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________________ देवगढ़ को जैन संस्कृति और परमानन्द जी बरया प्रो० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' एम. ए., शास्त्री देवगढ़ उत्तर प्रदेश में झांसी जिले की ललितपुर तह- रामदयाल पुजारी, पं० परमेष्ठीदास जी, बाबू हरिप्रसाद सोल में २४.३२ उत्तरी अक्षाश और ७८.१५ पूर्वी देशाश वकील, साह शान्तिप्रसाद जी, सिं० शिखरचन्द्र (वर्तमान पर स्थित जैनियों का एक महत्वपूर्ण तीर्थक्षेत्र तो है ही, मंत्री) तथा बाब विशनचन्द प्रोवरसियर आदि को तो है वैदिक कला का भी एक प्रसिद्ध और समृद्ध केन्द्र है। ही, इन सबके अतिरिक्त एक ऐसा भी व्यक्ति देवगढ़ की वेतवा नदी के किनारे विन्ध्याचल की एक सुरम्य श्रेणी जैन सस्कृति के पुनरुद्धार के साथ प्रारम्भ से ही संलग्न की उपत्यका में बसा हुआ, यह अब एक छोटा सा ग्राम है, जिसने अपना तन, मन और धन या दूसरे शब्दों मे मात्र अवशिष्ट है किन्तु प्राचीन काल में यह नगर अपनी यों कहिये-अपना समग्र जीवन देवगढ के उत्थान, विविध प्रकार की गतिविधियो के लिए विख्यात था। जीर्णोद्धार तथा प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया है-किन्तु उसके व्यक्तित्व और कृतित्व का समुचित यहाँ मौर्यकाल से मुगलकाल तक अनेक जैन मन्दिरों, मूल्याकन अब तक नहीं हो सका है। वह है-श्री परमामूर्तियों और मानस्तम्भो आदि का निर्माण होता रहा। नन्द जी बरया। कालान्तरमें वहुतसे मन्दिर धराशायी हो गये तथा मूर्तियों भी श्री बरया जी निश्छल, सरल, पवित्र हृदय, सेवाभग्न हुई, किन्तु फिर भी वहा ४० जैन मन्दिर और १८ भावी, स्नेही, शिक्षाप्रेमी, धार्मिक और विवेकसम्पन्न मानस्तम्भ तथा कई हजार खडित-अखडित मूर्तियां अबभी गृहस्थ है। बाह्याडम्बर, प्रदर्शन और आत्मख्यापन की भव्यता के साथ निदर्शित है। यद्यपि वहा की वैदिक कला प्रवृत्ति से वह सर्वथा दूर रहे है। प्राज लगभग ८० वर्ष का पर्याप्त परिचय पुरातत्व विभाग की विभिन्न रिपोर्टो की अवस्था में भी उनकी हिम्मत, दिलेरी, व्यावहारिकता तथा अन्य अनेक ग्रन्थो तथा अन्य स्रोतो द्वारा प्रकाश में कार्यक्षमता-कुशलता, अभियान्त्रिकी ज्ञान, मूर्तिज्ञान परिलाया जा चुका है। किन्तु देवगढ के जैन मन्दिरों मूर्तियों चय और अदम्य उत्साह देखकर "दातो तले अगुली दवातथा वहा वी समग्र जैन कला पर अब तक नगण्य जैसा कर" रह जाना पड़ता है। प्रस्तुत निबन्ध मे इन्ही श्री ही कार्य हो सका है। प्रस्तुत पंक्तियो के लेखक ने अनेक बरया जी के सक्षिप्त परिचय के साथ देवगढ़ के प्रति बार अनेक महीनो तक देवबढ में रहकर वहा की जैन उनके योगदान का सर्वेक्षण प्रस्तुत किया जा रहा है। संस्कृति और कला का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है उस सदर्भ में हमने यह निष्कर्ष भी निकाला है कि देवगढ की श्री बरया जी का जन्म-मगसिर (प्रगहन) सुदी जैन सस्कृति और कला की बहुमूल्य सामग्री को प्रकाश में एकम विक्रम सं० १६४६ को ललितपुर (झांसी) के एक लाने तथा सुरक्षित करने का श्रेय मुख्यतः सर्वश्री अलेक्- मध्यम श्रेणी के परिवार मे हुआ था। आपके पिता स्व. जेन्डर कनिंघम, फुहरर, दयाराम साहनी, विश्वम्भरदास श्री वसोरेलाल जी जैन, ललितपुर के प्रख्यात धनपति गार्गीय, नाथूराम सिंघई, राजधर मोदी जाखलौन, लाला सेठ मथुरादास पन्नालाल जी टडैया के यहा मुनीमी करते रूपचन्द रईस कानपुर, जुगमन्दिर लाल बैरिस्टर, देवी- थे। श्री बरया जी के एक बड़े भाई भी थे--(स्व०) सहाय जी फीरोजपुर, सेठ पन्नालाल टडया ललितपुर, श्री मुन्नालाल जी। श्री बरया जी की प्राथमिक एवं पूर्व सिंघई भगवानदास सर्राफ ललितपुर, सवाई सिंघई गनपत- माध्यमिक शिक्षा ललितपुर मे ही सम्पन्न हुई। जब लाल भैयालाल गुरहा खुरई, सेठ शिवप्रसाद जाखलौन, बरया जी प्राथमिक-परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, पापके
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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