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________________ जो कार्य उन्होंने अकेले किया वह बहतों द्वारा सम्भव नहीं २६५ लेख मुझे स्वयं श्रीहीन प्रतीत होने लगे थे। यह सम्पादन पूज्यपाद उपासकाचार आदि कितने ही ग्रन्थों की परीक्षा वे प्रत्येक लेख मे किया करते थे और तभी वे उसे अने- करके मुख्तार साहब ने इन ग्रन्थों की पोल खोली तथा कान्त के योग्य समझते थे। यही कारण है कि उनकी अमूढदृष्टि अङ्ग का प्रचार किया। मुख्तार साहब की सम्पादकीय टिप्पणियां कभी-कभी लेख से बडी और इन परीक्षायों से बल पाकर पं० परमेष्ठीदास जी न्यायप्राकर्पक होती थी। वस्तुत: उन जैसा सम्पादक दुर्लभ है। तीर्थ ने भी चर्चा सागर जैसे ग्रन्थों की समीक्षा का साहस किया, जिसे उन्होने हाल के पत्र में स्वयं स्वीकार शोध-खोज की कोई नयी बात जब उनके सामने लाई किया है। जाती थी तो वे बड़े प्रसन्न होते थे। यथार्थ में उनका मार्च १९५० मे एक बात को लेकर वीर सेवा समग्र जीवन शोध-खोज में रत रहा। अनेकान्त की फाइलों मन्दिर मे अलग हो गया था। पर मैं उसके बाद भी को उठाकर देखे तो यही सब उनमे भरा हुया है। चाहे उनके कार्यो का सदा प्रशसक रहा तथा वे मेरे स्वाभिमान कोई नया स्तोत्र मिला हो, या किसी नये ग्रन्थ की उप एव खरेपन को जानते रहे। तथा मुझे पूज्य मुनि श्री लब्धि हुई हो या नये प्राचार्य का परिचय प्राप्त हुमा हो समन्तभद्र जी के पास कुम्भोज बाहुबली ले गये और या कोई नयी बात मिली हो, यह सब वे अनेकान्त में देते थे। ग्रन्थों की प्रस्तावनामों मे भी वही शोधात्मक प्रवृत्ति वहाँ से पाकर उन्होने जुलाई १९६० मे अपना धर्म पुत्र बनाया । यद्यपि बीच बीच मे कभी पत्र व्यवहार द्वारा दिखायी देती है। विद्वान् पात्र स्वामी को ही विद्यानन्द कटुता भी पायी, परन्तु मेरी उनके प्रति श्रद्धा और समझते थे, परन्तु मुख्तार साहब ने अकाटच प्रमाणो द्वारा उनका मेरे प्रति आकर्षण बने रहे। फलतः बाराणसी यह प्रकट किया कि दोनों प्राचार्य भिन्न है, दोनो की पाने पर भी वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट का मत्रित्व १९६० से रचनाएँ भिन्न है और दोनों का समय भी भिन्न है मुझ पर ही रहा और समाधिमरणोत्साह दीपक, दोनों में लगभग दो सौ ढाई सौ वर्ष का अन्तर है। पात्र युगवीरनिबन्धावली (१-२ भाग), तत्त्वानुशासन और स्वामी ६-७वी शताब्दी के विद्वान् है और विद्यानन्द हवीं प्राप्तमीमासा ग्रन्थ ट्रस्ट के द्वारा प्रकाशित किये गये तथा शती के । पंचाध्यायी का कर्ता अमृतचन्द्र को माना जाता मत्री की हैसियत से मै उनका प्रकाशक रहा । मुझे और था, किन्तु मुख्तार साहब ने पुष्ट प्रमाणो द्वारा सिद्ध अन्य पाठ ट्रस्टियों को जो अपने ट्रस्ट का कार्य विधिवत् किया कि पंचाध्यायी के कर्ता प० राजमल जी है, जिन्होने उन्होंने सौपा है उसमे उनके उन उद्गारो के विश्वास की लाटीसहिता आदि ग्रन्थ रचे है। स्वामी समन्तभद्र को सम्पुष्टि होती है जो वीर सेवा मन्दिर मे मेरे पहुँचने पर विद्वान् और समाज नहीं के बराबर जानते थे, पर मुख्तार उन्होने अपने 'वसीयतनामा' की रजिस्ट्री करने के लिए साहब ने विपुल प्रमाणो को एकत्रित कर उनके गौरव को सहारनपुर जाते समय कहे थे । प्राशा है उसके विश्वास जैसा बढ़ाया है वह सर्व विदित है। 'स्वामी समन्तभद्र' मे को हम लोग अवश्य निभा सकेंगे। उन्होंने प्राचार्य समन्तभद्र का ही परिचय प्रस्तुत नही वीसवी सदी का यह साहित्य स्वयम्भू, अनुसन्धान किया, अपितु कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छ, पूज्यपाद, प्रादि दर्जनों प्रवृत्तिका प्रेग्क, लेखनी का धनी, जन जागरण का अग्रप्राचार्यो-ग्रन्थ लेखको को प्रकाश में लाया गया और समाज दूत, निष्पक्ष समालोचक, निर्भीक पत्रकार, साहसी ग्रन्थ को उनसे परिचित कराया है। समीक्षक, जैनाचार्यों के इतिहास का निर्माता, समन्तभद्र ग्रन्थ-परीक्षाएँ लिखकर तो उन्होने बड़े साहस और का अनन्य भक्त क्षौर जिनवाणी का परम साधक २२ दृढता का कार्य किया है। बड़े-बडे प्राचार्यों या जिनवाणी दिसम्बर १६६८ को सदा के लिए हम लोगो से विमुक्त के नाम पर लिखे गये उमास्वामि श्रावकाचार, कुन्दकुन्द हो गया। उन्हें हमारा श्रद्धापूर्ण एव परोक्ष शत-शत श्रावकाचार, जिनसेन त्रिवर्णाचार, अकलङ्क प्रतिष्ठा पाठ, वन्दन और प्रणाम
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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