तो है ही, मंत्री) तथा बाब विशनचन्द प्रोवरसियर आदि को तो है वैदिक कला का भी एक प्रसिद्ध और समृद्ध केन्द्र है। ही, इन सबके अतिरिक्त एक ऐसा भी व्यक्ति देवगढ़ की वेतवा नदी के किनारे विन्ध्याचल की एक सुरम्य श्रेणी जैन सस्कृति के पुनरुद्धार के साथ प्रारम्भ से ही संलग्न की उपत्यका में बसा हुआ, यह अब एक छोटा सा ग्राम है, जिसने अपना तन, मन और धन या दूसरे शब्दों मे मात्र अवशिष्ट है किन्तु प्राचीन काल में यह नगर अपनी यों कहिये-अपना समग्र जीवन देवगढ के उत्थान, विविध प्रकार की गतिविधियो के लिए विख्यात था। जीर्णोद्धार तथा प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया है-किन्तु उसके व्यक्तित्व और कृतित्व का समुचित यहाँ मौर्यकाल से मुगलकाल तक अनेक जैन मन्दिरों, मूल्याकन अब तक नहीं हो सका है। वह है-श्री परमामूर्तियों और मानस्तम्भो आदि का निर्माण होता रहा। नन्द जी बरया। कालान्तरमें वहुतसे मन्दिर धराशायी हो गये तथा मूर्तियों भी श्री बरया जी निश्छल, सरल, पवित्र हृदय, सेवाभग्न हुई, किन्तु फिर भी वहा ४० जैन मन्दिर और १८ भावी, स्नेही, शिक्षाप्रेमी, धार्मिक और विवेकसम्पन्न मानस्तम्भ तथा कई हजार खडित-अखडित मूर्तियां अबभी गृहस्थ है। बाह्याडम्बर, प्रदर्शन और आत्मख्यापन की भव्यता के साथ निदर्शित है। यद्यपि वहा की वैदिक कला प्रवृत्ति से वह सर्वथा दूर रहे है। प्राज लगभग ८० वर्ष का पर्याप्त परिचय पुरातत्व विभाग की विभिन्न रिपोर्टो की अवस्था में भी उनकी हिम्मत, दिलेरी, व्यावहारिकता तथा अन्य अनेक ग्रन्थो तथा अन्य स्रोतो द्वारा प्रकाश में कार्यक्षमता-कुशलता, अभियान्त्रिकी ज्ञान, मूर्तिज्ञान परिलाया जा चुका है। किन्तु देवगढ के जैन मन्दिरों मूर्तियों चय और अदम्य उत्साह देखकर "दातो तले अगुली दवातथा वहा वी समग्र जैन कला पर अब तक नगण्य जैसा कर" रह जाना पड़ता है। प्रस्तुत निबन्ध मे इन्ही श्री ही कार्य हो सका है। प्रस्तुत पंक्तियो के लेखक ने अनेक बरया जी के सक्षिप्त परिचय के साथ देवगढ़ के प्रति बार अनेक महीनो तक देवबढ में रहकर वहा की जैन उनके योगदान का सर्वेक्षण प्रस्तुत किया जा रहा है। संस्कृति और कला का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है उस सदर्भ में हमने यह निष्कर्ष भी निकाला है कि देवगढ की श्री बरया जी का जन्म-मगसिर (प्रगहन) सुदी जैन सस्कृति और कला की बहुमूल्य सामग्री को प्रकाश में एकम विक्रम सं० १६४६ को ललितपुर (झांसी) के एक लाने तथा सुरक्षित करने का श्रेय मुख्यतः सर्वश्री अलेक्- मध्यम श्रेणी के परिवार मे हुआ था। आपके पिता स्व. जेन्डर कनिंघम, फुहरर, दयाराम साहनी, विश्वम्भरदास श्री वसोरेलाल जी जैन, ललितपुर के प्रख्यात धनपति गार्गीय, नाथूराम सिंघई, राजधर मोदी जाखलौन, लाला सेठ मथुरादास पन्नालाल जी टडैया के यहा मुनीमी करते रूपचन्द रईस कानपुर, जुगमन्दिर लाल बैरिस्टर, देवी- थे। श्री बरया जी के एक बड़े भाई भी थे--(स्व०) सहाय जी फीरोजपुर, सेठ पन्नालाल टडया ललितपुर, श्री मुन्नालाल जी। श्री बरया जी की प्राथमिक एवं पूर्व सिंघई भगवानदास सर्राफ ललितपुर, सवाई सिंघई गनपत- माध्यमिक शिक्षा ललितपुर मे ही सम्पन्न हुई। जब लाल भैयालाल गुरहा खुरई, सेठ शिवप्रसाद जाखलौन, बरया जी प्राथमिक-परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, पापके Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ की जन संस्कृति और परमानन्द जी बरया पिताश्री का स्वर्गवास हो गया। पितृवियोग, धनाभाव प्रेरणा, अध्यवसाय, कार्यतत्परता और सुयोग्य मार्गदर्शन और साधनों की न्यूनता ने उन्हें केवल मिडिल-परीक्षा आदि के सुपरिणाम है। (सन् १९०७) पास करके कर्मक्षेत्र में उतरने को बाध्य म० सं० ११ और १२ देवगढ़ के विशाल मन्दिरों में करदिया। इसी समय सौभाग्यवश, बरया जी को पूज्य से हैं । वे अनेकशः जीर्ण शीर्ण हो गये थे। सरकारी इंजीपं० गणेशप्रसाद जी वर्णी का सान्निध्य प्राप्त हो गया, नियर, प्रोवरसियर तथा वास्तुविद्या के ज्ञाता भी इनके जो उस समय ललितपुर में स्व. देवीप्रसाद जी पटवारी जीर्णोद्धार मे हिचकिचाते थे। वे लोग इनके जीर्णोद्धार के मकान (दि. जैन बडे मन्दिर के निकट) मे रहकर कार्य को हाथ में लेने का साहस नही कर रहे थे। श्री काशी के एक प्रसिद्ध विद्वान् से न्यायशास्त्र एवं धर्मग्रन्थों बरया ने स्वयं के उत्तरदायित्व पर बहुत साहस, सावआदि का अध्ययन कर रह थ । बरया जान स्वय पूज्य घानी, अभिरुचि और निष्ठा के साथ इनका जीर्णोद्धार वर्णीजी से धर्म-शिक्षा प्राप्त की। उनके सत्संग से अजित विधिवत् कराया और पूर्ववत् आकर्षक तथा भव्य रूप संस्कार और शिक्षाओं का सुप्रभाव अब भी बरया जी के पास किया। व्यक्तित्व में देखा जा सकता है। __ सोते, उठते, बैठते बरया जी को एक ही चिन्ता रही ___ अपने जीवन के पूर्वान्ह में बरया जी ने श्री टडया है कि-देवगढ़ का उद्धार कैसे हो, और इसीलिए उसे जी एवं श्री चुन्नीलाल बच्चूलाल जी सर्राफ के यहाँ समृद्ध एव आकर्षक बनाने की दिशा मे उन्होने जो भी मुनीमी की। सर्राफ जी श्री बरया की कार्यकुशलता और प्रयत्न किये है, उनमें उन्हे अभूतपूर्व सफलताएँ मिली है। ईमानदारी से बहुत प्रभावित हुए। प्रतएव उन्होंने अपना उनका जीवन देवगढ़ के लिए सदैव संघर्ष करता पाया समस्त व्यावसायिक कार्यभार इन्हें सौप दिया और स्वयं है । ललितपुर में क्षेत्र के लिए तीन मकानो की उपलब्धि धर्म-साधना में समय बिताने लगे । सन् १९२२ के करीब उनकी सुविचारित योजनाओं का ही परिणाम है । क्षेत्र सर्राफ जी ने ललितपुर में श्री जिनबिम्ब पंचकल्याणक की अोर अनेक मुकदमो आदि मे उन्होने जिस प्रकार का प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव का आयोजन किया। इस परिश्रम किया है, उसे भुलाया नहीं जा सकता । ललितपुर महान् कार्य मे बरया जी की कुशलता और सफलता देख से देवगढ तक तथा देवगढ की जैन धर्मशाला से पर्वतस्थ कर वे बहुत प्रभावित हुए। इस गजरथ के पहले (सन् जैन मन्दिरों तक राजमार्ग के निर्माण मे बरया जी के १९२०) से ही बरया जी देवगढ़ के सम्पर्क में आ गये थे। तब से उन्होंने अनेक धनिकों, कलाप्रेमियों, पुरा प्रयत्न भी उल्लेखनीय महत्त्व रखते हैं।। तत्वज्ञों, धर्मात्मानों, विद्वानों तथा संस्थानो का ध्यान उनसे मिलकर प्रत्येक यह अनुभव करता है कि वे देवगढ़ के गौरवपूर्ण अतीत, समृद्ध वैभव और उपेक्षित- धुन के पक्के है । जो काम वे हाथ मे ले, उसे पूर्ण करके वर्तमान की ओर आकृष्ट किया। सन् १९२८ से अब भी ही चैन लेते है। उनके सम्पर्क में आने पर ऐसा प्रतीत उन्होने देवगढ़ की जो बहुविध सेवाएँ प्रारम्भ की है और होता है कि-वात्सल्य और प्रभावना अंग उनके माध्यम कर रहे है, वे इतिहास में अविस्मरणीय रहेगी और तब से मतिमान हो उठे है। उनकी प्रातिथ्य-पद्धति बहुत तक नही भुलायी जा सकती जब तक देवगढ़ का अस्तित्व निराली और प्रभावशालिनी है। क्षेत्र पर मेलों का आयोजन तथा १६३६ ई० में श्री शासन से क्षेत्र की वापसी, वन विभाग से भूमि का गुरहा जी (खुरई) द्वारा आयोजित श्री जिनबिम्ब पंचअधिग्रहण, धर्मशाला, कुआं, व चैत्यालय का निर्माण, कल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव की निर्विघ्न इकतीस मन्दिरों का जीर्णोद्धार, मूर्तियों की सुरक्षा प्रबन्ध, समाप्ति, बरया जी के अदम्य उत्साह, सूझ बूझ और जैन चहारदीवारी का निर्माण, मन्दिरों के द्वारों में लोहे अकथनीय परिश्रम का ही परिणाम है। उनकी हर श्वांस के किवाड़ लगवाना आदि प्रापके अथक परिश्रम, निरन्तर में देवगढ़ के लिए बेचनी है। यद्यपि उन्हे धार्मिक, सामा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अनेकान्त जिक और राजनैतिक गतिविधियों में पर्याप्त अभिरुचि हे, रेरियम" के रूप में अर्पित कर सराहनीय कार्य अवश्य किन्तु उनने इन सबसे ऊपर है-देवगढ़ का लगाव । किया है किन्तु मेरे विचार मे उनकी सेवाओं का समुचित अध्ययन और मनन भी उनके जीवन के आवश्यक अग मूल्याकन होना चाहिए। है । वे धर्म, कला, संस्कृति और इतिहास से सम्बन्धित संक्षेप में यदि कहना चाहें तो यही कहेगे कि देवगढ ग्रन्थो और पत्र-पत्रिकामो का पालोडन विलोडन करते के लिए उन्होने वह सब किया है जो कोई 'डायरेक्टर रहते है। जनरल' ही कर सकता है। देवगढ के प्रति उनमे जो उनकी तीर्थभक्ति और तीर्थसेवा से प्रभावित होकर ममता है, वह अन्य क्षेत्रो में दुर्लभ है। वैसी ही लगन वे देवगढ प्रबन्धक समिति तथा जनसमाज ने समय-समय पर भावी पीढी में देखने को आतुर है। यही उनके जीवन की 'तीर्थसेवक" "देवगढ का यक्ष" आदि उपाधियो से सम्मा- साध प्रतीत होती है। नित कर अभिनन्दन-पत्र प्रादि समर्पित किये है। श्री ग्राज जब वे अपने जीवन के अस्सीवे बसन्त में प्रवेश बरया जी सन् १९५० तक पूरी तरह से देवगड की 'आन- कर रहे है, हम उनकी सेवायो का अभिनन्दन करते है रेरी' सेवा में व्यस्त रहे । किन्तु उनकी सेवारो को दृष्टि तथा यह कामना करते है कि वे शतायु हो-चिरायु हो में रखके तथा आर्थिक क्षीणता पर और वृद्धावस्था पर एवं इसी तरह से देवगढ और श्रमण सस्कृति की उपासना विचार करके प्रबन्धक समिति ने वन्हे १००) माह "पान- में तन्मय रहे । अमृता, समृद्ध जैन साहित्य रिषभदास रांका प्राचीन जैन साहित्य भारत की अनेक भापायो मे समृद्धि मे दक्षिणवालों से अधिक है। यद्यपि दक्षिण मे लिखा गया है। और इतना विशाल है कि स्वयं जैनियों जैन संस्कृति ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया है यह कहने को भी पता नही है कि उनके पास कितना समृद्ध और विपुल मे अतिशयोक्ति नहीं है कि दक्षिण की सस्कृति पर श्रमण यह साहित्य है । जैनियो का अधिकाश साहित्य प्राकृत और सस्कृति का अधिक प्रभाव है। दक्षिण का प्राचीन जैन अर्धमागधी भाषामे लिखा गया है। बादमे सस्कृत, अपभ्रश साहित्य अत्यन्त ही समृद्ध तथा विशाल है। तथा उत्तर की हिन्दी, मराठी, राजस्थानी, गुजराती आदि इस बात का परिचय प्राचार्य तुलसी जी को दक्षिण भाषाओ मे तथा दक्षिण की कन्नड तथा तमिल भाषा मे। यात्रा में हुअा। जब उन्होने कर्नाटक में प्रवेश किया तो उत्तर की भाषामो तथा प्राकृत या सस्कृत में लिखे साहित्य देहातो मे हजारो जैनी मिले या जैनत्व से प्रभावित लिगाका संपादन, प्रकाशन, अध्ययन खोज का काम कुछ अगों यत मल के जैनी पर जैनियो मे जब कर्मकाण्ड तथा जाति मे हुआ है। उसकी विशालता को देखते हुए हमे यह भेद की विकृति आई तो सुधारक व सबने जैनियों को कहना पड रहा है कि यह कार्य भी कुछ प्रयो मे ही हुअा व बनाया और वे लिगायत बनाये गये। भले ही वे है। क्योकि अभी तक जैन प्राचीन भण्डारो मे सुर- लिगायत बने पर हिसा प्रधान जैन धर्म की अहिसा क्षित काफी साहित्य अप्रकाशित है। लेकिन फिर भी उन्होने अपनायी और सस्कारों को अपने में से निकाल उत्तर मे जैनियो का अपने साहित्य के प्रति ध्यान आक- नहीं पाये । और तो क्या भटकल जैसे स्थान पर मुस्लिमों पित हुआ है। उन्होने उस पर काफी काम किया है। पर जैनत्व का प्रभाव दिखाई पडता है। मटकल यह समुद्र किन्तु दक्षिण के विशाल साहित्य पर तो बहुत ही कम के किनारे महत्त्वपूर्ण बन्दर था। वहाँ से विदेशों को व्याकाम हुआ है। कारण स्पष्ट है। उत्तर के जैनी संख्या में पार होता था। और वहाँ के जैन व्यापारी विदेशों में Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अछूता, जैन समृद्ध साहित्य १७७ व्यापार के कारण ममद्ध थे। एक बार अरबो ने उनपर निश्चय हा । और उसके लिए दो लाख रुपये भी उनके घावा बोल दिया। पुरुष स्त्रियोको छोड कर भाग गये जो अनुयायियो ने इस सस्थान को चलाने के लिए एकत्र कर स्त्रियाँ बची उनमें से कुछने धर्म और सतीत्व के लिए प्राण काम प्रारभ कर दिया। त्याग दिये, पर जो वैसा नही कर सकी वे मुसलमानों की हम छोटी-छोटी बातों को लेकर तीर्थो के लिए झगपत्नी बनकर उनके साथ रहने लगीं। पर जैनियो के डने वाले अपने दिगबर तथा श्वेतांबर भाइयों से प्रार्थना पीढियों से चले आये संस्कार न त्याग सकी। उनमे से करेंगे कि उनके धन का आपस मे झगडने से अच्छा उपबहत सी अब भी रात्रि को भोजन नही करती है। योग किया जाय ऐसे कई क्षेत्र है । दक्षिण में प्रायः दिगबर आचार्य तुलसी के स्वागत में दक्षिण के राजनीतिक, भाई बसते है उनमें से भले ही कुछ सघन हो पर अधिसमाजसेवी और विद्वानों ने कहा कि जैनियो का अपना कांश बहुत ही दरिद्र और पिछडे हुए है। उनसे साधुग्रो, घर तो दक्षिण है। आपको तो यहाँ आकर काम करना ब्रह्मचारियो तथा कार्यकर्तामो से सपर्क न रहने से बहुत चाहिए। जैनियों के विशाल तथा समृद्ध साहित्य तथा से अन्य धर्मों में भी प्रवेश कर रहे है या जो हैं वे भी जैन संस्कारो से प्रभावित जनता में काम करना चाहिए। जैन तत्वों से अपरिचित बनते जा रहे है। सिर्फ नवकार श्री निर्जालगप्पा, दासप्पा, जत्ती, अन्नदुराई आदि चोटी मंत्र और रात्रि में भोजन न करना यही जैनत्व की के नेतानो ने कहा कि यदि प्राचीन कन्नड और तमिल निशानी बची है। एक तीर्थ या मन्दिर के झगडो में भाषा मे से जैन साहित्य निकाल दिया जाय तो आज की लाखो खर्च करने वाले भाई दक्षिण में जाकर देखे कि तरह समृद्ध न रहकर दरिद्र बन जावेगा । यह बात राज सैकड़ों मन्दिर व्यवस्था के अभाव में खण्डहर बन रहे है । नीतिज्ञ, ने कही हो सो नही पर विद्वानों और शिक्षा या अन्य धर्म वालों के अधीन हो गये है। वे दक्षिण में शास्त्रियों ने दक्षिण प्रवेश के समय से लगाकर बार बार रहने वाले इन सात लाख दक्षिण के जैन भाइयो मे काम कही। धारवाड, कन्नड विश्वविद्यालय के सचालको ने बताया कि वहाँ जैन चेयर है और विश्वविद्यालय ने करे यह आवश्यक है और उपयोगी भी। कर्नाटक में प्राचीन कन्नड जैन साहित्य के प्रकाशन के लिए अर्थ की पांच लाख और तमिल में दक्षिण के मूल निवासी जैन व्यवस्था भी कर रही है । आवश्यकता है कार्य करने की। है। तमिल में जैनियो को नयनार कहते है। बहुत कन्नड साहित्य अल्प ही क्यो न हो पर काम तो हुआ है, पर ही गरीब और पिछड़े हुए है। उनसे सपर्क कर उनमे तमिल में तो नहीं के बराबर ही है। प्राचार्य तुलसीजी काम करना अत्यन्त आवश्यक व उपयोगी है। वहाँ जो में जैन साहित्य के इस अछुते किन्तु समृद्ध साहित्य पर साहित्य है उसका विविध भाषामो में अनुवाद होना काम करने की लालसा जगी। भले ही दक्षिण का साहित्य चाहिए। हम यहा सिर्फ तमिल भाषा में जो महत्वपूर्ण दिगम्बर साहित्य ही क्यो न हो पर उसका सशोधन, साहित्य है उसकी सूची दे रहे है। इससे कुछ पता चल सपादन, अध्ययन और प्रकाशन का काम होना चाहिए, सकता है कि इस दक्षिण के महत्वपूर्ण साहित्य पर काम यह चिंतन चलता रहा। हम दक्षिण यात्रा के समय करना कितना आवश्यक और उपयोगी है क्या हम अपने हबली, नंदीदुर्ग और मद्रास में उनसे मिले, तब तब इस जैन भाइयों को प्रापसी झगड़ो मे होने वाले धन व्यय को विषय पर चर्चा हुई। पर जब हम अक्टूबर में अणुव्रत के इस महत्त्वपूर्ण व उपयोगी कार्य में खर्च करने के लिए अधिवेशन में जाने वाले थे तब डा० उपाध्ये ने हमे कहा आकर्षित कर सकेंगे । भले ही पूर्णरूप से वे उस धन व्यय कि आप मद्रास में प्राचार्य श्री से मिलने वाले है तब को इस काम मे न भी लगा सकें तो भी इस महत्वपूर्ण उनसे कहना कि तमिल भाषा के प्राचीन जैन साहित्य के कार्य के विषय में अवश्य चिंतन करेंगे। और आचार्य लिए कुछ करें। मैंने चर्चा की। दक्षिण साहित्य पर तुलसी जी ने सप्रदाय का विचार न कर दक्षिण के जैन काम करने के लिए संकल्प में परिवर्तित होकर एक दक्षिण साहित्य के लिए जो शोध संस्थान शुरू किया है उसमें भाषा के जैन साहित्य का शोध संस्थान स्थापन करने का सक्रिय सहयोग देंगे। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ भनेकान्त तमिल भाषा के जंन प्रथ: १. पेरकत्तियम् । २. तोलकाप्पियम् । ३. निरूक्कूरल। ४. शिलप्पदिकारम् । ५. जीवकचिन्तामणी। ६ नरि वृत्तम् । ७. पेरेकथे । ८. चलामणी। ६. वनयापति । १०. मेरूमन्त्रपुराणम् । ११. नाग्दर चरिदम् । १२. गान्तिपुराणम् । १३ नीलकेगी। १४ उदयकुमार कावियम् । १५. नाम ग कुमार कावियम् । १६. नम्मि अकप्पीरूल । १७. कलिगन्नुपरणि । १८. यशोदर कावियम् । १६. गमकाथे। २०. किलीवृत्तम् । २१. एलिवृत्तम्। २२ तत्वदर्शन। व्याकरण: १. नन्तूल। २ याप्परूगलम् । ३. याप्पम्गलकारिहे। ४. नेमिनाद[थम् । ५. अविनयम् । ६. वेण्पा पाटियल । ७. चन्दमूल । ८. इन्दिरकाणियम् । ह अणियियल। १०. वायपियम। ११ मोपिबरि। १२ कडिय नग्नियम् । १३ काक्कपाडिनियम। नीति :१. नालडियरि। २ पषभौपि नन्नुल । ३. एलादि । ४. शिरूपज्ज मूलम् । ५. तिर्णमाले नूरेपदु। ६. आचारकौवे । ७. अरनेरिचारम् । ८ अरूकलचप्पु। ६. जीवसपोदने । १०. औवे 'अहत्तिल वृद्धि' ११. नानमणिकडिक। १२. इन्ना नापतु। १३. दुनियवै नापैलु। १४. तिरि कडुकम् । १५. कोगुमण्डल शतकम् । १६. नेमिनाद (थ) शतकम् । गणित:१. केट्टि एण्ावडी। २. कणक्कदिकारम् । ३. नन्निलवक वायपाडू । ४. शिरूकुपी वायपाइ। ५. कोपवाय इलक्वम् । ६. पेरुक्कल वायपाडु। गीत :१. पेरूकुरूहु । २. बेरूनरि। ३. शोथियिम । ४. भरत सेनापतियम् । ५. शयन्तम। प्रबन्ध :१. निरूक्कलमबकम् । २. तिरूनूरन्दरदि। ३. तिरूवैपाव ४. तिरूपामाले। ५. तिरूप्पुकष । ६. आदिनादर पिल्ले तमिल । ७ प्रादिनादर उला। ८. तिरूमेदियन्दादि । ६. धर्मदेवियन्दादि। १०. तिरूनादराकुरत्तु पत्तु पदिकम् । ज्योतिष :१. जीनेन्द्र माले। २. उल्लमुडेयान । कोष: १. चूडामणणी निक[घण्डु । २. दिवाकरम् । ३. पिगलन्ते । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़ का दिगम्बर जैन कीर्तिस्तम्भ परमानन्द शास्त्री चित्तौड़ राजस्थान का प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल रहा वहाँ उन्हे 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' भी मिल गई। बाद में उन्होंने है। यह नगर सवा तीन मील लम्बे प्राध मील चौड़े धवला टीका को शक सं० ७३८ में पूर्ण किया। चित्रकूट पाच सौ फूट ऊंचे पर्वत पर बसा हुना है। इसका नाम मे भट्टारकीय गद्दी भी रही है। भट्रारक पद्मनन्दि की चित्तौड़ या चित्रकूट, चित्रकूट दुर्ग या चित्तौड़गढ़ उपलब्ध पट्ट परम्परा १५वी शताब्दी मे दो भागो में विभक्त हो होता है। जो मौर्य राजपूतो के सरदार 'चित्रग' के नाम गई थी। एक पद नागौर में और दूसरा पट्ट चित्तौड़ में से प्रसिद्ध है। इन्होने सातवी शताब्दी के लगभग राज रहा है। चित्तौड के पद का प्रारम्भ भट्रारक प्रभाचन्द्र किया है। बापा रावलने सन् ७३४ मे मौयोंसे इसे हस्तगत से माना जाता है और उस पद के १६ भट्टारकों के नाम किया था। उसके बाद वहां सोलकी, चालुक्य, चौहान उल्लिखित मिलते है। और गुहिलवंशियों आदि राजपूतो ने राज किया है। वि. स. ११९२ मे जयकीति के शिष्य अमलकीति यह वैष्णव सस्कृति का केन्द्र रहा है। यहां के राज्यकीय ने 'योगसार' की प्रति विद्यार्थी वामकीति के लिए लिखगन्दिर बड़े सुन्दर और कलापूर्ण है। वे हिन्दू सस्कृति के वाई थी'। और वि० स० १२०७ मे ही जयकीति ने उज्ज्वल प्रतीक है । चित्रकूट जैन परम्परा का भी प्राचीन प्रशस्ति लिखी थी। प्रस्तुत जयकीति के शिष्य गमकीर्ति समय से केन्द्र रहा है । वहाँ अनेक साधु-सन्तो का निवास थे और रामकीर्ति के शिप्य यश कीति ने 'जगत्सुन्दरी स्थल भी रहा है। उस समय वहाँ उभय सस्कृतिया बरा प्रयोगमाला' नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की थी। बर पनप रही थी। जैनियों में दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनो जिनदास शाह ने वहाँ पार्श्वनाथ का एक मन्दिर सम्प्रदाय के अनेक मन्दिर और मूर्तियाँ बराबर प्रतिप्ठित निर्माण कराया था, और विक्रम की १६वी शताब्दी में होती रही है। यह नगर अनेक विद्वानो और प्राचार्यों का विहारस्थल रहा है और ग्रन्थ निर्माण स्थल भी। आगत्य चित्रकूटात्ततः सभगवान्गुरोरनुज्ञानात् ।। विक्रम की ८वी शताब्दी के विद्वान याकिनीमुनू हरि- वाट ग्रामे चान्नानतेन्द्र कृत जिन स्थित्वा ।। भद्र सूरि चित्तौड के ही निवासी थे, जिन्होने अनेक प्राकृत- व्याख्या प्रज्ञाप्त मवाय्यपूर्व पट्खण्डतस्तस्मिन् । सस्कृत ग्रन्थो की रचना की है। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के अनुसार सिद्धान्त तत्वज्ञ एलाचार्य चित्रकूटपुर के ही २ देखो, जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १ किरण ४ पृ.७६ निवासी थे। वीरसेन ने उनके पास चित्रकूट में रहकर ३ श्री जयकीर्ति सुरीणा शिष्येणामलकीर्तिना। षट्खण्डागम आदि सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था लिखित योगसाराख्य विद्यार्थीवामकीर्तिनात् ॥ और ऊपर के निबंधनादि आठ अधिकार भी लिखे थे, सं० ११९२ ज्येष्ठ शुक्लपक्षे त्रयोदस्या पडित साल्हेण फिर वे गुरु की आज्ञा से चित्रकूट से वाट ग्राम में आये लिखितमिदं। और वहां मानतेन्द्र के बनवाये हुए मन्दिर मे ठहरे थे। ५ श्री नामीति सि नित: १ काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी। रीदृशीचक्रे 'श्रीरामकीर्तिनः ।। स० १२०७ सूत्रधा० श्रीमानेलाचार्यो बभूव सिद्धान्त तत्वज्ञः । देखो, एपिग्राफिया इंडिका जिल्द २ पृ. ४१ पिटर्सन तस्य समीपे सकल सिद्धान्त मधीत्य वीरसेनगुरुः । रिपोर्ट ५ ग्रंथ ६०. उपरितन निबंधनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख । ५ देखो, अनेकान्त वर्ष ३, किरण १२, पृ० ६८६ । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० भनेकान्त मलसघ शारदागच्छ बलात्कारगण कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि अंकित है। और महाराणा कभा ने माडू के सुलतान पाम्नाय के विद्वान् नेमिचन्द्र ने लालावर्णी के आग्रह से महमूद खिलजी और गुजरात के सुलतान कुतुबुद्दीन की गुर्जरवेश से पाकर चित्रकूट मे जिनदास शाह के उस संयुक्त सेना पर वि० सं० १५१४ मे विजय ज्ञाप्त की थी। पार्श्वनाथ मन्दिर मे ठहर कर गोम्मटसार की जीवतत्त्व और उक्त स्तम्भ का निर्माण इस विजय से ६ वर्ष पूर्व प्रदीपिका टीका की रचना सस्कृत मे की थी। जो केशव हो चुका था। ऐसी स्थिति में उसे जयस्तभ नही कहा वर्णी (शक सं० १२८१ वि० स० १४१६) द्वारा रचित जा सकता। कर्णाटक वृत्ति का प्राश्रय लेकर खडेलवाल वशी साहु दूसरा जैन कीर्तिस्तंभ ७ मंजिल का है जो ८० फुट सागा और साह सेहस की प्रार्थना से बनाई थी। इस के लगभग ऊँचा और नीचे ३२ फुट व्यास को लिए हुए तरह चित्तौड दिगम्बर संस्कृति का केन्द्र रहा है। है। ऊपर का व्यास १५ फुट है। यह स्तभ अपनी शानी प्रस्तत चित्तौड मे दो कीर्तिस्तम्भ है । एक जयस्तंभ का अद्वितीय है, प्राचीन है और कलापूर्ण है। इस अपूर्व या विष्णुध्वजस्तभ, यह अपने ढग का एक ही स्तंभ है जो स्तम्भ का निर्माण बघेरवाल वशी शाह जीजा द्वारा वि० अधिक ऊंचा और अधिक चौडा है। उसके भीतर स हो की१३वी शताब्दी मे कराया गया था। श्रद्धेय अोझा ऊपर जाने का मार्ग है, उसमे ११३ सीढी है। इसक ना जी इसे विक्रम की १४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का बना खन है । यह कलापूर्ण और देखने मे सुन्दर प्रतीत होता हुपा बतलाते है। इस सम्बन्ध में उन्होने कोई प्रमाण है। इसकी प्रतिष्ठा वि० स० १५०५ माघ वदी दशमी नही दिया । पर वह सम्भवत: १३वी शताब्दी के लगभग को हुई थी। कुछ विद्वान इसे जयस्तभ बतलाते है पर का बना हुआ होना चाहिए। मुनि कान्तिसागर जी ने उनका यह मानना ठीक नहीं है; जैन मन्दिरी के सामने नादगांव की एक मूर्ति के लेखानुसार स० १५४१ का मानस्तभ का निर्माण करने की परम्परा प्राचीनकाल से बना बतलाया है। पर उन्होंने ऐसा लिखते हुए यह विचार चली आ रही है। हिन्दुओं में भी यह परम्परा रही है। नरी नहीं किया कि जब राणा कुभा का स्तभ स० १५०५ का राणा कुभा ने विष्णु की भक्तिसे प्रेरित होकर इस विष्णु है, और कुभा ने इस स्तभ को देखकर ही उसका निर्माण ध्वज का निर्माण कराया है । इस स्तभ में प्रवेश करते ही सुधार रूप में किया था एव अन्य ऐतिहासिक विद्वानो की विष्णु की मूर्ति का दर्शन होता है। इसमे जनार्दन अनत दृष्टि में भी वह पूर्ववर्ती है। तब उसे १६वी शताब्दी का आदि विष्णु के विभिन्न रूपों और अन्य अवतारो की कैसे कहा जा सकता है ? दूसरे जिस शिलालेख पर से मूर्तियो का अकन किया गया है। इस कारण इसे कीति उन्होंने उसे १६वी शताब्दी (१५४१) का बतलाया, उस स्तभ या विष्णुध्वज कहा जा सकता है। जयस्तभ नहीं । मूर्तिलेख में जीजा की वश परम्परा के उल्लेख को भी यह हिन्दुओ के पौराणिक देवताओ का अमूल्य कोष है। ध्यान में रखना था। अतएव उनका उक्त निर्णय ठीक क्योकि उसमे उत्कीर्ण मूर्तियो के नीचे उनका नाम भी नही है। वह कीर्तिस्तभ आदिनाथ का स्मारक है। इसके ........."गोर्जर देशाच्चित्रकूट जिनदास साह निर्मा- चारो पार्श्व पर आदिनाथ की एक विशाल जैन नग्न पित पाचप्रभु प्रासादाधिष्ठितेनामुनानेमिचन्द्रेणाल्प मति स्थित है और बाकी भाग पर छोटी-छोटी अनेक मेघसाऽपि भव्यपुण्डरीकोपकृतीहानुरोधेन सकल ज्ञाति मूर्तियाँ उत्कीर्ण की हुई है। इस कीर्तिस्तंभ के पास ही सिरः शेखरायमाण खण्डेलवाल कुलतिलक साधु वशा महवीर का मन्दिर है। जिसका स० १४६५ मे गुणराज वतश जिनधर्मोद्धरणधुरीण साह साग साह सहसा ने जीर्णोद्धार कराया था। जैन कीर्तिस्तभ जिस स्थान पर विहितप्रार्थनाधीनेन विशदत्रविद्यविद्यास्पदविशाल बना है उसके पास चन्द्रप्रभ का प्राचीन दिगम्बर मन्दिर कीर्तिसहायादिम यथा कर्णाटवृत्ति व्यरचि । था । यह उल्लेख उसी सं० १५४१ के मूर्तिलेख से स्पष्ट -गोम्मटसार जीवतत्त्व प्रदी० दृत्ति प्रशस्ति । ७ देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम एडीसन पहली ८ देखो, राजस्थान भारती का कमा विशेषांक जिल्द पृ० ३५२ ६ राजस्थानी का महापुराण कुंभा विशेषाक पृ० ४५ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तौड़ का दिगम्बर जैन कोतिस्तम्भ १८१ है :- मेवपाटदेशे चित्रकूटनगरे श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र इन उद्धरणो से जो सम्प्रदाय व्यामोह के आवेश में चैत्यालय स्थाने" वाक्यों से प्रकट है। कीर्तिस्तभ दिगम्बर लिखे गये है और जिनमे यह कल्पना की गई है कि श्वे. है और वह बघेरवाल वंशी खडबड गोत्री शाह जीजा द्वारा ताबर-दिगबर बाद में श्वेताबर विजय का यह प्रतीक निर्मापित है। जो महाजन सानाय का पुत्र था। स्तभ है । दूसरे महावीर स्वामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार इस दिगम्बर कीर्तिस्तम्भ के सम्बन्ध मे कुछ इवे- राणा मोकल की प्राज्ञा से गुणराज ने स० १४८५ (६५) तांबरीय विद्वानों ने उसे श्वेतांबर बनाने के लिए अनेक में कराया था। तीसरे यह कीतिस्तभ उस समय बना निराधार कल्पनाएँ की है । और कीतिस्तभ को स्पष्टतया जब दिगबर श्वतावर प्रातमा भद नही पड़ा था। दोनों श्वेतांवर कीतिस्तंभ लिखने तक का दुःसाहस किया है। श्वताबर साघुग्रा का य कपाल कल्पनाय कितना निराधार इस प्रकार के प्रयत्न श्वेताम्बरों द्वारा किये जाते रहे है। और अप्रमाणिक है। इसे बतलाने की आवश्यकता नही। स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई अपने जैन तीर्थो वाले सम्प्रदाय का व्यामोह बुद्धि को भ्रष्ट बना देता है। कीतिनिबन्ध मे लिखते है कि-"जे कीर्तिस्तंभ ऊपर जणाव्यो स्तभ को श्वेतांबरी बनाने के प्रयास मे उक्त कल्पनामों छे ते कीतिस्तंभ प्राग्वाटवंश (पोरवाड) संघवी कमार पाल को स्वयं गढा गया है। श्वेताबर-दिगबरो का ऐसा कोई ने या प्रासादनी दक्षिणे बघाव्यो हतो।" बड़ा वाद नही हुआ जिसमें श्वेतांबगे ने विजय पाई हो। मुनि दर्शन विजय अपने जैन राजाग्रो वाले लेख में तथा दिगबरो को हारना पडा हो और उसकी खुशी में अल्लट राजा का परिचय देते हुए लिखते है कि-"पा किसी स्तभ के बनाने की कल्पना उठी हो। लेखक ने राज ना समयमा चित्तोडना किल्ला मा अंक महान जैन इसका कोई प्रमाण नही दिया, जबकि उसका प्रामाणिक स्तभ बनेल छ जे श्वेतांबर-दिगम्बरोना वादमा श्वेताम्बरो उल्लेख देना आवश्यक था। ना विजयनु प्रतीक होय अवो शोभे छे, तेनीसाथेज भ० कीर्तिस्तभ महावीर स्वामी के कपाउण्ड मे नही बना, महावीर स्वामीनु श्वेताबर जैन मन्दिर छे, जेनो जीर्णोद्धार बल्कि महावीर स्वामी मन्दिर किसी पुराने मन्दिर के पति मोलामा खण्डहरों पर बना है। उस समय कीर्तिस्तभ बना हुआ करावी तेमा प्रा० श्रीसोमसुदरसूरिना हाथे प्रतिष्ठा करावी हुआ था। जीर्णोद्धार के समय ही उक्त मन्दिर में महाहती। पा स्तभ प्रत्यारे कीतिस्तभतरीके प्रख्यात छ।" वीर की मूर्ति पधराई गई है। जिसकी प्रतिष्ठा का दर्शन - (जैन सत्य प्रकाश वर्ष ७ दीपोत्सवी अक पृ० १५०) विजय जी ने उल्लेख किया है। बहुत संभव है कि वह मुनि ज्ञान विजय ने जैन तीर्थों वाले लेख मे लिखा है पुरातन मन्दिर किसी अन्य तीर्थंकर का रहा हो। यह कि-"चित्तोड़ना किल्ला मां वे ऊँचा कीर्तिस्तभो छ, जे मन्दिर कीर्तिस्तभ के दक्षिण-पूर्व में है। इससे कीतिस्तंभ पंकीनो प्रेक भट्टारक महावीर स्वामीना मन्दिर ना का कोई सम्बन्ध नहीं है। कीर्तिस्तंभ तो स. १५४१ के कपाउण्डमां जैनकीर्तिस्तंभ छ, जे समये श्वेताम्बर अने लेखानुसार चन्द्रप्रभ मन्दिर के स्थान मे बना था जैसा दिगम्बरना प्रतिमा भेदो पड्या न हता ते समयनो ग्रेटले कि पहले लिखा जा चुका है। वि० सं० ८६५ पहेलानो प्रे जैन शेतांबर कीर्तिस्तभ छ । अब रही प्रतिमा भेद की बात, सो यदि स्तंभ के अल्लटराज जैनधर्म प्रेमी राजा हतो, ते वादी जेता प्रा० निर्माता की जाति नाम आदि का उल्लेख न मिलता तो प्रद्युम्न सूरि प्रा० नन्दगुरु प्रा० जिनयश (प्रा० समुद्रसूरि) उक्त कल्पना को कुछ सहारा भी मिलता, परन्तु कीर्तिवगेरे श्वे० प्राचार्यों ने मानतो हतो, अटले संभव छे केतेना स्तभ का परिकर दिगम्बरत्व की झांकी का स्पष्ट निदर्शन समयमां भ० महावीर स्वामीनु मन्दिर अने कीर्तिस्तभ करता है । और विद्वान तथा पुरातत्त्वज्ञ ही उसे दिगंबर बन्या हशे, प्रा कीतिस्तभनु शिल्प स्थापत्य अने प्रतिमा नही बतलाते किन्तु श्वेताबर चैत्य परिपाटी में भी उसे विधान ते समय ने अनुरूप छे ।" (जनसत्यप्रकाश वर्ष ७ दिगंबर लिखा हुआ है, जिसका उल्लेख आगे किया दीपोत्सवी प्रक पृ० १७७)। जायगा। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनेकान्त मोहनलाल दलीचद देशाई ने कोर्तिस्तंभ को प्राग्वाट कोतिस्तंभ समीपतिनममुं श्रीचित्रकूटान्वये । (पोरबाड) वशी कुमारपाल द्वारा बनाए जाने की कल्पना प्रासाद सृजत ? प्रसादमसमं श्रीमोकलार्वीपते । की है। जो समुचित नही प्रतीत होती। अनेक पुरातत्त्वज्ञो प्रादेशात् गणराज साधुरचित स्वच्चै बधाषीन्मुवा ॥८६ ने उस स्तंभ को बघेरवाल वंशी जीजा द्वारा बनाए जाने इस पद्य में बतलाया है कि कीर्तिस्तंभ के समीप का स्पष्ट उल्लेख किया है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान मोकलराय के प्रादेश से महावीर चैत्यालय या मन्दिर गौरीशकर हीराचन्द जी ओझा ने राजपूताने के इतिहास बनाया गया है उसके दक्षिण में प्राग्बाट (पोरवाड) वंशी में लिखा है कि-"मार्ग मे पहले बाई ओर सात मजिल कुमारपाल का जिन मन्दिर था। इसमे कीर्तिस्तभ के वाला जैन कीर्तिस्तंभ पाता है, जिसको दिगबर सप्रदाय के समीपवर्ती लिखा हया होने से दिगंवर कीर्तिस्तभ को भो वघेरवाल महाजन सानाय के पुत्र जीजा ने वि० सं० की श्वेताबर बतला दिया गया है। जब कि अनेक प्रमाणो से चौदहवी शताब्दी के उत्तरार्ध मे बनवाया था। यह कीति- कीर्तिस्तभ दिगंबर है और उसके निर्माता वघेरवाल वशी स्तंभ आदिनाथ का स्मारक है। इसके चारो पार्व पर शाह जीजा है। आदिनाथ की एक विशाल दिगवर (नग्न) मूर्ति खड़ी है यहां यह बतलाना अावश्यक है कि उक्त कीर्तिस्तभ और बाकी के भाग पर अनेक छोटी-छोटी जैन-मूर्तिया का रचना समय ठीक ज्ञात नही हो सका, किन्तु अन्य खुदी हुई है।" (राजपूताने का इतिहास प्रथम एडी- प्रमाणो की रोशनी में उसका निर्माणकाल १५वी शताब्दी सन पहली जि० पृ० ३५२) के उत्तरार्ध से बहत पूर्ववर्ती है। मेरे ख्याल में कीर्तिस्तभ __ मुनि कान्तिसागर और अगरचन्द नाहटा भी कीर्ति- का समय विकम की १३वी या १४वी शताब्दी जान स्तभ को दिगबर ही मानते है। इसके अतिरिक्त वतावर पड़ता है । प्राशा है विद्वान इस पर विचार करेंगे। विद्वान गयदि ने स० १५७३ में रचित अपनी चैत्य परि- मुनि कान्तिसागर जी ने नादगाव की मूर्ति का जो पाटी मे कीर्तिस्तभ को स्पष्टत. दिगबर बतलाया है। लेख 'खण्डहगे के वैभव' और अनेकान्त में प्रकाशित किया किन्तु उसे हंबडवशी पूना द्वारा बतलाना किसी भूल का है। उसका परिचय कराते हुए लिखा है कि "भट्टारक परिणाम है। सभव है लेखक को शाह जीजाका नाम और विश्व सोमसेन उस समय के समाज में प्रसिद्ध व्यक्ति जाति का स्मरण न रहा हो । अथवा ज्ञात ही न हो, इस मालूम पडते है क्योकि उनकी प्रतिष्ठा के दो लेख नागदा कारण हूंवड वश की कल्पना की हो। और उसमे नौ की दि० जैन मूर्तियो पर उत्कीणित है।" साथ ही उनके सौ जिनबिम्बों के होने की बात लिखी है। जीवन पर प्रकाश डालने वाली पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और पासइई बड पूनानी सुता देवात कहइ इक ताता तारन रे। करकडु चरित की जो पुष्पिकाए उनके पास है उनसे उनकी लखडी मह धनवेगि करा वीउरे कोरतिथंभ विख्यात रे। दो कृतियो का पता चलता है । समयसार वृत्ति और अमर चउ परि चोखी चिहु पर कोरणी रे मैचउ अति विस्तार रे। कोष की हिन्दी टीका । इस सम्बन्ध मे यहाँ इतना लिखना चढता जे भुइ सात सोह मणीरे बिब सहस दोइ सार नर? ही पर्याप्त है कि लेख मे कुछ नाम गल्ती पढ़े गये है। ढाल-हवइ दिगम्बर देहरइरे तिहां जे नवसइ बिब। लेख में स्पष्ट रूप में अभिनव विद्य सोमसेन का उल्लेख है भामडल पूठइ भवऊरे छत्रत्रय पडिबिंब न कि विश्व सोमसेन का, अब मुनिजी को सोमसेन विद्य प्रवियां पूजइ पास ए तु पूरइ मन को प्रास की उपलब्ध सब सामग्री प्रकाशित कर देनी चाहिए। चर्चा चंदन केवङउरे गोरी गावइ रास ॥ लेख मे और भी कई स्थल है जो पढ़ने में नही आए, या कीर्तिस्तभ को श्वेताबर मानने की जो कल्पना उठी गलत पढ़े गए। उन स्थलो को नीरज जी के लेख के परिउसका कारण स० १५०८ मे गढ़ी गई महावीर प्रशस्ति शिष्ट में खडी व्रकट मे दे दिया गया है। जैसे वृधमान का निम्न पद्य है, जिससे लोगो को भ्रम हुया है- [वृषभसेन] ...... [प्राम्नाये या वशे] प्रादि, उसमे एक उच्चमंडप पंक्ति देवकुलिका वीस्तीर्णमाणश्रियं । दो स्थल और है जैसे योगे [.......] र केण के स्थान में Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रापदग्रस्तों के लिए सहायक संस्था : महावीर कल्याण केन्द्र श्री चिमनलाल चकुभाई शाह भारत जैसे विशाल देश में हर वर्ष कही न कही कि भगवान् महावीर के जन्म और कार्यक्षेत्र में भयानक प्राकृतिक आपत्ति आती ही रहती है। कही बाढ़ आई तो अकाल है। लोग भूग्वो मर रहे हैं । अहिसा प्रेमी जैनियों कहीं सूखा पडा, कही भूकम्प पाया तो कही कुछ आपत्ति को चाहिए कि वे वहा पीडितो और भूग्वो को बचाने के आई । ऐसे विपदग्रस्तो को राहत पहुँचाने के लिए महा लिए कुछ करे । सभा का संचालन श्री चिमनलाल चकुवीर कल्याण केन्द्र जनता की सेवा कर रहा है। भाई शाह कर रहे थे । स्टेज पर बैठे साहु श्रेयांसप्रसाद यों तो जैन तथा व्यापारी समाज जनहित के कामों जी, लालचन्द हीराचन्द दोशी, प्रताप भोगीलाल, कातिलाल में सदा अगुवा रहा है और हर साल समाज की ओर से ईदवरलाल, फूलचन्द शामजी आदि प्रमुख लोगो से चिमन अलग-अलग सप्रदायो तथा जातियों की प्रोर से करोडों भाई ने चर्चा की और कुछ रकम एकत्र करने का निर्णय का दान भी होता है। अनेक जन कल्याण के काम भी किया। इस क्षेत्र में भूखो को भोजन देने के लिए कुछ ग्गोटे चलाने के लिए एक लाख बीस हजार रूपया जैन कार पर विशेष न तो प्रभाव ही है और न उनके कार्यों समाज की ओर से देने की बात हुई। इस निमित्त से का योग्य मूल्याकन ही होता है। यदि सब जैनी मिल कर चन्दा एकत्र करने के लिए शकुन्तला जन गर्ल्स हाई स्कूल योजनापूर्वक काम करे तो बहुत अच्छा कार्य होकर उसका म सभा बुलाई गई जिसम मण्डल क भूतपूर्व अध्यक्ष परिणाम भी अधिक हो सकता है। यह अनुभव महावीर । अमृतलाल कालिदास दोशी, श्रेयामप्रसादजी, प्रताप भोगीकल्याण केन्द्र की सेवारो को देखकर आता है। लाल, कातिलाल ईश्वरलाल, फूलचन्द शामजी, रतीलाल मनजीभाई, चन्दुलाल कस्तूरचन्द, चिमन भाई, रिषभदास दो साल भी नही हुए बिहार में भीषण अकाल पडा राका, गभीर चन्द, उमेदचन्द, गिरधर भाई दफ्तरी, हीरा था महावीर जयन्ती के अवसर पर चारों सप्रदायो और लाल (ल० शाह आदि उपस्थित थे । रतीलाल मावजी भारत जैन महामण्डल की ओर से सभा बुलाई गई थी। भाई, एक व्यापार से अवकाश प्राप्त गफल व समद्ध व्या उसमे श्री जयप्रकाशनारायण जी को विशेष अतिथि के रूप । पारी है। उन्होने सभा को प्राव्हान किया कि हम कुछ मे निमत्रित किया था। उन्होंने अपने व्याख्यान में बनाया रसोड़ों के लिए रूपये भिजवावे, इससे तो भगवान महा[रक्सगणे] ऐसा कोई पाठ होना चाहिए, जिसे मैने छोड वीर के विहार क्षेत्र में से कुछ हिस्सा लेकर वहाँ हम दिया है । अकोला की ५२ जिनालय वाली मूर्ति का लेख उनके नाम पर काम करे । बात ठीक होने पर भी बिहार यदि दुबारा सावधानी से पढ़ा जाय तो लेख की सभी में जाकर काम करना आसान बात तो थी नही इसलिए अशुद्धियां दूर हो सकती है। और उस पर पर्याप्त प्रकाश सभा मे कहा गया कि बात ठीक है पर वहाँ जाकर पड़ सकता है। कारजामे भट्टारक पीठ रहा है, वहाँ सोमसेन बैठेगा कौन ? वे बोले इसकी चिता मत कीजिए। मैं नाम के चार भट्टारकों का पता चलता है। उन चारों में अपने साथियो को लेकर जाऊँगा और यह कार्य भगवान अभिनव विद्य सोमसेन कौन है ? इसका विचार करना महावीर के कार्यक्षेत्र में उन्ही के नामसे ही होना चाहिए। चाहिए । उनका अभिनव विद्य विशेषण उनसे जुदाई वे बिहार मे कार्यकर्ताओं के साथ गये। वहाँ की स्थिति का बोधक है । प्रादि बातें भी विचारणीय हैं। * का अध्ययन किया और खासकर राजगृह तथा पावापुरी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अनेकान्त विभाग में जहाँ भगवान का बिहार और निर्वाण हुआ था कार्य के लिये खर्च करने का सकल्प कर कार्यकर्ता बाढ़उस क्षेत्र में भगवान महावीर कल्याण केन्द्र के नाम से ग्रस्त विभाग मे पहुँचे । तीन महीने रहे और वहाँ सूरत काम करने का निश्चय किया। इस विभाग मे ४०० गॉव तथा भडौच जिले में आवश्यक काम किया। जितनी के लिए ४० रसोड़े पाँच महीने तक चलाए गये। वहाँ आवश्यकता थी उतनी सहायता कर अब भगवान महावीर स्थानकवासी समाज के बुजुर्ग कार्यकर्ता गिरधर भाई कल्याण केन्द्र के कार्यकर्ता अब राजस्थान के अकालग्रस्तों दफ्तरी भी गए थे जो ममाज से रुपया एकत्र करने में की सहायता को पहुँच गये है। कुशल है। जिसमें २० रसोडे एक पैसे मे एक रोटी के राजस्थान में स्थिति अत्यन्त भयानक है। खासकर हिसाब से भोजन दिया और २० रसोड़े मुफ्त मे भोजन जैसलमेर, बाडमेर, जोधपुर तथा बीकानेर का कुछ हिस्सा बांटने के कार्य में व्यस्त हो गए। महावीर कल्याण केन्द्र भयानक अकाल की चपेट मे आया हुआ है। वहाँ पशुओं कार्यकर्तामो ने ऐसा व्यवस्थित कार्य किया कि बिहार को चारा और पानी न मिलने से बहुत बड़ी संख्या में मर रिलीफ सोसाइटी, मद्रास के जैन संघ, परदेशी संस्थाओं रहे है। हजारो नहीं, पर कहा जाता है कि दो लाख से प्रादि ने अपना उन्हें सहयोग दिया। साधन, साहित्य और अधिक पशु मर गये है। यदि सहायता न पहुँचाई गई तो घन भी दिया। कल्पना यह थी कि इस काम मे ढाई और भी मरने की उम्मीद है । पशुओं को बचाने के लिए लाख से अधिक रुपया लगेगा पर जमा उससे भी अधिक गौ सेवा संघ, सेन्ट्रल रिलीफ कमेटी, राजस्थान रिलीफ हुआ। और रुपया एकत्र करने मे श्रम भी बहुत अधिक कमेटी, मारवाडी रिलीफ सोसायटी आदि संस्थाएं लगी नहीं करना पड़ा। जिससे वहाँ भली भांति कार्य सपन्न हुई है। महावीर कल्याण केन्द्र मानव राहत का कार्य हुआ, और कार्य सपन्न होकर भी केन्द्र के पास कुछ रूपया हाथ में लेकर काम करना चाहता है । कार्यकर्ता वहाँ की बचा, मिलकर किए हुए इस काम का अच्छा परिणाम देख स्थिति का अध्ययन करके भारत जैन महामण्डल की कर समाज के नेताओं ने निश्चय किया कि राहत कार्य राजस्थान शाखा के सहयोग से काम करेंगे। के लिए यह स्थाई संस्था स्थायी काम करे। इस प्रकार राहत का कार्य व्यवस्थित रूप से करने ____ जब भगवान महावीर २५ सौवे निर्वाण महोत्सव के वाली यह सस्था धर्म सप्रदाय या जातिका भेद का विचार कार्य में सहयोग देने के लिए श्री सोहनलाल जी दूगड से न कर मानव राहत का कार्य कर रही है। उसमे सबका कहा गया तो उन्होंने कहा था कि इस अवसर पर साहित्य सहयोग लेती है। राजस्थान के कार्य मे मुख्यमत्री सुखाप्रदर्शनी, सभाये और उत्सव तो हो ही पर कोई ऐसा डिया जी से बात की उन्होने कल्याण केन्द्र के मत्री चिमनजन कल्याण का स्थायी कार्य भी होना चाहिए जिससे लाल भाई से कहा कि आप लोग जितना खर्च वहाँ करेगे करुणानिधि भगवान महावीर की करुणा रचनात्मक कार्य उतना खर्च राजस्थान सरकार की ओर से दिया जाएगा। करे । इसके उदर मे हमने भगवान महावीर कल्याण केन्द्र इस प्रकार कल्याण केन्द्र द्वारा अधिक काम कर सकेगा की जानकारी देकर कहा था कि इस संस्था का प्रारम्भ और कल्याण केन्द्र के अनुभवी तथा सेवा भावी कार्यकर्ता भगवान महावीर जयन्ती के निमित्त से हुआ और इसे द्वारा होने वाले इस काम में जैन समाज ही नही पर सभी २५००वे निर्वाण महोत्सव के कार्यक्रम का ही यह महत्त्व- से प्रार्थना है कि वे अपने क्षेत्र में चन्दा कर महावीर पूर्ण अंग माना जा सकता है। उनकी इच्छानुसार काम कल्याण केन्द्र को भिजवावें । करने वाली इस सस्था के लिए वे स्वय बहुत बड़ी रकम आशा है जैन समाज तथा सभी मानव प्रेमी लोग देने वाले थे पर उनका देहावसान हो गया। जैन समाज अपने क्षेत्र मे चन्दा कर महावीर कल्याण केन्द्र को अधिक का कही भी कोई अच्छा कार्य होता है वहाँ दिल खोलकर कार्य करने में सहायक होगे। महावीर कल्याण केन्द्र का देता है । महावीर कल्याण केन्द्र के विषय मे भी यही दफ्तर एक्जामीनर प्रेस, दलाल स्ट्रीट, बम्बई-१ में है और हुमा । तभी गुजरात में बाढ़ आई तब दो लाख रुपये इस मंत्री है श्रीचिमनलाल चकुभाई शाह । . Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संकृति में योगदान परमानन्द शास्त्री [अनेकान्त वर्ष २१ किरण २ से प्रागे] और वे जैनधर्म के श्रद्धालु ही नही रहे, किन्तु जीवन को बदल कर उदार बनाने का उपक्रम किया । परिषद् में उसका आचरण भी करने लगे। उनका विचार की स्थापना से महासभा का दायरा और भी संकीर्ण बन साहित्य-सेवा और जैनधर्म के प्रचार करने का हमा। गया. और समाज में अनेकता का बीज बपन किया । वे देश की अपेक्षा विदेशो में जैनधर्म का प्रसार एव प्रचार दोनों सस्थाएँ यद्यपि जीवित है और अपना-अपना कार्य करना अधिक उपयुक्त समझते थे । भी कर रही हैं । परन्तु ठोस कार्य नहीं हो रहा । समाज-सेवा: वैरिस्टर साहब ने देश की अपेक्षा विदेश में जैनधर्म वैरिस्टर साहब की समाज-सेवा का उपक्रम सन् का प्रचार किया। उनकी यह हादिक कामना थी कि १९२२ में दि० जैन महासभा लखनऊ के अधिवेशन से विदेशों में जैनधर्म का प्रचार उच्च स्तर पर किया जाय । शुरु होता है जिसके वे स्वय अध्यक्ष थे। उन्होंने अपने जिससे वे जैनधर्म की महत्ता को हृदयंगम कर सके । और उत्तरदायित्व को जिस सतर्कता और सावधानी से निभाया उसके वैज्ञानिक मूल्य को पाक सके । जैनधर्म का सर्वोदयी था वह उनकी दक्षता का एक मापदण्ड हो सकता है। मल उनके मानस मे उद्वेलित हो रहा था उनके है उन्होंने उसके सुधार में बड़ी सतर्कता वर्ती है। उसके उसकी निष्ठा व्यापक हो गई थी। तीर्थक्षेत्रों की रक्षा के कोष को मापने सावधानी से निकलवाया। वे उसके लिए उन्होने कोई कोर कसर नही रक्खी। सम्मेदशिखर सत्रुटित तारों को जोड़कर सक्रिय बनाना चाहते थे परन्तु की पैरवी के लिए लदन भी गये । और जो प्रयत्न उनसे कुछ विचार असहिष्णु स्थिति पालकों को यह कैसे सह्य हो सकता था वह किया। साथ मे बाबू अजितप्रसाद जी हो सकता था? यह विचार असहिष्णुता और सकीर्ण- एडवोकेट लखनऊ ने भी सहयोग दिया। धर्म प्रचार के मनोवृत्ति का परिणाम है कि सन् १९२३ मे महासभा का लिए भी प्रयत्न किया, अनेक भापण उनके वहाँ हुए। अधिवेशन दिल्ली में हुया, उस समय उसके मुख पत्र जन उनके भाषणो के प्रभाव से कुछ लोगो ने जैनधर्म का गजट की दशा सुधारने का प्रश्न आया। उसके लिए अध्ययन भी किया । सन् १९३० मे उन्होने लदन मे जैन सुयोग्य सम्पादकों का प्रश्न प्राया तब किसी सज्जन ने लायब्रेरी (Librav) की स्थापना की। साहित्य-सेवा के वैरिस्टर साहब का नाम उपस्थित कर दिया; किन्तु महा- क्षेत्र में उन्होने जो कार्य किया वह प्रशसनीय है। सभा के सूत्रधारो ने उस योजना को ठुकरा दिया। साथ साहित्य सेवा-वैरिस्टर साहब के द्वारा अनेक ग्रन्थों का ही महासभा को वृद्ध विवाहादि कुरीतियों का सुधार भी निर्माण भी हुआ। उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ की माफ असह्य हो उठा। परिणामतः परस्पर में मत-विभिन्नता नोलेज (Key of Knowledge) है जो ज्ञान की कुजी घर कर गई। के नाम से प्रसिद्ध है, उसका जिन लोगो ने अध्ययन किया इसी मत विभिन्नता में दि० जैन परिषद का जन्म वे वेरिस्टर साहब की-साहित्य-सेवा का मूल्य प्रांक हा, वैरिस्टर सा० ने उसके सचालन में अच्छा योग सकते हैं। उन्होंने अनेक ग्रन्थों और ट्रेक्टों का निर्माण दिया । परिषद् ने मत-विभिन्नता के रहते हुए भी समाज किया है उनमे से कुछ के नामों का उल्लेख नीचे किया हित के अनेक कार्य किये। जनता की संकीर्ण मनोवृत्ति जाता है : Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अनेकान्त १. तुलनात्मक धर्म विज्ञान-Science of Com- रिक्त उनकी अन्य रचनाएँ भी होंगी, जो मुझे ज्ञात नही parativ of Religion). है । इस तरह वैरिस्टर साहब की साहित्य-सेवा अपूर्व है। २. ज्ञान की कुजी-(Kay of Knowledge). वह उनके जैनधर्म विपयक ज्ञानकी महत्ता की द्योतक है। ३. Conffuence of Opposites (असहमत सगम) इस पथ मे ससार के समस्त प्रचलित धर्मों का सामान्य बयालीमवे विद्वान वैरिस्टर जूगमदरदास जी है आप परिचय कराकर उनका तुलनात्मक विवेचन किया है। के पिता जी का नाम लाला पन्नालाल जी था। आप ४. जैन लॉजिक (The Science of Thought) सहारनपुर के निवासी थे। पाप जन्मकाल से ही पूर्व न्याय विषयक एक सुन्दर रचना। सस्कारबश बुद्धिमान थे। आप मेट्रिक्यूलेशन (Matri५. इप्टोपदेश (Discourse Devine) प्रा० पूज्यपाद culation) और इन्टरमीडियेट ( Intermadiate ) देवनन्दी के प्राध्यात्मिक ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद । परीक्षा में बराबर सरकारी छात्रवृत्ति पाते रहे। आपने ६. रत्नकरण्डश्रावकाचार (The Housepolders एम ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। एम. ए. की परीक्षा Dharma) का अंग्रेजी अनुवाद । यह प्राचार्य समन्तभद्र पास होते ही प्राप इलाहाबाद यूनिवसिटी में अग्रेजी भाषा की गृहस्थधर्म विषयक अपूर्व रचना का प्रामाणिक के अध्यापक और छात्रालयों के प्रबन्धक बना दिये गये। तीन वर्ष अध्यापिकी करने के बाद सन् १९०६ में एकभाषान्तर है। ७. व्यावहारिक धर्म-(The Practical Dharma) जेटर कालेज प्रोक्सफोर्ड (Exater College Oxford) यह आपकी स्वतत्र रचना है जिसमे द्रव्यानुयोग का निरू मे द्रव्यानयोग का निरू- लन्दन मे दाखिल हो गये । और सन् १९१० मे वरिस्टर पण किया गया है। होकर स्वदेश लौट आये । पश्चात् आप बम्बई के सेठ ८. सन्यासधर्म (The Sannayas Dharma) इसमें । माणिकचन्द पानाचन्द जी के साथ श्रवणबेल्गोला में बाहमनि धर्म का विचार किया गया है। और समाधिमरण बली के महामस्तकाभिषेक में शामिल हय । मापने रोमन के महत्त्व का दिग्दर्शन है। लॉ (Roman Law) और जैनधर्म की रूपरेखा (Out९. आत्मिक मनोविज्ञान-(Jain Psychology) lines of Jainism) दोनो पुस्तके लदन में छपवाई। इसमें जीवादि सात तत्त्वो का विवेचन किया गया है। भारत में वैरिस्टरी करने में आपको पर्याप्त सफलता १०. जैन संस्कृति (Jain Culture) को समझने के मिली । सन् १९१३ के प्रीवी काउन्सिल (Pravy Counलिए अपूर्व पुस्तक । cil) के एक मुकदमे में आपको लन्दनमे भेजा गया। सन् ११. श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र (Faith Knowledge १६१४ से १६२७ तक आप इन्दौर राज्य के न्यायाधीश and Conduct) इसमे रत्नत्रय का सुन्दर विवेचन किया और व्यवस्थाविधि विधायिनी सभा के अध्यक्ष रहे । बीच गया है। मे पाप सन् १९२० से १९२२ तक निःशुल्क सरकारी १२. जैन तपश्चरण (Jain Penance) इसमें आत्म काम असिस्टेन्ट कलक्टरी (Assistant collector) और उन्नति कारक तपश्चरण की वैज्ञानिकता पर बल दिया अमन सभा (Lengue of Paace and Order) के गया है। सस्थापक मत्रित्व का कार्य भी करते रहे तथा रायबहादुर १३. ऋषभदेव-(Rishabhadeva) इसमें जैनियों उपाधि से भी विभूषित किये गये । के प्रथम तीर्थकर का जीवन परिचय दिया गया है। साहित्य-सेवा :१४. जैन धर्म क्या है ?-(What is Jainism ?) आपने वैरिस्टरी, एव राज्यकीय सेवा और निःशुल्क इसमें वैरिस्टर साहब के भाषणो का सकलन है, जो उन्हो- सरकारी कार्य करते हुए भी अवकाश के समय जैन ने लदन आदि में भाषण दिये थे। इससे वैरिस्टर साहब साहित्य की सेवा का कार्य किया । ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद के उदात्त विचारो का पता चला जाता है। इनके अति- जी ने इन्दौर चतुर्मास में उनके साथ बैठकर तत्त्वार्थाधि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन सस्कृति में योगदान १८७ गम सूत्र, आत्मानुशासन, पंचास्तिकाय, समयसार और जैनी की स्मृति में भी कोई काम करना चाहिए। गोम्मटसार जीवकाण्ड का अग्रेजी भाषा मे अनुवाद किया तेंतालीसवे विद्वान मास्टर बिहारीलालजी चैतन्य है। अग्रेजी भाषा में अनुवाद हो जाने के कारण अग्रेजी पढे- जिनका जन्म बुलन्दशहर मे सन् १८६७ की १५ अगस्त लिखे विद्वान भी उनका अध्यन करने में समर्थ हो सके। वि० सं० १९२४ श्रावण शुक्ला चतुर्दशीके दिन हुआ था। उनका यह उपकार किसी तरह भी भुलाया नही जा आपने सन् १८९१ में फारसी भाषा के साथ एन्ट्रेस पास सकता। और मौलिक प्रस्तावनाओं के साथ उन्हें प्रका- किया । आपके जीवन का लक्ष्य सन्तोष और परिश्रम के शित भी किया । आपने जैन पारिभाषिक शब्दों का एक साथ ज्ञान द्वारा स्व-पर हित करना था। आप (Self कोश भी तयार किया था। पापका हृदय साधर्मी वात्सल्य Made) स्वनिर्मित व्यक्ति थे। उन्होने उपासना और स्वासे परिपूर्ण था और वह कभी-कभी छलक पड़ता था। ध्याय द्वारा अपने ज्ञान को वढाया और शिक्षण द्वारा वैरिस्टर साहब ने सन् १९०४ से 'जैन गजट' अग्रेजी छात्रों को, एव पुस्तको द्वारा जन सामान्य को वह सचित का सम्पादन कार्य भी अपने हाथ में लिया। और उसमें ज्ञान प्रदान किया। उनकी भावना थी कि सभी ज्ञानी बने बराबर योगदान देते रहे। भारत जैन महामडल मे भी और स्व-पर हितो में लगे। जब वे किसी से चर्चा करते वारस्टर साहब ने जान डाली और उसे बराबर प्रोत्साहन तब अपने मजे हये अनुभव से कहते कि सन्तोष से ज्ञानादेते रहे । वे साम्प्रदायिकता से कोशो दूर रहते थे। र्जन कर अपने ज्ञान की निरन्तर वृद्धि करना और उसे आपने अपनी मृत्यु से एक वर्ष पहले ही १४ अगस्त स्वपर हितार्थ जनता को प्रदान करना अपना कर्तव्य है । १६३६ को अपनी जायदाद का एक वसीयत नामा लिख आप सन् १८६३ मे बुलन्दशहर के गवर्नमेन्ट हाई दिया था कि उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति जन हितार्थ एवं जैन स्कूल मे १२) रु. मासिक पर अध्यापक नियुक्त हुए थे। धर्म की रक्षा और जैनधर्म प्रचार में काम आती रहे। पश्चात् क्रमशः अपनी उन्नति करते हुए बाराबकी के सन् १६२७ मे वैरिस्टर माहब का स्वर्गवास हो गया। गवर्नमेन्ट हाई स्कूल मे सहायक अध्यापक के पद पर पहुँच उनके बाद ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी जब तक जीवित रहे गये । और १२०) रु० वेतन पाने लगे। पाप ३० जुलाई उसका कार्य लगन से करते रहे; क्योकि ट्रस्टी जो थे। सन् १९२४ (वि० स० १९८१ मे रिटायर हुए। शिक्षण उनक जीवन के बाद उसका वैसा कार्य नही हो सका। कार्य करते हुएमापने अपने समयको कभी व्यर्थ नही गमाया, ग० ब० सेठ लालचन्द जी ने ब्र० शीतलप्रसाद जी किन्तु साहित्य-सेवा के कार्य में बराबर लगे रहते थे। रिक्त स्थान में बा. जौहरीलाल जी मित्तल की नियक्ति आप हिन्दी उर्द में गद्य-पद्य के लेखक ये। आपने कर ली। और अब बा० लालचन्द सेठी के स्वर्ग- हिन्दी उर्दू में छोटी-बडी लगभग ६१ पुस्तके लिखी है ऐसा वास के बाद सेठ भूपेशकुमार जी उज्जैन को बा० जौहरी सुना जाता है उन पुस्तकों में सबसे बड़ी पुस्तक वृहत् जैन लाल ने ट्रस्टी बना लिया। ट्रस्टी की सम्पत्ति से जो शब्दार्णव नाम का कोष है, जिसके दो भाग प्रकाशित हुए महत्वपूर्ण कार्य होना चाहिए था वह नहीं हो सका । और है। उसमे दूसरे भाग का सम्पादन ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी न उनकी स्मृति में कोई ग्रन्थ ही निकाला गया। मात्र जी ने किया था। भर्तृहरि की नीतिशतक और वैराग्य किसी संस्था या पत्र को आर्थिक सहयोग दे देना ट्रस्ट या शतक का अनुवाद भी आपने किया था। पडित रिखबदास वसीयत के उद्देश्य की पूर्ति नही है। प्राशा है ट्रस्टीजन जी के मिथ्यात्व तिमिरनाशक नाटक के २-३ भाग उर्दू मे ट्रस्ट की सम्पत्ति का विनिमय ट्रस्ट के उद्देश्यों के अनुसार प्रकाशित किये थे। रिटायटर्ड होने पर आप अपना पूरा करने का प्रयत्न करेंगे, जिससे ट्रस्टकर्ता की भावना पूरी समय स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन में व्यतीत करते थे । प्राप हो सके। द्रस्टियों को एक वार ट्रस्ट के उद्देश्यों को की पुस्तके अधिकतर उर्दू मे है, इस कारण मै उनका रस प्रकाशित कर देना चाहिए. जिससे जनता को जे. एल. न ले सका । हां वृहत् जैन शब्दार्णव को मैंने देखा है । जैनी ट्रस्ट के उद्देश्यों का पता चल सके। और मि० अापके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिली। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनेकान्त आपका अवसान वि० स० १६३६-३७ के लगभग हुआ था। तब लखनऊ मे जैन रथोत्सव का कार्य धूमधाम से है । आपके सुपुत्र शान्तिचन्द्र जी है जो विजनौर मे रहते सम्पन्न हुआ था। उस समय बाबू अजितप्रसाद जी ने अपनी १५ वर्ष की अवस्था में एक भाषण दिया था, जो चवालीसवे विद्वान बाबू ऋषभदास जी वकील मेरठ छपाकर वितरित किया गया था। है। जो उन्नीसवीं और बीसवी शताब्दी के प्रारम्भ के सेवा-कार्य :विद्वान थे। उस समय के विद्वानों में आप प्रमुख थे। पाप बाबू अजितप्रसाद जी ने अपनी वकालत करते हुए लाला मन्नुलाल जी बैकर मेरठ के सहोदर थे। और बी. भी जीवन भर समाज सेवा की है। बाबू जी केवल एडए. पास कर वकील बने थे । आप वचपन से ही धार्मिक मोर वोकेट ही नही रहे किन्तु जज और चीप जस्टिस जैसे सस्कारो मे पले थे, इसलिए आपके जीवन मे धार्मिक सम्मानीय पदो पर भी रहे है। सन् १९१२ में आपने संस्कारों का जज मौजद था। देवदर्शन, स्वाध्याय और बम्बई प्रान्तीय सभा के अध्यक्ष पद से एक भाषण पढ़ा पजादि श्रावकोपयोगी कार्यों में बराबर रुचि रखते थे। था । ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी की प्रेरणा प्रापको बराबर शान्तचित्त और सरल परिणामी थे। आपने स्वाध्याय प्रेरित करती रही है। अापने सन १९१३ से जीवन पर्यन्त द्वारा अच्छा धार्मिक ज्ञान प्राप्त किया था। प्राप हिन्दी तक अग्रेजी जैन गजट के सम्पादन का कार्य किया है। उर्दू और अंग्रेजी तीनो भाषाओं मे लिखते थे। आपके आप सन् १६०४ से भारत जैन महामण्डल के कार्यधार्मिक एव समाजिक लेख उर्द के 'जैन प्रदीप', 'जैन कर्ता. मत्री और सभापति भी रहे है। सन १६०५ मे ससार' और अग्रेजी 'जैन गजट' में प्रकाशित होते थे। बनारस स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना हुई थी, तब से इतना ही नही किन्तु 'कलकत्ता रिव्यु' और 'थियोसोफिस्ट' कई वर्ष तक ग्राप जसको पता नामक नेतर पत्रो में भी जैनधर्म सम्बन्धी लेख प्रकाशित थे । सन् १९२३ मे पाप महासभा से पृथक होकर दि० होते थे। आपके कुछ लेखो का संग्रह 'इन लाइट इन्टु जैन परिषद् के संस्थापको मे भी रहे। जैनिज्म' नाम से प्रकाशित हुआ था। सन् १९२३ से २६ तक आप तीर्थक्षेत्र कमेटी की आपने योगीन्द्रदेव कृत परमात्म प्रकाश का अंग्रेजी ओर से सम्मेदशिखर, राजगिरि और पावापुरी आदि में अनुवाद और व्याख्या लिखी थी जो 'सेन्ट्रल पब्लिशिग क्षेत्रो के मुकदमों में हजारीबाग, राची और पटना में रह हाउस प्रारा' से प्रकाशित हुअा है। बाबू सा. जैन प्रदीप कर कार्य किया । और उनसे तीर्थ क्षेत्रों की जो सेवा बन के नियमित लेखक थे। प्रेमी जी कहा करते थे कि बाबू सकी उसमे बराबर अपना योगदान करते रहे । ऋषभदेव जी के देहावसान के बाद जैनप्रदीप भी बन्द हो साहित्य-सेवा :गया। आपकी मृत्यु कब हुई उसकी तिथि वगैरह ठीक बाबू अजितप्रसादजी मे जैनधर्म और उसके साहित्यकी माल्म नही हो सकी पर आपके निधन से जैन समाज को लगन तो थी ही, साथ में ब्र० शीतलप्रसाद जी की प्रेरणा काफी क्षति पहुँची भी उनमे काम कर रही थी। जैन गजट आदि मे कुछ पैतालीसवें विद्वान बाबू अजितप्रसाद जी एडवोकेट लिखते ही रहते थे। परन्तु उनके पास इतना अधिक है। जिनका जन्म सन् १८७४ के लगभग हुआ था । अपके समय नहीं था कि वे स्थायी रूप से साहित्य-सेवा मे जुटे पिता स्वर्गीय देवीप्रसाद जी बड़े ही दूरदर्शी और धार्मिक रहें। फिर भी उन्हे जितना अवकाश मिलता था उसमे प्रकृति के सज्जन थे। वे सन् १८८७ मे लखनऊ अाये थे। समाज-सेवा और तीर्थक्षेत्र रक्षादि के कार्यो से समय उस समय आपकी अवस्था १३ वर्ष की थी। सन् १८८६ निकाल कर कुछ समय साहित्य-सेवा मे भी लगाते थे। में देवीप्रसाद जी ने लखनऊ में 'जैनधर्म प्रवर्धनी सभा' परिणाम स्वरूप बाबू जी ने अमितगत्याचार्य द्वितीय के की स्थापना की थी। उससे लखनऊ जैनसमाज में नवीन सामायिक पाठ का अंग्रेजी मे अनुवाद किया था। और जागृति और जैनधर्म के प्रति विशेष आकर्षण प्राप्त हुआ विक्रम की दशवी शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र के पुरु Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगवालों का जैन सस्कृति में योगदान १८६ पार्य सिद्धथुपाय का भी आपने अंग्रेजी में अनुवाद किया। पाई । यद्यपि प्राज के समान उनकी शिक्षा नही थी कितु जो प्रकाशित हो चुका है। ये सब कार्य आपने अजिताश्रम उस समय के योग्य काम चलाऊ शिक्षण अवश्य था। लखनऊ मे ही सम्पन्न किये। आपकी मृत्यु सन् १९५३- बुद्धि अच्छी होने के कारण आपने अपने कार्य के योग्य ५४ मे हैई है। इसके बाद आपका अजिताश्रम समाज- योग्यता प्राप्त कर ली। सेवा से वचित हो गया, उनके पुत्रादिको को समाज-सेवा वे सादगी को पसन्द करते थे, सादगी में पले थे। का अवकाश भी नहीं मिलता। साधारण वस्त्र पहिनते थे। धोती या पायजामा, खद्दर की __छयालीसवे विद्वान कवि ज्यातिप्रसाद जी है, जो कमीज, कोट और सिर पर गाधी ठोपी या दुपट्टा बाधते देवबन्द के निवासी थे। देववन्द जि. सहारनपुर में है। थे। चरित्र निष्ठ धार्मिकता, सहज स्नेह और प्रसन्न यहाँ मुसलमानो का अरबी फारसीका एक विश्व विद्यालय- रहना यह उनके जीवन के सहचर थे । मैने उन्हें देखा है । (ढारूल उन्लम) भी है जैनियो की भी अच्छी वस्ती है उनके भाषण भी सुने है। उन्होने सारा जीवन समाज और घरो की संख्या ५०-६० से कम नही है। और सेवा में लगाया। व भावक कवि भी थे परन्तु कवितामे चार जिनमन्दिर है। देवबन्द हाथ के बुने मूतो कपड़े कोई खास आकर्षण न था। 'ससार दुख दर्पण उनकी खद्दर दुतई और खेश के लिए प्रसिद्ध है। यह एक पुराना अच्छी कविता है भाषा अत्यन्त सरल है । वे सुधारक तो कस्बा है। और दो तिहाई के लगभग मुसलमानो की थे परन्तु अन्तर कमजोरी के कारण विवाद पाने पर चुप वस्ती है । इसी नगर में बाबू सूरजभान जी और मुख्तार रह जाते थे। लेख भी लिखते थे, पत्रो के सम्पादक भी श्री जुगलकिशोर जी ने वकालत की और जैन गजट का रहे। जैन प्रदीप तो उन्ही का पत्र था। समाज में अच्छी सम्पादन कार्य किया है। और ग्रन्थ परीक्षाएँ लिखी है। ख्याति व प्रतिष्ठा प्राप्त की। स्थानकवासी समाज म इस नगर मे सन् १८८२ वि० स० १६३६ मे बाबू ज्योति- भी समजसबा की। पर समाज ने सेवको को कभी अपप्रसाद जी का जन्म हुया। आपके पिता नत्यूमल जी नाया नही, और न उनको किसी प्रकार का खास सहयोग साधारण दुकानदार थे, और बड़ी कठिनता से अपने कुटुब ही प्रदान किया । यदि सेवको को अच्छा सहारा मिले तो वे का निर्वाह करते थे। लाला नत्थूमल की तीन सन्ताने ममाज को समुन्नत बनाने का और भी अधिक काम कर थी। ज्योतिप्रसाद, जयप्रकाश और एक छोटी पुत्री। सकते है। निर्धनता एक अभिशाप जो है। जब बाबू ज्योतिप्रसाद जी वाब ज्योतिप्रसाद जी की वि० स० १९६४ मे २८ सात वर्ष के थे तभी आपके पिता जी का स्वर्गवास हो मई सन् १९३७ मे ७ महीने की बीमारी के बाद देहा. गया। उस समय आपकी मुसीबत का क्या कहना । उस वसान हो गया। समाज से एक सेवक सदा के लिए चला समय आपकी माता ने अपने चरित्र के सरक्षण के साथ गया। समाज-सेवकों की कमी बरावर बनी रहती है। परिश्रम द्वारा उपाजित पाय से तीनो सन्तानों का पालन उसका कारण समाज का उनके प्रति उपेक्षाभाव है। पोषण और शिक्षण कार्य इस तरह से किया जो अनुकरणीय है । ऐसी माताएँ सदा सम्मान के योग्य होती है। सैतालीसवे विद्वान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार है, जो निर्धनता मे बच्चों की शिक्षा का उचित प्रबन्ध नही हो मरसावा जिला सहारनपुर के निवासी है। आपके पिता पाता । वह माता धन्य है जिसने परिश्रम द्वारा अजित जी का नाम लाला नत्थूमल चौधरी और माता का नाम द्रव्य से अपनी सन्तान को शिक्षित बनाया है। उस समय भूई देवी था । आपका जन्म वि० स० १९३४ सन् १८७७ देवबन्द की जैन पाठशाला में अध्यापक कचीरा जिला मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी के दिन सन्ध्या के समय हया इटावा के निवासी पंडित झुन्नीलाल जी थे जो वैद्य, कवि था। माता पिता का प्राचार-विचार रहन-सहन सादा और ज्योतिषी भी थे। उन्ही से ज्योतिप्रसाद ने विद्या- और धार्मिक था। अतः आप पर भी उसका प्रभाव अकित ध्ययन किया था। उसी पाठशाला में उर्दू की शिक्षा भी रहा । आपके दो भाई और थे, जो दिवंगत हो चुके है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनेकान्त आपकी शिक्षा का प्रारम्भ ५ वर्ष की अवस्था मे सर्वथा अभिभावकों के ऊपर निर्भर रहना अकर्मण्यता है। हो गया। प्रापने मकतब के मुशी जी से उर्दू फारसी का किन्तु मनस्वी जीव को जीवन-संग्राम में स्वाभिमान पूर्वक पढ़ना प्रारम्भ किया। प्रापकी बद्धि अच्छी थी और जीवन व्यतीत करना ही सार्थक है ऐसा प्रापका विश्वास धारणा शक्ति प्रबल थी, इस कारण आपने उर्दू फारसी था। अतएव आपने अपनी रुचि के अनुसार उपदेश द्वारा का अच्छा ज्ञान जल्दी ही प्राप्त कर लिया। आपने जनता को जाग्रत करने का कार्य श्रेष्ठ समझकर उपदेशक हकीम उग्रसेन जी द्वारा सस्थापित स्थानीय पाठशाला मे का कार्य पसन्द किया। आप बम्बई प्रान्तिक सभा के हिन्दी सस्कृत का अध्ययन किया । सस्कृत भाषा का अच्छा उपदेशक हो गए। इस कार्य के लिये आपको पारिश्रमिक ज्ञान प्राप्त होते ही आपकी रुचि जैन शास्त्रो के अध्ययन भी मिलता था परन्तु विचार करने पर इस कार्य मे भी की हई। परिणाम स्वरूप रत्नकरण्डश्रावकाचार, तत्त्वार्थ उदासीनता पाने लगी । और आपने सभवतः दो महीने से सूत्र और भक्तामरस्तोत्र आदि का अध्ययन किया। पहले ही उपदेशकी से स्तीफा दे दिया। क्योकि आपकी प्रापका १३-१४ वर्ष की अवस्था में विवाह हो गया उन्ही विचार धारा स्वतंत्र जो थी उसमे परतत्रता का अंश भी दिनों सरसावा मे अग्रेजी का एक स्कूल खुला जिसमे नहीं था। एक स्वाभिमानी व्यक्ति के लिये अवैतनिक रूप मास्टर जगन्नाथजी अध्यापन कराते थे तब आपने अग्रेजी में कार्य करना उचित है। यह विचार भविष्य में आपके का पांचवी कक्षा तक अध्ययन कर लिया। इसक बाद जीवन के लिये सुखद हा । और आपने स्वतत्र व्यवसाय सहारनपुर के स्कूल में दाखिल हुए और नौवी कक्षा तक करने का विचार किया। परिणामस्वरूप मुख्तारकारी अध्ययन किया। कारण वश स्कूल में जाना छोड दिया का प्रशिक्षण प्राप्तकर सन् १६०२ में मुख्तारकारी की किन्तु प्राइवेट रूप मे एन्ट्रेन्स की परीक्षा में उत्तीर्णता परीक्षा पास की। और सहारनपुर मे ही प्रैक्टिस शुरु कर प्राप्त की, मैट्रिक की परीक्षा में सफलता मिलने के बाद दी। सन् १६०५ मे प्राप देवबन्द चले गये और वहां आपके समक्ष जीवन का संघर्ष कठोरतमरूप में उपस्थित अपना स्वतन्त्र कानूनी व्यवसाय करते हुए आप बराबर होने लगा; क्योकि आप गृहस्थ जो थे और यह समझना समाज-सेवा के कार्यों में भाग लेते रहे। उचित था कि योग्य होने पर अपनी आजीविका का (क्रमशः) निर्वाह स्वय ही करना चाहिये । उस अवस्था मे भी साहित्य-समीक्षा १. प्रादिपुराण में प्रतिपादित भारत-लेखक डा० स्थितिका अच्छा निदर्शन है। यदि उसे जैनोका महाभारत नेमिचन्द्र शास्त्री एम. ए. डी. लिट् । प्रकाशक, मत्री श्री कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। डा० नेमिचन्द्र गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला १/१२८ डुमराव बाग, अस्सी- शास्त्री ने अपने गम्भीर अध्ययन और प्रौढ लेखनी द्वारा वाराणसी-५। प्राकार डिमाई साइज, पृ० संख्या ४३८. आदिपुगण मे प्रतिपादित रत्न सम्पदा का पाण्डित्यपूर्ण मूल्य बारह रुपया। विवेचन किया है। ग्रन्थ सात अध्यायो में विभक्त है। ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है। प्राचार्य प्रथम अध्याय में आदिपुराण और उसके कर्ता जिनसेन के जिनसेन का प्रादिपुराण जैन सस्कृति के बहुमूल्य उपादानों जीवन तथा उनके कर्तृत्व पर प्रकाश डाला गया है। का प्राकार है । इसमें नौवीं शताब्दीके भारतकी सांस्कृतिक दूसरे अध्याय में प्रादिपुराण में प्रतिपादित भूगोल का Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १९१ वैदिक पुराणों में प्रतिपादित भूगोल के साथ तुलनात्मक था। इस चरित ग्रथ की रचना महाकवि वीर ने वि० समीक्षा करते हुए, जनपद, गाव-नगर, राजधानी, नदियाँ, सं० १०७६ मे माघ शुक्ला दशमी के दिन पूर्ण की थी। पर्वत, वनप्रदेश, वृक्ष सम्पत्ति, जीवजतु और पशु जगत् ग्रन्थ अपभ्रश भाषा की १० सन्धियो मे पूर्ण हुआ है। का चित्रण किया है । तृतीय अध्याय में समाजगठन, कुल- जम्बू स्वामी की लोकप्रियता का सबसे बड़ा उदाहरण कुर, समवसरण, चतुर्विधसघ साधु, गृहस्थ और वर्ण विविध भाषामो मे विविध विद्वानों और कवियो द्वारा जाति प्रादि सामाजिक सस्थानो और रीति-रिवाजों का रची गई शताधिक रचनाएं है । जो उनके जीवनकी महत्ता विवेचन है । चतुर्थ अध्याय मे अन्न, भोजन, पक्वान, फल, पर प्रकाश डालती है। जम्बू स्वामी कथा की दीर्घ पेयपदार्थ, वस्त्र, आभूषण प्रसाधन सामग्री, वाहन, विनोद परम्परा, कथा का मूल स्रोत और उसका तुलनात्मक क्रीडा और कलागोष्ठी आदि सास्कृतिक विषयो का अध्ययन कवि वीर के जम्बू स्वामा चरित्र की विशेषता के अच्छा दिग्दर्शन कराया है। यह अध्याय महत्वपूर्ण है। निदर्शक है। क्योकि इसमे तत्कालीन समाज के रहन-सहन, गोष्ठी डा. विमलप्रकाश जैन ने अपभ्रश भाषा के मूल विनोद आदि का सजीव चित्रण है। पचम अध्याय में । ग्रन्थ का ललित हिन्दी में अनुवाद किया है। साथ ही ग्रथ शिक्षा का स्वरूप और शिक्षा से सम्बद्ध विषयो का- की १४८ पेज की महत्वपूर्ण प्रस्तावना मे ग्रन्थ और प्रथललित कला, चित्र कला, वाद्य, नृत्य गीत आदि का कार के सम्बन्ध में विस्तृत समीक्षात्मक अध्ययन उपस्थित विचार है। छठवे अध्याय मे कृषि प्रादि आजीविका के किया है जिसमें प्रथ के महाकाव्यात्मक लक्षणो, विषय से साधन, असिमसि कृपि, आदि राजनैतिक विचार, अस्त्र-शस्त्र सम्बद्ध विभिन्न चरित्रो, विषय के अभ्यन्तरवर्ती उपाख्यानो नामावली और युद्धादि का कथन दिया है। सातवे अध्याय काव्यग्सो, अलकारो. काव्यगुणों, छन्दो रीति, भाषा, मे धर्म और दर्शन का विवेचन है। मुभाषित लोकोक्तियो और कथा-कहानियो आदि का आदिपुराण का सभी दृष्टियो से विवेचनात्मक मन्दर चित्रण किया है। साथ ही सामाजिक अवस्था भौअध्ययन उपस्थित करने वाला यह प्रथम अथ है। इस गोलिक स्थिति, नागरिक जीवन और वैवाहिक पद्धति का ग्रथ का भारतीय विद्वत्समाज मे अवश्य ही समादर प्राप्त भी दिग्दर्शन कराया है। मूलानुगामी अनुवाद क साथ होगा । और जैन पुराणो के अध्ययन की और विद्वानो सस्कृत टिप्पण और शब्दकोष के कारण ग्रन्थ पठनीय एव की अभिरुचि बढेगी। ग्रथ का प्रकाशन सुरुचिपूर्ण है। सग्रहणीय हो गया है। सम्पादक को वीर कवि के 'जम्बूइसके लिए लेखक और प्रकाशक दोनो ही धन्यवाद के । मामीचरिउ' के आधार से जम्बू स्वामी के आलोचनात्मक पात्र है। निबध पर जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर से पी. एच. २. जबूस्वामि चरिउ (मूल हिन्दी अनुवाद और डी. की डिगरी की प्राप्त हुई है, जिसके लिए संपादक प्रस्तावना सहित)-सम्पादक डा. विमलप्रकाश जैन एम. धन्यवाद के पात्र है। भारतीय ज्ञानपीठ का यह प्रकाशन ए. पी. एच.डी. रीडर सस्कृत पालि प्राकृत विभाग जबल- उसके अनुरूप हा है। ग्रन्थ की छपाई सफाई गेटप सभी पुर विश्वविद्यालय, जबलपुर । प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ सुन्दर है। पाठको को इसे मगा कर अवश्य पढना चाहिए। वाराणसी पृष्ठ सख्या ५०२ मूल्य सजिल्द प्रति का १५) ३. लेश्या-कोश-सम्पादक श्री मोहनलालजी वाठिया रुपया। और श्रीचन्द जी जैन चोरडिया। प्रकाशक मोहनलाल प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है । अन्थ वाठिया १६ सी डोवार लेन, कलकत्ता-२६ । प्राकार मे जम्बू स्वामी का जीवन-परिचय दिया गया है। जम्बू डिमाई, पृष्ठ संख्या ३००, मूल्य दस रुपया। स्वामी ऐतिहासिक महापुरुष है, जो भगवान महावीर के साक्षात्शिष्य सुधर्म स्वामी द्वारा दीक्षित अन्तिम केवली वाठिया जी ने जैन विषय कोश ग्रन्थमाला स्थापित थे। जिनका परिनिर्वाण सन् ४६३ ईस्वी पूर्व मे हुआ की है। उसका यह प्रथम पुष्प है जिसे आपने दशमलव Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ अनेकान्त प्रणाली से जैन विषयों का वर्गीकरण करके इस लेश्या ४. जिनेन्द्र पञ्च कल्याणक स्मारिका-सम्पादककोश की रचना की है। भागमों मे लेश्या के सम्बन्ध में श्री पं पन्नालाल जी साहित्याचार्य आदि, प्रकाशक-श्री जो कुछ भी कहा गया है, उसको विषय वार सकालत सागरचन्द जी दिवाकर एम० ए० प्रधान मंत्री जि. पच किया गया है। लेश्या सम्बन्धि विषयों की संख्या १०० के कल्याणक समिति सागर । लगभग है। उनमे मुख्य विषय निम्न प्रकार है :- गत वैशाख मास में सागर में सम्पन्न हुई पंच कल्याणक द्रव्यलेश्या (प्रायोगिक) द्रव्यलेश्या (विस्रसा) भावलेश्या, प्रतिष्ठा की स्मृति स्वरूप यह स्मारिका उक्त प्रतिष्ठा लेश्याजीव, सलेशीजीव, लेश्या और विविध विषय और सम्बन्धी कार्य-कलाप के प्रचारार्थ की गई है। स्व० लेश्या सम्बन्धी फुटकर पाठ । इनके अन्तर्गत अनेक अवान्तर पूज्य १० गणेशप्रसाद जी वर्णीका-निवास सागर में विशेष विषय हैं, जिनका विवेचन ग्रन्थ मे किया गया है-प्रकृत रहा है । उनकी स्मृति को चिरस्थायी रखने के लिए वहां विषयों पर आगमिक वचनों का शाब्दिक अर्थ भी दे दिया लगभग एक लाख रुपयो के व्यय से वर्णी स्मृति भवन है, और जहां आवश्यकता समझी वहां विवेचनात्मक अर्थ और उसके ऊपर बाहुबली जिनालय का निर्माण कराया गया है। जिनालय मे अतिशय मनोज्ञ बाहुबली की विशाल भी दे दिया है। जहा तक मुझे मालूम है किसी जैन विषय पर इस तरह का यह कोश प्रथम बार ही प्रकाशित मूर्ति विराजमान की गई है। उपयुक्त प्रतिष्ठा इसी मूर्ति हुप्रा है । सम्पादको का विचार है कि इस तरह से सभी का हुइ हा जैन विषयो पर कोश तय्यार कर प्रकाशित किये जाय। यह प्रतिष्ठा महत्त्वपूर्ण रही है। इसमे सम्पन्न प्रत्येक इस कोप मे ३२ श्वेताम्बरीय प्रागमों, तत्त्वार्थसूत्र और कार्यक्रम अाकर्षक था। सिंघई प्रकाशचन्द जी ने प्रस्तुत उसके टीका ग्रन्थो का उपयोग किया गया है जिनमे स्मारिका में प्रतिष्ठा सम्बन्धी सभी कार्यों का विवरण दिगम्बरीय सर्वार्थ सिद्धि तत्त्वार्थ राजवातिक और तत्त्वार्थ 'पाखो देखा' शीर्षक मे बहुत विस्तार से दे दिया है। श्लोक वार्तिक गोम्मटसार जीवकाण्ड शामिल है। भविष्य में होनेवाली प्रतिष्ठाओं के लिए यहां का कार्यक्रम आदर्श स्वरूप हो सकता है। कोग के प्रारभ मे हीरा कुमारी वोथरा का प्रामुख है कार्यक्रम के विवरण के अतिरिक्त प्रकृत स्मारिका मे उन्होंने जिन बातो पर प्रकाश डाला है सम्पादको को अन्य कितने ही महत्त्वपूर्ण लेख व भाषण प्रादि भी है तथा उससे लाभ उठाना चाहिये । वे प्राचार्य नेमिचन्द सिद्धान्त प्रतिष्ठा के समय लिये गये बहुत से चित्र भी दे दिये गये चक्रवर्ती की द्रव्य लेश्या की परिभाषा को ठीक नही है। साथ ही आय-व्यय का हिसाब भी दे दिया गया है। मानती उन्होंने उसकी आलोचना की है। किन्तु दिगम्बर प्रतिष्ठा के समय सागर में सम्पन्न हुए भा० दि० परम्परा द्रव्य लेश्याके साथ भावलेल्या का सम्बन्ध नियामिक जैन विद्वत्परिषद् के अधिवेशन की कार्यवाही का भी उसमे नही बतलाता । कुमारी जी ने द्रव्यलेश्या और भावलेश्या सक्षिप्त विवरण है। साथ ही दूर-दूर से प्राकर इस दोनों को एक समझ लिया है जो ठीक नही है। इस तरह अधिवेशन में संमिलित हुए ११६ विद्वानो की नामवली के कोश निर्माण हो जाने पर जैन दर्शन के अध्ययन में भी प्रगट की गई है। विशेष सुविधा हो जायगी। सम्पादक द्वय का यह प्रयत्न गा। सम्पादक द्वय का यह प्रयत्न इस प्रकार यह स्मारिका अतिशय उपयोगी प्रमाणित अभिनन्दनीय है। यहां यह उल्लेखनीय विशेषता है कि ग्रय होगी। छपाई व सजावट भी उत्तम है । इस सुन्दर का मूल्य १०) रुपया रक्खा गया है किन्तु विशिष्ट विद्वानों स्मारिका के सम्पादन व प्रकाशन में जिन्होंने पर्याप्त विश्वविद्यालयों और विदेशों मे निःशुल्क वितरित किया परिश्रम किया है वे श्री प. पन्नालाल जी साहित्याचार्य जायगा । ग्रन्थ मे प्रूफ संशोधन-सम्बन्धि अशुद्धियां और श्री सागरचन्द जो दिवाकर एम० ए० आदि अतिशय खटकती है। -परमानन्द शास्त्री धन्यवाद के पात्र है। -बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री परमानन्द जी बरया देवगढ़ के पुरातत्व का यात्रियों ******************** को परिचय कराते हुए P दिखाई दे रहे है। वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता | .५०) श्री चम्पालाल जो सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता १५०) , कस्तूरचन्द जी प्रानन्बीलाल जी कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०) , प. बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्म चन्द जी, कलकत्ता १५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , शिखरचन जो सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडया), कलकत्ता १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री स० सि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी १० ) , मारवाड़ी दि० जैन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद १०१) ,, सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्डया झमरीतलैया २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नुपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी० पार० सी० जन, कलकत्ता १००) , बद्रीप्रसाद जी प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जो नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००), रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता । १००) , जैन रत्न : गुलाबचन्द गो टोंग्या इन्दौर Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अनीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५.०० (२) प्रा त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र--समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेपणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।। ... २०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-महित ।। १-५० (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... .७५ (७) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। '७५ () शासनचतुस्थिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा०१ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्म कृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४-०० (१२) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित '२५ (१३) तत्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त। ... (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ १६ पैमे, (१६) समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ मे, (१७) महावीर पूजा २५ (१८) अध्यात्म रहस्य-4. प्राशाधर की सून्दर कृति मूख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० (१६) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण संग्रह । '५५ ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स. प० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु० ७.०० (२१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर शासन-सघ प्रकाशन ५.०० (२२) कसायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व धी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १.०० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । (२३, Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े भाकार के ३००१. पक्की जिल्द ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रिता Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमासिक दिसम्बर RE, फरवरी १९६६ 3ণকনি श्री 'युगवीर' स्मृति-अंक **KKKKKXXXKKKKKMMEXKAKK* प्राचार्य जुगलकिशोर मुल्तार 'युगवीर' XXXXXXXXX***************** ******************** जन्म सं० १९३४, मृत्यु २२ दिसम्बर सं० २०२५ समन्तभद्राश्रम (वोर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची जैन . xr २२६ क्रमांक विषय पृष्ठ क्र. विषय १ वीर जिन-स्तवन-जुगलकिशोर मुख्तार १६३ | २० महान साहित्य-सेवी-मोतीलाल जैन 'विजय' २५६ २ कतिपय श्रद्धांजलिया-(विविध विद्वानों और २१ स्वर्गीय प० जुगलकिशोर जी-डा. ए. एन. _ प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा) १६४-२०६ उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् २५८ ३ अमर साहित्य-सेवी-श्री प. कैलाशचन्द सि. २२ जैन साहित्यकारका महाप्रयाण-पं० सरमनलाल शास्त्री २१ । २६२ २३ जो कार्य उन्होने अकेले किया वह बहुतों द्वारा ४ अनुसन्धानके आलोक-स्तम्भ-प्रो०प्रेम सुमन जैन २११ | सम्भव नही-डा० दरबारीलाल जी कोठिया २६३ ५ जैन समाज के भीष्म पितामह-डा० देवेन्द्र २४ श्री जुगलकिशोर जी 'युगवीर' (कविता)कुमार शा० रामकुमार जैन एम. ए. ६ मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व-- २६६ | २५ युगपरिवर्तक पीढ़ी की अन्तिम कड़ी थे युगवीर परमानन्द शास्त्री | था नीरज जैन २६७ ७ उस मृत्युञ्जय का महा -डा. ज्योतिप्रसाद | २६ साहित्य-गगन का एक नक्षत्र अस्त-श्री बलजैन भद्र जैन २६८ ८ गुणो की इज्जत २७ इतिहास का एक युग समाप्त हो गया-डा. ६ मुख्तार सा० की बहुमुखी प्रतिभा-बालचन्द | गोकुलचन्द जेन सि० शा० २२७ २८ प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार-डा० कस्तूर१. वह युग सृष्टा सन्त (गद्य गीत)-मनु ज्ञानार्थी २३२ चन्द कासलीवाल २७३ ११ 'युगवीर' का राष्ट्रीय दृष्टिकोण-जीवनलाल जैन २३३ | २६ इतिहास के अध्याय का लोह-प्रो० भागचन्द १२ साहित्य तपस्वी स्व० मुख्तार सा०-अगरचन्द जैन 'भागेन्दु २७५ नाहटा २२२ ३० युग युग तक युग गायेगा 'युगवीर' कहानी १३ सत्यान्वेषी श्री युगवीर-कस्तूरचन्द एम. ए. २३७ | (कविता)--१० जयन्ती प्रसाद शा. १४ सरस्वती.पुत्र मुख्तार सा०-मिलापचन्द रतन ३१ श्रद्धाजलि (परिशिष्ट)-डा. दरबारीलाल आदि २७७ लाल कटारिया ३२ भावभीनी सुमनाञ्जलि-बाबू कपूरचन्द बरैया २७७ १५ युगवीर के जीवन का भव्य अन्त-डा० श्रीचन्द ३३ सस्मरण-दौलतराम मित्र १-३ जैन सगल २४३ ३४ वीरसेवामन्दिर में प्राचार्य जुगलकिशोर मु० १६ साहित्य जगत के कीर्तिमान नक्षत्र तुम्हे शतशः सा. के निधन पर शोक सभा २८० प्रणाम (कविता)-अनूपचन्द न्यायतीर्थ २४६ | ३५ श्री मुख्तार साहब अजमेर मे-फतेहचन्द सेठी २८२ १७ ऐसे थे हमारे बाबु जी-विजयकुमार चौधरी २५० | ३६ दो श्रद्धाजलियाँ २८१ १८ समीचीन धर्मशास्त्र-चम्पालाल सिंघई पुरदर २५१ , ३७ ५० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ का स्वर्गवास २८४ २६ एक अपूरणीय क्षति-पन्नालाल साहित्याचार्य २५४ | ३५ अनेकान्त के २१वें वर्ष की विषय-सूची २८६ २७६ अनेकान्त का वाषिक मुल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा०प्रेमसागर जेन श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री भनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पावक माल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक अनेकान्त Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Paragl/indi भा. दि. जैन विद परिषद द्वारा अभिनन्दन के अनन्तर--मस्तार साहब Page #213 --------------------------------------------------------------------------  Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनय विलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ - वर्ष २१ । किरण ५-६ । वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६५, वि० स० २०२५ (दिसम्बर १९६८ फर्वर १९६६ वीरजिन-स्तवन मोहादि-जन्य-दोषान् यः सर्वान् जित्वा जिनेश्वरः। वीतरागश्व सर्वज्ञो जातः शास्ता नमामि तम् ॥ शुद्धि-शक्त्योः परां काष्ठां योऽवाप्य शान्तिमुत्तमाम् । देशयामास सद्धर्म तं वीरं प्रणमाम्यहम् ॥ (मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नाम के चार घातिया कर्मो के निमित्त से उत्पन्न होने वाले जो दोष है-राग-द्वेष, मोह, काम-क्रोध-मान-माया-लोभ, हास्य-रति-अरति-शोक-भय ग्लानि, अज्ञान, प्रदर्शन और प्रशक्ति आदि के रूप मे आत्मा के विकार भाव अथवा वैभाविक परिणमन है-उन सबको जीतकर जो जिनेश्वर, वीतराग, सर्वज्ञ और शास्ता हुए है। उन वीरजिन को मैं नमस्कार करता हूँ।) (जो मोहनीय कर्म का क्षय कर शुद्धि को, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का प्रभाव कर ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्ति तथा वीर्य शक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त हुए है । साथही उत्तम-अनुपमसुखरूप परिणत हुए हैं और इन सब गुणों से सम्पन्न होकर जिन्होने समीचीन धर्म की देशना की है उन श्री वीर प्रभु को मैं प्रणाम करता हूँ॥) -जुगलकिशोर मुख्तार Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय श्रद्धांजलियाँ [पाठकों को यह तो विदित हो हो गया है कि जनसमाज के प्रसिद्ध साहित्य तपस्वी, कर्मठ समाज सेवी, प्रसिद्ध इतिहासज्ञ, 'जन हितैषी' और अनेकान्तादि पत्रों के सम्पादक, प्रथित अनुवादक और भाष्यकार, एवं समीक्षक 'मेरी भावना' जैसे राष्ट्रीय नित्यपाठ के अमर स्रष्टा, वीरसेवामन्दिर के संस्थापक प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुल्तार का २२ दिसम्बर १९६८ को स्वर्गवास हो गया है। उनकी स्मृति में जैन समाज के प्रसिद्ध साहित्यकारों, विद्वानों, उद्योगपतियों, पत्र सम्पादकों, समाचार पत्रों और संस्थानों प्रादि ने उनके सम्बन्ध में जो श्रद्धांजलियां भेजी हैं, पौर जो एटा में डा० श्रीचन्द जी 'सगल' के पास पहुंची हैं, उनमें से कुछ को यहाँ दिया जा रहा है।] साहू शान्तिप्रसाद जी जैन : व्यक्तित्व के अनुरूप समुचित सम्मान न कर सका, यह श्रद्धेय पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तार के निधन से सोचकर हमारा मस्तक लज्जा से झुक जाता है। मगर समस्त समाज और साहित्यवर्ग शोकान्वित है। जैन उस निस्पृह निष्काम महापुरुष ने इसकी कभी कामना साहित्य में शोध की परम्परा स्थापित कर उन्होंने स्वयं नही की। ऐसा असाधारण व्यक्तित्व क्वचित् कदाचित् अपना चिरस्थायी स्मारक बना दिया। उन्होंने तो अपना ही किसी समाज को प्राप्त होता है। हार्दिक कामना है तन-मन-धन सभी इस दिशा मे अर्पित कर दिया। ऐसा कि स्वर्गस्थ इस महान् धार्मिक आत्मा को अखण्ड और दूसरा विद्वान समाज मे नही है । इष्टदेव से प्रार्थना है अक्षयशान्ति प्राप्त हो। कि इनकी आत्मा को शान्ति हो । बाबू यशपाल जी सम्पादक 'जीवन साहित्य' पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल : श्रद्धेय मुख्तार सा० के देहावसान का जब दुखित वास्तव में मुख्तार सा० का निधन जैन समाज की समाचार मिला, तो मुझे गहरी वेदना अनुभव हई। इससे विशेषतः दि० जैन समाज की ऐसी क्षति है, जिसकी कुछ समय पूर्व जब मुख्तार सा० दिल्ली आये थे और पूर्ति निकट भविष्य में होती नहीं दिखती। वे महान उन्होंने मेरे घर पर आने की कृपा की थी तब उनके साहित्य सृष्टा, साहित्य तपस्वी, कर्मठयोगी एव तत्त्ववेत्ता शारीरिक स्वास्थ्य को देख कर इतना तो लगा था कि थे। उनकी दीर्घकालिक साधना हमारे लिए स्पृहणीय वाधक्य न उन्हें आक्रान्त कर रक्खा है लेकिन उनसे और अनुकरणीय है। उनकी लेखनी वनमय थी। उन्होने इतना जल्दा विछोह हो जायगा, इसकी मैने कल्पना नहीं जो कुछ लिखा, गम्भीर अध्ययन, चिन्तन और मन्थन के की थी। पश्चात् लिखा और अत्यन्त सुविचारित तथा नपे-तुले मुख्तार सा० जैन समाज के एक विशिष्ट व्यक्ति थे। शब्दो में । कि वह अकाट्य बना रहा । धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र मे उन्होंने जो योग्यदान उनका समग्र लेखन सत्य की अभिव्यक्ति के लिए दिया वह चिरस्मरणीय रहेगा। और स्वान्तः सुखाय था। यही कारण है कि उन्होंने किसी मुझे याद नहीं पाता कि मुख्तार सा० से पहली बार के रुष्ट-तुष्ट होने की परवाह नहीं की। ऐसे निर्भीक कब मिलना हुआ। लेकिन उनकी 'मेरी भावना' के द्वारा लेखको मे उनका स्थान सर्वोपरि है। सभी दृष्टियों से उनसे परोक्ष परिचय बचपन में ही हो गया था। उसका उनका व्यक्तित्व महान् और गौरवशाली। उनकी विद्वत्ता, पाठ मैंने न जाने कितनी बार किया है। आज भी प्रति ठा, संयमशीलता-सभी कुछ प्रादर्श था। दिन करता हूँ। मेरी प्रतीति थी कि इस प्रकार की उदात्त अनेकों बार अावाज उठने पर भी समाज उनके भावनाएँ वही व्यक्ति कर सकता है जिसका अन्तःकरण Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय पांजलियां १९५ निर्मल हो मोर जो समष्टि के हितों में व्यष्टि का हित थे। लेकिन उनका यह स्वप्न कि वीरसेवामन्दिर मौर मानता हो। ___उसका मुखपत्र 'अनेकान्त' लोकोपयोगी बने, अभी तक मुख्तार सा० के जीवन के अधिकांश वर्ष सरसावा अधूरा पड़ा है। उसे पूरा करने की मावश्यकता है। यह और देववन्द में व्यतीत हुए, लेकिन उनकी प्रतिभा और भी जरूरी है कि मुख्तार सा० का जो साहित्य पुस्तक साधना संकुचित क्षेत्र तक सीमित नही रही। अपनी रूप में प्रकाशित नही हुआ वह विधिवत रूप से पाटको एकान्त साधना के द्वारा उन्होंने जैन समाज को वह दिया, को सुलभ हो। इसके साथ ही मुख्तार सा० की एक जो बहुत कम विद्वान और साधक दे पाए है। उन्होंने विस्तृत जीवनी भी होनी चाहिए। अनेकान्त को भी अधिक अपने अन्वेषण द्वारा बहुत सी उन मान्यतानों का खडन लोकोपयोगी बनाना होगा। किया जो समाज को विभ्रम में डाले हुए थी। इतना ही ये तथा ऐसे और भी अनेक कार्य है जो मुख्तार सा० नही, उन्होंने शास्त्रीय विषयों पर अपनी लेखनी चलाकर के हितैषियों तथा प्रशंसकों को तत्काल हाथ मे ले लेना जैन जीवन को शुद्ध और प्रबुद्ध बनाने का प्रयत्न किया। चाहिए । यही उनके प्रति सर्वोत्तम श्रद्धाजलि है। मुख्तार सा० अत्यन्त परिश्रमशील व्यक्ति थे । जब मैं मुख्तार सा० को अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित दिल्ली पाकर वे स्थायी रूप से रहने लगे तो उनसे प्रायः करता हूँ और कामना करता हूँ कि उनकी सेवाएँ और भेंट हो जाया करती थी। मैं देखता था कि सादा और प्रेरणा चिरकाल तक जैन समाज को मार्गदर्शन करती सात्विक जीवन व्यतीत करते हुए वे निरन्तर धर्म और रहे। साहित्य की उपासना में लीन रहते थे। यद्यपि उनका प० कैलाशचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री : विषय मुख्यत: जैनदर्शन और जन साहित्य था, तथापि जिन्होने प्राचार्य समन्तभद्र, यतिवृषभ, पूज्यपाद, अकउनकी रूचि और भी बहुत से विषयो मे थी। मुझे स्मरण लंक, पात्रकेसरी, विद्यानन्द जैसे महान् प्राचार्यो के समहै कि उन्होंने मेरे प्रवास-सम्बन्धित लेखमालायो को पढ गट माय विटतापर्ण प्रकाश डाला। पुरानी बातो कर अनेक बार मुझसे उनके सम्बन्ध में चर्चा की थी। की खोज द्वारा अनेक अनुपलब्ध और विस्तृत ग्रन्थरत्नो और एक बार बड़े ही प्राग्रह के साथ मुझसे अनेकान्त के को प्रकाश में लाया। ग्रन्थपरीक्षा के द्वारा प्राचार्यों के लिये एक कहानी लिखवाई थी। नाम पर रचित जाली कृतियो का पर्दा फाश करके साहित्य दिल्ली पाने पर मै उनका हेतु वीरसेवामन्दिर की के विकार को प्रस्फुटित किया, उन विस्तीर्ण साहित्यसेवी प्रवृत्तियो को कुछ सघन और व्यापक बनाना था। उसी प्राक्तन विमर्शविचक्षण मुख्तार सा० के प्रति में अपनी दृष्टि से यहाँ पर वीरसेवामन्दिर के भवन का निर्माण विनम्र श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ। हुमा लेकिन बड़े स्थानों की और बड़े कार्यों की कुछ मर्यादाएँ भी होती है, वे कुछ ऐसे तत्त्वो को जन्म देती प्रो० प्रेमसुमन जी जैन : है । जो कार्य में सहायक नहीं होते। वीरसेवामन्दिर का प्रादरणीय श्री मुख्तार जी के निधन से निश्चितरूप विशाल भवन मुख्तार सा. के स्वप्नों को चरितार्थ करने जन विद्या के अध्ययन और अनुसन्धान के क्षेत्र मे एक मे असमर्थ रहा। पर मुख्तार सा० की लगन और कर्मठता सशक्त मालोचक एवं साहित्य-सृष्टा की कमी हुई है। विरोधी तत्त्वो के सामने निरन्तर मन्द पड़ती गई। और अपने जीवन के अन्तिम दिनों में श्री मुख्तार जी जैन अन्तिम दिनों में तो मैने देखा कि वह बहुत ही निराश हो ) साहित्य की सेवा में रत रहे यह उनकी कार्य क्षमता एवं गये थे। सच्ची लगन का प्रमाण है। श्री मुख्तार जी ने यद्यपि अपने जीवन के सीमित वर्षों में एक व्यक्ति जितना विविध प्रकार के विपुल साहित्य की रचना की है, किन्तु कर सकता है। उससे कही अधिक काम मुख्तार सा० ने पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्हें अद्वितीय कहा जा सकता है। कर दिखाया । वस्तुतः वह व्यक्ति नहीं बल्कि एक संस्था उनकी समस्त रचनाओं से परिचित कराने के लिए प्रति Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ मनेकान्त होगी। निधि रचनामों का एक संग्रह अवश्य प्रकाशित किया उत्तरोत्तर उन्नत होते जायंगे । मैं हस्तिनापुर ब्रह्मचर्याजाना चाहिए। वही उनके प्रति हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि श्रम की चोथी श्रेणी का विद्यार्थी रहा हगा, कि तभी से मुख्तार सा० का लाभ मेरे चित्त में श्रद्धेय स्थान बना डा. प्रद्युम्न कुमार जी जैन : बैठा और वह अन्त तक मेरे लिए उसी प्रकार सम्माननीय जैन जगत का अद्भुत रत्न विलुप्त हो गया-यह बने रहे। जानकर हृदय को करारा धक्का लगा। ऐसा प्रतीत हुआ यह मेरा सौभाग्य था जैसे छुटपन मे मुझे उनका जैसे कि मुख्तार प्रणीत 'मेरी भावना' दोलायमान हो उठी आशीर्वाद प्राप्त हुआ वैसे ही आगे जा कर भी मैं उनका हो । और जीवन की सारहीनता के सम्पूर्ण स्व का अना- स्नेह भाजन बना रहा । मैं अपनी विनम्र श्रद्धाजलि प्राप वरण हो गया हो। प्रातः स्मरणीय १० जुगल किशोर के द्वारा उनकी स्मृति के प्रति अर्पित करता है। मुख्तार जी जैन वाङ्मय के गौरव प्रतीक थे। पुरातन की परमानन्द शास्त्री खोज एवं भावी के सृजन के अद्भुत सामजस्य थे वह। मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी इस युग के महान विद्वान, मेरा प्रत्यक्ष परिचय न होते हुए भी मुझे मुख्तार जी का साहित्य सर्जक, मार्मिक टीकाकार, मान्यसम्पादक, व्यक्तित्व सदैव परिचित सा लगता रहा। वाणी के इस प्राक्तन विद्याविमर्श विचक्षण और इतिहासज्ञ थे। वे धनजय से समाज को काफी बड़ी प्राशाए थीं। बा० प्रबल सुधारक, अच्छे लेखक एव उग्र समीक्षक थे। पहले कामताप्रसाद जी के निधन के बाद जैन जगत को यह मै उन्हें 'मेरी भावना के सर्जक के रूप मे परोक्ष रूप से दूसरी बडी क्षति इतने अल्प समय मे ही भोगनी पड़ेगी- जानता था । किन्तु सन् १९३६ से अब तक मैं उनके यह कोई नहीं जानता था। इन रिक्त स्थानो की पूर्ति सानिध्य मे रहा । उनके साथ कार्य किया। और उनके हेतु जनमानस को कठिन प्रतीक्षा ही करनी होगी। कार्यों में यथासाध्य सहयोग भी देता रहा. उनके अनुभव मैं अपनी सहज समवेदना उस सम्पूर्ण शोक सतप्त एव निर्देशों से लाभ भी उठाया। उनका जीवन एक परिवार के साथ एकाकार करता हूँ जो दिवगत भव्यात्मा साहित्यिक जीवन था, उनमे साहित्य के प्रति अदम्य के प्रत्यक्ष विछोह की वेदना सहन कर रहा है । पडित जी उत्साह और लगन थी। इसी कारण वे साहित्य तपस्वी के रूप में उल्लेखित किये जाते है। उनकी रचनाएँ प्रौढ़ तो निकटभव्य थे ही और उनका क्षयोपशम भी तीव्र था। और प्रामाणिक है। उनकी स्मृति और याददाश्त मुझे पूर्ण प्राशा है कि उनकी प्रात्मा को सद्गति प्राप्त (धारणा) प्रबल थी। वे लिखने से पूर्व उस पर गहरा हुई होगी। विचार करते थे, तब कही उस पर लेखनी चलाते थे। जैनेन्द्रकुमार जी जैन उनके अनुवाद करने की पद्धति निराली थी। वे बहुत स्वर्गीय श्री मुख्तार जूगलकिशोर जी मानों इस धीरे-धीरे लिखते, किन्तु उसे बार बार पढ़ते थे। और शताब्दी के जन संस्कृति और जागृति के मूर्तिमान इतिहास शब्दों का जोड़ इस तरह से बैठाने का प्रयत्न करते जिससे थे। उनकी लगन और अध्यवसाय अनुपम, जैन वाङ्मय उसमें विरोध और असम्बद्धता उद्भावित न हो सके। और पुरातत्त्व की दिशा में उनकी सेवाए बेजोड़ रही। उनके समीक्षा ग्रन्थ जैन संस्कृति के अमूल्य रत्न है। उनके स्थान को किसी तरह भी भरा नही जा सकता, और विद्वानों के मार्गदर्शक, उनके गवेषणात्मक लेख जैन समाज उनका सदा ऋणी रहेगा। उनकी 'मेरी भावना अत्यन्त महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक तथ्यो के उद्भावक जैन घरों में ही नही जनेतर परिवारो मे भी प्रचारित तथा भ्रान्ति के उन्मूलक है। उनकी व्याख्याएं कठिन हई। और लगभग उनका नित्य पाठ बन गई । उनके विषय को भी सरल एव सुबोध बनाती हैं। दार्शनिक द्वारा स्थापित अनेकान्त और वीर सेवामन्दिर उनकी ग्रन्थों की टीकाएँ भी उनके तलस्पर्शी पाण्डित्य की द्योतक ऐसी यादगार है जो भाशा है समाज के सहयोग से है। वे वीरसेवामन्दिर जैसी संस्था के सस्थापक थे । उनकी Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय भांजलियां १६७ भावना संस्था द्वारा इतिहास और प्राचीन साहित्य के अनुपम कृतियो को नूतन विद्वत्तापूर्ण एवं नई खोजों के अनुपलब्ध ग्रंथों का अन्वेषण कर उन्हें प्रकाश में लाना साथ समाज के सामने रखना पाप का ही कार्य था। मै था, जिससे जैन संस्कृति की महत्ता ख्यापित हो। समझता हू निकट भविष्य में श्री मुख्तार साहब के स्थान वे अनेकान्त के संस्थापक और सम्पादक थे। उसमें की पूर्ति होना संभव नहीं है। प्रकाशित लेखों द्वारा जैन साहित्य और इतिहास की डा० ज्योतिप्रसाद जी लखनऊ : अनेक गुत्थियां सुलझाई गई, अनेक अनुपलब्ध ग्रन्थों का अन्वेषण कर प्रकाश में लाया गया, और अनेक प्राक्तन विद्या विचक्षण, वाइमयाचार्य, सिद्धान्ताचार्य आदि उपाधि विभूषित स्वर्गीय आचार्य जुगलकिशोर जी प्राचार्यों, विद्वानो भट्टारको और कवियो का परिचय भी। मुख्तार 'युगवीर' स्वामी समन्तभद्र के अनन्य भक्त, प्रकाशित किया गया। समन्तभद्र भारती के अद्वितीय उद्योतक, महान् पाराधक, मुख्तार साहब स्वय एक साहित्य सस्था थे। निर्भीक सुकवि, टीकाकार, समालोचक, सम्पादक साहित्यकार, लेखक और शोधक थे। वे साहित्य सृजन मे इतने सलग्न समाजसुधारक, स्थितिप्रज्ञ साधक और नि.स्वार्थ सस्कृतिएव तन्मय हो जाते थे कि उन्हें उस समय बाह्य बातो का सेवी थे। ११ वर्ष की दीर्घ आयु मे उनका निधन न कुछ भी ध्यान नही रहता था। वे सच्चे अर्थो मे युगवीर आकस्मिक ही था और न असामयिक ही। तथापि उसके थे । मैं उन्हे अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ। फलस्वरूप भारतीय विद्या के क्षेत्र को और विशेष कर श्री पं० बालचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री जैन जगत को जो क्षति पहुँची है वह अपूरणीय है । उनका ___ साहित्यतपस्वी श्रद्धेय मुख्तार सा० बहमुखी प्रतिभा के सफल जीवन एवं कृतित्व वर्तमान तथा भावी पीढियो के धनी थे। वे अन्तिम समय तक साहित्य साधना मे निरत लिये एक सबल प्रेरणास्रोत एव पालोक पुज्ज बना रहेगा, रहे है । यद्यपि मुख्तार सा० आज हमारे बीच मे नही है, इसमे कोई सन्देह नहीं है। इस महामनीषी चिरसाधक पर उन्होने जो ऐतिहासिक क्षेत्र मे अभूतपूर्व काम किया की पुनीत स्मृति मे अपनी विनम्र श्रद्धाजलि समर्पित करने है वह इतिहास में अमिट रहने वाला है । उससे सशोधको ___ का अवसर प्राप्त करना भी परम सौभाग्य है ----वैसा करते का मार्ग प्रशस्त व निरापद हो गया। प्रख्यात इतिहास- हुये मै अपने आपको धन्य मानता हूँ। कार होने पर भी उनकी तकणाशक्ति व वैदुप्य कुछ कम प० विजयकुमारजी चौधरी एम.ए. नही था। इसी के बल पर उन्होने युक्त्यनुशासन व शान्तिवार जैन गुरुकुल, जोबनेर : देवागमस्तोत्र जैसे ताकिक ग्रन्थो के साथ तत्त्वानुशासन और योगसार-प्राभूत जैसे अध्यात्मप्रधान सैद्धान्तिक ग्रन्थों वीर वाङ्मय की साधना में निरन्तर लीन रहने वाले पर भी उच्चकोटि की व्याख्याओं की रचना की है। वे इस " इस महान् साहित्य तपस्वी प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार के वियोग से जैन साहित्य ससार पर अनभ्र वज्रजो सुधारक माने जाते थे सो यथार्थ में ही सुधारक थे। पु उनका त्यागमय जीवन अतिशय धार्मिक रहा है। ऐसे । पात हुआ है । श्री मुख्तार साहब ऐसे दधीचि थे जिन्होने स्थितिप्रज्ञ के प्रति स्वभावतः नतमस्तक हो जाना साहित्य देवता की प्रागधना में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। जैन साहित्य के तो वे महारथी थे। उन्होंने दि० पड़ता है। जन प्राचार्य परम्परा के विलुप्त एव अनुपलब्ध इतिहास रा० ब० सेठ हरखचन्द जो पाण्ड्या रांची को जिस गहराई के साथ खोजकर उसे सकलित किया मुख्तार सा० सचमुच में युगवीर, साहित्यमनीषी, उससे जैन सस्कृति का महान उपकार हुआ है । इस महान् समाजसेवक एवं आदर्श विद्वान थे। उनका जीवन इतर साहित्य तपस्वी की साधनामों का पूरा उल्लेख लेखनी से विद्वानों के लिये प्रेरणा प्रद था। वयोवृद्ध अवस्था में भी हो नहीं सकता। अब हमारे पास इसके सिवाय क्या चारा निरंतर साहित्य-सेवा में जुटे रहते थे। पूर्वाचार्यों की है कि हम उनके पुण्य-स्मरण से प्रेरणा प्राप्त करें। स्वर्ग Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अनेकान्त में विराजमान उन्हें वीर-वाणी के प्रचार-प्रसार की चिन्ता भान वकील के समीप रह कर मुख्तार गिरी प्रारम्भ कर अवश्य होगी, जिस काम को उन्होने अधुरा छोड़ा उसे हम दी । दस वर्ष तक उसमें पर्याप्त प्रगति की । और आपका सब अनुयायियों को आगे बढ़ाना प्रथम कर्तव्य है। उस अध्ययन निरन्तर चलता रहा। फिर उस कार्य से दोनों साहित्य-तपस्वी के प्रति हम भाव भरी श्रद्धांजलि अर्पित [को घृणा हो गई। फलतः चलती हुई प्रेक्टिस को दोनों करते है। ने यकायक छोड दिया। फिर सत्योदय, जैन प्रदीप पादि श्रद्धा के फूल पत्रों का प्रकाशन किया। आप में दान शीलता, उदारता, विनय, सौजन्य सादगी और सच्चरित्रता प्रादि सभी गुण बा० सूरजभान जी जैन 'प्रेमी' प्रागरा : विद्यमान थे। उनमें वात्सल्य का भाव भरा हुआ था। संसार की परिवर्तन शीलता के वशीभूत होकर अनेक अपरिचित व्यक्ति मे उनसे मिलने पर प्रात्मीयता के भाव मानव इस ससार में आते है। और चले जाते है। ऐसे ही जगृत हो जाते थे। और यह अनुभव करने लगता था कि मानवों में कुछ ऐसी विभूतियों का प्रादुर्भाव होता है। न जाने प्राचार्य जी के साथ कितना प्राचीन पोर घनिष्ट जिनकी ससार को बड़ी जरूरत होती है। वे ससार मे परिचय है। अपनी जीवन यात्रा करते हुये, शुभ कार्यो का उपार्जन इसके पश्चात् आपने अपनी जन्मभूमि सरसावा मे कर अपनी यश पताका ससार मे फहरा जाते है। इसी अपनी जायदाद पर ही वीरसेवामन्दिर की स्थापना की। कारण से उनका नाम चिरस्मरणीय हो जाता है। उनका फिर इक्यावन हजार का दृस्ट बना कर शोध कार्य प्रारम्भ लक्ष्य मानव प्रगति की ओर रहता है और स्वार्थमयी किया। भारत स्वतन्त्र होने पर आपने वीरसेवामन्दिर भावनाये उन पर अपना प्रभाव नही जमा पाती। उनकी का विशाल भवन बाब छोटेलालजी कलकत्ताके सौजन्य से उदारता, सच्चरित्रता एवं कल्याणकारिणी धामिक दरियागज दिल्ली में निर्माण कराया। जो अाज तक शोध प्रवृत्तियों से व्यथित मानव समाज को सुख शान्ति प्राप्त और साहित्य का कार्य कर रहा है। इसकी व्यवस्था ५० होती है। उनके व्यक्तित्व के प्राकर्षण से मनुष्य ऐसी परमानन्द जी शास्त्री के हाथ में है। इससे आचार्य जी का विभूतियो के सन्निकट पहुँच कर आत्मिक शान्ति का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। अनुभव करता है। आपने अपनी अधिकांश सम्पत्ति का सदुपयोग सम्यगपूर्व जन्म की कठोर तपस्या और शुभ सस्कारों से ज्ञान के प्रचार और प्रसार के लिए किया, और वीर सेवा ही किसी विशेष व्यक्ति को ये गुण ससार की भलाई के मन्दिर के द्वारा उच्च कोटि के प्रथों का प्रकाशन किया लिये प्रेरित करते है। वस्तुत: सफल जीवन ही मार्ग- था। और वही से अनेकांत पत्र लगभग २० वर्ष से प्रकादर्शक है। ऐसे सत्पुरुषों की जीवन गाथा मानवता के शित हो रहा है । उदात्त गुणों का प्रकाश कर मानव को मानवोचित शील यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि मुख्तार साहब ने लगभग ७० संयम, सत्य और अहिया का पाठ पढ़ाती है। ऐसी दिव्य वर्ष तक जैन समाज और साहित्य की सेवा की है। प्राप प्रात्माओं मे वाङ्गमय विद्वान राष्ट्र के महान् साहित्यिक ने प्राज तक ३०-४० छोटे बडे सार्थ ग्रंथ तैयार करके इतिहारा वेत्ता, प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' का प्रगट किए है। साराश यह है कि पाप का सारा जीवन नाम भी पाता है। जिन्हे ससार के अमूल्य और दुर्लभ हो जैन साहित्य के सृजन में व्यतीत हया है । पदार्थ विद्या, धन और यश प्राप्त था। उनका जीवन माज आप प्राच्य विद्या के महा पडित, शोध और खोज के युग के लिए शान्ति का सोपान निश्चित करता है। के दुरूह कार्यों में सलग्न लेखनी के धनी, मालोचक, प्राचार्य जी का जन्म मिती मार्गसिर शुक्ला ११ संवत श्रद्धा से युक्त थे। पाप की साहित्य-सेवा तथा दान के १९३४ में सरसावा (सहारनपुर) में एक सम्पन्न अग्रवाल लिए जितना भी लिखा जाय कम है। कुल में हुमा । पाप ने २० वर्ष की अवस्था में बा० सूरज प्राप की पादरणीय कृति 'मेरी भावना' जन-मानस Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय भांजलियां १९९ में सार्वजनिक रूप से कविता के भाव को पालोकित करती सूक्ष्म प्रखण्ड पुद्गलपिण्ड (काय)' को जीव की संज्ञा रहती है। मेरी भावना के पढ़ने से हृदय के तार झन- देकर जो चुनौती दी (भनेकान्त, जून'४२ पृ० २०५) झना उठते हैं। इसे मेरी भावना की कविता को राष्ट्रीय उसका जवाब सत्ताइस बरस बाद भी किसी को नहीं गीत के रूप मे अनेक प्रान्तीय सरकारों ने मान्यता दी है सूझ पड़ा। और जेलों तक की दैनिक प्रार्थनामों में इसे शामिल किया हिन्दी को सर्व सम्मत और सर्वगुणसम्पन्न बनाने के है। यह अनेक भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में लाखों लिए उसमे उच्च कोटि के विपुल साहित्य का निर्माण ही की तादात में प्रसारित हो चुकी है। इसे जेलों मे प्रसार एकमात्र उपाय जो मुख्तार जी ने, स्वतत्रता से काफी कराने का सौभाग्य इस लेखक को भी प्राप्त हुआ है। पहले सुझाया था, उसके बिना आज भी कल्याण नही। पाप २-३ वर्ष से एटा मे अपने भतीजे डा० श्रीचन्द इस तरह सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक, माध्यात्मिक जी सगल के निवास स्थान पर चले गए थे डा० साहब और राजनीतिक क्षेत्र मे दी गई चूनौतियो का माकूल भी उनकी परिचर्या में सलग्न रहे। अन्त में ६२ वर्ष की जवाब देकर ही हम स्व० मुख्तार जी के कर्ज से बरी लंबी आयु मे ता० २२ दिसम्बर १९६८ को अपनी जीवन हो सकते है। हमारी श्रद्धाजलि तभी सार्थक होगी : लीला समाप्त कर ससार से चले गए। डा. प्रेमसागर जी जैन अन्त मे मैं ऐसी दिव्य प्रात्मा को श्रद्धांजलि अर्पित पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार, जीवन की अन्तिम करना उनकी मानवोचित मेरी भावना के एक छद को सांस तक जैन साहित्य के अनुसधान और सम्पादन में लिख कर लेख को समाप्त करता हूँ लगे रहे । इतना ही नही, उन्होने उस साहित्य को हिन्दी रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार करूँ, मे अनूदित कर जनसाधारण के लिए सुलभ बनाया। बने जहाँ तक इस जीवन मे पोरों का उपकार करूँ। शोधपूर्ण प्रस्तावनायें लिखी-ऐसी कि एक-एक पर पी० पं० गोपीलाल जी 'अमर' एम. ए. एच. डी. सहज ही प्राप्त हो सकती है। इस सब में प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार का अध्ययन-मनन उन्हें प्रानन्द मिला और उनका मन केन्द्रित रहा । वे एक इतना मौलिक था कि उसके पागे निराधार परम्पराय साधक थे। उनकी साधना का दीप सूनी कुटिया के कोने टिकती न थी, और इतना सूक्ष्म था कि उसके आगे थोथे मे रजनी-भर जलता रहा। तक नाकाम हो जाते थे। वे शोध-खोज की सूखी राह के राही थे और इस दलित वर्ग, दस्सा, बिनेकया, स्त्रियों आदि की शास्त्र सन्दर्भ मे लोग उन्हें नितात शुष्क समझते है, किन्तु ऐसा सम्मत वकालत करके उन्होने जैन समाज को सभ्य था नही, उनका हृदय रस-स्रोत था। मैं कहता हूँ कि समाज की श्रेणी में लाने की पुरजोर कोशिश की। यदि उन्होने यह सब कुछ बिलकूल न किया होता तो 'ग्रन्थपरीक्षा' के जरिए मुख्तार जी ने भट्टारकों के केवल 'मेरी भावना' ही उनकी व्यापक ख्याति का एक साहित्यिक षड्यन्त्र और स्वेच्छाचार का भंडाभोड़ किया मात्र प्राधार थी। आज भी जन-जन में वही व्याप्त है। और जैन साहित्य में सदियों से घर बनाते पा रहे जैनेतर वही उसकी यश-निझरणी है। मै ऐसे एक साधक को तत्त्वों को निर्मम होकर निकाल फेका । जिसने अपनी साधना से हृदय और बुद्धि को समरूप मे ___काली कमाई को धर्म के नाम पर सफेद बनाने वाले पर सफर बनान वाल साधा था, श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। यजमानों को और हां में हां मिलाकर झोली भरने वाले पुरोहितों को उन्होंने कठोर चेतावनी दी कि वे किराए डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल, 1. >जयपुर की पूजन के लिए मंदिर-मूर्तियों का निर्माण न करायें। पोर पं० अनूपचन्द जी न्यायतीर्थ ) अध्यात्मवाद के नाम पर विज्ञानसिद्ध सचाइयों को श्रद्धेय श्री जुगलकिशोर जी सा० मुख्तार के स्वर्गभी झुठलाने वालों को उन्होंने 'चैतन्यगुणविशिष्ट सूक्ष्माति- वास का समाचार पढ़ कर अत्यधिक दुःख हुमा । स्व. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० बनेकान्त मुख्तार सा० इस युग के मार्गदृष्टा थे, उन्होने अपने है। जैन समाज उनका जितना ऋणी है-वह उस ऋण जीवन के ५० से भी अधिक वर्ष साहित्य लेखन में समर्पित को चुकाने में शायद ही कभी समर्थ हो सकेगा। किये और जैन साहित्य, दर्शन एवं इतिहास में अन्वेषण एक साहित्यकार के रूप में वे हमारे श्रेष्ठ निर्देशक कर एक नया अध्याय प्रारम्भ किया। यद्यपि वे अाजकल थे। उनका सम्पूर्ण साहित्य, हिन्दी साहित्य की एक अपूर्व के समान डाक्टर नहीं थे लेकिन सैकडों डाक्टरों की निधि है।। सेवाएं उनकी साहित्यक सेवाओं पर न्योछावर की जा बालबन्द जी जैन बालचन्द जी जैन नवापारा राजिम : सकती हैं। उनकी अकेली मेरी भावना ही ऐसी कृति है जो सैकडों वर्षों तक उनकी कीति को चिरस्थायी रखेगी। इस महान् तपस्वी साहित्यसेवी महापुरुष को इस पा० समन्तभद्र पर उनकी खोज अपने ढंग की अद्भुत जीवन में रहकर अभी बहुत कुछ करना शेष था, पर जो खोज है। सचमुच आज की युवा पीढ़ी के विद्वानो मे जैन भी-जितना भी किया वह सब उस 'युगवीर' ने सर्वोपरि साहित्य के अन्वेषण एव खोज की ओर जो झुकाव हुआ किया । आपकी साहित्य-सेवा से सारी जैन समाज महान् है उसमें आदरणीय मुख्तार सा० का प्रमुख योग है। ऋणी है। इस महामना ने मरते क्षण तक साहित्य-सेवा से विराम नही लिया और उन अन्तिम क्षणो मे भी जैन उनके निधन से जैन समाज ने ही नहीं किन्तु भार सस्कृति के सरक्षण-सवर्धन की चिन्ता रखी। तीय समाज ने अपनी एक ऐसी निधि खो दी है जिसकी वास्तव में आपके साहित्यसेवी जीवन की बात ही निकट भविष्य मे पूर्ति होना सभव नहीं है । निराली रही, और इस साहित्य क्षेत्र मे आप जैसा रतनचन्द जी अन एम० ए० एम० एड लामटा प्रोजस्वी-प्रखर खोजी व्यक्ति होना असभव-सा है। परम श्रद्धेय श्री जुगलकिशोर जी मुरूनार की आ- पं० के० भुजबली शास्त्री धारवार : कस्मिक पार्थिव मृत्यु का समाचार सुन्कर हृदय दु:ख से श्री जुगलकिशोर जी 'युगवीर' के स्वर्गवास के समापरिपूर्ण हो गया। जैन सिद्धान्त एव जैन साहित्य के इस चार से मुझे अत्यन्त दु.ख हुआ। उनसे मेरा लगभग ४५ प्रणेता का पार्थिव शरीर अब इस प्रसार ससार मे नहीं वर्षों का सम्बन्ध रहा । वे मुझे बहुत मानते थे । धवलादि रहा, परन्तु उनकी कीर्ति, उनके अविस्मरणीय कार्य सदैव ग्रन्थो के परिशीलन के लिये वे जब आरा आये थे तब अमर रहेगे। जैन साहित्य को सार्वजनिक रूप में प्रस्तुत कई मास तक हम लोग साथ ही रहे। वे जब आरे से करने, उसके उद्धार, सम्पादन, भाष्य, टीका, एवं प्रकाशन चलने लगे तब उनके नेत्र सजल हो गये थे। साथ ही के निमित्त स्वर्गीय मुख्तार जी ने जो किया वह कभी साथ वे कहने लगे कि वस्तुतः आप वहाँ नहीं होते तो मैं भुलाया नही जा सकेगा। इतने दिन तक वहाँ नही ठहरता । जुगलकिशोरजी एक तन-मन-धन सभी का इस प्रकार का पवित्र अर्पण सूक्ष्म तलस्पर्शी विमर्शक, प्रौढ लेखक और सुबोध सम्पादक अद्वितीय है। समन्तभद्राश्रम (वीर सेवामन्दिर) इसका थे। जैन पुरातत्त्व एवं इतिहास पर उनकी विशेष मति महान् उदाहरण है। रही। उनके वियोग से खासकर दि० जैन समाज को समाज सुधार के रूप में मुख्तार जी की सेवाएँ अपूर्व प्राशातीत भारी क्षति हुई । खेद की बात है कि दि० जैन हैं । उन्होंने उस समय समाज सुधार का बीड़ा उठाया समाज विद्वानों की कदर नहीं जानता । समाज ने उनका जब कि समाज का एक वर्ग कट्टरतावादी था। पालोचक समुचित आदर नहीं किया। ५० वर्षों से धर्म, साहित्य के रूप में वे हमारे पादर के पात्र है। उनकी मालो- तथा समाज के लिये सर्वस्व समर्पित करने वाले विद्वानो चना सुधारात्मक है। सम्पादक के रूप मे वे हमारे गुरू की भी समाज कदर नहीं करता। हैं और एक महान् मानव के रूप में वे हमारे सच्चे पथ- डा० नेमिचन्द शास्त्री एम. ए. डी. लिट् पारा (विहार) प्रदर्शक है। एक साथ इतने महान् गुणों का समावेश दुर्लभ आदरणीय सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ सिद्धान्ताचार्य पं. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय बांजलियां २०१ श्री जुगकिशोर जी मुख्तार के स्वर्गवास का समाचार कार्य अनुपम मद्वितीय है। जैन साहित्य और इतिहास पर अवगत कर हार्दिक दुःख हुआ। मुख्तार सा० द्वारा की विशद प्रकाश' भी उनकी अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तक है। गई साहित्य-सेवा चिरस्मरणीय रहेगी। उनका यश: जैन साहित्य के क्षेत्र में ऐतिहासिक शोध की दृष्टि से शरीर इस जगत में कल्पान्त काल तक स्थित रहेगा। मै उन्होंने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण दिशा दान किया।... दिवंगत आत्मा की शान्ति और सद्गति प्राप्ति की शुभ हम लोग निज जीवन में स्व० मुख्तार साहब से प्रेरणा कामना करता है। ग्रहण करते रहकर निरन्तर साहित्य एवं समाज-सेवा मे निरत रहे यही भावना है। बाबू प्रेमचन्द जी जैन मंत्री-वीर-सेवा।मन्दिर पं० जयन्ती प्रसाद जी शास्त्री मुझे यह जानकर अत्यधिक दुःख हुआ कि जैन समाज प्राच्य-विद्या-महार्णव, अनविकी लेखनी के घनी, प्रथक के साहित्य सेवी वयोवृद्ध विद्वान प० जुगलकिशोर जी मुख्तार परिश्रमी पूज्य आचार्य ५० जुगलकिशोर मुख्तार, जैनधर्म का २२ दिसम्बर रविवार को देहावसान हो गया। वे कर्मठ के गौरव के रूप मे सदा स्मरण किये जाते रहेगे । समय साहित्य-सेवी, जैन साहित्य और इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान समय पर उनका प्रभाव सदा खटकता रहेगा । उनकी सूक्ष्म थे, उनके द्वारा लिखित पुस्तके और लेखादि सप्रमाण होते थे, दृष्टि कभी भुलाई नही जा सकेगी। उन्होंने जो साहित्य-समीक्षाए लिखी है वे बेजोड है । वेप्रबल मुझे उनके सानिध्य में रहने का अवसर मिला था सुधारक तथा वीरसेवान्दिर जैसी सस्था के सस्थापक थे। मैने उन्हे निकट से देखा था समझा था और उनका और रात दिन साहित्य सेवा में व्यतीत करते थे। उनकी जीवन चर्या निराली थी। जैन धर्म के सुदृढ श्रद्धानी और आशीर्वाद पाकर आगे बढ़ने का प्रोत्साहन पाता रहा था। समन्तभद्राचार्य के अनन्य भक्त थे, और उनकी भारती के वह प्रातः स्मरणीय प्राचार्य समन्तभद्र के अनन्य उपासक सम्पादक, अनुवादक थे। आपने स्वामी समन्तभद्र का इति थे उन्होने उनके ग्रन्थो का गम्भीर अध्ययन और मनन हास इतना अच्छा और प्रामाणिक लिखा है : साथ ही अनेक किया था उनके शब्दो की प्रात्मा को समझा था। प्राचार्यों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है। उनकी मुख्तार सा० ने जो कुछ लिखा वह सब प्रामाणिक एव लोह लेखनी से जो कुछ साहित्य सजित हा वह उच्च युक्तिपूर्ण ढंग से लिखा । धर्म के अनेक विवादों को अपनी कोटि का और नपे-तुले शब्दो मे लिखा गया है। वे जीवन सूक्ष्म दृष्टि से सुलझाया, उनके शोध-खोज पूर्ण लेखों का के अन्तिम क्षणो तक साहित्य सेवा मे सलग्न रहे । यद्यषि लोहा जैन समाज मर्मज्ञों ने ही नहीं माना; बल्कि जैनेतर अस्वस्थता के कारण उनका शरीर इतना काम नहीं दे रहा विद्वान् मा मानते । विद्वान् भी मानते थे। उनके लेखो का प्राधार लेकर ही था पर उनका दिल और दिमाग बराबर कार्य कर रहे थे। अनेक विद्वानों ने पी. एच. डी. पाने में परोक्ष रूप से श्रद्धा अ उन जैसा निश्वार्थ समाजसेवी समाज मे दूसरा विद्वान प्राप्त की, उनके अनेक भक्त बन गये । नही है। उनके रिक्त स्थान की पूर्ति होना असभव है। उनका विचार था कि दिल्ली मे वीर सेवा मन्दिर की मैं उन्हें अपनी और सस्था की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित स्थापना हो जाने से वे अपनी भावना को साकार बनाये। करता हूँ। जैन समाज के गण्यमान विद्वानों के साथ अनेक गुत्थियों को सुलझाये परन्तु यह सब न हो सका, फिर भी मै अब यह डा० विमलप्रकाश जी जैन, जबलपुर आवश्यक समझता हूँ कि उनके द्वारा संस्थापित वीर सेवा स्व० श्रद्धेय मुख्तार साहब से मेरा जीवन में कभी मन्दिर ट्रस्ट को वीर सेवा मन्दिर-सस्था के साथ सम्बद्ध साक्षात् परिचय नहीं हुमा । उनकी साहित्य-सेवा से सारा कर उस संस्था को एक शोध संस्थान का रूप दे दिया जैन विद्वत समाज परिचित है। स्वामी समन्तभद्र रचित जाय । जिससे पूज्य मुख्तार सा० की प्रान्तरिक भावना साहित्य को श्रेष्ठ रीति से प्रकाशित करने का उनका पूर्ण हो और इस संस्था के उद्देश्य की भी पूर्ति हो। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अनेकान्त मुझे विश्वास है कि वीर सेवा मन्दिर के कार्यकर्ता आज लाखों व्यक्तियों का कण्ठहार बनी हुई है और वह उनकी भावना के अनुसार उस अमर ज्योति के कार्यों को उन्हें नित नई प्रेरणा देती रहेगी। पूरा कर दिवंगत आत्मा को शक्ति प्रदान करेंगे । मुख्तार सा० ने जो कुछ भी लिखा वह, साहित्य अन्तमें मैं उस महान् योगी के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अमर हैं, उनके निष्कर्ष अकाटच हैं । उनकी गौरव गरिमा अर्पित करता हूँ कि उनका गुण प्राप्त कर सकू। अक्षुण्य एव अमलान है । वे किसी एक जमीन, एक सम्प्रदाय मुझे विश्वास है कि वर्तमान वीर सेवा मन्दिर-ट्रस्ट के नहीं थे, वे राष्ट्र के साहित्य-जगत के एक ऐसे देदीप्यके संचालक गण इस विषय की ओर अवश्य ध्यान देगे। मान नक्षत्र थे, जिन पर युग को, इतिहास को, सदा गर्व इस प्रकार उनके प्रति समाज की हार्दिक श्रद्धांजलि हो रहेगा। सकेगी पोर मुख्तार सा० के अधूरे कार्य भी पूरे हो सकेंगे। श्री माणिकचन्द जी चवरे कारंजा सन्मानीय विद्वदवर्ग विचक्षण पडित थी जुगलकिशोर डा० विद्याधर जोहरापुरकर : जी 'युगवीर' का २२ दिसम्बर रविवार को स्वर्गवास पादरणीय प० जुगलकिशोर जी मुख्तार जैन इतिहास पटक लकिशार जो मुख्तार जन शतहास पढ़कर अत्यन्त दुख हुआ। के निर्माताओं मे अग्रणी है। उन्होंने तथा स्व० ५० नाथू श्रीमान् पडित जी ने आयु के अन्तिम क्षण तक राम जी प्रेमी ने जैन हितैषी और अनेकान्त द्वारा जैन जैन साहित्य, तत्त्वज्ञान तथा इतिहास आदि के विषयक साहित्य की जो सेवा की वह वास्तव मे अमूल्य है। जैन बहुमूल्य अभ्यासपूर्ण शास्त्रो की निर्मिती की। विशेषतः विद्वत्समाज मे उनका वही महत्त्व है जो सस्कृत पण्डितों प्राचार्य शिरोमणि श्री रामत भद्राचार्य जी के समस्त ग्रन्थो मे स्व. डा० भण्डारकर का था। उन्ही के भगीरथ का वर्षों धीर गम्भीरता से पालोडन करके जो ग्रन्थों का प्रयत्नों का यह फल है कि आज जैन साहित्य का हमारा वैशिष्ट्य पूर्ण सम्पादन किया वह अपने रूप में बेजोड़ है। ज्ञान दन्तकथानों के स्तर से ऊपर उठ कर इतिहास के इसी प्रकार अनेकान्त का सम्पादन भी मुरुचिपूर्ण अपने ढग दर्जे तक पहुँच सका है। इन दोनो महापण्डितों के प्रत्यक्ष का वैशिष्ट्यपूर्ण ही रहा । इतिहास तथा सस्कृति के विषय दर्शन का अवसर हमे एक एक बार ही मिला किन्तु उनके में भी अनेक शोध-प्रवन्ध अपूर्व रूप ही प्रतीत हुए । साहित्यिक कार्य से हमारा सपर्क प्रायः प्रतिदिन ही पाता श्रीमान् पडित जी की 'मेरी भावना' एक अमर कृति है। मुख्तार जी ने जैन शासन के प्रेरणादायी सन्देशो को ही है अपने रूप में स्वय पूर्ण है। साहित्यिक सर्जनमात्र 'मेरी भावना' मे जिस प्रभावशाली ढग से शब्दबद्ध किया के लिए ही पडित जी का जीवन सीमित नहीं रहा। है वह भी बेमिशाल है। यह रचना निःसन्देह रूप से स्वसम्पादित सारा धन पवित्र कार्य के लिए निष्ठापूर्वक बीसवी शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय जैन कृति कही अर्पित करके आपने एक दान और त्याग का आदर्श जायेगी। समाज के लिए प्रस्तुत किया है। श्रीमान पडित जी का पं० बलभद्र जी जैन-आगरा स्वर्गवास यह वैयक्तिक हानि नहीं है । यह एक सामाजिक मुख्तार साहब एक युग पुरुष थे। उन्होंने जो साहित्य अपूर्णीय क्षति है। देवा की, प्राचीन जैन प्राचार्यों की जो प्रामाणिक शोध- श्री प्रेमचन्द जी जैनावाच-बेहली खोज की, सामाजिक सुधारों क भत्र में जो बहुमुखी क्रान्ति मस्तार सा० एक अद्वितीय विभति व सरस्वती के की. उन सबने नये-नये कीतिमान स्थापित किये हैं। उन्होंने महान उपासक रहे, उनका सारा जीवन साहित्यिक खोज समाज की रूढ परम्परामों को अपने साहस और व्यक्तित्व में ही व्यतीत हमा। उनकी साहित्य-साधना अपूर्व और से आमूल झकझोर कर जैन समाज को प्रबुद्ध दिशा प्रदान अमर है । मैं उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। की। निश्चय ही यह युग 'युगवीर' युग के नाम से इतिहास श्री नीरज जी जैन-सतना में सदा स्मरण किया जाता रहेगा। उनकी मेरी भावना श्रद्धेय मुख्तार सा० ने अपने जीवन में जिनका जो, Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय भांजलियां २०३ कर लिया वह हम लोग ३-४ जन्म लेकर भी शायद न कर रखते थे । स्वर्ग में शान्ति होती भी नहीं है-यह तो सकें। वे कर्मण्यता की प्रतिमूर्ति थे। उनकी पावन स्मृति केवल संसारी भोगाभिलाषी जीवों की कल्पनामात्र है। में मैं अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। बाबूजी ने तो अवश्य किसी विद्वान के परिवार में (यहीं श्री हीरालाल जोकौशल-वेहली पर या विदेह क्षेत्र में) मानवपर्याय ही धारण की होगी। स्व० मुख्तार सा० जैन साहित्य और इतिहास के जिन वाणी माता के मन्दिर को उन्होंने यहाँ साफ महान विद्वान थे। प्रथित इतिहासज्ञ थे। वे अपनी किया मोर सजाया। वीतराग विज्ञान के विद्यार्थी पौर महत्वपूर्ण कृतियों के कारण अमर है, उनकी सेवाएँ हमारे लिए प्राध्यापक-उनका जीवन हमारे लिए पूजभुलाई नहीं जा सकती। नीय और आदर्श था। सुबोधचन्द जी जैन साहित्य विकास मण्डल बम्बई नेमचन्द षन्नुसा जैन : श्रीमान् युगवीर जुगुलकिशोर जी के निधन का मुख्तारसा. के चले जाने से हमारे समाज की समाचार पढ़कर अतिशय खेद हा। उनके चले जाने से बडी हानि हुई है। वे एक खवीर नेता थे। तथा 'मेरी जैन समाज ने एक महा विद्वान खो दिया है। भावना' के रचयिता के नाते आबाल वृद्धो के मुख मे थे । भगवान जिनेन्द्र के प्रति उनकी भक्ति उनके ससार समन्तभद्र भारती के सब प्रकाशन उनकी देन है । को अल्प करके शाश्वत सुख के स्वामी बनायेगी यह आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी के जीवन पर आपने पूरा निश्चित है। प्रकाश डाला है, इतना ही नहीं उनके पूरे लिखान मे वे सुकमाल चन्द्र जी जैन : समरस हो गये थे । गधहस्तीमहाभाष्य कही अवश्य मिल पूज्य बाबूजी मृत्यु को महोत्सव कहा करते थे और जायगा ऐसा उनका मनोदय था। इस प्राशा से उन्होंने समाधिमरण की भावना व्यक्त किया करते थे। उनका दक्षिण में सुदूर तक भाषा की अडचन होते हुए भी प्रवास निधन सामयिक भी था। मेरे जीवन मे तथा समाज के किया था। इस अवसर पर उन्होंने बहुत परिश्रम से जिनवाणी माता की सेवा की और अनेक अलभ्य और जीवन में उनके निधन से एक प्रभाव समुपस्थित हो जाने पर भी हमारे लिए दुख करने का जैन धर्म द्वारा निषेध अप्रकाशित ग्रथों को प्रकाश में लाया । स्व. मुख्तयारजी उनके कृति के रूप में अभी भी अमर रहेगे । मैं उन्हें है क्योकि दुख, शोक, ताप, प्राक्रन्दन आदि क्रियामों से असातावेदनीय कर्म का प्रास्रव और बध होता है। अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ। यह समाज की अज्ञानता और अदूरदर्शिता है कि कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर : उसने उनके इतने लम्बे जीवन मे उनके साथ समचित पूज्य मुख्तार साहब का स्वर्गवास उनके लिए शान्तिसहयोग नहीं किया और उनसे यथोचित लाभ नही धाम की यात्रा है और हम सबके लिए एक गहरी हानि । उठाया। अबभी यदि समाज उनके शेष रह गये कार्यों को उनका जीवन शोक का नही, गौरव का हकदार है । हमें पूरा करने में जुट जाय तो उसका भी कल्याण हो जाय। उनपर गर्व हैं । वे बहुत कुछ कर गये । उनका प्रादर्श बाबूजी की भव्य आत्मा को पूर्ण शान्ति थी; क्योंकि हमे बहुत कुछ करने की प्रेरणा देता है । वे तो अदम्य उत्साह के साथ अपने लक्ष्य मे अनवरत पं०वंशीषरजी एम० ए० कलकत्ता : परिश्रम करते रहते थे। मुझे भी उस शान्ति का लाभ समाज की प्रसिद्ध साहित्यिक विभूति श्रद्धेय मुख्तार पहुँचता रहता था किन्तु यह सुविधा गत तीन वर्ष से जी के देहावसान का समाचार विदित कर बहुत दुख मुझसे दूर हो गई थी। बह शान्ति उनके साथ अवश्य हा । समाज का यह भारी दुर्भाग्य है कि वह एक कर्मठ गई होगी। किन्तु पूज्य बाबुजी स्वर्ग में नही गये होंगे ठोस सेवाभावी, साहित्यिक, लेखक व अन्वेषक विद्वान की गोंकि वे निठल्ले बैठकर भोग भोगने की भावना नहीं महान सेवाओं से सदा के लिए वंचित हो गया। उनके Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अनेकान्त निधन से हुई क्षति की पूर्ति असंभव है। मेरे प्रति उनका शोधे प्रकाशित की । वे सतत समन्तभद्र-भारती के प्रचार पुत्र के समान स्नेह रहा। उनके प्रभाव में सारा समाज में दिन-रात संलग्न रहे । उनकी सैकड़ों कृतियाँ आदरणीय ही अनाथ हो गया । यों ही दि० जैन समाज विद्वानों के है। शास्त्रीयज्ञान भी उनका मजा हुआ था। प्रभाव से ग्रस्त थी, उनके निधन ने उस प्रभाव को और बढ़ा दिया । मैं दिगवंत मात्मा के शान्ति लाभ की श्री पं. जगनमोहनलालजी जैन प्राचार्य-कटनी वीरप्रभु से प्रार्थना करता हूँ। मेरी भावना का जब-जब मुख्तार साहब हम सबके पिता थे। उनकी धर्म, पाठ करता हूँ उनका स्मरण तो सहज मा ही जाता है, समाज व साहित्य सेवा अपनी उपमा नहीं रखती। बे अविस्मरणीय है। उनका दिवंगत होना सारे दिगम्बर जैन समाज की अपूरणीय क्षति है। ब. सोहनलालजी जैन ईसरी . सर सेठ भागचन्द्रजी सोनी-अजमेर : श्रद्धेय मुख्तार सा० जैसे दिग्गज विद्वान व ज्ञानरूपी। सूर्य आज दिवगत हो गया, इतिहास के पुरातत्व की श्री प० जुगलकिशोरजी मुख्तार 'युगवीर' के निधन शोधक प्रात्मा इस युग मे अपना चमत्कारिक ट्रस्ट स्थापित के दुःखद समाचार जानकर दुःख हुमा, वैसे तो वे वयोवृद्ध कर युग-युगान्तर के लिए अपना अस्तित्व छोड़ गये, जो ही थे, जिनवाणी की सेवा के प्रसार से उन्होने अच्छी प्राय हमे उनकी अनुपम देन है और उनके इस पथ पर चलकर प्राप्त की और अन्त समय तक वे इसी सेवा मे रत रहे. हम उनको हृदयाङ्गम कर सके और प्रसार मे ला सके यह सौभाग्य इस काल मे विरले ही पुण्यशाली को प्राप्त यही मेरी अन्तिम कामना है। उनके आयोजनों को हम होता है । जैन ससार से एक महान विद्वान जिनवाणी का आगे बढ़ावे, इसी में हमारी शोभा है। सेवक उठ गया। यह जैन समाज की महान क्षति है । उनकी जैन साहित्यिक कृतियाँ ही उनके नाम को सदैव डा. हीरालालजी जैन जबलपुर : अजम-अमर रखेगी। स्व. मुख्तार साहब अपने आपमे एक महान् जैन संस्थान ही थे। तथा उन्होंने अपना समस्त जीवन जैन- ५० पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य-बीना (सागर) साहित्य की सेवा में ही व्यतीत किया। उनके स्वर्गवास से समाज से एक ऐमा साहित्य-सेवी उठ गया है जिसने सामाजिक वा साहित्यिक क्षेत्र में जो कमी हुई है, उसकी समाज के विद्वानों को सकृति और साहित्य के विषय मे पूर्ति होना कठिन है। सोचने की नवीन दिशा प्रदान की और जिसने न केवल नि.स्वार्थ भाव से अपितु अपने ही सम्पूर्ण द्रव्य को साहित्य पं० माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य-फिरोजाबाद के विकास में लगाकर जीवनभर केवल साहित्य की ही सेवा श्री मुख्तार जैसे महान् पुरुष का वियोग हो जाना की । जीवन का अन्तिम क्षण भी उनका साहित्य सेवा में जैन समाज का महान दुर्भाग्य है। इन सौ वर्षों मे ऐसा लगा रहा । यद्यपि वे आर्थिक मामले में अत्यन्त कंजूसी लगा रहा । यद्यपि वे प्राधिक मामले में : पुरुषार्थी, दि० जैन धर्म-प्रभावनारत, अभीषण ज्ञानोपयोगी से कार्य करते थे, उनका अन्य लोगों के साथ आर्थिक सज्जन एक जुगलकिशोरजी ही मिले थे। अब उनके मामले में व्यवहार भी बहुत कड़ा था पर यह साहित्य स्थान की प्रति होना अशक्य है। अनेक प्राचार्यों की के विकास के लिए वरदान रूप ही था । गवेषणा का उन्होंने पुरातत्त्व-सामग्री से विलोड़न कर ठोस धर्म 'रहस्य अमृत' का उद्धार किया। उन्होने, साहू श्रेयांसप्रसादजी-बम्बई : जितेन्द्रिय, ब्रह्मचारी, निःस्वार्थ-संवी बनकर जिनागम- आदर्श महापुरुष मुख्तार सा. के स्वर्गीय हो जाने से रहस्योद्घाटन की घनघोर तपस्या की। उन्होंने अल्पवय जैन समाज में से एक नर-रत्न का प्रभाव हो गया है। में पुष्कल धनोपार्जन कर अनेक विद्वानों की ऐतिहासिक मार में धार्मिक-लगन, समाज के प्रति गाढ़ स्नेह, कर्तव्य Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय भाजलियां २०५ निष्ठा, उत्तरदायित्व का ध्यान, गुणज्ञाता, निरभि- श्री पं० अमोलकचन्द्र जी मानता, सरल परिणाम वृत्ति, वाणी-माधुर्य बहुत से ऐसे पंजीधर जी शास्त्री-इन्दौर गुण थे जिससे कि विरोधी विचारधारा वाला भी बरवस श्री वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट के संस्थापक श्री मुख्तार मापके प्रति झुक जाता था। आपकी सामाजिक सगठन सा. के स्वर्गवास से जैन समाज को बड़ी क्षति की उत्कट भावना, कार्यक्षमता, उत्तरदायित्व की सम्हाल, पहची है। उनकी धार्मिक, सामाजिक, पोर जिनवाणी की गुरुभक्ति, सच्चरित्र-निष्ठा, शास्त्रपठन, तथा भाषण कुश- अपूर्ण सेवाए कभी भुलाई नही जा सकेगी। लता की छाप समाज पर सदैव रहेगी। प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला-वाराणसी पं० पन्नालाल जी जैन साहित्याचार्य ___ 'माज एक युग समाप्त हो गया, क्योंकि जैन वाङ् मंत्री श्री भा०वि० जैन विद्वत्परिषद् सागर, मय का सेवक 'युगवीर' उठ गया।" मब 'वीर-युग' को विद्वद्वरेण्य श्री पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार जैन लाने के लिए कौन सतत लेखनी लिए सन्नद्ध रहेगा। वाङ्मय के स्वयबुद्ध विद्वान थे। उन्होने अतरङ्ग की प्रेरणा से जैन शास्त्रो का गहन अध्ययन कर अपने ज्ञान बाबू नन्दलाल जी सरावगी-कलकत्ता का को विकसित किया था । धर्म, न्याय, साहित्य और इति पडित जी ने तो सारा जीवन जैन साहित्य की खोज हास आदि सभी विषयो मे उनकी अप्रतिम गति थी। तथा छपवाने में हा लगाया। मरा समझ म अब उनका उनके द्वारा रचित विशाल साहित्य उनके अभीक्ष्णज्ञानो- सी लगन का दूसरा पडित समाज में नजर नही पाता। पयोग को सूचित सरता है। समन्तभद्राचार्य के प्रति प्राप उन्होंने तन-मन-धन तीनों को ही शास्त्रोद्धार मे लगाया, की विशेष प्रास्था थी। आप साहित्य महारथी थे । प्रापने एस मिले ऐसे उत्तम कार्यकर्ता का स्थान पूर्ण नहीं हो सकेगा। अपनी सम्पत्ति का बह भाग समर्पित कर वीरसेवा- डा० भागचन्द्र जी जैन-नागपुर मन्दिर की स्थापना की तथा उसके माध्यम से 'अनेकान्त' स्व० मुख्तार सा० की अमूल्य सेवाग्रो से जैन समाज पत्र का प्रकाशन कर विद्वानो के लिए विचारणीय सामग्री कभी उऋण नही हो सकता । समाज मे चतुर्मखी जाग्रति प्रस्तुत की थी। आपने ६१ वर्ष की वृद्धावस्था मे भी विस्तर पैदा करने में उनका बहुत बडा हाथ है। पर पड़े-पडे 'योगसारप्राभूत' नामक ग्रथ को तैयार कर , र बाबू जुगमन्दिर दास जी जन-कलकत्ता समाज को दिया है जो ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। आपके पडित जी की लेखनी मे जादू का मसर था। उनकी उठ जाने से जैन समाज की एक अपूरणीय क्षति हुई। सेवाए समाज को चिरस्मरणीय रहेगी। उनके निधन से बाबू नेमिचन्द्र जी वकील-सहारनपुर जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होना कठिन है। श्रद्धेय मुख्तार सा० की मृत्यु से समाज को बडी क्षति १०परमेष्ठीदास जी-ललितपुर पहुची है जिसकी पूति असम्भव है। उनका जीवन बडा सात्विक एव पवित्र रहा है। वह बड़े कर्मठ कार्यकर्ता ___ माननीय मुख्तार साहब ने पहले जैन वाङ्मय की थे तथा अनथक थे। उन्होने सर्वदा श्री जिनवाणी की जो सेवा की है उतनी सेवा बीसवी शताब्दी में शायद किसी अन्य ने नहीं की है । जैन समाज और जैन साहित्य सेवा की है और अन्तिम समय तक बराबर करते रहे। प्रिय लोग मुख्तार मा० के सदा ऋणी रहेगे। इस आयु मे भी यह जितना सात्विक कार्य करते थे, उतना पाज का नवयुवक भी नहीं कर सकता। अन्त तक लाला पारसदास जा जन माटर वाले उनका दिल व दिमाग सही कार्य करता रहा, और उनकी मुख्तार सा० के निधन से जैन समाज की जो क्षति लेखनी से बराबर मार्मिक एवं प्रामाणिक साहित्य का ही हुई । वह पूर्ण होना असम्भव है। सृजन होता रहा है। ऐसी महान प्रात्माओं का ही मनुष्य श्री उग्रसेन जी मन्त्री जैन समाज-लखनऊ जीवन सफल तथा सार्थक है। वह धन्य हैं। समाज सुधार के बारे में जब कोई जबान ही नहीं Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ मनेकान्त खोल सकता था तब ऐसे समय मुख्तार सा० ही एक ऐसे सच्ची लगन आदि गुणों के स्वामी थे। उनका माचरण व्यक्ति थे, जिन्होंने निडरता के साथ जैन शास्त्रों पर कुछ एक सच्चे जैन का प्राचरण था। और अब तो वे सातवी ऐसे ट्रैक्ट लिखें जिनको प्राज भी कोई नही लिखता जितनी ब्रह्मचर्य प्रतिमा का पालन कर रहे थे। उनका प्राचार बारीकी के साथ मुख्तार सा० ने जैनधर्म के सिद्धान्तों और ज्ञान उच्च कोटि के थे । उनकी सेवायें जैन इतिहास को समझा था, शायद ही प्राज तक किसी विद्वान ने में अमर स्थान पायेंगी। समझा हो, वह जो कुछ लिखते थे निडरता और खोज- मेरा उनसे साठ वर्ष से अधिक समय से परिचय था पूर्ण लिखते थे। और वीरसेवामन्दिर की दिल्ली में स्थापना के पश्चात् उनसे गहरा सम्बन्ध हो गया था। प्राशा है जैन समाज मुख्तार साहब ने केवल ६०-७० वर्ष बराबर जैन और वीरसेवामन्दिर उनका यथोचित स्मारक स्थापित साहित्य की बहुमूल्य सेवा ही नही की बल्कि अपनी तमाम करेगे और उनकी अधुरी और अप्रकाशित सामग्री की सम्पत्ति जैन साहित्य के उद्धार और प्रचार के लिए भी सुरक्षा तथा प्रकाशन का प्रबन्ध करेंगे, मैं उनके प्रति अपनी अर्पण कर दी है। मुख्तार सा० की सेवाये जैन समाज हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। के इतिहास में अमर रहेगी और स्वर्ण अक्षरों में कित की जायेगी। उनकी क्षति पूर्ति होना असम्भव है । बाबू माईदयाल जैन बी. ए. ऑनर्स लाला राजकृष्ण जी जैन साहित्याचार्य पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार से मेरा परिचय दिल्ली में सन् १६२१-२२ मे उस समय हुआ था साहित्याचार्य पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार के स्वर्ग- जब वे प्राचार्य समन्तभद्र की जीवनी लिखने में व्यस्त वास का समाचार समस्त जैन समाज और साहित्य प्रमी थे। पंतालीस वर्ष की लम्बी अवधि में हजारो बार उनसे संसार मे शोक से सुना गया है। उन्होने अपनी लोह मिलने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। मेरा उनका बड़ा लेखनी के द्वारा जनधर्म, जैन साहित्य, जैन पुरातत्व और । निकट का सम्बन्ध था। मै उनकी साहित्यसेवा, ग्रन्थ पत्रकारिता आदि की सेवा सत्तर वर्ष से भी अधिक समय परीक्षा, पुरातत्व सम्बन्धी खोजों और पत्रकारिता से इतना तक की। वे ६२ वर्ष की अवस्था में भी साहित्य सेवा में प्रभावित था कि उनके दर्शन और वीर सेवामन्दिर सरलगे हुए थे। उन्होने बहुत से अप्राप्त जैन शास्त्रो की सावा तथा दिल्ली की यात्रा को तीर्थयात्रा तुल्य समझता खोज करके उनका उद्धार किया। जैन आचार्यों के समय था और हर बार उनसे कुछ न कुछ प्रेरणा पाता था। तथा उनकी रचनायों के बारे में उनके निष्कर्ष और निर्णय मेरे हृदय पर उनके शास्त्र ज्ञान, उच्चाचरण, साहित्यसेवा, इतने सप्रमाण है कि भावी विद्वानों के लिए वे बड़े उप- लगन, जैन धर्म में आस्था और प्रथक कार्य शक्ति की योग की सामग्री होंगे। कई ग्रन्थों की युक्तियुक्त तथा गहरी छाप पड़ी थी। मैं उनका भक्त था और उनसे सप्रमाण परीक्षा लिखकर उन्होंने साहित्यिक भ्रष्टाचार और अत्यन्त आदर तथा श्रद्धा से मिलता था और हर एक भेट धार्मिक अन्धविश्वासको दूर किया । अपने अध्यवसाय और को अपना सौभाग्य समझता था। उनकी सेवाये अमर लगन पूर्वक अध्ययन से वे सस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश रहेंगी। समाज और वीरसेवामन्दिर को उनके प्रति अपने भापात्रों के महाविद्वान और जैन साहित्य के प्रकाण्ड कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए और उनकी अधूरी या प्राचार्य बन गये। वे जैन गजट, जैन हितैषो के सम्पादक अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाश मे लाना चाहिए। मुख्तार तथा अनकान्त के संस्थापक और सम्पादक थे । वीर सेवा- साहब की जीवनी तयार कराये जाने की भी बड़ी आवश्यमन्दिर की स्थापना करके उन्होने जैन साहित्य की दीर्घ- कता है। उनके स्वर्गवास से जो क्षति समाज को हुई है, कालीन सेवा का मार्ग खोल दिया। वे सादा रहन-सहन, उसे पूरा करना अत्यन्त कठिन है। मैं उनके प्रति अपनी मितव्यता, परिश्रम, विरोधों का डटकर सामना करने और हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय माजलियां २०७ बाबू दीपचन्द्रजी-राना संस्मरण और श्रद्धांजलि ___ जैन समाज को मुख्तार सा. के निधन से बड़ी भारी क्षति पहुँची है । वास्तव में वह सदा साहित्य सेवा में संलग्न हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री-व्यावर रहते थे । और इतनी वृद्धावस्था मे भी काम करते रहे। प्राचार्य श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार सा० के पास प्राचार प्राशा है कि उनको अन्तिम इच्छ नुसार काय हाता रहा मझे लगभग १० वर्ष रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। और जिस वीर सेवा-मन्दिर सस्था की वह सस्थापना कर मैने उनकी सभी प्रकार की प्रवृत्तियो को अत्यन्त नजदीक गये है वह चलती रहेगी। से गहराई के साथ देखा है। मैने सदा ही यह अनुभव पं० बाबूलालजी जमावार - बड़ौत : किया है कि वे अपनी धुन के पक्के थे। जिस कार्य को हाथ में लेते थे उसमे तन्मय हो जाते थे । चार-चार घटे उस महान आत्मा ने जीवनभर ज्ञान दीप जलाकर एक साथ एक प्रासन से बैठकर काम करना तो उनके जैन समाज को अधेरे से बचाया। आचार्य समन्तभद्र लिए एक साधारण सी बात थी। काम में सलग्न हो स्वामी की तरह वादियों के मुह मोडे और दिगम्बर धर्म जाने पर उन्हे समय का बिल्कुल ध्यान नहीं रहता था। की रक्षा की। मिथ्या अहंकारियों को उन्होंने सदैव लल यहाँ तक कि कई बार वे भोजन और सामायिक जैसे कारा और उन्हे धर्म विरोध से रोका। आज उनके निधन से जो क्षति समाज को उठानी पड़ी है वह पूर्ण जरूरी कार्यो का करना भी भूल जाते थे। जिस कार्य को होना असम्भव है। हाथ मे लेते-रात-दिन उसी के चिन्तन-मनन और लिखने मे सलग्न रहते । मैने उन्हें युक्त्यनुशासनादि कई गभीर पं० मिलापचन्द रतनलाल जी कटारिया केकड़ी ग्रन्थों की प्रस्तावनाए लिखते समय देखा है कि वे लगातार मुख्तार सा० जैसे साहित्यक महारथी, अब दुर्लभ कई दिन तक मौन धारण करके अपने लेखन-कार्य में जुटे है। उनके उपकार और उनकी महान उच्च साहित्य-मेवा रहते थे। उनकी इस एकान्त साधना का ही यह परिणाम सदा सब को याद आती रहेगी। चाहते हुए भी विद्वज्ज है कि जो कुछ भी उन्होंने लिखा है, उसका एक अक्षर भी गत उन दुर्लभ विभूति का यथोचित अभिनन्दन नहीं कर इधर से उधर करने का साहम आज तक किसी ने नही सका। यह सदा पश्चाताप की चीज रहेगी। विद्वज्जगत किया। उनकी वरद छत्र-छाया मे सब तरह से सम्पन्न और प्रसन्न था। अब तो उनकी स्थिति में विशाल स्मृति प्रथ मुख्तार सा० अपने नियमों को बड़ी दृढता से पालन निकालकर कुछ उऋण हुअा जा सकता है । करते थे । जब से उन्होंने मप्तम प्रतिमा धारण की थी। तब से वे त्रिकाल मामायिक नियम से यथा समय ही पं. नाथूलाल जी शास्त्री-इन्दौर करते थे । एक बार जब वे एक गभीर बीमारी से अच्छे वीर सेवामन्दिर के सस्थापक श्रीमान् पं० जुगलकिशोर हुए-तो स्वास्थ्य-लाभ के लिए मैने उन्हें प्रातःकाल जी मुख्तार 'युगवीर' का स्वर्गवास जानकर अपार दुःख घूमने की सलाह दी। वही समय उनकी सामायिक का हमा । मुख्तार सा० ने ५० वर्ष से अनवरत जन संस्कृति था-अतः यह स्थिर हुआ कि वे ५ बजे वीर सेवामन्दिर की सेवा में अपने जीवन को समर्पित कर जैन साहित्य मे घूमने निकलेगे और गाधी समाधि के १-२ चक्कर इतिहास और समन्तभद्रभारती का जो महान कार्य किया लगाने के बाद वही सामायिक करेगे । वर्षा ऋतु थी, एक है उससे उनकी कीर्ति ऊपर रहेगी। अन्य परीक्षा और दिन वे छतरी ले जाना भूल गये और घूम करके जैसे मेरी भावना तथा अनेकान्त पत्र उनके अपूर्व कार्य है। ही सामायिक को बैठे कि पानी बरसना प्रारम्भ हो गया। विद्वानों के लिये वे अनुपम प्रादर्श थे। मैं उनके प्रति मै उस दिन उनके साथ नहीं जा सका था--अतः पानी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। बरसने पर मेरा ध्यान उनकी अोर गया और देखा कि वे Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ अनेकान्त छतरी नहीं ले गए हैं, अत: मैं अपनी छतरी लेकर गांधी भी स्वभाव के बड़े भद्र थे । जो भी व्यक्ति उनके साथ समाधि पर पहुँचा-देखता हूँ कि खूब जोर की वारिश थोड़ा सा भी भद्र व्यवहार करता-वह प्रतिफल मे होने पर भी ये अडोल पासन से बैठे हुए सामायिक कर उनसे कई गुणा भद्र व्यवहार पाता था। उनका हृदयरहे हैं, उनकी यह दृढ़ता देख कर मैं दग रह गया और दर्पण के समान स्वच्छ था जो व्यक्ति जिस भावना के तब तक उनके ऊपर छतरी लगाये पीछे की ओर खड़ा साथ उनसे बात करता, उसे वे तुरन्त जान लेते थे । पर रहा-जब तक कि उनकी सामायिक पूरी नही हो गई। गंभीर स्वभाव के कारण वे उसे अपने चेहरे पर नहीं जब उठे और मुझे छतरी लगाये देखा, तो बोले-कब से पाने देते थे। और वे स्वभाव के तो इतने भोले थे कि तुम यहा पर हो ? मैने ऐसे अवसरों पर अनेक पहुँचे हुए गढ मायावी व्यक्तियो के जाल मे सहज ही फस जाते थे। त्यागियों को सामायिक छोड कर और प्रासन उठाकर यही कारण था कि स्व. बा. छोटेलाल जी के साथ अंतिम भागते हुये देखा है। तथा मध्याह्न सामायिक के समय वर्षों में उनका मनोमालिन्य हो गया था-पर यह सन्तोष ऊंघते हुए और गिरते हुए भी देखा है मगर मुख्तार साहब की बात है कि अन्त मे उन दोनो का पारस्परिक मनोको कभी ऐसी दशा मे देखने का मौका नही मिला। मालिन्य दूर हो गया था। भर जवानी मे पत्नी-वियोग हो जाने के बाद से वे दिवंगत हो जाने के बाद उनकी कमियों की चर्चा अखण्ड ब्रह्मचर्य का तो पालन कर ही रहे थे-साथ ही करना अपनी ही क्षुद्रता का परिचय देना है । और फिर उनका रसनेन्द्रिय पर भी गजब का कट्रोल था, प्रातः कौन ऐसा व्यक्ति है-जो कि पूर्णरूप से निर्दोष हो-या साय गोदुग्ध, फल और मध्यान्ह में एक बार सात्विक उसमे सासारिक सहज कमिया न हो । पर उनकी जीवन भोजन के अतिरिक्त कभी भी उन्हे मीठी या चटपटी चीजे भर की गई समाज सेवाओं को देखते हुए एक बात सदा खाते नही देखा । प्रातःकाल ४ बजे उठकर गत के १० ही खटकती रहेगी-कि समाज ने उनकी सेवाओं का बजे सोने तक वे त्रिकाल सामायिक करने एवं भोजन के समचित समादर नही किया-बल्कि प्रारम्भ में तो उनके समय को छोडकर निरन्तर अपने कार्य में जुटे रहते थे। सत्कार्यों का भी घोर विरोध किया-जिसे वे अपने दृढ प्रतिदिन १०-१२ घण्टे काम करना उनका नियमित दैनिक अध्यवसाय से सहन करते रहे और अपने कतव्य से कार्य था। रञ्च मात्र भी नही डिगे। उन्होंने हमारे सामने "न्यावे दिल्ली मे रहते समय तक अपने कपड़े भी अपने यात्पथः प्रविचलन्ति पद न धीरः" का उच्चादर्श रखा है। ही हाथ से साबुन लगाकर धोया करते थे। एक बार जब वे कपड़े धो रहे थे तो मै उनके ही सामने बैठकर श्री मुख्तार सा० के चले जाने के बाद उनके ट्रस्ट उनकी यह चर्या लिखने लगा। बोले- क्या लिख रहे के उत्तराधिकारियों का और समाज के प्रमुख व्यक्तियों हो ? मैने कहा-यह लिखता हूँ कि मुख्तार सा० कपड़े का यह परम कर्तव्य है कि वे उनके द्वारा छोड़े हुए कार्यो धोने जैसे छोटे कामों में अपने प्रमूल्य समय का दुरुपयोग को पूरा कराने के लिए अविलम्ब कदम उठावें । वीर करते है । यह सुनकर वे तुरन्त बोले-भाई-यह समयका सेवामन्दिर में उनके नाम पर एक शोध संस्थान कायम दुरुपयोग नही है बल्कि स्वावलम्बीपन के पाठ का अभ्यास करें और उनकी स्मृति मे एक विशाल स्मृति-ग्रन्थ निकाल है। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरे कपड़े घोवे ? अपने हाथ करक अपनी कृतज्ञता प्रगट करें से धोते रहने से हाथों में उतनी शक्ति बनी हुई है। यदि दिवंगत होने के कुछ समय पूर्व तक उनके पत्र मेरे मैं ऐसा न करता, तो पराधीन तो होना ही पड़ता मेरे पास आते रहे हैं । जिनमें सदा ही खोज-शोध प्रेरणा रही हाथों में वह शक्ति भी नही होती-जो कि प्राज है। यह है। मुझे अत्यन्त दुःख है कि अन्तिम समय में उनके घटना उनके ८० वर्ष होने के बाद की है। समीप नहीं रह सका-ऐसे जीवन पर्यन्त साहित्य सेवा कुछ लोग उनके रूखे स्वभाव की बात कहते हैं। करने वाले महारथी प्राचार्य श्री मुख्तार सा० को मेरी मगर मैंने यह अनुभव किया है कि वे मितव्ययी होने पर कोटि : कोटि श्रद्धाञ्जलि समर्पित है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर साहित्य-सेवी श्री पं० कैलाशचन्द सि० शास्त्री स्व. पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार एक आदर्श ही समाज सेवा में योगदान किया प्रतीत होता है। समाजसेवी और साहित्य सेवी थे। मैने जब से होस सन् १९१० के लगभग खतौली मे जो दस्सों और सम्हाला उनका नाम सुना । ऐसा प्रतीत होता है मानों बीसों के बीच मे ऐतिहासिक मुकदमा चला और उसमे उनका निर्माण सेवा के लिये ही हुआ था और वह भी जैन स्व. पं० गोपालदास जी वरया और मुख्तार साहब ने समाज और जैन साहित्य की। दस्सों के पक्ष में गवाही दी तथा वीसो की अोर से स्व. पं. जब समाज मे प्रचारक नही थे उन्होंने महासभा में न्याय दिवाकर पन्नालाल जी उपस्थित हुए । इस काण्ड ने उपदेशकी का भी कार्य किया। उसके पश्चात् कुछ समय उत्तर भारत के जैन समाज को उद्वेलित कर दिया, उसी तक महासभा के मुखपत्र जैन गजट की सम्पादकी भी की। प्रसंग से मुख्तार साहब ने जिन पूजाधिकार मीमासा नामक यह उस समय की बात है जब समस्त दिगम्बर जैनो को ट्रैक्ट लिखा। इस ट्रेक्ट से ही मुख्तार साहव की लोह एक मात्र सभा महासभा थी और बाबू पण्डित का भेद लेखनी का आभास होता है तथा उनकी अध्ययन शीलता प्रगट नहीं हुआ था। महासभा के निर्माण मे और उसे प्रकट होती है । इसके पश्चात् उनकी ग्रन्थ परीक्षा शीर्षक प्रगति देने मे बाबू और पण्डित दोनो का समान योग रहा लेखमाला जैन हितैषी में क्रमश: प्रकट हुई। उनकी इन है दोनो ने ही कन्धे से कन्धा मिलाकर काम किया है। समीक्षात्रों का या जिन पूजाधिकार मीमांसा का कोई फलतः मुख्तार साहब ने भी प्रारम्भ में महासभा के द्वारा उत्तर मेरे देखने में नहीं आया इसी से प्रकट है कि मुख्तार स्वतंत्र जैन : पकड़ की कोई बात उनकी सूक्ष्म और पैनी दृष्टि से जैन जगत ने यह समाचार महान् खेद के साथ सुना बच नहीं पाती थी। निर्भीकता एवं सत्यता के वे प्रतीक कि जैन विद्वत् समाज के उदीयमान नक्षत्र, साहित्य महा- थे, पुरातत्त्व सम्बन्धी खोज में आपका सर्वप्रथम अग्रगामी रथी, सुधारक, मीमांसक, विचारक, पालोचक, लेखक, द्रुतगति कदम है । जब आप किसी भी तथ्य को सामने पत्रकार, दार्शनिक विद्वान् पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार लाते थे तब उसका अकाटय एवं युक्ति सगत प्रमाणों के का ९२ वर्ष की आयु मे स्वर्गवास हो गया है। द्वारा खन्डन का मन्डन करते थे। तब विरोधी पक्ष का माज उनका नश्वर देह हमारे समक्ष नहीं है, पर भी व्यक्ति प्रापका हो जाता था, फिर उसका यह साहस "यशः काय' के रूप मे पाप सतत विद्यमान है। श्रद्धेय नही होता था कि मै दुबारा लिखू । मुस्तार जी आज जैसे उच्च डिग्री होल्डर नही थे। पर किसी भी विषय पर शोध निबंध लिखने वाला उनका ज्ञान, उनका आलोडन, मन्थन, उनका अनुभव स्नातक पहिले मुख्तार जी से समति और पाशीर्वाद लेता इतना विशाल था कि वे अनेक न्यायाचा, दर्शनाचार्य था तब वह अपनी लेखनी चलाता था। साहित्याचार्यों के जनक एव सृजक थे। सच तो यह है कि श्रद्धेय मुख्तार जी स्वय एक जोती पूर्व जन्म के कुछ ऐसे सस्कार लेकर जन्मे थे कि अापके जागती सस्था थे, वे स्वयं वीर-सेवा-मन्दिर थे। उनकी ज्ञानावरणी कर्म का क्षयोपशम इस रूप में सुखद फलित लोह लेखनी द्वारा लिखित साहित्य उनकी प्रतिभा हुप्रा कि आपने समाज मे एव देश मे साहित्य सेवा, सम्पन्न विद्वत्ता का परिचायक है। 'मेरी भावना' आपको साहित्य प्रचार, अनुसबान, गभीर विवेचना प्रादि कार्यो अमर सार्वजनिक रचना है।। के द्वारा अमर हो गये । पूज्य मुख्तार जी निष्पक्ष एव आपके द्वारा लिखित प्रकाशित साहित्य मैने पढ़ा है, प्रसग वश कटु समालोचक भी थे। अतएव शास्त्राधार इतनी उच्चकोटि के विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ मुझे कम ही देखने से खरी कहने में वे नहीं चूकते थे। उन जैसे मीमासक को मिले है। आपके चरणोंमें लेखककी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित है। एवं समालोचक विद्वान् का प्रभाव सा हो गया। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनेकान्त साहब की लेखनी उनका लेखन कितना प्रौढ़ और सप्रमाण ही स्वद्रव्य से वीर सेवा-मन्दिर के भवन का निर्माण होता था। कराया । वहाँ भी मै एक दो बार गया। मुख्तार साहब उत्तर तो कोई दे नहीं सका किन्तु मुख्तार साहब को मैंने कभी हताश या निराश नहीं पाया । मेरे विचार से सुधारक शिरोमणि मान लिये गये और स्थिति पालक मुख्तार साहब का एक-मात्र कर्म में विश्वास था। वह समाज से एक तरह से उनका सम्बन्ध विच्छेद जैसा हो किसी भी स्थिति में कर्मविरत नहीं हुए उन्होंने कभी गया। उसने उनको कभी नहीं सराहा । भी इस पोर दृष्टि नहीं दी कि उनकी सेवा का मूल्यांकन सन् २९२३ में देहली पञ्चकल्याणक महोत्सव के । समाज करता है या नहीं ? क्योंकि उनकी सेवा मूल्यांकन अवसर पर बाबूदल महासभा से अलग हो गया और उसने के लिए नही थी, वह तो सेवा के लिए, प्रात्मसन्तोष के दि० जैन परिषद् की स्थापना की । परिषद् सुधारकों की लिए थी। यदि ऐसा न हो तो क्या अपनी सस्थापित संस्था थी; किन्तु मुख्तार साहब का उसके साथ भी कोई संस्था वीर सेवा मन्दिर से हट कर और अपने भतीजे के मम्बन्ध नहीं था। एक तरह से मुख्तार साहब सामा के घर में रह कर भी उसी तरह साहित्य के सर्जन मे जिक से अधिक साहित्यिक ही थे और उसी मोर उनकी तल्लीन रह सकते थे? उन्हें हमने कभी किसी से रुचि तथाप्रवृत्ति बढ़ती गई । किन्तु उनकी साहित्यिक प्रवृत्ति शिकवा करते नहीं सुना । कभी उन्होने यह नही कहा कि भी सुधारक प्रवृत्ति से अछूती नहीं थी। उसमें भी वह ऐसे विषयों पर लेखनी चलाते थे जो समाज के स्थिति मैने इतनी सेवा की किन्तु किसी ने कद्र नही की। पालक पक्ष के लिये ग्राह्य नही होता था जैसे 'गोत्र कर्मा- वह तो सबसे यही चाहते थे कि मेरी ही तरह सब श्रित उच्चनीचता।' इसका फल यह हुआ कि मुख्तार लोग सेवा में जुटे रहें इसी से उनके पास कोई ठहरत। साहब एक तरह से समाज से विलग जैसे हो गये। चूंकि नहीं था। विचारों में उदार होते हुए भी व्यवहार मे उनका जीवन स्वावलम्बी था, समाजाश्रित नहीं था तथा अनुदार थे । यह भी कह सकते हैं कि वह व्यवहार चतुर उन्हे अपने लेखन और अध्ययन से भी अवकाश नही था नहीं थे। यदि वह वीर सेवा मन्दिर के व्यवस्थापन कार्य अतः मुख्तार सा० ने भी उस विलगाव की उपेक्षा सी की। से निरपेक्ष रह कर साहित्य सेवा में सलग्न रहते तो वीर १९३० में प्रथमवार मुख्तार साहब ने देहली में एक सेवा मन्दिर की तथा स्वय उनकी ऐसी स्थिति न होती। संस्था समन्तभद्राश्रम की स्थापना की और उससे उनका एक साहित्यिक परिवार होता जो उनके कार्य को 'अनेकान्त' नामक मासिक पत्र प्रकाशित किया उसी समय प्रगति देता। उन्होंने जिस भावना से वीरसेवा मन्दिर की प्रथमवार मैं पत्र द्वारा मुख्तार सा० के परिचय में प्राया। स्थापना की थी उनकी वह भावना भावना ही रही। उस उनकी योजना अद्भुत थी, उसे पढ़ कर मेरे जैसे साहि- भावना को चरितार्थ करने का प्रयास तो करना चाहिए। स्याभिरुचि युवक का आकृष्ट होना स्वाभाविक था। देहली में वीरसेवा मन्दिर बहुत अच्छे स्थान पर स्थित ग्रीष्मावकाश में मैं बनारस से देहली गया और समन्त- है उसे साहित्यिक प्रगति का केन्द्र बनाया जा सकता है। भद्राश्रम में ठहरा। तब भी वह अकेले ही काम में जुटे उसके भवन में मुख्तार साहब का एक तैल चित्र रहना रहते थे। गर्मी के दिन थे। किन्तु उनके लिये गर्मी सर्दी चाहिये। अनेकान्त के मुख्य पृष्ठ पर उनका एक छोटा और दिन रात सब बराबर थे। उस समय वहाँ डा. ए. एन. सा ब्लाक बराबर छपना चाहिए। मुख्तार सा० के जीवन उपाध्ये भी पाये थे। वह भी तभी कार्य क्षेत्र में उतरे थे। में जो नहीं हो सका यदि वह उनके बाद भी हो सके तो अनेकान्त के प्रारम्भिक वर्षों के अंक बहुमूल्य नवीन उत्तम है। जो कुछ मालिन्य थे वह तो उनके साथ चले सामग्री से परिपूर्ण होते थे। मुख्तार साहब का श्रम उसके गये । उन सब को भुलाकर मुख्तार साहब ने जो कुछ कण-कण में समाया रहता था। किन्तु समाज से सहयोग किया अब उसे देखना चाहिए। न मिलने के कारण समन्तभद्राश्रम देहली से उठा कर समन्तभद्राश्रम दहला स उठा कर मुख्तार साहब मुख्तार साहब थे। उनके जैसा लेखनी सरसावा चला गया और मुख्तार साहब ने सरसावा में का धनी और साहित्यसेवी होना दुर्लभ है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान के आलोक-स्तम्भ प्रो० प्रेमसुमन जैन, बीकानेर श्रद्धेय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार जैन समाज के पर 'जैनाचार्यों तथा जैन तीर्थङ्करों में शासनभेद' उन कीर्ति-स्तम्भो में से है, जो समाज व देश को जगाने के नाम से एक लेखमाला का प्रारम्भ किया, जिसमें प्राप के लिये ही जन्मते है । मुख्तार जी का सम्पूर्ण जीवन ने यह प्रमाणित किया कि वीरशासन (जैनधर्म) का प्राप्त जैन-साहित्य के अध्ययन-अनुसघान में ही व्यतीत हुआ। रूप एकान्त मौलिक नहीं है। उसमें बहुत कुछ मिश्रण समाज के अधिकांश विद्वानों के वे प्रेरणास्रोत थे। पत्र- हा है और संशोधन की प्रावश्यकता है। यद्यपि इसके कारिता के क्षेत्र में उन्होने महत्वपूर्ण योगदान किया है। विरुद्ध भी प्रावाजें उठायी गयी । लेकिन श्री मुख्तार जी मेरा दुर्भाग्य है, मुझे उनके दर्शन प्राप्त करने का अवसर अपनी स्थापनापो पर अटल रहे और शान्तभाव से प्राप्त नहीं हुआ। यद्यपि उनके गवेषणापूर्ण लेखों एवं अध्ययन करते रहे । आप अपनी स्थापना के प्रति ग्रन्थों का अवलोकन मैं मनन पूर्वक करता रहा हूँ। विश्वस्त रहते थे, क्योंकि कोई बात विना प्रमाण के नही उनको गवेषणात्मक निष्पक्ष दृष्टि ने मुझे अधिक प्रभावित लिखते थे। श्री नाथूराम जी प्रेमी ने आपकी प्रामाणिकता किया है। के विषय में लिखा है-'पाप बड़े ही विचारशील लेखक श्री मुख्तार जी में अनुसन्धान की प्रवृत्ति १९०७ में है। आप की कलम से कोई कच्ची बात नहीं निकलती। जैन गजट के सम्पादक होने के बाद प्रारम्भ हुई। इसी जो लिखते है वह सप्रमाण और सुनिश्चित ।' वर्ष में १ सितम्बर के अंक में प्रकाशित आपके लेख 'हर्ष समाचार' से अनुसन्धान के प्रति आप की बढती हुई 'ग्रन्थपरीक्षा' का तीसरा भाग जब १९२८ में प्रकाअभिरुचि का पता चलता है । तथा ८ सितम्बर १६०७ शित हुआ ता मुख्तार जा शित हुमा तो मुख्तार जी के गहन अध्ययन एवं प्रमाके प्रक में सम्मेद शिखर तीर्थ के सम्बन्ध में लिखा गया णिकता से अधिकाधिक लोग परिचित हुए । जो लोग जैन आपका अग्रलेख इस प्रवृत्ति की पुष्टि करता है । 'जैनगजट' धर्म को प्रक्षेपो से दूषित कर रहे थे, सत्यता प्रगट होते ही के सम्पादन कार्य से जो समय वचता था, मुख्तार जी उसे शान्त हो गये । श्रीमान् प्रेमी जी ने उक्त ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है-'मै नही जानता हूँ कि पिछले कई सौ वर्षों जैन-साहित्य के गम्भीर अध्ययन मे लगाते थे । इस से किसी भी जैन विद्वान ने कोई इस प्रकार का समाअध्ययन से यह फल हुमा कि भट्टारकों द्वारा जनशास्त्रों में जो जैनधर्म के विरुद्ध बातें लिख दी गयी थी, उनका लोचक ग्रन्थ इतने परिश्रम से लिखा होगा... ....."इस निराकरण करना मुख्तार जी ने प्रारम्भ कर दिया । केवल प्रकार के परीक्षा लेख जैन साहित्य मे सब से पहिले इतना ही नहीं, उन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर एक है.......... 'जाच करने का यह ढंग विल्कुल नया है और मौलिक खोज यह भी की, कि जन-शास्त्रों के प्रक्षिप्त अंशो इसने जैन धर्म का तुलनात्मक पद्धति से, अध्ययन करने के मूलस्रोत भी खोज निकाले । बाद में यही खोज 'ग्रन्थ- वालो के लिए एक नया मार्ग खोल दिया है।' परीक्षा' नामक पुस्तक के चार भागों में प्रकाशित हुई। श्री मुख्तार जी की इस सूक्ष्म पोर मौलिक दृष्टि 'मुख्तार जी ने जन-साहित्य के अध्ययन और अनु- से मै अभी परिचित हुआ जब किसी वसुनन्दि नाम के सन्धान के लिए मुख्तारगिरी को भी छोड़ दिया । आचार्य द्वारा लिखित प्राकृत रचना 'तत्व-विचार' का एकचित्त होकर वे जैन-साहित्य की सेवा में लग गये। परीक्षण कर रहा था। यह ग्रन्थ ३०० गाथाम्रो का है। १९१६ के लगभग मापने अपने गंभीर अध्मयन के माधार प्राचार सम्बन्धी जैन धर्म के प्रमुख तत्त्वों का इसमें सुन्दर Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ वर्णन है। श्री मुख्तार जी ने बम्बई प्रवास में इसकी श्री मुख्तार साहब ने एक और महत्वपूर्ण कार्य का पाण्डुलिपि देखी थी। वहां से पाकर पाप ने अनेकान्त में सूत्रपात किया वह है, विलुप्त प्रायः ग्रन्थों का सन्दर्भो के एक लेख लिखा, जिसमें यह सम्भावना व्यक्त की कि आधार पर पुनराकलन । आपने विशाल जैन-साहित्य में 'तत्त्व विचार' मौलिक ग्रन्थ प्रतीत नही होता। इसे लिखे उल्लेखों के आधार पर ऐसे बहुत से अप्राप्य ग्रन्थो संग्रह ग्रन्थ होना चाहिए'।' मुख्तार जी की इस सूचना ने की एक सूची तैयार की थी। कुछ ग्रन्थों की प्राप्ति भी मुझे सतर्क कर दिया । और जब मैंने सूक्ष्म दृष्टि से ग्रन्थ उन्हें हुई थी। किन्तु अधिकांश कार्य यह अधूरा ही पड़ा का परीक्षण किया तो सचमुच 'तत्त्वविचार' की लगभग है। इसके लिए गहन अध्ययन एव अथक परिश्रम की २५० गाथायें अन्यान्य २०-२२ प्राकृत के अन्थों से सगृहीत आवश्यकता है। फिर भी मुख्तार साहब के इस कार्य को की गयी हैं, जिनमें कुछ श्वेताम्बर ग्रन्थ भी है। श्री पूरा करने से मै समझता हूँ उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि मुख्तार सा० के 'पुरातन जैन वाक्य सूची' ग्रन्थ से इस ही अपित नही होगी, अपितु जैन-साहित्य की बहुत बड़ी सम्बन्ध में मुझे पर्याप्त सहायता मिली। श्री मुख्तार सा० सेवा भी। का यह प्रयत्न अपने ढग का अकेला है। वे कितने श्री मुख्तार साहब की अनुसन्धान प्रवृत्ति के विकास परिश्रमी थे यह जानने के लिए अकेला यही एक ग्रन्थ का फल 'अनेकान्त' है । अनेकान्त के प्रकाशन से केवल पर्याप्त है। जैन-साहित्य ही प्रकाश मे नही पाया, बल्कि जैन विद्वानी की एक लम्बी परम्परा प्रारम्भ हुई है । मुख्तार सा० के अनुसन्धान के क्षेत्र मे श्री मुख्तार सा० का दूसरा सम्पादकीय टिप्पणों से कोई अच्छा से अच्छा लेखक भी प्रशासनीय कार्य जैनाचार्यों के विषय में खोजवीन करने का है। पात्र केसरी और विद्यानन्द की पृथकता आप के नही छूट सका । उन्होने हमेशा लेख को देखा है, लेखको को नहीं । शायद इसी का यह परिणाम है, लेखन में प्रयत्न से ही मान्य हो सकी। पंचाध्यायी के कर्ता की आपने खोज की। तथा महान् प्राचार्य स्वामी समन्तभद्र दिनोंदिन प्रमाणिकता की वृद्धि होती गयी। और कई के इतिहास एव साहित्य के विषय में तो आपने अपना लेखक मुख्तार सा० की इस कृपा से पाठको मे उनसे भी जीवन ही लगा दिया है। श्री मुख्तार सा० की जनशासन ऊँचा स्थान प्राप्त कर सके। इस तरह स्वर्गीय श्री मुख्तार सा० की जन-साहित्य के प्रति इस सेवा को देखते हुए पं० राजेन्द्रकुमार जी के अनुसन्धान के क्षेत्र मे अपूर्व देन है । जीवन के अन्तिम का कथन यथार्थ है-'मुख्तार साहिब यह काम न करते तो दिगम्बर-परम्परा ही अस्त-व्यस्त हो जाती। इस दिनों में भी वे उसी उत्साह और लगन के साथ साहित्यइस कार्य के कारण मैं उन्हें दिगम्बर परम्परा का संरक्षक साधना मे रत रहे। वे अनुसन्धान के एक ऐसे मालोचकमानता है।' इसी तरह महावीर भगवान् के समय आदि स्तम्भ थे, जिससे निरन्तर अनेक दीपक प्रज्वलित होते के सम्बन्ध मे जो मतभेद एव उलझने उपस्थित थीं उनका रहे है । मुख्तार सा० ने हमेशा सब को गति प्रदान की है । ऐसा लगता है, अपने अन्तिम दिनों मे भी वे इस अत्यन्त गम्भीर अध्ययन करके मापने सर्वमान्य समन्वय स्वभाव को नहीं भूले। जब अपनी अन्तिम सांसों के किया और वीर शासन-जयन्ती की खोज तो पापके जीवन कारण गतिरोध हो रहा था तो मुख्तार सा• ने अपनी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है। सासें उन्हें प्रदान कर दी। समय भी उनसे उपकृत हो गया। ऐसे महान तपस्वी के चरणों में मुझ अकिंचन के १. अनेकान्त, वर्ष प्रथम, किरण ५, पृ० २७५ अनन्त प्रणाम। २. इस विषयक लेखक का एक लेख अनेकान्त की ३. जैन जागरण के अग्रदूत' में प्रकाशित परिचय के प्रगलीकिरण में प्रकाशित हो रहा है। माधार पर। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के भीष्मपितामह डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री एम. ए. पी-एच. डी. उन्नीसवी शताब्दी का वह अरुण युग जिसमें सभ्यता को सदा अकेले ही भल कर राष्ट्र का पथ प्रशस्त किया। और संस्कृत ही नही शिक्षा और संस्कार पश्चिमोदय के वे संघर्षों से अकेले जूझते रहे । और सवा समाज को प्रभात मे इस देश के जन-मानस पर प्रकित हो रहे थे कुछ न कुछ नही अपितु बहुत ही अमूल्य देते रहे । उनके उसी युग मे भारतीय श्रमण सस्कृति से प्राप्यायित, पूर्व जीवन मे अवरोधक बहुत रहे, किन्तु उनकी उन्होने कभी जन्म के संस्कारों से समन्वित बालक किशोर' ने जैन चिन्ता नहीं की। उनकी जीवनव्यापिनी चिन्ता एक ही कुल में जन्म लिया। बचपन से ही उसकी प्रतिभा तथा रही और वह थी साहित्य की गवेषणा तथा जनसिद्धान्त सुसंस्कारों का विकास हो चला था, यह उनके जीवन की की प्रतिष्ठा । उनका जोवन ऐसे ही पार्थ धनुर्घरो के लिए विविध घटनामो से प्रमाणित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के समर्पित था। वे आसन्न काल तक कभी इस भीष्म व्रत से जीवन का वास्तविक उन्मेष सघर्षों के बीच होता है। विचलित नहीं हुए, सदा अटल ही रहे। उनकी जीवनजिसके जीवन में और जिस समाज में संघर्ष न हो उसे साधना जितनी सरल और निश्छल थी उतना महान् मृतप्राय समझना चाहिए। जुगलकिशोर मुख्तार के रूप उनका व्यक्तित्व भी। युग-युगों के अनुभवो तथा कर्ममे जैन समाज को एक ऐसा ही व्यक्तित्व मिला था जो निरत साधना में संपृक्त हो उन्होने समाज को जो दिया जन-जीवन को झकझोर कर उसे वास्तविक रूप मे ला वह अपरिमेय तथा अमूल्य है। उन्होंने साहित्य सम्बन्धी देना चाहता था। बाबू सूरजभानु वकील, अर्जुनलाल जी जितना कार्य अकेले किया उतना एक सस्था भी सम्भवतः सेठी और जुगलकिशोर जी ऐसे ही परम्परा के प्रवर्तक थे, न कर पाती। बीरसेवा मन्दिर के प्रकाशनो से स्पष्ट है जिसे पाज की भाषा मे समाजसुधारक कहते है। वास्तव कि उस महान् साहित्यकार ने कितना अधिक कार्य किया। में इस परम्परा का प्रवर्तक जैन समाज के अनुपम विद्वान् कठिन से कठिन तथा अप्रकाशित ग्रन्थो को सरल भाषा गुरुवर्य पं. गोपालदास जी वरैया ने किया था । समय- मे प्रकाशित कर जनसुलभ बनाने में प्रापकी कर्मठ साधना समय पर इन विद्वानो के लेखों ने तथा वक्तृतानो ने जन तथा कठोर श्रम एवं विद्वत्ता श्लाघनीय है। इतना ही समाज में जागृति का शंखनाद फूका, इसमे कोई सन्देह नही, मौलिक साहित्य का सर्जन कर आपने समाज का नहीं है । पं० मुख्तार जी इसी पीढ़ी के विद्वानों मे से थे। एक चेतना तथा जागृति प्रदान की। 'मेरी भावना' तो किन्तु अपनी पीढ़ी में उन्होंने सबसे अधिक कार्य किया। एक राष्ट्रीय गौरव की कृति बन गई है। अकेली इस क्या इतिहास, क्या दर्शन, क्या साहित्य और क्या धर्म- रचना ने ही आपको पर्याप्त यश तथा लोकाथय प्रदान सस्कृति तथा राष्ट्रीयता सभी क्षेत्रों में मुख्तार जी की किया। इसी प्रकार साहित्य के अनाघ्रात क्षेत्र मे 'जैनग्रन्थ प्रवृत्तियां सलग्न रही हैं। उन समस्त प्रवृत्तियों के कार्य- परीक्षा' और चिन्तन-मनम के साथ प्रकाशित 'जैन साहित्य कलापों के मध्य 'युगवीर' का प्रबल व्यक्तित्व सलक्षित और इतिहास पर विशद प्रकाश' जैसे ग्रन्थ लिख कर होता है। मापने अनुसन्धान जगत् मे महत्वपूर्ण स्थान बना लिया असाधारण व्यक्तित्व की भांति पं० मुख्तार जी का है। कृतित्व भी असाधारण रहा है। इसलिए वे जैन समाज में सम्पादन तथा अनुवादभीष्मपितामह के तुल्य थे, जिसने समाज की झंझावातों 'जैन गजट', 'जैन हितैषी' तथा 'अनेकान्त' जैसे Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त समाज के मुख्यपत्रों के सम्यक् सम्पादन के अतिरिक्त प्राप के मोल-तोल वाले युग को ही महंगी नहीं मालूम होगी, ने कई ग्रन्थों का सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद भी किया जब वह थोडा-सा भी अन्तर्मुख होकर इस तपस्वी की है। ये सभी ग्रन्थ सस्कृत से हिन्दी में अनूदित किए गए। निष्ठा का अनुवाद की पंक्ति-पंक्ति पर दर्शन करेगा। है। इनके नाम इस प्रकार है : स्पष्ट ही लेखक की साहित्य-साधना महान है। इस (१) प्राचार्य प्रभाचन्द्र का तत्वार्थसूत्र, (२) युक्त्य साहित्य-देवता की सभी विशेषतानों पर प्रकाश डालना नुशासन, (३) स्वयम्भूस्तोत्र, (४) योगसार प्राभत सभव भी नहीं है। इस छोटे से निबन्ध में कितना लिखा (५) समीचीन धर्मशास्त्र. (E) अध्यात्म रहस्य न जा सकता है ? किन्तु साहित्यिक मूल्यांकन की दृष्टि से (७) अनित्यभावना, (८) तत्वानुशासन, (९) देवागम यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आपका जितना (माप्त-मीयासा), (१०) सिद्धिसोपान (प्रा० पूज्यपाद साहित्य-सृजन का कार्य है वह अत्यन्त श्रमसाध्य, निष्ठा विरचित सिद्धभक्ति का भावात्मक हिन्दी पद्यानुवाद), तथा लगन से परिपूर्ण है। सम्पादन तथा अनुवाद-जगत् (११) सत्साधुस्मरणमंगलपाठ (संकलन तथा हिन्दी में ऐसी रचनाए अत्यन्त अल्प है। इनके महत्व को वही अनुवाद)। समझ सकता है जो ऐसे दुरुह ग्रन्थो का अनुवाद सम्पादन तथा अनुवाद में लेखक ने मूल भाव को करने बैठा हो और अपनी सच्चाई तथा ईमानदारी के कारण सफल न हो सका हो। इससे अधिक इस सबंध में बनाये रखने का पूरा यत्न किया है और यही उनकी मुख्य और क्या कहा जा सकता है ? वास्तविकता यही है कि विशेषता है । मूल लेखक के भावों को हृदयगम कर उसके विद्वानों के वास्तविक महत्व का मूल्याकन उस विषय के भावों को सरल भाषा में प्रकट करना मुख्तारजो का ही किस विटान टी कर सकते है। कार्य है। 'युक्त्यनुशासन' जैसे जटिल, दार्शनिक तथा महान् ग्रन्थ का प्रामाणिकता के साथ हिन्दी अनुवाद कर मुख्तारश्री बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । कविता, यथार्थ मर्म को प्रकाशित करना मुख्तारधी की प्रतिभा लेख, निबन्ध तथा समाजसुधारक से सबंधित सामयिक का ही कार्य है। इसी प्रकार 'देवागम' तथा अध्यात्म- साहित्य पर सफल तथा सरल रचनाएं प्रस्तुत कर उन्होंने रहस्य' जैसे कठिन अन्यों की गुत्थिया सुलझा कर हिन्दी जैन समाज में अमिट स्थान बना लिया है। मैं समझता अनुवाद प्रस्तुत करने की सामर्थ्य आप मे ही लक्षित हुई हूं कि अभी तक उनके लगभग पाच सौ से भी अधिक है। विस्तार से यहां पर सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद की निबन्ध प्रकाशित हो चुके है और लगभग दो दर्जन पुस्तके विवेचना न करना इतना कहना ही पर्याप्त समझता है प्रकाशित हो चुकी हैं। उन सबका विवेचन यहां अपेक्षित कि सम्पादन तथा अनुवाद कार्य के क्षेत्र मे आप जैन नही है। समाज के विरले ही विद्वान् हैं। दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड वस्तुत: जैन समाज का एक महान व्यक्तित्व मुख्तारश्री विद्वान् पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के शब्दो मे- जी की छाया के साथ उठ गया, इसमें कोई संदेह नहीं । 'युक्त्यनुशासन जैसे जटिल और सारगर्भ महान् ग्रन्थ का आश्चर्य तो यह है कि उन्होंने जीवन की अन्तिम सास सुन्दरतम अनुवाद समन्तभद्र के अनन्यनिष्ठ भक्त साहित्य- तक लेखन-पठन कार्यों में व्यवधान नहीं आने दिया। तपस्वी प० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने जिस अकल्पनीय स अकल्पनीय बाहर से कोई न कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ मगवाकर उसका सरलता से प्रस्तुत किया है वह न्याय-विद्या के अभ्यासियों श्रवण-मनन-चिन्तन करना उनके जीवन का सहज के लिए आलोक देगा। सामान्य-विशेष, युतसिद्धि-अयुत- व्यापर हो गया था। समाज ऐसे धनी-मानी, तपःपूत सिद्धी, क्षणभंगवाद, सतान आदि पारिभाषिक दर्शन शब्दों साहित्यसेवी और बिद्वद्वर तथा जनसमाज के भीष्मपितामह का प्रामाणिकता से भावार्थ दिया है। आचार्य जुगल- के निधन पर अपनी भावभीनी श्रद्धाजलि अर्पित किशोरजी मुख्तार की यह एकान्त साहित्य-साधना प्राज करता हूँ। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व पं० परमानन्द शास्त्री प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार इस युग के साहित्य रहती । यद्यप्रि मुख्तार सा० की प्रकृति मे नीरसता थी, तपस्वी और जैन साहित्य और इतिहास के वयोवृद्ध और वह कभी कभी कठोरता मे भी परिणत हो जाती विद्वान लेखक थे । पक्के सुधारक, स्वाभिमानी, अपनी थी। कषाय का आवेश भी उनमे झुझलाहट उत्पन्न करता, बात पर अडिग, प्रतिभा के धनी और समीक्षक थे। पर वे उसे बाहर प्रकट नही करते थे। अवसर पर उसका उनकी प्रतिभा तर्क की कसौटी पर कस कर ही किसी प्रभाव अवश्य कार्य करता था । वे इतिहास की दृष्टि मे बात को स्वीकार करती थी । वह जो कुछ असम्प्रदायिक थे। उन्हें सम्प्रदाय से इतना व्यामोह नही लिखते निडर होकर लिखते, दूसरे के लेखों में कमी था, वे सत्यता को पसन्द करते थे। प्रमाण व युक्ति से या विरुद्धता पाते तो उसका निराकरण करते, उनकी जो बात सिद्ध होती थी उसे वे कभी भी बदलने को तैयार भाषा कुछ कठोर होती, तो भी वे उसे सरल नहीं करते। नहीं होते थे । अनेक अवसरों पर वे इस बात मे खरे थे । हा, वे जो कुछ लिखते थे उसे बराबर सोच समझ कर प्रमाण विरुद्ध बात को कभी स्वीकार नहीं करते थे और लिखते उसमे विलम्ब भले ही हो जाता, पर वह सम्बद्ध न सुनी सुनाई बातो पर आस्था ही करते थे। जैसे कोई विचारधारा से प्रतिकूल नही होता था । मुझे उनके साथ दार्शनिक वा वकील अनेक तरह की दलीले देकर मुकदमा सरसावा और दिल्ली वीरसेवामन्दिर में काम करने का या विवाद मे जीतने या जिताने का प्रयत्न करता है वैसे वर्षों अवसर मिला है। जो लेख वे लिखना चाहते थे उस ही मुख्तार साहब भी प्रमाणो के आधार पर अपना अभिपर वे पहले चर्चा कर लेते थे और फिर लिखने बैठते । मत व्यक्त करते, अथवा लेख का निष्कर्ष निकालते थे । लेख पूरा होने पर या कभी-कभी तो अधूरा लेख ही सुनने इसीलिये उनके लेख विद्वत् जगत मे ग्राह्य और प्रमाण रूप व पढ़ने को दे देते । उसके सम्बन्ध मे वे जो कुछ पूछते में माने जाते है। वे अपनी सूक्ष्म विचारधारा एव व प्रमाण मांगते तो यथा सभव मै उन्हे तलाश कर देता आलोचना और समीक्षात्मक दृष्टि से पदार्थ पर गहरा था कभी-कभी वे रात को दो बजे लिखने बैठ जाते, तब चिन्तन तथा मनन करते थे। उनके समीक्षा ग्रन्थ भी मुझे आवाज देकर बुलाते, और मैं पाकर उन्हें यथेष्ट इसी बात के द्योतक हैं । भट्टारकों की अधार्मिक प्रवृत्तियो ग्रन्थ या प्रमाण निकाल कर दे देता । वे लिखना प्रारम्म और पाम्नाय विरुद्ध ग्रन्थ चर्चाओं पर उन्होंने जो करते और उसे ही पूरा करने में ही लगे रहते । उठते समीक्षाएं लिखी है वे जैन समाज मे प्रमाण रूप से मानी बैठते सदा उसी का विचार करते रहते थे। उसके पूरा जाती हैं, और अभी समाज में उनकी आवश्यकता बनी होने पर ही वे विराम लेते । फिर मुझे उसकी कापी करने हई है। यद्यपि वे अप्राप्य हैं, किन्तु भविष्य की पीढ़ी को देते । कापी होने पर उसे छपवाते । मै जब कोई लेख के लिये वे अधिक प्रमाण भूत होंगी। भविष्य के विचालिखता तो उन्हें जरूर सुनाता और वे जो कुछ रकों को वे पथ प्रदर्शन का काम अवश्य करेगी । समीक्षा निर्देश करते उसके अनुसार ही उसे पूरा कर उन्हे दे ग्रन्थ लिखकर उन्होंने विद्वानों के लिये मालोचना का देता था। यह क्रम सरसावा में चलता रहा, दिल्ली पाने मार्ग प्रशस्त कर दिया है । अब कोई भी विद्वान निर्भय पर कुछ वर्ष यहाँ भी चला। इससे लेखकी प्रमाणिकता होकर पार्ष मार्ग से विरुद्ध ग्रन्थों की समीक्षा कर हो जाती है और लेख में रही सही अशुद्धियां भी नहीं सकता है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ प्रनेकान्त आपने कभी कोई लेख झट-पट नही लिखा । सम्मति से प्रार्थना क्यो ? है, जिनमें भक्ति के स्वरूप का सुन्दर तर्क के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर पर जो 'सम्मतिसूत्र और विवेचन किया गया है । और निष्काम भक्ति से होने वाले सिद्धसेन' नामका निबन्ध मुख्तार सा० नेलिखा है और जो सुखद परिणाम का अच्छा चित्रण किया है । उन्होने सिद्धि अनेकान्त वर्ष की ११वी १२वी किरण में प्रकाशित हुआ को प्राप्त शद्धात्मानों की भक्ति द्वारा प्रात्मोत्कर्ष साधने है । वह कितना युक्ति पुरस्सर है इसे बतलाने की आव- का नाम 'भक्तियोग' अथवा 'भक्तिमार्ग, बतलाया है। श्यकता नहीं, पाठक उसे पढकर स्वय अनुभव कर सकते वह यथार्थ है, पूजा, भक्ति, उपासना, अाराधना, स्तुति, है। उसमे जो युक्तिया दी गई है, उनका उत्तर प्राज प्रार्थना, वन्दना और श्रद्धा सब उसी के नामान्तर है। तक भी नही हुआ । खींचा तानी की जा सकती है, पर अन्तर्दृष्टि पुरुषो के द्वारा प्रात्म-गुणो के विकास को निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर मुख्तार साहब का लक्ष्य में रखकर जो गुणानुराग रूप भक्ति की जाती है लिखना युक्ति संगत और प्रमाण भूत है । यह स्क्य अनु- वही आत्मोत्कर्ष की साधक होती है । लौकिक लाभ, पूजा, भव में आ जाता है, उसमे तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा नही प्रतिष्ठा, यश, भय और रूढि प्रादि के वश होकर जो गया है प्रत्युत वास्तविक तथ्यों को देने का उपकृम किया भक्ति की जाती है उसे प्रशस्त अध्यवसाय की साधक नही गया है। उनकी समीक्षात्मक दृष्टि बडी पैनी और तर्क- कहा जा सकता, और न उससे संचित पापों का नाश, या शालिनी है । समीक्षा लेखो के अतिरिक्त शोध-खोज के अत्म-गुणों का विकास ही हो सकता है। स्वामी समन्तलेख भी उनके महत्वपूर्ण है । उदाहरण के लिये 'स्वामी भद्र जसे महान् दार्शनिक आद्य स्तुतिकार ने भी परपात्र केसरी और विद्यानन्द' वाला लेख कितना विचार मात्मा की स्तुति रूप भक्ति को कुशल परिणाम की हेतु पूर्ण और नवीन तथ्यों को प्रकाश में लाने वाला बतलाकर उसके द्वारा |योमार्ग को सुलभ और स्वाधीन है, उसमें उन दोनों को एक समझने वाली भ्रान्ति का बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वीतराग परमात्मा की उन्मूलन कर वस्तु स्थिति को स्पष्ट किया गया है। इसी यथार्थ भक्ति केवल परिणामों की कुशलता की ही सूचक नही तरह 'भगवान महावीर और उनका समय' वाला लेख भी प्रत्युत प्रात्म-सिद्धि की सोपान है-धातिकर्म का विनाश सम्बद्ध और प्रामाणिक है, यद्यपि उनके लेख कुछ विस्तृत है, कर निरंजन भाव की साधिका है। मुख्तार सा० ने जो पर वे रोचक और वस्तुस्थिति के यथार्थ निदर्शक है। इसी कुछ लिखा वह प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित परम्परा से तरह श्वेताम्बर तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाप्य की जाच, लेकर ही लिखा है। उन्होंने उसमे अपनी तरफ से कछ तत्वार्थाधिगम सूत्र की एक सटिप्पण प्रति, समन्तभद्र का भी मिलाने का प्रयत्न नही किया; किन्तु उसके भाव को मुनि जीवन और आपत्काल समन्तभद्र का समय और अपने शब्दो एवं भावों को भाषा सौष्ठव के साथ प्रकट डा० के० वी० पाठक, सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का किया है। प्रभाव, जैन तीर्थ करो और जैनाचार्यो का शासन-भेद, आप के सामाजिक लेख क्रान्ति के जनक है। आप रत्नकरण्ड के कर्तत्व विषय मे मेरा विचार और निर्णय के उन लेखों से जैन समाज मे क्रान्ति की धारा बह आदि लेख भी वस्तुतत्त्व के निदर्शक है । और भी अनेक चली। उनसे समाज मे क्रान्ति तो जरूर हुई किन्तु वह लेख है, जो उनकी शोध और समीक्षात्मक दृष्टि के जनक अस्थायी रही । सामाजिक लेखो में 'जैनियो मे दया का है। लेखों की भाषा भी प्रौढ़ सम्बद्ध और स्पष्ट है। अभाव', 'जैनियों का अत्याचार', नौकरी से पूजा कराना, उपासना सम्बन्धी लेख भी उनके कम महत्वपूर्ण नही 'जनी कौन हो सकता है' जाति पचायतो का दण्ड विधान है, वे भक्ति योग पर अच्छा प्रकाश डालते हैं, और जाति प्राचार्य भेद पर अमित गति, विवाह समुद्दे श प्रादि लेख निष्काम भक्ति की महत्ता के हार्द को प्रस्फुटित करते है। समाज में जागृति लाने वाले हैं। इन लेखों में उस समय भक्तिपरक निबन्धों में 'उपासनातत्त्व, उपासना का ढग की कुत्सित प्रवृत्तियो की आलोचना करते हुए समाज में भक्तियोग रहस्य, वीतराग की पूजा क्यों ? और वीतराग नवजीवन लाने के लिए प्राडम्बर युक्त प्रवृत्तियों को अनु Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व चित बतलाया, तथा यह भी लिखा कि हृदय की शुद्धि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया । दिल्लीकी प्राकिलाजिकल के बिना बाह्य प्रवृत्तियाँ मिथ्या है, निस्सार है, उनका डिपार्टमेन्ट की लायबेरी से एपिग्राफिया इडिका और जीवन में कुछ भी उपयोग नही। कर्णाटिका, अनेक जनरल और कनिघम की रिपोर्ट मादि पत्र सम्पादक पुरातत्व-विषयक ग्रन्थों का पालोडन कर अनेक उपयोगी मुख्तार सा० सन् १९०७ मे 'जैन गजट' के सम्पादक नोट्स लिये और सरसावा में बैठकर बडे भारी परिश्रम बनाये गए । उस समय के आप के सम्पादकीय लेख देखने से समन्तभद्र का इतिहास लिखा । इसमे लेखक ने प्राचार्य से पता चलता है कि उस समय आप में लेखन कला और समन्तभद्र के मुनि जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला। सम्पादन कला का विकास हो रहा था। उसके बाद वे जैन भस्मक व्याधि के समय आपत्काल में उन्होंने अपनी साधु हितैषी के सम्मादक बनाये गये। उस समय पाप की चर्या का किस कठोरता और दृढता से पालन किया । और विचारधारा प्रौढ़ और लेखो की भाषा भी परिमार्जित तथा रोगोपशान्ति के बाद जैन शासन की सर्वोदयी धारा को विचारों में गहनता और ऐतिहासिकता आ गई थी। उस कैसे प्रवाहित किया? और भगवान महावीर के शासन समय आप ने 'पुरानी बातों की खोज' शीर्षक के नाम से की हजार गुणी वृद्धि की, प्रादि का सविस्तृत वर्णन है। अनेक लेख लिखे । और सन् १९२६ मे आप ने दिल्ली के साथ में उनकी महत्वपूर्ण कृतियों का भी परिचय कराते करोलबाग मे 'समन्तभद्राश्रम' की स्थापना की और हुए उनके समयादि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। अनेकान्त पत्र को जन्म देकर उसका सम्पादन प्रकाशन प्राचार्य समन्तभद्र का समय विक्रम की तीसरी-चौथी किया । पाप की सम्पादन कला निराली है, वह अपनी शताब्दी है । इस इतिहास के प्रकाशित होने के बाद भी बहुत कुछ विशेषता रखती है । अनेकान्त के प्रथम वर्ष में वे उनके सम्बन्ध मे अन्वेषण करते हुए लिखते रहे है । प्रकाशित आपके लेख ऐतिहासिक दृष्टि से वस्तुतत्त्व के समन्तभद्र पर उनकी बड़ी आस्था जो थी । समन्तमद्र का विवेचक और भूल-भ्रान्तियो के उन्मूलक थे। उस समय यह इतिहास ग्रंथ अप्राप्य है । अतः इसका पुनः प्रकाशन आपकी ऐतिहासिक विचारधारा प्रौड बन गई थी। अने- होना चाहिये, और परिशिष्ट मे समन्तभद्र के संबन्ध मे कान्त मैं आपके अनेक शोधपूर्ण लेख प्रकाशित हुए, कितने ही जो सामग्री प्रकाश में आई है उसे भी यथा स्थान देना लेख समीक्षात्मक उत्तरात्मक दार्शनिक और विचारात्मक चाहिये । लिखे गये । आपके यह सब लेख पुस्तकाकार प्रकाशित समान हो चुके है । पाठको को उनका अध्ययन कर अपने ज्ञान की मुख्तार सा० का व्यक्तित्व महान है, उनमे सहिष्णुता वृद्धि करनी चाहिए। और कार्य क्षमता अधिक है । वे श्रम करने में जितने दक्ष इतिहास लेखक और उत्साही थे, विरोधियो के विरोध सहने या पचाने ___ मुख्तार साहब ने प्राचार्य समन्तभद्र का इतिहास में भी उतने ही सक्षम थे। सन् १९१० मे खतौली के लिखा, जो पं० नाथूराम जी प्रेमी बम्बई को समर्पित किया दस्सो और बीसों के पूजाधिकार-विषयक ऐतिहासिक गया था और जिसका प्रकाशन सन् १९२५ मे हुआ मुकदमे में आपने और गुरुवर्य गोपालास जी वरैया ने था। सन् १९२५ से पहले किसी भी जैन विद्वान ने किसी दस्सों की ओर से गवाही दी थी, तब आप स्थिति पालको प्राचार्य के सम्बन्धमे ऐसा खोजपूर्ण इतिहास ग्रन्थ लिखा हो, के रोष के भाजन बनें, तथा धर्म विरोधी घोषित किये यह मुझे ज्ञात नही जैसा कि मुख्नार सा० ने स्वामी गये और जाति वहिष्कार की धमकी के पात्र हुए। उस समन्तभद्र का इतिहास ग्रन्थ लिखा । मम्नार सा० को रत्न समय मापने जिन पूजाधिकार मीमांसा नाम की एक करण्डश्रावकाचार की प्रस्तावना और समन्तभद्र के इतिहास पुस्तक लिखी थी, जिसमें जिन पूजा, पूजक और उसका को लिखने में पूरे दो वर्ष का समय लगा। प्रस्तावना और अधिकार और फल पर यथेष्ट प्रकाश डाला इतिहास दोनों शोधपूर्ण है। उसके लिये मुस्तार साने गया है। जहाँ वे प्रबल सुधारक थे, वहाँ कर्मठ अध्यव Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भनेकान्त सायी भी थे। और अपने विचारों में चट्टान की तरह से काम लिया। उनकी सहनशीलता ने उन्हें जो शक्ति अडिग रहने वाले थे। सन् १९१७ में जब ग्रन्थ परीक्षा प्रदान की, उससे विरोधियों को मुह की खानी पड़ी और के दो भाग प्रकाशित हुए, इनमे से प्रथम भाग में उमा- धीरे-धीरे वे विरोधी जन भी उनके प्रशंसक बन गए। स्वामी श्रावकाचार, कुन्द-कुन्द श्रावकाचार, और जिनसेन सन् १९२२ में जब 'विवाह समुद्देश' नाम का ट्रैक्ट त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थों की परीक्षा की गई है। प्ररि प्रकाशित ग्रा. तब उसके उत्तर में शिक्षाप्रद शास्त्रीय दूसरे भाय में भद्रबाहुहिता की परीक्षा की गई है, इसमें उदाहरण' नामक लेख लिखा गया, जिसके उत्तरमें मुख्तार ग्रन्थ के अन्तरंग परीक्षण के साथ, प्रत्येक अध्याय का वर्ण्य सा० ने सन् १९२५ में 'विवाह-क्षेत्र प्रकाश' नाम की विषय, तुलनात्मक अध्ययन और ग्रन्थ में असम्बद्ध, अव्यव पुस्तक लिखी, जिसमें शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण का स्थित तथा विरोधी तथ्यों का स्पष्टीकरण किया गया है। जोरदार खण्डन करते हुए अनेक प्रमाणों द्वारा इसमे लेखक की तटस्थ वृत्ति और विषय का प्रतिपादन अपनी पूर्व मान्यता को पुष्ट किया। सन् १९२२ मे श्लाघनीय है। . जैनाचार्यों और जैन तीर्थकरों का शासन भेद ग्रन्थ परीक्षा तृतीय भाग में जो सन् १९२१ में नाम की पुस्तक लिखी जिसमें जैनाचार्यों और प्रकाशित हमा है । इसमें भट्टारक सोमसेन के त्रिवर्णाचार, जैन तीर्थकरों के शासन भेद का स्पष्ट निवेचन किया। धर्म परीक्षा, अकलक प्रतिष्ठा पाठ और पूज्यपाद उपासका पर किसी विद्वान को मुख्तार सा. के खिलाफ लिखने का चार की परीक्षा अंकित है। सोमसेन द्वारा इस त्रिवर्णा साहरा नही हुआ। क्योंकि म ख्तार सा० ने अपनी लोह चार में वैदिक संस्कृति के हारीत पाराशर और मनु मादि लेखनी से जो भी लिखा वह सब सप्रमाण और सयुक्तिक विद्वानों के ग्रन्थों के अनेक पद्य ज्यों के त्यो लठाकर रक्खे लिखा था इस कारण विरोधी जनों को अप्रिय एवं अरुचिगये है। मुख्तार सा० के गम्भीर अध्ययन ने ग्रन्थ की का कर होते हुए भी वे उसका प्रतिवाद करने में सर्वथा . अप्रामाणिकता पर यथेष्ट प्रकाश डाला है । है ! असमर्थ रहे। उनके युक्ति पुरस्सर लेख को देखकर विरोभट्रारक सोमसेन ने जैन संस्कृति के प्राचार मार्ग धियो को विरोध करने का साहस भी नहीं होता था। को कलंकित किया था। मुख्तार सा० ने ग्रन्थ-परीक्षा इससे पाठक म ख्तार साहब की लेखनी की महत्ता को द्वारा उस कलक को धोकर जन संस्कृति को पुनः सहज ही समझ सकते है । समुज्वल किया। उनकी ग्रन्थ परीक्षण की यह स्वतन्त्र मुख्तार सा० की महत्ता जैनधर्म पर उनकी प्रगाढ़ विचारधारा विद्वानों के द्वारा अनुकरणीय है। ग्रन्थ परीक्षा श्रद्धा और संयमाराधन की उत्कट भावना से है । वे ज्ञान का चतुर्थ भाग सन् १९३४ में प्रकाशित हुआ है। इसमें के साथ चारित्र को भी महत्व देते थे और जितना उनसे सूर्य प्रकाश ग्रन्थ का परीक्षण किया गया है। जिसमें हो सकता था उसे वे जीवन मे करते रहे। वे स्वामि पार्षविरुद्ध एवं असंबद्ध बातों का दिग्दर्शन कराते हुए तथा समन्तभद्रोदित सप्तम प्रतिमा का अनुष्ठान करते थे। अनुवाद सम्बन्धी त्रुटियों का उद्घाटन करते हुए उसे और त्रिकाल सामयिक करना अपना कर्तव्य मानते थे। वे अप्रामाणिक ठहराया है । इस तरह मुख्तार साहब के ये रात दिन साहित्य साधना में सलग्न रहते थे। इसी से चारों परीक्षा ग्रन्थ महत्वपूर्ण कृति है।। सामाजिक और व्यक्तिगत बुराइयों से बचे रहते थे। मैंने इन परीक्षा ग्रन्थों के प्रकाशन के समय जैन समाज उन्हें कभी दूसरों की निन्दा करते हुए नही देखा । वे कर्मठ में जो वबडर उठा, उसमें मुख्तार सा० को धर्म-विधातक अध्यवसायी और साहित्य तपस्वी थे। साहित्यसृजन के बतलाया गया, अनेक धमकी भरे पत्र मिले पर मुख्तार प्रति उनकी लगन अद्भुत थी। यद्यपि उनके जीवन मे सा० घबडाये नहीं, बिना सोचे समझे ही समाज मे क्षोभ रुक्षता और कृपणता दोनो का सामजस्य था। वे एक की लहर फैली, अनेक स्थिति पालकों ने विविध प्रकार पैसा भी फिजूल खर्च नहीं करते थे। यद्वा तद्वा खर्च दोषारोपण किये । उस समय भी आपने साहस और धैर्य करना उनकी प्रकृति के विरुद्ध था, वे उपयोगिता को Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व २१६ देख कर ही खर्च करते थे । मितव्ययी थे और जो खर्च घर-घर चर्चा रहे धर्म को, दुष्कृत दुष्कर हो जाये, करते थे उसका पाई-पाई का पूरा हिसाब लिखते थे। ज्ञान चरित उन्नति कर अपना मनुज जन्म फल सब पावे ॥ राष्ट्र एवं देश के नेताओं के प्रति उनकी महती प्रास्था मुख्तार साहब ने मेरी भावना के पद्यों में अनेक थी महात्मा गांधी के निधन पर 'गाधी स्मारक निधि' के पार्षग्रन्थों का सार भर दिया है। पद्यों में जहाँ शब्द लिए अापने स्वयं एक सौ एक रुपया दिया और पांच- योजना उत्तम है वहाँ भाव भी उच्च और रमणीय है। पांच दिन का वेतन अपने विद्वानों से भी दिलवाया था। काग्रेस के प्रति भी उनकी अच्छी निष्ठा थी। वे सूत कात मुख्तार साहब केवल गद्य लेखक ही नही थे किन्तु कर 'चर्खासंघ' को देते और बदले में खादी लेकर कपड़े कवि भी थे। प्रापकी कविता हिन्दी और सस्कृत दोनो बनवाते थे। भाषाओं मे मिलती है। कवि भावुक होते हैं और वे मुख्तार सा० का कृतित्व कविता की उडान में अपने को भूल जाते है । पर मुख्तार सा० की गणना उन कवियो मे नही पाती; क्योकि उनकी उनका रहन-सहन सादा था। अधिकतर वह गाढे कविता केवल कल्पना पर आधारित नहीं है। मुख्तार का उपयोग करते थे। राष्ट्र की सुरक्षा में भी उन्होंने साहब की कविताओं का प्राधार सस्कृत के वे पद्य हैं जो राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी के पास एक सौ एक रुपया । विभिन्न प्राचार्यों द्वारा रचे गए है । घटनाक्रम की कविता भेजा था। वे साहित्य रसिक थे, और उसमे ही रचे-पचे 'अज सम्बोधन' है जिसमें वध्य भूमि को जाते हुए बकरे रहते थे। का चित्रण किया गया है। उसमे उसका सजीव भाव उन्होंने सन् १९१६ में 'मेरी भावना' नाम की एक समाया हुआ है । ग्राप की हिन्दी की कविताओं में मानव कविता लिखी, जो राष्ट्रीयगीत के रूप में पढी जाती है, धर्म वाली 'कविता ' अछूतोद्धार की भावना का सजीव यह कविता बड़ी लोकप्रिय हई। इसके विविध भाषाओं चित्रण है-उसमें बतलाया गया है कि मल के स्पर्श से मे अनुवादित अनेक सस्करण निकले । लाखों प्रतियां कोई अछूत नहीं होता। मल-मूत्र साफ करने का कार्य छपी। उसके कारण लाखों व्यक्ति मुख्तार सा० के परिचय तो मानव अपने जीवन काल में कभी न कभी करता ही मे आये और वे सदा के लिये अमर बन गये । पाठको की है फिर वेचारे इन अछूतों को ही मल-मूत्र उठाने के जानकारी के लिए मेरी भावना के तीन पद्य नीचे दिये कारण अपवित्र क्यों माना जाता हैजाते है गर्भवास और जन्म समय में कौन नहीं अस्पृश्य हुमा? मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, कौन मलों से भरा नहीं किसने मल मूत्र न साफ किया ? दोन-दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा-स्रोत वहे । किसे अछुत जन्म से तब फिर कहना उचित बताते हो? दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको प्रावे, तिरस्कार भंगी-चमार का करते क्यों न लजाते हो ?॥४॥ साम्पभाव रक्खू मै उन पर ऐसी परिणति हो जावे ॥ संस्कृति की कविता, 'मदीया द्रव्य पूजा', वीरस्तोत्र, और + + + + समन्तभद्रस्तोत्र प्रादि है । समन्तभद्रस्तोत्र की कविता कोई बुरा कहो या अच्छा लक्ष्मी प्रावे या जावे, का एक पद्य नीचे दिया जाता हैलाखों वर्षों तक जीऊं या मृत्यु अाज ही प्रा जावे। देवज्ञ-मान्त्रिक-भिषग्वर-तान्त्रिको यः प्रयवा कोई कैसा ही भय या लालच देने प्रावे, सारस्वतं सकलसिद्धि गतं च यस्य । तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे ॥ मान्यः कविर्गमक-वाग्मि-शिरोमणिः स + + + + वादीश्वरो जयति धीर समन्तभद्रः ॥ सुखी रहें सब जीव जगत के कोई कभी न घबराये। अनित्य भावना प्राचार्य पद्मनन्दी की कृति है जिसका बैर-पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे । आपने सन् १९१४ में पद्यानुवाद किया था, उसके एक Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अनेकान्त श्लोक का पद्यानुवाद नीचे दिया जाता है के लिये भाष्यकार को तलस्पर्शी पाण्डित्य के साथ तथ्यों एक दिवस भोजन न मिले या, नींद न निशिको प्रावे, का विश्लेषण करना अनिवार्य होता है । मूल ग्रन्थकार के अग्नि समीपी अम्बुज दल सम, यह शरीर मुरझाये । द्वारा प्रयुक्त एक ही शब्द किन किन किन स्थालों में और शास्त्र व्याधि जल प्रादिक से भी, यह शरीर मुरमावे, किस किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है इसके लिये मूल ग्रन्थ का चेतन क्या पिर बुद्धि देह में ? विनशत अचरज को है। गहराई से पारायण करना पड़ता है । भाष्य लिखते समय मूल ग्रंथ के शब्द को सामने रखते हुए उसके अन्दर इसी तरह प्राचार्य देवनन्दी को 'सिद्ध भक्ति का निहित अर्थ या भाव को सरल भाषा में रखते हुए पद्यानुवाद भी सुन्दर हुअा है, जो 'सिद्ध-सोपान' के नाम वाच्य वाचक सम्बन्ध, अभिधेय, संवेदन और वाक्यार्थ की से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है। वह सुन्दर और कण्ठ अभिव्य जना का परिज्ञान आवश्यक होता है। तभी भाष्यकरने योग्य है-यथा कार मूल ग्रथ के गभीर अर्थ का प्रतिपादन करने मे समर्थ स्वात्मभाव की लब्धि 'सिद्धि' है, होती वह उन दोषों के हो सकता है। उच्छेदन से, अच्छावक जो ज्ञानादिक-गण वन्दों के। योन्य साधनों को सुयुक्ति से; अग्नि प्रयोगादिक द्वारा मुख्तार सा० ने अनुवाद करने से पूर्व स्वामी समन्तहेम-शिला से जग में जैसे हेम किया जाता न्यारा ॥ भद्र भारती के ग्रन्थो का एक शब्दकोष प० दीपचन्द जी इस तरह मुख्तार सा० की गद्य पद्य रचना सभी सुन्दर पाण्ड्या केकडी से तय्यार कराया था। मुलग्रंथ के पाठ और भावपूर्ण है। सशोधन के पश्चात् अनुवाद प्रारभ किया। अनुवाद हो जाने के बाद भाष्य लिखने के लिये ग्रन्थ पोर अनुवाद का व्याख्याकार या भाष्यकार पारायण तथा संशोधन किया, और भाप्य लिखने से पूर्व आप की समस्त कृतियों की संख्या ३०-३५ है जिनमे मूलग्रंथकार की दृष्टि को स्पष्ट करने के लिये विविध कुछ छोटे छोटे ट्रैक्ट भी है । उनमे पापने जिनका अनुवाद ग्रन्थो का परिशीलन किया, तथा लिखते समय उन्हें सामने तथा सम्पादन किया है। उनके नाम इस प्रकार है-पूरा रक्खा । मुख्तार मा. का दृष्टिकोण मूल के हार्द को स्पष्ट तन जैनवाक्य-सूची, वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, करना था अतएव उन्होंने मूलग्रथ के पद्यो के अन्दर अध्यात्मरहस्य, समीचीनधर्मशास्त्र, सत्साधुस्मरण मगल मन्तनिहित अर्थ को उसकी गहराई मे जाकर तलदृष्टा पाठ, प्रभाचन्द्र का तत्त्वार्थसूत्र कल्याण-कल्पद्रुम, तत्त्वा वन मूल को स्पष्ट करने वालो व्याख्या या भाष्य लिखा । नुशासन, देवागम (माप्तमीमांसा) योगसार प्राभूत और अनुवाद और भाष्य लिखने में मुख्तार सा० ने अथक श्रम जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सगह (प्रथम भाग) समाधितत्र । किया तभी वह मूल ग्रन्थ के अनुकूल और उपयोगी हो आपकी इन कृतियों का अध्ययन करने से स्पष्ट पता सका है। उसमें उन्होंने अपनी ओर से कुछ भी चलता है कि म स्तार सा० ने इन ग्रन्थों के अनुवाद, मिलाने का प्रयत्न नहीं किया। अतएव वह भाष्य लिखने सम्पादन प्रस्तावनादि लिखने में पर्याप्त श्रम किया है। में कितने सफल हए इसका निर्णय विद्वान पाठक ही कर मूलानुगामी अनुवाद के साथ व्याख्या या भाष्य द्वारा ग्रन्थ सकते है। स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थो का जो अनुवाद और के मर्म को स्पष्ट किया गया है। भाष्यकार को मूल भाष्य लिखा वह कितना परिमाजित और मूलपथकार की लेखक की अपेक्षा उसके हार्द को स्पष्ट करने के लिए दष्टि का अभिव्यंजक है । मैने उसे लिखते समय पढ़ा और विशेष परिश्रम और प्रतिभा का उपयोग करना पड़ता है। बाद मे प्रेस कापी करते हुए भी पढ़ा है मुझे तो उसमें मूल ग्रन्थकार के भावों को अक्षुण्य रखते हुए उनकी कोई स्खलन प्रतीत नही हुआ। कारण कि मुख्तार सा० सरल और स्पष्ट व्याख्या करनी होती है, मूल ग्रन्थ की लिखने में बहुत सावधानी रखते थे। साथ ही शब्दों को तह में (गहराई में) छिपे हुए तथ्यों को प्रकाश में लाने जाँच तोल कर रखते । उनकी लेखनी झटपट और चलता Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व २२१ हा नहीं लिखती थी। लिखते समय उनकी एकाग्रता का सहेतुक निर्देश किया गया है । और यह बतलाया है कि और संलग्नता अनुकरणीय है। मन को जीतने पर मनुष्य सहज ही जितेन्द्रिय हो जाता तत्त्वानुशासन का भाष्य लिखते समय प्राचार्य रामसेन है । जिसने अपने मन को नहीं जीता वह इन्द्रियों को क्या के मूल्य पद्यों का मूलानुगामी अनुवाद किया और बाद में कारबाट ने जीतेगा ? मन के सकल्प-विकल्प रूप व्यापार को रोकना भाष्य लिखा । भाष्य लिखते समय मूल ग्रन्थकार की दष्टि अथवा मन की चचलता को दूर कर उसे स्थिर करना. को अक्षुण्ण रखते हए पद्यो मे आये हए विशेषणों का मन को जीतना कहलाता है । मन का व्यापार रुकने अथवा स्पष्टीकरण किया । पाठको की जानकारी के लिये उसके उसकी चचलता मिटने पर इन्द्रियो का व्यापार स्वतः रुक दो पद्यो का अनुवाद और व्याख्या नीचे दी जाती है जाता है-वे अपने विषयो मे प्रवृत्त नही होती उसी प्रकार संगत्यागः कषायानां निग्रहो वत धारणम् जिस प्रकार कि वृक्ष का मूल छिन्न-भिन्न हो जाने पर मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यान जन्मनि ।। उसमे पत्र-पुप्पादिक की उत्पत्ति नहीं हो पाती। तत्त्वानुशासन की प्रस्तावना बहुत विचार-विमर्श के परिग्रहो का त्याग, कृपायों का निग्रह-नियत्रण, व्रतो बाद लिखी गई है। उसके लिखने मे मुख्तार सा० ने का धारण और मन तथा इन्द्रियो का जीतना यह सब अच्छा श्रम किया है। इस सम्बन्ध में मैने उन्हे पर्याप्त ध्यान की उत्पत्ति-निष्पत्ति में सहायभूत- सामग्री है। सामग्री दी थी। उन्होंने मेरा उल्लेख भी किया है। रामव्याख्या-यहाँ सग त्याग में बाह्य परिग्रहों का त्याग सेन के समय का निर्णय उन्होने कितने ही सुन्दर और अभिप्रेत है; क्योंकि अन्तरग परिग्रह में क्रोधादि कषाये मरल ढग से किया यह देखते ही बनता है। तथा हास्यादि नो कषाय पाती है जिन सबका कषायो के पाप के ग्रन्थों की प्रस्तावनाए वडी मार्मिक और निग्रह मे समावेश है । कुसगति का त्याग भी सगत्याग में शोधपूर्ण है। अध्यात्म-कमलमार्तण्ड की प्रस्तावना में या जाता है-वह भी सध्यान मे बाधक होती है । व्रतो १७वी शताब्दी के विद्वान तथा प्रथित ग्रन्थकार पांडे में अहिंसादि महाव्रतों तथा अणुव्रतों आदि का ग्रहण है । राजमल्न का परिचय और उनकी कृतियो के सम्बन्ध में अनशन ऊनोदर आदि के रूप में अनेक प्रतिज्ञाए भी व्रतो अच्छा प्रकाश डाला गया है। में शामिल है। इन्द्रियों के जय मे स्पर्शन-रसन प्राण-चक्षुश्रोत्र ऐसी पाचो इन्द्रियों की विजय विविक्षित है। ध्यान पुरातन जन वाक्य-सूची की प्रस्तावना और उसका की और भी सामग्री है, परन्तु यहाँ सर्वतो मुख्य सामग्री सम्पादन अपने महयोगी विद्वानो के साथ किया। ग्रन्थ का उल्लेख है। शेष सामग्री का 'च' शब्द में समुच्चय अन्वेषण करने वाले विद्वानो के लिये उपयोगी है मुख्तार किया गया है। उसे अन्य ग्रन्थों के सहारे से जुटाना सा० ने उसकी प्रस्तावना में प्रत्येक ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध मे अच्छा विचार किया है। खासकर सन्मति सूत्र चाहिये । इस ग्रन्थ में भी परिकर्म आदि के रूप में जो और सिद्धसेन के सम्बन्ध मे जो विचार अथवा निष्कर्ष कुछ अन्यत्र कहा गया है उसे भी ध्यान की सामग्री दिया गया है वह मौलिक है। गोम्मटसार की टि-पूर्ति समझना चाहिये। पर भी प्रकाश डाला है। और भी अनेक विद्वानो के इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभु। सम्बध में अच्छा प्रकाश डाला गया है । जो शोधक विद्वानो मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन जितेन्द्रियः ।। के लिये उपयोगी है। इन्द्रियो की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में मन प्रभु 'समन्तभद्र भारती' के ग्रन्थों का अनुवाद और व्याख्या सामथ्यवान है, इसलिये (मुख्यतः) मन को ही जीतना बहुत ही परिश्रम के साथ सम्पन्न की है। खासकर चाहिये मन को जीतने पर मनुष्य (वास्तव) मे जितेन्द्रिय युक्त्यनुशासन का हिन्दी अनुवाद उन्होंने कितनी सरल होता है-इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है। भाषा मे प्रस्तुत किया है । यह उनकी महत्वपूर्ण दैन है। व्याख्या-यहाँ इन्द्रियों से भी पहले मन को जीतने जो दार्शनिक विषय पर भी इतना अच्छा प्रकाश डालती Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अनेकान्त पहा है। देवागम का अनुवाद भी उन्होंने सरल ढंग से प्रस्तुत से दिलाया। मुख्तार सा० के व्यक्तित्व को उभारने का किया है, जो पठनीय है। भी प्रयत्न किया। वीर शासन-जयन्ती के अवसर पर ___ इसी तरह समीचीन धर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड श्रावकाचार) सरसावा में अध्यक्ष पद से जो भाषण दिया था उसमे का अनुवाद, भाष्य और प्रस्तावना बड़ी महत्वपूर्ण है, वह उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि 'मैं मुख्तार मूल ग्रंथ पर अच्छा प्रकाश डालती है, और टीकाकार सा० को वर्तमान के मुनियो से भी कही अच्छा मानता हूँ प्रभाचन्द्र के सम्बन्ध मे भी ऐतिहासिक दृष्टि से यथेष्ट जो सामाजिक झगड़ों से दूर रह कर ठोस साहित्य के प्रकाश डालती है। निर्माण द्वारा जिन शासन और समाज की सेवा कर रहे आपका अन्तिम भाष्य अमितगति प्रथम का योगसार हैं।' बा० छोटेलाल जी की उदारता, उत्साह और परिश्रम प्राभूत है। जिसका उन्होंने बीसों बार अध्ययन किया है। से तथा पूज्य प० गणेश प्रसाद जी वर्णी को प्रेरणा से वीर और बहुत कुछ चिन्तन के बाद उसका मूलानुगामी अनुवाद सेवामन्दिर का भवन दिल्ली में बन गया। मुख्तार सा. और भाष्य प्रस्तुत किया है । यह उनकी अन्तिम कृति है। का बाबू छोटेलाल जी के साथ पिता-पुत्र जैसा सुदृढ प्रेम इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हुआ है। प्राशा है सम्बन्ध बहुत वर्षों तक रहा । पर कुछ कारणों से परस्पर समाज उससे विशेष लामै उठाने का प्रयत्न करेगी। में मतभेद उत्पन्न हो गया था बाद में उसमें पत्र व्यवमुख्तार साहब का जीवन सादा रहा है। वे सदा । हारादि द्वारा सुधार हो गया था और उनका परस्पर पत्रसिपाही की भाँति कार्य करने के लिये तत्पर रहते थे। व्यवहार भी चालू हो गया था, किन्तु दुर्भाग्य है कि सन् परावलम्बी होना उन्हें तनिक भी पसन्द नही था। वे सन् १९६२ के बाद उनका दोनो का परस्पर मिलन अपना सब कार्य स्वयं करके प्रसन्न रहते थे। उनके इस नहीं हो सका। सेवा कार्य को देखते हुए यह स्वाभाविक लगता है कि मुख्तार सा० का अन्तिम जीवन भी सानन्द व्यतीत ऐसे निस्वार्थ सेवाभावी विद्वान का समाज ने कोई सार्व- हुमा, वे वीरसेवा मन्दिर दिल्ली से अपने भतीजे डा० जनिक सम्मान नहीं किया, इसका हमें खेद है। पर कुछ श्रीचन्द्र जी सगल के पास एटा चले गए थे । संगल जी ने व्यक्ति की अपनी कमजोरियाँ भी होती है जो उसे पागे बढ़ने अपने ताऊ जी की सेवा प्रसन्नता से की । डा० साहब का नहीं देतीं। मुख्तार सा० का जीवन एकागी था, वे जितना सारा परिवार उनकी सेवा मे संलग्न रहता था । वे उनकी साहित्यिक विषयों पर विचार करते थे, उतना उन्होंने सेवा से प्रसन्न भी थे । डा० सा० ने लिखा है कि उनका समाज के बारे में कभी चिन्तन ही नहीं किया, समाज के अन्त समय बड़ी शान्ति के साथ व्यतीत हुआ । मैं रातभर प्रति उनका दृष्टिकोण प्रायः अनुदार-सा ही रहा प्रतीत उनके पास बैठा रहा, णमोकार मन्त्र और समन्तभद्रस्तोत्र होता है । इस कारण उनके कितने ही कार्य अधूरे पड़े रहे, का पाठ करते हुए उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया। जिन्हें वे स्वय सम्पन्न करना चाहते थे। वे वीरसेवा. उनका देहावसान २२ दिसम्बर को ६१ वर्ष २२ दिन की मन्दिर जैसी उच्चकोटि की संस्था के सस्थापक थे, उन्हे आयु में प्रातःकाल हुमा । उनके रिक्त स्थान की पूर्ति होना अच्छे कार्यकर्ता विद्वानों का सहयोग मी मिला था। उनकी असभव है । मैं उन्हे अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता प्रौढ लेखनी से प्रभावित हो बाबु छोटेलाल जी कलकत्ता हुआ उनकी आत्मा को परलोक मे सुख-शान्ति की कामना ने उन्हें आर्थिक सहयोग स्वय दिया और अपने दूसरे मित्रों करता हूँ। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस मृत्युञ्जय का महाप्रयाण डा० ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. पी-एच. डी. जन्म और मृत्यु जीवन के दो छोर है। ससार तो मे तो यह समर्पण एक निष्ठ रहा। उनकी सामाजिक अनादि-अनन्त है, किन्तु ससार के प्रत्येक प्राणी का जीवन और सास्कृतिक सेवायों का तथा उनकी साहित्यक उपसादि-सान्त ही होता है। जिसका जन्म हुआ है उसकी लब्धियो का मूल्याङ्कन कुछ हुआ है, शेष वर्तमान तथा मृत्यु अवश्यम्भावी है-वह टल नही सकती। यह देखते पाने वाली पीढियाँ करेगी। उनके जीवन में जसो और जानते हुए भी कौन ऐसा है जो मरना चाहेगा? प्रतिष्ठा, सन्मान पर प्रभावना उन्हे प्राप्त होनी चाहिए मृत्यु तो सभी को अनिष्ट और अप्रिय होती है। ऐसे थी वैसी नही हुई। कुछ लोग कहते रहे है कि इसका व्यक्ति भी विरले ही होते है जो मृत्यु से भयभीत नहीं कारण मुख्तार साहब का व्यक्तित्व, स्वभाव और व्यवहोते, अथवा जो उस भय पर विजय पा लेते हैं। यदि हार रहे है। हो सकता है कि उसका प्रशतः यह कारण कोई पर्याप्त दीर्घजीवी होता है तो बहुधा कह दिया जाता भी रहा हो। किन्तु क्या इसका साथ ही यह कारण भी है कि उसने मृत्यु को जीत लिया है। किन्तु केवल दीर्घ- नही हो सकता कि जिस समाज मे वह जन्मे, जिये और जीवि होना ही मृत्युजयी होने का प्रमाण नहीं होता। जिसकी सेवा में उन्होने अपना सम्पूर्ण तन, मन और धन मृत्युजया कहलान का अधिकारा ता वह व्यक्ति ह जा समर्पित कर दिया वह समाज कृतघ्न था, अथवा उसमे मरना न चाहते हुए भी मरने से डरता नहीं है। जो सचिन गुणग्राहकता या कद्रदानी का प्रभाव था ! इस जीवन के प्रत्येक क्षण का यथाशक्य सदुपयोग करता है, प्रश्न का समाधान भी समय करेगा। किन्तु मृत्यु के लिए भी सदैव तैयार रहता है। मृत्यु को ऐसे निष्काम कर्मयोगी एव दीर्घकालीन एकनिष्ठ वह कोई संकट या विपत्ति नहीं समझता, वरन् उसे साधक से, जिसने श्रमण तीर्थङ्करों के उस धर्म को अपजीवन का अनिवार्य विराम स्वीकार करके जब भी वह नाया और अपना इष्ट अध्ययनीय एव मननीय विषय आये, समभाव से उसके लिए प्रस्तुत रहता है। ऐसी बनाया जिसमे मरण को "मृत्युमहोत्सव' सज्ञा दी गई है, मनःस्थिति स्वयमेव, अथवा क्षणमात्र मे नही बनती। यह तो अपेक्षित था ही कि वह मृत्यु पर विजय पा लेता। उसके लिए पर्याप्तकालीन मनोनुशासन एवं मानसिक स्वामि समन्तभद्र का अनन्य भक्त और समन्तभद्रभारती तयारी करते रहना अपेक्षित होता है। का अप्रतिम तलस्पर्शी अध्येता एवं प्रख्याता भी यदि प्राक्तन-विद्या-विचक्षण श्रद्धेय प्राचार्य जुगलकिशोर मृत्युभय पर विजय न पा सका होता तो उसके उस दीर्घजी मुख्तार 'युगवीर' ने साधिक इक्यानवे वर्ष का दीर्घ जीवन, चिरकालीन साधना, धर्मज्ञता और जितना कुछ जीवन पाया। मन और तन का स्वास्थ्य भी सामान्यतया भी धर्माचरण था उस सबकी क्या सार्थकता रहती। उत्तम प्राप्त किया। अत्यन्त सरल एव सादा खान-पान मत्यु से लगभग साठ वर्ष पूर्व रचित अपनी सर्वाधिक और रहन-सहन, नियमित-संयमित जीवनचर्या और लोकप्रिय 'मेरी भावना' मे उसने उद्घोष किया थामुख्यतया बौद्धिक वृत्ति मे सलग्नता इस दीर्घजीवन और मानसिक स्वास्थ्य की विशेषताएँ थी, और सभवतया काई कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी प्रावे या जावे। उनके मूलाधार भी थे। इस दीर्घजीवन का बहभाग, लाखा . लाखों वर्षों तक जीऊं, या मृत्यु प्राज ही पाजावे ।। लगभग सत्तर वर्ष, उन्होने साहित्य, संस्कृति और समाज अथवा कोई कंसा हो भय या लालच देने पावे। की सेवा में अर्पित किया। जीवन के अन्तिम पचास वर्षों तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अनेकान्त होकर सुख में मग्न न फूलू, दुख में कभी न घबराऊं। उनसे कहा था कि 'भापतो भीष्मपितामह है, क्यों घबराते पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवी से नहीं भय खाऊँ॥ है, आपको तो इच्छा मृत्यु होगी-जब तक नहीं चाहेंगे रहे पडोल प्रकम्प निरन्तर. यह मन बुढ़तर बन जाये। मृत्यु आपके पास नही फटकेगी।' इससे उन्हें कुछ बल इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलावे॥ मिला और बोले, 'ठीक है। उत्तरायण-दक्षिणायण का ही उसकी इस 'मेरी भावना' ने लाखों व्यक्तियों को अन्तर है । अब अधिक दिन तो चलना नही है, जो चारमनोबल प्रदान किया। क्या वह स्वयं उसके जीवन पर पांच कार्य हाथ मे ले रक्खे है उन्हें पूरा कर लू, फिर भले कोई प्रभाव न रखती? इस महाभाग के अवसान से ही मृत्यु आ जाय ।' और ऐसा ही हुमा। प्रसून दुःख मे यह हर्ष मिश्रित है कि अपने अध्यवसाय दिसम्बर १९६६ मे एटा में उनकी ८९वी जन्मऔर लगन से उसने अपना जीवन तो सार्थक सिद्ध किया जयन्ति मनी थी। उक्त अवसर पर उत्सव की अध्यक्षता ही, मृत्यु का प्रालिङ्गन करने के लिए उसने स्वयं को करने के लिए मुझे बुलाया गया था। उसके दो-डेढ़ वर्ष जिस प्रकार तैयार रक्खा उससे उसने अपना अन्त भी पूर्व से समन्तभद्र स्मारक योजना और वीर सेवामन्दिर सार्थक सिद्ध कर दिया। ट्रस्ट की पुनर्व्यवस्था के सम्बन्ध में पत्रों द्वारा विचार स्व० मुख्तार साहब की जीवनेच्छा बड़ी प्रबल थी। विमर्श चल रहा था। इन दोनों की ही उन्हे विशेष मरना तो शायद कोई भी नही चाहता, किन्तु वह तो चिन्ता बनी हुई थी। उस अवसर पर इस सम्बन्ध में मृत्यु का नाम भी नहीं लेते थे। अब से दस-पाँच वर्ष साक्षात् बातचीत भी हुई। अपने हाथ में लिए हुए पहिले तक भी वह अपनी मृत्यु के बारे में कमी सोचना साहित्यिक कार्यों के विषय में भी बातचीत करते रहे। भी नहीं चाहते थे। प्रसंग चलता तो उसे टालने का उस समय स्वस्थ और प्रसन्न थे। किन्तु मार्च ६७ के प्रयत्न करते । मृत्यु का नाम लेना या लिया जाना वह प्रारम्भ से ही अस्वस्थ रहने लगे। बन्धुवर डा० श्रीचन्द्र अपशकुन या अपशब्द जैसा समझते थे । अपने स्वस्थ और जी संगल के १८ मार्च के पत्र से ज्ञात हुआ कि 'ता. ४ नीरोग रहने की चिन्ता अथवा सावधानी वह एक अत्यन्त मार्च से मुख्तार श्री अस्वस्थ चल रहे है। उन्हे ज्वर गुर्दो स्वार्थी व्यक्ति की भाँति रखने थे। अपनी भावी साहि- में सूजन (नेफ्राइटिस), रक्तचाप अधिक और चेहरे पर त्यिक योजनामों को सदैव ठोस और विस्तृत बनाये रखने वरम तथा कमजोरी अधिक है। बीच मे हालत चिन्ता और यही कहते रहते कि अभी अमुक-अमुक कार्य पूरे जनक हो गई थी। परन्तु अब तीन-चार दिन से तबियत करने है-इन कार्यक्रमों को पूरा करने मे जीवनावधि सूधार पर है। आशा है शनैः शनैः स्वास्थ्य लाभ हो भी आगे ही आगे बढती जाती थी। एक सौ वर्ष से कम जायगा । चिकित्सा पूर्णरूप से ठीक हो रही है। चिन्ता जीने का तो उनका इरादा ही नही था। किन्तु इघर दो- की कोई बात अभी नहीं मालूम पड़ती है। उन्ही के २६ तीन वर्षों से उन्हे ऐसा लगने लगा था कि जीवन अब मार्च के पत्र से ज्ञात हुमा कि तबियत फिर कुछ गड़बड़ अधिक नही चलना है, तदनुसार अपने साहित्यिक कार्य- हो गई थी, तब तक ठीक नही हुई। और ४ मई के पत्र क्रमों को भी वह सीमित करने लगे थे। अपने अन्तिम में डा० सगल ने लिखा था कि "ताऊ जी की तबियत वर्षों में समन्तभद्र स्मारक और समन्तभद्र पत्रिका प्रादि अभी ठीक नहीं है । दुबारा दुबारा रिलेप्स हो जाता है। की जो योजनाएँ उन्होने बनाई थी और जिन्हे कार्यान्वित ब्लड प्रेशर और गुरदो की बीमारी ऐसी ही है, अच्छी तो हुमा देखने की उनकी उत्कट लालसा थी, उनके विषय में होती ही नही, फिर भी उपचार से और वैयावृत्त्य से ठीक भी यह कहने लगे थे कि अब मेरा कुछ भरोसा नही है, रहती है। परन्तु उनका यह हाल है जरा तबियत ठाक मै शायद इन्हें कार्यान्वित हुमा देखने के लिए नही रह होती है तो अपना धन्दा लिखने पढने का लेकर बैठ जात पाऊंगा। जब कभी अस्वस्थ हो जाते तो इस प्रकार की है और रोकने से मानते नहीं। दुनिया भर की फिकरें बाते विशेषरूप से करने लगते । ऐसे ही एक प्रसंग मे मैने मोल ले रक्खी है। अब कौन उनसे कहे, मोर कह कर Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस मृत्युञ्जय का महाप्रयाण २२५ भी देख लिया । अपने आगे किसी की सुनते ही नहीं, जो है। प्रस्तु, नियोगशक्ति के अनुसार चिकित्सा हो रही है। जो मन में आता करते है...'वे आपको एक लम्बा पत्र जो कुछ होना होगा वह होगा। प्रलंध्यशक्ति भवितव्यता लिखना चाहते हैं, परन्तु स्वास्थ्य ठीक नहीं हो पाता, के मागे किसी का चारा नहीं है, ऐसा स्वामी समन्तभद्र इसलिए नहीं लिख सके, ऐसा कह रहे थे।' ने सूचित किया है। मेरे लिए चिन्ता की कोई बात नहीं अगस्त-सितम्बर तक मुख्तार सा० की तबियत बहुत है। मैं तो मृत्यु महोत्सव मनाने को तैयार हूँ। मेरा मरण कुछ ठीक हो गई और वह अपने साहित्यिक कार्यों में अच्छा समाधिपूर्वक हो यही मान्तरिक कामना एवं भावना फिर से जुट गए, किन्तु अधिक दिन तक जीवित रहने की है। इसीलिए मैं अपने पड़े हुए कार्यों को निपटा रहा। उनकी आशा अब क्षीण हो चली थी। अपने ३ नवम्बर शेष सब कुशल मंगल है, योग्य सेवा लिखे, बच्चों को के पत्र में उन्होने मुझे लिखा था कि-'ता० ३-१० का शुभाशीर्वाद ।' पत्र मिला, धन्यवाद । द्रव्यसंग्रह सम्बन्धी जो लेख मैं महाप्रयाण से लगभग एक वर्ष पूर्व लिखे गये इस पत्र लिख रहा था वह समाप्त हो गया है । मेरे १६ पेजों पर के (बड़े टाइप में मुद्रित) उपरोक्त शब्द स्वर्णाक्षरों में आया है और एक फार्म मे कम का है। आपने उसे अंकित किये जाने योग्य है। वे एक सच्चे जिनानुयायी शोघाङ्क में प्रकाशित कनने के लिए अपने पास भेजने को एवं समन्तभद्र भक्त के ही अनुरूप हैं। यह शब्द यह भी लिखा परन्तु अगला शोधाङ्क २६ तो अब तीन महीने सिद्ध करते है कि अपने निधन से कम-से-कम एक वर्ष बाद प्रकाशित होगा। उस समय तक जीवन की न मालूम पूर्व तो उन्हें अपनी प्रासन्न मृत्यु का प्राभास हो ही गया क्या स्थिति रहती है, इसलिए मै उसे पं० कैलाशचन्द्र जी था और वह उसके लिए तैयार भी हो गए थे। मृत्युभय के पास भेजना चाहता हूँ। जैन सन्देश और शोधाङ्क के को जीतकर वह मृत्युञ्जय हो गए थे। ग्राहक तो एक ही है, अतः उसमे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।' इस पत्र मे तथा इसके पूर्व के एवं पश्चात् के पत्रों अपने १३ दिस० ६७ के पत्र में उन्होंने लिखा-'ता. मे अन्य अनेक ऐसी बातें और चर्चाएँ भी हैं जिनसे ६-१२ का पत्र मिला। आपने मेरे ६० वर्ष पूर्ण करके स्पष्ट है कि इतने वार्धक्य, रुग्णावस्था और जीवन के ६१वें वर्ष में प्रवेश पर अपनी शुभकामना, बधाई तथा अन्तिम मासों मे भी उनका मस्तिष्क पूर्ववत सजग, सप्राण श्रद्धांजलि प्रेषित की, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। और क्रियाशील था। शोध-खोज, चिन्तन-मनन, पठन...... 'मैं तो अपने ३ नवम्बर के पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा अध्ययन और लेखन-सृजन भी चलते रहे। इस काल के कर रहा था..... कोई सवा महीना हुआ रविवार के उनके लेखादिकों में उनका वही भोज और स्तर बना दिन मैने योगसार प्राभूत की प्रस्तावना लिखने का रहा जिसके लिए वह प्रसिद्ध रहे है। उनकी लेखनी वैसी निश्चय किया था कि रविवार के सुबह से ही ज्वर पा ही सधी हुई और निष्कम्प बनी रही। गया और मेरा विचार धरा रह गया.....' तदनन्तर ५ जनवरी ६८ के पत्र में उन्होंने लिखा था कि-'ता. २४ लगभग चालीस वर्ष मेरा उनके साथ सम्पर्क रहा और दिसम्बर का पत्र मिला...."मेरा स्वास्थ्य अभी तक गड़- गत तीस वषा म कई बार अल्पाधिक बड़ में ही चला जाता है, गुदों की खराबी के कारण पैरों उसका सत्संग प्राप्त हुआ और सैकड़ों पत्र प्राप्त हुए, पर और पैरों के ऊपर टागो पर घुटनों के नीचे तक वरम । जिनमें से अनेक ऐतिहासिक, साहित्यिक अथवा सामाजिक कुछ ठहर सा गया है, जिससे पर कुछ कच्चे पड़ रहे हैं। महत्त्व के हैं। वह मेरे पितृव्यों की प्रायु के थे और मैं और टांगों में कमजोरी है जिसके कारण बैठकर उठने में उन्हें पितृव्य तुल्य ही मानता रहा । वह भी मुझे भ्रातृजदिक्कत मालूम होती है और बिना किसी वस्त के सहारे तुल्य मान कर वैसा ही वात्सल्य प्रदान करते रहे। के उठा नहीं जाता । पैरों की कचाई और टांगों की कम- उनके २३ जनवरी ६८ के पत्र का उत्तर ३० जनवरी जोरी के कारण दो एक बार मेरे गिरने की नौबत माई को दे दिया था, किन्तु उसके बाद अस्वास्थ्यादि के कारण Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अनेकान्त पत्र देने में कुछ प्रमाद हुमा तो अपने ९ मार्च के पत्र मे कि-"ता०८ जुलाई का पत्र मिला, धन्यवाद....""समय उन्होंने लिखा कि-'कितनेही दिन से प्रापका कोई पत्र नहीं बीतता जा रहा है, कार्य शीघ्रता से होना चाहिये । जीवन पाया है.'''नही मालूम क्या कारण है। प्राशा है आप का कोई भरोसा नहीं । मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवन में का स्वास्थ्य तो ठीक है और कुटुम्ब के सब व्यक्ति सानन्द ही संस्था और पत्र की कोई योग्य व्यवस्था बन जाय... हैं।' इस पत्र का उत्तर मैने १५ मार्च को दिया, किन्तु मेरे गुर्दो का मूल रोग ज्यों का त्यों है । ज्वर न होने पर इसके पहुंचने के पहिले वह १६ मार्च को एक पत्र दे चुके कछ काम कर लेता हैं। बच्चों को आशीर्वाद ।"-यही जिसमें लिखा था-'कितने ही दिन से प्रापका कोई पत्र उनका मुझे प्राप्त अन्तिम पत्र है। नही है....."न मार्च को दिये गये पत्र का ही कोई उत्तर है। नहीं जाने इस असाधारण विलम्ब का क्या डा० श्रीचन्द्र जी के पत्र से ज्ञात हुआ कि मुख्तार कारण है । इससे चिन्ता हो रही है । श्राशा है आपका सा० पुनः अतिरुग्ण हो गये है। २६ जुलाई को मै अपने स्वास्थ्य तो ठीक होगा। अपने स्वास्थ्य सम्बन्धादि के अनुज अजितप्रसाद जैन के साथ उन्हें देखने के लिए एटा विषय में शीघ्र ही सूचित करने की कृपा करें और पत्रो गया। वह खाट से लग गये थे, बोल भी थक गया था, शक्तिया क्षीण होती जा रही थी। तथापि देखकर गद्गद् का उत्तर अवश्य ही देने-दिलाने का कष्ट करे ।' २६ जून के पत्र में उन्होंने लिखा था कि 'प्रतीक्षा के बाद २३ जून हो गये और लेटे ही लेटे प्रसन्न मन से बात चीत की। यही मेरे लिये उनका अन्तिम दर्शन था। का पत्र मिला । यह जानकर कि पाप व्यस्तता के साथ कुछ अस्वस्थ भी रहे हैं, अफसोस हुआ । मै कुछ ज्यादा ५ नवम्बर को विद्वत्परिषद द्वारा एटा मे ही मुख्तार अस्वस्थ हो गया था। प० दरबारी लाल जी पाये थे, साहब के अभिनन्दन की रस्म अदा की जानी थी उसमे बहन जयवन्ती भी पाई थी। इसी अवसर पर दस्ट मीटिंग सम्मिलित होने के लिये बन्धुवर कोठिया जी का पत्र मिला। भी बुलाई गई थी....."अब मुझे नये सिरे से अपने ट्रस्ट पत्र २ ता० को लिखा गया था, किन्तु सम्भवतया डाक की व्यवस्था करनी है, इस सम्बन्धमे आपके जो भी सुझाव की गडबड़ से, मुझे ५ को ही मिला। जाने का प्रश्न ही हों उनसे शीघ्र सूचित करने की कृपा करे.... मेरा नहीं था, और उनके अंतिम दर्शन का यह अवसर चूक विचार अब समन्तभद्र पत्र को मासिक रूप मे निकालने गया । २६ दिस० को प्राप्त डा० श्री चन्द्र जी आदि के का प्रबल होता जाता है......मैं अपने जीवन मे उसे पत्र से ज्ञात हा कि २१ दिसम्बर ६८ को-६१ वर्ष प्रकाशित देखना चाहता हूँ।"-खेद है कि ऐसा न हो और २२ दिनकी आयु मे वर्तमान युग के इस मृतुञ्जय सका। इसके बाद १२ जुलाई के पत्र मे उन्होने लिखा का महाप्रयाण हो गया ! गणों की इज्जत एक प्रादमी हलवाई की दुकान पर गया, और दोने में गुलाब जामुन लेकर चला। दोना रेशमी रुमाल से डक दिया। दोना प्रसन्न हो मन में सोचने लगा-इस दुनिया में मेरे जैसा भाग्यशालो कोई नहीं है, मुझे रेशमी वस्त्र से ढका गया है। वह प्रादमी दोना लेकर अपनी हवेली में पहुंचा। और चौथी मंजिल पर उसे एक सुन्दर रबिल पर रखा । दोना फूल गया अभिमान में। ग्रहो मेरी कसी इज्जत हो रही है। मुझे बैठने के लिए कैसा सुन्दर मासन मिला है, राजा महाराजामों की तरह मेरा स्वागत हो रहा है । सभी लोग मुझे उच्च दृष्टि से देख रहे हैं। किन्तु उस अभिमानी दोने को यह खबर नहीं थी कि यह इज्जत, प्रतिष्ठा, और स्वागत मेरा हो रहा है या गुलाबजामुन का । गुलाबजामुन के बिना दोने की क्या कीमत ? कुछ ही देर बाद दोना से गुलाबजामुन तस्तरी में रख दिये, और उस बेकार दोना को नीचे फेंक दिया गया। प्रब दोने को भान हुमा, प्रांखें खुली, प्रौर महंकार का नशा उतरा। इसी तरह शरीर की कोई इज्जत नहीं है। यदि शरीर रूपी बोने में सदगुण रूपी मुलाबजामुन होंगे तो उसकी पूछ होगी, प्रतिष्ठा बढ़ेगी। उसका सत्कार होगा। सगुनों के प्रभाव में उसका कोई मूल्य नहीं। (जैन भारती) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार सा० की बहुमुखी प्रतिभा बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री साहित्य के अनन्य उपासक स्व. पं० जुगुलकिशोर बल पर ही स्वयभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, रत्नकरण्डश्रावकाजी मुख्तार एक ख्यातिप्राप्त इतिहासकार थे। उनका चार, तत्त्वानुशासन, देवागमस्तोत्र, कल्याण-कल्पद्रुम लौकिक शिक्षण हाईस्कूल तक ही हो सका था । धार्मिक (एकीभाव-स्तोत्र) और योगसार-प्राभूत जैसे महत्त्वपूर्ण शिक्षण भी एक स्थानीय (सरसाबा) छोटी सी पाठशाला ग्रन्थों पर भाष्य लिखे है। ग्रन्थ के अन्तर्गत रहस्य को में साधारण ही हुआ था। परन्तु वे बाल्यावस्था से ही प्रस्फुटित करने वाले उनके इन भाष्यों की भाषा भी अतिशय प्रतिभाशाली रहे हैं, तर्कणाशक्ति भी उनकी तदनुरूप सरल और सुबोध है । इन भाष्यों के परिशीलन अद्भुत थी । इसीलिये वे सुरुचिपूर्ण सतत प्रध्यवसाय से एक से ग्रन्थकार के अभिप्राय के समझने में किसी को कोई मादर्श साहित्यस्रष्टा और समीक्षक हो सके। उन्होंने कठिनाई नही हो सकती। उनकी पद्धति यह रही है कि जीवन मे वह महान कार्य किया है जो उच्च शिक्षा प्राप्त प्रथमत. ग्रन्थ के विवक्षित श्लोक प्रादि का नपे तुले शब्दों करने वाले विद्वानों से सम्भव नहीं हुआ। मे शब्दानुवाद करते हुए यदि उसमे कही कुछ विशेष __ जिस समय समाज मे रूढ़िवाद प्रबल था उस समय शब्दार्थ की अावश्यकता दिखी तो उसे दो डंशो(-) के उन्होने घोर सामाजिक विरोध का दृढ़ता से सामना करते मध्य में स्पष्ट कर देना और तत्पश्चात् वाक्यगत पदों की हुए भट्टारकों के द्वारा भद्रबाहु, कुन्दकुन्द, पूज्यपाद और गम्भीरता को देखकर व्याख्या के रूप मे तद्गत ग्रन्थकार अकलक जैसे प्रतिष्ठाप्राप्त पुरातन प्राचार्यों के नाम पर के प्राशय को उद्घाटित कर देना । जो भद्रबाहुसंहिता, कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, पूज्यपाद श्रावका मु० सा० कुशाग्रबुद्धि तो थे ही, साथ ही वे अध्ययनचार और अकलकप्रतिष्ठा-पाठ आदि ग्रन्थ लिखे गये है उनका गील भी थे । जब तक वे किसी ग्रन्थ का मननपूर्वक पूर्णअन्तःपरीक्षण कर उन्हे जैनागम के विरुद्ध सिद्ध किया। तया अध्ययन नही कर लेते तब तक उसके अनुवादादि में समय-समय पर लिखे गये उनके इस प्रकार के निबन्ध प्रवृत्त नहीं होते थे । पावश्यकतानुसार वे एक-दो बार ही 'ग्रन्थ-समीक्षा' के नाम से पुस्तक रूप मे ४ भागों में प्रका नही, बोसो बार ग्रन्थ को पढ़ते थे। साथ ही ग्रन्थ में शित हुए है। उनके इस दृढ़तापूर्ण कार्य को देखकर यह जहाँ-तहाँ प्रयुक्त विभिन्न शब्दो के अभीष्ट प्राशय के कहना अनुचित न होगा कि उन्होंने प्राचार्य प्रभाचन्द्र की 'त्यजति न विवधानः कार्यमुद्विज्य धीमान् खलजनपरि ग्रहण करने का भी पूरा विचार करते थे। कारण कि इसके बिना ग्रन्थ के ममं को उदघाटित नही किया जा सकता। वृत्तः स्पर्धते किन्तु तेन ।' इस उक्ति को पूर्णतया चरि उदाहरणार्थ समीचीन-धर्मशास्त्र-उनके रत्नकरण्डतार्थ किया है। उन्होने जिस विरोधी वातावरण मे इस कार्य को सम्पन्न किया है उसमें अन्य किसी को यह साहस श्रावकाचार के भाष्य--को ही ले लीजिये। वहाँ श्लोक - उपर्यत यन्थों को इस प्रकार से २४ में 'पाषण्डी' शब्द का प्रयोग हग्रा हैइसका प्राचीन अप्रामाणिक घोषित कर सके। १. योगसार-प्राभूत की प्रस्तावना (पृ. २५) में उन्होंने भाष्यकार के रूप में स्वयं उस ग्रन्थ के सौ से भी अधिक बार पूरा पढ़ उन्होने संलग्नतापूर्वक निरन्तर चलने वाले जाने की सूचना की है। अपने अध्ययन से जो उत्कृष्ट प्राध्यात्मिक और २. सग्रन्थारम्भ-हिसानां संसाराऽऽवर्तवर्तिनाम् । सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त किया वह आश्चर्यजनक था। इस पाषण्डिना पुरस्कारो ज्ञेयं पापण्डिमोहनम् ।। प्रकार से जो उन्होंने प्रखर पाण्डित्य प्राप्त किया उसके (स०प० शा० २४, पृ० ५९) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अनेकान्त अर्थ मूल में 'पाप का खण्डन करने वाला (साधु)' रहा अन्तिम भाप्य-योगसार-प्राभूतकी व्याख्या-का संक्षेपमे है। पर बाद में वह 'धर्त' या 'ढोंगी' अर्थ में रूढ़ हो परिचय करा देना चाहता हूँ। यह भाष्य उन्होने लगभग गया। अब यदि उसके उपर्युक्त प्राशय को न लेकर वर्त- ८५-८६ वर्षकी अवस्थामे लिखा है। उसके पढ़नेसे अनुमान मानमें प्रचलित धूर्त अर्थको ले लिया जाय तो प्रकृत किया जा सकता है कि इस वृद्धावस्थामे भी-जब कि श्लोकका अर्थ ही प्रसंगत हो जाता है। कारण कि वहां बहतोंकी बुद्धि व इन्द्रियां काम नहीं करतीं-उनकी पाखण्डियोंके आदर-सत्कारको पाखण्डिमूढता-जो पाखण्डी ग्रहण-धारणशक्ति कितनी प्रबल रही है। नही है उन्हे पाखण्डी समझ लेना-बतलाया है। अब इसकी प्रस्तावना (पृ० १७.१६) में उन्होंने ग्रन्थके यदि पाखण्डी का अर्थ घूर्त ग्रहण कर लिया जाता है तो 'योगसार-प्राभत' इस नामको सार्थकताको प्रकट करते हुए उसका अभिप्राय यह होगा कि जो वास्तवमे घूर्त नहीं है बतलाया है कि यह नाम योग, सार और प्राभृत इन तीन उन्हें धूत मानकर उनका घूर्तों जैसा प्रादर-सत्कार करना, अनमोनिया शब्दांके योगसे निष्पन्न हुआ है। इनमे योग शब्दके अर्थ इसका नाम पाखण्डिमूढता है। यह अर्थ प्रकृतमे कितना का स्पष्टीकरण करते हुए नियमसार (गा० १३७-३६) असगत व विपरीत हो जाता है, यह ध्यान देनेके योग्य के प्राधारसे बतलाया है कि आत्माको रागादिके परिहै। और जब उसका यथार्थ अर्थ 'पापका खण्डन करनेवाला त्याग और समस्त सकल्प-विकल्पोके अभावमे जोड़नासमीचीन साधु' किया जाता है तब वह प्रकृतमे संगत होता उससे सयुक्त करना, इसका नाम योग है। साथ ही विपहै जो ग्रन्थकारको अभीष्ट भी रहा है । यथा- रीत अभिप्रायको छोड़कर जिनोपदिष्ट तत्त्वोंमे आत्माको जो परिग्रह, प्रारम्भ और हिंसामे निरत है तथा संयुक्त करना, यह भी योग कहलाता है । यह योग शब्दका भवभ्रमण करानेवाले कुत्सित कार्यरूप प्रावर्त-जलकी अर्थ 'युनक्ति पात्मानमिति योग.' इस निरुक्तिके अनुसार चक्राकार घूमनेरूप भँवर-में फसे हुए है ऐसे वेषधारी किया गया है । इसका फलितार्थ यह हुमा कि रागादिके साथ साधुओंको यथार्थ साधु समझकर उनका यथार्थ साधुअोके समस्त संकल्प-विकल्पोंको छोड़कर तत्त्वविच रमें सलग्न समान प्रादर-सत्कार करना, इसका नाम पाखण्डितमूढता होना, इस प्रकारकी प्रशस्त ध्यानरूप प्रवृत्तिका नाम —पापप्रध्वंसक यथार्थ साधुविषयक अज्ञान-है। इससे पाठक समझ सकते है कि श्रद्धेय मुख्तार साहब दूसरा जो सार शब्द है उसका अर्थ विपरीतताका कितने तलस्पर्शी अध्येता थे। विवक्षित ग्रन्थकी व्याख्याके परिहार-यथार्थता-है (नि० सा० ३)। इस प्रकार लिये उन्होंने उसके समकक्ष अन्य अनेक ग्रन्थोंका गम्भी- 'योगसार' का अर्थ हुआ-विपरीततासे रहित योगका रतापूर्ण अध्ययन किया है। इसीसे वे व्याख्येय ग्रन्थोमे ___ यथार्थ स्वरूप । इसके अतिरिक्त श्रेष्ठ, स्थिराश, सत् और जहां-तहा तुलनात्मकरूपसे अन्य कितने ही ग्रन्थोके उद्धरण नवनीत; इन अर्थोमे भी उक्त सार शब्दका प्रयोग देखा दे सके हैं। साथ ही उन्होने महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनामोमे भी जाता है। तदनुसार 'योगसार' का अर्थ 'योगविषयक इस मर्मको उद्घाटित किया है । पर्याप्त चिन्तनके साथ ही कथनका नवनीत' समझना चाहिये। जिस प्रकार दहीको उन्होने विवक्षित श्लोक प्रादि की व्याख्या की है। ग्रन्यके बिलोकर उसके सारभूत प्रश नवनीतको निकाल लिया मर्मको प्रस्फुटित करनेके लिये जहा जितना आवश्यक था जाता है उसी प्रकार अनेक योगविषयक ग्रन्थोका मन्थन उतना ही उन्होंने लिखा है-अनावश्यक या ग्रन्थके बाह्य करके उनके साराशरूप प्रकृत योगसार ग्रन्थ है। उन्होंने कुछ भी नही लिखा। तीसरा शब्द प्राभूत है, जिसका अर्थ 'भेंट' होता है। मुख्तार सा० का यह कार्य इतना विस्तृत है कि उस तदनुसार जिस प्रकार किसी राजा आदिके दर्शन लिये सबका परिचय कराना अशक्य है। यहां मैं केवल उनके जानेवाला व्यक्ति उसे भेट करनेके लिये कुछ न कुछ सार१. देखिये समीचीन-धर्मशास्त्र मूल १० ५६ और प्रस्ता- भूत वस्तु ले जाता है उसी प्रकार परमात्मारूप राजाका वना ०६-११। दर्शन करने के लिये भेंटरूप यह ग्रन्थकारका प्रकृत ग्रन्थ है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ मुल्तार सा. की बहुमुखी प्रतिभा निष्कर्ष यह हुआ कि यथार्थ योगस्वरूपका प्ररूपक यह वाधिकार, (४) बन्धाधिकार, (५) सवराधिकार, (६) योगसार-प्राभूत ग्रन्थ अध्येताके लिये परमात्माका साक्षा- निर्जराधिकार, (७) मोक्षाधिकार और (८) चारित्रास्कार करनेवाला है। धिकार। प्रतियों मे नौवें अधिकारका कोई विशेष नाम जयधवला (१, पृ० ३२५) के अनुसार प्राभत नहीं उपलब्ध हया-उसका उल्लेख प्रायः 'नवमाधिकार' (प्राभूत) वह होता है जो प्रकृष्ट अर्थात् सर्वोत्कृष्ट के नामसे हेपा है। भाप्यकारने उसका निर्देश 'चूलिकातीर्थंकर द्वारा प्रस्थापित हुआ है, अथवा प्रकृष्ट अर्थात् धिकार' नामसे किया है। इसका स्पष्टीकरण उन्होंने इस विद्यास्वरूप धनसे सम्पन्न ऐसे पारातीय प्राचार्योंके द्वारा प्रकारसे किया हैधारण किया गया है जिसका व्याख्यान किया गया है- दूसरे अधिकारोकी तरह उसका कोई खास नाम नहीं या पूर्व परम्परासे जो लाया गया है। दिया गया, जब कि ग्रन्थसन्दर्भ की दृष्टि से उसका दिया जाना यह है मुख्तार सा० की सुक्ष्म दृष्टि जो ग्रन्थकारके प्रावश्यक था। वह अधिकार सातो तत्त्वों तथा सम्यकहार्दको स्पर्श कराती है । इस ग्रन्थ-नामकी यथार्थतामे ग्रन्थ- चारित्र जैसे आठ अधिकारोके अनन्तर 'लिका' रूप में कारको योग शब्दसे उपर्युक्त प्रशस्त ध्यान ही अभीष्ट स्थित है-पाठो अधिकारोके विषयको स्पर्श करता हुआ रहा है । यथा उनकी कुछ विशेषताओका उल्लेख करता है-और इसविविक्तात्मपरिज्ञानं योगान् सजायते यत' । लिये उसका नाम यहा 'चलिकाधिकार' दिया गया है। स योगो योगिभिर्गीतो योगनि—तपातकैः ।। जैसे किसी मन्दिर (भवन) की चूलिका-चोटी-उसके यो० स० प्रा०६-१० कलशादिके रूपमे स्थित होती है उसी प्रकार 'योगसारअर्थात् योगसे कर्म-कालिमाको धो डालनेवाले योगियो प्राभृत' नामक इस ग्रन्थ-भवनकी चूलिका-चोटी-के ने योग उसे ही कहा है जिसके आश्रयसे विविक्त-समस्त रूपमे यह नवमा अधिकार स्थित है, अत' इसे 'चूलिकापर भावोंसे भिन्न शुद्ध-पात्मतत्त्वका बोध होता है । इस धिकार' कहना समुचित जान पड़ता है। प्रकार चूंकि वह प्रात्मावबोध प्रशस्त ध्यानसे ही सम्भव (प्रस्तावना पृ० २५) है, अतः वही प्रकृत मे ग्राह्य रहा है । ग्रन्थगत समस्त श्लोकसख्या ५४० है । विषयका इस प्रकार अपने उक्त सार्थक नामके अनुसार योग- विवेचन अधिकारोके नामानुसार यथास्थान रोचक प्राध्यास्वरूपकी प्ररूपणा करनेवाला प्रस्तुत ग्रन्थ अतिशय मनो- त्मिक पद्धतिसे किया गया है। उसका परिचय भाष्यकारने मोहक है; उसकी भाषा सरल व सुललित है, विषयके प्रस्तावना पृ० २५-३१ मे श्लोकसख्याके निर्देशपूर्वक प्रतिपादनको शैली भी उत्कृष्ट है। ग्रन्थकार श्री अमित- स्पष्टतामे करा दिया है। गतिने भगवान् कुन्दकुन्दके समस्त प्राध्यात्मिक साहित्यका प्रथम जीवाधिकारके अन्तर्गत आत्मा और मानके मनन कर तदनुसार ही इस ग्रन्थको रचा है । उसके बहुतसे प्रमाण तथा ज्ञानकी व्यापकताको बतलानेवाला निम्न श्लोक श्लोकोंमें समयसारादि ग्रन्थोकी छाया स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है। इसे भाष्यकारने तुलनात्मकरूपसे कही ज्ञानप्रमाणमात्मानं ज्ञान ज्ञेयप्रमं विदुः । अपनी व्याख्या के मध्यमें और कही टिप्पणीके रूपमें इतर लोकालोकं यतो ज्ञेयं ज्ञानं सर्वगत ततः ॥१६॥ ग्रन्थगत समान उद्धरणोंको देकर स्पष्ट भी कर दिया है। ___ यह श्लोक प्रवचनसार गा० १-२३ का प्रायः छाया ग्रन्थका प्रमुख विषय योग है। उसके विवेचन के लिये नुवाद है'। इस श्लोककी व्याख्या मुख्तार साने सरलता. जिन प्रासंगिक विषयोंका-जीवाजीवादि तत्त्वोका- पूर्वक विस्तारसे की है। प्रात्मा ज्ञानप्रमाण क्यों है. विवेचन आवश्यक प्रतीत हया उनका भी वर्णन ग्रन्थमें कर इसका स्पष्टाकरण करत हुए उन्होंने यह बतलाया है कि दिया गया है। तदनुसार ग्रन्थ इन नौ अधिकारोंमे विभक्त १. प्रादा णाणपमाण णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ट। है-(१) जीवाधिकार, (२) अजीवाधिकार, (३) प्रास्र- णेय लोगालोग तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. अनेकान्त यदि मात्माको ज्ञानसे-क्षायिक अनन्त केवलज्ञानसे- जहा-तहा आत्मा-संसारी आत्मा को अपने प्राप्त बड़ा माना जाय तो उसका वह बढ़ा हुआ अश ज्ञानविहीन शरीरके प्रमाण ही बतलाया गया है, तथा मुक्त जीवोंके होनेसे अचेतन (जड) ठहरेगा। तब वैसी अवस्थामे वह प्रात्मप्रदेश अन्तिम शरीरके प्रमाणसे कुछ हीन ही रहते है, ज्ञानस्वरूप कैसे माना जा सकता है ? इसके विपरीत यदि यह भी कहा गया है। तब उस आत्माको सर्वगत कहना उसे ज्ञानसे छोटा माना जाता है तो उस पात्मासे ज्ञानका कैसे संगत होगा? इसके समाधानस्वरूप व्याख्यामे यह जितना अंश बढ़ा हुआ होगा वह स्वाश्रयभूत आत्माके स्पष्ट किया गया है कि मुक्तात्मायें सभी वस्तुतः स्वात्मबिना निराश्रय ठहरता है । सो यह सम्भव नही है, क्योकि स्थित'-अपने अन्तिम शरीरके प्राकारमे विद्यमान प्रात्मगुण कभी गुणी (द्रव्य) के बिना नही रहता है। इससे प्रदेशोंमे ही स्थित है, उनके बाहिर उनका अवस्थान सिद्ध है कि प्रात्मा ज्ञानके प्रमाण है--न उससे बड़ा है नहीं है, फिर भी प्रात्माको जो सर्वगत कहा गया है वह और न छोटा भी। औपचारिक है। मागे वह ज्ञान ज्ञेय-अपने विषयभत लोक-प्रलोक इस उपचारका कारण यह है कि ज्ञान उस दर्पणके -प्रमाण है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए व्याख्यामे लोक समान है जिसमे पदार्थ प्रतिबिम्बित होते है । अर्थात् और अलोकके स्वरूपको दिखलाकर कहा गया है कि ज्ञेय दर्पण जैसे न तो पदार्थोके पास जाता है और न उनमे तत्त्व लोक और अलोक है, कारण कि उनसे भिन्न अन्य प्रविष्ट ही होता है, तथा वे पदार्थ भी न तो दर्पणके पास किसी ज्ञेय पदार्थका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। इसका आते है और न उसमे प्रविष्ट ही होते है। फिर भी वे भी कारण यह कि जो ज्ञानका विषय है वही तो ज्ञेय कहा पदार्थ उसमे प्रतिबिम्बित होकर तद्गतसे दिखते अवश्य जाता है। इस प्रकार ज्ञानकी सीमाके बाहिर लोक और है, इसी प्रकार सर्वज्ञका ज्ञान भी न तो पदार्थोके पास अलोक को छोड़कर अन्य किसी ज्ञेयका जब अस्तित्व सम्भव जाता है और न उनमे प्रविष्ट ही होता है, तथा पदार्थ मही है तब यह स्वय सिद्ध है कि ज्ञान अपने विषयभूत भी न ज्ञानके पास आते है और न उसमे प्रविष्ट भी होते लोक-अलोकके ही प्रमाण है। है; फिर भी वे उस ज्ञानके विपय अवश्य होते है-उसके इस प्रकार जब यह सिद्ध हो गया कि आत्मा ज्ञान द्वारा निश्चित हा जान जात है। यह वस्तुस्वभाव हा ह प्रमाण और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है तब चूकि अलोक सर्व -जिस प्रकार दर्पण और पदार्थोको इच्छाके बिना ही व्यापक है, अतएव उसको विषय करनेवाला ज्ञान भी सर्व उसमे उनका प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार ज्ञान और उसम उनका प्राताबम्ब गत सिद्ध होता है। इसका यह तात्पर्य निकला कि प्रात्मा पदार्थोकी इच्छाके बिना ही उस केवलज्ञानके द्वारा अलोकके अपमे ज्ञान गुणके साथ सर्वव्यापक होकर लोकके साथ साथ लोकमे स्थित सभी पदार्थ जाने जाते है। इस प्रकार विपय की व्यापकता से विपयी जान को भी सर्वप्रलोकको भी जानता है। यह स्थिति सर्वजताको प्राप्त सभी केवलज्ञानियोकी समझना चाहिये । व्यापक कहा गया है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आगममे जब २. स्वात्मस्थित. सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसग. । १. इस स्पष्टीकरणकी माधारभुत प्रवचनसार की अगली प्रवृद्धकालोऽप्यजरो वरेण्यः पायादपाया पुरुष, पुराणः ।। ये तीन गथाये रही है (विपापहार १) ३. नमः श्रीवर्धमानाय निर्धतकलिलात्मने । णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स तो मादा। सालोकाना त्रिलोकाना यद्विद्या दर्पणायते ।। हीणो वा अधिगो वा णाणादो हवदि धुवमेव ॥२४॥ (र० क० श्रा०१) हीणो जदि सो प्रादा तण्णाणमचेदण ण जाणादि । तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । अधिगो वा जाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥२५॥ दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र । सब्य गदो जिणवमहो सब्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा । (पु० सि. १) णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ॥२६॥ ४. इस व्याख्या का प्राधार प्राचार्य अमृतचन्द्र की वृत्ति Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुल्तार सा० को बहुमुखी प्रतिभा २३१ दूसरे अजीवाधिकार मे तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पचास्तिकाय (७४-७५) ग्रादि ग्रन्थो मे जो पुद्गल के धर्मादि द्रव्यों के उपकार को बतलाकर (१५-१७) प्रागे स्कन्ध, स्कन्धदेश, रकन्धप्रदेश और परमाणु इस प्रकार यह कहा गया है चार भेद निर्दिष्ट किये गये है तथा उनका स्वरूप भी पदार्थानां निमग्नानां स्वरूपं[-पे] परमार्थतः । कहा गया है वह उसी प्रकार प्रकृत ग्रन्थ में भी (२-१६) करोति कोऽपि कस्यापि न किंचन कदाचन ।। सक्षेप से कहा गया है। इसकी व्याख्या में भाष्यकार ने ___ यहा परमार्थत.' पद पर बल देते हुए व्याख्या मे । उसे स्पय्ट करते हुए कहा है कि सख्यात, असख्यात, उसका स्पष्टीकरण यह किया गया है कि यह जो उपकार अनन्त अथवा अनन्तानन्त परमाणुमो के पिण्डरूप वस्तु का कथन है वह व्यवहार नय के प्राधित है। निश्चयनय को स्वन्ध कहा जाता है। स्कन्ध का एक-एक परमाणु की अपेक्षा सभी द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में निमग्न होकर करके खण्ड होते-होते जब वह आधा रह जाता है तब स्वभाव परिणमन ही करते है उनमें से कोई भी द्रव्य वह देश स्कन्ध कहलाता है। इसी क्रम से जब यह देश किसी अन्य द्रव्य का उपकार-अपकार नहीं करता। इन स्कन्ध प्राधा रह जाता है तब वह प्रदेश स्कन्ध कहलाता द्रव्यों मे धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो है। प्रदेश स्कन्ध के खण्ड होते-होते जब उसका खण्ड सदा ही अपने स्वभाव में परिणत रहते हैं, इसलिए वे होना सम्भव नही रहता तब वह परमाणु कहलाता है। वस्तुतः किसी का भी उपकार नहीं करते। जीव और इस प्रकार मूल स्कन्ध के उत्तरवर्ती और देश स्कन्ध के पुद्गल ये दो द्रव्य वैभाविकी शक्ति से सहित होने के पूर्ववर्ती जितने भी खण्ड होंगे उन सबको स्कन्ध ही कहा कारण स्वभाव और विभाव दोनों प्रकार का परिणमन जाता है। इसी प्रकार देश स्कन्ध आदि नामो का क्रम करते है। जीवो में जो विभाव परिणमन होता है वह भी जानना चाहिये। कर्म तथा शरीरादि के सम्बन्ध से ससारी जीवों में ही इन उदाहरणो से स्पष्ट है कि मुख्तार सा० ने जितने होता है-मुक्त जीवो मे कर्म और शरीर का अभाव हो ग्रन्थों का भाष्य लिखा है वह उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य का जाने के कारण वह नहीं होता, उनमे केवल स्वभाव परि- परिचायक है-वे इस महत्त्वपूर्ण कार्य में सर्वथा सफल परमाणुमा म स्वभाव रहे है। उनके इन भाष्यों से ग्रन्थों का महत्व और भी परिणमन और स्कन्धो मे विभाव परिणमन होता है। बढ़ गया है। इन भाष्यो के आधार से सर्वसाधारण उन रही है-ज्ञान हि त्रिसमयावच्छिन्नसर्वद्रव्य-पर्याय- ग्रन्थो के मर्म को भली भाति समझ सकते है। रूपव्यवस्थितविश्वज्ञेयाकारानाक्रामन् सर्वगतमुक्तम्, १. इस व्याख्या का प्राधार पचास्तिकाय की यह जयसेन तथाभूतज्ञानमयीभूय व्यवस्थितत्वाद् भगवानपि वृत्ति रही है--समस्तोऽपि विक्षितघट-पटाद्यखण्डसर्वगत एव । एव सर्वगतज्ञानविषयत्वात् सर्वेऽर्था रूपः सकल इत्युच्यते, तस्यानन्तपरमाणुपिण्डस्य अपि सर्वगतज्ञानाव्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया स्कन्दसज्ञा भवति । तत्र दृष्टान्तमाह-षोडशपरमाणुइति भणितत्वात् तद्गता एव भवन्ति । तत्र निश्चय पिण्डस्य स्कन्दकल्पना कृता तावत् एककपरमाणोरनयेनानाकुलत्वलक्षणसौख्यसदनत्वाधिष्ठानत्वावच्छि पनयेन नवपरमाणुपिण्डे स्थिते ये पूर्वविकल्पा गतास्तेन्नात्मप्रमाणज्ञानस्वतत्त्वापरित्यागेन विश्वज्ञेयाकारा ऽपि सर्वे स्कन्दा भण्यन्ते । अष्टपरमाणुपिण्डे जाते ननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयेन भगवान् सर्व देशो भवति, तत्राप्येककापनयेन पञ्चपरमाणुपर्यन्तं गत इति व्यपदिश्यते । तथा नैमित्तिकभूतज्ञेयाकारा ये विकल्पा गतास्तेषामपि देशसजा भवति । परमाणुनात्मस्थानवलोक्य सर्वेऽस्तिद्गता इत्युपचर्यन्ते, न चतुष्टयपिण्डे स्थिते प्रदेशसज्ञा भण्यते, पुनरप्येककाच तेषा परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति, सर्वद्रव्याणां स्व- पनयेन द्वयणुकस्कन्दे स्थिते ये विकल्पा गतास्तेषामपि रूपनिष्ठत्वात् । अयं क्रमो ज्ञानेऽपि निश्चेयः । प्रदेशसंज्ञा भवति । ....... 'परमाणुश्चैवाविभागीति । (प्रवचनसार १-२६)। (पंचास्तिकाय ७५) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह युग-सृष्टा सन्त ? मनु ज्ञानार्थी वह सरसावा का सन्त ! तप: पूत व्यक्तित्व ! तिल-तिल कर प्रात्माहुत मनीषि ! जब-जब समाज को स्मृति के जर्जर-कुरूप-वातायन में पाया है मैं उदास हो गया हूँ। जिस ऊर्जस्ति मेधा ने विस्मृति के गर्भ में खोया हुआ प्राचार्य समन्तभद्र जैसा नर-शार्दूल, दीमकों का प्राहार बनने से बचाया और संस्कृति का दर्पण साहित्य इतना दमकाया, इतना उद्भासित किया कि मनुवार-चेता वाग्मियों को भी स्वीकारना पड़ा-- "श्रमण-संस्कृति भारत को प्रक्षय-निधि है"; एक दिन हाय ! जब वह भास्कर-सा भास्वर जगमगा रहा था साहित्य के गगन-में चिर-कुटला दिल्ली, भोगभूमि दिल्ली, वही दिल्ली जिसने गांधी को भी नहीं जाने दिया, वैभव के प्रकोष्ठ में घेर कर बैठ गयी उसे और नागिन-सी कुण्डली मार कर लपेट लिया उस साहित्य-देवता को ! और, चिर-सामाजिक-व्यक्तित्व के मुखोटे, जो न कभी सामाजिक थे और न अाज हैं, वंश मार-मार कर चूसने लगे चिर-संचित अशेष तपोबल-अमृत उसका । वैभव के पुजारियों की कारा में, छली गयी सरस्वती, बन्दिनी बना ली गयी ! अफसोस ! एक व्यवस्था ने उसे सामान्य प्रादमी को तरह भी नहीं जोने दिया ! हे युगवीर ! जब-जब तुम्हें सामाजिक-व्यक्तित्व के मुखौटों में छिपे भेड़ियों ने स्मरण किया है। मेरी अशेष चेतना तिलमिला उठी है और मैं उस व्यवस्था के प्रति विद्रोह करने को पागल हो उठा हूँ जो आदमी को आदमी की तरह नहीं जाने देती। लेकिन कितनी विवशता हैजो निष्ठुर हाथ युग-चेतना को निष्प्राण बना देते हैं वही श्रद्धा-सुमन अर्पित करने वालों में मगरमच्छ के आंसू लिये प्रथम पंक्ति में खड़े होते हैं ? इतिहास अपने आप को दुहराता है, शायद, कभी कोई नयी पीढ़ी पायेगी और तुम्हें भी प्राचार्य समन्तभद्र की तरह दीमकों का प्राहार बनने से बचायेगी। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M . VAN प एटा मे विद्वद परिषद के अध्यक्ष डा. नेमचन्दजी शास्त्री अभिनन्दन पत्र समपित करत हुए - वीरसेवा मन्दिर में कान जी स्वामी के अभिनन्दन के समय मुख्तार सा० कान जी स्वामी के साथ बैठे दिखाई दे रहे है। और प्रेमचन्द जैनावाच प्रपना भाषण दे रहे है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S AR अभिनन्दन के समय एटा में मल्लार सा० और विद्वद् परिषद् के मंत्री पं. पन्नालाल जी साहित्यावार्य बैठे हुए दिखाई दे रहे है। सूर्य प्रकाश ग्रन्थ को समीक्षा-लेखक जगलकिशोर मुख्तार का सन् १९३४ में लिया गया चित्र में पूर्व Paisa CAMPAIN RER प्रा. जगलकिशोर मुख्तार ५ दिसम्बर सन् १९४३ में महारनपुर में सम्मान समारोह के ममय लिया गया चित्र Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “युगवीर" का राष्ट्रीय दृष्टिकोण जीवनलाल जैन बी. ए. बो. एड. "भारत की कीतिलता दसों दिशाओं में व्याप्त थी। अच्छी फटकार लगाई है वहीं उनका दृढ़ता पूर्वक सामना उसका विज्ञान कला-कौशल और आत्म-ज्ञान अन्य समस्त करने के लिए अपने प्रात्मबल पर विश्वास रखते हुए प्रात्मदेशों के लिए अनुकरणीय था....पर खेद है कि आज बलिदान तक करने के लिए तैयार रहने की सलाह दी है। भारत वह भारत नहीं। आज भारत का मुख समुज्जवल "प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" । होने के स्थान में मलिन तथा नीचा है।" जो क्रिया कलाप मुझे पसन्द नही उनका प्रयोग दूसरे उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि राष्ट्रभक्त जब अपने के प्रति न करना मानवीय प्रम की प्रथम सीढी है । स्वतः अतीत के स्वणिम प्रभात पर दृष्टिपात कर वर्तमान की के कृत्यों द्वारा सयम एव साहस का परिचय देते हुए समाज धूल धूसरित सध्या-बेला को दीन हीन दयनीय दशा पर के अन्य विभिन्न प्रकार के घटको हृदय-कपट खोल कर विचार करता है तब उसका हृदय पटल विदीर्ण होना। प्रेम रस संचारित करते हुए एकाकार होने का प्रयत्न स्वाभाविक है। सामान्यतः प्रत्येक नागरिक अपने राष्ट्र करना राष्ट्रीय एकता एव सठगन के लिए परमावश्यक हित का चिन्तन करने मे गौरव का अनुभव करता है। है। प्रात्मबल का अवलम्बन प्राप्त कर प्रात्म बलिदान का युगवीर जी ने राष्ट्रीय चेतना जागृति हेतु तलवार की दुधार हाथ में लेकर समाज एव राष्ट्र को वैचारिक क्रान्ति दुधार हाथ में अपेक्षा कलम को अधिक पसन्द किया है। प्रतएव उन्होने द्वारा उसमें समाहित विकृतियो का परिहार करने प्रत्येक साहित्य सृजन मे सलग्न रह समाज तथा राष्ट्र सेवा राष्ट्रीय नागरिक को सदैव तैयार रहना चाहिए। का दृढ सकल्प कर बचारिक क्रान्ति द्वारा हृदय परिवर्तन युगवीर जी की कथनी एव करनी में भेद नहीं किया कर मानव कल्याण ही नहीं अपितु राष्ट्रोद्धार का सामयिक जा सकता है। वे न केवल अपने विचारों से ही समाज साहसिक एवं प्रशसनीय कदम आगे बढ़ाया है। आपने में परिवर्तन लाना चाहते थे अपितु उसे स्वतः के जीवन साहित्य के माध्यम से बाह्याडम्बर तथा सिर्फ परम्परा मे क्रियात्मक रूप देकर समाज के समक्ष प्रादर्श प्रस्तुत निर्वाह करने की प्रवृत्ति को निरुत्साहित करते हुए सरल किया करते थे। वे तत्कालीन राजनैतिक एव राष्ट्रीयता निर्मल, निःस्वार्थ दया, करुणा ममता, सहानुभूति, सहयोग से प्रोत प्रोत-वातावरण के प्रभाव से मुक्त न रह सके । आदि मानवीय वृत्तियो से परिपूर्ण विशाल हृदयशाली जन आपके हृदय मे देश भक्ति कूट कूट कर भरी हुई थी आप मानस निर्मित करने की प्रेरणा प्रवाहित की है। स्वय विदेशी वस्त्रो का बहिष्कार कर म्वय चरखे पर सूत व्यक्ति से समाज तत्पश्चात राष्ट्र निर्माण होता है, कात कर स्वावलम्बन व्रत पालन करते हुए नियमित शुद्ध अतएव राष्ट्रीय प्राधारशिला व्यक्ति के व्यक्तित्व को खादी धारण कर न केवल राष्ट्रीयता का ही परिचय देते उभारने की चेष्टा युगवीर जी ने की है। व्यक्ति की थे अपितु स्वतत्रता-सग्राम के सैनिकों तथा उनके परिवार हार्दिक निर्मलता शुद्धविचार एव प्राचार से ही समाज मे जनों को समयानुसार तन मन से पूर्ण सहयोग नि:स्वार्थ न्याय-सदाचार एवं सद्व्यवस्था के प्रति निष्ठा उत्पन्न भाव से दिया करते थे। आप अपने लेखों से लोगों का होगी, तब समाज न केवल स्वच्छ एवं स्वस्थ रहेगा अपितु न केवल उत्साहवर्धन ही किया करते थे बल्कि सामविशुद्ध राष्ट्रीयता का पोषक भी बनेगा इसी लिये मानवीय यिक सूझ बूझ द्वारा अनेक समस्याओं का हल भी निकाल गुणों को तिलांजली देने वाले लोगो को जहाँ कहीं कवि ने कर दिया करते थे। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अनेकात "यह शरीर नश्वर है ...."हमारी इच्छा से यह प्राप्त देश के आर्थिक विकास एवं प्रौद्योगिक प्रगति हेतु नहीं हमा और न हमारे रवखे यह रह सकेगा..."अव धनिक वर्ग के सहयोग के लिए उनका ध्यान उनके कर्तव्यों भारत को पूर्ण स्वाधीन बनाकर छोड़ेगे। इसी मे सब कुछ के प्रति बड़ी चतुराई से भाकर्षित किया है। श्रेय और इसी में देश कल्याण है।" इस प्रकार स्फूति भारतवर्ष तम्हारा, सम हो भारत के सत्पुत्र उदार। दायक उद्बोधन प्राप्त कर ऐसा कौन होगा जिसका हृदय " हृदय फिर क्यों देश विपत्ति न हरते, करते इसका बेड़ा पार ॥ . स्वातंत्र्य समर मे कूदने के लिए न मचल उठता हो। _ + + + + साथ ही राष्ट्र हित की भावना से सम्पूर्ण देश में शान्ति एवं व्यवस्था बनी रहे भय पातक, एव अराजकता न फैले चक्कर में विलास प्रियता के मत भूलो अपना देश । इसके लिए समस्त लोगों को समय समय पर चेतावनी + + + + देते रहे। विदेशी सरकार के दमन चक्र का साहसपूर्वक कल कारखाने खुलवाकर मेटो भारत के क्लेश । सामना करने के लिए पाप कहा करते थे स्वतंत्रता को प्राणों से प्रिय मान कर उसकी रक्षा ___"सरकारी दमन के प्रति हमारी नीति 'शठ' प्रति करना किसी भी समाज तथा व्यक्ति का सर्व प्रथम कर्तव्य शाठय' न होकर रमे पशुबल का उत्तर प्रात्मबल से देना माना गया है। जो जाति समाज अथवा व्यक्ति अपनी है इसी में हमारी विजय निहित है। हमे क्रोध को क्षमा राष्ट्रीयता का सम्मान करते हुए प्राण निछावर करने मे से अन्याय को न्याय से प्रशान्ति को शान्ति से और द्वेष गौरव की अनुभूति करता है वह सम्माननीय है । स्वतत्रता को प्रेम से जीतना चाहिए तभी स्वराज्य रसायन सिद्ध हो अमूल्य निधि है । उसको सुरक्षा हमारा परम कर्तब्य है । सकेगी।" उसकी अमरता राष्ट्रीय एकता में निहित है जिसका गांधी जी के अछुतोद्धार कार्यक्रम के प्रति आपके प्राधार "भाषा" है। श्री मुख्तार जी हिन्दी को राष्ट्र हृदय में पूर्ण श्रद्धा थी। आपके विचारानुसार अछूत जन्म भाषा मानकर उसके प्रचार एवं प्रसार मे जीवन पर्यंत से नही कर्म से होता है । मलमूत्र स्पर्श से अस्पयं नहीं लगे रहे। इस कार्य हेतु उन्होंने प्रत्येक देशवासी से अपील हो सकता है इसके सम्बन्ध में प्रापने अत्यन्त सुन्दर उदा की है-"राष्ट्र भाषा के प्रचार के लिए हिन्दी में लिखें, हरण प्रस्तुत किया है हिन्दी मे बोले पत्र व्यवहार हिन्दी में हो, अधिक से 'गर्भवास 'भौ' जन्म समय में कौन नहीं अस्पृश्य हुमा। अधिक हिन्दी पुस्तकों तथा समाचार पत्रों का प्रकाशन कौन मलों से भरा नहीं ? किसने मलमूत्र न साफ किया" पठन तथा मनन हो।" इस प्रकार वर्तमान भाषा समस्या किसे अछूत जन्म से तब फिर कहना उचित बताते हो। का सरल हल निकाल कर राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त तिरस्कार भंगी चमार का करते क्यों न लजाते हो॥ कर युगवीर जी सचमुच युग निर्माता के पद पर पासीन राष्ट्रोन्नति हेतु स्वास्थ एवं बलिष्ठ नवयुवकों को हुए हैं। आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए आपने गौ संवर्धन की प्रागे चल कर उनका दृष्टि कोण केवल समाज सिफारिश जोरदार शब्दों में की है। आपके कथनानुसार अथवा राष्ट्र के सकुचित क्षेत्र तक सीमित नही रह सका कमजोर नवयुवक पीढ़ी का कारण गौवध तथा घी दुग्ध उनका उदार हृदय विश्व कल्याण की भावना से भर उठा की अशुद्धि तथा उनकी मंहगाई है। अतएव इन सब के तभी तो उनकी भावना रहीनिराकरण हेतु प्रत्येक सद्गृहस्थ नागरिक से गौ संवर्धन इति भीति व्यापे नहीं, जग में वृष्टि समय पर हुमा करे में पूर्ण सहयोग देने का निवेदन युगवीर जी यदा कदा धर्म निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे॥ करते रहे हैं जिससे राष्ट्र को पुनः भीम अर्जुन सदृश्य रोग मरी दुभिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे। राष्ट्रीय पुरुष प्राप्त हो सकें। परम अंहिसा धर्म जगत में, फैल सर्व हित किया करे॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य तपस्वी स्व० मुख्तार सा० प्रगरचन्द नाहटा मनुष्य जन्म के समय तो प्रायः एक समान बालक सकते है । मुख्तार साहब की बहुमुखी प्रतिभा, सतत् प्रध्य होता है । यद्यपि पूर्व जन्म के संस्कार और अपने समय के यनशीलता और विशिष्ट लेखन अवश्य ही हमारे लिये वातावरण द्वारा उसका विकास भिन्नता लिये होता है, एक स्पृहणीय व्यक्तित्वका भव्य चित्र उपस्थित करता है। पर छोटी उम्र तक इतना अधिक अन्तर नही दिखाई मुख्तार साहब का परिचय तो मुझे बहुत पीछे मिला । देता। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता चला जाता है. स्वतन्त्र पर जब मैं जैन पाठशाला में पढता था तभी उनकी 'मेरी गुणों का विकास अधिक स्पष्ट हो जाता है । फिर भी कई भावना' नामक कविता देखने को मिली, और वह बहुत बालक बाल्यावस्था में तो साधारण से लगते हैं । पर आगे ही अच्छी लगी। ऐसी सुन्दर भावना वाले व्यक्ति 'युगचलकर तेज निकल आते है। अपनी प्रतिभा, परिश्रम, वीर' सज्ञक कौन है ? इसका उस समय कुछ भी पता सयोग और परिस्थितिया अपना रंग दिखाती है। कभी- नही था। जब साहित्य-शोध की रुचि पनपी, तथा अनेक कभी तो किसी प्राकस्मिक सयोग से जीवन धारा पूर्णतः नये नये ग्रन्थो का अध्ययन चाल हुमा और तभी मुख्तार बदल जाती है। एक विलासी व्यक्ति परित्यागी बन जाता साहब की 'ग्रन्थ परीक्षादि' पुस्तकें पढ़ने में पाई। कहाँ एक मूर्ख व्यक्ति पंडित बन जाता है। शारीरिक विकास 'मेरी भावना' के लेखक मुख्तार साहब और कहाँ 'ग्रन्थ भी इतना अधिक अन्तर वाला होता है कि एक ही व्यक्ति परीक्षा' के लेखक मुख्तार साहब, । कुछ भी ताल-मेल के समय-समय पर लिये हुए चित्रो से उसे पहचानना नही बैठ सका। 'ग्रन्थ परीक्षा' में गहरी छानबीन करके कठिन हो जाता है। बाल्यावस्था मे जो दुबला-पतला सत्य को बडे नग्न रूप में उपस्थित किया गया है जो होता है, वह बड़े होने पर काफी स्थल याने मोटा-ताजा श्रद्धाशील व्यक्तियो के लिए मर्मान्तक प्रहार और कटु हो जाता है। नेहरू जी आदि अनेक व्यक्तियों के बाल्या- सत्य-सा कहा जा सकता है क्योंकि जिन ग्रन्थो को, जिन वस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था के अनेक चित्रो को देखते प्राचार्यों की रचना मानते रहे उनको उन्होंने बहुत परहै तो यह कल्पना में भी नहीं पाता कि ये सभी एक ही वर्ती रचना सिद्ध किया, और जिन विधि-विधान वाले व्यक्ति के चित्र है। कुछ इसी तरह का प्रान्तरिक-चित्र ग्रन्थों को श्रद्धा एव अादर की दृष्टि से देखा जाता था स्वर्गीय श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार का भी मुझे दिखाई उनमें से रोमांचक बातों को प्रकट मे लाना जिससे देता है। साधारणतया मुख्तारगिरी या याने मुख्तारपने उन ग्रन्थो के प्रति धारणा ही बदल जाय, इस का काम या पेशा करने वाले व्यक्ति भिन्न प्रकार के होते प्रकार का क्रान्तिकारी कदम बहुत विरले व्यक्ति ही है। मुख्तार साहब इस दृष्टि से एक निराले ही व्यक्ति उटा पाते है । कई व्यक्ति सही बात को जानते भी हैं पर थे। जिन्होंने अपने जीवन के करीब ४० वर्ष साहित्य समाज के विद्रोह एवं निंदा के भय से साहस पूर्वक उन्हें सेवा में लगा दिये । मुख्तार साहब की संक्षिप्त जीवनी अभी प्रकट नहीं कर पाते। जबकि मुख्तार साहब ने 'ग्रन्थ डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के द्वारा लिखी हुई, जैन विद्वत्परि- परीक्षा में बडा निर्भीक और साहसिक कदम उठाया और षर से प्रकाशित हुई है। उससे अभी तक जो बातें ज्ञात परीक्षा का एक प्रादर्श उपस्थित किया । वास्तव में परीनहीं थी, वे प्रकाश में पाई हैं। उनके निकट सम्पर्क मे क्षक पक्षपात से काम नहीं ले सकता। उसे तो तथ्य पर रहने वाले व्यक्ति मोर भी बहुत-से प्रशात तथ्य बतला ही पूर्ण निर्भर रहना पड़ता है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त मुख्तार सा० का वास्तविक परिचय तो मुझे जबसे से मिलना होता ही रहता था। मुख्तार सा० के वे बड़े उनका 'अनेकान्त' पत्र प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ, तभी भक्त थे। और उन्होने मुख्तार साहब को काफी सहयोग मिला। 'अनेकान्त' अपने ढंग का निराला मासिक पत्र भी दिया। पर आगे चलकर कुछ बातो मे मतभेद हो जाने देखने में पाया। उसमें सम्पादक की सत्य सशोषक वृत्ति से उन दोनों को मै दःखी-सा अनुभव किया। अन्तिम बार विशाल अध्ययन, गम्भीर चिन्तन, जैन साहित्य और शासन जब मुख्तार साहब से मिला तो उन्हें काफी परेशान-सा की सेवा भावना आदि कई बाते एक साथ देखने को पाया। उनके इच्छा के अनुरूप कार्य नहीं हो रहा था, मिली, जिससे में बहुत प्रभावित हुआ। उनके सूचित इससे वे बडे व्यग्र थे और सस्था के प्रति उदासीन भी अलभ्य ग्रन्थो की खोज का काम भी मुझे बहुत आवश्यक नजर आये। मुख्तार सा० बहुत कर्मठ व्यक्ति थे और लगा। मुख्तार साहब ने ऐसे कई ग्रन्थों की सूची 'अने- वीर सेवा मन्दिर की स्थापना द्वारा उन्होने बहुत सुन्दर कान्त' में प्रकाशित की थी जिनका उल्लेख तो मिलता है स्वप्न देखे थे अतः इच्छानुरूप कार्य न होते देख उन्हें पर प्रतियों के अस्तित्व का पता नही चलता। इसी तरह दुःख होना स्वाभाविक भी है। यद्यपि वीर सेवा मन्दिर मुख्तार साहब के कई लेख तो बहुत ही पठनीय लगे। द्वारा अनेकान्त पत्र भी प्रकाशित होता है, दो विद्वान् भी उनसे मिलने का प्रसग तो दिल्ली में वीर सेवा मदिर वहाँ कार्यरत है। पर मुख्तार सा० के वहाँ रहते हुए जो की स्थापना के समय ही मिला। अपने व्यापारिक केन्द्र पाकपणप्रद बात वहाँ थी वह उनके बाद दिखाई न कलकत्ता व आसाम जाते-पाते समय मै दिल्ली में प्राय. देना स्वाभाविक ही है। अनेकान्त को जो रूप उन्होंने ठहर जाता और 'वीर सेवा मन्दिर' में जाकर मुख्तार दिया था उसमें भी परिवतन हुआ। अ दिया था उसमे भी परिवर्तन हुा । और अन्य कार्य सा० से मिलने की उत्सुकता रहती। इतने बड़े विद्वान् । जितनी तेजी से हो रहे थे, उनकी गति भी मन्द पड़ गई। होने की छाप तो मुझ पर पहले से ही अनेकान्त और फिर भी उनके द्वारा स्थापित सस्था अच्छा कार्य कर रही उनके ग्रन्थों से पड़ चुकी थी, पर वे इतने सरल और प्रेम है। मुख्तार सा० के प्रारम्भ किये हुए लक्षणावली' ग्रन्थ मूति होगे, इसकी कल्पना नही थी। मेरे लेख 'अनेकान्त' को तो अब शीघ्र ही प्रकाशित किया जाना आवश्यक है । मे छपने लगे। इससे वे मेरी शोध प्रवृत्ति और रुचि से मुख्तार सा. वृद्धावस्था मे भी जिस तरह कार्यरत भलीभाँति परिचित हो चुके थे। अतः प्रथम मिलन में ही थे. दसरे व्यक्ति विरले ही नजर आते है। ६२ वर्ष की उन्होने बहुत हर्ष व्यक्त किया और इससे मुझे भी बड़ा ही उनका स्वाध्याय और लेखन बराबर चलता आनन्द हुअा। फिर तो वीर सेवा मन्दिर उनसे मिलने के रहा, यह बहुत ही उल्लेखनीय है । अनेक ग्रन्थो पर उन्होंने लिये जाना एक जरूरी कार्य हो गया और प्रायः जब तक गम्भीर विवेचन लिखा । इन वर्षों में उनका झुकाव अध्यावे दिल्ली में रहे, मै उनसे मिलने पहुँचता ही रहा । त्मिक ग्रन्थो की ओर अधिक नजर आया। 'पुरातन वाक्य नये-नये ग्रन्थो की खोज और उन पर प्रकाश डालने सूची' को तैयार करने और लेखको का विस्तृत परिचय के लिए वे सदा तत्पर रहते थे। एक बार मैं जब वीर देने मे उन्हें बहुत अधिक अध्ययन और श्रम करना पड़ा सेवा मन्दिर गया तो मुझे अजमेर के भट्टारकीय भण्डार है। विविध विषयों पर उन्होने काफी लिखा है। उनकी से लाई हुई कुछ प्रतियां दिखाई। छोटी या बड़ी कोई भी सत्यनिष्ठा, अध्ययनशीलता, अटूट लगन और गम्भीर रचना उन्हें अच्छी लगती तो उसके सम्पादन, अनुवाद चिन्तन विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दान को उन्होंने एवं प्रकाशन में वे जुट जाते । प्रारम्भ में वे मुझे कुछ परिग्रह का प्रायश्चित बतलाया। इस तरह के अनेक नये सम्प्रदायनिष्ठ लगे, पर मेरे साथ उनका व्यवहार सच्चे विचार उनके द्वारा हमें मिले। शारीरिक स्वास्थ्य भी स्वधर्मी-वात्सल्य के रूप में ही रहा । अच्छा था अतः विचार भी उच्च थे उन्होंने अपनी सम्पत्ति बीच में मैं एक बार मिलने गया तो कलकत्ते के बाबू का बहुत अच्छा सदुपयोग किया। समाज और साहित्य के छोटेलाल जी जैन भी वही थे । कलकत्ता में छोटेलाल जी लिये उनका सर्वस्व दान प्रशंसनीय ही नहीं, अनुकरणीय Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यान्वेषी श्री युगवीर कस्तूर चन्द्र जैन, एम. ए. बी. एड. जब सुबह होगी है तभी यह निश्चय हो जाता है कि प्रापको समर्पित कर दिया था। वे महान् प्रात्माएं थों : संध्या भी होगी और सुबह दिवंगत होकर अस्त हो स्व० युगवीर जी और स्व० प्रेमी जी। जावेगा। परन्तु जैसा कि देखने में आता है, कुछ सुबह ये दोनों ही पात्माएँ महान् विद्वान साहित्यकार और अस्त हो जाने के उपरान्त भी अपनी विशेषताओं के कारण चिन्तनशील थीं। दोनों का जैनधर्म और जैन साहित्य के जन-समूह के लिए सदैव स्मरणीय बना रहता है बहुत कुछ वैसी ही महान आत्माएँ होती है । उनका के सुबह के समान लिए अनूठा योगदान रहा है, जिसके लिए जैन समाज जन्म होता है। और वे एक निश्चित अवधि में अपनी उनका चिर ऋणी रहेगा। दोनो विद्वान् अपने-अपने ढग ज्ञान ज्योति से ससार को प्रकाशित कर अस्त हो जाती के अनूठे विचारक थे। दोनो का अलग-अलग व्यक्तित्व है । परन्तु उस विशिष्ट सुबह के समान अपने जीवन-काल था। प्रेमी जी की जहां जैनधर्म की आस्था में शिथिलता मे की गई समाज एव साहित्यिक सेवाग्रो से ऐसी महान् दिखाई देती है, वहा युगवीर अपार श्रद्धालु । प्रेमी जी ने जहाँ जैनधर्म के दोपो को देखा है, युगवीर जी ने वहाँ मान्यताएँ अजर-अमर होकर जन समूह के लिये सदैव दोप निदेषक उन तथ्यो को न केवल तर्कपूर्ण दृष्टि से स्मरणीय बनी रहती है । बल्कि एक सत्यान्वेषी की दृष्टि से देखा है और अपनी ऐसी स्वर्गीय महान् आत्माओं मे दो जैन महान् विवेकपूर्वक बुद्धि से उचित समाधान निकालने का प्रयत्न आत्माएं इस बीसवी गती मे हुई है, जिन्होने जैनधर्म एव किया है, जिसमे उन्हे पूर्ण मफलता मिली जात होती है। जैन साहित्य के विकास एव सवर्द्धन के लिए ही अपने युगवीर जी सन्तुलित दृष्टि के धनी थे-जिस सन्तभी है। जैसा कि मैने अभी अपने 'जन सन्देश' वाले लेख लिलाट के सम्बन्ध में साहित्यकारो का क लित दृष्टि के सम्बन्ध में साहित्यकारो का कथन है कि मे लिखा है, उनकी अन्तिम भावनाप्रो को हमे शीघ्र ही "सन्तुलित दृष्टि वह नही है जो अतिवादिताप्रो के बीच मूर्त रूप देना चाहिए । अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हो एक मध्यम मार्ग खोजती है, बल्कि वह है जो अतिवादिसका तो 'स्मृति ग्रन्थ' ही निकले। वीर सेवा मन्दिर को तानो का आवेग तरल विचारधारा का शिकार नहीं हो एक शोध केन्द्र का रूप दिया जाय । दिल्ली में ऐसी सस्था जाती और किसी पक्ष के उस मूल सत्य को पकड़ सकती उचित व्यवस्था करने पर बहुत उपयोगी हो सकती है । है जिस पर बहुत बल देने और अन्य पक्षो की उपेक्षा उसके ग्रंथालय को समृद्ध बनाया जाय और लोग अधिकाधिक करने के कारण उक्त प्रतिवादी दृष्टि का प्रभाव बढ़ा है। लाभ उठा सके ऐसी सुव्यवस्था की जाय । अन्त मे मै मान इस सन्तुलित दृष्टि को आगे माहित्यान्वेषी की दृष्टि नीय मुख्तार सा० को सादर श्रद्धाजलि अर्पित करते हुए बताया गया है। इस उक्ति के अनुसार युगवीर जी मेरे प्रति उनका जो वात्सल्य भाव था उसे स्मरण कर गद् साहित्यान्वेषी सिद्ध होते है। उनकी साहित्यान्वेषी दृष्टि गद् होता है। वास्तव में मुख्तार सा० ने अपने जीवन में की एक झॉकी के दर्शन हम उनके द्वारा लिखित एक इतना काम किया वे व्यक्ति ही नही सस्था बन गये । पुण्य प्रस्तावना में होते है, जिसका यहाँ सक्षिप्त उल्लेख कर प्रभाव से मुख्तार सा० ने मृत्यु भी अच्छी पाई और देना आवश्यक समझता हूँ। स्वास्थ भी ठीक रहा, लगन थी ही अतः वे काफी कार्य कर सके। १. विचार और वितर्कः पृ० २५३ । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनेकान्त स्व. प्रेमी जी ने अपने लेख संग्रह में जैन कथाओं के एवं मनन करने के उपरान्त अपने विचार प्रकट करते हुए सम्बन्ध में, जैनेतर ग्रन्थों का सहारा लेकर कतिपय ऐसे लिखा है कि 'सूर्यशतक का असर या प्रभाव एकोभाव उद्गार व्यक्त किये हैं, जिन्हें प्रश्रद्धा मूलक बताया है। स्तोत्र पर कहीं भी लक्षित नहीं होता है। कथानक में प्रेमी जी का कथन है कि ये जैन कथाएँ बहुत पुरानी हैं असम्भव या अप्राकृतिक जैसी कोई बात नहीं हैं। ऐसा और उन लोगों द्वारा गढ़ी गई हैं जो ऐसे चमत्कारों से भी कोई उल्लेख नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि ही प्राचार्यों और भट्टारकों की प्रतिष्ठा का माप किया जिनेन्द्रदेव ने वादिराज की स्तुति से प्रसन्न होकर उनका करते थे। बेड़ियों को तोडकर कैद मे से बाहर निकल रोग दूर कर दिया। युगवीर जी का कथन है कि जब आना साँप काटे हुए पुत्र का जीवित हो जाना आदि स्तोत्र के प्रथम पद्य मे ही स्तोत्रको 'भवभवगत घोर-दु.खऐसी चमत्कारपूर्ण कथाएँ पिछले भट्टारकों द्वारा गढी हुई प्रद एव दुनिवार कर्मबन्धन' को भी दूर करने में समर्थ प्रचलित हैं जिन्हे प्रेमी जी ने असम्भव और अप्राकृतिक बताया गया है। फिर ऐसे योगबल की प्रादुर्भूति के आगे बताया है तथा यह भी स्वीकार किया है कि ऐसी कथाएँ शरीर मे रोग कैसे ठहर सकता है जो कि एक कर्म के जैन मुनियों के चरित्र को और उनके वास्तविक महत्व । उदय का फलमात्र है। आगे अन्य युक्तियुक्त प्रमाण प्रस्तुत को नीचे गिराती है। प्रेमी जी ने अपने कथन से सम्ब- करते हए युगवीर जी ने लिखा है कि लोकोपकारी भावना न्धित कतिपय तर्क भी प्रस्तुत किये है जिनमे उन्होने से मूनि जी ने रोगमुक्त होने के लिए भक्तियोग का आश्रय 'एकीभावस्तोत्र' को 'सूर्यशतकस्तवन' की कथा का अनु- लिया था जिसका उल्लेख स्तोत्र के १०वे पद्य में “तस्याकरण बताकर,-जिन-भगवान को 'कर्तुमकर्तुमन्य- शक्य. क इह भुवने देवलोकोपकारः' इस वाक्य द्वारा थाकर्तु' असमर्थ बताता है, साथ ही मुनिजी के मिथ्या- किया गया है। भाषण न करने से-ऐसी कथाओं का जैनधर्म के विश्वासो इस भाँति 'युगवीर' जो न केवल श्रद्धामूलक-भावके साथ कोई सामञ्जस्य नही बैठता यह भी कहा है। नायो से अोतप्रोत ज्ञात होते है बल्कि वे महान् विवेकी परन्तु सत्यान्वेषी युगवीर जी का विश्वास है कि जो भी मिद्ध होते है । वे एक कुशल जौहरी भी थे । सम्भकुछ भी ऐसे चमत्कारपूर्वक कार्य हए है वे सब भक्तियोग बत: जब तक वे किसी कथन की ऊहापोप पूर्वक जौहरी के बल पर हुए है। उन्होने प्रेमी जी के इन उदगारो को के समान परख न कर लेते, उसे स्वीकार नहीं करते थे । प्रश्रद्धामूलक निरूपित करते हुए उनके द्वारा निर्देशित ऐस बानवे वर्षीय साहित्यसेवी, साहित्यान्वेषी उद्भट "सूर्यशतकस्तोत्र' को स्वयं देखा है तथा जिसका अध्ययन विद्वान् का दिवगत होना किस साहित्य-प्रेमी के हृदय को क्षुब्ध न करेगा । युगवीर जी ने अपने जीवन में जो २. श्रमिद्वादिराजसूरि; कल्याणकल्पद्रुमः भारतीय ज्ञान जैनधर्म की सेवाएं की है वे चिरस्मरणीय रहेंगी, तथा पीठ प्रकाशन, प्रथम सस्करण, १९६७ प्रस्तावना, उनका नाम उनके साहित्य के साथ सदा अमर रहेगा। पृ० १५। ऐसे जैन रत्न को हार्दिक श्रद्धाजलि समर्पित करते हुए ३. जैन साहित्य और इतिहास : सशोधित साहित्यमाला, हम अाशा करते है कि उनकी मनोभिलाषाओ को समाज ठाकुरद्वार, बम्बई-२, द्वितीय संस्करण, १९५६ ई० पूर्ण कर उनकी प्रात्मा को शान्ति प्रदान करेगी। . पृ० २६५ । ५. कल्याण कल्पद्रुमः वही; पृ० १३ । ४. वही : पृ० २६५-२६७ । ६. वही : पृ० १५। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती-पुत्र मुख्तार सा० मिलापचन्द रतनलाल कटारिया वीरसेवा मदिर और "अनेकान्त" के जन्मदाता एव वयं गोपालदास जी वरैया तक ने उनकी लेखनी का लोहा "मेरी भावना" के अमर रचयिता परमादरणीय प. वयं माना था। मुख्तार सा. के परीक्षा लेखों से प्रभावित जुगुल किशोरजी मुख्तार "युगवीर" का ६२ वर्षकी आयु मे होकर वरैया जी ने आपत्तिजनक ग्रन्थों को पाठ्यक्रमों में से एटा में स्वर्गवास होने के समाचार ज्ञात कर अत्यन्त हार्दिक निकाल दिया था इस तरह मुख्तार सा० को लेखनी का दुखः हुमा । पापका हमारे ार अतीव स्नेह था। पापकी जादू सर्वत्र व्याप्त था। याद कर दिल भर पाता है पापके बीसों विस्तृत साहित्यिक २४ अप्रेल सन् १९४२ मे मुख्तार सा० ने अपनी ५१ पत्र हमारे पास सुरक्षित है उनसे पाठक मुख्तार सा० की हजार की मिल्कियत का एक वसीयतनामा वीरसेवा मदिर श्रुत सेवा की अद्भुत लगन को हदयगम कर सकते है। आप ट्रस्ट योजना के साथ सहारनपुर में रजिस्टर्ड करवाया था सन् १९५५ में केकडी पधारे थे तब ग्रापको १७ दिसबर जो अनेकान्त वर्ष ५ पृष्ठ २७ से ३० पर सक्षिप्त रूप से को अभिनन्दन-पत्र के साथ १०५ रुपयों की थैली स्थानीय छपा है। इसी को अपने जीवन काल में ही पब्लिक ट्रस्ट दि० जैन समाज ने भेंट की थी और यहाँ की प्राचीन व का रूप देते हुए २६ अप्रेल १६५१ को एक ट्रस्ट नामा का रूप दत हुए २६ । विशाल दि. जैन सस्था का पापको अधिष्ठाता मनोनीत नकुड मे रजिस्टर्ड कराके आपने सब सम्पत्ति ट्रस्टियो के किया था। मुपुर्द कर दी थी । यह ट्रस्टनामा अविकल रूप से अनेकात आपके स्वर्गवास से साहित्याकाश का एक जाज्वल्य वर्ष ११ पृष्ठ ६५ से ७३ पर छपा है। इससे जाना जा मान महान् नक्षत्र अस्त हो गया। तन धन मन सर्वस्व सकता है कि-मुख्तार सा० मुख्तार गिरि की कला मे भी कितने कुशल थे। इस ट्रस्टनामे का ड्राफ्ट इतना समर्पण कर जीवन भर जनवाङ्मय के लिये अलख जगाने सुन्दर बना है कि अनेक सस्थाप्रो के सचालको ने वाला अब उन जैसा परम साहित्य तपस्वी होना महान अपनी संस्थानों का ट्रस्ट कराते वक्त इसको प्रादर्श रूप दुर्लभ है। से ग्रहण किया है। हमारे पास से भी एक रामद्वारा विद्वान और ज्ञानी अनेक देखे पर उनकी प्रज्ञा ही के व्यवस्थापक और १-२ अन्य सज्जन इस ट्रस्टनामे की निराली थी। उनकी दृष्टि बड़ी पैनी, बुद्धि बड़ी प्राजल "अनेकान्त" की कॉपी मागकर लेगये थे इससे इसकी पौर प्रतिभा बड़ी अद्भुत थी। उनका लेखन प्रामाणिक महत्ता प्राकी जा सकती है। और प्रमेय बहुल होने के साथ ही रोचक एव अनुसघा- मुख्तार श्री ने अनेक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का मुलानुनात्मक होता था। साधारण सूत्रों का जो रहस्य व गामी सन्दर हिन्दी अनुवाद और भाष्य किया है। उनके उद्घाटित करते थे वह असाधारण होता था। उनके अनुवाद की भी अपनी एक निराली शैली है-अनेक निष्कर्ष अनेक नई दिशामों और अटल स्थापनाओं जगह अनुवाद वाक्य को और विशद करने के लिए उसी को लिये हुए होते थे। उनकी लेखनी वास्तव में ही के प्रागे स्पष्टतर वाक्यों का सयोजन किया गया है फिर चमत्कार पूर्ण थी-उससे अनेकों में स्वाध्याय और निबध- भी कोई प्रवाह भंग नहीं हो पाया है यह एक खूबी है। लेखन की रुचि जाग्रत हुई थी हमने स्वयं-उससे काफी अनुवाद के साथ प्रत्येक ग्रन्थ की विस्तृत प्रस्तावना और प्रेरणा प्राप्त की थी। इस तरह मुख्तार सा० सहस्त्रों परिशिष्टादि से भी समलकृत किया गया है शुद्ध एव विद्वानों के परोक्ष रूप से प्रादर्श गुरु थे। गुरूणागुरू पं० कलात्मक छपाई का भी पूरा ध्यान रखा गया है। इस Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अनेकान्त तरह उनके द्वारा प्रकाशित सभी ग्रंथ मौलिक और आदर्श का अगाध भंडार है इसने मापको सदा के लिए अमर कर रूप है। दिया है। काव्यरचना पर भी उनका पर्याप्त अधिकार था। "मेरी आप समन्वयी सुघारक और राष्ट्रीय विचार धारा के भावना" की रचना ने तो उन्हें विश्वविख्यात कर दिया महा मानव थे । सन् १९२० से बराबर खादी पहनते रहे था यह रचना सर्वप्रथम 'जैन हितैषी' के अप्रेल-मई १९१६ थे। आपने ही सर्वप्रथम बीर शासन जयती (श्रावण कृष्णा के सयुक्तांक में प्रकाशित हुई थी। अनेक देशी-विदेशी प्रतिपदा) की खोज कर उसका प्रचार किया था । भाषानों में इसके अनुवाद हुए थे फोनोग्राफ के रेकार्डों तक जैन इतिहास के क्षेत्र में आपने अभूतपूर्व कार्य किया मे यह भरी गई थी इससे इसकी विशिष्ट लोकप्रियता का था। अनेक प्राचीन समन्तभद सिद्धसेन पात्रकेसरी विद्यानन्द परिज्ञान हो जाता है। अमृत चन्द्र आदि दि० जैनाचार्यों का इतिहास अधकार में सन् १९०० मे आपने 'अनित्यपंचाशत्' का सुन्दर छिपा पड़ा था आपने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से उसे प्रकाश हिन्दी में पद्यानुवाद किया था और भी आपने अनेक सुन्दर में लाकर दि० परम्परा के गौरव को ख्यापित किया था उद्बोधक कविताये लिखी थी इनका एक भव्य संग्रह इस दृष्टि से अाप दि० परपरा के अनन्य सरक्षक सिद्ध हुए 'युगवीर-भारती' के नाम से अहिंमा मन्दिर, दिल्ली से यह मानना ही होगा कि अगर मुख्तार सा० न होते तो प्रकाशित हुआ है। महावीर-जिनपूजा और बाहुवलि दि. परम्परा का इतिहास ही अस्त व्यस्त हो जाता । जब जिनपूजा भी आपके नई शैली के श्रद्धा-सुमन है। भी कोई व्यामोह छल से प्राचीन दि. प्राचार्यो को अर्वाचीन आपकी समीक्षाए भी बड़ी लाजवाब होती थी। ग्रथ सिद्ध करने की कोशिश करता तो आप उसकी पूरी खबर परीक्षा के चार भाग, विवाह क्षेत्र प्रकाश, जिन पूजाधि- लेकर उसे निरूत्तर करने में कोई कसर नहीं रखते थे। धिकार मीमासा आदि इनमे प्रमुख है ये अत्यन्त सावधानी अापके इतिहास विषयक निबधो का एक विशाल संग्रह मे अकाट्य युक्तियो और प्रमाणो के साथ अतीव परिश्रम 'जनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' (प्रथम खड) पूर्ववः लिखी गई है और इसीलिए आजतक उनका जवाब के रूप में प्रकाशित हो चुके है। इसके सिवा 'पुरातन जैन त्यागियो और विद्वानो से नही लग पाया है । दस्सा पूजा- वाक्य सूची' की १७० पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावना मे भी धिकार पर आपने कोर्ट में गवाही तक दी थी। अनेक जन प्राचार्यों और उनके और उनके ग्रन्थो का इसी तरह ‘सन्मति सूत्र और सिद्धसेन' नाम का आपका इतिहास सग्रहीत है। विस्तृत निबध है जिसका अग्रेजी अनुवाद भी अलग से प्राचार्य प्रवर समन्तभद्र के तो श्राप महान् भक्त ही प्रकाशित हुअा है उसका भी प्राज तलक प्रज्ञा चक्षु प० थे उनका सांगो-पाग इतिहास तैयार कर आपने उन्हे १-२ सुखलाल जी से जवाब तक नहीं बन पाया है। शताब्दी का तो सिद्ध किया ही उनकी समस्त उपलब्ध अप संपादन कला के भी प्राचार्य थे । १ जुलाई कृतियो का मौलिक हिन्दी अनुवाद कर अपार श्रद्धा-भक्ति १६०० मे प्राप महासभा के मुखपत्र साप्ताहिक मुखपत्र का भी परिचय दिया और इस तरह अपने आराध्य को जैन गजट (देव वन्द) के सम्पादक बनाये गये। ३१ दिसम्बर जन-जन के हृदय का हार बना दिया। जिस तरह तुलसी १९०६ तक के श्राप के सम्पादन काल में जैन गजट की दास जी ने 'रामचरित मानस की रचना कर अपन ग्राहक संख्या ३०० से १५०० तक हो गई थी इससे प्राराध्य रामचन्द जी को लोक मानस में उतार कर जाना जा सकता है कि प्रारकी सपादन कला कितनी उच्च प्रख्यात कर दिया, एव जिस तरह सत्पुरष कानजी स्वामी कोटि की थी। फिर आप अक्टूबर १९१६ मे 'जैन हितैषी' ने समयसारादि के माध्यम से अध्यात्म की गगा प्रवाहित के संपादक बने और २ वर्ष तक रहकर उसे काफी चमका कर अपने श्रद्धेय भगवत्कृन्द कुन्द को जन-जन का प्रिय दिया। फिर नवम्बर १९२६ मे मासिक 'अनेकांत' का बना दिया। सपादन प्रकाशन किया। यह पत्र अनेक विषयों के ज्ञान इससे हम यह फलितार्थ निकाल सकते है कि-जहाँ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती-पुत्र मुख्तार सा० २४१ महान् पाराध्य के प्राश्रय से प्राराधक ऊँचे उठ जाते हैं सम्पादक प्राप ही थे। पापके सन्मति पौर विद्यावती दो वहाँ योग्य पाराधक के माध्यम से अराध्य भी लोक-विश्रुत पुत्रियां हुई थीं जो अल्पावस्था में ही गुजर गई। हो जाते हैं। ___सहारनपुर में दिसम्बर १९४३ को भारत बैंक के 'यो यच्छ्रसः स एव सः' (अर्थात्-जो जिसकी श्रद्धा मैनेजिंग डाइरेक्टर प्रसिद्ध व्यापार-शास्त्री श्री राजेन्द्रकरता है वह वैसा ही हो जाता है) इस न्याय के अनुसार कुमार जी के सभापतित्व में आपकी ६७वीं वर्षगांठ के हम मुख्तार सा० को 'माधुनिक समन्तभद्र' भी कहे तो उपलक्ष्य में विशाल सम्मान समारोह हुप्रा था जिसमें कोई अत्युक्ति नहीं। आपको अभिनन्दन-पत्र भेंट किया गया था। इस पर भनेमुख्तार सा०-उद्भट विचारक प्रवर तार्किक, कांत वर्ष ६ किरण ५-६ के रूप में मुख्तारश्री सम्मान निर्भय-समीक्षक, सुदृढ समालोचक, प्रामाणिक लेखक कुशल समारोह विशेषांक प्रकाशित हुआ था। संपादक, महान् संशोधक, निर्दोष व्यनुवादक, सूक्ष्म अन्वेषक अभी मई १९६८ मे विद्वद् परिषद् ने भी एटा में मार्मिक तत्वज्ञ, इतिहास मर्मज, प्रोजस्वी वक्ता, प्रबुद्ध कवि, अभिनन्दन-पत्र समर्पित कर तथा 'मुख्तारथी का व्यक्तित्व प्रसाधारण भाष्यकार, प्रकाड पडित, आदर्श विद्वान, प्रवीण और कृतित्व' पुस्तिका प्रकाशित कर उनका हार्दिक सम्मान व्याख्याता, धुरंधर नेता, समन्वयी सुधारक, विचक्षण अनु- किया था। सघाता, महान श्रुतसेवक, विद्वद्-सम्राट, अनेक ग्रन्थ- मख्तार सा० ने अपने देहावसान से कुछ दिनों पहिले निर्माता, सन्मार्गप्रणेता, सद्धर्म प्रचारक, वास्तविक ब्रह्म- अपने टस्ट का नवीन गठन किया था। मान्य ट्रस्टियो से चारी, समीचीन त्यागी, अनुपम समाज-सेवक, साहित्य प्रार्थना है कि वे मुख्तारश्री के प्रामाणिक जीवनचरित तपस्वी, मनस्वी, कार्यार्थी आदि अनेक रूपो के धारक को लिये हए एक विशाल स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन करावे महान् गुणों के सागर साक्षात् सरस्वती-पुत्र ही थे। तथा उनकी याद मे यह ग्रन्थमाला प्रारम्भ कर तथा उनके आपके पिता श्री का नाम चोधरी लाला नत्थूमल जी छोडे हए अधुरे कार्यों को पूरा करावे यथा--जैन लक्षणाऔर पितामह का चौधरी लाला धर्मदास जी तथा माता वली और जीतसार समुच्चय लोक विजय यन्त्र आदि का नाम भोई देवी था। जाति-जैन अग्रवाल, गोत्र- ग्रन्थो का प्रकाशन तथा प्रवशिष्ट साहित्यिक, ऐतिहासिक सिंहल निवास स्थान सरसावा, तहसील-मकुड, जिला- और परीक्षात्मक निबन्धो का पुस्तकाकार प्रकाशन एवं सहारनपुर था । धर्मपत्नी राजकली देवी थी (जिसकी अप्रकाशित रचनाओ का प्रकाशन करावे । मृत्यु १६ मार्च १९१८ मे हुई थी)। आपका जन्म मग मुख्तार सा० की अद्यावधि प्रकाशित रचनामों की सर सुदी ११ वि० स० १८३४ में हुआ था। ४ दिसम्बर को प्रकार : १९२७ को ब्रह्मचर्य व्रत लिया। १२ फरवरी १६१४ को १. ग्रन्थ परीक्षा प्रथम भाग (उमास्वामी श्रावकामुख्तारकारी छोडकर श्रुतसेवा का महाव्रत अगीकार चार, कुन्दकुन्द श्रावकाचार, जिनसेन त्रिवर्णाचार की किया। पौष शुक्ला ३ स० २०२५ दीतवार ता० २२ परीक्षा-इनमे से उमास्वामी श्रावकाचार की परीक्षा दिसम्बर ६८ को प्रापका देहावसान एटा मे अापके भतीजे अलग से भी छपी है)। श्री डॉक्टर श्री चन्द्रजी जैन सगल के यहाँ हुआ था। २. ग्रन्थ परीक्षा द्वितीय भाग (भद्रबाहु सहिता)। आपने मैट्रिक तक पढाई की थी । सन् १९०२ मे मुख्तारकारी की परीक्षा पास की थी। प्रापका पहला लेख ८ ३. ग्रन्थ परीक्षा तृतीय भाग (सोमसेन त्रिवर्णाचार, मई १८६६ के जैन-गजट (वेदबन्द) मे जैन कालेज के धर्म परीक्षा (श्वे०) अकलक प्रतिष्ठा पाठ पूज्यपाद समर्थन में छपा था। १९००-६ ई० मे आप जैन गजट के __ श्रावकाचार)। सम्पादक बने तब अश्लील विज्ञापनों के विरोध मे मापने ४. ग्रन्थ परीक्षा चतुर्थ भाग (सूर्यप्रकाश)। लेख लिखे इस विषय में मावाज उठाने वाले सर्वप्रथम (इन चारों भागों को दक्षिण प्रान्त के प्रसिद्ध विद्वान् Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अनेकान्त सेठ हीराचन्द जी, नेमीचन्द जी शोलापुर ने मराठी में २१. स्वयंभू स्तोत्र (हिन्दी अनुवाद प्रस्तावनादि), प्रकाशित कराया था)। २२. युक्त्यनुशासन (हिन्दी अनुवाद प्रस्तावनादि), २३. ५. महावीर जिन पूजा, ६. बाहुबली जिन पूजा, ७. देवागम (हिन्दी अनुवाद प्रस्तावनादि), २४ समीचीन अनित्य भावना हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित, धर्मशास्त्र (हिन्दी भाष्य प्रस्तावनादि), २५. समाधि८. सिद्धिसोपान हिन्दी अनुवाद सहित, ६-१०. वीर पुष्पां- तन्त्र (प्रस्तावनादि), २६. सत्साधुस्मरण मंगलजलि और युगवीर भारती ('मेरी भावना', 'मेरी व्य पाठ (हिन्दी अनुवाद), २७. अध्यात्मकमल मार्तण्ड पूजा' आदि अनेक काव्य कृतियो का संग्रह) । (प्रस्तावनादि), २८. प्रभाचन्द्र का तत्त्वार्थ सूत्र (सानु११. युगवीर निबन्धावली प्रथम भाग (इसमें कुल वाद व्याख्या और प्रस्तावनादि), ६. कल्याण कल्पद्रुम ४१ निबन्ध हैं जिनमें 'जिन पूजाधिकार मीमासा', विवाह (भाष्य और प्रस्तावनादि), ३०. तत्वानुशासन (भाष्य समुद्दे श सेवाधर्म, हम दूःखी क्यों है ? उपासना तत्व, और प्रस्तावनादि), ३१. अध्यात्म रहस्य (हिन्दी व्याख्या अनेकांत रसलहरी, सुधार का मूलमन्त्र, परिग्रह का प्रस्तावनादि), ३२. समाधि मरणोत्साह दीपक (हिन्दी प्रायश्चित्त आदि अलग से प्रकाशित ट्रेक्ट भी सग्रहीत हैं)। व्याख्या प्रस्तावनादि), ३३. योगसार प्राभृत (हिन्दी भाष्य प्रस्तावनादि), ३४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार (विशाल १२. युगवीर निबन्धावली द्वितीय भाग (इसमें कुल प्रस्तावना प्रभाचन्द्र टीका युक्त), ३५. स्तुति विद्या , ६५ निबन्ध है जिनमे 'विवाह क्षेत्र प्रकाश' आदि अलग (विस्तृत प्रस्तावना) । ३६. 'अनेकात' का अनेक वर्ष प्रकाशित ट्रेक्ट भी सग्रहीत है)। तक सम्पादन और उममे अनेक निबन्धों का प्रणयन । १३. समन्तभद्र विचार दीपिका, १४. जन-साहित्य अन्य पत्रों में प्रकाशित निबन्ध आदि । और इतिहास पर विशद प्रकाश (इसमे कुल ३२ लेख है इस तरह यह महाभारत और अष्टादश पुराणो के जिनमें-'भगवान् महावीर और उनका समय', 'स्वामी समन्तभद्र' आदि अलग से प्रकाशित ट्रेक्ट भी सम्मिलित रचयिता व्यास की तरह हो आपकी विशाल साहित्य सेवा है जो आपको सिद्ध सारस्वत और श्रुतयोगी निर्दिष्ट १५. सन्मति सूत्र और सिद्धसेन (अग्रेजी अनुवाद), करती है। १६. पुरातन जैन वाक्य सूची (इसमें १७० पृष्ठ की आपका साहित्य वास्तव में ही सद्सद् विवेक को विशाल प्रस्तावना भी है), १७. भवाभिनन्दी मुनि और जागृत करनेवाला, युगानुसारी, समीचीन दिशा निर्देशक, मुनि निन्दा । मौलिक, कलात्मक और वैज्ञानिक है। १८. नये मुनि विद्यानन्द जी की सूझबूझ, १६. बाबू अन्त मे हम पाण्डित्य विभूति प्रतिभामूर्ति श्री मुख्तार छोटेलाल जी की आपत्तियों का निरसन, २०. जैनाचार्यों सा. की पुनीत स्मृति को दिल में सजोये हुए उनके प्रति का शासन भेद। सादर श्रद्धाजलि समर्पित करते हैं। प्रलप यकी फल दे धना, उत्तम पुरुष सुभाय । दूध मरे तृण को चरं, ज्यों गोकुल की गाय ॥ जेता का तेता करे, मध्यम नर सम्मान । घटे बड़े नहि रंचहू, धरचो कोठरे धान ।। बीजे जेता ना मिले, जघन पुरुष की बान । जैसे फट घट घरघो, मिल प्रलप पयथान ॥ -बुधजन Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “युगवीर" के जीवन का भव्य अन्त डा० श्रीचन्द जैन 'संगल' मुख्तार सा० का जन्म हमारे कानूनगोयान वंश में कि आपका गुरदों का यह रोग है सो आसानी से नहीं मगसिर सुदी एकादशी सं० १८३४ में कस्बा सरसावा जायगा और असाध्य भी हो सकता है। इस पर वे उस जिला सहारनपुर में मातृभूदेवी के उदर से हुआ था रोग की ओर से कुछ उदासीन से हो गये थे, किन्तु औषधि पिता का नाम चौधरी नत्थूमल था और यह वश बहत बराबर नियम पूर्वक लेते रहते थे और साथ ही उसका पुराना चला आ रहा है और इसका शजरा अकबर बाद- परहेज भी पूर्ण रूप से पालते थे । परन्तु चिन्ता कम करते शाह के समय तक तो मिला है उससे पहले का नहीं और अपनी बंधी हुई खुराक नित्य नियम पूर्वक लेते रहते मिला। बाकी और परिचय उनकी परिचय पुस्तक जो थे; क्योंकि उन्हे अपने शरीर का अधिक मोह था, इसको डा० नेमिचन्द जी जोतिषाचार्य अध्यक्ष अ०भा० विद्वद जरा भी कष्ट नहीं होने देते थे यह रोग मेरा स्वास्थ बिगाड़ परिषद् ने अभी हाल ही मे, जो उन्होने ५ दिसम्बर सन् रहा है इसका इलाज नहीं है मै सीधे रूप से उनसे कह १९६८ में, जब वे एटा मे प्राचार्य जुगलकिशोर जी को देता कि अच्छे डाक्टर और वैद्य का इलाज हो रहा है अ०भा० विद्वद परिषद की ओर से सम्मान पत्र भेट आप औषधि सेवन करते रहे और चिन्ता न करें, सब ठीक करने आये थे निकाली थी उसमे देख लीजियेगा। उसमे हो जायगा। हरएक रोग की प्रौषधि तो है पर हरएक विशेषरूप से उनका परिचय व उनके सारे जीवन की रोगी औषधि नहीं है । जब अशुभ कर्म का विपाक शान्त झलक व उनकी कृतियो के लेख मिलेगे । हो जायगा तो रोग भी शान्त हो जायगा। इस पर हँसयो तो मुस्तारश्री मेरे पास करीब पांच साल से रह कर बोले कि मै तुम्हारे कहने का तात्पर्य समझ गया । रहे थे और उनका यहाँ पर जीवन कार्यक्रम ठीक प्रकार इसकी चिकित्सा तो अवश्य होती ही रहनी चाहिये। मै से उनकी रुचि के अनुसार चल रहा था और वे यहां कह दिया करता इससे अाप निश्चिन्त रहें बढ़िया से बढिया पर प्रसन्न भी थे, परन्तु डेढ साल से इधर अस्वस्थ चल दवा पापको मिलती रहेगी। औषधि खाने के तो वे पहले रहे थे। सबसे पहले उन्हें यकायक तकलीफ गुरदो की से ही बहुत अभयस्त थे और अपनी खुराक, सयम और हुई, जिसके कारण उन्हे १७ जून १९६७ मे पेशाब मे मनोबल के आधार पर ही ६२ वर्ष की आयु पाई जो हमारे खुन पाया, न कोई जलन, न पीड़ा, न पथरी आदि मालम किसी बुजर्ग की नहीं हुई। दवा नियम पूर्वक खाना और हुई, तीन दिन तक खून हर पेशाब के साथ प्राता रहा। परहेज पूर्ण रूप से पालते थे और औषधि लाभ भी करती चिन्ता काफी उत्पन्न हो गई दूसरे डाक्टरों को भी बुला- थी परन्तु यह बीमारी जाने वाली नही थी और इसी के कर दिखाया, उपचार से खून तो बन्द हो गया; परन्तु कारण बढिया उपचार होते हुए भी शरीर में निर्बलता उसके बाद ही उन्हे ज्वर हो गया वह भी चार-पाँच दिन आती रही। दो-तीन दफा तो ऐसी स्थिति हो गई कि मे शान्त हो गया उसके बाद सारे शरीर में सूजन एग- भाई दरबारीलाल जी कोठिया व बहन जैवंतीदेवी को जिमा और पेशाब मे खून के दौरे पड़ते रहते, ज्वर भी शोचनीय दशा की सूचना देनी पडी, वे लोग आये और प्राता रहा और स्वास्थ्य गिरता चला गया । परन्तु उनमे कुछ दिन ठहर कर चले गये । प्रायुकर्म बलवान था और मनोबल अधिक होने के कारण वे इस बीमारी के प्रकोप ठीक हो जाते थे। यह क्रम चलता रहा परन्तु अपनी की अनुभूति कुछ साधारण रूप से ही सहने लगे थे और खुराक कभी नहीं छोड़ते थे और हमेशा यही कहते थे कि अधिक चिन्ता नहीं करते थे। डाक्टरों ने जब उनसे कहा अभी मैं तो १०० वर्ष तक जीवित रहूँगा और तुमसे भी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अनेकान्त कहता हूँ कि तुम मेरे साथ लगे रहो तो देखो मैं कितना रखते थे और जहाँ तक हो सकता था उनकी कलुषता कार्य कर सकता हूँ। कृपणता के कारण कहने पर भी दूर कर देते थे और फिर उनसे मिल जाते थे। अभी कुछ कभी कोई सेवक व विद्वान को अपने पास वेतन पर नही लेख व पुस्तकें उनकी अधूरी व अप्रकाशित रह गई है जो रखा । - मैं तो ग्रहस्थ में रहते हुए उन्हे सेवा में दो-चार उन्होंने इधर लिखी थी उन्हे पूर्ण करना है तभी उनकी • घन्टे ही दिन भर मे दे पाता था। वह भी रात्रि के समय आत्मा को शान्ति मिलेगी। जैसे-जैसे मुझे समय मिलता ८ से ११ बजे तक । इस प्रकार उनका जीवन इधर चलता जायगा और आप सब जनो का सहयोग मुझे मिलता रहा और मैं व मेरी स्त्री, पुत्र व पुत्रवधू व बच्चे सभी रहेगा तो उनका यह अधूरा कार्य भी अवश्य पूरा हो उनका आदर सत्कार तथा सेवा में दिन-रात लगे रहते थे। जावेगा। क्या करूँ अशुभ कर्म के वश उनके निधन के मौर जब कभी कोई लेख या शास्त्र आदि लिख कर वाद मैं भी बीमार पड़ गया और अभी तक बीमार ही तैयार कर लेते थे तो मुझसे ही उसकी प्रेस कापी करवाते चल रहा हूँ करीब अभी डेढ या दो माह लगेगे तब पूर्ण थे, वैसे तो मुझे कोई असुविधा नही होती थी; परन्तु समय स्वस्थ होऊँगल, ऐसा डाक्टरों का कहना है। ठीक होकर की कमी और सस्कृत भाषा से मुझे बिलकुल अनभिज्ञता है ही उनके अधूरे कार्यों की पूर्ति कर सकूगा अभी तो उनका इसलिए नकल करने मे मुझे अधिक समय व कठिनाई सब कार्य जैसा वे छोड़ गये है मेसा ही पड़ा है। होती थी; फिर भी उनकी आज्ञा का उलघन नहीं करता हां तो मैं कह रहा था उनकी अन्तिम रात्रि के विषय था। जैसे तैसे लिखकर समय पर दे देता फिर वे उसे ठीक में। वह यह कि मुझे ता० १३ दिसम्बर ६८ को फ्लू कर देते थे और छपने के लिए भेज देते थे। सदा मुझे हुआ उसमें ज्वर खांसी हुआ। इधर उनकी भी तबियत कहते रहते थे कि मै तुम्हे समाज में आगे लाना चाहता एक माह से अधिक खराब चल रही थी। सारे शरीर में हैं और जो भी समाज का कार्य, साहित्य का कार्य, सस्था खुजली व वीपिग एगजिमा का प्रकोप तथा चौबीस घन्टे का कार्य व लेखादि का कार्य करो बड़ी दृढ़ता और प्रमा- ज्वर और सारे बदन मे सूजन जिसके कारण वे बहुत णिकता के साथ, खोज के साथ और निर्भय होकर करो बेचैन रहने लगे और दुर्बलता अधिक हो गई फिर भी तुम्हारा कभी अनिष्ट नहीं होगा। प्रललटप्पू लिखने व बातचीत ठीक करते थे और सबको सात्वना देते रहते थे । प्रमाण रहित लिखना अथवा पागम के विरुद्ध चलने में बहत सा उपचार व औषधि प्रादि देने पर भी उको जरा हानि ही होगी। और प्रशसा के पात्र न हो सकोगे । यही भी शान्ति न मिली, तो मैने उनसे कहा कि प्रौषधादि के मेरे जीवन का लक्ष्य व कसौटी रही है और इसी आधार साथ-साथ अपनी भक्ति प्रयोग का निमित्त भी लगाइये। पर उन्होंने बड़े-बड़े कठिन से कटिन शास्त्रों का अनुवाद, ऐसा करने से दो चार दिन बाद उन्हे रोग मे कुछ उपसर्जन तथा संशोधन कर डाला और समाज को दिखा शमता मालूम दी। एगजिमा की हालत तो कुछ ठीक हो दिया कि कार्य किस प्रकार होता और हर एक खंडन मंडन गई, ज्वर भी शान्त हो गया; परन्तु खुजली व सूजन चलती के उत्तर के लिए सदैव तत्पर रहते थे उन्हें पूर्ण विश्वास रही, जो पैरो पर अधिक थी। इस कारण चलने फिरने मे • रहता था; क्योंकि उनके लेख अकाटप और प्रामाणिक वे कठिनाई अनुभव करते थे; फिर भी शौच यादि को होते थे। स्वामी समन्तभद्र के सच्चे अगाढ परमभक्त थे तो चलकर ही जाते थे, कभी गिर भी पड़ते थे परन्तु उठ उनके जितने भी कठिन से कठिन ग्रन्थ जिनका आजकल कर फिर चलने लगते थे, सहारा देकर चलने के लिए को साधारण योग्यता रखने वालों के लिए समझना मुझे मना कर देते थे कि मैं तो चला जाऊँगा मरने के मुश्किल था उनका बड़ी सरलता के साथ हिन्दी अनुवाद पाठ दिन पूर्व उन्होंने एक अजीव स्वप्न देखा जो रात्रि करके समाज के हित मे वितरण करते थे और उनकी के अन्तिम पहर में देखा और मुझसे कहा कि आज मुझे सभी पुस्तकें व लेख लोकप्रिय होते थे। कभी किसी से प्रात्म-दर्शन हो गया है मैने कहा कि बहुत अच्छी बात है यदि मनमुटाव हो भी जाता था तो मन में कभी नहीं कि आपको प्रात्म-दर्शन हो गया है और आपके इतने दिनो Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "युगवीर" के जीवन का भव्य अन्त २४५ की तपस्या का फल प्रापको मिल गया। स्वप्न इस मालिश करने लगे जिससे उनकी पीड़ा कुछ कम हुई और प्रकार है : अगले दिन उनका Xray कराया जिसमें हड्डी ठीक थी "रात्रि को ३ बजे के करीब मुझे स्वप्न में पुरुषाकार कही से भी चटकी या टूटी नहीं थी दो-तीन दिन में पीड़ा दिव्य ज्योति का दर्शन हुआ। ज्योतिर्मय पुरुप के नाक व सूजन कम हो गई और टांग के उठाने रखने में आसानी कान मुखादि सब अंग पुष्ट थे। ज्योति के सिवाय कही हो गई परन्तु चल नही पाते थे इसलिए टट्टी पेशाब के किसी दूसरी वस्तु का दर्शन नहीं होता था, ऐसा मालूम लिए कमोड और पोट का प्रबन्ध कर दिया जिससे वह पड़ता था कि एक ही अखण्ड ज्योति पुरुषाकार रूप परि- उसी में टट्टी पेशाब को जाते थे। फिर मुझे इधर ज्वर णित हो रही है। यह ज्योति सरसावा स्थित उस चौबार पाने लगा। पत्र व स्त्री को भी फ्लू हो गया, जिससे कि के दक्षिणी द्वार के मध्य में खड़ी हो गई जिसमे मेरा, सब घर परेशान हो गया; परन्तु उनकी परिचर्या में किसी मेरे भाइयों का तथा पिता और पितामह का जन्म हुआ बात की कमी न आने दी, और इस हालत में भी उनकी है। कोई क्रिया मेरे से ऐसी बनी, जिससे एकदम ज्योति का सेवा तत्परता के साथ करते रहे। रात को मेरा ज्वर कुछ उद्गम हुआ और हृदय मे कुछ-क्षण बाद यह खयाल भी कम हो जाता तो दो चार घन्टे उनके पास बैठकर बातउत्पन्न हुया कि इस प्रकार की क्रिया करके तो मै नित्य चीमा करके या जाता था। ही प्रात्म-ज्योति का दर्शन कर सकूगा। परन्तु वह क्रिया तास म्बर १६६ को याद जगमन्दिर क्या की गई इस बात का कोई स्मरण नही रहा । एसा दास भत्ता वाले दिन के २ बजे उनसे मिलने आये दिव्य ज्योति का दर्शन मुझे जीवन भर में पहले कभी । और बात-चीत करके रहे। मुख्तार सा० ने उनसे कहा नही हया । इस दिव्य ज्योति के दर्शन से मुझे कि मामेरी "यगवीर निबन्धावली द्वितीय खड की कुछ बड़ा मानन्द प्राप्त हुया और यह इच्छा बनी रही प्रतिया मुझसे खरीदकर अपनी ओर से वितरण कर दे। कि उसके दर्शन होते रहे । मै इसको प्रात्मदर्शन समझता इधर मे उस निम्ति भी विक्री के लिए कर रहा हूँ हूँ॥" मैने तो इस स्वप्न का अर्थ यह लगाया कि वेदना सो इ E करके यह सब पुस्तकें मेरी निकल जावेगी । के कारण प्रात्मा के प्रदेश अपनी नई योनि जिसमे उसे और सस्था के रुपयो का खचं निकल पावेगा, जो इसके जन्म लेना है ढूढ़ने में लगा हुपा है इसी कारण यह स्वप्न छपाने में खर्च हो गया है। उन्होने उन्हे आश्वासन दिया के रूप में दिखाई पड़ा, ऐसा मेरा विश्वास है मै नही कह कि मैं अवश्य ही कुछ प्रतियाँ खरीद लूगा, आप चिन्ता न सकता कि मेरी धारणा गलत है या उनका विचार टीक करें। मैं दान्टर सा० व पं० दरबारीलाल जी से इस है। मरण से चार रोज पहले रात के दस बजे शायद विषय में बात कर विषय में बात कर लूगा। अपने स्वास्थ्य की ओर इस शौच के लिए लाठी लेकर चल पड़े तो कमरे से दो कदम वक्त प्राषि ध्यान रखे, अभी आपकी हम लोगों को बाहर चलकर न मालूम कसे गिर पड़े और कराहने का जरूरत है और आप से बहुत कार्य लेना है। उस वक्त शब्द मेरे कानों में पड़ा, मैं भागकर पाया और पूछा कि तक कोई ऐसी खास बात नहीं मालूम होती थी कि कल कहाँ जा रहे थे। तो बोले-"अपने घर जा रहा हूँ" मैने ये इस संसार को छोड़कर प्रयाण कर जायेगे । २१ ता० कहा घर तो यही है। फिर भी यही कहा-"देखो कि की शाम को उन्होंने औषधि, दूध तथा बादाम की चटनी मैं अपने घर जा रहा हूँ। लेकिन मैं गिर पड़ा मुझे टाँग फलो का रस इत्यादि लेने से बिलकुल मना कर दिया । में चोट लग गई है। मैने टांग का निरीक्षण किया मुझे सिर्फ थोड़ा सा पानी पिया और कुल्ला करके कहा कि टूटी तो नहीं मालूम पड़ी, परन्तु उन्हे दर्द को वेदना बहुत हटायो बस अब खा चुका। मैने भी बहुत आग्रह किया थी और टाँग को हिलाने डुलाने में तकलीफ महसूस करते परन्तु मेरा कहना भी नहीं माना । २१ दिसम्बर की शाम थे । खैर किसी तरह से मैने व मेरे पुत्र महेश ने उन्हें को जब मैं उनके पास जाकर बैठ गया तो उन्होंने मुझे पलंग पर ले जाकर लिटा दिया और टाँग की सिकाई व · गद्गद् कंठ से कहा कि तुम्हारा ज्वर उतर गया, मुझे Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ अनेकान्त प्रसन्नता है, बैठो तुमने मेरी बहुत सेवा की और ऐसी हूँ और उन्होंने मेरी काफी सहायता की है। समाज भी सेवा की कि अपने सगे पेट का भी इतनी सेवा न करता मेरी साहित्य सेवाओं का लोहा मानती है। मुझे किसी मैं तुम सबसे बहुत प्रसन्न हूँ, और तुम्हारी सेवा फले। अभिनन्दन या प्रशंसा की आवश्यकता नहीं, मै तो ससार फिर बोले कि देखो अब मुझे अपना अन्त समीप मालूम के कोने कोने में भगवान महावीर की वाणी व सन्देश होता है क्योंकि मेरे शरीर में अब किसी प्रकार का कोई पहुँचाना चाहता हूँ जिससे सब जैन धर्मानुलम्बी बनें और कष्ट व पीडा व रोग नही है। देखो सूजन भी अपने आप अपने धर्म का खूब प्रचार व प्रभावना हो। मैंने बड़े बड़े बहुत कम हो गई है सो मैं अब यह चाहता हूँ कि मेरा विद्वानों और धर्म के ठेकेदारो से टक्कर ली; परन्तु अन्त अन्त समय समाधि पूर्वक बीते । तुम मेरे पास बैठ जाओ में मेरी विजय हुई कारण कि जो कुछ भी मैं कहता या और मुझे सावधान रखते रहना, चेहरे पर उनके मुझे बड़ा लिखता वह सब प्रागमानुसार प्रामाणिक और अकाट्य तेज प्रतीत हुआ। उनका एक-एक शब्द अभी तक मेरे होता था, यही एक दृष्टि है जिसे मैंने अपने सारे जीवन मे हृदय पटल पर अकित है। उन्होंने कहा देखो मैने तुमको अपनाया और सफलता प्राप्त की। निःस्वार्थ भाव से समाज के प्रागे लाकर खड़ा कर दिया है और तुम अपने समाज की, अपने धर्म की सेवा की उसका फल मुझे जैसा ज्ञान की वृद्धि करते रहना । और सबसे बड़ी और मर्म मिला सो तुम देख ही रहे हो। जिस समय वे सब यह को बात यह है कि किसी के आगे कभी भी अपने स्वाभि- कहते जाते थे मेरे नेत्र सजल थे और में उन्हे सान्त्वना मान को न गिराना। मुझे देखो मैने सब सकटो को झेलते देता रहता कि आपके कहे अनुसार ही चलूगा, यह आप हुए अपनी सस्था को अकेले चलाया और इतना ऊँचा पूर्ण विश्वास रखे। फिर मैंने उनसे कहा कि अब आप पहुंचा दिया कि सब इसका लोहा मानते है । और अब इस चर्चा को छोडे और अपना मोह इधर से हटाकर भी इस रुग्न अवस्था में ग्रन्थो का लिखना फिर भी उनका अपने परिणामो की शान्ति की और लगाइये तो कहने प्रकाशन का कार्य करता रहा हूं। इसी प्रकार तुम भी लगे कि विलकुल रोक है मेरे परिणामो में अब बिलकुल निर्भय होकर इस सस्था का भार अपने ऊपर लेकर आकुलता नहीं है और अब तो बस शान्तिसे समाधिपूर्वक इसको चलाते रहना । साहित्य का काम डा० दरबारीलाल मेरा यह शेष जीवन जो अब बहुत कम है व्यतीत हो । जी करेंगे और बाकी तुम्हारी सब देख-भाल रहेगी। ट्रम्ट मेरे मन मे जो मोह की शल्य थी वह मैने तुम पर अच्छी की व्यवस्था मैंने कर दी है। उसी व्यवस्था के अनुसार तरह प्रकट कर दी। सबसे पहले उन्होंने हृदय से उन सब कार्य करना और सदा इस बात का ध्यान रखना कि लोगो से क्षमा मागी जो उनके प्रति कुछ कटु विचार संस्था को चाहे लोगबाग कितना ही तोडने मरोडने की रखते थे। और उसी क्षण उन्होने अपनी ओर से भी सब कोशिश करे कभी भी इसको गिरने न देना बल्कि नित्य- को क्षमा कर दिया । यहाँ तक कि स्व. बा. जयभगवान प्रति इसको ऊंचा उठाने का प्रयास करते रहना, यह जी व बा० छोटेलाल जी सभी से क्षमा मांग ली और तुम्हारे ऊपर उत्तरदायित्व है। इसी से मेरी आत्मा को किसी से भी कोई शिकवा या गिला न रहा। मेरे परिणाम शान्ति मिलेगी। सस्था को चलाने के लिये मैंने काफी अब निर्मल तथा शुद्ध है। अब मेरे अन्तरग मे कोई उचित प्रबन्ध कर दिया है, उतने ही में यह सस्था अच्छे कषाय नहीं है और किसी प्रकार का शरीर तथा पैसे प्रकार से चलती रहेगी। और फिर अपनी समाज में का मोह नही है मैने सब त्याग कर दिया । अब भगवान साहू शान्तिप्रसाद जी जैसे बहुत से उदार दानी विद्यमान से यही प्रार्थना है कि मेरे परिणामों में विशुद्धता बनी है उनकी भी सहायता से तुम कार्य कर सकते हो, वे तुम्हे रहे । मैं जरा भी अपने समताभाव से विचलित न होने कभी किसी बात से मना नहीं करेंगे। क्योकि वे मुझसे पाऊँ और हर समय अरहंत, सिद्ध ही सारी रात मुंह से बहुत प्रभावित है। मुझे वे सन्मान की दृष्टि से देखते है धीरे-धीरे उच्चारण करते रहे जब भी विचलित होते और मै भी उनको आदर और प्रेम की दृष्टि से देखता थे तो मैं उन्हे सावधान कर देता था और धार्मिक ६चों Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "युगवीर" के जीवन का भव्य अन्त २४७ मुना कर उनको फिर परमात्मा की आराधना ही मे पापों की आलोचना करूँगा। जिससे मुझे अधिक सान्त्वना स्थित कर देता था। कोरी रात भगवान महावीर स्वामी मिले। मै उठकर चला पाया और थोडा लेट गया फिर की सामने टंगी हुई मूर्ति की ओर टकटकी लगा ध्यान महेश तथा घर से बगबर पांच दस मिनट बाद चक्कर पूर्वक दर्शन करते रहे, जरा देर को भी नीद नही आई। लगाते रहे। उस रोज बराबर तीन घन्टे तक मामायिक स्वामी समन्तभद्र-स्तोत्र जो उनकी खुद ही की कृति है की। जब मामायिक से ध्यान हटा तो कहने लगे कि आज उन्हीं की प्राग्रह से उसे में सुनाता रहा। मामायिक मे बहुत मन लगा और बडी शान्ति मिली अब फिर जब कभी बीच में मेरे द्वारा सकनित उर्दू के मेरा चित्त हलका है और मुझे कोई कप्ट नही है। फिर बोले कि कमोड लगा दो तो टट्टी पेशाब से निवृत्त हो ल , अध्यात्मिक शेर भी सुनते रहे। उनमें से कुछ इस प्रकार टट्टी पेशाब ठीक किया और कहा कि अब धुला दो मैने खब धो दिया और उनकी धोती भी जो गीली हो गई हमें खुदा के सिवा कुछ नज़र नहीं पाता। थी बदल दी । अब थोडा सा आपको ऊपर को खसका दू निकल गये हैं बहुत दूर जुस्तजू से हम ॥ तो तकिये के सहारे मिर मा जायगा। मैने व महेश ने चला जाता हूँ हंसता खेलता मौजे हवादस से । जैसे ही सहारा देकर ऊपर खमकाया उसी समय उनके अगर प्रासनियां हो जिन्दगी दुश्वार हो जाये ।। सुबह के ७ बजकर १३ मिनट पर प्राण पखेरू उड गये अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम पायेगा। उनमे कुछ भी न रहा । चेतना निकल गई और जड तो मरने से दर गुजरा मेरे किस काम पायेगा । शरीर पडा रहा। हम सब कुटुम्बीजन विलम्व विलख कर जहाँ तक बसर कर जिन्दगी पाला ख्यालों में। रोने लगे। मरते समय या रात्रि मे कोई भी अगलक बना देता है कामिल बैठना साहब कमालों में ।। मूचक नही हुए और हम स्वप्न में भी यह नहीं सोचते थे जिनके दिल में है दर्द दुनिया का। कि ये आज हमसे सदा के लिए बिछड़ जायेगे । ऐसे पुन्य वही दुनिया में जिन्दा रहते हैं। मात्मा का चोला एकदम छुट गया जैसे कोई बात चीत खुदाबन्दा मेरो गुमराहियों से दरगुजर फरमा। करता मनुष्य अाँखे मीच कर गहरी नीद मे सो जाता है। मै उस मोहाल में रहता हूँ जिसका नाम दुनिया है। यह सब उनकी धर्मज्ञ भावना का ही असर था जो उन्हे वहदते खास इश्क में रयत का जिक्र क्या। अन्त समय में कोई पीडा का अनुभव नही हुआ और अपने ही जलवे देखिये अपनी ही बज्में नाज़ में । उनका मरण समाधिपूर्वक ही हया। अब और अधिक गलों ने खारो के छेड़ने पर सिवा खामोशी के दम न मारा। मैं क्या लिखू, अब वे हममें नहीं रहे; परन्तु उनकी में क्या लिख. अब वे हममें नहीं र शरीफ उल में अगर किसी से तो फिर शराफत कहाँ रहेगी। स्मृति तथा आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहेगा। उनका जिन्दगी ऐसी बना जिन्दा रहे दिलशाद तू। नाम जैन जनेतर समाज में सदा अमर रहेगा । कि "युगजब न हो दुनिया में तो दुनिया को प्राये याद तू॥ वीर" जैसा भी कोई साहित्य तपस्वी हो गया है जिसने वीदारे शशजहत है कोई दीवावर तो हो। अपना सारा जीवन जिनवाणी प्रभावना और सरस्वती जल्वा कहां नहीं है कोई प्रहले नजर तो हो । आराधना मे लगाये रखा। उनके फूल उनकी इच्छा के इतना बुलन्द कर नज़रे जल्वा ख्वाह को। अनुकूल सरासावा पाश्रम में भिजवा दिये गये है। जल्वे खुद पाएँ दृढ़ने तेरी निगाह को ।। डा० श्रीचन्द जी ने मुख्तार साहब के अन्तिम समय सुबह के चार बजे कहने लगे कि अब तुम आराम के सम्बन्ध में जो कुछ लिखकर भेजा है, उसको उनकी करो मै भी लेटे-लेटे सामायिक करता रहूँगा और अपने इच्छानुसार ज्यो का त्यो दे दिया है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य जगत के कीर्तिमान नक्षत्र तुम्हें शतशः प्रणाम ! अनूपचन्द न्यायतार्थ प्रो महामना मानव पुनीत ! प्रो गुण गौरव गरिमा विधान ! ___ो देवि सरस्वति वरद पुत्र ! " निःस्वार्थ मूक सेवक महान !! चारित्र निष्ठ वृढ़ श्रद्धानो! माध्यत्मिक श्रेष्ठ विचारवान ! निर्भीक समालोचक सच्चे प्रो ठोस कार्यकर्ता महान ! प्रो परम सुधारक राष्ट्रीय ! प्रो सामाजिक गौरव अपार ! प्रो परिश्रमी कर्मठ नेता ! प्रो उच्चकोटि साहित्यकार ! सिद्धांत शिरोमणि! विद्वदवर! प्रो अधिकारी विद्वान् एक प्रो सफल समीक्षक, कवि, लेखक ! प्रो पत्रकार जागृत - विवेक ! प्रो भारतीय संस्कृति पोषक ! विद्वान् विचारक नीतिवान ! स्वाभाविक सहज विकास युक्त अति सौम्य सरलता मूर्तिमान !! नूतन प्राचीन विचारों का था सम्मिश्रण तुम में अपार । क्या वृद्ध तरुण, क्या बाल प्रौढ थे सभी उपकृत हर प्रकार ।। प्रो पुरातत्त्व प्रेमी! शोधक ! इतिहासकार, साहित्यकार ! __ रचयिता भावना-मेरी' के ___ 'युगवीर' 'जुगत मुख्तारकार' ! तुमने समग्र निज जीवन को साहित्य और सेवा-समाजहित. खपा दिया प्राचार्य श्रेष्ठ ! संदेह न इसमें लेश माज । तुमने जन-मानस बदल दिया असमय में निधन तुम्हारे से नकली ग्रन्थों की पोल खोल हो गया अचानक वज्रपात । तथ्यों को खोज निकाला है जीवन - निर्माता, पथ दर्शक इतिहास कसौटी तोल तोल॥ खो गया हाथ से अकस्मात् ॥ इतिहास बदल डाला तुमने विद्वज्जन बोधक सुगण-धाम साहित्य-जगत के कोतिमान नक्षत्र तुम्हें शतशः प्रणाम ।। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे थे हमारे बाबू जी विजयकुमार चौधरी एम. ए. साहित्याचार्य वीर वाङमय की शोध और खोज में अपने सुदीर्घ जिन्होंने अचानक ही मुझे इस महान पुरुष के दर्शन पाने जीवन को प्रतिपल तन्मय रखने वाले भारती-पुत्र बाबू में सहायता की । रुग्णावस्था मे मै छाणी (उदयपुर) अपने जुगलकिशोर मुख्तार सा० को अब जब हम 'स्वर्गीय' सेवा स्थान पर जा रहा था दिल्ली स्टेशन पर एक यात्री शब्द से अंकित पाते है, तब ऐसे लगता है मानों कराल धोखा देकर मेरा सामान चुरा ले गया तीन दिन तक मैं काल ने वीर-भक्तों पर कहर ढा दिया हो। यद्यपि बात कि कर्तव्य विमूढ दिल्ली जकशन पर ही पड़ा रहा चौथे ऐसी नहीं है, हम सबके सौभाग्य से उसने काफी सुनी दिन उपाय सोचा श्रीमान पंडित दरबारीलाल जी 'कोठिया और मनुष्य के मरण धर्मा स्वभाव होते हुए भी 'जीवेमः न्यायाचार्य से मिलना चाहिए। श्री कोठिया जी कितने शरदः शतम्' की भावना को अनुकूल उसने पूज्य मुख्तार दयालु है यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं है जो उनके सा० के दर्शन हमें शताब्दी के अन्तिम दशक तक कराये सम्पर्क में आता है वही बता सकता है। श्री पंडित जी की पर ऐसे सरस्वती पुत्रों की प्रायु तो 'ब्रह्म वर्षो' के अनुसार कृपा से दिल्ली में तीसरे दिन मैं इस महान पुरुष के सामने गिनी जानी चाहिए। अगर आगे आने वाली पीढिया बेटा था। गौरवर्ण दुहरी देह का वृद्धावस्था से झुरियों पळेगी कि प्राचार्य जूगलकिशोर कौन थे तो इसका उत्तर पटा कान्तिमय चेदा जिसके केवल यही दिया जा सकेगा कि जिनवाणी की सेवा में सफेद चादर, गेरुए वस्त्र का एक कुर्ता, शायद वरत काज अपने जीवन को तिल-तिल जलाकर नि:शेप बनाने वाला से बंधी हई जेब में पडी घड़ी। जिसके सामने डेस्क पर एक महान तपस्वी था जिसके हृदय मे करुणा की अजस्र लिखते थे कागज पर नीनों योर ले हे धारा बहती थी। जिसके पढने और मनन करने से जीवन जिनमें तन्मयता से प्राखे गडी हुई है। यह है हमारे पूज्य का आत्म परिकार होता है, भावनाएँ मानवीयता से बाबू जी का कुछ परिचय। और मै उसी दिन वीर सेवा प्रोत-प्रोत हो जाती है ऐसी मेरी भावना का एक भी 'पद' मन्दिर का एक कनिष्ठ सैनिक बन गया। पडित कोठिया जब तक लोगों की जबान पर रहेगा तब तक स्वर्गीय जी ने मेरी स्थिति बतायी नही कि उसके पहले ही 'बाबू मुख्तार सा० की कीर्ति-चन्द्रिका इस समाज की धरती पर जी' का हृदय पिघल पड़ा ऐसा प्रेम था विद्वानों से छिटकती रहेगी वह क्षण कितना पवित्र होगा जिस क्षण उन्हे । में 'बाब जी' ने मेरी-भावना का 'उद्गार' किया होगा। दूसरे दिन रात्रि के ढाई-तीन बजे होंगे कि बाबू जी बौद्ध साहित्य में उसके अग रूप मे एक 'उदार' साहित्य के कमरे में से प्रार्थना की ध्वनि पाने लगी-'मुझे है जिसमे महात्मा बुद्ध के मंगल क्षणों के हपमय उद्गार स्वामी उस बल की दरकार'। यह पद शायद बाबू जी के संकलित है। यह उनके हृदय हिमालय से निकली हुई मित्र स्वगीय नाथराम जी प्रेमी का बनाया हुप्रा था। ऐसी गंगा की धारा है जिसमें नहाकर हम सब अपने जीवन इसमें आपत्तियों के पहाड़ से टकरा कर भी अपने नैतिक कलंको को सदा काल धोने में समर्थ हो जाते है। जीवन को आगे बढ़ने की कामना है । मुख्तार सा० अपने ___ वह मेरे जीवन के सौभाग्य क्षण थे जब वीर सेवा ध्येय के प्रति कितने अडिग थे ऐसी ही प्रार्थनामों का यह मन्दिर में सेवा के बहाने इस 'साहित्य-तपस्वी' के नजदीकी फल है। से दर्शन करने का अवसर मिला करता था। सन् उन्नीस एक दिन वह था जब श्री कोठिया जी में और धी सो उनचास के दिसम्बर महीने की अन्तिम तारीखे थी बा जी में किसी सिद्धान्त पर से सम्मवतः वह प्राप्त Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अनेकान्त परीक्षा के समर्पण पर से था कुछ वाद-विवाद हो गया सा० केवल साहित्यकार का हृदय नहीं, कवि का भावुक और श्री कोठिया जी ने त्याग-पत्र दे दिया उस दिन मुझे हृदय नहीं, शोधक प्राचार्यत्व का हृदय लिए रहते थे । ख्याल है श्री बा जी की आँखे छलछलाती हुई थीं। स्वर्गीय बा. जी एक महान् भाष्यकार थे । ग्रन्थ की कितना गहरा वह प्रेम था! श्रीमान् पं० परमानन्द जी जटिलता को खोलकर पाटकों में सरसता के साथ विषय शास्त्री तो प्राज भी वीर सेवा मन्दिर में हैं, उन्हें जिस का हृदयंगम कराना भाष्यकार का उद्देश्य होता हैं यही निष्ठा से 'बा. जी' की सेवा में रत पाते थे हम लोगों के लिए वह अनुकरणीय था। बात हमारे स्वर्गीय बाबू जी में थी। वे ग्रन्थ की व्याख्या उसके प्रत्येक शब्द के साधारण और विशेष अर्थ के साथ जैन इतिहास विशेषकर जैन ग्रन्थकार प्राचार्यों के निर्देशक-चिन्हों के द्वारा स्पष्ट करते थे। हिन्दी के कारक विषय मे अपने गहरे अध्ययन और चिन्तन से स्वर्गीय चिन्हों के विषय में बा. जी संस्कृत व्याकरणानुसार समस्त मुख्तार सा० ने जो शोध और खोज पूर्ण तथ्य निश्चित शैली को ही ठीक मानते थे वे शब्द के साथ ही कारक किये है वे इतने प्रामाणिक और निर्विवाद हैं कि बिना बोधक को जोड़ते थे। पर सर्ग मानकर उसको अलग से किसी ननु न च सबने स्वीकार किये है । 'जिन खोजा तिन नहीं लिखते थे। प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत शैली से वे पाइयां गहरे पानी पैठ ।' स्वर्गीय मुख्तार सा० इस कहा. अधिक प्रभावित थे । स्वर्गीय बा० जी के पास जिनको वत को पूर्णतः चरितार्थ करते थे। भी कुछ दिनों बैठकर कुछ लिखने का अवसर मिला है वे स्वर्गीय बाबू जी के पास जो भी रहा है वह बा० अच्छी तरह जानते है कि बा० जी साहित्यकार की अपेक्षा जी की व्यवस्था से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । आचार्य अधिक थे। हिसाब-किताब के सम्बन्ध मे पूज्य बा. जी बड़े व्यवहारी थे अगर किसी के पास दो पैसे भी बाकी है तो चार माह __ वीर-वाणी और उनके महान व्याख्याता महान् प्राचार्य बाद भी मांगने में सकोच नहीं करते थे और किसी का वर्य पुन्य नाम स्वामी समन्तभद्राचार्य के प्रति बा. जी एक पैसा भी देना बाकी हैं तो उसे भी वे चार माह माह की इतनी प्रगाढ़ श्रद्धा थी कि उनका नाम स्मरण होते बाद अपने पाप बुलाकर दे देते थे एक बार मेरे हिसाब ही वे विभोर हो जाते । मानो समन्तभद्र स्वामी के प्रादेश के दो पैसे बा. जी ने ठीक चार माह बाद ऐसे ही को लेकर उनके अधुरे कार्य को पूरा करने के लिए ही दिये थे। घरा-घाम पर अवतीर्ण हुए हो । उनके जीवनका ध्येय मानो ___खोज-शोध की गुत्थियों एवं दार्शनिक गहराइयों मे वीर वाङ्मय की सेवा के अतिरिक्त और कुछ नही है । डूबे हुए भी बा० जी को हम लोगों ने जोर के ठहाके उसके प्रकार और प्रसार में उन्हें अपरिसीम आनन्द मिलता लगाते हुए हास्य रस मे विभोर देखा है। उनमे दर्शन था महासन्त तुलसीदास जीने रामचरित मानस लिखने शास्त्र की गम्भीर चिन्तन-शीलता, साहित्यकारों की " का जो उद्देश्य-स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा सहज भाव-प्रवणता, मुक्त विनोद प्रियता एक साथ थी। लिखा है। हमारे पूज्य बा० जी ने भी स्वान्तः सुखाय 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि' ऐसे थे हमारे ही वीर वाङ्मय की सेवा में अपने जीवन-स्नेह को तिलस्वर्गीय बा. जी । अपने सिद्धान्त पर वे इतने अडिग और तिल जलाया है। यही कारण है कि महावीर की वाणी और अचल रहते थे कि ऐसा मालूम पड़ने लगता था कि के महान् उद्धारक समन्तभद्र स्वामी के प्रति उनकी तन्मबा० जी मे भावुकता बिल्कुल नही है। अपने प्रगाढ़ यता पूर्ण अनन्य श्रद्धा थी। यद्यपि शास्त्रीय प्राधार से ऐसा स्नेही स्वर्गीय बा० छोटेलाल जी कलकत्ता वालों के साथ कहने में विवशता है कि हमारे पूज्य बा० जी समन्तभद्र भी वे वैसी ही दृढ़ता वर्तते पर उस दृढता मे भी अन्तः स्वामी के ही अवतार थे, कारण समन्तभद्र स्वामी तो जयस्विनी की भांति मृदुल भावुकता का स्रोत बा० जी स्वर्ग में लम्बी आयु लेकर स्वर्ग सुखों का अनुभव कर रहे के हृदय तक में बहा करता। वास्तव में स्वर्गीय मुख्तार हैं पर उनका सन्देश बा० जी ने अवश्य सुना था। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीचीन धर्मशास्त्र २५१ प्राचार्यत्व बिद की व्यापको हमारे स्वर्गीय बा. जी बहुमुखी विलक्षण प्रतिभा के कारों में उस महान् प्राचार्य परम्परा की कड़ी थे यद्यपि धनी थे। उनमें दार्शनिक चिन्तनशीलता, कवि की भावु. वे गृहस्थ थे पर उनकी गृहस्थी जिनवाणी की सेवा के ही कता, प्राचार्यत्व की गरिमा और गम्भीरता, समीक्षक की गहरे मोह से व्याप्त थी। भेदक दृष्टि, पुरातत्व विद् की व्यापक पारदर्शिता, सम्पा- यद्यपि माज वह महामानव सांसारिक सत्य को साथ दक की काट-छांट सब कुछ थी। और थी इन सबके ऊपर कर अपनी देह के पार्थिव परमाणुषों को विखरा चुका है। विराट् मानवता पौर परोपकारार्थ अपने को तिल-तिल पर उसकी साहित्य सेवा और महान् प्रात्मीय सन्देश हमारे जलाने की महान उदारता । उन्होंने अपने महान् व्यक्तित्व लिये प्रेरणादायक हैं। यहाँ मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित को एक संस्था में परिवर्तित कर दिया था। वे जैन ग्रन्थ- करता हूँ। इन सब समीचीन धर्मशास्त्र चम्पालाल सिंघई, 'पुरन्दर', एम. ए. शोध स्नातक स्वतन्त्र भारत ने सारनाथ स्थित अशोक स्तम्भ के मुख्तार सा० ने समीचीन धर्मशास्त्र की प्रस्तावना में श्री शीर्षस्थ सिंहों को राज्य चिन्ह के रूप में अपनाकर सम्राट् समन्तभद्र की दो अन्य गर्वोक्तियाँ भी अंकित की है जिनका अशोक द्वारा धर्मविजय को युद्धविजय से श्रेष्ठ प्रदर्शित अधिक प्रचार नहीं हो सका हैकरने वाली नीति का महत्व प्रतिपादित किया है। इस "कांच्या नग्नाटकोऽहं, मलमलिनतनुलविशे पांडुपिंडः, देश में दिग्विजयी सम्राटो के स्वर्ण-मुकुट धर्मविजयी सतो पुण्ड्रोड्रे शाकभक्षी, दशपुरनगरे मिष्टभोजीपरिवाट । के चरणों मे झुकते रहे है लगभग दो सहस्र वर्ष पूर्व ऐसी वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः, पांडुरागस्तपस्वी, धर्मविजय फणिमण्डलातर्गत उरगपुर (पांड्य प्रदेश की राजन् यस्याऽस्तिशक्तिः, स वदति पुरतो जैननिग्रंथवादी।" राजधानी) के सन्यस्त राजपुत्र ने की थी। करहाटक की काची के इस नग्नाटक (दिगम्बर साधु) को प्राप्तराजसभा मे उसने निम्नाकित श्लोक के रूप में प्रात्मपरि मीमांसा की ताड़पत्रीय प्रति में राजकुमार प्रकट किया चयादि दिया था जो श्रवण बेल्गोल के शिलालेख मे गयाउत्कीर्ण है। (शिला लेख क्र० ५४)। 'इतिश्री फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिप सूनोः "पूर्व पाटलिपुत्रमध्य नगरे भेरी मया ताडिता, श्री स्वामी समन्तभद्र मुनेः कृतो प्राप्तमीमांसायाम् ।' पश्चान्मालव-सिंधु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैविशे । उन्हें धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र और साहित्यशास्त्र के प्राप्तोऽपि हं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं सकट, साथ ज्योतिषशास्त्र, प्रायुर्वेद, मन्त्र, तन्त्रादि विषयों में बावार्थो विचराम्यह नरपते शार्दूलविक्रीडितं ॥" भी निपुणता प्राप्त थी, जैसा कि निम्नाकित प्रात्म-परिचय इस गर्वोक्ति से प्रकट होता है कि न केवल दक्षिण से प्रकट है :भारत की कांची नगरी के वार्थियो को स्वामी समन्त- प्राचार्योह, कविरहमहं, वादिराट्, पंडितोहं, भद्र ने पराजित किया था, अपितु उत्तर भारत स्थित दैवज्ञोह, भिषगहमहं, मान्त्रिकस्तांत्रिकोहं । पाटलिपुत्र (पटना), मालवा, सिन्धु, ठक्क (पजाब का एक राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायाम, भाग), विदिशा (माजकल मध्यप्रदेश में है) आदि में भी प्राजासिद्धः किमिति बहुना सिद्ध सारस्वतोहम् ॥" विजयपताका फहराई थी। उक्त श्लोक तो विख्यात है, उक्त पद्य में प्राचार्य प्रवर के १० विशेषणों का Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अनेकान्त उल्लेख हुआ है : ज्ञानपीठ ने यह ग्रन्थ प्रकाशित किया होता तो मूल्य ७ रु० (१) प्राचार्य, (२) कवि, (३) वादिराट्, (४) से कम न होता । पंडित, (५) दैवज्ञ (ज्योतिषी), (६) भिषक्, (७) स्व. मुख्तार सा० ने ग्रन्थ का बहुप्रचलित नाम रत्नयांत्रिक, (८) तांत्रिक, (8) आज्ञासिद्ध, (१०) सिद्ध करंड श्रावकाचार न रखकर 'समाचीन धर्मशास्त्र' रखा सारस्वत । है । ग्रन्थकर्ता श्री समन्तभद्र ने ग्रन्थारम्भ मे संकल्प किया स्वामी समन्तभद्र की तुलना में निर्भीक एवं प्रभावक अन्य प्राचार्य नही ठहरते। इसी से स्वर्गीय पडित जुगल देशयामि 'समीचीनं धर्म कर्म निवर्हणं । किशोर उन पर मुग्ध थे। ससार दुःखतः सत्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे ॥२॥ उन्होंने २१ अप्रेल १६२६ को दिल्ली में समन्तभद्रा मुख्तार सा० ने रत्नकरण्ड नाम ग्रन्थात के निम्न लिखित श्लोक से फलित किया है :श्रम की स्थापना की थी। आगे चलकर यही वीर सेवा मन्दिर कहलाया। उन्होंने प्राचार्यश्री के अनेक ग्रन्थों पर येन स्वयं वीत-कलंक-विद्या-दृष्टि-क्रिया-'रत्नकरड'-भावं । भाष्य लिखे और उन्हें सटीक प्रकाशित कराया। उनकी नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषविष्टपेषु ॥ १४६ अन्तिम इच्छा एक मासिक पत्र और निकालने की थी। मासिक पार निकाली ग्रन्थकर्ता ने अन्य ग्रन्थो के भी दो-दो नाम गिनाये जिसका नाम भी 'समन्तभद्र' प्रस्तावित किया गया था। है, जैसे-देवागम का अपरनाम प्राप्तमीमांसा। स्तुतिप्रस्तावित मासिक-पत्र तो अब क्या निकलेगा, वीर सेवा विद्या का अपर नाम जिनस्तुतिशतक या जिनशतक, स्वमन्दिर से अनेकान्त ही निकलता रहे तो बड़ी बात है। यभू स्तोत्र का अपरनाम समन्तभद्र स्तोत्र और यह भी लिखा है कि ये सब प्रायः अपने अपने आदि या अन्त के श्री समन्तभद्र के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक पद्यो की दृष्टि मे रखे गये है। लोकप्रियता उनके उपासकाचार को प्राप्त होने का कारण ग्रन्यकर्ता के अन्यान्य ग्रन्थ कटिन भाषा में है और इस ग्रन्थ की सरल सस्कृत भाषा और अधिकतर अनुष्टुप विषय भी दुरूह है। अतः कुछ विद्वानों को सन्देह हुआ छन्दों में गृहस्थाचार का विशद् विवेचन है। 'गागर मे कि देवागम, युक्यनुशासन जैसे ग्रन्थो के कर्ता उद्भट सागर' भर दिया है। विषयवस्तु और शैली दोनों ही विद्वान प्रसिद्ध आचार्य समन्तभद्र ने यह ग्रन्थ नही लिखा। उत्कृष्ट है। इसके कर्ता कोई दूसरे ही समन्तभद्र होंगे। इस सन्देह का सर्वप्रथम इसकी संस्कृत टीका श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने प्रधान कारण है इस ग्रन्थ में उस तर्कपद्धति का प्रभाव लिखी । कन्नड़, मराठी आदि भाषाओं में अनेक टीकाये जो अन्य ग्रन्थो में प्राप्त है। स्व० मुख्तार सा० ने इसे लिखी गई। हिन्दी में सर्वप्रथम विस्तृत भाष्य पडित सप्रमाण श्री समन्तभद्राचार्य प्रणीत सिद्ध किया है। इसी सदासुख कासलीवाल (जयपुर निवासी) ने लिखा जो सम्बन्ध में डा. हीरालाल जैन ने १६४४ ई० मे एक ढढारी गद्य में है। जयपुर के आसपास का क्षेत्र ढुढार निबन्ध लिखा था-'जैन इतिहास का एक विलुप्त कहलाता है। यह भाष्य वि० सं० १९२० मे लिखा गया। अध्याय ।' इसका विरतृत और सप्रमाण उत्तर मुख्तार मुख्तार सा० ने श्रावकाचार की विस्तृत व्याख्या २०० सा० ने अनेकान्त द्वारा १६४८ मे दिया था, जिसे विस्तार पृष्ठो में की है और ११६ पृष्ठों में तो केवल प्रस्तावना पर्वक इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में दिया है। प्रस्तावना में ही लिखी, जिसे माघ सुदी ५ सं० २०११ वि० को पूर्ण ६ अन्य समन्तभद्रों का उल्लेख करने के पश्चात् यह किया। जीवन के बहुमुल्य १२ वर्ष इसमे लगाये। यह निष्कर्ष निकाला है कि यह ग्रन्थ उन्ही समन्तभद्र स्वामी ग्रन्थ बीर सेवामन्दिर से अप्रेल १६५५ ई० में प्रकाशित की रचना है जिनकी कृतियाँ प्राप्तमीमासादि है। हुया है। कपड़े की पक्की जिल्द है। प्रचार की दृष्टि से वास्तव में प्राचार्य थी ने यह ग्रन्थ लिखकर बालकों मूल्य लागतमात्र केवल तीन रुपये रखा है। यदि भारतीय एवं बालबुद्धि गृहस्थो पर अत्यन्त अनुग्रह किया है । प्रत्येक Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीचीन धर्मशास्त्र २५३ परीक्षालय ने इसे पाठ्यक्रमों में स्थान दिया है, प्रत्येक दृष्टव्य है । यथापाठशाला में इसका पठनपाठन होता है, प्रत्येक जिनमन्दिर श्लोक ऋ० १३ मे 'पाषडि' का प्रचलित अर्थ धूर्त, तथा सुशिक्षित गृहस्थ के गृह में यह प्राप्तव्य है। दंभी या कपटी अमान्य करके पाप का खंडन करने वाला इस ग्रन्थ की अनेक बालबोधटीका हिन्दी में हुई तपस्वी किया है। इसी प्रर्थ में श्री कुदकुदाचार्य प्रणीत है। सोनगढ से भी हिन्दी टीका सहित यह अन्य प्रकाशित समयसार की गाथा ऋ० १०८ तथा अति प्राचीन साहित्य हुआ है। में प्रयुक्त होना बताया है। 'समीचीन धर्मशास्त्र' का प्राक्कथन डा. वासुदेवशरण श्लो० ऋ० २८ मे 'मातंगदेहजम्' का अर्थ चांडाल अग्रवाल एवं (Preface) डा० प्रा० ने० उपाध्ये महोदय का काम करने वाला ही नहीं, चाण्डाल के देह से उत्पन्न से लिखा कर गौरववृद्धि की गई है। समर्पण पत्र श्री अथात् जन्म या जाति से चाण्डाल भी किया है। समन्तभद्र स्वामी के नाम है : श्लोक ऋ० ५८ में 'विलोम' की व्याख्या-अल्प 'स्वदीयं वस्तु भोः स्वामिन् ! तुभ्यमेव समपितम् ।' मूल्य में मिले हुए द्रव्यों को अन्य राज्य मे बहुमूल्य बनाने ग्रन्थ को ७ सात अध्यायों में विभक्त करना मुख्तार का प्रयत्न । इससे अपने राज्य की जनता उन द्रव्यों के सा० की सूझबूझ है। यह विभाजन बड़े अच्छे ढग से उचित उपयोग से वचित रह जाती है। इसलिए यह एक किया गया है। प्रकार का अपहरण है। विलोप में दूसरे प्रकार का अपस्वाप पन्नालाल वानीलामी हरण भी शामिल है जो किसी की सपत्ति को नष्ट करके ग्रन्थ के २१ पद्यो के क्षेपक होने का सन्देह व्यक्त किया : का प्रस्तुत किया जाता है है। था। मराठी भापा के विद्वान प० नाना रामचन्द्र नाग ने श्लोक क्र० ५६ मे परदार निवृत्ति' की व्याख्यातो केवल १०० श्लोक मान्य करके ५० कम कर दिये । जो स्वदार नहीं, वह परदार है। कुछ लोग परदार का मुख्तार सा० को जैन सिद्धान्त भवन, पारा में ताडपत्रीय अथ पर का स्त्री करते हैं। एकमात्र उसी का त्याग करके ऐसी प्रतियाँ भी प्राप्त हुई है जिनमे १९० श्लोक है परन्तु । कन्या तथा वेश्या सेवन की छट रखना सगत प्रतीत नहीं होता। उन्होने सप्रमाण सिद्ध किया कि वास्तव मे १५० श्लोक होना चाहिए। उन्होंने श्री प्रभाचन्द्राचार्य एव ५० सदा इलोक ऋ० ७७ मे हिसादान की व्याख्या-हिसा के सूख कासलीवाल के चरणचिन्हो पर चलकर समीचीन ये उपकरण यदि कोई गृहस्थ इसलिए मांगे देता है कि धर्मशास्त्र में १५० श्लोक ही रखे ।। उसने भी अावश्यकता के समय उनसे वैसे उपकरणो को श्री समन्तभद्राचार्य का विस्तृत परिचय २५ पृष्ठो में मांग कर लिया है और आगे भी उसके लेने की सम्भावना दिया है जिसे मुख्तार सा० ने 'सक्षिप्त परिचय' कहा है। है तो ऐसी हालत में उसका वह देना निरर्थक नही कहा इसका कारण यह है कि उन्होने प्राचार्य प्रवर के सम्बन्ध जा सकता। उसमे भी यह कुछ वाधा नही डालता । जहाँ मे बहुत शोध की थी इसलिए इतना लिखने पर भी लगता इन हिसोपकरणो को देने में कोई प्रयोजन नही है, वही था कि बहुत कम लिखा है। यह व्रत वाधा डालता है। श्री प्रा० ने० उपाध्ये ने भूमिका में लिखा है कि- श्लोक क्र. ८५ मे वे ही कंदमूल त्याज्य है जो प्रासुक 'हिन्दी व्याख्या केवल मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद नहीं है, अथवा अचित्त नही है। प्रासुक कदमूलादि वे कहे जाते है बल्कि जैन न्याय सम्मत विषयों पर कुछ सदृश प्रकरणों जो सुखे होते है, आग्न्यादिक मे पके या खूब तपे होते है, को श्री समन्तभद्र तथा उनके पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के ग्रन्थों खटाई तथा लवण से मिले होते है अथवा यत्रादि से छिन्न से लेकर गुण-दोष-विवेचिका विचारणा को भी प्रस्तुत भिन्न किये होते है-जैसा कि निम्न प्राचीन प्रसिद्ध गाथा करती है।' से प्रकट है :व्याख्या के क्रम में कुछ शब्दों की शोधपूर्ण विवेचना "सुक्कं पक्कं तत्रा, अंविल लवणेण मिस्सिय वव्वं । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अनेकान्त जंजतेण य छिण्णं, तं सव्वं फासुयं भणियं ॥" "भिक्खं भमेइ पत्तो' से होता है (पात्र हाथ में लेकर भिक्षा नवनीत में अपनी उत्पत्ति से अंतर्मुहुर्त के बाद ही के लिए भ्रमण करना ।) ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक सम्मूच्र्छन जीवों का उत्पाद होता है। अतः इस काल- और ऐलक भेद श्री समन्तभद्र स्वामी के समय में नहीं थे। मर्यादा के बाहर का नवनीत ही वहाँ त्याज्य कोटि मे है श्री मुख्तार सा० क्षुल्लक पद को पुराना और ऐलक पद या मुख्तार सा० खुल्लक पद के - इससे पूर्व का नहीं।। को पश्चाद्वर्ती मानते थे जैसा कि उनके गवेषणापूर्ण निबंध 'ऐलक पद-कल्पना' से स्पष्ट है जो अनेकान्त वर्ष १० की श्लोक ८६ में 'अनुपसेव्य' की व्याख्या-स्त्रियों को संयुक्त किरण ११-१२ में प्रकाशित हुआ था। ऐसे अति महीन एवं झीने वस्त्र नहीं पहनना चाहिए जिनसे उनके गुह्य अंग स्पष्ट दिखाई पड़ते हों। इसी इलोक में 'गृहतो मुनिवनमित्त्वा' से सूचित किया श्लोक ऋ० ११६ में द्रव्यपूजा की व्याख्या-वचन है कि मुनिजन तब वनवासी थे, चैत्यवासी नहीं थे। श्री तथा काय को अन्य व्यापारों से हटा कर पूज्य के प्रति पं० नाथूराम प्रेमी ने 'वनवासी पोर चैत्यवासी' शीर्षक प्रणामांजलि तथा स्तुति पाठादि के रूप में एकाग्र करना शोधपूर्ण लेख १९२० ई० मे जनहितैषी में प्रकाशित कर ही द्रव्यपूजा है। जल, चन्दन, अक्षतादि से पूजा न करते इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। हुए भी पूजक माना है। श्री अमितगति प्राचार्य के उपा उक्त दृष्टांतों से प्रकट होता है कि स्व. पं० जुगलसकाचार से भी द्रव्यपूजा के इसी अर्थ का समर्थन होता है। किसान ली और उनकी मौलिक "वचो-विग्रह-संकोचो, द्रव्यपूजा निगद्यते । नाएँ बेजोड़ थी। वाङमयाचार्य की उपाधि से वे विभूषित तत्र मानस सकोचो, भावपूजा पुरातनः ॥" किये गये थे। काश जैन समाज ने कोई विश्वविद्यालय श्लोक ऋ० १४७ मे 'भक्ष्य' की व्याख्या-भक्ष्य का स्थापित किया होता तो निश्चय रूपेण वे डॉक्टरेट की अर्थ भिक्षासमूह है। उत्कृष्ट धावक अनेक घरो से भिक्षा मानद उपाधि से विभूषित किये गये होते। उनके निधन लेकर अन्त के घर या एक स्थान पर बैठकर खाता है। से जो स्थान रिक्त हृया है, उसकी पूर्ति असभव नही तो जिसका समर्थन थी कुदकुदाचार्य के सुत्तपाहुड में पाए हुए दुष्कर अवश्यमेव है । 'एक अपूरणीय क्षति' पन्नालाल साहित्याचार्य विद्वद्वरेण्य प० जुगलकिशोर जी मुख्तार जैन वाड्मय आपने अपनी स्वाजित सम्पत्ति का बहुभाग समर्पित के स्वयं बुद्ध विद्वान् थे। उन्होने अन्तङ्ग की प्रेरणा से कर वीरसेवा मन्दिर की स्थापना की थी तथा उसके जैन शास्त्रों का गहन अध्ययन कर अपने ज्ञान को विक- माध्यम से अनेकान्त पत्र का प्रकाशन कर विद्वानों के लिए सित किया था। धर्म, न्याय, साहित्य इतिहास प्रादि विचारणीय सामग्री प्रस्तुत की है। अब तक पाप समाज सभी विषयों में उनकी अप्रतिहत गति थी। उनके द्वारा को-१. जैनाचार्यों का शासन भेद, २. ग्रन्थ परीक्षा रचित विशाल साहित्य उनके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग को चार भाग, ३. युगवीर निबन्धावली दो खंड, ४. स्वयंभू सूचित करता है। आपने अपने ज्ञान का सदावर्त विना स्तोत्र, ५. युक्त्यनुशासन, ६. समीचीन धर्मशास्त्र, ७. देवाकिसी स्पृहा के निःस्वार्थ भाव से चालू रक्खा है । गम स्तोत्र, ८. अध्यात्म रहस्य, ६. तत्त्वानुशासन, १०. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अपूरणीय क्षति २५५ पुरातन जैन वाक्य सूची, ११. सत्साधु संस्मरण मंगलपाठ, में लाया है। संस्कृत मे यमकालंकार दुरूहता की दृष्टि से १२. अनित्य पञ्चाशिका, १३. योगसार प्राभृत भाष्य, अपना खास स्थान रखता है शब्दों की तोड़फोड़ को १४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, स्तुति विद्या, समाधितन्त्र मुख्तार जी एक बड़ा चमत्कार मानते थे। 'लक्ष्मीमहस्तुल्य आदि के प्रस्तावना लेख, १५. मेरी भावना आदि कवि- सती सती सती-' इस पाश्र्वनाथ स्तोत्र का भी आपने ताएं, १६. उपासना तत्त्व तथा अनेक लेख संग्रह प्रदान मुझसे हिन्दी अनुवाद कराया था पर वे उसे अभी प्रकाकर चुके हैं। जैन लक्षणावली प्रापका महत्त्वपूर्ण कार्य है शित नही करा सके । जो कि अभी तक अप्रकाशित पड़ा है । सुसंपादित होकर समन्तभद्राचार्य के प्रति प्रापकी अगाध श्रद्धा थी। वे प्रकाश में आने पर एक बड़ी कमी की पूर्ति हो जायगी कहा करते थे कि मुझे तो लगता है कि मैं उनके संपर्क ऐसी प्राशा है। मे रहा हूँ। परन्तु वे तो अपना कल्याण कर गये और मै बाल्यजीवन से ही आपकी अध्ययन प्रवृत्ति निरन्तर कर्मचक्र में सड़ रहा है। उनका कहना था कि समन्तभद्र वृद्धि को प्राप्त होती रही। तरुण अवस्था में धर्मपत्नी स्वामी ने जैनधर्म की जितनी प्रभावना की है जैन समाज एवं दो कन्यायों का मरण होने पर भी आपने अपने जीवन ने उसके उपलक्ष्य में उनका कुछ भी सम्मान नहीं किया में शून्यता का अनुभव नही किया किन्तु गृहस्थी की है । उनकी अन्तिम समय तक इच्छा रही है कि उनके नाम पर 'समन्तभद्राश्रम' नाम का एक आश्रम खोला चिन्ता से निर्मुक्त हो धर्म और समाज की सेवा में पूरी शक्ति से जुट पड़े। बिना कुछ लिखे आपको चैन नही जावे तथा उसके द्वारा उनके साहित्य का प्रचार हो। पड़ता था । कवि कल्पद्रुम और योगसार प्राभृत भाष्य तो आज के युग में लोग जैनधर्म सुनने के इच्छुक है पर कोई आपने अभी ६१-६२ वर्ष की अवस्था में विस्तर पर बैठे उन्हें सुनाने वाला नही । एक 'समन्तभद्र' पत्र के प्रकाशन बैठे तैयार किये है। कितनी ज्ञानासक्ति है। एक बार की भी उनकी इच्छा थी। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् ने अभी ५ संभवतः सन् १६४४ की बात है मै सहारनपुर की रथ यात्रा से निवृत्त हो सरसावा गया था। शाम को भोजन नवम्बर १९६८ को एटा में अभिनन्दन किया था। अभिके बाद मैं अपने सहपाठी मित्र परमानन्द जी शास्त्री के नन्दन के उत्तर मे आपने आध घंटा तक रुग्णावस्था मे साथ घूमने को निकल गया और बड़ी रात निकल जाने भी जो हृदय के उद्गार प्रकट किये थे वे बड़े ही मार्मिक पर वापिस पाया। आते ही साथ मुख्तार जी बोले कि थे । उनका सार मैने समाचार पत्रों में दिया था। मै आपसे चर्चा करने की प्रतीक्षा में शाम से बैठा है। श्री डा० श्रीचन्द जी सगल एटा एक सेवाभावी व्यक्ति हैं आपने तथा आपके परिवार के प्रत्येक सदस्य ने चर्चा होनी थी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के 'मूर्धरुहमुष्टि बड़ी तत्परता से श्री मुख्तार जी की सेवा की है। वासो-श्लोक पर। उस समय वे समीचीन धर्मशास्त्र इस साहित्य महारथी के उठ जाने से जैन समाज को (रत्न करण्ड श्रावकाचार भाष्य) की तैयारी में थे। मुझे __एक अपूरणणीय क्षति उठानी पड़ी है। मैं दिवगत मुख्तार लगा कि एक वृद्ध विद्वान् कितना ज्ञानोपयोग रत है। जी के प्रति नम्र श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हुप्रा डा. आपने मुझसे मरुदेवी स्वप्नावली, स्तुतिविद्या तथा सगल जी व उनके परिवार के प्रति हार्दिक सहानुभूति अध्यात्म तरङ्गिणी का संपादन कराकर उन्हे प्रकाश प्रकट करता है। 'नहि पराग नहि मधुर मधु नहीं विकास का काल । अलि कलो में बंध रह्यो प्रागे कौन हवाल ॥ + + + + निपट प्रबुष समुमत नहीं बुधजन वचन रसाल । कबहुं भेक नहिं जानता अमल कमल-दल बास ।। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान साहित्य-सेवी मोतीलाल जैत 'विजय' एम. ए. बी. एड. सुप्रसिद्ध साहित्यकार, वीर सेवा मन्दिर एवं ट्रस्ट के 'मेरी भावना' उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है जो संस्थापक आदरणीय पडित जुगलकिशोर जी मुख्तार राष्ट्रीय कविता की उच्च श्रेणी में रखी जाती है। जैन "युगवीर" जैन समाज मे विश्रुत विद्वान, साहित्यकार, व जैनेतरों ने 'मेरी भावना' को इतना स्नेह दिया कि समालोचक, संशोधक, सम्पादक, पुरातत्त्ववेत्ता, समाज- सहज ही वह भारत की अनेक भाषामों में प्रकाशित हुई सुधारक एव साहित्य प्रचारक थे। उन्होने जैन साहित्य है। 'युगवीर' में एक साथ साहित्यकार, सम्पादक, समाजके प्रचार-प्रसार, संशोधन, सम्पादन मे जो योगदान दिया सुधारक, समालोचक, निबन्धकार एव पुरातत्त्ववेत्ता जैसे है । यद्यपि श्री मुख्तार सा० ने किसी महाविद्यालय, विश्व- अनेक रूप देखने को मिलते हैं। यह उनकी पैनी दृष्टि, विद्यालय अथवा उच्च स्थान पर शिक्षा प्राप्त नहीं की थी स्पष्टवादिता, चिन्तनशीलता, सहृदयता, सरलता एव तथापि उन्हें साहित्य, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष का ज्ञान समता की द्योतक है जो उन्हे सर्वोच्चता के शिखर पर ले था। वे निरन्तर विद्या-व्यसनी रहे । निरतर स्वाध्याय, जा सकी। मनन एव चिन्तन ने उन्हे कुशल अन्वेपक-तत्त्वचितक सरसावा के सन्त का अमरदीप अब "अनेकान्त" के बना दिया। फलस्वरूप आप अप्रकाशित, अनुपलब्ध एव रूप में हमारे समक्ष है। प्राशा है सरस्वती के इस साहित्य प्राध्यात्मिक जैन साहित्य की ओर प्राकृष्ट हुए। महारथी की अक्षय कीति को अक्षुण्य बनाने मे जैनसमाज, जैन साहित्य तथा साहित्यानुरागी वर्ग असीम उत्साह तथा समन्तभद्र भक्त प्राचार्य जुगलकिशोर जी 'मुगनार' न साहम का प्रदर्शन करेगा। उनके द्वारा रचित ग्रन्थी का सम्पादन-प्रवागन ही जैन अखिल भारतीय स्तर पर मान्यता प्राप्त दि० जैन घम के प्रचार एव इसी सदिय तीर्थ का प्रमार, पापना परिपद. विदतपरिपद, दि० जैन परिपद, दि.जैन महा मूल लक्ष्य बनाया । आज से २८ वर्ष पूर्व स्थापित 'समन्त- सभा, भारतवर्षीय दि० जैन मघ एवं वीर सेवा मन्दिर भद्राश्रम, (अब वीरमेवा मन्दिर ट्रस्ट) उनकी लगन का ट्रस्ट प्रभृति संस्थानो का प्राथमिक कर्तव्य है ऐसे साधुजीवन्त स्मारक है। सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन, पुरुष का स्मारक ग्रन्थ प्रकाशित करावे साथ ही उनकी कुप्रथाम्रो का बहिष्कार एव कतिपय ऐसी बाते है जिनसे स्मृति स्वरूप कोई स्थायी योजना बनाते जो महत्वउनकी समाज-सेवा की लगन स्पष्ट दीख पड़ती है। पर्णहो। आधुनिक जैन-युग के 'वीर' श्रीमती विमला जैन राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक, प्राधुनिक जैन युग सरस्वती पुत्र के गुणों का बखान करना कहाँ तक सम्भव के वीर, जैन साहित्य के उन्नायक, कवि, भाष्यकार, समी- है। उन्होने 'मेरी भावना' के युगवीर के नाम से जैन क्षक, सम्पादक, पत्रकार, इतिहासकार एवं पुरातत्त्ववेत्ता जगत मे अक्षय नाम बना लिया है। डा० नेमिचन्द्र जी विद्वद्वरेण्य पडित जुगलकिशोर जी मुरूनार 'युगवीर' का शास्त्री, प्राचार्य जी के सम्बन्ध में एकदम सत्य लिखते है निधन न केवल जैनसमाज को क्षुब्ध करता है अपितु “यदि प्राचार्य युगवीर बी अन्य कविताओं को दृष्टि से हिन्दी संसार को भी आघात पहुँचाता है । ६२ वर्ष की अोझल कर दे तो केवल 'मेरी भावना' के कारण उसी पायु में जो साहित्यकार साहित्य-प्रणयन मे लगा रहे ऐसे प्रकार अमर रहेगे जिस प्रकार 'उसने कहा था' वाहानी Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुनिक जन-युग के 'वीर' २५७ लिखकर चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' अमर हो गये।" पाप सम्पादक रह चुके हैं। इनके सम्पादकत्व में उभय'मेरी भावना' की लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि पत्रों की ग्राहक संख्या कई गुनी हो जाना सुयोग्य सम्पाकई कारागारों में उसे निश्छल प्रेम प्राप्त है । यही कारण दकत्व का प्रतीक ही कहा जावेगा। है कि यह अग्रेजी, मराठी, कर्नाटक प्रभृति भाषाओं में अनू उनकी बहुमुखी प्रतिभा जैन साहित्य को गौरवमय बनाती रही है। यही कारण है डॉ. ज्योतिप्रसाद जी ने दित हुई है। उन्होंने साहित्य के विविध क्षेत्रों में अपनी उन्हें साहित्य का भीष्मपितामह कहा है। लगभग ७० लेखनी चलाई है। वे साहित्यकार, समाज-सुधारक तथा वर्षों तक साहित्य की प्रहनिश सेवा करने वाला सरसावा सत्साहित्य प्रणेता के रूप मे समानभाव से प्रादृत है। (जिला सहारनपुर उ० प्र०) का सन्त तथा जैन साहित्य पुरातन 'समन्तभद्राश्रम' व आधुनिक वीर सेवा का सूर्य २२-१२-६८ को अस्तगत हो गया। उन्हें निस्समन्दिर ही उनका जीवन्त स्मारक है। ६०,०००) की देह गुरुणां गुरु गोपालदास जी, पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी, राशि का उक्त ट्रस्ट है । इतिहास, पुरातत्व व शोध सामग्री ब्र० शीतलप्रसाद जी, बैरिस्टर चम्पतराय जी जैन साहियुक्त 'अनेकान्त' पत्रिका के पाप जन्मदाता थे जो नव- त्यप्रचारक, पडित नाथूराम प्रेमी जैसे साधु पुरुषों की म्बर १९२६ ई० मे प्रारम्भ किया गया। यह पत्रिका श्रेणी में रखा जावेगा, जिनकी साहित्य सेवा, समाज सेवा, प्राज भी भारत की राजधानी दिल्ली से प्रकाशित होती धर्म सेवा जैनसमाज को युगयुगो तक प्रभावित करेगा है। भारत प्रसिद्ध 'जैनजगत' व 'जैन हितैषी' पत्रो के भी तथा जिनकी स्मृति अक्षुण्ण रहेगी। 'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य व्योरे के विषय में प्रकाशक का स्थान वीर सेवा मन्दिर भवन, २१ दरियागज दिल्ली प्रकाशन की अवधि द्विमासिक मुद्रक का नाम प्रेमचन्द राष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागज, दिल्ली प्रकाशक का नाम प्रेमचन्द, मन्त्री वीर सेवा मन्दिर राष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागज, दिली सम्पादक का नाम डा० प्रा. ने. उपाध्ये एम. ए. डी लिट्, कोल्हापुर डा. प्रेम सागर, बडौत यशपाल जैन, दिल्ली परमानन्द जैन शास्त्री, दिल्ली राष्ट्रीयता भारतीय पता मार्फत वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली स्वामिनी संस्था वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली मैं प्रेमचन्द घोपित करता हूँ कि उपरोक्त विवरण मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है । १७-२-६६ ह. प्रेमचन्द (प्रेमचन्द) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जुगलकिशोर जी डॉ० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट अनुवादक : श्री रामकुमार जैन एम. ए. पण्डित जुलकिशोर जी मुख्तार २२ दिसम्बर १९६८ किया । निश्चय ही वार्तालाप ने उस सहयोग का शिलाको १२ वर्ष की पूर्ण परिपक्व अवस्था में एटा नगर में न्यास कर दिया, जो प्रेमी जी जैनधर्म के अध्ययन एवं दिवंगत हो गये । इस शोकपूर्ण घटना से मुझे वह दिवस तत्सम्बन्धी अनुसन्धान मे मुझसे प्राशा रखते थे। स्मत हो गया, जब मैं बी. ए. परीक्षा का प्रमाण-पत्र प्राप्त पडित जुगलकिशोर जी से इस प्रथम साक्षात्कार के करने के लिए बम्बई विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह के पश्चात् प्रतिमास पत्र व्यवहार द्वारा मेरा उनका संपर्क में सम्मिलित होने गया था और मैंने २८ अगस्त को श्री बढ़ता ही गया। प्रेमी जी के प्राग्रह से मैंने एक कन्नड़ नाथराम जी प्रेमी के निवासस्थान पर प्रथम बार पंडित भाषा के कवि का जीवनचरित्र का मराठी में अनुवाद जी के दर्शन किये थे। इससे बहुत पहले सन् १९२० मे किया, जिसे प्रेमी जी ने स्वयं हिन्दी में अनूदित किया, जो ही, जैन ग्रन्थकारों एवं साहित्यकारों के विषय में लिखे गये, "अनेकान्त" के प्रथम, द्वितीय एवं अन्य अंकों में क्रमशः 'जन हितैषी" मे प्रकाशित एव श्री ए. बी. लठे द्वारा प्रकाशित हपा । "अनेकान्त" उस समय करोलबाग, दिल्ली बेलगाम के पुस्तकालय की फाइलों में सुरक्षित, उनके से प्रकाशित होता था। खोजपूर्ण लेख मैं पढ़ चुका था। उनकी विद्वत्ता का तभी मार्च, सन् १९३० मे मुझे लोक सेवा प्रायोग के से मेरे हृदय पर प्रभाव पड़ चुका था। स्वर्गीय श्री नाथू- समक्ष साक्षात्कार के निमित दिल्ली जाना पड़ा । प्रेमी जी राम जी प्रेमी भी मेरे बड़े आदरास्पद थे। उनके सुपुत्र के परामर्शानुसार मै उस समय समन्तभद्राश्रम करोलबाग ने हीराबाग मे मुझसे कहा कि प० जुगलकिशोर जी हमारे मे तीन दिन पडित जी के सानिध्य मे रहा । वहाँ श्री घर (मलुन्द-बम्बई) मे ठहरे हुए है-यदि आप चाहें तो अयोध्याप्रसाद गोयलीय से भी मेरा सम्पर्क स्थापित हपा, इस अवसर पर मेरे पिता जी के और पडित जी के एक जो भविष्य मे घनिष्ठ मंत्री के रूप में परिवर्तित एवं परि. साथ ही दर्शन कर सकते हैं। यह प्रथम अवसर था, जब वद्धित हो गया। इसके कुछ काल पश्चात् पंडित जुगलमै दोनों विद्वानों के एक साथ प्रत्यक्ष दर्शन कर किशोर जी अपना कार्य स्थल परिवर्तित कर सरसावा सका था। उन दिनो मैं हिन्दी समझ लेता था, परन्तु चले गये। किन्तु हमारा सम्पर्क तो अधिक घनिष्ठ ही बोल नही सकता था। परिणामतः श्री पडित जी के साथ होता गया। हम दोनों में विविध अनुसन्धान प्रसंगों को मेरा तत्कालीन वार्तालाप कुछ विचित्र-सा ही रहा। प० लेकर पत्र-व्यवहार चलता ही रहा । स्व. श्री राव जी जी साधारण अग्रेजी समझ लेते थे, परन्तु इतने मात्र से सरवाराम दोशी की कृतज्ञता को विस्मृत नहीं कर सकता वार्तालाप का निर्वाह होना कठिन था। अग्रेजी के स्थान एवं भूरिशः साधुवाद उन्हें अर्पित है कि उनके सहयोग पर मैंने मराठी मे बोलना प्रारम्भ किया। श्री प्रेमी जी से मैंने शोलापुर एक सप्ताह पर्यन्त ठहरकर घवला, जयधमराठी का हिन्दी अनुवाद करके मेरे भाव पडित जी को वला टीकामों का अध्ययन कर उपादेय सामग्री ग्रहण की। अवगत करा रहे थे । हम उस दिन शाम को लगभग तीन पंडित जुगलकिशोर जी उस सामग्री को देखना चाहते थे । घण्टे वार्तालाप में सलग्न रहे। हमने इस प्रदेश मे जैन मैंने वह सामग्री भेज दी। पंडित जी ने भी पर्याप्त समय धर्म की पुरातन अवस्थिति, कुमार की कालानुक्रमतिथि आरा के जैन शास्त्र भण्डार में इन टीकामों का अध्ययन तथा योगीन्द्र की कृतियों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर कुछ सामग्री एकत्रित की थी, दोनों सामग्रियों का Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जुगलकिशोर जी २५६ तुलनात्मक निरीक्षण कर उन्होंने मुझे सत्परामर्श दिये। कर केवल उसकी उपकृतियों की प्राशंसा की पोर ही सन् १९५० में जब मैं दर्शन-सम्मेलन (फिलो सोफी- ध्यान दिया गया, यह बात मुझे खटकी, परन्तु अधिक कल कांग्रेस) में भाग लेने कलकत्ता गया तो पंडित जी कुछ न कह सका। वहां पहले से ही श्री छोटेलाल जी के पास ठहरे हुए दिसम्बर, १९५७ में ऑल इण्डिया पोरिएण्टल थे। श्री छोटेलाल जी वीर सेवा मन्दिर की स्थायी स्थिति कॉन्फन्स दिल्ली में हुई, उसमें मैंने भी भाग लिया। के विषय में प्रति चिन्तातुर थे । सरसावा से उसका स्थान कॉन्फैन्स के पश्चात् पडित जी से मिलने गये। वे बड़े परिवर्तन दिल्ली हो या कलकत्ता आदि विषयों पर वे असन्तुष्ट-से प्रतीत हए। अपने सहायकों के प्रति उनके विचार कर रहे थे। एक विचार यह भी था कि बेल- पर्याप्त मभियोग थे। संस्था की अचल सम्पत्ति वृद्धि की गछिया मन्दिर में इसके लिये एक भवन ले लिया जावे। तो उनके सहायकों को चिन्ता थी परन्तु अनुसंधान का पंडित जुगलकिशोर जी की हार्दिक इच्छा थी वीर सेवा मख्य महत्वपूर्ण कार्य पीछे हटता-सा प्रतीत हो रहा था। मन्दिर की सेवा का भार मैं सेवक (ए. एन. उपाध्ये) इसके अनन्तर प्राकृत टैक्स्ट सोसाइटी प्रादि की बैठकों ग्रहण करूँ, यदि तत्काल ही नही तो उनके अवकास ग्रहण में भाग लेने जब भी मैं दिल्ली गया, वीर सेवा मन्दिर में करने पर तो यह अवश्य हो जाना चाहिए । कलकत्ता मे ठहर कर पंडित जी को सत्संगति का लाभ उठाने से भी अवकाश के समय हम दोनों "सन्मति सूत्र" के उस वंचित न रहा । सन् १९६५ में जब मैं और डॉक्टर हीराअग्रेजी अनुवाद का पुननिरीक्षण करते रहे, जो मैंने पंडित लाल जी काश्मीर मे प्रायोजित अखिल भारतीत प्राच्य जी की ही आग्रह पूर्ति के हेतु किया था। पडित जी श्री परिषद् में भाग लेकर दिल्ली लौटे तो पंडित जी के छोटेलाल जी से बहुत कुछ प्राशा रखते थे। परन्तु छोटे- सानिध्य का लाभ हम दोनों को प्राप्त हुप्रा । उस समय लाल जी कुछ कहने या करने में बहुत सावधान थे। वे स्पष्टतः प्रतीत हो रहा था कि पंडित जी तथा छोटेलाल अपनी सामर्थ्य का उचित अनुमान कर लेते थे। उस जी के सम्बन्ध कुछ कटतर हो गये थे। पंडित जी ने हम समय हम तीनों एक साथ उदयगिरि एवं खण्डगिरि एवं खण्डगिरि दोनों से आग्रह किया कि समझौते का कोई मध्यमार्ग खोज (उडीसा) गये, वहाँ से वापिस आकर दो-तीन दिन एक निकालें। हमारे भगीरथ प्रयत्न के बाद भी उन दाना के साथ ही कलकत्ता रहे। रिक्त स्थान न भर सके। समीपस्थ सभी एव सम्वमार्च १९५५ में वीर सेवा मन्दिर समिति की बैठक न्धित व्यक्तियो से यह भी छिपा न था कि लिखित में भाग लेने के लिये मुझे विशेषरूप से दिल्ली पामन्त्रित रूप मे भी पर्याप्त कलक-पक उत्क्षिप्त हो चुका था। किया गया। श्री पडित जी और छोटेलाल जी दोनों अनसन्धान एव साहित्य का साधन मासिक पत्र भी इस लाल मन्दिर में ठहरे हुए थे। वीर सेवा मन्दिर को दिल्ली पड्रिलता से विमुक्त न था। इस वैषम्य का अन्त में यह लाना था। एक नया भवन निर्माण हो रहा था और उन परिणाम हया कि पंडित जी ने अपना एक अलग ट्रस्ट दोनों की माँखें बीर सेवा मन्दिर के अभ्युदय का भव्य बना लिया और उस वीर सेवा मन्दिर से अपना सम्बन्ध स्वप्न निहार रही थी । छोटेलाल जी इस सस्था की उन्नति त्याग दिया जिसका निर्माण छोटेलाल जी ने पंडित जी के विषय में प्रति चिन्तनशील थे। वे मेरे विषय में चाहते के पादरार्थ ही किया था। मैंने अनुभव किया कि कभीथे कि मैं संस्था से शीघ्रातिशीघ्र सम्बद्ध हो जाऊँ। मैंने कभी पंडित जी के हितषी व्यक्ति ही वातावरण को कटुअपनी कठिनाइयां उनके समक्ष रखीं, परन्तु स्वभावतः वे तामय बना देते थे। श्री छोटेलाल जी पंडित जी को पिता उन्हें नियाज रूप में न स्वीकार कर सके। इस अवसर के तुल्य अादर करते थे और प्रयत्न करते थे कि वीर सेवा पर हमने "लक्षणावली" के कई प्रकरणों को अन्तिम रूप मन्दिर पुरातत्व का वह व्यासपीठ बने कि इसका अन्तदिया। मैंने अनुभव किया कि वीरसेवा मन्दिर समिति की राष्ट्रीय पादरास्पद स्थान हो। उनके स्वप्न साकार न हो इस बैठक में संस्था की प्रार्थिक कठिनाइयों की उपेक्षा सके। उन्होंने अपने अन्तिम दिन व्याधि-पीड़ित अवस्था Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनेकान्त में कलकत्ता में ही बिताये, उघर पंडित जी भी सेवा- वे मुझे प्रामाणिक सूचनाएं देने के लिए विस्तृत पत्र निवत्त होकर अपने भतीजे के पास एटा चले गये । अन्तिम लिखा करते थे। मै निश्चितरूप से यह कह सकता हूँ कि वर्षों में पंडित जी ने "अनेकान्त" से अपना नाता तोड़ उन्होंने मुझसे कभी किसी तथ्य की गोपनीयता नहीं रखी लिया था । श्री छोटेलाल जी की प्रार्थना को मान देते हुए एवं मेरी भी ज्ञापनाएँ उनके समक्ष विनम्र भाव से उपहम में से कुछ लोगो ने जनत्व की सेवा एव हित को दृष्टि स्थित रहती थी। उन्हें जब भी मेरे ग्रन्थों की आवश्यमे रखते हुए इसके सम्दादन एव प्रकाशन सम्बन्धी उत्तर- कता होती थी, वे मुझे निस्संकोच लिख देते थे। उनकी दायित्व को स्वीकार कर लिया था। बाञ्छनीय सामग्री को एकत्रित करने के लिए कम-से-कम पण्डित जुगलकिशोर जी उच्च विद्वान् थे एव उनका दो बार तो मुझे पूना जाना पड़ा था। अन्तिम वर्षों मे अध्ययन क्षेत्र व्यापक तथैव बहुमुखी था। उन्होने किसी कतिपय स्पष्ट कारणों से उन्होंने इस विनिमयात्मकमहाविद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त नहीं अनुसन्धान पद्धति का न्यूनाधिक मात्रा में परित्याग कर किया था। वे केवल योग्य वकील रहे थे, जो साक्षियों दिया था। वयोवद्धता के कारण अन्तिम वर्षों में उनके को ठीक जांचने में एवं स्वीकृत वाद को सबल युक्तियों लिए यह सम्भव नहीं था कि वे अन्य पत्रिकाओं में प्रकासे सफल बनाने मे निष्णात थे। इस स्वाभाविक प्रतिभा शित अनुसन्धानात्मक लेखो का गहन अध्ययन कर समीक्षा से ही वे विपक्षी विद्वानों पर अपनी विद्वत्ता की धाक कर सकें, अतः मैंने उनसे प्रार्थना की थी कि वे भविष्य जमाने में समर्थ होते थे। यही कारण था कि उनकी में विचारात्मक लेख लिखा करे । हुआ भी यही, अन्तिम समीक्षाएं ठोस प्रमाणो पर आधारित हो सकी। तत्कालीन वर्षों में या तो उन्होंने अनुवादात्मक कार्य को प्रश्रय दिया रूढिग्रस्त (एकान्तवाद ग्रस्त) पण्डितो के मन्तव्य उनकी या विचारात्मक लेखो में प्रवधानयुक्त होकर समन्तभद्र, युक्तियो से धराशायी हो जाते थे। प्रत्युत्तर के अभाव मे रामसेन, अमितगति आदि के सम्बन्ध में लेख लिखे । मेरा वे अपने को विक्षिप्त सा अनुभव करने लगते थे। सौभाग्य था कि मैं पण्डित जी और प्रेमी जी उभय का जैन विद्वानों एवं साहित्यकारो की कृतियो एव वात्सल्य भाजन बना रहा। इस सहज जात वात्सल्य का तिथियों तथा कालानुक्रमता के विषय मे पीटर्सन, भाण्डार- कारण अनुमान या वर्णन से परे है, तपापि उभय का यह कर, व्हलर, नरसिहाचार्य प्रादि अनेक विद्वानों ने अनेक स्नेह मुझ पर अन्त तक बना रहा है। जब कभी भी मैंने महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान किये है। पण्डित जी ने इस सभी उन दोनों को लिखा, उनसे तथ्यों की जानकारी तथा सामग्री का एवं सब स्रोतो का अध्ययन किया था। अपनी पुस्तकादि की प्राप्ति मुझे होती रही। अपनी कृतियों में पजिका एवं विवरण पत्रिका में इन सबका सार उनके मैने सदा उनके प्रति कृतज्ञता भी प्रदर्शित की है। उन पास उपस्थित था एव अपने इस कार्य पर उनके हृदय में दोनों की कृपा के ऋण से में कभी भी उऋण न हो एक स्वाभिमानपूर्ण सन्तुष्टि थी। बहुत से विद्वानों की सकूगा । एकाश में उऋणता के प्रयत्न स्वरूप मैंने अपना शिकायत थी कि उस सामग्री का उपयोग करने की उन्हे सम्पादित ग्रन्थ "कार्तिकेयानप्रेक्षा" उन दोनों मूर्धन्य प्राज्ञा नही देते थे। तथापि इसी अध्ययन के कारण उनके विद्वानो को समर्पित किया है। आज अनेक युवक रिसर्च निबन्ध अन्य पण्डितों की अपेक्षा प्रामाणिक एवं ग्राह्य स्कॉलर इस बात पर पाश्चर्य प्रकट करते है कि मैं उनकी होते थे। अति उदारता पूर्वक सहायता करता हूँ, परन्तु यह सब जैन साहित्यकारों, उनकी कृतियो तथा तिथियों के कुछ इसी कारण से है कि मैने ऐसी ही उदार सहायता विषय में उन्होंने अनेक लेख लिखे थे उनमें से अनेक . अपने बड़ों से प्राप्त की है। अप स्थायी महत्त्व के है। इस विषय मे मेरा और उनका पत्र पण्डित जुगलकिशोर जी चाहते रहे कि मैं वीरसेवा व्यवहार होता रहता था और उनकी सग्रह-पंजिकाएं मेरे मन्दिर का ट्रस्टी बन जाऊँ और अन्त मे स्वयं स्थापित उपयोग के लिए सर्वदा उपलब्ध थीं। ट्रस्ट का ट्रस्टी भी बनाना चाहा। परन्तु उचित था या Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जुगलकिशोर जी २६१ अनुचित, उनसे क्षमाप्रार्थी होता हुआ मैं इस उत्तरदायित्व सम्बन्धों में कभी अन्तर नहीं पाया। में उनकी विद्वत्ता को ग्रहण न कर सका। मेरा विश्वास है कि ट्रस्टी का के प्रति प्रादर भाव रखता था और वे मुझे अपने परिवार पद प्रार्थिक-उत्तदायित्व का है और किसी सम्पन्न का एक वात्सल्यभाजन सदस्य मानते थे। व्यक्ति को ही इस पद पर आसीन होना चाहिए। मेरे जब मैं गत पचास वर्षों की ओर दृष्टिपात करता जैसे सीमित प्राय के व्यक्ति को प्रति क्षण अार्थिक प्रश्नों हूँ तो मै आश्चर्यान्वित होता है कि पण्डित जी ने जैन से सम्बन्धित सस्था का ट्रस्टी नहीं होना चाहिए । पडितजी साहित्य के क्षेत्र में कितना प्रशसनीय कार्य किया है ? मेरे इस स्पष्टीकरण से कभी सहमत नहीं हुये, अन्त में अनेक जैन ग्रन्थकारों-साहित्यिकों के कृति सम्बन्धी, वातालाप के मध्य यह प्रश्न उपस्थित न हो जाये, इसके तिथि सम्बन्धी कार्यों का उन्होने सुयोग्य रीत्या विश्लेषण प्रति वे सावधान रहते रहे। उनकी एक दूसरी भी इच्छा किया है। कभी-कभी उनकी पाद-टिप्पणिया मुझे रुचि थी कि मैं उनकी सभी रचनायो का अंग्रेजी मे अनुवाद कर प्रतीत न होती थी; परन्तु ऐसी टिप्पणिया लिखना कर दूं। वास्तव में मेरी भी ऐसी हादिक इच्छा थी, उनका स्वभाव बन गया था, जिससे वे जीवनभर विमुक्त परन्तु महाविद्यालय सम्बन्धी कर्तव्य तथा निजी अनुसन्धान न हो सके। जब तक "अनेकान्त" उनके सम्पादकत्व में कार्य की-व्यस्तता इस आकाक्षापूर्ति के लिये समय प्रकाशित होता रहा उन्होने जैन-इतिहास के अनेक अमूल्य प्रदान नही करती थी। मैं अपनी असमर्थता के प्रति खेद तथ्य मनीषियो के समक्ष उपस्थित किये। उन्होने अनेक व्यक्त करता था और वे भी मेरी कठिनाई से अवगत थे। विद्वानों को लिखने के लिये प्रोत्साहित किया। परन्तु सन् १९३२ मे "समन्तभद्र का समय एव डाक्टर पाठक" यत्रतत्र उनके प्रति यह अभियोग स्थापित रहा कि वे नामक उनके निबन्ध का मैने अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो उन्ही विद्वानों के प्रति अधिक उदार रहते थे जो उनकी भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट की वार्षिक षिक शतों को निभाते हो उनके सहयोग में कार्य कर सकते नों पत्रिका (अक १२) में प्रकाशित हुपा। तदनन्तर पण्डित थे। यदि वे अपने टस्ट की निधि को प्रकाशन कार्य में जी के प्राग्रह को मान देकर मैंने उनके 'सन्प्रति सूत्र" का लगा देते तो उनकी कृतिया ससार के समक्ष अपेक्षाकृत अग्रेजी रूपान्तर किया, जो एक पृथक् पुस्तकाकार में जल्दी पा सकती थी। प्रकाशित हुआ। छोटेलाल जी की हार्दिक इच्छा थी कि अपने अन्तिम वर्षों में अपनी कृतियो के प्रकाशनार्थ यह निबन्ध बड़े सुन्दर रूप में प्रकाशित हो। वे यदा कदा भारतीय ज्ञानपीठ के अधिकारियो को लिखते "पुरातन जैन वाक्यसूची (सरसावा १६५०) समी- रहे । श्रीमान् माहू शान्धिसाद जी तथा श्रीमती रमा जी चीन धर्मशास्त्र (दिल्ली १९५७) तथा योगसार प्राभृत के प्रति बडा आदर भाव प्रदर्शित करते रहे है । पण्डित (१९६८) आदि का अंग्रेजी अनुवाद करने के लिये श्री जी के प्रकाशन-प्रस्तावो को उन्होने सर्वदा स्वीकार छोटेलाल जी और पण्डित जी दोनो ने ही मुझसे अनेक किया। उनके ग्रन्थो का प्रकाशन ज्ञानपीठ से न हो सका बार आग्रह किया था । अन्तिम वर्षों में पण्डित जी की तो इसका मात्र यही कारण रहा कि पुस्तकों की प्रेस स्मरण शक्ति कुछ अधिक साथ नहीं दे रही थी। "सन्मति कॉपी कभी भी समय पर प्राप्त न हो सकी। उनके एक सत्र" का अनवाद प्रकाशित होने पर उन्होंने कुछ वैमत्य ग्रन्थ "योगसार" का प्रकाशन मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला से सा व्यक्त किया, मेरे द्वारा विरोध होने पर प्रस्तावना के श्लाघनीय शीघ्रता से हुआ। मैंने इसकी प्रस्तावना लिखी उस अनुच्छेद पर चिट चिपका कर उन्होंने उसे सशोधित हम सबको इस बात का सन्तोप रहा कि इसको प्रकाशित कर दिया था। इसी तरह मैने उन्हे एक बार लिखा था प्रति पण्डित जी को मृत्यु से कुछ पूर्व हम दे सके थे । कि "काव्य कल्पद्रम" वादिराज कृत स्तोत्र नही माना जा यदि उनका स्वास्थ्य प्राज्ञा देता तो वे अवश्य मेरे द्वारा सकता। समय-समय पर अनुसन्धान सम्बन्धी तथ्यो पर लिखित प्रस्तावना को पढ़कर अपनी भावात्मक प्रतिहमारा मतवभिन्य हो जाता था परन्तु इससे हमारा स्नेह- क्रिया व्यक्त करते । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अनेकान्त इस सब वर्णन के अतिरिक्त पण्डित जी के व्यक्तित्व साहित्य को अमूल्य निधियां है। उनकी वकील-प्रकृति की की कुछ असाधारण विशेषतायें थी, जिनके कारण वे तत्मिक शक्ति बड़ी प्रबल थी और अपने तर्क-क्षेत्र को सर्वदा स्मरणीय रहेंगे। वे "सादा जीवन उच्च विचार" उर्बर बनाने में एकाकी निपुण थे। पन्तिम वर्षों में उनके के श्रेष्ठ निदर्शन थे। उनकी कविता 'मेरी भावना" लेख विचारात्मक श्रेणी के थे। समन्तभद्र, रामसेन, सर्वदा विचारों के उच्चादर्श को प्रस्तुत करती रहेगी। अमितगति सम्बन्धी उनके ग्रन्थ सर्वदा प्रादरभाव से पठउनकी अनेक समीक्षाएँ, निबन्ध परिचयात्मक विवरण नीय रहेंगे। मेरी उन्हें भावभरी श्रद्धांजलि अर्पित है। जैसे कि पात्रकेसरी, समन्तभद्र, सिद्धसेन प्रादि स्थायी जैन साहित्यकार का महाप्रयाण पं० सरमन लाल जैन 'दिवाकर' शास्त्री २२ दिसम्बर १९६८ का वह दुर्दिन जिसने समाज श्री मुख्तार जी का सारा जीवन एक साहित्य शोधक और राष्ट्र के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहास-सर्जक, पत्र- के रूप मे भगवान महावीर की वाणी को देश-विदेश में कार, समाजसेवी अमर जिनवाणी सेवक, साहित्य महारथी, पहुँचाने के प्रयत्न मे लगा रहा। मुख्तार सा० उग्र सुधा'मेरी भावना के अमर सृष्टा, विलुप्त इतिहास के अन्वे- रक थे, उनका सुधार मार्ग केवल ऊपरी बातों तक ही षक श्रद्धेय आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' को सीमित नही था वे धार्मिक रीति-खोजो में भी सुधारवादी छीन लिया। काल का ऐसा क्रूर प्रहार जो हमारे बीच से थे। इसी सुधारवाद धूनने उन्हे साहित्य का रसिक हो प्रतिभा के धनी साहित्य जगत के सेवी को उठा ले गया नदी साहित्य का सप्टा एव महारथी के पद पर आसीन और हम सबको साहित्य क्षेत्रों में अनाथ कर गया । कर दिया । शास्त्रो का पालोडन करके उनके प्राधार पर साहित्यिक क्षेत्र मे यह पूर्ति कई सदियों में हुई थी। ही उन्होने सुधार मार्ग बनाया था। अपने पक्ष की पुष्टि और शायद अब होने की कोई सम्भावना नही है । साहित्य मे वे प्रमाणो की ऐसी शृङ्खला बाँधते थे जिसे तोड़ना क्षेत्र का यह खाना अपूर्ण ही रहेगा। कठिन होता था। आपकी अलौकिक प्रतिभा एवं विद्वत्ता ने विश्व को आप जैनसमाज के एक मात्र साहित्य स्तम्भ थे साहिमेरी भावना जैसी, राष्ट्रीयता से भरी धार्मिक, प्राध्या- त्यिक क्षेत्र में समाज को पाप पर गर्व था। पाप कर्मठ त्मिक, विश्व के जन-जन की भावनाओं को उनके अन्दर निस्वार्थ साहित्यसेवी, पुरातत्ववेत्ता, महान् दार्शनिक एवं से खीचकर गंथी एक माला दी जिसे हर राष्ट हर कौम जैन इतिहास के अन्वेषक थे। का व्यक्ति चाहे जो भी इसे अपने गले में पहिनता है वही ऐसे महान् उपकारक मूक साहित्यसेवी विद्वान् के खुश होकर झूम उठता है, और धार्मिकता के सागर में देहावसान हो जाने पर समाज की सच्ची श्रद्धांजलियाँ हिलोरे लेने लगता है। तभी अनायास ही उसके मुंह से उनके प्रति तभी मानी जायगी जबकि उनके द्वारा संचायह शब्द निकल पड़ते है कि किस साहित्य महारथी ने लित जैन वाङ्यमय और इतिहास का अध्ययन एव मनुयह माला गूंथी है । जिसका एक-एक फूल (शब्द) अनन्त संधान उसी प्रकार चलता रहे समाज पूरा सहयोग देता संसार में अपनी सुरभि फैला रहा है। रहे । यही मुख्तार सा० के प्रति सच्ची श्रद्धांजलियाँ होंगी। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कार्य उन्होंने अकेले किया वह बहुतों द्वारा सम्भव नहीं डा० दरबारी लाल जी कोठिया न्यायाचार्य, एम. ए., पी-एच. डी. वीसवी सदी को प्रणाम । इस सदी ने अनेक राष्ट्र वकील और मुख्नार साहब अवश्य पहुँचते थे तथा अपने नेताप्रो के साथ जैन समाज के बहुप्रवृत्तियों के जनक प्रभावशाली व्याख्यानों द्वारा समाज को सम्बोधित महान् व्यक्तियों को जन्म दिया है। उन्हीं महान व्यक्तियों करते थे। में श्रद्धेय पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' है। सन् १९०६ मे जैन गजट में 'विवेक की आँख' मुख्तार साहब ने अकेले वह कार्य किया जो बहुतों द्वारा शीर्षक लेख मुख्तार साहब ने लिखा या। इस लेख में सम्भव नहीं । सस्कृति को जितना बढ़ावा उन्होंने दिया एक दृष्टान्त द्वारा उस समय की अविवेकिता का चित्रण उतना किसी अन्यने दिया हो, यह हमे ज्ञात नहीं। किया गया है। वेश्यानत्य के लिए समाज खूब खर्च संस्कृति का कोई छोर उनसे अछूता नहीं रहा। समाज करने को हमेशा तैयार रहती थी और धर्मोपदेष्टा को जागरण, कुरीतिनिवारण, साहित्योद्धार, अनुपलब्ध ग्रन्था- देने के लिए नहीं या कम-से-कम देना चाहती थी। इस वेषण, ग्रन्थपरीक्षण, ग्रन्थ प्रकाशन इतिहास सर्जन, स्थिति का प्रदर्शक निम्न पद्य मुख्तार साहब ने स्वय पुरातत्त्व और कला की ओर समाज का आकर्षण आदि रचकर प्रस्तुत किया है, जो खास तौर से जानने सभी दिशाओं में उन्होने स्वय प्रवृत्ति की और अन्यों को योग्य है। उसकी ओर प्रोत्साहित किया । फूटी प्रॉख विवेक की, कहा कर जगदीश । कंचनिया को तीन सौ, मनीराम को तीस ।। वस्तुत: आज से ६०, ७० वर्ष पूर्व का समय एक 'कचनी' एक प्रसिद्ध वैश्या थी, जिसका नृत्य विवाहों निविड पन्धक र का समय था । अपनी पुरानी परम्पराओं में कराया जाता था। मनीराम जी एक पण्डित थे, जो से सभी चिपटे थे । चाहे वे अच्छी हों या बुरी। वे उन्हें धर्मोपदेश के लिये समाज में प्राते जाते थे। मुख्तार छोड़ना नहीं चाहते थे। उनसे ऐसा राग था कि बुरी साहब ने इम पद्य को ५० मनीराम जी के मुख से परम्पराओं को छोड़ने के लिए कहे जाने पर वे कहने वालों पर टूट पड़ते थे । विवाह मे वेश्यानृत्य, कन्या कहलवा कर तत्कालीन अविवेक का सकेत किया है। इसी लेख मे वे स्वय लिखते है-वेश्या जैसी पापिनी और विक्रय, छापे का विरोध,, सस्कृत-प्राकृत में लिखे जाली व्यभिचारिणी स्त्रियां तो मंगलामुखी और कुल देवियां ग्रन्थों को जिनवाणी मानना जैसी बातों के विरुद्ध बोलना समझी जाती हैं। जगह-जगह वेश्या नृत्य का प्रचार है... या शिर उठाना किसी का साहस नहीं था। खुले दहाड़े लड़कियां वेची जाती हैं। दिन-दहाड़े मन्दिरों श्रद्धेय मूख्तार साहब जन्मजात विवेकी प्रो साहसी और तीर्थों का माल हड़प किया जाता है"शराब की थे। उन्होंने उक्त बातों का दृड़तापूर्वक विरोध किया और बोतलें गटगटाई जाती हैं, धर्म से लोग कोसों दूर भागते इस विरोध के फलस्वरूप उनका बहिष्कार भी हुआ। हैं...फिर कहिये, यदि भारतवासी दुःखी न हो तो पर मुख्तार साहब आधी की तरह विरोध को चीरते हुए क्या होवें। आगे बड़ते गये। कितने लोगों ने उनके विरोध को इस लेख और उद्धरण से पाठक जान सकते हैं कि उचित समझा और उनका साथ दिया। उस समय उत्तर- मुख्तार साहब को समाज-सुधार और जागरण के लिए प्रदेश में जितने मेले, समितियों की बैठकें और कितना दर्द था। धार्मिक प्रायोजन होते थे उनमें बाबू सूरजभान जी जैन ग्रन्थों के प्रकाशन का बीड़ा बाब सूरजभान जी Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनेकान्त ने उठाया था और उसके लिए उन्हें जानकी जोखम, साहित्य साधनाका मुझ पर प्रमिट प्रसर हुमा । सुहवर पं० तिरस्कार, बहिष्कार प्रादि के कष्ट उठाने पडे । उनके परमानन्द जी और बा. जय भगवान जी वकील वीरसेवा इस कार्य का खूब विरोष हुमा । किन्तु उनके समधी बा० मन्दिर में साहित्य-सेवा कर रहे थे। बा. जयभगवान जी जानचन्द जी जैनी लाहौर और मुख्तार साहब ने उक्त तो मुझसे कुछ माह पूर्व ही पहुंचे थे। किन्तु पं० परमाविरोध के बावजद खब समर्थन किया। फलतः छापे का नन्द जी कई वर्ष से काम कर रहे थे। मेरे और बा. विरोध कम हया, जिसके कारण कितने ही ग्रन्थो का जय भगवान जी के भी पहुँच जाने से मुख्तार साहब को प्रकाशन हो सका। अाज तो विरोध का नामोनिशान जो प्रसन्नता हुई थी उसे उन्होंने अनेकान्त वर्ष ५ किरण भी दिखाई नही देता । अनेक ग्रन्थ मालाएँ संस्थापित हो १-२ के टाइटिल पृ. ४ पर 'वीरसेवामन्दिर को दो गयी और धवला, जयघवला, महाधवला जैसे सिद्धान्त विद्वानों की सम्प्राप्ति' शीर्षक से व्यक्त करते हुए लिखा ग्रन्थों का भी प्रकाशन हो सका है। मुख्तार साहब ने स्वयं था-.....'पाप ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम (जंन गुरुकुल) अपना समन्तभद्राश्रम और उसके बाद उसके असफल मथुरा को स्तीफा देकर प्रातःकाल २४ अप्रेल को उस होने पर बीर सेवा मन्दिर की स्थापना की थी। समय वीरसेवामन्दिर में पधारे जब कि मैं 'वीरसेवामन्दिर ___ मुख्तार साहब में समाज और साहित्य सेवा की दस्ट' की योजना को लिए हुए अपना 'वसीयतनामा' कितनी तीव्र लगन थी कि उसके लिए उन्होने १२ फर- रजिस्ट्री कराने के लिए सहारनपुर जा रहा था और इससे वरी १९१४ को अपनी चलती मुख्तारकारो की प्रधान मने बड़ी प्रसन्नता हुई।' उस समय वीरसेवामन्दिर मे प्राजीविका को छोड़ दिया । बा० सूरज भान जी का जब 'जैन-लक्षणावली' और 'पुरातन-वाक्य-सूची' (प्राकृत उनके मुख्तारकारी छोड देने का पता चला तो उन्होंने पद्यानुक्रमणी) का कार्य चल रहा था । मुझे भी यही कार्य भी उमी दिन अपनी भरपूर आमदनी वाली वकालत को दिया गया। इन दोनो कार्यों के अतिरिक्त 'अनेकान्त' त्याग दिया और दोनों समाजसेवी महापुरुष समाज और मामिक का भी कार्य चलता था। अनेकान्त शोध-खोज की साहित्य की सेवा में कृद पडे । बा० सूरजभान जी तो प्रवृत्तियों का माध्यम था और उसकी अोर विद्वानो तथा जीवन के अन्तिम वर्षों में समाज के व्यवहार से उमसे समाज का विशिष्ट आकर्षण था। उदासीन हो गये थे । परन्तु मुख्तार साहब रुग्ण शय्या मुगतार साहब उस कुशल शिल्पी के समान दक्ष पर पड़े-पड़े मत्यू से जझते हुए भी श्रुत-सेवा में सलग्न सम्पादक थे, जिसके समक्ष सब तरह पाषाण-शकल पड़ रहे। कल्याण कल्पद्रुम, प्राप्तमीमासा, योगसार प्राभृत रहते है और जिन्हे पैनी छैनी द्वारा तरास-तरास कर कई कृतियाँ रुग्ण शय्या पर ही तैयार की गयी। योगसार सुन्दर एवं मनोजमूर्ति के रूप मे ढाल लेता है। मुख्तार प्राभूत तो उनके जीवन के अन्तिम क्षणो, ३० नवम्बर साहब भी प्राप्त लेखों को अपनी पैनी दृष्टि से काट-छाँट, १९६८ को जब उनका अखिल भा० दि० जैन विद्वत्परि उचित, शब्द-विन्यास, पुष्ट तर्क और अर्थ गाम्भीर्य की षद् की ओर से उनके निवास स्थान एटा मे अभिनन्दन प्राभनन्दन पट देकर उन्हे उत्तम लेख बना लेते थे। मै अपनी बात हो रहा था, प्रकाश में आया। ऐसा साहित्य तपस्वी कहता है। वीर सेवामन्दिर मे पहुँचने से पूर्व भी मै 'जैन समाज मे अन्य दिखायी नहीं देता। मित्र', 'वीर' आदि पत्रों मे लेख लिखता रहता था। पर यों तो सन् १९३७ से ही पत्र व्यवहारादि द्वारा उनके जब वहाँ पहुँचा तो मुख्तार साहब की प्रेरणा से 'परीक्षा सम्पर्क में आ गया था और उन्हें व उनकी सेवाग्रो से मुख और उसका उद्गम' (अनेकान्त ५, ३-४), तत्त्वार्थ परिचित होने लगा था। पर २४ अप्रेल १९४२ में जब सूत्र का मङ्गलाचरण (अने० ५, ६-७), 'समन्तभद्र और नियुक्त होकर वीर सेवा मन्दिर मे पहुँचा और लगभग । दिग्नाग मैं पूर्ववर्ती कौन' (अने० ५, १२) जैसे शोधात्मक उनके तत्त्वावधान में पाठ वर्ष साहित्य सेवा करने का अव- लेख लिखे, जो उसी वर्ष लिखे गये । इन लेखों में मुख्तार सर मिला तो उनकी शोध-खोज की गहरी पैठ और अटूट साहब ने जो परिमार्जन किया उसके सामने मेरे पूर्व के Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कार्य उन्होंने अकेले किया वह बहतों द्वारा सम्भव नहीं २६५ लेख मुझे स्वयं श्रीहीन प्रतीत होने लगे थे। यह सम्पादन पूज्यपाद उपासकाचार आदि कितने ही ग्रन्थों की परीक्षा वे प्रत्येक लेख मे किया करते थे और तभी वे उसे अने- करके मुख्तार साहब ने इन ग्रन्थों की पोल खोली तथा कान्त के योग्य समझते थे। यही कारण है कि उनकी अमूढदृष्टि अङ्ग का प्रचार किया। मुख्तार साहब की सम्पादकीय टिप्पणियां कभी-कभी लेख से बडी और इन परीक्षायों से बल पाकर पं० परमेष्ठीदास जी न्यायप्राकर्पक होती थी। वस्तुत: उन जैसा सम्पादक दुर्लभ है। तीर्थ ने भी चर्चा सागर जैसे ग्रन्थों की समीक्षा का साहस किया, जिसे उन्होने हाल के पत्र में स्वयं स्वीकार शोध-खोज की कोई नयी बात जब उनके सामने लाई किया है। जाती थी तो वे बड़े प्रसन्न होते थे। यथार्थ में उनका मार्च १९५० मे एक बात को लेकर वीर सेवा समग्र जीवन शोध-खोज में रत रहा। अनेकान्त की फाइलों मन्दिर मे अलग हो गया था। पर मैं उसके बाद भी को उठाकर देखे तो यही सब उनमे भरा हुया है। चाहे उनके कार्यो का सदा प्रशसक रहा तथा वे मेरे स्वाभिमान कोई नया स्तोत्र मिला हो, या किसी नये ग्रन्थ की उप एव खरेपन को जानते रहे। तथा मुझे पूज्य मुनि श्री लब्धि हुई हो या नये प्राचार्य का परिचय प्राप्त हुमा हो समन्तभद्र जी के पास कुम्भोज बाहुबली ले गये और या कोई नयी बात मिली हो, यह सब वे अनेकान्त में देते थे। ग्रन्थों की प्रस्तावनामों मे भी वही शोधात्मक प्रवृत्ति वहाँ से पाकर उन्होने जुलाई १९६० मे अपना धर्म पुत्र बनाया । यद्यपि बीच बीच मे कभी पत्र व्यवहार द्वारा दिखायी देती है। विद्वान् पात्र स्वामी को ही विद्यानन्द कटुता भी पायी, परन्तु मेरी उनके प्रति श्रद्धा और समझते थे, परन्तु मुख्तार साहब ने अकाटच प्रमाणो द्वारा उनका मेरे प्रति आकर्षण बने रहे। फलतः बाराणसी यह प्रकट किया कि दोनों प्राचार्य भिन्न है, दोनो की पाने पर भी वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट का मत्रित्व १९६० से रचनाएँ भिन्न है और दोनों का समय भी भिन्न है मुझ पर ही रहा और समाधिमरणोत्साह दीपक, दोनों में लगभग दो सौ ढाई सौ वर्ष का अन्तर है। पात्र युगवीरनिबन्धावली (१-२ भाग), तत्त्वानुशासन और स्वामी ६-७वी शताब्दी के विद्वान् है और विद्यानन्द हवीं प्राप्तमीमासा ग्रन्थ ट्रस्ट के द्वारा प्रकाशित किये गये तथा शती के । पंचाध्यायी का कर्ता अमृतचन्द्र को माना जाता मत्री की हैसियत से मै उनका प्रकाशक रहा । मुझे और था, किन्तु मुख्तार साहब ने पुष्ट प्रमाणो द्वारा सिद्ध अन्य पाठ ट्रस्टियों को जो अपने ट्रस्ट का कार्य विधिवत् किया कि पंचाध्यायी के कर्ता प० राजमल जी है, जिन्होने उन्होंने सौपा है उसमे उनके उन उद्गारो के विश्वास की लाटीसहिता आदि ग्रन्थ रचे है। स्वामी समन्तभद्र को सम्पुष्टि होती है जो वीर सेवा मन्दिर मे मेरे पहुँचने पर विद्वान् और समाज नहीं के बराबर जानते थे, पर मुख्तार उन्होने अपने 'वसीयतनामा' की रजिस्ट्री करने के लिए साहब ने विपुल प्रमाणो को एकत्रित कर उनके गौरव को सहारनपुर जाते समय कहे थे । प्राशा है उसके विश्वास जैसा बढ़ाया है वह सर्व विदित है। 'स्वामी समन्तभद्र' मे को हम लोग अवश्य निभा सकेंगे। उन्होंने प्राचार्य समन्तभद्र का ही परिचय प्रस्तुत नही वीसवी सदी का यह साहित्य स्वयम्भू, अनुसन्धान किया, अपितु कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छ, पूज्यपाद, प्रादि दर्जनों प्रवृत्तिका प्रेग्क, लेखनी का धनी, जन जागरण का अग्रप्राचार्यो-ग्रन्थ लेखको को प्रकाश में लाया गया और समाज दूत, निष्पक्ष समालोचक, निर्भीक पत्रकार, साहसी ग्रन्थ को उनसे परिचित कराया है। समीक्षक, जैनाचार्यों के इतिहास का निर्माता, समन्तभद्र ग्रन्थ-परीक्षाएँ लिखकर तो उन्होने बड़े साहस और का अनन्य भक्त क्षौर जिनवाणी का परम साधक २२ दृढता का कार्य किया है। बड़े-बडे प्राचार्यों या जिनवाणी दिसम्बर १६६८ को सदा के लिए हम लोगो से विमुक्त के नाम पर लिखे गये उमास्वामि श्रावकाचार, कुन्दकुन्द हो गया। उन्हें हमारा श्रद्धापूर्ण एव परोक्ष शत-शत श्रावकाचार, जिनसेन त्रिवर्णाचार, अकलङ्क प्रतिष्ठा पाठ, वन्दन और प्रणाम Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + श्री जुगलकिशोर जी "युगवीर" रामकुमार जैन एम. ए., बी. टी. साहित्याचार्य युगवीर ! युग युग अमर है जग में तुम्हारी साधना ॥ है अमर "मेरी भावना" में, शुभ तुम्हारी भावना ।। + + + तज कर वकालत क्यों भला साहित्य सेवा भा गई। कंचन-गली में, यह अकिंचनता-छटा क्यों छा गई । सेवा के सरसिज खिल गये, सरसावा-सर सरसा गया। एकान्त दृढ़ संकल्प में भी, 'अनेकान्त' समा गया । छोड़ा न तुमने सत्य-पथ, सह कर हजारों यातना । युगवीर ! युग युग अमर है जग में तुम्हारी साधना ॥ कितने निकाले रत्न थे, इतिहास-रत्नागार से । है "बोर-मन्दिर" सज रहा, अब भी उसी श्रृंगार से ।। निर्भीक अपनी घोषणा का पांखरव करते रहे। जो सत्यपथ समझा उसी पर निडर हो बढ़ते रहे ॥ हे तर्क पंचानन ! तुम्हारा कौन करता सामना। युगवीर ! युग युग अमर है जग में तुम्हारी साधना ।। साहित्यसेवी, दीर्घजीवी और मन से विमल थे। कर्तव्य में पवि, स्नेह-सौरभपूर्ण कोमल कमल थे ॥ थी रम्य सम्पादन कला, शतशः निबन्ध लिखे गये । मानस-जलधि से निकलते थे नित्य रत्न नये नये ॥ जो कर्मवीर, उसे भला क्या मानना, अवमानना । युगवीर ! युग युग अमर है जग में तुम्हारी साधना ॥ अन्तिम समय भी बन गये तुम दानवीर महामना । अपने कमाये द्रव्य से कर ट्रस्ट की शुभ स्थापना । होकर वियुक्त चले गये हो यदपि भौतिक देह से। लेकिन मनीषी-मानसों में अमर हो बहु स्नेह से । हम करेंगे उस कार्य को, जो थी तुम्हारी कामना। युगवीर ! युग युग अमर है, जग में तुम्हारी साधना ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग परिवर्तक पीढ़ी की अंतिम कड़ी थे युगवीर श्री नीरज जैन पहिली बार ईसरी मे पूज्य वर्णी श्री गणेशप्रसाद जी जाना अधिक उपयुक्त होगा। के पास मुख्तार सा० को देखा था। स्व. बाब छोटेलाल मुझे लगा कि हम लोगों के जन्म के पूर्व से प्रचलित जी से मुख्तार सा० के मतभेदों को लेकर बाबा जी के और सर्व स्वीकृत पाठ में परिवर्तन का सुझाव मुख्तार पास कुछ बाते पहुंची थीं और उन्ही की सफाई दोनो सा० को शायद रुचिकर न होगा; पर मुझे आश्चर्य हा पक्षों से प्रस्तुत की जा रही थी। मुझे अच्छी तरह याद कि उन्होंने इन सुझावों का न केवल स्वागत ही किया है कि मतभेदो की तेजी या कड़वाहट तब तक बहुत हल्की वरन् इन उपयुक्त सुझावों के लिये स्वरूपचन्द्र जी को पड चुकी थी और दोनों कर्मवीर महापुरुषों का पक्ष सम- धन्यवाद भी दिया। र्थन बहत सौजन्यता पूर्ण ही बाबा जी के समक्ष हो रहा इसके बाद भगवत् समन्तभद्राचार्य के इतिहास को था। इसके पूर्व 'मेरी भावना' के माध्यम से ही उन्हें लेकर उनसे पत्र-व्यवहार हुँप्रा जो लगभग उनके जीवन जानता था। कुछ लेख भी पढ रखे थे और उनके कर्मठ के अन्त तक किसी न किसी प्रकार चलता ही रहा। व्यक्तित्व की जो काल्पनिक तसवीर मैने बना रखी थी, वास्तव में हमारे गौरवमय इतिहास को देखने जानने उन्हें उसके अनुरूप ही पाया। कभी इतनी सहजता से के लिये मुख्तार सा० ने समाज के एक सजग नेत्र का उनका दर्शन हो जायगा और इतनी निकटता से उनसे काम किया। प्रसिद्ध शोधक विद्वान स्व. श्री नाथूराम मिल सकूगा ऐसी आशा उस समय तक मैने नही की थी। प्रेमी को दूसरा नेत्र मान लें तो जैन साहित्य के इतिहास दूसरी बार दिल्ली में उनके दर्शन का सौभाग्य का शोध वरने, उसे नई दृष्टि से परीक्षण के निकष पर मिला। श्री रतनलाल मालवीय उन दिनो के केन्द्रीय कसने और उसकी टूटी तथा बिखरी कड़ियों को एकत्र शासन मे उपमन्त्री थे। उनके यहाँ ही कुछ मित्रों से करके जोड़ने के अथक अध्यवसाय की कहानी बन जाती चर्चा मे ज्ञात हुआ कि श्री मुख्तार सा० आजकल दिल्ली है। निश्चय ही इस युग के साथ पुरातत्व के भूमिगत तथा मे ही है । शाम को हम लोग मिलने चले गए। जबलपुर विलुप्त प्राय अवशेषों तक अपनी तीक्ष्ण तथा सूक्ष्म दृष्टि मे सम्प्रति "जगवाणी" के सम्पादक श्री स्वरूपचन्द जैन पहुँचाने वाले स्व. बाबू छोटेलाल को तृतीय नेत्र की तरह मेरे साथ थे। स्थापित करना होगा। अनेक रूढ़ियों का उन्मूलन करने ____ मुख्तार सा० वीर सेवा मन्दिर के भवन में एक छोटे में. अनेक गल में, अनेक गलत मान्यतामों का खण्डन करने में और कमरे में बैठे हुए थे। सक्षिप्त से पूर्व परिचय के आधार हमारे गौरवशाली अतीत की अनेक गौरव-गाथानों पर उनसे थोड़ा वार्तालाप हुया उन्होने पहिचान भी लिया से हमे परिचित कराने में त्रिनेत्ररूपी इन विभूतियों का और बड़ी आस्था-भक्ति पूर्वक पूज्य वर्णी जी महाराज का जो महत्वपूर्ण योगदान रहा है उसका सही मूल्यांकन पाने स्मरण किया। वाली पीढी ही कर सकेगी। इसी समय मेरे साथी स्वरूपचन्द्र जी ने मेरी भावना श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' उस युग परिवर्तक में दो संशोधन करने का सुझाव मुख्तार सा० को दिया। पीढी की अन्तिम कड़ी थे। उन्होने अपने जीवन के अन्तिम उनका प्रस्ताव था कि क्षणों तक प्रथक रूपेण कार्य करके कर्मठता का श्रेष्ठ "पर धन वनिता पर न लुभाऊँ" के स्थान पर "पर उदाहरण हमारे समक्ष प्रस्तुत किया। उनकी सद्गति की घन पर तन परन लुभाऊँ" और "धर्म निष्ठ होकर राजा कामना के साथ उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलियां अर्पित भी" के स्थान पर "धर्म निष्ठ होकर शासक भी" पढ़ा करना हमारा कर्तव्य है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-गगन का एक नक्षत्र अस्त श्री बलभद्र जैन न्यायतीर्थ मेरी भावना' के अमर उद्गाता आचार्य युगलकिशोर अनाचार पोपक ग्रन्थों को सर्वसाधारण श्रद्धा से मान रहा 'युगवीर' का ६२ वर्ष की अवस्था मे दिनांक २२ दिसम्बर था . यह देखकर आपके हृदय को अत्यन्त पीड़ा होती को एटा में स्वर्गवास हो गया, इस समाचार को पढ़कर थी। अपनी इस पीड़ा की चर्चा आपने अपने मित्र वा० सभी स्तब्ध रह गये। अभी दि० ६-११-६८ को भारत- सूरजभान जी वकील से की। दोनो ने इस प्राचार का वर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद ने एटा में उनका विरोध करने का सकल्प किया और इसके लिये एक साथ सार्वजनिक सम्मान किया था। किन्तु यह किसे पता था १२ फरवरी १९१४ को अपने पेशे को छोड़ दिया और कि सम्मान-समारोह के डेढ माह पश्चात् ही उनका जैन वाङ्मय और जैनधर्म की सेवा मे जुट पड़े। आकस्मिक निधन हो जायगा। विधि का यह कैसा क्रूर अनेक भट्टारको ने जैन मान्यताओं के विरुद्ध ग्रन्थों व्यग्य है। की रचना कर डाली थी। उससे जैन समाज मे नाना आपका जन्म मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी विक्रम प्रकार की मूढ़ताओं का प्रचार हो रहा था। भट्टारक संवत् १९३४ को सन्ध्या समय (सरसावा जिला सहारन समाज की श्रद्धा के पात्र रहे है। अतः उनकी रचनाओं पुर) में माता भूईदेवी की कुक्षि से हुअा। आप के पिता का आदर, पठन-पाठन खूब होता था । सम्भवतः इतिहास का नाम चौधरी नत्थूमल जी अग्रवाल था। तब किसे मे प्रथम बार मुख्तार साहब ने बड़े परिश्रम से भट्टारको पता था कि बह बालक सरस्वती का वरदान प्राप्त करके की रचनाओ का अध्ययन करके जैनधर्म के विरुद्ध मान्य और समाज की जीर्णशीर्ण रूढ़ियो पर बज्र प्रहार करके ताओ की कड़ी आलोचना की और 'ग्रन्थ-परीक्षा' का एक सामाजिक क्रान्ति करेगा; प्राचार्यों के नाम पर प्रणयन किया। इस ग्रन्थ के प्रगट होते ही समाज में ग्रन्थ-रचना करने वाले भट्टारकों की प्रक्षित रचनाओं खलबली मच गई। जैन विद्यालयों में से ऐसी रचनायो की शल्यक्रिया करके; दिगम्बर जैनाचार्यों के प्रामाणिक का बहिष्कार हआ। मन्दिरो मे से भट्टारकों के ऐसे ग्रन्थों जीवन-इतिहास की शोध खोज की दिशा में नये कीति- का बहिष्कार हया। उस समय जिन पडितो ने मुख्तार मान स्थापित करेगा; और जैन वाङमय की गरिमा को । साहब का विरोध किया, उन पडितो के सम्मान को भी सरस्वती-पुत्रों के समक्ष सिद्ध करेगा। गहरा आघात लगा। विद्वानो ने तभी मुख्तार साहब की बचपन में आपने उर्दू, फारसी, हिन्दी, संस्कृत और प्रतिभा और विद्वत्ता का लोहा मान लिया। अंग्रेजी का अध्ययन किया। बारह वर्ष की अवस्था मे इन्ही दिनो माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। दो आपका विवाह हो गया। बचपन से ही जैन शास्त्रो का पुत्रियाँ हई-सन्मतिकूमारी और विद्यावती । और दोनो स्वाध्याय करने की आपकी प्रवृत्ति रही । मुख्तारकारी को का क्रमशः ८ वर्ष और तीन माह की आयु में निधन हो परीक्षा देकर अदालत मे मुख्तार हो गये । दस वर्ष तक गया। और १५ मार्च १९१८ को आपकी जीवन सगिनी आपने यह व्यवसाय किया। इस काल मे अपने पेशे मे पत्नी भी आपका साथ छोड़कर सदा के लिये चली गई। अापने पर्याप्त यश और धन अजित किया। यद्यपि यह घोर संकट आ पड़ा था। किन्तु साधना संकटों के वकालत का पेशा झूठ के बिना नही चलता, किन्तु बिना चलती कहाँ है । अब गार्हस्थिक झंझटों और मापका नियम था कि झूठा मुकदमा नही लेना। और चिन्तामों से निराकुल होकर वे एकात्म्य भाव से जैन आपने इस नियम का निर्वाह अन्त तक किया। वाङमय की सेवा में ही जुट गये। व्यवसाय के साथ-साथ आपकी ज्ञान-साधना भी चल आप बहुत समय तक जैन गजट के भी संपादक रहे । रही थी। उन दिनों भट्टारकों की भ्रष्ट प्रवृत्तियों और मापने २१ अप्रैल सन् १९२६ में दिल्ली में समन्तभद्राश्रम Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-गगन का एक नक्षत्र प्रस्त २६६ की स्थापना की। इसी प्राश्रम को वीरसेवामदिर भी कहते रहे । उन्होंने दिल्ली में रहकर भी समन्तभद्र स्वामी के थे। इसकी अोर से 'अनेकान्त' नामक एक पत्र निकाला। प्रथों का भाष्य, अनुवाद किया, तत्वानुशासन ग्रन्थ की वीर सेवा मदिर एक प्रकार से जैन समाज का शोध विस्तृत टीका की। उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि रही संस्थान था, जहाँ विविध शोध खोज, सपादन, ग्रन्थ-प्रणयन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर पर एक स्वतन्त्र निबन्ध । इसमें के कार्य पलते थे। कई विद्वान भी रहते थे। आपने उन्होने अनेक प्रमाणो और तर्कों से यह सिद्ध किया है कि अपनी समस्त सम्पति का दुस्ट कर दिया और इस ट्रस्ट से सिद्धसेन दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य थे। वीर सेवा मदिर का सचालन होता था। मुख्तार साहब जो कुछ लिखते थे वह सप्रमाण, वीर सेवा मन्दिर कुछ वर्प दिल्ली रहकर सरसावा । सयुक्तिक । उनके प्रमाण अकाट्य होते थे, उनकी युक्ति में मे चला गया। सरसाबा में इस सस्था ने शोध-खोज का प्रौढता रहती। उनकी भाषा प्रांजल थी। वे कवि निबंधबहुत महत्वपूर्ण कार्य किया। पुरातन जैन वाक्य सूची कार भाष्यकार, टीकाकार, समीक्षक सभी कुछ थे। उनके जैन लक्षणावली, अनेक दिगम्बर जैनाचार्यों का काल ग्रन्थों की प्रस्तावनायें स्वतंत्र ग्रथों से कम नहीं है। उनकी निर्णय और उनका प्रामाणिक इतिहास, स्वोपज्ञ ऐतिहासिक खोजे ऐसी है जिनको इतिहास जगत में प्रमाण तत्त्वार्थाधिगम भाप्य स्वय प्राचार्य उमास्वामी की रचना माना जाता है और इतिहासकार जिनके लिए मुख्तार है इसके सम्बध में प्रामाणिक निर्णय स्वामी साहब के सदा ऋणी रहेंगे। उनकी एक कृति मेरी भावना समन्तभद्र का प्रामाणिक इतिहास ग्रादि महत्वपूर्ण कार्य ता एक राष्ट्राय गात हा बन यहीं पर हुए। वास्तव में सरसावा मे बीर सेवा मन्दिर ने नारी नित्य पाठ करते है। जा काय किया, वह जन वाहमय के इतिहास में अमर मुख्तार साहब कहा करते थे कि मै सौ वर्ष तक रहेगा । सौभाग्य से मुख्तार साहब को प० दरबारीलालजी जीऊगा। मुझे अभी बहुत कार्य करना है। जब तक वे कोठिया, प० परमानन्द जी जैसे प्रतिभा के धनी विद्वानी जिए सदा कार्य करते रहे। अपने एक-एक क्षण का का सहयोग भी मिल गया, जिससे कार्य में पर्याप्त उपयोग उन्होने जैन साहित्य निर्माण के लिए किया। प्रगति हुई। किन्तु विधि का यह क्रूर विधान ही कहना चाहिए कि वीर सेवा मन्दिर सरसावा से दरियागंज में निर्मित उनकी सौ वर्ष जीने की इच्छा पूरी नही हो पाई और अपने भवन में पुनः दिल्ली मे पा गया। यहा पाकर कुछ वे पहले ही चले गये। जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी वों के पश्चात् वीर सेवा मन्दिर दो भागो में बंट एक ही इच्छा रही कि समन्तभद्र-भारती के प्रचार-प्रसार गया-वीर-सेवा-मन्दिर और वीर सेबा मन्दिर ट्रस्ट । के लिए विद्वानो की एक सस्था का निर्माण हो, जहा से वीर सेवा मन्दिर का सचालन बा० छोटेलाल जी सरावगी एक पत्र का प्रकाशन हो । इस कार्य के लिए उन्होंने एक और वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट का सचालन मुख्तार साहब के अच्छी निधि स्वय देने की इच्छा प्रकट की थी। किन्तु वे नेतृत्वमे होने लगा । यह कहता शायद अधिक उपयुक्त होगा अपनी इच्छा को मूर्त रूप न दे सके। यदि वैसी सस्था कि दिल्ली देश की राजधानी है। यहा राजनैतिक और का निर्माण सभव न हो और वीर सेवा मन्दिर और ट्रस्ट कूट-नैतिक गतिविधियाँ प्रमुख रूप से होती है । वीर सेवा दोनो का एकीकरण करके उनकी इच्छा के अनुरूप वहा मन्दिर पर भी इन गतिविधियों का प्रभाव पड़ा और वह कार्य किया जा सके तो इससे उनकी इच्छा की कुछ पूर्ति वर्षों तक कूटनैतिक भवर मे पड़ा रहा और जो कार्य इस भी हो सकेगी और उपयोगी कार्य भी हो सकेगा । क्या संस्था से अपेक्षित था, वह शायद न हो सका। वीर सेवा मन्दिर और ट्रस्ट के अधिकारी हमारे इस निवेदन पर ध्यान देगे। हमारी दृष्टि से मुख्तार साहब के किन्तु मुख्तार साहब की साहित्यिक प्रवृत्ति तो जैसे प्रति सच्ची श्रद्धांजलि एक ही होगी-उनकी अन्तिम इच्छा उनकी प्रकृति ही थी। वे सतत साहित्य निर्माण में लगे की पूर्ति । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास का एक युग समाप्त हो गया डॉ० गोकुलचन्द्र जैन एम. ए., पो-एच. डी. आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार के निधन से प्राचीन विद्वानो के प्रति उनका महज अनुराग कई दशकों के उम्र जन वाङ्मय और संस्कृति के ऐतिहासिक अध्ययन का का अन्तर भूल जाता था। उनसे लगभग एक तिहाई एक युग समाप्त हो गया। बीसवी शती के लगभग प्रथम उम्र में होने पर भी मैने उनकी प्रात्मीयता बहुत पायी। चरण से जैन समाज के पुनर्जागरण तथा जैन वाङ्मय मुझे लगता "गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ और संस्कृति के ऐतिहासिक अध्ययन का जो सूत्रपात प्रावे" मस्तार सा० के कवि मन की अन्तर्वाणी है। हया तथा पिछले लगभग सात दशकों में जन जागरण मुख्तार सा. के स्वर्गवास के कुछ महीने पूर्व जैन और अध्ययन-अनुसन्धान के जो प्रयत्न हुए, उनके सूत्र- सदेश में प० दरबारीलाल जी कोठिया ने मुख्तार सा० घारों की अन्तिम कड़ी थे मुख्तार सा० । बैरिस्टर का एक पत्र प्रकाशित किया था। मैने उस पर एक चम्पतराय, अर्जुनलाल सेठी, सूरजभान वकील, ब्र० टिप्पणी संदेश मे लिखी थी। उसमे मैंने मुख्तार सा. की शीतलप्रसाद, अजितप्रसाद जिंदल, पं० नाथराम प्रेमी, समन्तभद्र स्मारक योजना तथा समन्तभद्र पत्र के प्रकाशन कामताप्रसाद जैन आदि सब प्रकारान्तर से एक ही महा- के सम्बन्ध में अपना अभिमत व्यक्त करते हुए सुझाव यज्ञ के होता थे । समाज सुधारकों ने उस समय सामाजिक दिया था कि समन्तभद्र के विचारों का देश विदेश में क्रान्ति का जो विगुल बजाया था, उसे शास्त्रीय प्रमाणो प्रचार हो, इसके लिए समन्तभद्र के सभी ग्रन्थों का मूलाका ठोस और स्थिर प्राधार देकर मुख्तार सा. ने क्रान्ति नुगामी हिन्दी अनुवाद के साथ देवनागरी लिपि में तथा के उद्घोष को और बुलन्द किया था। वे उस पीड़ा की मूलानुगामी अंग्रेजी अनुवाद के साथ रोमन लिपि मे दो अंतिम कडी थे। उनके निधन से वह भी टूट गयी । और जिल्दो में ग्रन्थावनी के रूप में प्रकाशित हो तथा तीसरी इस तरह जैन समाज के इतिहास का एक युग समाप्त जिल्द मे समन्तभद्र के शब्दो का इण्डक्स समन्तभद्र भारती हो गया। कोग के रूप में प्रकाशित किया जाये। मेरे विचार उन्हे ____ मुख्तार सा० के निधन का समाचार मुझे दिल्ली में बहुत ही पसन्द आये इसलिए उन्होने 'स्वामी समन्तभद्र मिला था । उस समय मै लक्षणावली की पाण्डुलिपि देव के विचारों का प्रचार" शीर्षक से उस पर एक लम्बी रहा था। लक्षणावली के साथ मुख्तार सा० का अनन्य टिप्पणी जैन सदेश के १७ अक्तूबर १६६८ के अक मे सम्बन्ध है। वास्तव में यह उन्ही की परिकल्पना है। प्रकाशित की । उनकी वह टिप्पणी अब एक ऐतिहासिक सयोग ही कहना चाहिए कि इस कार्य में अनेक बड़े-बड़े दस्तावेज बन गयी है, इसलिए मै उसे यहाँ अविकल उद्धृत विद्वानो के हाथ लगे फिर भी मुख्तार सा. के जीवनकाल करना उपयोगी और महत्त्व का समझता हूँ । वह इस मे उसका कार्य पूरा नहीं हो सका। प्रकार हैमुख्तार सा० से मैं सन् १९६० मे पहली बार दिल्ली जैन सदेश के गत २६ अगस्त के विशेषाङ्कनं० ३१ मे मिला था। उसके बाद तो उनके साथ पत्र व्यवहार से में डॉ. गोकुलचन्द्र जी जैन एम० ए० पी० एच० डी० निरन्तर सम्पर्क बना रहा । एकाधिक बार पुन: मिलना का लेख प्रकाशित हुया, जिसका शीर्षक है 'प्राचार्य समन्तभी हरा । मैंने उन्हें हमेशा ज्ञानोपयोग में निरत पाया। भद्र और प० जुगलकिशोरजी मुख्तार'। यह लेख प० ___ मुख्तार सा० की एक विशेषता ने मुझे बहुत अधिक दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्य के उस लेख को लक्ष्य प्रभावित किया। उनमे गुरुडम तनिक भी नहीं था। करके लिखा गया है जो गत ४ जुलाई के संदेश में प्रका Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास का एक युग समाप्त हो गया २७१ शित हुआ है और जिसमे कोठिया जी ने मेरे एक पत्र को एक बड़ा काम है और उसमें कई निष्ठावान् विद्वानों एवं महत्वपूर्ण समझकर प्रकाशित किया है। लेख मे डॉ साहब श्रीमानो की जरूरत है। परन्तु यह काम वर्तमान मे ने अगस्त १९६५ मे प्रकाशित मेरी 'समन्तभद्र-स्मारक- असम्भाव्य हो अथवा अधिक देरतलब हो, ऐसा कुछ नहीं योजना का उल्लेख करते हुए लिखा है :- है। जिस समाज में साहू शान्तिप्रसादजी जैसे दानी प्रति___ "प्राचार्य समन्तभद्र के समन्तात् भद्र विचारों के वर्ष एक ग्रन्थ पर एक लाख रुपये का पुरस्कार देने वाली प्रचार हेतु उनके (मेरे) मन में जो उत्कट भावना है वह कावना है व भारतीय ज्ञानपीठ जैसी सस्था और श्री बाहुबलि श्रवण भारतीय ज्ञानपी किसी भी साहित्य और सस्कृति-प्रेमी के लिए समादर बेलगोल के मस्तकाभिषक कलश का बाल वेलगोल के मस्तकाभिषेक कलश की बोली प्रायः पचास और प्रेरणास्पद है। तिरानवें वर्ष की उम्र में भी हजार में लेने वाले नवनरत्न, उदारमना, शासनभक्त जैसे साहित्य-सेवा के प्रति उनकी लगन और दृढता नयी पुरानी महाभाग्य मौजूद हों उसमे शासन-प्रभावना के ऐसे महान् सभी पीढियों के लिए स्पृहणीय है।" कार्य में योग देने वाले श्रीमानों की क्या कमी रह सकती इस वाक्य में मेरी उम्र जो तिरानवें वर्ष की लिखी है ? बशर्ते कि विद्वान् लोग उन्हे उसके लिए सच्ची है उसके सम्बन्ध में मैं पहले दो शब्द लिख देना चाहता सक्रिय प्रेरणा प्रदान करे। यह विद्वानों में निष्ठा तथा उत्साह आदि की कमी का ही परिणाम है जो आज समय हूँ; क्योंकि यह एक गलती है, न लिखू तो गलती का प्रचार होता है और वह रूढ बनती है । मेरा जन्म मग ___ को अनुकूलता और साधनों की प्रचुरता एव सुलभता सिर सुदी एकादशी संवत् १९३४ का है, इससे मेरी उम्र होते हुए भी जिन शासन का वह प्रचार नहीं हो रहा है ६१ वर्ष चल रही है-मगसिर सुदी दशमी तारीख २६ जो होना चाहिए था और जिसकी आज बडी आवश्यकता नवम्बर १९६८ को ६१ वर्ष पूरे होंगे । इससे प्रायु में दो है। विदेशों मे जिन शासन-ज्ञान की मांग है परन्तु उसको वर्ष की वृद्धि ठहरती है अथवा भुज्यमान आयु मे दो वर्ष देने वाले आगे नही पा रहे है। स्वामी समन्तभद्र ने की कमी हो जाती है । यह कमी डॉ० साहब की अपनी साधनों की कमी और दुर्लभता के होते हुए भी अपने नही किन्तु पूर्व लेख से सम्बन्ध रखती है, उसमे कोठिया समय मे श्री वीर जिन-शासन की हजार गुणी वृद्धि की जी से ६१ की जगह ६३ का अक या तो गलत लिख गया ह है. जिसका एक प्राचीन कनडी शिलालेख मे उल्लेख है; है अथवा गलत छप गया है। उनसे पूर्व पं० कैलाशचन्द्र । तब हमारे योग्य विद्वान् एवं त्यागी महानुभाव स्वामीजी जी शास्त्री ने भी प्रायु के उल्लेख मे प्रायः एक वर्ष की का अनुसरण क्यों नहीं करते और क्यो वर्तमान साधनों गलती की थी-६१ जन्मदिवस को ६१ वर्ष पूरे हुए से अधिकाधिक लाभ उठाकर उनसे भी अधिक प्रचार समझकर जैन सदेश मे १२ वर्ष की आयु लिख दी थी। कार्य मे प्रवृत्त होते ? उन्हे स्वामी जी का यह वचन, जो सभव है उसी सिलसिले में कोई ६ छह महीने बाद ये ९२ शासन की भरपेट निन्दा करने वालों को भी सन्मार्ग पर के ६३ वर्ष बन गये हो। अस्तु, पाठको को यह गलती अथवा शासन की शरण में लाने की अपूर्व शक्ति-सामर्थ्य सुधार लेनी चाहिए। का सूचक है, सदा ध्यान में रखना चाहिए और अपने ___मेरी 'समन्तभद्र-स्मारक-योजना' को जिसके साथ हृदय मे भय, निर्बलता, कायरता, अनुत्साह को दूर भगा'समन्तभद्र' मासिक पत्र का प्रकाशन भी है, "बहुत ही कर प्रबल पुरुषार्थ का आश्रय लेना चाहिए, फिर कोई अच्छा" बतलाते हुए डॉ० साहब ने लिखा कारण नही जो अनुकूल ममय के होते हुए भी समन्त"पर यह एक बड़ा कार्य है। इतने बड़े कार्य के लिए भद्रोदित जिनशासन के प्रचार मे सफलता प्राप्त न होवेकई निष्ठावान् विद्वानों एव श्रीमानों को इस कार्य में कामं द्विषन्नप्युपपत्ति चक्षुः अपने को लगाना होगा। स्थिति को देखते हुए यह काम समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । जल्दी सम्भाव्य मालूम नहीं होता।" त्वयि ध्रवं खण्डित-मान-श्रृङ्गो इसमें संदेह नहीं कि स्मारक की योजना का काम भवत्यभद्रोऽपि समन्तभवः । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अनेकान्त डॉ. साहब ने प्राचार्य समन्तभद्र के साहित्य को किन्तु यथास्थान अनुक्रम से दिये जाये और धातु के 'धा देश और विदेशों के विद्वानों तथा जनसामान्य के समक्ष अकट में दिया जाये, फिर लकारो के रूप भी शब्दानुक्रम लाने के हेतु पहली आवश्यकता तो यह व्यक्त की है कि से दिये जाये । उस साहित्य के प्रामाणिक संस्करण उपलब्ध हों, दूसरी (६) यौगिक शब्दों का पृथक्-पृथक् निर्देश हो। आवश्यकता यह है कि मेरे द्वारा हिन्दी अनुवाद और (७) क्त्वा,, तु के रूप धातुप्रो में दिया जाये । विस्तृत प्रस्तावना आदि के साथ प्रकाशित समन्तभद्र स्थल के अनुरूप इसमे शब्दो के हिन्दी अर्थ की का एक ऐसा सस्करण प्रकाशित हो जिसमें सब योजना करनी अवशिष्ट है, जिसके हो जाने पर कोश ग्रन्थ मुलानूगामी हिन्दी अनुवाद के साथ हो। इसी तरह परा हो सकेगा। सब ग्रंथों का रोमनलिपि में रूपान्तर तथा मूलानुगामी इममें सदेह नही कि सबसे पहले पांचों ग्रथों का एक अंग्रेजी अनुबाद भी हो, जो अंग्रेजी के माध्यम से पढने प्रामाणिक शुद्ध मस्करण तैयार हो जाना चाहिए । मूलानुवालों तथा विदेशों में प्रचार की दृष्टि से उपयोगी और गामी हिन्दी अनुवाद मे फिर कोई दिक्कत नहीं, वह एक महत्त्वपूर्ण हो। इस तरह दो जिल्दों में ग्रंथावली के तरह से तो प्रायः तैयार जमा ही है-कही-कही कुछ निकल जाने पर तीसरा आवश्यक कार्य समन्तभद्र भारती शब्द परिवर्तन की शायद जहरत पड़े । अंग्रेजी अनुवाद कोश' का होगा, जिसके विषय में उन्होने मेरी दृष्टि को उमी के आधार पर हो जावेगा। प्रामाणिक सस्करण की जानना चाहा है और शब्दो का इन्डेक्स पहले तैयार होना व्यवस्था का काम डॉ० साहब को स्वयं अपने हाथ में पावश्यक व्यक्त किया है। इन्डेक्स तो कई वर्ष से तैयार लेना चाहिए और उसकी चर्चा को शीघ्र ही एक दो पत्रों है-१६६ पृष्ठों पर है और इसमें स्वामी समन्तभद्र के में चला कर विद्वानों को उसमे लगाना चाहिए। फिर उपलब्ध पांचों ग्रन्थों के सभी शब्दो का सकलन है ---कौन ५ या ७ विद्वानो की एक समिति बैठकर उसका प्रतिम शब्द किस ग्रंथ में कहाँ कहाँ पर कैसे प्रयुक्त हुआ है यह निर्णय कर देगी, और तव बारमेवामंदिर ट्रस्ट की ग्रथ सब उसमे दर्शाया है । इसके निर्माण मे जिस दृष्टि अथवा माला में 'समन्तभद्रभारतीकोश' को भी पूरा करके प्रकाश शैली को अपनाया गया है उसका सूचक एक पर्चा भी। मे ले आया जायेगा। साथ में सलग्न है जो इस प्रकार है अब रही 'ममन्नभद्र' मामिक की बात, जो स्मारक (१) शुरू मे मूल शब्द अविभक्तिक दिया जाये और की योजना-उपेक्षा एक बहुत छोटा कार्य है, उसका उक्त फिर उसके पुलिंग और स्त्री-नमक रूपों को अकागदि कार्यों की दृष्टि से स्थगित रखना किसी तरह भी उचित क्रम से दिया जाये। नहीं है। उसे तो शीघ्र से शीघ्र निकालना चाहिए । वह (२) ग्रन्थ के समस्त पदों के पृथक्-पृथक् शब्द हो पत्र ही विद्वानो तथा अन्य जनों में चेतना उत्पन्न करेगा यथा स्थान दिये जाये और ऐसे समस्त पद भी ग्रहण और उन्हे अपने-अपने कर्तव्य पालन में जागरूक एव किये जाये जिनका अर्थ दृष्टि से पार्थक्य हो; अन्य पारि सावधान बनायेगा । उसके विषय में विद्वत्परिपद् के भाषिक अपार्थक्य द्योतक शब्द भी लिये जावे । अध्यक्ष को जो मैने पत्र लिखा है उसमें अपनी इच्छा को (३) मूलरूप के ग्रहण के साथ ही शब्द की शक्ल व्यक्त करते हए मैने यह स्पष्ट कर दिया है कि विद्वत्पबदलने वाले प्रत्ययों के रूप भी मात्र हाइफन देकर ले रिषद् पूर्णतत्परता के साथ इस पत्र को शीघ्र निकालने लिये जावे। __ की कृपा करे, पत्र की फार्म संख्या ४ से कम न हो, (४) सर्वनाम शब्दों के प्रत्येक विभक्ति के रूप चाहे जिसके प्रायः ढाई फार्मों में स्वामीजी के विचारो का तद्रूप हों चाहे रूपान्तरित हों मूलरूप देकर अकारादिक्रम विवेचन, व्याख्यान, स्पष्टीकरण, रहस्योद्घाटन एवं से उसमे अन्तरित किये जायें। महत्व-ख्यापन रहे । ऐसे खोजपूर्ण लेख भी रहे जो स्वामी (५) सोपसर्ग घातु के रूप मूलधातु के साथ नहीं जी की जीवनी से सम्बन्ध रखते हों और उस पर अच्छा Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार २७३ प्रकाश डालते हों। पत्र का कागज अच्छी क्वालिटी का नफे नुकसान की मालिक विद्वत्परिषद् होगी-मेरा उससे सफेद हो, ३२ पोण्ड से कम किस्म का न हो और उसमें कोई संबंध नहीं रहेगा।' छपाई की शुद्धता एवं सफाई का पूरा ध्यान रखा जाये, ऐसे पत्र की समाज में भाज कितनी बड़ी आवश्यजिससे पत्र आकर्षक तथा रुचिकर हो । पत्र को समाज के कता है । इसे समाज के सच्चे हिषी भले प्रकार समझ झगड़े-टटो से अलग रखा जाये, ऐसा कोई लेख न छापा सकते हैं और उसमें यथाशक्ति अपना-अपना सहयोग देने जाये जो व्यर्थ का क्लेशकारक, वैमनस्योत्पादक, कषाय- के लिए तत्पर हो सकते है। दो चार सक्रिय-सेवाभावी वर्धक अथवा व्यक्तिगत प्राक्षेपपरक हो और वातावरण प्रेरकों की जरूरत है, जिन्हें शीघ्र ही स्वकर्तव्य समझको दूषित तथा प्रशान्त बनाता हो : पत्र को जो भी पढ़े कर आगे आना चाहिए । फिर पत्र को घाटे का भी उसे शान्ति मिले और शुद्ध ज्ञान का लाभ हो, ऐसी दष्टि कभी मुंह नही देखना पड़ेगा और वह समाज का एक बराबर रखी जानी चाहिए । ऐसे पत्र को शीघ्र निकालने प्रादर्श पत्र बन कर रहेगा।" के लिए मै विद्वत्परिषद् को दस हजार देना चाहता हूँ। मुख्तार सा० नही रहे । उनके बाद उनके अनुशसकों इस रकम को तीन वर्ष के घाटे के रूप में समझा जावे, तथा प्रात्मीय जनो का यह पुनीत दायित्व हो जाता है जो किसी तरह भी कम नहीं है। कम से कम तीन वर्ष कि उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये तथा परिकल्पित शोध उक्त पत्र को जरूर निकाला जायेगा ऐसा दृढ़ सकल्प अनुशीलन कार्य को आगे बढ़ाए । यही उनके प्रति सच्ची करके ही कार्य को हाथ में लेना चाहिए, शेष पत्र के श्रद्धांजलि होगी। -: : आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार डा० कस्तूरचन्द काप्तलोवाल एम. ए., पो-एच. डो. अादरणीय मुख्तार सा० ने जैन साहित्य की ७० से भी कैलाशचन्द्र श्री शास्त्री प्रादि कुछ और विद्वानों के नाम अधिक वर्षों तक सेवा करके समाज की तीन पीढियों को भी सुनाई देते थे और समाज को इन विद्वानों की विद्वत्ता इस ओर कार्य करने के लिये सदैव प्रोत्साहित किया। एवं कार्य पर पूरा भरोसा था। सचमच इन सब विद्वाना मुख्तार सा० के इस प्रोत्साहन के फलस्वरूप प्राज हमे के अनवरत परिश्रम एवं महत्वपूर्ण उपलब्धिया के कारण जन साहित्य पर कार्य करने वाले विद्वान दिखलाई देते ही गत १० वर्षों मे जैन साहित्य पर कुछ काय हा है। उन्होने खोज करने की प्रणाली को विद्वानो के समक्ष सका है। उपस्थित किया मोर प्रमाणो के प्राधार पर ही किसी भी मुख्तार सा० से मेरा साक्षात्कार सब प्रथम गभर परम्परा को स्वीकार करने का प्राग्रह किया। मैने साहि- में हमा। उस समय वे स्व० बाबू छोटलाल जाक त्यिक क्षेत्र में उस समय प्रवेश किया था जब मस्तार सा. यहां पाये थे। मेरी दो पुस्तक उस समय पर ७० वर्ष की आयु को पार कर चुके थे। उस समय जैन भण्डार को ग्रन्थ सूची" एवं "प्रशस्ति संग्रह" निकल चुक साहित्य के क्षेत्र में सर्वश्री नाथ राम जी प्रेमी, मरुनार सा० थी। पुस्तकों पर जो उनकी सम्मति मिला या १९ डा० उपाध्ये एवं डा०हीरालाल जी जैन के नाम विशेष लिये मार्गदर्शन स्वरूप थी। यद्यपि उस समय वे ७० वर्ष क्रम में लिये जाते थे। डा० नेमिचन्द जी शास्त्री, डा० से भी अधिक थे लेकिन उनका कार्य करने का उत्साह ज्यातिप्रसाद जी, पं०परमानन्द जी शास्त्री, एवं पडित युवकों जैसा था। मझे याद है कि लश्कर के दि० जन Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अनकान्त मन्दिर में वे वहाँ के शास्त्र भण्डार को देखने के लिये मुख्तार सा० से अन्तिम भेट जनवरी १९६५ मे हुई प्रति दिन ४-५ घण्टे जम कर बैठते थे। वह गमियों का जब मै नेशनल म्यूजियम से कुछ ग्रन्थ लेने दिल्ली गया समय था । शास्त्र भण्डार वाले तिवारे मे घूप भी प्राता था। उस समय भी मुख्तार सा० अपने साहित्यिक मिशन थी लेकिन वे इसकी परवाह किये विना लगातार बैठकर में पूर्ण दत्तचित्त थे और विभिन्न जैनाचार्यों के समय शास्त्रो को देखते रहते । साथ ही में उनकी प्रावश्यक निर्धारण में लगे हुए थे । उनमें वही प्रात्मीयता एव अपने प्रणालियों आदि भी नोट करते जाते थे। वे दूसरा के काम के प्रति लगन तथा उत्साह था। यद्यपि वीर सेवा कार्य में कम विश्वास करते थे इसलिए जब तक वे स्वय मन्दिर से उनका निकोप : मन्दिर से उनका विशेष सम्बन्ध था लेकिन इससे उनकी किसी ग्रन्थ को नही देख लेते तब तक किसी भी बात की साहित्यिक सेवा मे जरा भी अन्तर नही पाया था। स्वीकार नहीं करते थे। ___वास्तव मे मुख्तार मा० साहित्य की जितनी भी सेवा इसके बाद तो उनसे दिल्ली में कितनी ही बार भेट हुई। जब भी दिल्ली जाता तब वीर सेवा मन्दिर में ही कर सके, वह इतिहास के स्वर्ण पृष्टो मे सदा प्रकित रहेगी । अनेकान्त जैसे खोज पूर्ण पत्र का उन्होंने वर्षों तक ठहरता और वही उनके दर्शन हो जाते । सन् १९५६ में दिल्ली में प्रायोजित जैन सेमिनार के अवसर पर तथा सम्पादन किया। और उसके माध्यम रो जैन इतिहास को इसी तरह के अन्य अवसरों पर उन्हे पास से देखने का नई दिशा प्रदान की। इतिहास निर्माण के अतिरिक्त वे अवसर मिला। उनकी कार्य करने की पद्धति को देखा। पक्के समाजसेवी एव सुधारक थे । शिथलाचार का उन्होंने वे सारा कार्य स्वय ही करते थे लेकिन प्रात.काल से लेकर अपने जीवन मे कभी पोषण नहीं किया तथा अपने लेखों रात्रि तक ८५ वर्ष की अवस्था तक भी वे सतत साहित्य एव पुस्तको के द्वारा देश एव समाज में नव चेतना जाग्रत की आपकी एक 'मेरी भावना' ही उन्हे सैकड़ो वर्षों तक सेवा में लगे रहते। जीवित रखने में पर्याप्त है। सन् १९५६ मे उन्होने अजमेर के भट्टारकजी के भडार को देखा और उस भण्डार में से कितनी ही नवीन कृतियो आज सारा समाज आदरणीय मुख्तार सा० की की खोज की। ५० परमानन्द जी भी उनके साथ थे। सेवाओं के प्रति कृतज्ञ है लेकिन हमे इस बात का सदा इन दोनों विद्वानो की प्रगाढ़ जोड़ी ने साहित्यिक क्षेत्र में ही पश्चाताप रहेगा कि हम उनका कोई शोभा सम्मान न कितने ही महत्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन किया है। जब वे कर सके, जिसमें उन्हें अपनी सेवाओं का समाज द्वारा अजमेर से वापिस लौटे तो दो दिन के लिए जयपुर भी मूल्याकन का आभास होता। वीर सेवा मन्दिर एव अनेठहरे और शाम को ही मेरे घर को अपने चरणों से पावन कान्त पत्र उनकी सेवाओं की उज्ज्वल तस्वीर है । मुख्तार कर दिया । मेरे लिये ऐसे साहित्यिक महापुरुष का प्रातिथ्य सा० के निधन के पश्चात् ही हमारा यह कर्तव्य हो सौभाग्य का विषय था । प्रातःकालीन भोजन के अतिरिक्त जाता है कि उनकी स्मृति में किसी ऐसी ग्रन्थमाला का शाम को वे केवल दूध लेते अथवा साधारण-सा फलाहार शुभारम्भ करे जिससे जैनाचार्यों की साहित्य सेवा का करते थे। घोती, कमीज एव टोपी लगाये तथा बेत हाथ प्रत्येक भारतीय को सही मूल्यांकन मिल सके । यही उनके मे लिये रहते थे और कभी-कभी ऐसा मालम होता था प्रति हमारी सच्ची श्रद्धाजलि होगी। और उनका सच्चा कि मानो ज्ञान की साक्षात्मूति ही अपनी पावन रज से स्मारक होगा। अनेकान्त पत्र में उनका संस्थापक के रूप नगर को पवित्र करने आई हो । में नाम रहना चाहिए। -: : Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के एक अध्याय का लोप प्रो० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' एम. ए., शास्त्री दि. २२ दिसम्बर ६८ रविवार को भारतीय वाङ्- (चार भाग), (४) युगवीर निबन्धावली (दो खन्ड), मय और इतिहास के उस प्रदीप्त रत्न की जीवन ज्योति (५) युगवीर भारती, (६) स्वयम्भूस्तोत्र (७) समीचीन सदैव के लिए शान्त हो गई, जिसकी प्राभा समाज, धर्म, धर्मशास्त्र, (८) अध्यात्म रहस्य, (६) युक्त्यनुशासन, साहित्य, दर्शन और राष्ट्र का दिग्-दिगन्त मुखरित था। (१०) प्राप्तमीमांसा, (११) तत्त्वानुशासन, (१२) योगइसमें सरस्वती और लक्ष्मी का अद्भुत समन्वय था। सार प्राभूत, (पुरातन जैन वाक्य-सूची, (१४) जैन प्रथ इसके निधन से सभी का दुःखी होना स्वाभाविक है। प्रशस्ति संग्रह (प्रथम भाग) (१५) कल्याण कल्पद्रुमादि । मगसिर सुदा ११ का दिन पं० जुगकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' को निस्पृह धन्य है जब सहारनपुर जिले के सरसावा नगर में स्व. मित निष्ठावान सामाजिक कार्यकर्ता, कुशल कवि, चौ० नत्थमल जी (जन्म १ मई १८४६ और मृत्यु २० निपण अनवादक, समर्थ समीक्षक, विचारवान् लेखक और नववर १९१६) और श्रीमती भोई देवी का गृह उस बालक सफल सम्पादक के रूप में सदैव याद किया जाता रहगा। जुगलकिशोर के जन्म से जगमगा उठा था, जो आगे चल आपने अनेक वर्षों तक 'जैन गजट' "जैन हितैषी" कर "युगवीर" कहलाया। प्रारभिक शिक्षा उर्दू-फारसी माध्यम से ५ वर्ष की छोटी सी अवस्था में ही प्रारभ हो और "अनेकान्त" का सम्पादन बड़ी लगन और योग्यतागई। ये बहुत कुशाग्रबुद्धि , लगनशील और परिश्रमी पूर्वक किया। सम्पादक के दायित्त्व का निर्वहण निर्भीकता छात्र थे। इनके साथी और गुरुजन-सभी इनकी प्रतिभा के साथ किया। मितव्ययिता और सादगी के साथ उदासे प्रभावित थे । उस समय की प्रथा के अनुसार इनका रता की वे बेजोड नजीर थे । उनकी प्रतिभा और प्रध्यवविवाह १३-१४ वर्ष की अवस्था में ही हो गया था। साय से जैन साहित्य और इतिहास की अनेक उलझी विवाह के पश्चात् अापने जैनधर्म दर्शन के अतिरिक्त हुई गुत्थियाँ सुलझ गई है। वे अपने प्रादर्श और हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत और प्राकृत भाषामो का अध्ययन योजनाएँ 'अनेकान्त' तथा समन्तभद्र पाश्रम' (वीर सेवा बडी रुचि के साथ योग्यतापूर्वक किया। धार्मिक, सामा मन्दिर) के रूप मे फलीभन देखना चाहते थे । इन दोनो के विकास उत्कर्ष के लिए जैसी प्रातुरता मुख्तार जी जिक, साहित्यिक, प्राध्यत्मिक और राष्ट्रीय गतिविधियो , मे पारम्भ से ही आपको गहरी दिलचस्पी रही और वह में थी वैसी अन्यत्र प्राय. नही दिखाई पड़ती। क्रमशः पल्लवित, पुष्पित और फलीभूत हुई। वे जीवन भर साधक और चिन्तक रहे। शोध-खोज धुन के पक्के, लगन और सुझवझ के धनी, विचारो और समीक्षा प्रापके जीवन का अभिन्न अग था। भट्टारको मे क्रान्ति छिपाये, कर्मठ बालक जुगलकिशोर के साहित्यिक की अनगल प्रवृत्तियाँ प्रापके अथक परिश्रम के परिणामजीवन का श्रीगणेश-पाठ मई १८१६ के " जैनगजट" स्वरूप ही 'ग्रन्थ परीक्षा' ( भाग) के माध्यम से सर्व. में प्रकाशित एक निबंध से होता है। तब से उनकी लेखनी विदित हो सकी है। उनके जीवन के अन्तिम क्षण तक अथक और अविरल प्राज के अनुसन्धान जगत मे जैन दर्शन और साहित्य गति से निरन्तर प्रवहित रहकर अनेक निबधो, कवितामो, सम्बन्धी कोई भी गवेषणा और विवेचना मुख्तार श्री के सम्पादकीय टिप्पणियो अनूदित-प्रथो, इतिहास और विचारो की 'पुट' के विना प्राय: अधूरी मानी जाती है। समीक्षा का प्रणयन करती रही। उनकी लेखनी से प्रसूत प्राचार्य समन्तभद्र और उनकी भारती के सम्बन्ध मे कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रंथ निम्नाङ्कित है : मुख्तार श्री विशिष्ट ज्ञाता और अधिकारी विद्वान् के रूप (१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश मे समादृत हुए हैं। उन्होंने स्वामी समन्तभद्र की भारती (२) जैनाचार्यों का शासन भेद, (३) ग्रन्थ परीक्षा का बहुत सुन्दर सम्पादन और प्रकाशन कराया है। प्राचार्य Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ प्रकान्त समन्तभद्र के मूल्याङ्कन और भट्टारकों की यथार्थ स्थिति निधन से इतिहास का एक अध्याय लुप्त हो गया है की प्रस्तुति के कारण भारतीय दर्शन और जैन जगत् उन्हे उनकी महान् साधना और कार्यों के प्रति मेरी विनम्र उन्हें और उनकी सत्यगवेषणा की प्रवृत्ति को कभी नहीं श्रद्धाञ्जलि अर्पित है। जिनेद्रदेव से प्रार्थना है कि मुख्तार भूल सकता। वे बहुज्ञ, बहुश्रुत और बहुभाषाविद् तो थे श्री की दिवंगत आत्मा उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करे । ही, मेरे विचार में वे व्यक्ति से बढ़कर स्वयं में एक वर्णी स्नातक परिषद् ने अपनी दि० २६-१२-६८ की आदर्श और मूर्तमान संस्था थे। उनकी खोज में पौर्वात्त्य कार्यकारिणी समिति की बैठक में (अतिशय क्षेत्र कोनी, और पाश्चात्त्य-दोनों देशों की समीक्षा पद्धति का अद्भुत जबलपुर में डा० हरीन्द्रभूषण जैन, विक्रम विश्वविद्यालय सम्मिश्रण हुआ है। काश! समय के साथ हम उनका की अध्यक्षता मे निष्पन्न) सर्वसम्मति से प० जुगलकिशोर समुचित मूल्याङ्कन कर पाते। उनके निधन से समाज, जी मुख्तार पर शोध कार्य प्रस्तावित कर सच्ची श्रद्धासस्कृत और इतिहास की महान् क्षति हुई है। उनके लि अपित करने का उपक्रम किया है। युग-युग तक युग गायेगा, 'युगवीर' कहानी । किया दूध का दूध और पानी का पानी ।। पाई एक हिलोर सभी डगमगा गये थे, नहीं प्रज्ञ की बात विज्ञ सकपका गये थे। धर्म-कर्म को प्राडम्बर से, खूब सजाया, रचे प्रन्थ पर प्रन्थ, लिखा जो जी में प्राया। पर सत्य पारखी, तेरी सत्य कसौटी हो तो, बन पाई थी सत्य-स्वरूपा ग्रन्थ निशानी ॥ किया दूध का दूध और पानी का पानी ॥ हेहे उन्नत भाल, भाल उन्नत कर डाला, सूक्म दृष्टि से खोज-खोज इतिहास निकाला। नहीं लेखनी विकी सुकी लक्ष्मी के आगे, तुमको पाकर भाग्य सरस्वती के ये जागे । हे सवाचार की मूर्ति, मनजता के अवतारी, समन्तभद्र के भक्त और उनके ये ध्यानी।। युग-युग तक युग गायेगा, 'युगवीर' कहानी। ऊंच-नीच के भेदभाव को गांठें खोलो, प्रेम-भाव से रहो, बढ़ो अमृत रस घोलो। सबके सुख में सुख तुमने अपना दर्शाया, धर्म-कर्म से ऊपर, मानव धर्म बताया । गूंज रही है आज हृदय में तेरी वाणी, 'मेरी भावना' के भावों को अमर कहानी। किया दूध का दूध और पानी का पानी। जयन्तो प्रसाद शास्त्री युग-युग तक युग गायेगा 'युगवीर' कहानी। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट श्रद्धाञ्जलि डॉ० दरबारीलाल कोठिया श्रद्धेय बाबू जी (प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार) करते थे। इन दो-तीन बातों के कारण ही उनकी लोकने जीवन भर अद्भुत समाज और साहित्य की सेवा की प्रियता और लोकाकर्षण अवरुद्ध रहे । अन्यथा उनकी सेवा है। वे प्रारम्भ से समाज सुधारक, उन्नायक और स्वय साधना, तपस्या, कर्तव्यनिष्ठा, तीव्र लगन और जिनवाणी अजित विद्यावान थे। मातृभूमि से उन्हे असाधारण अनु- की भक्ति जितनी थी, उनसे उन्हें सर्वातिशायी सम्मान राग था । जब दिल्ली में समन्तभद्राश्रम सफल न हुआ तो और प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए थी। अाज शोध-खोज की अपने जन्म स्थान सरसावा मे 'वीर-सेवा-मन्दिर, के नाम प्रेरणा देने वाला और निष्ठावान् साहित्यकार उन जमा मे नई साहित्य-सस्था को जन्म दिया और उसके लिए दिखलायी नही पडता। ६२ वर्ष तक श्रुतसेवा में संलग्न एक ट्रस्ट की भी योजना कर दी। इस साहित्य-सस्था के यह तपस्वी हम लोगो से दूर पोझल हो गया। द्वारा उन्होने जो संस्कृति की सेवा की है वह पापचर्य समाज उनकी अमर स्मति रखने के लिए कोई ठोस जनक है । उन्होंने इतना लिखा है कि व्यास के महाभारत ___ कदम उठा सके तो वह उनके ऋण से कुछ उऋण भी हो से भी अधिक परिमाण में है। मकेगी। हम उनके प्रति हार्दिक श्रद्धाजलि प्रकट करते बाबू जी मे जो कमी थी वह यह कि उनमे मिलन- हुए उनके लिए शान्ति लाभ की कामना करते है। वे हमें सारता कम थी, उदार भी कम थे और विश्वास भी कम अपने प्रशस्त मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देते रहे। भावभीनी सुमनाञ्जलि बाबू कपूरचन्द बरैया एम. ए. गुरू गोपालदास जी को जहां अनेक सैद्धान्तिक विद्वानों प्रकाशित करने में अपूर्व योगदान दिया। अब तो इस के सृजन करने का सौभाग्य प्राप्त हैं वहाँ वाङ्मयाचार्य कार्य का क्षेत्र जैनसमाज में इतना बड़-चढ़ गया है कि पं० जुगलकिशोर मुख्तार को कतिपय शोधार्थी विद्वानों अनेक जैन व जनेतर विद्वान् शोध ग्रन्थ लिखकर विश्वको पैदा करने का गौरव प्राप्त है। पडित जी के समय मे विद्यालयो से उपाधियाँ प्राप्त करने लगे है। निस्सन्देह साहित्यिक शोध खोज का कार्य प्रायः नगण्य-सा था। इसका बहुत कुछ श्रेय मुख्तार सा० को है जिनकी कृतियो बहुत कम विद्वानो का भुकाव इस पोर था, किन्तु मुख्तार से प्रेरणा पाकर आज भी अनेक विद्वान इस कार्य में सा० ने न केवल अपनी साहित्यिक प्रतिभा से इस कमी सलग्न दीख पड़ते है। को पूरा किया बल्कि भारत की राजधानी दिल्ली में 'वीर मख्तार सा. क्या थे? इसकी अपेक्षा यह कहना सेवा मन्दिर- की स्थापना करके 'अनेकान्त' पत्र द्वारा जैन अधिक श्रेयस्कर होगा कि वे क्या नही थे । उन्होने अपनी पुरातत्त्व इतिहास और साहित्य की विपुल सामग्री को प्रतिभा से जैन साहित्य के जिस क्षेत्र को स्पर्श किया, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त उसमे अपनी कलम चलाकर उस विषय का रहस्योद्घाटन अपने अन्तिम जीवन मे वह भाष्यकार बन गये थे। करके ही पीछा छोड़ा। यह सचमुच लेखनी के धनी थे। 'योगसार प्राभूत' यह उनकी अन्तिम कृति है। प्राचार्य बहत कम विद्वान ऐसे होते है जो साहित्य के गद्य और समन्तभद्र के वे परमभक्त थे और यह चाहते थे कि दिल्ली पद्य दोनों में समान अधिकार रखते है। किन्तु मुख्तार जैसे स्थानमे 'समन्तभद्राश्रम' की स्थापना हो। इसके लिए सा० की यह विशेषता उनके ग्रन्थो में भली प्रकार परि वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को भी तत्पर थे किन्तु लक्षित होती है । 'युगवीर निबन्धावली' और 'ग्रन्थ परीक्षा' उनकी यह सद्भिलाषा कार्यान्वित न हो पाई और ६२ वर्ष जहाँ उनके गद्य अधिकार को प्रकट करते है वहाँ 'युग- की पाय पाकर एटा' में दि० २२-१२-६८ को उनका वीर भारती' से उनकी काव्य कुशलता का भरपूर परिचय निधन हो गया । जिस व्यक्ति ने समाज से कुछ न लिया भी प्राप्त हो जाता है। 'मेरी भावना' का सूजन करके नलकी मान भी कर बनाकर ममाज और तो वह काव्य क्षेत्र मे अमर हो गये। यह उनकी ख्याति धर्म की अनन्य निष्ठा से एक अविचल योगी की तरह प्राप्त और मौलिक रचना है जो लाखो की संख्या में जीवनपर्यन्त सेवा की, उसका समाज से उठ जाना एक वितीर्ण होकर लोगो के हृदय का कण्ठहार बन चुकी है। ऐसी क्षति है जिसकी पति निकट भविष्य मे असम्भव नही इस गीत का 'राष्ट्रीय गान' के रूप मे उदित होना इसकी तो कठिन अवश्य है। सर्वोत्कृष्ट प्रसिद्धि का परिचायक है, फिर भी इस दिशा में बहुत कुछ प्रयत्न होना शेष है। 'मंगल प्रभात' से हमारा भावना है कि 'बीर सवा मन्दिर' में प्रत्येक भारतीय उसे कण्ठस्थ करे, यह 'मेरी भावना' कार्योके ही अनुरूप एक प्रस्तर या धातुकी प्रतिमा स्थापित की जाय, साथ ही उसे एक शोध संस्थान का रूप दिया जाय, इसी प्राशय के साथ हम स्वर्गस्थ आत्मा के प्रति पडित जी जैन इतिहास के अपर्व विद्वान रहे है। इसमे अपनी भावभीनी सुमनाजिलि अर्पित करते है । सन्देह नही कि उन्होने जैनाचार्य और उनकी कृतियो के सम्बन्ध में अपने शोध प्रबन्धो द्वारा लम्बे अर्से से चली आ रहे कितनी ही भूल-भ्रान्तियो का निरमन किया। या विद्या- पालतर नन्द और पात्रकेसरी की भिन्नता दिखाकर प्रसिद्ध 'पञ्चा- ता. २२-१३-६६ को आपका ६२ वर्ष की उम्र में ध्यायो ग्रन्थ को प० राजमल्ल विरचित बतलाकर प्राचार्य एटा मे आपके भतीजे डा० श्री चद जी सिंघल के पास सिद्धमेन को दिगम्बर ग्राम्नाय का घोपित कर अपने ऐति- देहावसान हो गया । आप बेजोड विद्वान् थे । गहरे, ऊँच, हासिक पर्यवेक्षण का अदभुत परिचय दिया। 'वीरशासन स्वतत्र, निर्भीक विचारक थे। मेरा आपके साथ पत्र जयन्ती' को प्राचीन ग्रन्थों के प्राचार से ढूंढ़ निकालना, व्यवहार तो लबे समय से था, परन्तु साक्षात्कार तो सिर्फ वह उनकी ही सूझ-बूझ का परिणाम है। भद्रारक नाम- एक बार अभी पिछले दिनो जब वे इन्दौर आये थे, तब घारी अनेक ग्रन्थो की कृत्रिमता प्राशन करके उन्होने हुआ था। पापका वियोग खटक रहा है । यही मेरी प्राप दिगम्बर परमरा की रक्षा का जो सुदृढ प्रयत्न किया वह के प्रति श्रद्धाजलि है। मै श्री डा० श्रीचन्द जी को धन्यजैनसमाज में युग-युगो तक चिरस्मरणीय रहेगा। वाद देता है कि उन्होने आपकी पर्यात सेवा सुश्रुषा की। "मर गये जग में मनुष्य जो मर गये अपने लिए। वे अमर जग में हुए जो मर गये जग के लिए । जो उपजता सो विनशता यह जगत व्यवहार है। पर वेश-जाति-धर्म हित मरना उसी का सार है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। जो कि जैन सिद्धान्तों प्रकरण सगत (भावानुसार) लत नहीं है। शब्दार्थ संस्मरण दौलतराम 'मित्र' शब्दो मे कहे तो-"ऐसी संघव्य दशा से वैधव्य दशा मंने उनसे पत्र व्यवहार द्वारा कुछ बातें सीखो उनमे क्या बुरी?" मे एक यह है मेरे उक्त प्रारोप पर मुख्तार सा० ने मुझे लिखाएक बार मेने पं. पाशाधर जी पर यह पारोप सिखाया-कि आपका पारोप समुचित नही है। शब्दार्थ लगाया था कि उन्होने स्त्रियों के धर्म-कर्म के बारे मे 'मनु' प्रकरण सगत (भावानुसार) लगाना चाहिए। सागार के सिद्धान्तो का अनुकरण किया। जो कि जैन सिद्धान्तों धर्मामृत मे प्रकरण सम्यग्दृष्टि श्रावक का है। पाशासे मेल नहीं खाता है। जैन सिद्धान्त यह है कि जो प्राणी घर ने सम्यग्दृष्टि पती को लक्ष मे लेकर पत्नी को पति जैसा कर्म करेगा, उमे वैसा फल मिलेगा। शुभ कर्म का के विचार उच्चार प्राचार का अनुसरण करने की जो फल शभ और प्रशभ का अशुभ । ऐसा नहीं हो मकता सलाह दी है वह, पत्नी के लिए अहितकर कैसे हो सकती कि अशुभ कर्म का फल शुभ मिलेगा। किन्तु मनु-इसके है?-पाशा है आप मेरे विचार से सहमत हो जाएंगे। विपरीत कहते है कितनी बढिया सीख है ! "नास्ति स्त्रीणां पुष यज्ञो न बतं नाप्य पोषितां । पति सुश्रयते येन रोन स्वर्गे महीयते ॥ (२) [मनुस्मृति ५-१५५] एक कड़क संस्मरण बम इसी का अनुकरण प० प्रागाधर जी ने भी कर ता०४-१-६४ को मुनि श्री विद्यानन्द जी ने एक डाला कहते है"नित्यं भत मनीभूय, बर्तितव्य कुलस्त्रिया। पुस्तक-- दि. जैन साहित्य में विकार" लिखी जिसमे धर्मश्रीशर्मकोत्यककेतनं हि पतिव्रता: ॥" मुख्तार साहब की लिखी रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका पर कुछ प्राक्षेप है। उसके उत्तर में मुख्तार साहब ने इसकी संस्कृत टीका "नये मुनि विद्यानन्द जी को सूझ बूझ" यह पुस्तक ता. "वर्तितव्य मनोवाक्कायकर्मभिराचरितव्य । कया, १३-७-६४ को लिखी जो कि सितबर १९६४ में प्रकाशित कुल स्त्रिया-कुलीन नार्या । किं कृत्वा, भर्तृ मनीभूय मभर्तृ- हुई। जिसमें मुनि जी का बहुत कुछ भला बुरा कहा मना भर्तृ मना भूत्वा पति चिन्तानुवर्तने नैव चिन्त्य वाच्य गया। इस पुस्तक की एक प्रति मेरे पास भी सम्मत्यर्थ चेष्टितव्यं च । कथ नित्य-सर्वदा । हि यस्मात् । भवन्ति । पाई थी। मैंने सम्मति में यह लिख भेजा कि- --मुनि श्री का: पतिव्रता: पति सेवेव व्रत प्रतिज्ञा शुभकामप्रवृत्ति विद्यानन्द जी को और पाप की दोनो पुस्तके पढ़कर मुझे यासा ता इत्यर्थः।" तो दुःख ही हुआ है । पहिले जब मैने मुनिजी की पुस्तक [शुभ कर्म पुण्य कर्म है है-भावपाहुड ८३ पौर पढी तभी मेरे मन में यह विचार पाया था कि मुनि जी पुण्य का फल स्वर्ग-परमात्मा प्रकाश १९८] ने मुख्तार सा. की मालोचना करके नाहक बर्र के छत्ते प.प्राशाघर जी का यह-अनुकरण बेमेल नही तो मे हाथ डाला। क्या है ? क्योंकि यह व्रत के लक्षणो के विरुद्ध पड़ता है। मेरी इस सम्मति पर उन्हे कुछ बुरा लगा और उन्होंने [देखो-सा. घ. २-८० तथा र. क. श्रा. ८६] मुझे लिखा कि-"आपने मुझे जिस रूप मे समझा, उसके अब सोचिए कि यदि पति का अशुभ मन वचन काय लिए धन्यवाद !" तब मैंने उनसे माफी मांगी। जिसके की प्रवृति के अनुसार पत्नी प्रवृत्ति करे-याने पति यदि उत्तर मे मुख्तार साहब का एक लबा चौड़ा तीन पृष्ठ का कल प्रभक्ष भोजी हो जाय तो पत्नी भी प्रभक्ष भोजी हो पत्र नबर २१९२ ता. १८-११-६४ का इस विषय की जाना चाहिए। और उसका फल पत्नी को मिलेगा शुभ- अथ से इति तक की हकीकत वाला माया। जिसमें उन्होने पुण्य । भला यह भी कोई व्रत है। महात्मा गांधी जी के अपने को निर्दोष बताया। पौर चाहा कि-"पाप जैसे Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अनेकान्त विद्वानों को भी अब मुनि जी से प्रायश्चित्त की मांगनी विद्यानन्द जी की सूझबूझ" पुस्तक प्रकाशित करने की करनी चाहिए।" आवश्यकता महसूस नहीं होनी चाहिए थी। अस्तु जो होना था सो हो गया। जैसा मुख्तार सा० ने चाहा वैसा तो नही किन्तु हाँ मुनिचर्या पर समालोचनात्मक एक लेख मैने जैन सन्देश (३) संस्मरण ता० १६-५-६५ में अवश्य लिखा । मुख्तार सा० के उक्त अभी इसी सन् १९६६ में मैने उन्हें लिखा था कि पत्र का सारांश डा० श्रीचन्द जी एटा (मुख्तार सा० के आप के लिखे हुए जो--"सर्वोदय तीर्थ के कुछ सूत्र" भतीजे) की लिखी पुस्तक "मेरा नम्र निवेदन" (ता० नामक ° नामक जो १२० सूत्र है, उनमें कुछ घटा बढी करके उसे २४-३-६५) मे पृष्ठ ६-७ पर अंकित है। [फिर भी वही ह ऐसी पुस्तक बना दें कि जिससे—“जैन दर्शन मे मुक्ति पत्र (असल) मै साथ में भेज रहा हूँ।] मार्ग तथा तत् सम्बन्धी विश्व द्रव्य व्यवस्था" का वर्णन अच्छा होता, उब कि मुनि जी मुख्तार साहब के आ जाय और उसका नाम "जिन गीता" रख दिया जाय। समाधान मे प्रकारांतर से आलोचको की प्रशसा मे एक उत्तर में उन्होंने लिखा था कि-दूसरे काम बहुत से है लेख ता० १६-७-६४ को जैन सन्देश में प्रकाशित कर फिर भी मैं ऐसा भी सोच रहा हूँ। चुके थे। तब सितबर मे मुख्तार सा० को “नये मुनि किन्तु शायद वे यह काम न कर सके होगे? . वीरसेवामन्दिर में आचार्य जुगलकिशोर मु० सा. के निधन पर शोकसभा देश के सुप्रसिद्ध साहित्यकार एव वयोवृद्ध ऐतिहासिक प्रात्मा के प्रति भावभीनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित की। विद्वान प० जुगलकिशोर जी मुख्नार के निधन पर वीर. सबसे पहले मत्री प्रेमचन्द जैन कश्मीर वालो ने सेवामन्दिर, राजधानी के साहित्यिक, सामाजिक एव श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके कार्यों की सराहना की। जैन समाज ने गहरा दुख प्रकट किया। और उनके साहित्य को प्रामाणिक बतलाया । मुख्तार साहब ने इतिहास और साहित्य का जो सुप्रसिद्ध विचारक श्री जैनेन्द्र कुमारजी ने कहा कि महत्वपूर्ण शोध कार्य किया वह महान है । उनका सारा ही स्वर्गीय मुख्तार सा० की सेवाए अविस्मरणीय है। उन्होंने जीवन जैन साहित्य के प्रचार-प्रसार और भगवान महावीर जो सेवाएं की है उनसे समाज उऋण नहीं हो सकता। की वाणी को देश विदेश में पहुँचाने में लगा रहा । वीर- भारतीय ज्ञानपीठ के मत्री बाबू लक्ष्मीचन्द जी ने कहा सेवामन्दिर उनकी शोध खोजका अनुपम कीर्ति स्तंभ है जो कि उन्होने जो सेवा की है वह महान है। आज भी विचार-धारा को पुष्ट करने में लगा हुया है। श्री यशपालजी ने कहा कि मुख्तार सा० के निधन __ मुख्तार साहब के प्रति अपनी श्रद्धा भावना प्रगट से जो क्षति हुई है वह पूरी नही हो सकती। आपने । करने के लिए वीर सेवामन्दिर की ओर से श्रीमान् साहू सुझाव दिया कि मुख्तार सा० क प्रामाणिक जीवन चरित्र शान्तिप्रसाद जी की अध्यक्षता में आयोजित शोक सभा में प्रकाशित किया जाय और अप्रकाशित साहित्य को प्रकाश दिल्ली के प्रतिष्ठित नागरिको, वीर सेवामन्दिर के सचा- में लाया जाय । लक तथा सदस्य गणो और जैन धर्मावलम्बियों ने दिवगत परमानन्द शास्त्री ने कहा कि मुख्तार सा० का Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर में मु० स० के निधन पर शोकसभा २८१ निधन जैन समाज का दुर्भाग्य है। उन जैसा साहित्य जी, ब्र० शीतलप्रसाद जी, श्री अर्जुनलाल जी सेठी, बाबू महारथी होना मुश्किल है। उनकी सतत साहित्य-सेवा ज्योतिप्रसाद जी मादि ने जो सुधारवादी विचार दिये जैन साहित्य को अमूल्य देन है। उनसे मैने बहुत कुछ उनको मुख्तार सा. ने शास्त्रीय प्रमाण देकर पुष्ट किया सीखा है अनुभव किया है और उनके निर्देशानुसार कार्य जिससे सुधारवादी दृष्टिकोण को बल मिला। किया है । तथा उनके साथ बैठकर काम करने का मुझे साहूजी ने कहा कि वीर सेवामन्दिर के माध्यम से वर्षों अवसर मिला है। उन जैसा प्रतिभा सम्पन्न शोधक मुख्तार सा० ने जैन साहित्य और इतिहास के अध्ययन अनुवादक और सम्पादक होना वास्तव में कठिन है। अनुसन्धान का जो कार्य प्रारम्भ किया था उसे आगे संस्थापित वीर सेवामन्दिर और अनेकान्त पत्र दोनों ही बढाने का प्रयत्न किया जावेगा। अन्त में सबने खड़े उनके जीवन के अभिन्न अंग है, और वही उनके स्मारक होकर दिवंगत प्रात्मा के लिए शान्ति लाभ की कामना हैं, यद्यपि उनकी कृतियां जब तक संसार में रहेगी उनका की। तथा निम्नलिखित शोक प्रस्ताव पारित किया। नाम तब तक अमर रहेगा, मैं उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ। शोक प्रस्ताव ___ डा० गोकुलचन्द्र जैन ने कहा कि मुख्तार सा० जिस बीर-सेवा-मन्दिर के संस्थापक तथा जैन साहित्य आस्था दृढ़ता आर उत्साह क साथ अन्त समय तक शाध- और इतिहास के ख्याति प्राप्त विद्वान आचार्य श्री जुगलखोज और सम्पादन के कार्यों में लगे रहे वह नई पुरानो किशोर जी मुख्तार के देहावसान के समाचार ज्ञातकर सभी पीढियों के लिए प्रेरणाप्रद है । इस अवसर पर ला० हमें अत्यन्त दुख हुआ है। जैन समाज के पुनर्जागरण राजकृष्ण, जैन राय सा. ला. उल्फतराय, बा. माई दयाल तथा प्राचीन जैन वाङ्मय और इतिहास के अध्ययन और जैन, ला० श्यामलालजी ठेकेदार और बाबू महताब सिंहजी अनसन्धान के क्षेत्र मे मुख्तार साल की उपलब्धियां और आदि ने भी अपनी श्रद्धाजलि अर्पित की। सेवाएँ अर्ध शताब्दी से अधिक दीर्घकाल में परिव्याप्त है। __ अध्यक्ष साह शान्तिप्रसादजी ने अपने भाषण में कहा जो उनके देहावसान के उपरान्त भी सदा अमर रहेगी। कि मुख्तार सा० स्वयं एक सस्था थे। वे बड़े सुधारक साह शान्तिप्रसाद जी की अध्यक्षता मे वीर सेवामन्दिर और बिद्वान थे । साहूजी ने मुख्तार सा० की शोध और द्वारा आयोजित दिल्ली नगर की विभिन्न संस्थानों, प्रतिअनुसधान कार्य की सराहना करते हुए कहा कि उन्होने ष्ठित नागरिकों तथा विद्वानों की यह सभा उनके निधन तुलनात्मक अध्ययन की परम्परा जारी रखते हुए बहुत पर हार्दिक दुःख व्यक्त करती हुई कामना करती है कि बड़ा कार्य किया है। दिवंगत आत्मा को शान्ति तथा शोक सतप्त कुटुम्बीजनों आपने कहा कि जैन समाज मे पुनर्जागरण और को धैर्य प्राप्त हो। प्रेमचन्द जैन सुधार का जो आन्दोलन हुग्रा तथा महात्मा भगवानदीन मंत्री वीर सेवामन्दिर दो श्रद्धाञ्जलियां आचार्य शिवसागर जी महाराज का स्वर्गवास श्री दानवीर सेठ गजराज जी गगवाल का जयपुर में महावीर जी में दिनाक १६-२-६६ को हो गया । प्राचार्य दिनांक २६-१-६६ को साधारण लम्बी बीमारी के बाद श्री के जीवन में अनेक विशेषताएं थी जो अन्यत्र दुर्लभ अचानक स्वर्गवास हो गया। आपके द्वारा निर्मित सुखहै । उनका चरित्र बल ऊँचा था। वे शान्त स्वभावी और देवाश्रम चिरकाल तक आपकी स्मृति को उज्ज्वल करता सौम्यमूर्ति थे । वे समन्वयवाद में विश्वास रखते थे। रहेगा। आप अच्छे धार्मिक भोर समाजसेवी थे। हमारी अच्छे तपस्वी प्राचारनिष्ठ थे उनके चले जाने से महान कामना है कि दिवंगत आत्मा पर लोक में सुख-शान्ति क्षति हुई। हमें उनके उपदेशों से प्रात्म-लाभ लेना प्राप्त करे। प्रेमचन्द जैन चाहिए। दिवगत आत्मा के लिए हमारी श्रद्धाजलि है। ' ' मंत्री वीर सेवामन्दिर . Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुख्तार साहब अजमेर में फतेहचन्द सेठी श्री साहित्य मनीषी भाचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार स्वामी समन्तभद्राचार्य के सम्बन्ध में जो गवेषणात्मक पूर्ण समाज के उन नवरत्नों में से थे जिन्होंने अपने जीवन को सामग्री मुख्तार सा० ने प्रदान की, वह एक उनकी अनुवट वृक्ष के समान प्रारम्भ किया। जबकि समाज की पम देन है और उनके विश्वास के अनुसार अभी भी किसी भी क्षेत्र में कोई व्यवस्थित योजना नहीं थी। उनके साहित्य के अन्वेषक की अत्यन्त आवश्यकता है। मेरे ध्यान से सबसे प्रथम वे महासभा के जैन गजट मुख्तार सा० की गतिविधि साहित्य के सभी क्षेत्रों में के सम्पादक के रूप में समाज के सामने पाये । उस काल सागोपाग रही है । कवि, लेखक' शोधक, समालोचक एवं में उन्होंने गजट के माध्यम से जो भी सेवायें दी है वह पत्रकार आदि सभी गुण उनमे पूर्णरूपेण विकसित थे। गजट की फाइलों में आज भी अकित है। उन्होंने करीबन ४० वर्ष तक समाजकी अमूल्य सेवाये करते फिर 'जन हितैषी' पत्रिका के माध्यम से जनसमाज हए जिनवाणी की सतत् साधना की है। को पत्रकारिता की दृष्टि से नई दिशा प्रदान की। उनके मुख्तार सा० से साक्षात्कार करने एवं उनके सपर्क द्वारा धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक एव भौगोलिक में पाने का कार्य इससे पहले कभी नहीं पड़ा। उनके साहित्यिक सामग्री अन्वेषण के रूप में प्राप्त हुई है । उनके साहित्य के द्वारा ही उनकी जानकारी मिली और उससे इस कार्य में श्री नाथूराम जी प्रेमी साथी थे, प्रेमी जी के ही उनके प्रति आदर भाव का बना हुप्रा था। बाद मे इस क्षेत्र से अलग हो गये थे फिर भी मुख्तार सा० अजमेर जैन समाज का सदा से गौरव रहा है और इस क्षेत्र में अडिग होकर आगे बढ़ते गये। यहाँ के बडापना पचायत के मदिरजी मे हस्तलिखित सन १९५२ या २३ में उन्ही की 'मेरी भावना' रचना शास्त्रों का अपूर्व भण्डार है। जिनके दर्शन से प्राचीन समाज के सामने आई और उसकी लोकप्रियता इतनी काल की हस्तलिखित कलायो का साक्षात् दर्शन भी बढी कि बालक वृद्ध तक ने उसे अपने कण्ठ का हार बना मिलता है। यहाँ के भार को व्यवस्थित सूची नही होने लिया तथा इसका आज तक विविध भाषाओं में अनुवाद से यह पता नहीं लगता था कि यहाँ के भण्डार में कितने भी हो चुका है। पं० धरणीधर जी साहित्याचार्य ने भी अप्राप्य एव अप्राशित ग्रन्थ आज भी विद्यमान है। इसी का अनुवाद तदनुरूप संस्कृत साहित्य में भी किया है। श्री दि० जन सभा के तत्वावधान में मुख्तार सा० से सफल डा० की भाँति उन्होंने ग्रन्थ परीक्षा द्वारा अनुरोध किया गया कि वे अजमेर पधार कर यहां के समाज को नया जीवन दिया और उसके कारण समाज शास्त्र भण्डार का भी अवलोकन करें। बराबर पत्र-व्यवमे उस समय विद्रोह की छाया और उस विद्रोह का सामना । हार के बाद सन् १९५६ में वे यहां आये और करीबन मस्तार सा० ने डटकर किया। लेकिन इनकी लेखनी में पांच मास तक रहे तथा उन्होंने शास्त्र भण्डार का प्राद्योसदा यह विशेषता रही कि वे जो भी लिखते थे उसे जम पान्त अवलोकन करके शास्त्र भंडार की परिपूर्ण सूची कर लिखा, जिसके कारण विरोधियों के पास भी उसका । क्रमबद्ध तैयार की। उनके इस पुनीत कार्य मे श्री शुशीलप्रत्युत्तर नहीं था। चन्द जी पाटनी बाबू हीराचन्द जी बोहरा पं० दीपचन्द प्रन्थ परीक्षा ने धार्मिक जगत की प्रांखें खोल दी जी पाण्ड्या प्रादि अनेक व्यक्तियों ने सहयोग दिया। और समाज में प्रादर्श मार्ग की मान्यता की कसौटी को मुख्तार साहब को कार्य पद्धति एवं निष्ठा उस समय बल मिला । इससे आर्ष ग्रन्थों की बहुत बड़ी रक्षा हुई। देखने को मिली कि वे उस समय इतने तन्मय रहते थे Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुख्तार साहब अजमेर में २८३ कि उनका उसके अतिरिक्त अन्यत्र ध्यान बढता ही नही में यह ग्रन्थ उपलब्ध हुमा और इसमें सुन्दर एवं हृदयथा । साथी कार्य करते हुए थकान अनुभव करते थे लेकिन ग्राही संस्कृत में ७२ श्लोक है। जिसमें अध्यात्म का उन्होंने कभी थकान अनुभव नहीं की। प्रारम्भिक रूप से लेकर अन्तर मात्मा से साक्षात्कार करशास्त्र संबंधी जानकारी इतनी सूक्ष्मता से लेते थे कि वाता है। इस ग्रन्थ का विस्तृत हिन्दी अर्थ व व्याख्या उनकी दष्टि से कोई बात छुट नही पाती थी। बडे अध्यब- करके मुख्तार साहब ने स्वाध्याय प्रेमियों के लिए एक साय से उन्होंने यह कार्यशास्त्र भंडार को देखते हुए अपूर्व निधि प्रदान कर दी है और इसका सबसे प्रथम कम समय में भी परिपूर्ण किया। प्रकाशन मापने करवा दिया। इस प्रकार एक लु त एवं शास्त्र भंडार की व्यवस्थित सूची तैयार करने या अप्राप्य शास्त्र का उद्धार करके जिनवाणी का उद्धार कराने में उन्ही के सामने अप्राप्य एवं अप्रकाशित शास्त्र किया । इन्होंने अपने जीवन में एक नहीं अपितु अनेक भी आये। जिनके सम्बन्ध में उन्होने अनेकान्त मे बराबर इस प्रकार के शास्त्री का प्रकाशन करके पार्ष मार्ग का प्रकाश डाला। उद्योत किया। वयोवृद्ध होने पर भी वे अपने शरीर से ज्यादा से मुख्तार के इस सेवाव्रत से मुझे भी जीवन मे प्रेरणा ज्यादा १६ घटे तक कार्य लेते रहते थे। यह थी उनकी मिली और अजमेर में जब तक वे रहे तब तक उनके जिनवाणी की सच्ची सेवा। सानिध्य का सौभाग्य पाया। पं. पाशाघर जी रचित ग्रन्थो का प्रकाशन हो चुका वास्तव मे वे जहाँ भी रहे उनका तन, मन व धन है। लेकिन उनका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ "अध्यात्म रहस्य" जिनवाणी की सेवा में ही लगा रहा और जीवन का अपरनाम "योगोद्दीपन" के सम्बन्ध में नाम ही सुनने मे समस्त बहुत बड़ा भाग उन्होंने सरस्वती माताके चरणो मे आता रहा। परन्तु उसके दर्शन का अवसर समाज को लगाया। मुख्तार सा. के अजमेर रहते समय अजमेर नहीं मिला। प० नाथूराम जी प्रेमी ने भी इस ग्रन्थ को जैन समाज ने अपने को कृतकृत्य समझा। बाह्य से उनका पूर्व में अप्राप्य बताया। __ व्यक्तित्व सामान्य लगता था, लेकिन अतरग मे गूढ़ागार मुख्तार साहब को अजमेर मन्दिर के शास्त्र भडार के समान उनका व्यक्तित्व एव प्रतिभा थी। श्रद्धाञ्जलि राजस्थान के प्रसिद्ध एवं उद्भट विद्वान प० चैन- रस से प्रोत-प्रोत था। वे पक्के सधारक और रूढिवाद के सुखदास जी से जैन समाज भलीभॉति परिचित है । कौन कदर्थक थे । वे निर्भीक वक्ता थे। उनका भाषण एवं जानता था कि भादवा ग्राम के साधारण कुटुम्ब में जन्म प्रवचन दोनों ही आकर्षक थे। उनकी सेवाएं अमूल्य हैं। लेने वाला यह बालक अप्रतिम प्रतिभा का धनी और उनकी विचारधारा उदार और सरस थी, उनके दिवंगत समाज के विद्वानो में इतना उच्चकोटि का स्थान बना हो जाने से राजस्थानी समाज की एक विभूति सदा के सकेगा । पडितजी बाल ब्रह्मचारी, प्रखर प्रोजस्वी वक्ता, लिए उट गई । वीर सेवा मन्दिर के अनुसन्धान कार्य में पत्र सम्पादक, शिक्षक और अच्छे लेखक थे। उन्होने उनका पूरा सहयोग रहता था। उनके स्थान की पूर्ति समाज को बहुत कुछ दिया। उनमे मानवता कूट-कूट कर होना कठिन है । वीर सेवा मन्दिर और अनेकान्त परिवार भरी थी। उन्होंने गरीब विद्यार्थियों को सब तरहका सह- उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ परलोक मे योग देकर उच्चकोटि का विद्वान बनाया। उनके अनेक उनके सुखी होने की कामना करता है। शिष्य है, जो डाक्टर, जैन दर्शनाचार्य, प्रायुर्वेदाचार्य और प्रेमचन्द जैन न्यायतीर्थ की डिग्रियों से अलकृत है जो समाज में सेवाकार्य कर रहे है। उनका हृदय कोमल और मानवता के मंत्री वीर सेवामन्दिर Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० चैनमुखदास जी न्यायतीर्थ का स्वर्गवास डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल जैन दर्शन एव साहित्य के प्रकान्ड विद्वान एव जैन संस्कृत कालेज के प्रधानाचार्य पंडित चैनसुखदास न्यायतीर्थ का कल दिनाक २६-१-६९ को प्रातः डेढ़ बजे स्वर्गवास हो गया । वे ७० वर्ष के थे। गत कुछ दिनो से वे अस्वस्थ चल रहे थे । तरह पंडित जी की मृत्यु के समाचार नगर में बिजली की फैल गया और सबेरा होते ही सभी वर्गों के स्त्रीपुरुष उनके निवास स्थान पर एकत्रित होने लगे को कुछ समय के लिए चौक मे रखा गया और वही पर सहस्रों नर-नारियों द्वारा उनको मन्तिम श्रद्धांजलि अर्पित की गई । ६ बजे उनकी शव यात्रा प्रारम्भ हुई। पंडित जी के पतिम दर्शनों के लिए हजारों स्त्रियां गलिया एव बाजारों की छतों पर एकत्रित हो गई और पडित जी की 'जय हो' पूज्य गुरु देव अमर रहे के नारों के मध्य सभी ने प्रश्रुपूरित नेत्रों से पुष्पाहार एव पुष्प वर्षा के साथ श्रद्धाजलि अर्पित की। शव यात्रा एक जुलूस में परि वर्तित होने के पश्चात् वह त्रिपोलिया बाजार चादपोल बाजार होती हुई श्मशान स्थल पहुंची। नागरिको की भीड़ एवं उनके दर्शनो की उत्कट अभिलाषा को देखते हुये पडित जी के पार्थिव शरीर को गाड़ी मे रखा गया मार्ग में जिसने भी पंडित जी की मृत्यु के बारे में सुना वही उनकी शव यात्रा के साथ हो गया । हजारों नर-नारियों के पोधों से पूरित नेत्रों के साथ एवं पंडित जी भ्रमर रहे के गगन भेदी नारों के मध्य उनके देह को चिता में रख दिया गया । और उनके छोटे भाई श्री कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने उसे अग्नि के लिए समर्पित कर दिया। सायंकाल ७ बजे महावीर भवन में श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी के प्रबन्ध कारिणी कमेटी की मीटिंग हुई उसमें पंडित जी साहब को श्रद्धांजलियां अर्पित की गई। इस अवसर पर क्षेत्र की ओर से पंडित चैनसुखदास स्मृति ग्रन्थ प्रकाशन की योजना स्वीकृत की गई। रात्रि को ७|| बजे दीवानजी के मन्दिर में राजस्थान जैन सभा के तत्वावधान मे जयपुर समाज की एक आम सभा श्री प्रकाशचन्द जी कासलीवाल की अध्यता में हुई । सभा में एक स्वर से पंडित जी के अधूरे कार्यों को पूरा करने का निश्चय किया गया । तथा उनके कार्यों के अनुरूप ही उनकी स्मति में एक स्मारक निर्माण करने की योजना पर भी विभिन्न वक्ताओ ने प्रकाश डाला इसके लिए २१ सदस्यों की एक समिति का गठन किया गया तथा डा० कस्तूरचन्द जी कासलीवाल को इसका सयोजक चुना गया। सभा में नगर के प्रमुख व्यक्तियो एवं विभिन्न संस्थाओं की ओर से पंडित जी को भाव भरे शब्दों में श्रद्धाजलि अर्पित की गई। इसमें श्री महावीर जी तो क्षेत्र कमेटी की ओर से श्री ज्ञानचन्द्र सिन्दूका, श्री पदम क्षेत्र एव जैन सयुक्त कालेज के मंत्री श्री भवरलाल पुरा न्यायनीर्थ, राजस्थान जैन सभा के अध्यक्ष श्री केशरलाल अजमेरा, राजस्थान जैन माहित्य परिषद् के अध्यक्ष डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, गाधी शान्ति प्रतिष्ठान की ओर से श्री पुरणचंद पाटनी, श्रमजीवी पत्रकार संघ की ओर से श्री प्रवीणचद छावडा, दिगम्बर जैन श्रौषधालय के मश्री श्री अनूपचद न्यायतीर्थ, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् के राजस्थान शाखा के अध्यक्ष श्री विरधीलाल सेठी, राजस्थान शिक्षासंघ के अध्यक्ष श्री माणिक्यचद जैन, भारत जैन महामंडल की राजस्थान शाखा के मंत्री डा० ताराचन्द्र वख्शी, श्वेताम्बर जैन समाज एवं अणुव्रत समिति की ओर से श्री पन्नालाल बांठियां, मुल्तान जैन समाज की ओर से भी नियापतराय, श्वेताम्बर जैन नव युवक मंडल के अध्यक्ष श्री तिलकराज, श्री महावीर दिगम्बर जैन हायर सेकेन्ड्री स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री तेजकरण डांडिया, बड़े दीवान जी के मन्दिर की शाखा सभा की ओर से श्री भंवरलाल पोल्याका, जैन (शेष पृष्ठ २८८ पर) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् महम् अनेकान सत्य, शान्ति और लोकहित का संदेश-वाहक नीति-विज्ञान-दर्शन-इतिहास-साहित्य-कला और समाज शास्त्र के प्रौढ़ विचारों से परिपूर्ण सचित्र 8 मासिक सम्पादक-महल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन प० परमानन्द शास्त्री २१वां वर्ष (मार्च १९६८ से फर्वरी १६६६ तक) (वि० स० २०२४ से २०२५ तक) प्रकाशक प्रेमचन्द जैन बी. ए. मंत्री वीरसेवामन्दिर २१ दरियागज, दिल्ली-६ फरवरी वार्षिक मूल्य छह रुपया [एक किरण का मूल्य एक रु० २५ पैसा १९६६ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के २१वें वर्ष की विषय-सूची ११४ १७० अग्रवालो का जैन संस्कृति में योगदान चिदात्म वंदना-मुनि पद्मनन्दि परमानन्द शास्त्री ४६, ६१, १८५ चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ-० नेमचन्द धन्नूसा जैन ८३ अछता समद्ध जैन साहित्य-निषभदास रांका १७४ चित्तोड का दि.जैन कीर्तिस्तम्भ-परमानन्द शा० १७९ अध्यात्म बत्तीसी-अगरचन्द नाहटा १७२ चित्तौड के जैन कीतिस्तम्भ का निर्माणकालअनुसन्धान के पालोक स्तम्भ-प्रो० प्रेम सुमन जैन २११ । श्री नीरज जैन १४६ अपनत्व-~-मुनि कन्हैयालाल जैनग्रन्थों में राष्ट्रकूटोंका इतिहास-रामवल्लभ अमर साहित्य-सेवी-५० कैलाशचन्द सि० शा० २०६। सोमाणी आगम और त्रिपिटकों के सन्दर्भ में अजातशत्रु कुणिक जैन समाज के भीष्म पितामह-डा. देवेन्द्रकुमार २१३ -सुनि श्री नगराज - जैन साहित्यकार का महाप्रयाण-पं० सरमनलाल प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार-डा. कस्तूरचन्द जैन दिवाकर २६२ जी कासलीवाल २७३ आधुनिक जैन युग के 'वीर' -श्रीमती विमला जैन २५६ जो कार्य उन्होंने अकेले किया वह बहुतो द्वारा सम्भव नही-डा. दरबारीलाल कोठिया २६३ इतिहास का एक युग समाप्त हो गया-ड० गोकुल चन्द जैन एम. ए. ज्ञानसागर को स्फुट रचनाएँ-डा० विद्याधर जोहरा पुरकर इतिहास के एक अध्याय का लोप-डा० भागचन्द टूड़े ग्राम का अज्ञात जैन पुरातत्त्व-प्रो० भागचन्द जैन 'भागेन्दु २७५ 'भागेन्दु' ६७ उपाध्याय मेघविजय के मेघ महोदय मे उल्लिखित दर्शन और ज्ञान के परिपेक्ष्य में स्याद्वाद और ___कतिपय अप्राप्त रचनाएँ-अगरचन्द नाहटा ३६ सापेक्षवाद-मुनि श्री नगराज उस मत्युञ्जय का महाप्रयाण-डा. ज्योतिप्रसाद दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग एक तुलनात्मक अध्ययन एम. ए. पी-एच डी. २२३ -पं० बालचन्द्र सि० शा० एक अपूरणीय क्षति-पन्नालाल साहित्याचार्य २५४ दिगम्बर परम्परा में प्राचार्य सिद्धसेन-१० ऐसे थे हमारे बाबूजी--विजयकुमार चौधरी एम.ए. २४६ कैलाशचन्द सिद्धान्त शास्त्री कतिपय श्रद्धाजलियां-विविध विद्वानों और देवागम स्तोत्र और उसका हिन्दी अनुवादप्रतिष्ठित व्यक्तियो द्वारा १९४-२०६६० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री कवि छीहल-परमानन्द शा० २२६ पं० चैनसुखदास जी न्यातीर्थ का स्वर्गवासकवि टेकचन्द रचित श्रेणिक चरित और पुण्याश्रव डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल कथाकोष-अगरचन्द नाहटा १३४ पं० भगवती दास का ज्योतिषसार - डा० विद्याधर कुलपाक के माणिक स्वामी-डा० विद्याधर जोहरा पुरकर __ जोहरा पुरकर ३३ पारस्परिक विभेद मे अभेद की रेखाएं-साध्वी कुलपाक के माणिक स्वामी-4० के० भुजबली शा. १३१ कनक कुमारी क्या कभी किसी का गर्व स्थिर रहा है १३ पिण्ड शुद्धि के अन्तर्गत उद्दिष्ट,आहार पर विचार गुणों की इज्जत पं० बालचन्द सि. शा. २२६ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के २१वें वर्ष की विषय-सूची २८७ २६६ २१५ प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता नेमिचन्द्र का समय-५० निधन पर शोक सभा २८० मिलापचन्द्र कटारिया २३ व्याप्ति अथवा अविनाभाव के मूल स्थान की खोज भ० शभकीति मौर शान्तिनाथ चरित-परमानन्द -५० दरबारीलाल कोठिया शास्त्री १० शुभचन्द्र का प्राकृत लक्षण एक विश्लेषण-डा० भावभीनी सुमनांजलि--बा० कपूरचन्द बरैया नेमिचन्द शास्त्री एम. ए. डी. लिट् १६४ एम. ए. २७७ श्रद्धांजलि (परिशिष्ट)-डा० दरबारीलाल कोठिया २७७ मथुरा के सेठ लक्ष्मीचन्द सम्बन्धी विशेष जानकारी दौलतरार मित्र २७८ -अगरचन्द नाहटा दो श्रद्धाजलिया-प्रेमचन्द जैन २८३ महान् साहित्सेवी मोतीलाल जैन-विजय एम. ए. श्री जुगलकिशोर जी 'युगवीर' (कविता)-मा० वी. एड. २५६ रामकुमार एम. ए. महावीर कल्याण केन्द्र-चिमनलाल चकुभाई शाह १८३ श्रीपुर क्षेत्र के निर्माता राजा श्रीपाल ईलमहावीर का मार्ग-मोहिनी सिघवी नेमचन्द धन्नूसा जैन १६२ महावीर वाणी-कवि दौलतराम श्री मुख्तार साहब अजमेर मे-फतेहचन्द मेठी २८२ मानव जातियो का देवीकरण-साध्वी सघमित्रा १४ सस्कृत से अरुचि क्यों ?-40 गोपीलाल अमर मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व एम. ए. परमानन्द शास्त्री सस्मरण (परिशिष्ट) १-३-दौलतराम मित्र २७० मुख्तार सा० की बहुमुखी प्रतिभा-५० बालचन्द्र सि० शास्त्री २२७ सत्यान्वेषी श्री युगवीर-कस्तूरचन्द एम.ए. बी. एड. २६७ यशस्तिलक का सास्कृतिक अध्ययन-डा० समीचीन धर्मशास्त्र-चम्पालाल सिघई पुरदर एम.ए. २५१ गोकुलचन्द एम. ए. २ सरस्वति पुत्र मुख्तार सा०-५० मिलापचद रतनयुग युग तक युग गायेगा युगवीर कहानी (कविता) लाल कटारिया २३६ --५० जयन्तीप्रसाद शास्त्री २७६ साहित्य गगन का एक नक्षत्र अस्त-प० बलभद्र जैन २६८ 'युगवीर' का राष्ट्रीय दृष्टिकोण-जीवनलाल जैन साहित्यजगत के कीर्तिमान नक्षत्र तुम्हे शतश: प्रणाम बी. ए. बी. एड. (कविता)-अनूप चन्द न्यायतीर्थ २४८ युगवीर के जीवन का भव्य अन्त-डा. श्रीचन्द साहित्य तपस्वी स्व० मुख्तार सा०-अगरचन्द नाहटा २३५ जैन 'सगल' २४३ साहित्य सगोष्ठी विवरण १४४ युगपरिवर्तक पीढी की अन्तिम कड़ी थे युगवीर साहित्य-ममीक्षा-परमानन्द शास्त्री ४७, ६५ श्री नीरज जैन २६७ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शा० बालचद शा० १६० राजपूतकालिक मालवा का जैन पुरातत्त्व-तेजसिंह सीयाचरिउ एक अध्ययन-परमानन्द शा. १३७ गौड़ एम. ए., बी. एड. ३५ सुख का स्थान-परमनन्द शास्त्री वह युग-सृष्टा सन्त (गद्य गीत)-मनु ज्ञानार्थी २३२ सोना गिर सिद्धक्षेत्र और तत्सम्बन्धि साहित्यबिहारी सतसई की एक अज्ञात जैन भाषा टीका ___डा० नेमिचन्द शास्त्री -अगरचन्द नाहटा १६८ स्वर्गीय पं० जुगलकिशोरजी-डा. ए. एन. उपाध्ये वीर जिन-स्तवन-पं० जुगलकिशोर मुख्तार १६३ एम. ए. डी. लिट् २५८ वीरसेवामन्दिर में श्री जुगलकिशोर मु० सा० के स्वयंभू स्तुति-पयनन्द्याचार्य १६७, १४५ 2mm Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अनेकान्त (पृ० २८४ का शेषांस) संस्कृत कालेज के छात्रावास की मोर से श्री ज्ञानचंद्र वाराणसी चले गये और वहाँ स्याद्वाद महाविद्यालय में ध्रुवकर, शोध छात्रों और महिलाओं की ओर से सुधी अध्ययन करते हुए बगाल संस्कृत एसोसियेशन की न्यायशान्ति जैन, राजस्थान विश्व विद्यालय के विज्ञान विभाग तीर्थ की परीक्षा पास की। के डा. श्री गोपीचंद पाटनी, इसके अतिरिक्त श्री अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् माप पुनः अपने सुधाकर शास्त्री, कपूरचंद पाटनी, केवलचंद टोलिया, गांव लौट आये और जैन विद्यालय कुचामन के प्रधानाश्री रूपचंद सौगानी, श्री बासूलाल छावडा, श्री गुलाबचंद दर्शनाचार्य, श्री केशरलाल शास्त्री, बुद्धि प्रकाश भास्कर, ध्यापक पद पर नियुक्त हुए । सन् १९३१ में माप दि. जैन संस्कृत कालेज के प्रधानाचार्य बन कर जयपुर पाये श्री सुभद्र कुमार पाटनी, बाबा गोविन्ददास, मास्टर । और ३८ वर्ष तक इस महत्वपूर्ण पद पर रहकर आपने बद्रीनारायण, एवं प्रेमचंद रांबंका आदि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। सभा की संयोजना श्री ताराचन्द्र साह संस्कृत शिक्षा जगत की महान सेवा की। शिक्षा जगत में महत्वपूर्ण कार्यों के लिए आपको सन् १९६७ मे राष्ट्रपति ने की। सभा में एक शोक प्रस्ताव पारित हुमा और सभी ने पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पंडित साहब पत्रकार लेखक एव वक्ता सभी थे। पाप पहले जैन बन्धु और खडे होकर पंडित जी की आत्मा के लिए शान्ति लाभ की कामना की। गत २० वर्षो से वीर वाणी पत्रिका के सम्पादक रहे । पंडित चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ का जीवन परिचय : अापने जैन दर्शन सार षोडसकारण भावना, महंत प्रवचन, पंडित चैनसुखदास जी का जन्म जयपुर जिला के प्रवचन प्रकाशन आदि बहुमूल्य कृतिया साहित्य जगत को भेट की। अंतर्गत भादवा ग्राम मे माघ कृण्ण १५ स० १९५६ : २२ जनवरी १८९८ : को एक जैन परिवार मे हुआ । जब पंडित जी एक सेवा भावी विद्वान थे। नगर एव तीन वर्ष के ही थे कि पक्षाघात की बीमारी से एक पर देश के विद्यार्थी वर्ग उनसे बराबर लाभ लिया करते थे। से लाचार हो गये । गाव में ही प्रारम्भिक शिक्षा पश्चात् आपके निधन से एक ऐसी क्षति हुई है जिसकी निकट संस्कृत प्राकृत की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए भविष्य मे पूर्ति होना संभव नहीं है । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायता २१) बा. निर्मलकुमार जी कलकत्ता सुपुत्र बा. नन्द- ५) सुश्री मनोरमा सेठी और कैलाशचन्द शाह मांडलग लाल जी सरावगी यात्रा से वापिस लौटते समय सधन्य- के विवाहोपलक्ष मे धन्यवाद सहित प्राप्त । वाद प्राप्त । ७) श्री नथमल जी सेठो कलकत्ता ने चि० पुत्र महाचि० कुमारी ऊषा रानी (सुशीला ला० प्रजितप्रसाद वीर कुमार और सुश्री कुमारी सन्तोष सुपुत्री शाह नेमीचन्द जैन भूतपूर्व एक्जीक्यूटिव इन्जीनियर दिल्ली नगर निगम) जी पाण्डया के पाणिग्रहण सस्कारके समय निकाले दान में का पाणिग्रहण संस्कार श्री विनोदकुमार जैन (सुपुत्र ला० से सधन्यवाद प्राप्त किये। चम्पालाल जैन, मैसर्स चम्पालाल प्रेमचन्द जैन नया वास ७) वृद्धिचन्द जी रारा. रिटा० टेली अकाउन्ट २६८ देहली) के साथ ११ मार्च सन् १९६६ को जैन विधि से जयावास अजमेर ने अपने जन्मदिवस के उपलक्ष में ससम्पन्न हुमा । इस शुभ अवसर पर वर-वधु दोनों पक्षो से धन्यवाद प्रदान किये । ७०१) का दान निकाला गया जिसमे से २१) रु० अने ध्यस्थापक कान्त को सधन्यवाद प्राप्त हुए। 'प्रनेकान्त' वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जो सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार जैन, ट्रस्ट १५०) श्री जगमोहन जी सरवगो, कलकत्ता श्री साहू शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता १५०) ,, कस्तूरचन्द जी मानन्दीलाल जो कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता | १५०) , कन्हयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५.०) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) , मालीराम जो सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा. बा. हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१ श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडघा), कलकत्ता १५०) , सुरेन्द्रनाथ जो नरेन्द्रनाय जो कलकत्ता २५१) श्री स. सि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , मारवाड़ी वि० जैन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ो मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) ,, सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज विल्ली स्वस्तिक मेटल बस, जगाधरी २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद १०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजन्सी, २५०) श्री जगमन्दिरबास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या अमरोतलया १२५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. पार० सी०जन, कलकत्ता १००) ,बद्रीप्रसाद जी पात्माराम सी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००), रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) भी बजरंगलाल जीवनकुमार जी, कलकत्ता १००), जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या इम्बोर Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के पयोगी प्रकाशन R.N. 10591/62 (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूर्ल-पन्यों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी मनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी को गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साहज, सजिल्द १५.०० (२) प्रा त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से मुक्त, सजिस्व। ... (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महन्द की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २-०. (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद मौर बी. जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर माध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५. (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुबाद नही हुना था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द। ... .७५ (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुरिंत्रशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वीं शताब्दी को रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । . ३-०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह. उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीक' सहित ४-०० (१२) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ। १.२५ (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ ·१६ पैसे, १६ समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ से, (१७) महावीर पूजा २५ (१८) अध्यात्म रहस्य-पं० प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१९) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मंग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंको प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । "५५ प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु० ७.०० (२१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-सघ प्रकाशन ५-०० (२२) कसायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी । सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... ... २०.०० (२३) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में मनूषाद बड़े प्राकार के ३००१. पक्की जिल्द ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रिता ... २५ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- _