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किया। जो कि जैन सिद्धान्तों प्रकरण सगत (भावानुसार) लत नहीं है। शब्दार्थ
संस्मरण दौलतराम 'मित्र'
शब्दो मे कहे तो-"ऐसी संघव्य दशा से वैधव्य दशा मंने उनसे पत्र व्यवहार द्वारा कुछ बातें सीखो उनमे क्या बुरी?" मे एक यह है
मेरे उक्त प्रारोप पर मुख्तार सा० ने मुझे लिखाएक बार मेने पं. पाशाधर जी पर यह पारोप सिखाया-कि आपका पारोप समुचित नही है। शब्दार्थ लगाया था कि उन्होने स्त्रियों के धर्म-कर्म के बारे मे 'मनु' प्रकरण सगत (भावानुसार) लगाना चाहिए। सागार के सिद्धान्तो का अनुकरण किया। जो कि जैन सिद्धान्तों धर्मामृत मे प्रकरण सम्यग्दृष्टि श्रावक का है। पाशासे मेल नहीं खाता है। जैन सिद्धान्त यह है कि जो प्राणी घर ने सम्यग्दृष्टि पती को लक्ष मे लेकर पत्नी को पति जैसा कर्म करेगा, उमे वैसा फल मिलेगा। शुभ कर्म का के विचार उच्चार प्राचार का अनुसरण करने की जो फल शभ और प्रशभ का अशुभ । ऐसा नहीं हो मकता सलाह दी है वह, पत्नी के लिए अहितकर कैसे हो सकती कि अशुभ कर्म का फल शुभ मिलेगा। किन्तु मनु-इसके है?-पाशा है आप मेरे विचार से सहमत हो जाएंगे। विपरीत कहते है
कितनी बढिया सीख है ! "नास्ति स्त्रीणां पुष यज्ञो न बतं नाप्य पोषितां । पति सुश्रयते येन रोन स्वर्गे महीयते ॥
(२) [मनुस्मृति ५-१५५]
एक कड़क संस्मरण बम इसी का अनुकरण प० प्रागाधर जी ने भी कर
ता०४-१-६४ को मुनि श्री विद्यानन्द जी ने एक डाला कहते है"नित्यं भत मनीभूय, बर्तितव्य कुलस्त्रिया।
पुस्तक-- दि. जैन साहित्य में विकार" लिखी जिसमे धर्मश्रीशर्मकोत्यककेतनं हि पतिव्रता: ॥"
मुख्तार साहब की लिखी रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका
पर कुछ प्राक्षेप है। उसके उत्तर में मुख्तार साहब ने इसकी संस्कृत टीका
"नये मुनि विद्यानन्द जी को सूझ बूझ" यह पुस्तक ता. "वर्तितव्य मनोवाक्कायकर्मभिराचरितव्य । कया, १३-७-६४ को लिखी जो कि सितबर १९६४ में प्रकाशित कुल स्त्रिया-कुलीन नार्या । किं कृत्वा, भर्तृ मनीभूय मभर्तृ- हुई। जिसमें मुनि जी का बहुत कुछ भला बुरा कहा मना भर्तृ मना भूत्वा पति चिन्तानुवर्तने नैव चिन्त्य वाच्य गया। इस पुस्तक की एक प्रति मेरे पास भी सम्मत्यर्थ चेष्टितव्यं च । कथ नित्य-सर्वदा । हि यस्मात् । भवन्ति ।
पाई थी। मैंने सम्मति में यह लिख भेजा कि- --मुनि श्री का: पतिव्रता: पति सेवेव व्रत प्रतिज्ञा शुभकामप्रवृत्ति
विद्यानन्द जी को और पाप की दोनो पुस्तके पढ़कर मुझे यासा ता इत्यर्थः।"
तो दुःख ही हुआ है । पहिले जब मैने मुनिजी की पुस्तक [शुभ कर्म पुण्य कर्म है है-भावपाहुड ८३ पौर पढी तभी मेरे मन में यह विचार पाया था कि मुनि जी पुण्य का फल स्वर्ग-परमात्मा प्रकाश १९८]
ने मुख्तार सा. की मालोचना करके नाहक बर्र के छत्ते प.प्राशाघर जी का यह-अनुकरण बेमेल नही तो मे हाथ डाला। क्या है ? क्योंकि यह व्रत के लक्षणो के विरुद्ध पड़ता है। मेरी इस सम्मति पर उन्हे कुछ बुरा लगा और उन्होंने
[देखो-सा. घ. २-८० तथा र. क. श्रा. ८६] मुझे लिखा कि-"आपने मुझे जिस रूप मे समझा, उसके
अब सोचिए कि यदि पति का अशुभ मन वचन काय लिए धन्यवाद !" तब मैंने उनसे माफी मांगी। जिसके की प्रवृति के अनुसार पत्नी प्रवृत्ति करे-याने पति यदि उत्तर मे मुख्तार साहब का एक लबा चौड़ा तीन पृष्ठ का कल प्रभक्ष भोजी हो जाय तो पत्नी भी प्रभक्ष भोजी हो पत्र नबर २१९२ ता. १८-११-६४ का इस विषय की जाना चाहिए। और उसका फल पत्नी को मिलेगा शुभ- अथ से इति तक की हकीकत वाला माया। जिसमें उन्होने पुण्य । भला यह भी कोई व्रत है। महात्मा गांधी जी के अपने को निर्दोष बताया। पौर चाहा कि-"पाप जैसे