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________________ अध्यातम बत्तीसी ज्यं दुतियां हटवा मिलकर, ज्यु पावें ज्यु जावेजी ॥७ तेरा है सो को नहीं जावें, तु अपणा यं खोवेबी। कोई लाभ गुणाचो बांधी, कोडी मूल गमा जी। वगडा था सो गया पुरानो, तू मूरख क्या रोजी ॥२३ ज्यु चेतन दुनियां हटवा, नफां जानें करावें जी ॥ तन पंजर बीच जीव पंखेरू, उडता उडता पापाजी। पासरा संसार बन्या घर, लख चौरासी माइं जी। पावत जावत कछु न देख्या, इसका खोज न पायाजी ॥२४ नाम करतो सब ही लागा, जीव बटाउ वासी जी ॥ ए ससार वाडि बिनसे, काल सरूपो मालोजी। लोही मांस का गारा बनाया, पत्थर हाड लगाया जी। काचा पाका ए सही तोडे, ज्यों दरखत को डालोजी ॥२५ उपर सावर चमरी साई नवे द्वार बसाया जी ॥१०।। ज्यौ सकरीजे प्रावे जावें, अंगरी दोर लपटावेजी। आयु करम ले घर का भाडा, दिन दिन मांगे लेखा जी। सहत लाख जोधा भुजबल, करते जंगी एकेलाजी। मोहत पाया फलक न रक्खे, एसा बड़ा अदेखा जो ॥११ ब्रह्मा विष्णु महेसर दान, काल सबक सरीखाजी ॥२७ सांझ सवेर अवेर न जाणे, न जाणे धूप वराषा जी।। तन धन जोवन मतवाला, गणत किसकी नाईजी। नाही नेह मुलाजा किसका, काल सबी कुं सरीखा जी ॥१२ जीव अविनासी फिर फिर प्रावें, करम सुजाई सगीजी। सजी तरपति भुपति काल प्रहें सबनाइजी ॥२८ जमी पर घर बनाया, प्रीत लगाई सगी जो ॥१३ तण पाटण बसे चेतन राजा, मन कोटवाल बैठायाजी। पाच गंगा सं एका करके, तण पाटण मुहायाजी ॥२६ इस घर मांहि प्राय बसे हो, सो घर नांहि तेरा जी। में करता मे कोनी केसी, प्रबजो कहो करोगाजी। ममा पाछे गाउँ जालें, अथवा नीर बहावे जी ॥१४ इस घर अंदर पाप बडेरा, सो घर नाहीं तेरा जी। मेरे मोत लगासा पोछ, न जण जीव नुगराजी ॥३० भली बरी तो जो कुछ करता, सोंही तमही कॅ वेगाजी। इसा इसा घर बहोत बनाया, राय चलवा डेराजी ॥१५ राह चलंतां रोगी समर, सोई साथ चलेगाजी ॥३१ जाया सो तो सबही जायगा, जगत जगत जीव बासीजी।। पावत जावत सास उसासा, करता गण अभ्यासाजी। अपनी खूब कमाई ना वरथी, जीव जावत संगत जासीजी।१६ जावत का कुछ अचरज नाही, जीवत का तमासाजी ॥३२ जैसे प्रागर नोबत बाजे, भिर बाजें सीजनाजो। इस पाया का लाहा लीजे, कोगे सुक्रत कमाईजी। असवारी सारी धूज चालें, सो नर कांहि समानाजी ॥१७ राजमल्ल कहें ध्यान बत्तीसी, सीध का सुमरण कोजेजी।३३ जीव अविनासी मरे न जावे, मर मर जाये सरीराजी। इसका धोखा कछू न करणा, अपना धरम सुधाराजी ॥१८ इति अध्यातम 'बत्तीसी सपूर्ण मरख कर कर मेरी मेरी, परसगत दुख पायाजी। परका संगत छोडे सुख पाया, जब समता पर पायाजी।१६ यह बत्तीसी पंचाध्यायी के कर्ता राजमल्ल कृति है पवन रूपो किया अंदर, हस रहया सब वासीजी। इसका लेखक ने कोई प्रमाण नहीं दिया, यह रचना घटिया पल पल मांहि प्रायु घटे सें, पाणी सीस पतासी जी ॥२० दर्जे की बहत साधारण है। यह उन प्रसिद्ध राजमल्ल नाती गोती सगा संबधी, सब स्वारथ में बूडाजी। की कृति नही है । किसी अन्य आधुनिक राजमल्ल की कृति स्वारथ बिनु सूके तरुवर ज्यों, पखी सब हो उडाजी ॥२१ होगी। कविता का भाषा साहित्य भी उस काल का नही नवा नबा तो जामा पेहणा, नव नवा घाट घडायाजी। है। और न भाषा में लालित्य है अतएव उन विद्वान राजतीन काल की तीन अवस्था, सोधे धूप फटायाजी ॥२२ मल्ल पाडे की कृति नहीं हो सकती। -सम्पादक जणा साधारण लोगों के सामने सच्चरित्रता का नमूना पेश करना शिक्षित लोगों का कर्तव्य है। वह मौखिक व्याख्यानों द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए उनको स्वय सच्चरित्र होना होगा और अपने जीवन द्वारा दूसरों को शिक्षा देनी होगी। -~-डा. राजेन्द्रप्रसाद
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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