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अनेकान्त
ने उठाया था और उसके लिए उन्हें जानकी जोखम, साहित्य साधनाका मुझ पर प्रमिट प्रसर हुमा । सुहवर पं० तिरस्कार, बहिष्कार प्रादि के कष्ट उठाने पडे । उनके परमानन्द जी और बा. जय भगवान जी वकील वीरसेवा इस कार्य का खूब विरोष हुमा । किन्तु उनके समधी बा० मन्दिर में साहित्य-सेवा कर रहे थे। बा. जयभगवान जी जानचन्द जी जैनी लाहौर और मुख्तार साहब ने उक्त तो मुझसे कुछ माह पूर्व ही पहुंचे थे। किन्तु पं० परमाविरोध के बावजद खब समर्थन किया। फलतः छापे का नन्द जी कई वर्ष से काम कर रहे थे। मेरे और बा. विरोध कम हया, जिसके कारण कितने ही ग्रन्थो का जय भगवान जी के भी पहुँच जाने से मुख्तार साहब को प्रकाशन हो सका। अाज तो विरोध का नामोनिशान
जो प्रसन्नता हुई थी उसे उन्होंने अनेकान्त वर्ष ५ किरण भी दिखाई नही देता । अनेक ग्रन्थ मालाएँ संस्थापित हो १-२ के टाइटिल पृ. ४ पर 'वीरसेवामन्दिर को दो गयी और धवला, जयघवला, महाधवला जैसे सिद्धान्त विद्वानों की सम्प्राप्ति' शीर्षक से व्यक्त करते हुए लिखा ग्रन्थों का भी प्रकाशन हो सका है। मुख्तार साहब ने स्वयं था-.....'पाप ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम (जंन गुरुकुल) अपना समन्तभद्राश्रम और उसके बाद उसके असफल
मथुरा को स्तीफा देकर प्रातःकाल २४ अप्रेल को उस होने पर बीर सेवा मन्दिर की स्थापना की थी।
समय वीरसेवामन्दिर में पधारे जब कि मैं 'वीरसेवामन्दिर ___ मुख्तार साहब में समाज और साहित्य सेवा की दस्ट' की योजना को लिए हुए अपना 'वसीयतनामा' कितनी तीव्र लगन थी कि उसके लिए उन्होने १२ फर- रजिस्ट्री कराने के लिए सहारनपुर जा रहा था और इससे वरी १९१४ को अपनी चलती मुख्तारकारो की प्रधान मने बड़ी प्रसन्नता हुई।' उस समय वीरसेवामन्दिर मे प्राजीविका को छोड़ दिया । बा० सूरज भान जी का जब 'जैन-लक्षणावली' और 'पुरातन-वाक्य-सूची' (प्राकृत उनके मुख्तारकारी छोड देने का पता चला तो उन्होंने पद्यानुक्रमणी) का कार्य चल रहा था । मुझे भी यही कार्य भी उमी दिन अपनी भरपूर आमदनी वाली वकालत को दिया गया। इन दोनो कार्यों के अतिरिक्त 'अनेकान्त' त्याग दिया और दोनों समाजसेवी महापुरुष समाज और मामिक का भी कार्य चलता था। अनेकान्त शोध-खोज की साहित्य की सेवा में कृद पडे । बा० सूरजभान जी तो प्रवृत्तियों का माध्यम था और उसकी अोर विद्वानो तथा जीवन के अन्तिम वर्षों में समाज के व्यवहार से उमसे समाज का विशिष्ट आकर्षण था। उदासीन हो गये थे । परन्तु मुख्तार साहब रुग्ण शय्या
मुगतार साहब उस कुशल शिल्पी के समान दक्ष पर पड़े-पड़े मत्यू से जझते हुए भी श्रुत-सेवा में सलग्न सम्पादक थे, जिसके समक्ष सब तरह पाषाण-शकल पड़ रहे। कल्याण कल्पद्रुम, प्राप्तमीमासा, योगसार प्राभृत
रहते है और जिन्हे पैनी छैनी द्वारा तरास-तरास कर कई कृतियाँ रुग्ण शय्या पर ही तैयार की गयी। योगसार
सुन्दर एवं मनोजमूर्ति के रूप मे ढाल लेता है। मुख्तार प्राभूत तो उनके जीवन के अन्तिम क्षणो, ३० नवम्बर
साहब भी प्राप्त लेखों को अपनी पैनी दृष्टि से काट-छाँट, १९६८ को जब उनका अखिल भा० दि० जैन विद्वत्परि
उचित, शब्द-विन्यास, पुष्ट तर्क और अर्थ गाम्भीर्य की षद् की ओर से उनके निवास स्थान एटा मे अभिनन्दन
प्राभनन्दन पट देकर उन्हे उत्तम लेख बना लेते थे। मै अपनी बात हो रहा था, प्रकाश में आया। ऐसा साहित्य तपस्वी कहता है। वीर सेवामन्दिर मे पहुँचने से पूर्व भी मै 'जैन समाज मे अन्य दिखायी नहीं देता।
मित्र', 'वीर' आदि पत्रों मे लेख लिखता रहता था। पर यों तो सन् १९३७ से ही पत्र व्यवहारादि द्वारा उनके जब वहाँ पहुँचा तो मुख्तार साहब की प्रेरणा से 'परीक्षा सम्पर्क में आ गया था और उन्हें व उनकी सेवाग्रो से मुख और उसका उद्गम' (अनेकान्त ५, ३-४), तत्त्वार्थ परिचित होने लगा था। पर २४ अप्रेल १९४२ में जब सूत्र का मङ्गलाचरण (अने० ५, ६-७), 'समन्तभद्र और नियुक्त होकर वीर सेवा मन्दिर मे पहुँचा और लगभग । दिग्नाग मैं पूर्ववर्ती कौन' (अने० ५, १२) जैसे शोधात्मक उनके तत्त्वावधान में पाठ वर्ष साहित्य सेवा करने का अव- लेख लिखे, जो उसी वर्ष लिखे गये । इन लेखों में मुख्तार सर मिला तो उनकी शोध-खोज की गहरी पैठ और अटूट साहब ने जो परिमार्जन किया उसके सामने मेरे पूर्व के