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________________ अनेकान्त उसमे अपनी कलम चलाकर उस विषय का रहस्योद्घाटन अपने अन्तिम जीवन मे वह भाष्यकार बन गये थे। करके ही पीछा छोड़ा। यह सचमुच लेखनी के धनी थे। 'योगसार प्राभूत' यह उनकी अन्तिम कृति है। प्राचार्य बहत कम विद्वान ऐसे होते है जो साहित्य के गद्य और समन्तभद्र के वे परमभक्त थे और यह चाहते थे कि दिल्ली पद्य दोनों में समान अधिकार रखते है। किन्तु मुख्तार जैसे स्थानमे 'समन्तभद्राश्रम' की स्थापना हो। इसके लिए सा० की यह विशेषता उनके ग्रन्थो में भली प्रकार परि वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को भी तत्पर थे किन्तु लक्षित होती है । 'युगवीर निबन्धावली' और 'ग्रन्थ परीक्षा' उनकी यह सद्भिलाषा कार्यान्वित न हो पाई और ६२ वर्ष जहाँ उनके गद्य अधिकार को प्रकट करते है वहाँ 'युग- की पाय पाकर एटा' में दि० २२-१२-६८ को उनका वीर भारती' से उनकी काव्य कुशलता का भरपूर परिचय निधन हो गया । जिस व्यक्ति ने समाज से कुछ न लिया भी प्राप्त हो जाता है। 'मेरी भावना' का सूजन करके नलकी मान भी कर बनाकर ममाज और तो वह काव्य क्षेत्र मे अमर हो गये। यह उनकी ख्याति धर्म की अनन्य निष्ठा से एक अविचल योगी की तरह प्राप्त और मौलिक रचना है जो लाखो की संख्या में जीवनपर्यन्त सेवा की, उसका समाज से उठ जाना एक वितीर्ण होकर लोगो के हृदय का कण्ठहार बन चुकी है। ऐसी क्षति है जिसकी पति निकट भविष्य मे असम्भव नही इस गीत का 'राष्ट्रीय गान' के रूप मे उदित होना इसकी तो कठिन अवश्य है। सर्वोत्कृष्ट प्रसिद्धि का परिचायक है, फिर भी इस दिशा में बहुत कुछ प्रयत्न होना शेष है। 'मंगल प्रभात' से हमारा भावना है कि 'बीर सवा मन्दिर' में प्रत्येक भारतीय उसे कण्ठस्थ करे, यह 'मेरी भावना' कार्योके ही अनुरूप एक प्रस्तर या धातुकी प्रतिमा स्थापित की जाय, साथ ही उसे एक शोध संस्थान का रूप दिया जाय, इसी प्राशय के साथ हम स्वर्गस्थ आत्मा के प्रति पडित जी जैन इतिहास के अपर्व विद्वान रहे है। इसमे अपनी भावभीनी सुमनाजिलि अर्पित करते है । सन्देह नही कि उन्होने जैनाचार्य और उनकी कृतियो के सम्बन्ध में अपने शोध प्रबन्धो द्वारा लम्बे अर्से से चली आ रहे कितनी ही भूल-भ्रान्तियो का निरमन किया। या विद्या- पालतर नन्द और पात्रकेसरी की भिन्नता दिखाकर प्रसिद्ध 'पञ्चा- ता. २२-१३-६६ को आपका ६२ वर्ष की उम्र में ध्यायो ग्रन्थ को प० राजमल्ल विरचित बतलाकर प्राचार्य एटा मे आपके भतीजे डा० श्री चद जी सिंघल के पास सिद्धमेन को दिगम्बर ग्राम्नाय का घोपित कर अपने ऐति- देहावसान हो गया । आप बेजोड विद्वान् थे । गहरे, ऊँच, हासिक पर्यवेक्षण का अदभुत परिचय दिया। 'वीरशासन स्वतत्र, निर्भीक विचारक थे। मेरा आपके साथ पत्र जयन्ती' को प्राचीन ग्रन्थों के प्राचार से ढूंढ़ निकालना, व्यवहार तो लबे समय से था, परन्तु साक्षात्कार तो सिर्फ वह उनकी ही सूझ-बूझ का परिणाम है। भद्रारक नाम- एक बार अभी पिछले दिनो जब वे इन्दौर आये थे, तब घारी अनेक ग्रन्थो की कृत्रिमता प्राशन करके उन्होने हुआ था। पापका वियोग खटक रहा है । यही मेरी प्राप दिगम्बर परमरा की रक्षा का जो सुदृढ प्रयत्न किया वह के प्रति श्रद्धाजलि है। मै श्री डा० श्रीचन्द जी को धन्यजैनसमाज में युग-युगो तक चिरस्मरणीय रहेगा। वाद देता है कि उन्होने आपकी पर्यात सेवा सुश्रुषा की। "मर गये जग में मनुष्य जो मर गये अपने लिए। वे अमर जग में हुए जो मर गये जग के लिए । जो उपजता सो विनशता यह जगत व्यवहार है। पर वेश-जाति-धर्म हित मरना उसी का सार है।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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