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श्री जुगलकिशोर जी "युगवीर"
रामकुमार जैन एम. ए., बी. टी. साहित्याचार्य युगवीर ! युग युग अमर है जग में तुम्हारी साधना ॥ है अमर "मेरी भावना" में, शुभ तुम्हारी भावना ।।
+ + + तज कर वकालत क्यों भला साहित्य सेवा भा गई। कंचन-गली में, यह अकिंचनता-छटा क्यों छा गई । सेवा के सरसिज खिल गये, सरसावा-सर सरसा गया। एकान्त दृढ़ संकल्प में भी, 'अनेकान्त' समा गया । छोड़ा न तुमने सत्य-पथ, सह कर हजारों यातना ।
युगवीर ! युग युग अमर है जग में तुम्हारी साधना ॥ कितने निकाले रत्न थे, इतिहास-रत्नागार से । है "बोर-मन्दिर" सज रहा, अब भी उसी श्रृंगार से ।। निर्भीक अपनी घोषणा का पांखरव करते रहे। जो सत्यपथ समझा उसी पर निडर हो बढ़ते रहे ॥ हे तर्क पंचानन ! तुम्हारा कौन करता सामना। युगवीर ! युग युग अमर है जग में तुम्हारी साधना ।।
साहित्यसेवी, दीर्घजीवी और मन से विमल थे। कर्तव्य में पवि, स्नेह-सौरभपूर्ण कोमल कमल थे ॥ थी रम्य सम्पादन कला, शतशः निबन्ध लिखे गये । मानस-जलधि से निकलते थे नित्य रत्न नये नये ॥ जो कर्मवीर, उसे भला क्या मानना, अवमानना । युगवीर ! युग युग अमर है जग में तुम्हारी साधना ॥
अन्तिम समय भी बन गये तुम दानवीर महामना । अपने कमाये द्रव्य से कर ट्रस्ट की शुभ स्थापना । होकर वियुक्त चले गये हो यदपि भौतिक देह से। लेकिन मनीषी-मानसों में अमर हो बहु स्नेह से । हम करेंगे उस कार्य को, जो थी तुम्हारी कामना। युगवीर ! युग युग अमर है, जग में तुम्हारी साधना ॥